रविवार, 25 दिसंबर 2011

हिन्दी का लेखक आर्थिक रूप से पिछड़ा है - अमरकांत



सुप्रसिद्ध कहानीकार अमरकांत जी से गणेश शंकर श्रीवास्तव की बातचीत


सवाल: आपकी पैदाईश कब और कहां हुई?


जवाब: मेरा जन्म एक जुलाई 1925 को पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित बलिया जिले के भगमलपुर गांव में हुआ।


सवाल: आपके साहित्य लेखन की शुरूआत कब और कहां से हुई ?


जवाब: 1948 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद आगरा से प्रकाशित होने वाले दैनिक अख़बार ‘सैनिक’ से मैंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत की। आगरा से ही प्रगतिशील लेखक संघ की सभा में अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ सुनाई, जिसमें बेरोजगार नौजवानों के इंटरव्यू का चित्रण था।



सवाल
: नए रचनाकार अपने साहित्यिक मूल्यों और उत्तरदायित्वों को लेकर कहां तक सचेत हैं?


जवाब: मूल्य भी अब वे मूल्य नहीं रहे, हर दौर में ऐसे लोग होते हैं जो नए तरीके से सोचते हैं। पहले के लोग जहां धार्मिक होते थे, वहीं आज के लोगों के जीवन में भौतिकता का समावेश है। आज के नौजवानों को हर हाल में एक नौकरी चाहिए। पचास के दशक में 100 रुपए की तनख्वाह मिलती थी और रोजमर्रा की ज़िन्दगी आसानी से चल जाया जाती थी, आज हजारो की तनख्वाह भी कम पड़ जाती है। पहले पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी अब वह कैरियर है।



सवाल
: पुरस्कार प्राप्त करने के बाद कैसा महसूस करते हैं?


जवाब:स्वाभाविक है कि अच्छा ही लगता है। जब किसी लोकप्रिय लेखक का पुरस्कार मिलता है तो उसके पाठक को यदि अच्छा लगता है तो यही लेखक की खुशी है। मुझे खुशी है कि मुझे पुरस्कार मिलने पर साहित्य जगत में इसका स्वागत किया जाता है।


सवाल
: हिन्दी कहानी और उर्दू कहानी में परस्पर कैसे संबंध है?


जवाब: दोनों में गहरा संबंध है। दरअसल, हिन्दी-उर्दू एक ही भाषा हैं, सिर्फ़ लिपि का अंतर है। प्रगतिशील लेखक संघ में तो हिन्दी-उर्दू के हमलोग एक साथ ही रहते थे। मेरी अनेक कहानियां उर्दू पत्रिकाओं में छपी हैं। इसी प्रकार उर्दू के कई कहानीकारों की कहानियां हिन्दी की पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। मंटो, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह वेदी हिन्दी में भी छपते हैं और पसंद किए जाते हैं। प्रलेस में ही बन्ने भाई सज्जाद ज़हीर जैसे तमाम लोगों से मिलने का अवसर मिला। दुनिया बहुत नजदीक हो गई है, फिर हिन्दी और उर्दू वाले तो सहोदर भाई हैं।



सवाल
: अपनी कहानियों में आपकी सबसे प्रिय कहानी कौन सी है?


जवाब: लेखक जब कहानी लिखता है तो वह उससे अलग हो जाती है। लेखक अपनी कहानी में अपनी भावनाओं को रखता है। कौन सी कहानी बेहतर है और कौन सी बेहतर नहीं है यह निर्धारित करना तो पाठक और आलोचक का काम है।लेखन को तो अपनी सभी कहानियां समान रूप से प्रिय होती हैं।



सवाल
: नई कहानी आंदोलन के दौर में आपका किन लोगों से जुड़ाव रहा?


जवाब: हम सभी लेखकों के एक दूसरे से आत्मीय संबंध थे। उस समय इलाहाबाद में कमलेश्वर, भौरो प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय,दुष्यंत कुमार आदि उर्दू-हिन्दी के लेखक एक ही मंच पर विराजमान होते थे। इस आंदोलन के दौर में हिन्दी-उर्दू के लोगों के मध्य खूब गहमा-गहमी थी। कमलेश्वर के साथ तो मेरे बड़े भावनापूर्ण संबंध थे, मैंने वागर्थ के लिए उन पर एक लेख लिखा था। जब मैं बीमार था तो कमलेश्वर मुझे देखने इलाहाबाद आए थे। कमेलश्वर ने साहित्यिक जीवन की शुरूआत यहीं से की , बाद में दिल्ली और मंुबई चले गए।


सवाल
: क्या मात्र मसिजीवी होकर एक अच्छा जीवन बिताया जा सकता है?


जवाब: आज के दौर में साहित्यिक स्वतंत्र लेखन संभव नहीं है। साहित्यिक लेखों का समय से पारिश्रमिक नहीं मिलता और न ही ठीक ढ़ंग से रॉयल्टी मिलती है, हिन्दी का लेखक आर्थिक रूप से पिछड़ा है, जबकि अंग्रेजी के लेखक की कमोवेश स्थिति बेहतर है। हिन्दी को हर जगह दबाया जाता है चाहे वह सरकार के स्तर पर हो या लोगों के। हिन्दी हर जगह उपेक्षा की शिकार है। फिर भी जिनकी आस्था है, रुचि है वे लिखेंगे ही तमाम कठिनाई और व्यवधानों के बावजूद।



सवाल
: एक अकादिमिक लेखक जैसे रीडर, प्रोफेसर आदि और विशुद्ध साहित्यिक लेखक की रचनात्मकता में क्या फ़र्क़ है?


जवाब: मैं नहीं समझता कि अकादमिक क्षेत्र या विशुद्ध साहित्यिक क्षेत्र में होने पर किसी व्यक्ति की रचनात्मकता में कोई विशेष अंतर आता है। यूनिवर्सिटी में होने से लेक्चरर से रीडर, प्रोफेसर के रूप में प्रमोशन तो होता है लेकिन मैं तो न रीडर रहा और न प्रोफेसर फिर भी मेरी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं हुई।



सवाल
: विगत वर्ष 2006 में, जनकवि कैलाश गौतम अचानक हमें छोड़कर चले गए, उनके साथ अपने संबंधों पर प्रकाश डालिए?


जवाब: कैलाश गौतम जितने अच्छे साहित्यकार थे, उतने ही भले व्यक्ति थे। मनोरमा में काम करते हुए गौतम से मेरे आत्मीय संबंध बने। वे एक अच्छे वक्ता और संचालक थे। वे साहित्य जगत की विभिन्न धाराओं में समन्वयकर्ता थे, गंगा-जमुनी तहजीब से पोषक थे। मैं जब भी बीमार रहता कैलाश मुझे देखने आते। एक बार मैं बहुत बीमार था तो उन्होंने ‘अमौसा का मेला’ सुनाकर मेरे में खुशी भर दी। वास्तव में मंत्री से संतरी तक लोकप्रिय थे।



सवाल
: पिछले कुछ वर्षों से स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की जो बहस चल रही है, इसको आप किस रूप में देखते हैं?


जवाब: स्वानुभूति जीवन का एक निजी अनुभव है, यह निश्चित रूप से जरूरी है लेकिन जब उसका चित्रण करें तो व्यापक सहानुभूति और संवदेना आवश्यक है, ताकि आप बिना दुर्भावना के लिख सकें। इन दोनों के अभाव में गंभीर साहित्य लेखन संभव नहीं। सफल संप्रेषणीयता के लिए व्यापक सहानुभूति एवं गहरी संवेदना होनी चाहिए।



सवाल
: नए रचनाकारों को क्या संदेश देंगे?


जवाब: नए लेखक खुद अपने से रास्ते बनाते हैं। यह ज़रूरी है कि वे साधारण लोगों के बीच रहें क्योंकि यह साधारण लोग ही होते हैं जो अनुभव जनित मुहावरे गढ़ते हैं। आप साहित्य की जिस विधा में जाएं उसके बारे में अधिक से अधिक पढ़े। देश-समाज का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। अपनी रचना पर बार-बार मेहनती करनी पड़ती है तभी वह अपना प्रायोजन पूरा कर पाएगी।


गुफ्तगू
के जनवरी-मार्च 2008 में प्रकाशित

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

उर्दू भाषा खड़ी बोली का निखरा हुआ रूप है-वसीम बरेलवी


प्रो0 वसीम बरेलवी उर्दू अदब का ऐसा नाम है, जिन्होंने शायरी को हिन्दुस्तान के कोने-कोने तक पहुंचाने के साथ ही दूसरे मुल्कों में भी उसकी रोशनी बहुत ही सलीक़े से पहुंचाई है। पिछले चार-पांच दशकों से वे सक्रिय हैं और शायरी को अपने हसीन ख़्यालों से लगातार नवाज़ रहे हैं। किसी भी मुशायरे में उनका शिरकत करना ही उस मुशायरे की कामयाबी का जमानत है। 18 फरवरी 1940 को बरेली में जन्मे श्री बरेलवी की अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें आंखो-आंखों रहे,मौसम अंदर बाहर के, तबस्सुमे-गुम, आंसू मेरे दामन तेरा, मिजाज़ और मेरा क्या आादि प्रमुख हैं। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे कई मसलों पर बात की-

सवालः ग़ज़ल को हिन्दी और उर्दू के रूप में परिभाषित किया जाना कितना उचित है?


जवाबः ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है, उस पर लेबल लगाना ठीक नहीं है। हां, जब तक ग़ज़ल कहने वाला उसकी रिवायत से परिचित न हो, तब तक ठीक ढंग से ग़ज़ल को निभा नहीं सकता।


सवालः दुष्यंत कुमार को हिन्दी का पहला ग़ज़लकार कहा जाता है, आप इससे सहमत हैं?


जवाब: अगर पहले शायर-कवि की बात की जाए तो हिन्दी और उर्दू दोनों के पहले शायर-कवि अमीर खुसरो हैं। दुष्यंत ने फार्मेट तो उर्दू वाला ही अख़्तियार किया, लेकिन मौजूआत उर्दू शायरों से थोड़ा हटकर चुना, जिसकी वजह से उन्हें हिन्दी ग़ज़लकार कहा जाने लगा, मगर असल में वो उर्दू शायरी के ही करीब रहे। हिन्दी भाषा के जानकारों ने ऐसी ग़ज़लें तब तक नहीं कही थीं या हिन्दी वाले ग़ज़ल नहीं कह रहे थे, इसलिए इन्हें पहला हिन्दी ग़ज़लकार कहके परिभाषित किया जाने लगा।


सवाल: वर्तमान मुशायरे के स्तर पर उठाया जा रहा है?


जवाब: इस तरह के सवाल हर दौर में उठाए जाते रहे हैं। मीर और ग़ालिब के दौर में भी ऐसी बातें होती रही हैं। आज के मुशायरों के हालात बिल्कुल अलग हैं। रिवायती शायरी अब मुशायरों से दूर होती जा रही है। मैगज़ीनों का भी यही हाल है। 80 से 90 फीसदी शायरी बकवास होती है। 10 से 20 फीसदी ही स्तरीय होती है। यही हाल मुशायरों का भी है। मगर इस 20 फीसदी शायरी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।


सवाल: फिल्मों में हिन्दी कवियों के मुकाबले उर्दू शायर ज़्यादा कामयाब हैं, ऐसा क्यों?


जवाब: उत्तर भारत में खड़ी बोली का इस्तेमाल होता है। उर्दू भाषा खड़ी बोली का निखरा हुआ रूप है, जिसे पहले हिन्दवी भी कहा जाता रहा है। उर्दू को लखनउ और दिल्ली के घरानों ने निखारा। इसके विपरीत हिन्दी भाषा संस्कृत के तत्सम और तत्भव से बनकर सामने आयी है, जो अपेक्षाकृत क्लिष्ट थी, जो आम आदमी की ज़बान पर आसानी चढ़ नहीं पायी। चूंकि उर्दू वालों ने खड़ी बोली को अपनाया, इसलिए यह आम आदमी की ज़बान बन गयी, खा़सतौर पर बोली के स्तर पर। इसके अलावा उर्दू शायरी लयबद्धता को निभाती रही है। जो म्यूजिक में ढलने के लिए ज़रूरी है। फिल्में आम बोलचाल की भाषा में बनती हैं। यही वजह है कि उर्दू शायर फिल्मों में अधिक कामयाब रहे हैं। ‘गुफ्तगू’ का एक बड़ा पाठक वर्ग सिर्फ़ इसलिए है कि देवनागरी में आप उर्दू पत्रिका निकाल रहे हैं, जिसको जानने और समझने वालों की तादाद सबसे अधिक है।


सवाल: टीवी चैनलों के चकाचौंध का अदब पर क्या असर पड़ा है?


जवाब: अदब का सफ़र बिल्कुल अलग है। टीवी चैनल फौरीतौर पर भले ही देखी जाती हो, लेकिन इसका असर लंबे समय तक नहीं होता। चार-पांच दिन पहले की क्लीपिंग किसी को याद नहीं होगा। मीर,ग़ालिब और तुलसी वगैरह को आज का बच्चा-बच्चा जानता है। मगर समकालीन फिल्मी या डृामा कलाकारों का नाम कोई नहीं जानता। अमिताब बच्चन इस दौर के बड़े अभिनेता हैं। हरिवंश राय बच्चन से ज़्यादा मक़बूल हैं, मगर इनकी मक़बूलियत उतने दिनोें तक कायम नहीं रह सकती, जबकि हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला सदियों तक याद की जाएगी।


सवाल: जब-जब पुरस्कारों का ऐलान किया जाता है, तो इसकी इमानदारी पर सवाल खड़े किए जाते हैं?

जवाब: सरकार संस्थाओं द्वारा मिलने वाले पुरस्कार के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यहां आम आदमी शामिल नहीं होता, यहां बैठे लोग आम आदमी के बारे में नहीं सोच पाते या सकते। मैं सरकारी इनामों को कम करके के भी नहीं आंकना चाहता, हां ऐसी तमाम संस्थाएं हैं जो अदबी लोगों को शामिल करके एवार्ड का ऐलान करती हैं। ऐसे एवार्ड की अहमीयत मेरी नज़र में सबसे अधिक है। लेकिन एवार्ड पाना ही कामयाबी नहीं है। अगर आप द्वारा रचित साहित्य लोगों तक पहंुचता है, लोग उसे पसंद करते हैं, तो आप कामयाब हैं।


सवाल: नई पीढ़ी में आप क्या संभावना देखते हैं?


जवाब: मैंने पूरी ज़िदगी उर्दू अदब की खिदमत की है। पिछले 45 सालों से मुशायरों की दुनिया में हूं, हम जाते-जाते कुछ ऐसे लोगों को छोड़ जा रहे हैं जो उर्दू अदब को संजीदगी से आगे ले जाएंगे। हमें इस बात बहुत सुकून है। डाइज सिर्फ़ तारीफ़ तक ही सीमित नहीं है। यहां से बहुत गंभीर बातें भी समय-समय पर कही जाती रही हैं। बहुत नए लोग आ रहे हैं, दो-चार का नाम लेना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे में कई लोगों का नाम छूट जाएगा। बहरहाल, अदब सुरक्षित हाथों में है।


सवाल: आपने शायरी कब शुरू की, आपके उस्ताद कौन हैं?


जवाबः जब मैं छठीं क्लास में था, तभी से कुछ कहने लगा था। मगर संजीदा शायरी तब शुरू की, जब मैं एम ए कर रहा था। मेरे वालिद नसीम मुरादाबादी भी शायर थे। हमारे घर जिगर मुरादाबादी का भी आना जाना था। कई बार वालिद ने मेरे कलाम को जिगर साहब को भी दिखाया, मगर मेरे बकायदा उस्ताद मंुतकित हैदराबादी थे।


गुफ्तगू
के जुलाई-सितंबर 2008 अंक में प्रकाशित

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

पुण्यतिथि ०९ दिसम्बर पर : बड़े भइया कैलाश गौतम के नाम चिट्ठी


----- यश मालवीय --------


अभी तो सरसों पियरायी नहीं थी, मीलों-मील आकर्षण नहीं बिछा था,गंधमाती बसंत की हवा झुरकी नहीं थी, पुरखों के खेत परती पड़े थे, टृैैैक्टर की किस्त पूरी नहीं हुई थी, मटर की मुट्ठी नहीं कसी थी, रामदुलारे की गाय बिवाई नहीं थी, श्याम के उबले दूध में मलाई नहीं पड़ी थी, पिछवाड़े के तालाब में रोहू ने आंखें नहीं खोली थीं, पटवारी से पिछले हिसाब निपटाने थे, छुटकी का गौना भेजना था, अभी तो सूखे ताल में झुनिया कंडे ही बीन रही थ, रामनगीना म्यूनिसपिलटी के स्कूल में अपने पोते के दाखिले के लिए छटपटा रहे थे, प्रयागराज में तंबुओं का शहर भी नहीं बसा था, गंगा की उदासी कटी नहीं थी, करछना से सोरांव तक पसरा सन्नाटा टूटा नहीं था, धान के खेत कटने के बाद कितना कुछ कट-बंट गया था मन में, ट्येबवेल के पानी का विवाद सुलझा नहीं था, कुएं की जगत पक्की नहीं हुई थी, पुआल का बिस्तरा नहीं बिछा था, रामचरना के घर कर्ज लेकर भागवत की कथा सुनने की योजना नहीं बनी थी, अखंड पाठ के लिए शहर के लउडस्पीकर बनकर नहीं आए थे, ग्राम पंचायत के चुनाव नहीं हुए थे, सूदखोर महाजन की ऐसी-तैसी नहीं हुई थी, ठाकुर के कुएं से रामसुभग ने पानी नहीं भरा था, अभी तो बहुत कुछ होना था। अभी तो तुम्हें कितनी-कितनी चिट्ठियां लिखनी थीं हमें, कितनी नसीहतें देनी थी समय और समाज को। यह क्या हुआ? बिना कुछ सोचे समझे आखिरी चिट्ठी लिख मारी। हमें तो तुम्हारी चिट्ठियों की आदत हो गयी थी बड़के भइया। तुम्हारी चिट्ठी, चिट्ठी नहीं सौ-सौ वाट के बल्ब होते थे हमारे लिए, सारा अंधेरा बिला जाता था। तुम कहते भी तो थे-


देखो जहां अन्हारे के
मारा पहेट के सारे के

अंधेरे को पहेट के मारने के लिए हमें तुमसे ही रोशनी की छड़ी चाहिए। तुम्हारी अलसी के फूलों जैसी लिखावट वाली चिट्ठी ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’ वाला तकिया कलाम और वह मुंहफाड़-छतफाड़ छहाका जिसके चलते तुम सारा दुख और अवसाद पानी कर देते थे, तभी तो कह पाते थे-


गांव गया था, गांव से भागा,
बिना टिकट बारात देखकर।
टाट देखकर भात देखकर,
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नौजात देखकर।
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर गांव गया था, गांव से भागा।

इस कविता पर श्रीलाल शुक्ल अपना ‘राग दरबारी’ निछावर करते थे। तुम तो गांव से भागने की बात करते थे, दुनिया से ही भाग निकले। तुम्हारा दिल बहुत बड़ा था, तुम ज़िन्दगी भर वहां दौरा करते रहे,‘दिल का दौरा’ तो तुम्हें पड़ना ही था। हमीं चूक गए, समझ नहीं पाए। तुम्हारी डिक्शनरी में ‘न’ कहीं नहीं था। मौत ने भी बुलाया तो कवि सम्मेलनी भाव से चल निकले। तुम कवि भी हो यह तो जानता था बड़के भइया! पर बड़का भारी कवि हो यह तुम्हारे जाने के बाद जाना। सारे अख़बारों में तुम्हारी हंसती हुई, मंुह चिढ़ाती हुई सी फोटुएं छपीं, कुछ ऐसा भाव लिए ‘देखा कैसा छकाया’। तुम हमेशा हड़बड़ी और जल्दी में रहते थे, दुनिया से जाने में भी तुमने जल्दी की। शब्दबेधी वाण से तुम चले गए, देखो धनुष की डोर सा अब भी थरथरा रहा है गांव-शहर। ‘तीन चौथाई आंन्हर’ वाले कठिन काल में आंखों मेें ‘जोड़ा ताल’ और ‘सिर पर आग’ लिए तुम युग की आंखों में पड़ा मोतियाबिंद काटने लगे थे। तुम किसी को सेटते नहीं थे, आने आपको को भी नहीं।सारे संसार को प्यार करने को आकुल रहते थे। तुम्हारा सिलेटी स्कूटर उदास खड़ा है। उसके पहिए का चक्कर तुम्हीं थे। लाल हेलमेट पहनकर शहर की सड़कों पर जब तुम निकलते थे तो जैसे शहर की छाती चौड़ी हो जाती थी। कितनी बार कहा, ‘यह हेलमेट बदल दो’ मगर तुम हमेशा यही कहते, प्यारे!दमकल तुड़वाकर यह हेलमेट बनावाया है, बहुत सारी आगें हमें भी बुझानी होती हैं।
तुम आग ही तो बुझा रहे थे। जैसे तालाब का पानी साफ़ करने के लिए पानी में उतरना पड़ता है, उसी तरह आग बुझाने के लिए तुम लपटों के जंगल में कूद पड़े थे और लिख रहे थे-

संतों में,हम प्रयाग खोजते रहे,

धुआं-धुआं वही आग खोजते रहे।

तुम्हें धुएं से सख्त नफरत थी, इसीलिए तुम धुआं नहीं हुए, धधकती आग जैसा जीवन तुमने जिया। तुम कभी अस्त नहीं हो सकते, इसलिए दुनिया से जाने के लिए तुमने सूर्वोदय के बिल्कुल निकट वाला समय चुना, जब सूर्य माध्याह्न आकाश की ओर बढ़ रहा था, तुमने हाथ बढ़ाकर अपनी ज़िन्दगी का सूरज तोड़ लिया। तुम डूबे तो और भी अधिक उभर आए। यह शहर इलाहाबाद तुम्हें बहुत प्यार करता है, तुम भी इस शहर को बहुत चाहते थे, तभी तो बनारस से ‘जय श्रीराम’ कहकर इलाहाबाद चले आए थे। तुमने उन सुदूर अंचलों में जाकर भी कविता का दिया जलाया, जहां आज तक सड़क भी नहीं बिछी है, बिजली तो बहुत दूर की बात है। भारती जी कहते थे, ‘जानते हो मुझे कैलाश गौतम की कविताएं क्यों अच्छी लगती हैं, इसलिए अच्छी लगती हैं, क्योंकि उसकी कविताओं में गांव-जवार सांसें लेती हैं, गंवईं मन बोलता है और सबसे बड़ी बात उसमें इलाहाबाद दिल की तरह धड़कता है।’
बनारस का ठेठपन और इलाहाबाद का ठाठ दोनों तुममें साकार हो गए थे बड़के भइया। तुम कविता के किसान थे, भावनाओं के बीज बिखेरते तुमने ज़िन्दगी के 62 साल पलक झपकते काट दिए, यह कविता के आढ़तिए कभी नहीं समझेंगे। तुम जनवादी थे, तुमने कवि सम्मेलनों के माध्यम से अपना जनवाद जन तक पहुंचाया। तुम कागज़ पर भी जब आते या छपते थे तो कागज़ भी सांसों की तरह स्पंदित हो उठता था। सच कहंें तो तुम कागज़ और मंच के बीच जीवनभर नैनीपुल की तरह कसे रहे। तुम्हें बंबई जाकर भी चैन नहीं मिला, छटपटा उठे थे-

जब से आया बम्बई, तब से नींद हराम,

चौपाटी तुमसे भली, लोकनाथ की शाम।


तुम गंगा के देवव्रत थे, तुम यमुना के बंधु जैसे थे, तुमसे संस्कृतियों का संगम लहराता था। तुम झूंसी से अरैल, अरैल से किले तक शरद की धूप ओर चांदनी आत्मा में उतरने देते थे-


याद तुम्हारी मेरे संग वैसे ही रहती है,

जैसे कोई नदी किले से सट के बहती है।

अभी तो पुरइन के पात की चिकनाई पूरी तरह मन में उतरी नहीं थी, अभी तो ‘अमवसा का मेला’ लगा नहीं था, अभी तो गुलब्बो की दुलहिन भरी नाव जैसे नदी तीरे-तीरे दिखाई नहीं दी थी। अभी तो बचपन की दोनों सहेलियां चंपा-चमेली को इसी भीड़ भड़क्के मेले ठेले में मिलना था। पर यह सब क्या हो गया, कैसे हो गया? लगने से पहले कोई आग लग गई, जुड़ने से पहले ही कोई बिखर गया। हाथ से गिरा शीशा पुआल पर गिरा तो बच जाता, वह तो चट्टान पर गिरा और चूर-चूर हो गया, वैसे ही जैसे कोई सपना चूर-चूर होता है। बड़के भइया तुम बहुत याद आ रहे हो। इस साल नए साल पर तुम्हारी शुभकामनाएं नहीं मिलीं। लगा ही नहीं कि नया साल आया है। अब तो तुमने मोबाइल भी खरीद लिया था, कान में उंगली डालकर जोर-जोर बोला करते थे,कहते थे कि अक्सर ‘बिना कान के आदमी’ से बतियाना पड़ता है। हम तुम्हारी पंक्तियां सहेजते ही तुम्हें बिसूर रहे हैं-


कैसे-कैसे दिन होते थे
छांव-छांव होता था कोई
हम पुरईन-पुरईन होते थे
एक-एक हिलकोर याद है
आंख मिचोली चोर याद है
बातों में तुलसी होते थे,
बातों में लेनिन होते थे


गुफ्तगू
के मार्च 2007 अंक में प्रकाशित

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

गुफ्तगू के दिसंबर 2011 अंक में


3. ख़ास ग़ज़लें- मीर, इक़बाल, ग़ालिब, शकेब जलाली

4-आपकी बात

5-6- संपादकीयः भगवान और महानायक की संज्ञा क्यों?


ग़ज़लें

7.प्रो0 शह्रयार, निदा फ़ाजली
8.डॉ0 बशीर बद्र,मुनव्वर राना
9.खन्ना मुजफ्फरपुरी,असरार नसीमी, असद अली ‘असद’,अनिल पठानकोटी

10. दिनेश त्रिपाठी‘शम्स’, स्वामी श्यामानंद सरस्वती,पूनम कौसर,ख़्याल खन्ना

11.आमिर शेख़, रईस बरेलवी, आज़म सावन ख़ान

12.शफ़ीक अहमद ‘शफीक’, सौम्या जैन‘अबंर’, खान हसनैन ‘आक़िब’,शहजाद अहमद

13.नवीन आज़म ख़ान,जगदीश तिवारी, अमित अहद, कु. दीपांजलि जैन
14.पंकज पटेरिया, जयकुमार रुसवा, दिलीप सिंह ‘दीपक’,हसन रजा बेरलवी

15।संयोगिता गोसाईं,महेश अग्रवाल,रेहाना रूही

16.जयकृष्ण राय तुषार,अब्बास ख़ान ‘संगदिल’
17.डॉ0 लक्ष्मी विमल,अनमोल शुक्ल अनमोल

18.कु.नीलांजलि जैन ‘केसर’

36. ज़िया ज़मीर

45.सीपी सुमन
19. अज़ीज़ इलाहाबादीःबेहतरीन शख़्यित के मालिक-सायमा नदीम

कविताएं

20.कैलाश गौतम, डॉ0 बुद्धिनाथ मिश्र,विवके श्रीवास्तव
21.लखन राम ‘जंगली’

22.हुमा अक्सीर
23-24. तआरुफ़ः वीनस केसरी
25-28.इंटरव्यूः मेराज फ़ैजाबादी
29-30. चौपालः अमिताब बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलाना कितना उचित?
31.अदबी ख़बरें
32-34. डायरेक्टृीः अंबेडकरनगर के साहित्यकारों की सूची
37-38. शख़्सियत: श्रीधर द्विवेदी

39-40. बह्र विज्ञान भाग-8

41-45.आर.पी. शर्मा‘महर्षि’के सौ शेर

46-48.संस्मरणः मजरूह सुल्तानपुरी

परिशिष्टः सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’
४९ -
सुरेंद्र नाथ नूतन का परिचय
50-52.प्रणय,प्रकृति और जीवन के सौंदर्य- डॉ0 रामकिशोर शर्मा

53-54.अंतरतम छूकर स्पंदित करती कविताएं- केशरी नाथ त्रिपाठी
55-56.चिर नूतन हैं श्री नूतन- प्रो. हरिराज सिंह नूर
57. खेल में रचनात्मक और रचनाओं में क्रीड़ाभाव- डॉ0 सुरेंद्र वर्मा
58-59. सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ का रचना संसार-अमरनाथ श्रीवास्तव
60. लेखन को पेशा न बनाएं रचनाकार- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

61. सुरेंद्र नूतन के मुक्तक
62-71.सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ के गीत

72-80. सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ की ग़ज़लें

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हम मुर्दापरस्त लोग हैं: मेराज फ़ैज़ाबादी



गंभीर शायरी के जाने वाले शायर मेराज फ़ैज़ाबादी से गुफ्तगू के उपसंपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ की बातचीत

सवालः आपको लेखन की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरूआत किस प्रकार से हुई?
जवाबः जहां तक प्रेरणा का सवाल है तो एक अनजाना-सा जज़्बा थो जो अपने आप अभिप्रेरित करता था। मैं एक छोटे से गांव में पैदा हुआ था, विज्ञान का छात्र था और साहित्य से मेरे कोई तालुकात हीं नहीं थे। जो रोज़ की समस्याएं हैं, मशायल हैं, हर आदमी के साथ होती हैं, मेरे साथ भी थीं। गांव के खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे, इन सबसे मुझे इश्क़ था। मुझे ऐसा लगता है कि इन सबसे कोई संगीत-सा फूट रहा है, तब मैं चौदह-पंद्रह साल का था, जी चाहा कि मन भीतर हो रही संगीत की इस गूंज को बाहर निकालया जाए। यही एक जज़्बा था, वर्ना ऐसा कोई ख़ास वाक़िया, ऐसी कोई ख़ास परिस्थिति याद नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि मुझे लेखन की प्रेरणा वहां से मिली।

सवालः विज्ञापनों में हर हद पार करते स्त्री देह के प्रदर्शन पर आपकी क्या राय है?

जवाबः स्त्री देह की खू़बसूरती उस वक़्त तक है जब तक वह ढकी रहे, जहां खुली वहां उबकाई आने लगती है। आजकल जो नई पीढ़ी के लोग हैं वे चाहे विज्ञापन बनाने वाले हों, फिल्म बनाने वाले हों या किसी भी प्रकार की आर्ट प्रजेन्ट करने वाले लोग हों, उन्होंने यह समझ लिया है कि स्त्री दे हके प्रदर्शन से ही उनका कारोबार चलेगा तो करें भाई, मैं उसका कायल नहीं हूं। पुराने ज़माने में कपड़े बदल ढकने के लिए पहना जाता था, लेकिन आज के ज़माने में कपड़ा बदन दिखाने के लिए पहना जाता है।


सवालः क्या कारण है कि अपने समय के क्रांतिकारी लोगों को वह महत्व नहीं दिया जाता जिसके वे हक़दार होते हैं, जैसे सआदत हसन मंटो, हिन्दी कविता में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ या फिर दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में फ्रेडरिक नीत्थे?

जवाबः यह तो टृेडजी है पूरे एलाइड आर्ट की। सिर्फ दर्शन नहीं, सिर्फ़ कविता नहीं, सिर्फ़ कहानीकार की बात नहीं। हम मुर्दापरस्त लोग हैं और ज़िन्दगी में किसी को अहमीयत नहीं देते। जहां वो मरा,उसके फौरन बाद कब्रिस्तान से श्मसान से ही यह शुरू कर देते हैं, यार कितना अच्छा आदमी था, यार कितना बड़ा कलाकार था, वगैरह-वगैरह... लेकिन यही बातें उसकी ज़िन्दगी में एक आदमी के मुंह से नहीं फूटती। क्या कीजिएगा, यह तो पूरी दुनिया का मिज़ाज है। यह पूरी मानवता पर एक कलंक है किसी भी बड़े जीनियस को उसकी ज़िन्दगी में हमारे समाज ने नहीं पहचाना। आदमी मरा, कफन मैला भी नहीं हुआ उसकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। अरे मुर्खों, अगर यही क़सीदे तुम उसकी ज़िन्दगी रहते पढ़ते तो शायद वह दो-चार दिन और जी लेता।

सवालः वर्तमान समाज के निर्माण में साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय क्यों नहीं कर पा रहा है?


जवाबः साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय कैसे करेगा, जब वह समाज तक पहुंच नहीं पा रहा है। इलेटृानिक मीडिया के युग में प्रिंट मीडिया का महत्व कम हुआ है और बग़ैर प्रिंट मीडिया के साहित्य समाज तक कैसे पहुंचंगा। साहित्य के कम्युनिकेशन का सबसे बेहतर तरीक़ा है प्रिंट मीडिया, उससे हमारे तालुकात ही नहीं। हमारी पूरी नस्ल, पूरी जनरेशन प्रिंट मीडिया से कट गई है।


सवालः आपने देश-विदेश की तमाम यात्राएं की हैं। अन्य देशों में रचा जा रहा साहित्य और यहां रचे जा रहे साहित्य में क्या फर्क है?

जवाबः हर देश के साहित्यकार अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और हर उस मातृभाषा से मेरा कांटैक्ट नहीं हो पाता। मैं उर्दू का आदमी हूं, ज़ाहिर है हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक जहां भी जाता हूं, उर्दू के सर्किल में जाता हूं। अमरीका की मातृभाषा अंग्रेजी है,उनके लिए उर्दू एलियन लैंग्वेज है। उस एलियन लैंग्वेज में वो जो कुछ प्रोड्यूस करेंगे, वह स्टैंडर्ड तो नहीं होगा...बहरहाल कुछ भी हो, हिन्दुस्तान के बाहर हिन्दी-उर्दू वाले, अच्छी शायरी कर रहे हैं, अच्छा लिख रहे हैं, मगर उनमें कोई एचीवमेंट नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि कोई मीर तक़ी मीर या कोई मिर्ज़ा ग़ालिब पैदा होने वाला है। इसके पीछे कारण यह है कि वे अपने ख़्वाब तो दूसरी भाषाओं में देखते हैं और क्रियेशन हिन्दी या उर्दू में टृांसलेशन करके करते हैं।

सवालः साहित्य में हो रही राजनीति और गुटबाजी पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
जवाबः ......इसीलिये मैंने अपने आपको समेट लिया है. राजनीति और गुटबाजी में पड़कर कोई प्रोफ़ेशनली तो कामयाब हो सकता है लेकिन अन्दर का साहित्यकार मर जाता है। राजनीति और गुटबाज़ी हर ज़माने में हो रही है, लेकिन पहले पचीस प्रतिशत गुटबाज़ी थी, पचहत्तर प्रतिशत साहित्य है और वह भी धीरे-धीरे घट रहा है, यह शून्य प्रतिशत तक आ जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिये.
सवालः आजकल मंचो से संजीदा शायरी लुप्त हो गयी है. फूहड़पन और चुटकुलेबाज़ी का ज़ोर है, आपको नहीं लगता कि अब कवि सम्मेलन और मुशायरे, सही मायनों में कवि सम्मेलन व मुशायरे हैं ही नहीं?


जवाब-ऐसा तो नहीं है, जहां तक कवि सम्मेलन का सवाल है, दो-चार नाम ऐसे हैं जिन्होंने मंच की गरिमा बनाये रखी हैं, सोम ठाकुर हैं, भारत भूषण है, वग़ैरह-वग़ैरह. मुशायरों में हास्य-व्यंग्य तो बहुत थोड़ा-सा है बाक़ी सब संजीदा शायरी है. असल में मुतमइन जबाने कभी अच्छा अदब तक़लीफ नहीं करती और हिन्दी एक मुतमइन ज़बान है. उसके पास सब कुछ है तो ज़ाहिर-सी बात है उनके यहां हास्य-व्यंग्य ज़्यादा चल रहा है और इसके सिवा उनके पास कुछ नहीं हैं. उर्दू के सामने उसके अस्तित्व का सवाल है कि यह ज़बान बचेगी भी या नहीं, इसलिये वहां अभी भी काफ़ी संजीदा शायरी हो रही है. जो साहित्य कभी समाज का आईना होता था वह आजकल हिन्दी के मंचो पर बिल्कुल भी नहीं दिखाई देता है और उर्दू के मंचों पर भी पहले जैसा नहीं. शोर और हंगामें के बीच सब कुछ ग़ुम होता जा रहा है....वैसे कुछ बावले अभी भी ज़िंदगी के संजीदा मामलात परोस रहे हैं.

सवालः एक बात और भी है कि मंचो में आजकल बहुत से नक़ली लोग आ रहे हैं, चोरी के शेर पढ़ रहे हैं या तमाम लोग अपने गले की बदौलत वग़ैरह-वग़ैरह....... इस तरह की भयावह स्थिति का मंच पर बैठे अच्छे और असली कवि-शायर विरोध क्यों नहीं करते, वे क्यों उन्हें स्वीकार कर लेते हैं?

जवाब-बड़ा मुश्किल सवाल किया है आपने। ऐसा है कि नकली लोग हर ज़माने में थे, आज भी है, आज ज़रा ज़्यादा हैं, पहले कम थे....लेकिन पहले क्या था कि नक़ली लोगों को जनता नक़ली की तरह ही ट्रीट करती थी, उन्हें कभी अहमियत नहीं दी; असली लोग ही असली माने जाते थे. चूंकि आज के ज़माने में हमारी पब्लिक का साहित्य से वैसा जुड़ाव नहीं रहा तो वह आकलन भी नहीं कर पाती कि कौन असली है, कौन नक़ली; और असली को नक़ली की तरह ट्रीट करती है तो मंचो में जो देखने और भुगतने को मिलता है, हम मज़बूर हैं. अगर हम एतराज़ करें भी तो हमारी कोई सुनेगा भी नहीं क्योंकि मंच में जो छाये हुए हैं वे ज्यादातर नक़ली लोग ही हैं......मुझे शर्मिदंगी होती है कि मैं असली हूं, नक़ली नहीं हूं, मुझे कोई घास ही नहीं डालता.... महसूस मुझे भी होता है, बहुत ज़्यादा ..... लेकिन क्या कीजियेगा.

सवाल-यदि लिपि का अन्तर छोड़ दिया जाये तो ज़बान के स्तर पर भी हिन्दी और उर्दू में क्या कोई फ़र्क़ है?
जवाब-लिपि तो मज़बूरी है और कोई भी ज़बान अपनी लिपि के बग़ैर ज़िंदा भी नहीं रह सकती. इसलिये मैं उर्दू लिपि का बहुत बड़ा समर्थक हूं. लेकिन जहां तक ज़बान का प्रश्न है तो यदि ज़बान में कोई अन्तर होता है तो आप जाने दीजिये मीराबाई को (मेरा ‘दरद’ न जाणे कोय) या फिर निरालाजी को (ख़ुशबू रंगो-आब’) .....यदि हिन्दी-उर्दू में कोई अन्तर होता तो वो लोग ऐसा कैसे लिख पाते. आप हिन्दी और उूर्द को बांट हीं नहीं सकते. जो लोग बिलावज़ह हिन्दी और उर्दू का अपना-अपना ढोल पीट रहे हैं वो सीधी-सीधी हिन्दुस्तानी ज़बान है, जिसे पूरा हिन्दुस्तान बोल रहा है.

सवाल-आपने किन लोगों से प्रेरणा ग्रहण की है और क्यों?

जवाब-अज़ीब-सा सवाल है. मैंने पहले भी कहा है. मेरी साहित्य-सृजन की प्रेरणा मेरे अन्दर से निकली है, बाहर के किसी भी फैक्टर का इसमें कोई रोल नहीं है. रही बात अच्छा लगने की तो थोड़ा-बहुत तो सभी अच्छे लगते हैं. विद्यार्थी जीवन में साहिर और फ़ैज़ बहुत अच्छे लगते थे, उसके बाद फिराक़ साब, नासिर काज़मी वग़ैरह अच्छे लगने लगे, आज की मेरी पंसद कोई और है. मगर इतना अच्छा कभी कोई नहीं लगा कि जो मेरी अपनी सोच में कोई बदलाव पैदा कर सके. हां, थोड़ी बहुत प्रेरणा जो मिली है तो उर्दू के उन क्लासिकल शायरों से, जिन्होंने उर्दू शायरी को एक दिशा दी है जैसे मीर तक़ी मीर आदि. इनसे इस रूप में प्रेरणा मिली कि अपनी बात किस प्रकार से रखूं. अपने विचारों के लिये, अपनी बात के लिये मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ग्रहण की. यह बड़ा उलझा हुआ सवाल है आपका, और मेरा उलझा हुआ जवाब है....मगर ये कि मेरा प्रेरणास्रोत कोई नहीं हैं.


सवाल
-नये रचनाकारों के लिये आप क्या संदेश देना चाहेंगें?

जवाब-सिर्फ़ यही संदेश दूंगा कि जोड़-तोड़ के चक्कर में न पड़े, गुटबाज़ी के चक्कर में न पड़ो. अगर अपने को शायर कहते हो तो शायरी करो और सिर्फ़ शायरी करो.

गुफ्तगू के दिसंबर 2011 अंक में प्रकाशित

रविवार, 4 दिसंबर 2011

यूं शुरू हुआ नोबेल पुरस्कारों का चलन


------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -------

किसी भी क्षेत्र में काम करने व्यक्ति को
यदि नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो यह उसके जीवन की सबसे बड़ी सफलता होगी। यह पुरस्कार अन्य पुरस्कारों के मुकाबले सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके शुरू होने की दास्तान भी बड़ी रोचक है। स्वीडन में जन्मे एक वैज्ञानिक ने एक विस्फोट पदार्थ बनाने की प्रणाली विकसित की, बाद में उसे एहसास हुआ कि उसके इस खोज का गलत इस्तेमाल होगा, इस उसे पश्चाताप हुआ और उसने अपनी सारी प्रॉपर्टी दान कर दी, आज उसी प्रॉपर्टी के ब्याज से मिले धन से नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। उस वैज्ञानिक का नाम अल्फ्रेड नोबेल है, जिनका जन्म 21 अक्तूबर 1783 को स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में हुआ था, बाद में उनके पिता रूस चले गए तो उसके साथ नोबेल भी रूस में रहे। 17 वर्ष की आयु तक नोबेल की शिक्षा निजी अध्यापकों द्वारा हुई। उसके बाद वे अध्ययन के लिए दो वर्ष तक अनेक देशों में गए, जिनमें अधिकांशा समय पेरिस में बीता। यहां उन्होंने एक निजी प्रयोगशाला में रसायन शास्त्र का अध्ययन किया। इसके बाद वे रूस लौटे।
वे एकांतवादी और शंात प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, लेकिन घूमना उनका प्रमुख शौक़ था। फ्रांस,इटली आदि देशों में घूमते रहे। कभी-कभी तो वे लंबे समय तक एकांतवास करते, लेकिन इसकी जानकारी उनके घनिष्ठ मित्रों को भी नहीं होती थी। अपनी लगातार घूमने की आदत के कारण वे स्वयं को यूरोप का सबसे बड़ा धनाढ्य आवारा कहते थे।
1860 के दशक में नोबेल ने एक शक्तिशाली लेकिन अस्थायी विस्फोटक नाइटृोग्लिसरीन, जो दूसरे पदार्थों के साथ स्थिरकारी था, विकसित किया। अंततः 1868 में नोबेल ने जिस विस्फोटक पदार्थ का पेटेंट कराया उसे ‘डायनामाइट’ नाम दिया। डायनमाइट, नाइटृोग्लिसरीन मुलायम अवशोषक रेत और केसरलगर का मिश्रण है। इसके बाद विकसित ‘ब्लास्टिंग जिलेटिन’ और अधिक शक्तिशाली विस्फोटक था। इस विस्फोटक से सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आए। अब इन विस्फोटकों का प्रयोग सड़कों, नहरों, और पुलों आदि के निर्माण के लिए चट्टानों आदि को तोड़ने में किया जाने लगा। इससे नोबेल का ध्यान सैन्य विस्फोटकों के निर्माण की ओर गया, जिसके निर्माण में उनको सफलता मिली और उन्होंने नाइटृोग्लिसरीन और गनकॉटन के साथ मिलकर बेलिटाइल नामक पदार्थ बनाया। इसी सफलता क कारण इनका औद्योगिक साम्राज्य इतनी तेजी से फैला किया नोबेल अंतरराष्टृीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हेा गए। अनेक देशों में उनकी कई कंपनियां और शाखाएं खुल गईं। लेकिन इस विस्फोटक पदार्थ का उपयोग मानवीय हानि के लिए किया जाने लगा। इसी कारण नोबेल को अपने इस खोज पर बहुत पछतावा हुआ, जिनकी खोज से उन्होंने बहुत धन कमाया। इसी कारण उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष के कुछ पहले 27 नवंबर 1895 को वसीयतनामा लिखा, जिसमें उन्होंने चार संस्थाओं के नाम सुझाएं थे, जिन्हें पुरस्कार योग्य व्यक्ति और उसके कार्य का चयन और पुरस्कार वितरण प्रक्रिया की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती थी। जो इस प्रकार है, पहली-रॉयल एकेडेमी ऑफ साइंस स्टॉकहोम-भौतिकी और रसायन शास्त्र के पुरस्कारों के लिए। दूसरी- कैरोलिन मेडिको सर्जिकल इंस्टीट्यूट शरीर क्रिया विज्ञान अथवा चिकित्सा विज्ञान के पुरस्कार के लिए। तीसरी-स्वीडिश एकेडेमी साहित्य मर्मज्ञ एवं लेखकों की संस्था साहित्य पुरस्कारों के लिए। नोबेेल ने 92 लाख पौंड की राशि इन पुरस्कारों के लिए छोड़ी थी। इस वसीयतनामा लिखने के एक वर्ष बाद 10 दिसंबर 1896 को नोबेल की मृत्यु हो गई। अपने वसीयतनामा में उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि मेरी संपूर्ण सपंत्ति को ऋण पत्रों के रूप् में जमा करवाकर उसके ब्याज से प्रतिवर्ष पांच विषयों भौतिकी, रसायन, चिकित्सा,साहित्य और शांति में उत्कृष्ठ और उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन व्यक्तियों को पुरस्कार दिया जाए, जिन्होंने पिछले वर्ष मानव समाज को महानता हित पहुंचाया हो। 1901 से इस पुरस्कार हुई, लेकिन 1901 के पुरसकार विजेताओं को पदक एक वर्ष बाद यानी 1902 में मिले। वर्ष 1969 से अर्थशास्त्र को भी पुरस्कार में शामिल कर लिया गया। प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में इन विषयों में पुरस्कार योग्य व्यक्ति की खोज शुरू हो जाती है और एक कमेटी सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों का चुनाव करती है। इसी सूची को पुरस्कार वितरण संस्थाओं के पास भेजा जाता है। ये संस्थाएं इन चयनित नामों में से एक अंतिम सूची बनाती है, जिनके नामों की घोषणा प्रत्येक वर्ष अक्तूबर अथवा नवंबर माह में की जाती है। पुरस्कार वितरण समारोह प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को अल्फ्रेड नोबेल की पुण्यतिथि के अवसर पर स्टॉकहोम, स्वीडन में संपन्न होता है, जबकि शांति पुरस्कार का वितरण नार्वे की राजधानी ओस्लो में किया जाता है। प्रत्येक नोबेल विजेता को एक पदक और एक लाख 25 हजार पौंड नकद धनराशि प्रदान की जाती है।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 4 दिसंबर 2011 को प्रकाशित

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना कितना उचित?

पिछले दिनों ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार मशहूर शायर प्रोफे़सर शहरयार को अमिताब बच्चन के हाथों दिलाया गया। इसे लेकर साहित्य के गलियारों में खासी चर्चा रही। ‘गुफ्तगू’ ने दिसंबर-2011 अंक में इसे अपने चौपाल का विषय बनाया। उपसंपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने इस विषय पर कुछ साहित्यकारों से बात की।
बेकल उत्साही: मैं इसे उचित नहीं समझता हूं और भी लोग पड़े हुए हैं, आखिर अमिताब बच्चन के हाथों क्यों दिलाया गया? वैसे शह्रयार को ही अभी यह पुरस्कार दिया जाना उचित नहीं है, उनसे ज़्यादा सीनियर लोग पड़े हुए हैं, जिन्होंने उनसे ज़्यादा साहित्य में काम किया है। शहरयार का इतना बड़ा काम नहीं है। सिर्फ़ फिल्मों में गीत लिख देने से कोई बड़ा शायर नहीं हो सकता। जहां तक एवार्ड दिलवाए जाने की बात है, तो साहित्यिक एवार्ड किसी वरिष्ठ साहित्यकार से ही दिलाया जाना चाहिए।
वसीम बरेलवी: हंसते हुए... सवाल बड़ा नाज़ुक है। देखिए अभिनय का क्षेत्र भी कला का क्षेत्र है और साहित्य का क्षेत्र भी कला का क्षेत्र है, लेकिन बात जहां आप पकड़ रहे हैं,रीजनेबल है। इसलिए कि शोपीस एवं लिटरेचर में अंतर तो है ही। अमिताभ बच्चन इस सदी के महानायक हो सकते हैं। यह दुनिया तेजी से बदलने वाली दुनिया है। हरिवंश राय बच्चन को सदियों को जिन्दा रहना है, इसलिए कि साहित्य और कलाकार कभी नहीं मरता। शोहरत के लिए कालीदास को कभी नहीं ज़रूरत पड़ी कि कभी उनका कोई बेटा फिल्म ऐक्टर हो, कबीर या जायसी को इस चीज़ की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी जिन लोगों तक उन्हें पहुंचना चाहिए, वे पहुंचे, पहुंच रहे हैं और हमेशा पहुंचते रहेंगे। इसलिए साहित्य से यह सब चीज़े इस तरह से न जोड़िए। ये बातें मैंने पहले भी कही हैं और अब भी कह रहा हूं। अमिताब जी इस समय अपनी शोहरत की पीक हैं किन्तु यह एवार्ड किसी साहित्यकार के हाथ से दिया जाता तो अधिक बेहतर होता।
माहेश्वर तिवारी: अभिनय भी एक कला है, अमिताब बच्चन को सदी के सबसे बड़े नायक का दर्जा मिला है और वह स्वयं एक संस्था हैं। राष्टृीय, अंतरराष्टृीय स्तर पर उनकी अपनी विशिष्ट पहचान भी है। बेहतर तो यह होता कि शह्रयार जी को यह सम्मान उर्दू-हिन्दी के किसी बड़े साहित्यकार से दिलवाया जाता, किन्तु अमिताब बच्चन द्वारा दिया जाना। मैं इसे इतना आपित्तजनक भी नहीं मानता। एक बार एक इंटरव्यू में मैंने हरिवंश राय बच्चन जी से सवाल किया था कि अमिताब लेखन के क्षेत्र में न जाकर अभिनय के क्षेत्र में गए हैं तो आपको कैसा लगता है? तो उनका कहना था कि वह जिस क्षेत्र में गया है, उसका काम मेरे काम से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
मुनव्वर राना: बिल्कुल सही है। इसलिए कि शह्रयार साहब को हिन्दुस्तान में आम लोग फिल्म में गीत लिखने की वजह से ही जानते हैं। उनका साहित्य में इतना बड़ा कोई काम नहीं है। मैंने ‘इंडिया टुडे’ के इंटरव्यू में भी यही बात कही है कि देखिए इस बार का ज्ञानपीठ एवार्ड देने वाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। यही वजह है कि हाजी अब्दुल सत्तार, बशीर बद्र, शम्सुर्रहमान फ़ारूकी, मलिकाज़ादा मंजूर जैसे लोगों की मौजूदगी में यह एवार्ड फिल्म कलाकार के हाथों देना ही, इस एवार्ड की इनसर्ट है। प्राब्लम यह है कि हमारे मुल्क में लोग सच नहीं बोलते, डरते हैं। उन्हें यह लगता है कि आइंदा हमको भी एवार्ड लेना है। मेरा मामला यह है कि मुझे एवार्ड में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही और मैं बहुत आसानी से सच बोल देता हूं। आम आदमी शह्रयार को ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ की वजह से पहचानता है। तो फिल्म अभिनेता के हाथ से शह्रयार साहब को पुरस्कार दिया गया तो इसका मतलब कि बहुत इमानदारी का काम किया गया है।एवार्डों की अहमीयत ऐसे ही घटती रही तो कल को राखी सावंत के हाथों से भी दिलाया जा सकता है। ‘गुफ्तगू’ के माध्यम से मैं पूरे तौर पर एवार्ड अमिताब बच्चन के हाथों से दिए जाने का और शह्यार को ज्ञानपीठ एवार्ड दिए जाने का भी खंडन करता हूं।
बुद्धिनाथ मिश्र: ज्ञानपीठ पुरस्कार को भी अब अमिताब बच्चन और फिल्मी अभिनेताओं को बैसाखी का सहारा लेना पड़ता है। यह राष्टृीय शर्म की बात है। ज्ञानपीठ पुरस्कार एक सम्मान था, इसको महादेवी वर्मा जैसी साहित्यकार दिया करती थीं और उस अब यहां तक ले आए हैं। आजकल जिन लोगों को पुरस्कार दिया जा रहा है और जिन लोगों के हाथों से दिलाया जा रहा है,उनका सबका अपना मकसद है। यही कारण है कि साहित्यिक समाज में पुरस्कारों की अहमीतय कम होती जा रही है। ज्ञानपीठ की ही बात क्यों करें,जितनी भी साहित्यिक अकादमियों के पुरस्कार हैं सबकी यही दुर्दशा है। भारत सरकार का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार तो साहित्यिक अकादमी ही देती है। इसे साहितय अकादमी का अध्यक्ष दे देता है, जबकि उसे राष्टृपति या प्रधानमंत्री को देना चाहिए। तो यह पतन गैर सरकारी संस्थानों और सरकारी संस्थानों दोनों में है।
प्रो0 राजेंद्र कुमार: बिल्कुल उचित नहीं है। हमने आपसे पहले भी कहा था कि शह्रयार और अमिताब बच्चन का इतना ही नाता है कि शह्रयार ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। एक साहित्यकार के रूप में अमिताब बच्चन को क्या समझ है। अमिताब बच्चन ने अपने पिता के अलावा हिन्दी-उदु में कुछ पढ़ा है।फिल्म का ग्लैमर साहित्य में थोपा गया है। शह्रयार साहब को खुद चाहिए था कि वह एतराज़ करते, लेकिन उन्होंने एतराज़ नहीं किया। इस प्रकार से साहित्य के कद को फिल्मी ग्लैमर के कद के सामने नीचा करने की कोशिश की गई है। हां,एक बात और, जिसे हमें सदी का महानायक बता रहे हैं, वह हिमानी नवरत्न तेल भी बेच रहा है। तरह-तरह की कंपनियों के तरह-तरह के उत्पादक भी बेच रहा है। उससे हम शह्रयार को भी जोड़ रहे हैं। यह तो सोचना चाहिए था, यदि फिल्मी कलाकारों से यह सम्मान दिलाना था तो बेहतर होता कि दिलीप कुमार से दिलाया जाता। यह तो मीडिया है, जिसे चाहे महानायक बना दे।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

मुशायरे ज़माने से अलग नहीं: अनवर जलालपुरी


छह जुलाई 1947 को जन्मे अनवार अहमद उर्फ अनवर जलालपुरी उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मुशायरों की दुनिया में एक प्रख़्यात संचालक के रूप में तो ये मशहूर हैं ही, इसके अलावा भी इन्होंने कई बड़े काम किए हैं। सन 1988 से 1992 तक उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के सदस्य रहे, 1994 से 2000 तक उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी के सदस्य ने रूप में अपनी संवाएं दी है।वर्तमान में ये उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी फारसी बोर्ड चेयरमैन हैं। मेगा सीरियल ‘अकबर दी ग्रेट’ का संवाद और गीत लेखन भी आप ही ने किया है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘रोशनाई के सफ़ीर’,‘खारे पानियों का सिलसिला’,‘खुश्बू की रिश्तेदारी’,‘जागती आंखें’,‘जर्बे लाईलाह’, ‘जमाल-ए-मोहम्मद’, ‘बादअज खुदा’,‘हर्फ अब्जद’ और ‘अपनी धरती अपने लोग’ आदि हैं।एन डी कालेज जलालपुर में अंग्रेजी के लेक्चरर रहे चुके अनवर जलालपुर से गुफ्तगू के उप-संपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने उसने बात की-



सवालः एक मंच संचालक और एक शायर की भूमिका में क्या फर्क़ है?


जवाबः देखिए,यदि मंच संचालक शायर भी है तो वह मौजूद शायरों के साथ ज़्यादा इंसाफ कर सकेगा और यदि वह शायर नहीं है तो वह उतना इंसाफ़ नहीं कर सकेगा क्योंकि वह शायरी की आत्मा से पूर्णतः परिचित नहीं होता है। दूसरी बात, जो शायर, संचालक भी है, उसका व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है।दो गुणों का मालिक होने के कारण उसकी स्थिति बेहतर और महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शायर की हैसियत से भी वह अन्य के मुकाबले श्रेष्ठ ही है।


सवालः मुशायरों और मंचों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है, क्यों?


जवाबः आज ज़िन्दगी के हर क्षेत्र में हर चीज़ का स्तर गिरता जा रहा है, यह प्रकृति का नियम है। किसी ज़माने में इसी गेहूं-चावल का स्वाद दूसरा था। आज समाज के हर क्षेत्र में नकलीपन बनावट और भ्रष्टाचार शामिल है। झूठ ज्यादा कामयाब होता दिखाई पड़ रहा है। जब हर क्षेत्र में यह कमज़ोरियां हैं और मुशायरों के क्षेत्र में भी कोई कमज़ोरी आयी है तो इसका मतलब मुशायरे भी ज़माने के साथ चल रहे हैं, ज़माने से अलग नहीं।


सवालः अधिकांश शायरात-कवयित्रियों पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि मंचों पर द्वारा पड़ी जाने वाली रचनाएं खुद न होकर किसी और की होती है, यह कहां तक सही है?


सवालः यह भी यह सच्चाई है। राजनीति में भी बहुत ही योग्य व्यक्ति ईमानदारी कार्य करने के बावजूद चुनाव हार जाते हैं और उसके मुकाबले में एक जाहिल व्यक्ति चुनाव जीत जाता है। संसद और विधानसभा भी उसी को शपथ दिलाती है क्योंकि जनता ने उसे किसी वजह से स्वीकार कर लिया है। यही सूरत मुशायरों-मंचों की भी है। यह बात बिल्कुल सही है कि ऐसे लोग जो उधार की रचनाएं पढ़ते हैं मगर मंच पर उन्हें सम्मान इसलिए मिलता है कि जनता उन्हें स्वीकार कर रही है और आयोजक भी उन्हें बुलाने के लिए मज़बूर हैं।... तो ज़िन्दगी के हर क्षेत्र का नक़लीपन मुशायरों के मंच पर भी काबिज़ हैं।


सवालः क्या आपने किसी कार्यक्रम के दौरान ऐसा महसूस किया है?


जवाबः यह अनुभव करने की बात नहीं है,यह तो हम जानते हैं। जो मुख्यमंत्री है या जो चुनाव में टिकट बांटते हैं, क्या वे यह नहीं जानते कि चुनकर आए हुए लोगों में कौन जाहिल और अंगूठाछाप है और कौन सच्चा है। नक़ली लोगों के बारे में सब कुछ जानने के बावजूद हम मंच पर टिप्पणी करने वाले कौन होते हैं, जब उनकी नक़ली लोगों की मंच पर स्वीकार्यता है और आयोजक उन्हें बुला रहे हैं।


सवालः यदि लिपि का अंतर छोड़ दिया जाए तो हिन्दी और उर्दू में ज़बान के स्तर पर भी क्या कोई अंतर है?


जवाबः साहित्यिक स्तर पर ये दोनों अलग-अलग ज़बानें हैं, लेकिन बोलचाल में बगैर सोचे हुए जो बातचीत होती है, वही उर्दू है, वही हिन्दी है,वही हिन्दूस्तानी है। और उसी के अंदर हिन्दुस्तानियत की आत्मा छिपी होती है। यह बिल्कुल उसी तरह से है जैसे शेक्सपीयर के प्ले भी अंग्रेज़ी में है, शॉ के प्ले भी अंग्रेज़ी में और गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की भी लिखी हुई भी अंग्रेज़ी है। लेकिन शेक्सपीयर या शॉ की अंग्रेज़ी,गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की अंग्रेज़ी बिल्कुल भिन्न है। हिन्दी-उर्दू का बंटवारा साहित्यिक स्तर पर ही है, बोलचाल के स्तर ज़बान का नाम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। आप दुष्यंत कुमार के दस शेर ले लीजिए और दस शेर मुनव्वर राना के, और किसी को यह न बताइए कि ये किसके शेर हैं और पूछिए कि यह हिन्दी है या उर्दू? दुष्यंत कुमार का शेर है-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा गया होगा
मैं सज़द में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

और मुनव्वर राना का शेर यह है-
सो जाते हैं फुटपाथ पर अख़बार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

बताइए इसमें हिन्दी में कौन है और उर्दू में कौन है? अगर हम कहें दोनों हिन्दुस्तानी हैं, जो लोग हिन्दुस्तान में रहते हैं और जो लोग हिन्दुस्तान के माहौल में रचे-बसे हैं,यह उन्हीं की भाषा है। यह न राना की भाषा है, न ही दुष्यंत कुमार की भाषा है, अलबत्ता शेर उनके हैं.....।

सवालः आप युवा पीढ़ी के किन शायरों से बेहद प्रभावित हैं?


जवाबः कई लोग हैं, जो उर्दू में बहुत अच्छा कहते हैं, ग़ज़लों में लखनउ के तारिक़ क़मर और बिजनौर के शकील जमाली आदि हैं। हिन्दी कवियों में आलोक श्रीवास्तव और अतुल अजनबी से काफ़ी उम्मीदे हैं। मुशायरों में आजकल अलताफ़ ज़िया की काफी धूम है। इन सबसे मैं बेहद प्रभावित हूं। इनके अतिरिक्त और भी कई लोग हैं जो अच्छा लिख रहे हैं, अच्छा कह रहे
सवालः उर्दू में जो लोकप्रियता ग़ज़लों को मिली, वह लोकप्रियता नज़्म हासिल नहीं कर सकी, आखि़र क्यों?

जवाबः जिस प्रकार दोहों की दो पंक्तियों में पूरी बात कह दी जाती है, ठीक उसी प्रकार ग़ज़ल में दो मिस्रों में एक मुकम्मल बात कह दी जाती है। उसी बात को नज़्म में 25-30 पंक्तियों में कही जाती है। असल में मानव स्वभाव हमेशा संक्षिप्त में ही सुनना चाहता है। गीता और कु़रआन में भी अच्छी और बड़ी बातें संक्षिप्त में की गई हैं, विस्तार में नहीं। वहां एक-एक श्लोक या आयत में कम शब्दों में बहुत अधिक शिक्षाएं दी गईं हैं। ग़ज़ल का यह गुण है कि वो बेइंतिहा मुख़्तसर दो पंक्तियों में बहुत बड़ी बात कह देती है। जैसे कि-


हमसे मोहब्बत करने वाले रोते ही रह जाएंगे,

हम जो किसी दिन सोए तो फिर सोत ही रह जाएंगे

रात ख़्वाब में मैंने अपनी मौत को देखा,
उतने रोने वालों में तुम नज़र नहीं आए।


नज़्म व्याख्या है,विस्तार है और ग़ज़ल संक्षिप्त है, गागर में सागर है। यही कारण है कि ग़ज़लें नज़्म की तुलना में अधिक लोकप्रिय हुईं।


सवालः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन में होने वाली राजनीति और गुणा-भाग के बारे में आपकी क्या राय है?


जवाबः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन का गुणा-भाग या राजनीति में किसको किस कुर्सी पर बैठाया जाए, के चयन के गुणा-भाग में कुछ विशेष फ़र्क नहीं है। दोनों के चयन में लोगों के अपने-अपने स्वार्थ, अपनी-अपनी रुचि,अपनी-अपनी दिलचस्पियां छिपी हुई हैं। हमने कभी आपको खुश किया, कभी आप हमें खुश कर दें। यह दुनिया लेने-देने की दुनिया है, इस बात का विस्तार बहुत है, लेकिन इसको यहीं पर रहने दिया जाए।


सवालः आजकल मंचीय कवि और प्रकाशित होने वाले कवि एक-दुसरे से दूर भागते क्यों जा रहे हैं?

जवाबः ऐसी बात नहीं है, कोई अलग नहीं हो रहा है। असल में यह स्वीकार्यता के जुड़ी हुई बात है।जिन लोगों को मंच कुबूल कर रहा है,वह मंच पर जा रहे हैं।जिन्हें मंच कुबूल नहीं कर रहा है और उन में प्रतिभा तो है, उस प्रतिभा को कहीं न कहीं उजागर होना चाहिए न .... उसके लिए प्रिंट मीडिया है। काम दोनों अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं, दोनों को इज़्ज़त मिलनी चाहिए।

सवालःसूचना प्रोद्योगिकी के इस दौर में साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है, क्यों?

जवाबः अंग्रेज़ी मे एक बात कही गई है ‘पोएटरी डिकलाइन ऐज सिविलाइजेशन एडवांस’ अर्थात सभ्यता के आधुनिकीकरण के साथ काव्य का पतन होता जाता है। यह प्रकृति का नियम है। जैसे आज हम शायरी करते हैं और इसे इतना वक़्त देते हैं लेकिन कल हमें मिनिस्टर बना दिया जाए तो क्या यह मुमकिन है कि जितनी दिलचस्पी हम आज ले रहे हैं, वह कल भी रहेगी। कल हमारी परिस्थितियां बदल जाएंगीं। अधिकाधिक पैसा कमाने की होड़ ने मानव को मशीन बना दिया है... गुलामी के दौर में ज़्यादा बड़ी प्रतिभाएं पैदा हुईं, गरीबी के दौर में आदमी जितना संघर्षशील होता है, खुशहाली के दौर में उतना नहीं।यही कारण है कि साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है।


गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 14 नवंबर 2011

राखी सावंत के हाथों भी दिला सकते हैं ज्ञानपीठ- मुनव्वर राना



आज की तारीख में मुनव्वर राना किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, उन्होंने उर्दू शायरी को गुले-बुलबुल और आशिक-माशूक की बेड़ियों से बाहर निकालकर आम आदमी से जोड़ने का काम किया है। उन्होंने दुनिया को बताया कि शायरी सिर्फ़ हुस्न की जंजीर में जकड़ी हुई खुशामद और जी-हुजूरी की चीज़ नहीं है।बल्कि मां की ममता, उसकी कुर्बानी और औलाद के प्रति उसका असीम प्यार भी शायरी के विषय हैं। कूड़े-करकट, रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाते बच्चे और फुटपाथ पर बिना नींद की गोली खाए सोते हुए मज़दूर को खूबसूरती के साथ शायरी विषय बनाया जा सकता है। यही वजह है कि आज मुनव्वर राना को मुशायरों का शहंशाह कहा जाता है। इस दौर के वे अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी मकबूलियत मंत्री से लेकर संत्री तक के बीच है। 26 नवंबर 1952 को रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राना की अब तक ‘ग़ज़ल गांव’, पीपल छांव, सब उसके लिए, घर अकेला हो गया, सफेद जंगली कबूतर, मुनव्वर राना की सौ ग़ज़लें, नये मौसम के फूल और मुहाजिरनामा नामक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।कन्हैया लाल नंदन ने उनकी एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है,‘मुनव्वर राना की शायरी, शायरी से मुहब्बत करने वाले हर आदमी के सर चढ़कर बोलती है। जिन्हें हिन्दी और उर्दू की सादगी की गंगा-जमुनी धार का मजा मालूम है उनके लिए मुनव्वर की ज़बान एक ऐसी ज़बान है जो इन दोनों के लिए पहनापे में विश्वास करती है। एक मां तो दूसरी को मौसी समझती है, जिनके लिए मुनव्वर कहते हैं ‘ लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है।’ इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे बात की-

सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों प्रोफेसर शहरयार को दिया जाना कितना उचित है, इसे लेकर साहित्यकारों में बड़ी कड़ी प्रतिक्रिया है।
जवाबःशहरयार साहब को अमिताभ बच्चन के हाथों पुरस्कार दिया जाना बिल्कुल सही है, इसलिए कि उनको हिन्दुस्तान के आम लोग फिल्म राइटर की वजह से ही उन्हे जानते हैं।उनका साहित्य में इतना बड़ा कोई काम नहीं है। मैं पहले भी यह बात कह चुका हूं कि देखिए इस बार ज्ञानपीठ एवार्ड देने वाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। हाजी अब्दुल सत्तार, बशीर बद्र, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, मलिकज़ाद मंजूर जैसे लोगों की मौजूदगी में यह एवार्ड फिल्म कलाकार के हाथों देना ही इस एवार्ड की इंसर्ट है। प्राब्लम यह है कि हमारे मुल्क में लोग सच नहीं बोलते, डरते हैं।उन्हें यह लगता है कि आइंदा हमको भी तो एवार्ड लेना है। मेरा मामला यह है कि मुझे एवार्डों में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैं बहुत आसानी से सच बोल देता हूं। आम आदमी शहरयार को ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ की वजह से ही पहचानाता है, तो फिल्म अभिनेता के हाथ से शहरयार साहब को
पुरस्कार दिया गया है तो इसका मतलब है कि बहुत इमानदारी से काम किया गया है। एवार्डों की अहमियत ऐसे ही घटती जाती है, कल को राखी सावंत के हाथों से भी दिलाया जा सकता है। मैं पूरे तौर पर, एवार्ड अमिताभ बच्चन के हाथों दिए जाने और शहरयार को ज्ञानपीठ दिए जाने दोनों का खंडन करता हूं।
सवालःग़ज़ल कहने वालों को और कवि और उर्दू शायर कहकर परिभाषित किया जा रहा है। आप इसे किस तरह से देखते हैं।
जवाबःएक वक़्त था जब भारत में दो मान्यता प्राप्त जाति हिन्दू और मुसलमान थे। आज हिन्दुओं में भी विभिन्न जातियां हैं और मुसलमानों में भी। राजनीति ने यह विभाजन कर दिया है और यही विभाजन अब साहित्य में भी हो रहा है। दलित साहित्य में भी अब अपर कास्ट और लोअर कास्ट साहित्य के रूप में विभाजन हो रहा है। ग़ज़ल का मतलब होता है महबूब से बातें करना। कोई भी अपने महबूब से उसी भाषा में बात करता है, जिस भाषा का उसे ज्ञान है।
सवालःउर्दू भाषा की दयनीय स्थिति के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं।
जवाबः सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान का बनना। भारत के जितने फिरकापरस्त लोग थे, उन्होंने यह प्रचारित किया कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह भी प्रचारित किया गया है उर्दू की वहज से ही पाकिस्तान बना था। अगर उर्दू की वजह से पाकिस्तान बनता तो आज पूरा पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा होता। किसी भी ज़बान को क़त्ल करने का सबसे आसान तरीक़ा है कि उसे किसी ख़ास फिरके से जोड़ दिया जाए।
सवालः नज़्म और ग़ज़ल में से किस विधा को अधिक प्रभावी मानते हैं।
जवाबःहमारे यहां नज़्म के बड़े शायर इक़बाल और नज़ीर अकबराबादी हुए हैं। नज़्मों के सिस्टम का रिप्रेस्मेंट हिन्दी कविता में बहुत मज़बूत है। जो नकारा शायर हैं, जो अपनी बात किसी कैनवास में नहीं ढाल पाते हैं, वो आज़ाद नज़्म लिख रहे हैं। ग़ज़ल एक पावरफुल विधा है, जिस तरह हकीमी मुरब्बा यानी शीशी वाली दवाओं का ज़माना खत्म हो गया है, अब हर दवा कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है, उसी तरह शायरी की ग़ज़ल विधा कैप्सूल और टैबलेट हे, जिसका प्रचलन सबसे अधिक है।
सवालःमुशायरों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
जवाबः बात सही है, जो चीज़ कारोबार बन जाती है, उसका स्तर गिर जाता है।जैसे नेतागिरी कारोबार बन गया है तो राजनीति का स्तर बेहद घटिया हो गया है। तरंनुम में पढ़ने वाले नौटंकीबाज शायरों का जमावड़े होकर रह गए है आज के मुशायरे। आयोजकों में आपसी साठगांठ है, लोग एक दूसरे को बुलाते हैं। मुशायरा पढ़ने वाला शायर है या नहीं इससे किसी कोई सरोकार नहीं है। ऐसी-ऐसी औरतों को स्टेज पर आमंत्रित कर लिया जाता है, जिनका शायरी से कोई रिश्ता नहीं है। एक तरह की व्यक्तिगत नज़दीकी आयोजकों की शर्त पर आमंत्रित होती हैं। ऐसे लोगों के बीच स्टेज पर बैठना शायरी और शायर के शान के खि़लाफ़ है।
सवालः इस तरह की बुराई क्यों पैदा हुई।
जवाबः आज सी क्लास के मुशायरा पढ़ने वाले शायर की भी आमदनी 50 हजार रुपए प्रतिमाह है, जबकि महीनेभर नौकरी करने वाले अफसर की तनख़्वाह 35 हजार रुपए के आसपास है, और यही मुशायरे के स्तर गिरने की सबसे बड़ी वजह है। शायरी दुनिया का अकेला ऐसा इंस्टीट्यूट है जिसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता।माईक कोई लगाता है, चंदा कोई इकट्ठा करता है और शायर मंच पर पहंुचकर शायरी सुनाता है, और सारा धन बटोर लेता है। हालत यह है कि जिस औरत को उसकी करेक्टर की वजह से अपने घर तक नहीं बुलाया जा सकता, उन्हें मुशायरों के ठेकेदार देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए विदेशों में भेज रहे हैं।
सवालः तमाम शायरों ने अपना रेट फिक्स कर रखा है, कुछ लोग तो एक मुशायरे में पढ़ने के लिए 80 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक मांग रहे हैं।
जवाबः अच्छे रिक्शेवाले और अच्छी तवायफें भी अपना रेट फिक्स नहीं करतीं, जो ग्राहक दे देते हैं वो ले लेती हैं। जिस शायर में फ़कीरी न हो वो शायर हो ही नहीं सकता। मैं तो कहता हूं कि कि शायरों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक का दस प्रतिशत काटकर उसी मूल्य की अदबी किताबें तोहफे क तौर पर देना चाहिए। साथ ही मुशायरागाह में किताबों के स्टाल भी ज़रूर लगाया जाना चाहिए।
सवालःसाहित्य का राजनीति से कितना संबंध है।
जवाबः दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं, एक ख़ेत में जाता हुआ पानी है, जिसे पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, दूसरा नाली में बहता हुआ पानी, जो सिर्फ़ गंदगी ही गंदगी ही गंदगी है। साहित्य खेत के लिए बहता हुआ पानी है।
सवालः आपने शायरी का प्रमुख विषय मां को बनाया है, इसकी कोई ख़ास वहज।
जवाबः मेरा पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया। मैं, मेरी मां और वालिद साहब यहीं रहे। वालिद साहब एक टृक चलाते थे, कभी-कभी वो कई दिनों के बाद घर आते, जिसकी वजह से खाने तक के लिए हम मोहताज़ हो जाते थे। रिश्ते की खाला वगैरह के यहां जाकर खाना खा लिया करता था। मां हर वक़्त जानमाज पर बैठी दुआएं ही मांगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से मां रातभर जागती थी,वो डरती थी कि कहीं रात में चलते हुए कुएं में जाकर न गिर जाउं। मैंने मां को हमेशा दुआ मांगते ही देखा है, इसलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।
सवालः क्वालिफिकेशन शायरी के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
जवाबः क्वालिफिकेशन अगर डिग्री का नाम है तो तमाम जगहों पर पैसे बेची जा रही हैं और क्वालिफिकेशन तजुर्बे का नाम है तो पूरी ज़िन्दगी पूरी नहीं हो सकती।
सवालः नए लोगों को क्या सलाह देंगे। आज के नौजवान मुनव्वर राना बनना चाहता है, तो उसे क्या करना चाहिए।
जवाबः नए लोग मेहनत कर रहे हैं, अच्छा कह भी रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि क्लासिकी लिटरेचर का ज्ञान नहीं है, बिना इसके अच्छी शायरी नहीं की जा सकती। जब बुनियाद मज़बूत नहीं होगी, मज़बूत मकान नहीं बना सकता। लोग मुनव्वर राना तब तक नहीं बन सकते जब तक कि मीर को नहीं पढ़ेंगे।




हिन्दी दैनिक जनवाणी में 13 नवंबर 2011 को प्रकाशित

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

महादेवी जी ने लिखा, दो साहित्यिक परिवार एक हो गए


---------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी --------

प्रसिद्ध
गीतकार यश मालवीय का विवाह हिन्दुस्तानी एकेडमी के पूर्व सचिव रामजी पांडेय की पुत्री आरती मालवीय से हुई है। रामजी पांडेय को महादेवी जी ने अपना पुत्र मान था। इस नाते आरती देवी उनकी पोती हैं।साहित्यकार उमाकांत मालवीय के तीन पुत्रों में से यश दूसरे नंबर के हैं। उमाकांत और महादेवी वर्मा जी ने दोनों परिवारों के रिश्ते की डोर में बांधना तय किया। यश मालवीय बताते हैं कि महादेवी वर्मा जी ने हमारी शादी के कार्ड पर अपने हाथों से लिखा था। उन्होंने लिखा था कि ‘इस विवाह से दो आत्मीय साहित्यिक परिवार एक हो रहे हैं।’
यश मालवीय अपनी अपनी शादी की बात याद करते हुए कहते हैं कि 25 जून 1986 को महादेवी जी के घर बारात जानी थी। इलाहाबाद शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, बारात निकालने के लिए किसी तरह से पास बनवाया गया। महादेवी जी काफी वृद्ध थीं, देर तक खड़ी नहीं हो पाती थीं। उन्होंने रामजी पांडेय से कहा कि मुझे विवाह द्वार पर दुल्हे को प्रवेश करते हुए देखना है, मेरी कुर्सी द्वार पर ही लगा दो। द्वार के पास लगी कुर्सी पर महादेवी जी बैठी थीं। यश मालवीय बताते हैं कि दुल्हे के रूप में प्रवेश करते ही महादेवी जी ने मेरे सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। उस समय लगा जैसे पूरी सदी का हाथ मेरे सर पर है। शायर अज़हर इनायती का शेर प्रासंगिक हो रहा था ‘रास्तों क्या हुए वो लोग जो आते-जाते, मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिए।’ यश बताते हैं कि कर्फ्यू की वजह से बैंड बाजे वाले नहीं आए। इसलिए लाउडस्पीकर लगाकर उसमें उस्ताद बिसमिल्लाह खान की शहनाई का कैसेट लगा दिया गया। शहनाई की आवाज सुनकर महादेवी जी बोलीं, कानों का उत्सव तो है लेकिन दृष्टि का उत्सव तब होता जब बिसमिल्लाह खान सशरीर यहां मौजूद होकर शहनाई बजाते। गौरतलब है कि महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को फर्रुखाबाद जिले में हुआ था। 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम ए करने के बाद अध्यापन कार्य शुरू किया था। प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्य के रूप में भी उन्होंने सेवाएं दीं। चांद नामक पत्रिका का संपादन किया। 1956 में पद्मभूषण और 1982 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 11 सितंबर 1987 को निधन के बाद 1988 में सरकार ने उन्हें मरणोपरांत पद्मविभूषण पुरस्कार दिया।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 17 अप्रैल 2011 को प्रकाशित

रविवार, 6 नवंबर 2011

मजरूह सुल्तानपुरी ने फैज को दिया करारा जवाब



---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ---------
मजरूह सुल्तानपुरी के करीबियों में शुमार जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि मजरूह साहब अपने दोस्त हकीम इब्बन साहब के यहां फैजाबाद में मेहमान थे। एक काव्य गोष्ठी की समाप्ति पर उन्होंने गालिबन कनाडा के किसी मुशायरे का जिक्र किया। उस मुशायरे में मजरूह और फैज अहमद फैज के अतिरिक्त दुनिया के कई बड़े शायर शरीक थे। फैज ने एक तकरीर की जिसमें दुनिया के कुछ देशों के हालात का जिक्र करते हुए भारत पर भी कुछ तीखी टिप्पणी की। जब मजरूह साहब अपना कलाम पेश करने माइक पर गए तो उन्होंने कहा, अभी जिस भारत के हालात पर फैज साहब रोशनी डाल रहे थे, मैं वहीं का हूं। मैं अपने भारत के बारे में फख्र के साथ कहता हूं कि यह चश्मा जो मेरी आंख पर है, भारत का बना हुआ है।मेरे जिस्म पर मबलूस शेरवानी, कुर्ता और पायजामा का कपड़ा भारत में ही बना है। मेरा कलम, मेरा मोजा और जूता भारत का ही बना हुआ है। पर फैज साहब के पाकिस्तान का आलम यह है कि उनकी पैंट-शर्ट का कपड़ा जर्मन का बना है तो चश्मा इंग्लैंउ का। कलम अमेरिकी है तो जूता जापान का है। अगर से सारे देश अपनी-अपनी चीज़े वापस ले लें तो फैज साहब की क्या हालत होगी, आप हज़रात महसूस कर सकते हैं।
एक और घटना का जिक्र करते हुए जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि बात सितंबर 1976 की है, मैंने अपने एक साहित्य प्रेमी मित्र स्वर्गीय रामजी अग्रवाल जो उन दिनों अधिवक्ता संघ सुल्तानपुर के सचिव थे, से मजरूह सुल्तानपुरी का जश्न सुल्तानपुर में मनाए जाने केक संबंध में मशवरा करना चाहा तो वह खुशी से उछल पड़े और तुरंत मुझे अपने साथ राजकिशोर सिंह जो उस समय जिला परिषद अध्यक्ष थे, के पास ले गए। और उनसे कहा कि नवंबर 1976 के अंत तक ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाया जाए। जश्न के संबंध में हम तीनों लोगों ने मजरूह साहब की खिदमत में अलग-अलग ख़त लिखे। ख़त में जश्न की तिथि के निर्धारण और उसमें शिरकत करने का अनुरोध किया गया। दो सप्ताह के अंदर ही मजरूह साहब ने जश्न मनाने की अनुमति और उसमें शिरकत करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। हमलोगों ने को अपार खुशी हुई और ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ की संपूर्ण रूपरेखा बना ली गई। सौभाग्य से उन्हीं दिनों स्वर्गीय केदारनाथ सिंह जो उस समय केंद्रीय मंत्रीमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, सुल्तानपुर आए हुए थे। उनसे भी जश्न के संबंध में विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने न सिर्फ हमारे फैसले को सराहा बल्कि इस प्रस्तावित जश्न को ऐतिहासिक जश्न का रूप देने का मश्विरा दिया और इसमें भरपूर सहयोग करने का आश्वासन भी दिया।
‘कमेटी जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से एक तदर्थ समिति का गठन भी हुआ, जिसके अध्यक्ष राजकिशोर सिंह, मंत्री रामजी अग्रवाल हुए। मुझे संयाजक बनाया गया। जाहिल सुल्तापुरी बताते हैं कि मैंने मजरूह साहब को एक विस्तृत खत लिखा, जिसमें त्रिदिवसीय जश्न की रूपरेखा से अतगत कराते हुए उनसे तारीख निर्धारित करने का अनुरोध किया। ख़त में यह भी उल्लेख किया कि सुल्तानपुरवासी अपने वतन के हरदिल अज़ीज़ शायर का जश्न महज मुशायरा तक ही सीमित नहीं रखना चाहते। वतन वालों की ख़्वाहिश है कि जश्न के पहले दिन मजरूह की शायरी और ज़िन्दगी पर एक उच्चस्तरीय सेमिनार का आयोजन किया जाए, जिसमें कुछ प्रतिष्ठित विद्वान समालोचकों द्वारा आलेख का वाचन किया जाए। उन आलेखों को आयोजन से पहले मंगाकर उर्दू और हिन्दी में एक किताब के रूप में छाप लिया जाए, ताकि सुल्तानपुर अपने इस अज़ीज़ शायर पर अपनी धरती से एक किताब दे सके। जश्न के दूसरे दिन मजरूह के फिल्मी गीतों, जिसमें भारतीय संस्कृति, ग्रामीण जीवन से संबंधित बहुआयामी लोकगीतों,परंपराओं और लोक जीवन का जो सजीव चित्रण बोली-बानी से माध्यम से किया गया है उसे एक नया आयाम देकर फिल्मों के जरिए लोक तक पहुंचाया है, पर विस्तृत चर्चा कि जाए। तीसरे दिन अखिल भारतीय मुशायरा और कवि सम्मेलन अयोजित किया जाए।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि हमलोग मजरूह साहब के ख़त का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। मजरूह साहब का ख़त तो जरूर आया, पर उन्होंने जश्न की तारीख निश्चित करने के बजाए यह लिखा कि क्या उस जश्न में उनके कुछ निकटस्थ दोस्तों का मश्विरा शामिल नहीं हैं, तहरीर करो। इस ख़त के बाद मैंने दूसरे दिन कमेटी के अध्यक्ष राजकिशोर सिंह और मंत्री रामजी अग्रवाल से मजरूह साहब के उस ख़त पर चर्चा करने के बाद यह लिखा कि इस जश्न में सबका सहयोग रहेगा, सभी की सहमति रहेगी, ख़ासकर आपके साथियों का मश्विरा ही नहीं, उनकी रहबरी में यह जश्न मनाया जाएगा। मगर इस ख़त के दूसरे दिन ही मजरूह साहब का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ एक ख़त मिला, जिसमें उन्होंने फरमाया कि लगता है कि यह जश्न उनके दोस्तों की मर्जी के बगैर हो रहा है। अगर ऐसा है तो जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित कर दें। इस ख़त को पाकर राजकिशोर सिंह, रामजी अग्रवाल और खुद जाहि को बड़ी मायूसी हुई।
बकौल जाहिल सुल्तानपुरी बाद में पता चला कि मजरूह साहब की खिदमत में उनके एक करीबी साथी ने ख़त लिखा था कि प्रस्तावित जश्न के आयोजक जिम्मेदार नहीं हैं। इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मजरूह साहब पर अपने मित्र के ख़त का असर पड़ा और उन्होंने एक तरह से ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ स्थगित करने का निर्देश दे दिया। मजरूह साहब के ख़त को पढ़ने के बाद जाहिल ने गुस्से में एक खत लिखा, ‘जो हजरात आपके काफी करीबी होने का दम भरते हैं और और दावा करते हैं, दरअसल वे ही आपका का जश्न सरज़मीन-ए-सुल्तानपुर में मनाए जाने के दरपर्दा मुखालिफ़ हैं। उन्होंने आपके दिन-ओ-नज़र में मुझे मुशायरों के उन संयोजकों में की कतार मे लाकर खड़ा कर दिया है, जो आमतौर पर मुशायरों के चंदों की रकम से अपनी शेरवानी बनवाते हैं। आपने जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित करने की हिदायत दी है, मैं इसे कैन्सिल करता हूं। और शायद अब आपका जश्न सुल्तानपुर की सरज़मीन पर आयोजित नहीं हो सकेगा, क्योंकि जिन्हें आप यहां अपना दिली चाहने वाला समक्ष रहे हैं वो आपका का जश्न इस धरती पर मानना ही नहीं चाहते। अगर वे आपको चाहते होते हम तीनों लोगों की पेशकश से पहले वे लोग अब तक आपका जश्न मना चुके होते। हमें तो आपने खुद ही जश्न मनाने से मना कर दिया है, इसलिए हम मज़बूर हैं। हां, आपके बाद इंशा अल्लाह हम ‘याद-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाने का इरादा करते हैं।’ यह ख़त पढ़कर मजरूह साहब ने सुल्तानपुर के एक अन्य शख़्सियत ताबिश सुल्तानपुरी जो उन दिनों संवाद लेखक थे और तरक्की पसंद तहरकी से जुड़े मशहूर शायर थे, से इस अक्षम्य हरकत की शिकायत भी की, मगार एक बुजुर्ग और मुशाफिक की हैसियत से। ताबिश साहब जब मुंबई से सुल्तानपुर आए तो उन्होंने मजरूह साहब की उस बुजुर्गाना शिकायत से आगाह किया।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि वर्ष 1976 के बाद से 1998 तक की अवधि में पांच-छह बार मजरूह साहब के साथ मुशायरे में शिरकत करने और मुलाकात करने अवसर मिला, मगर उस कद्दावर शख़्सियत ने, जो आलमी शोहरत के मालिक थे, कभी भी मेरे उस असंसदीय और गैर मोहज्जब ख़त के विषय में कोई शिकायत नहीं की। इल्म के उस गहरे समुद्र में मेरी जेहालत से लबरेज तहरकी गर्क हो गई। हर बार मजरूह मुझसे एक मुश्फिक,एक सरपरस्त और एक बुजुर्ग की तरह मिले। मजरूह साहब के उस किरदार ने, उस अख़लाक ने और उस विशाल हृदयता ने मुझे ज़िदगीभर के लिए अपना गिरवीदा बना लिया। मैं अपने ख़त के लिए आज भी शर्मिंदा हूं।
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म अक्तूबर 1919 का उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। तरक्कीपसंद शायरों में उनका नाम सरेफेहरिस्त लिया जाता है। उन्होंने तमाम हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं, जो आज भी लोगों के जेहन में तरोताजा हैं। 1964 में फिल्म ‘दोस्ती’ के गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर एवार्ड से नवाजा गया। इस अज़ीम शख़्सियत के मालिक का निधन 24 मई 2000 को हुआ।
हिन्दी दैनिक ‘जनवाणी’ में 06 नवंबर 2011 को प्रकाशित


शनिवार, 5 नवंबर 2011

‘गुफ़्तगू’ ने आयोजित की कैम्पस काव्य प्रतियोगिता

कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए प्रस्थान करते मशहूर शायर मुनव्वर राना, साथ में संतोष तिवारी, नजीब इलाहाबादी, प्रदीप तिवारी और शिवपूजन सिंह आदि।



दीप प्रज्ज्वलन कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते शायर मुनव्वर राना साथ में संतोष तिवारी, उत्तर प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’, और विधायक पूजा पाल


साहित्यिक
पत्रिका गुफ़्तगू ने ‘कैम्पस काव्य प्रतियोगिता’ का आयोजन किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता मशहूर शायर मुनव्वर राना ने की, जबकि मुख्य अतिथि प्रदेश सरकार के होम्योपैथी चिकित्सा मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी थे। इस अवसर पर दस कवियों को ‘गुफ़्तगू विशिष्ट कवि सम्मान’ भी प्रदान किया है। गुफ़्तगू ने छात्र-छात्राओं से प्रविष्टियाँ आंमत्रित की थी। आयी हुई प्रविष्टियों में से 15 छात्र-छात्राओं से काव्य पाठ कराया गया। सात जजों के पैनल ने विजेताओं का चयन किया। जिनमें कु0 सोनम पाठक ने पहला स्थान प्राप्त किया। मुबस्सिर हुसैन व सुशील द्विवेदी दूसरे जबकि सौरभ द्विवेदी और नित्यांनद राय तीसरे स्थान पर रहे। दस बच्चों को सांत्वना पुरस्कार के रूप में 500-500 रुपये की किताबें दी गई। प्रथम पुरस्कार के रूप में 1001/- रुपये, दूसरे पुरस्कार के रूप में 701/- रुपये व तीसरे पुरस्कार के रूप में 501/- रूपये प्रत्येक को प्रदान किया गया। सांत्वना पुरस्कार रानू मिश्र, गोविन्द वर्मा, अमनदीप सिंह, हुमा फात्मा अक्सीर, पंकज, चंद्रबली ‘कातिल’,दुर्गेश सिंह, अरविन्द कुमार और शादमा बानो ‘शाद’ को दिया गया। इस अवसर पर अरमान गाज़ीपुरी, डा0 सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव, सुनील दानिश, हसन सिवानी, मंजूर बाकराबादी, श्लेष गौतम, जलाल फूलपुरी, राजीव श्रीवास्वतव ‘नसीब’ और डा0 मोनिका नामदेव को ‘गुफ़्तगू विशिष्ट कवि सम्मान से नवाजा गया। शायर मुनव्वर राना ने ‘गुफ़्तगू’ के इस पहल की भूरी-भूरी प्रशंसा की। ‘गुफ़्तगू’ के संरक्षक इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी ने कहा कि पत्रिका का उद्देश्य ही नये लोगों को अधिक से अधिक अवसर प्रदान करना है, कार्यक्रम में गुफ्तगू के जलाल फूलपुरी अंक का विमोचन भी किया गया। इस अवसर पर संयोजक शिवपूजन सिंह, संतोष तिवारी, विधायक पूजा पाल, अखिलेश सिंह, डा0 राजीव सिंह, डा0 पीयूष दीक्षित, जय कृष्ण राय तुषार, यश मालवीय, धनंजय सिंह, जयकृष्ण राय तुषार, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव, जमादार धीरज, प्रदीप तिवारी, शकील गाजीपुरी आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने किया।
कार्यक्रम में विचार व्यक्त करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

‘गुफ्तगू विशिष्ट कवि सम्मान’ से नवाजे गए साहित्यकार

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

पत्रकारिता फिर से कलेवर व तेवर की तरफ रुख करेगी-श्रीधर


पत्रकारिता अपने मानदंडों से गिरती जा रही है। पीत पत्रकारिता सामान्य बात हो गई है।आधुनिकता और बाजारीकरण ने आदर्श पत्रकारिता को बहुत पीछे छोड़ दिया है। राष्टृीय और अंतरराटृीय घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखने वाले इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार पंडित श्रीधर द्विवेदी ने ‘गुफ्तगू’ से एक विशेष साक्षात्कार में आज की पत्रकारिता के संदर्भ में उक्त विचार व्यक्त किया। पिछले पांच दशकों से पत्रकारिता से जुड़े श्री द्विवेदी का कहना है कि समाचारपत्र निकालना अब मिशन नहीं रह गया,बल्कि पूरी तरह व्यापार हो गया है। जिसमें संपादक की हैसियत महज एक कठपुतली की रह गई है और मालिकान निजी हितों में उसकी प्रतिभा का शोषण और दोहन करने से बाज नहीं आते। उन्होंने कहा कि अखबार संपादकों के हाथ से निकलकर अब पूरी तरह से प्रबंधतंत्र के हाथ का खिलौना बन चुका है। प्रबंधतंत्र जैसे चाहता है वैसे अखबार को चलाता है। उनका मानना है कि अखबरों की भाषा भी अब बदल गई है। हिन्दी अखबारों में अंग्रेजी की मिलावट से आम आदमी को कठिनाई होती है और इससे भाषा भी प्रदूषित होती है। श्री द्विवेदी का कहना है कि अखबार अब वर्ग विशेष और क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर प्रकाशित किए जाते हैं, इसमें अखबारों की सार्वभौमिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। अब अखबारों की नौकरी के लिए योग्यता से ज्यादा संपर्कों और बाजार में पकड़ को महत्व दिया जाता है,यही कारण है कि अब अखबारों में प्रायः चाटुकारों की फौज ही दिखाई देती है, जिसके चलते अखबारों का स्तर गिरता चला जा रहा है। पत्रकारिता के भविष्य के संबंध में उनका कहना है कि अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। एक न एक दिन फिर से बदलाव का दौर शुरू होगा और पत्रकारिता फिर अपने कलेवर व तेवर की तरफ रुख करेगी। समाज को सबसे ज्यादा राजनीति प्रभावित करती है, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार भी पत्रकारिता में मानदंडों को गिराने के लिए उत्तरदायी कारक है। श्री को उम्मीद है कि राजनीति में शुचिता एक न एक दिन जरूर आएगी और पत्रकारिता अपने पुराने मानदंडों को फिर से गौरवांवित करेगी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित श्रीधर द्विवेदी का जीवन संघर्षों से भरा रहा है। कांटों के बीच राह बनाने वाले श्री द्विवेदी का जन्म 23 जुलाई 1936 को आजमगढ़ के एक सामान्य परिवार में हुआ था। बचपन में ही अभाव और कठिनाइयों ने उन्हें संघर्षशील बनाया और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। पांचवीं तक गांव में पढ़ाई करने के बाद नेशनल इंटर कालेज आजमगढ़ से इंटर की परींक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की लेकिन आगे की पढ़ाई का मार्ग आर्थिक तंगी के कारण बंद हो गया। छह वर्षों तक कोलकाता में एक प्राइवेट कंपनी में काम किया लेकिन मन नहीं लगा तो वापस लखनउ आ गए। 1959 में लखनउ में आने के बाद त्रिपथगा पत्रिका में बतौर सहायक कार्य मिला तो रोजीरोटी के साथ ही साहित्य सेवा क गाड़ी चल निकली। काम के बाद ट्यूशन और फिर अपनी पढ़ाई। जीवन की यही दिनचर्या बन गई। न साइकिल न रिक्शे के पैसे। ऐसी स्थिति में पांव ही साइकिल बन गए और समय बचाने के लिए दौड़-दौड़ कर ट्यूशन पढ़ाने जाना शगल बन गया। स्नातक किया फिर हिन्दी और इतिहास से परास्नातक की डिग्री हासिल की। पत्रकारिता की नियमित शुरूआत 1965 में तरुण भारत से हुई। 1971 में स्वतंत्र भारत में नौकरी मिली। 1977 में ‘अमृत प्रभात’के प्रकाशन शुरू होने के साथ ही यहां काम शुरू किया, यहीं से 1996 में सेवामुक्त हुए। पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को अपने जीवन में उतारने वाले श्री द्विवेदी की देश-विदेश राजनैतिक गतिविधियों पर हमेशा पैनी नजर रहती है। अमृत प्रभात,स्वतंत्र भारत, नार्दन इंडिया पत्रिका, युनाइटेड भारत, सहजसत्ता सहित अनेक दैनिक पाक्षिक और साप्ताहिक सामचार पत्रों में नियमित रूप से श्री द्विवेदी सम सामयिक घटना पर लिखे गए लेख तत्कालीन दृश्य के आइना होते हैं। देशांतर के रूप् में उनके लेखों की एक लंगी श्रंखला इतिहाल की धरोहर है। तथागत शिखावन महाकाव्य जीवन के विविध पक्षों पर एक हजार गीतों को संग्रह ‘भावना’, पांच लघु व्यंग्य नाटिकाओं का संग्रह ‘साक्षात्कार’ संपूर्ण नाटक समाजवाद व महार दीवारी और हिन्दी के अलावा घुंघरू के बोले, राही, समस्या,बानी पुत्र और दशरथ इनकी उत्कृष्ट रचनाओं में शामिल हैं।
विजय शंकर पांडेय

मोबाइल नंबरः 9305771175

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

भगवान और महानायक की संज्ञा क्यों ?







पिछले लगभग एक दशक से महानायक और भगवान शब्द के वास्तविक अर्थ से खिलवाड़ किया जा रहा है। सचिन तेंदुल्कर को भगवान और अमिताभ बच्चन को महानायक की संज्ञा दी जा रही है। जबकि ये दोनों ही उपाधियां किसी भी दृष्टि से सहीं नहीं है। भगवान वह होता है जिसके अंदर ईश्वरी शक्ति हो और देश का महानायक उसे कहा जा सकता है जिसने बिना किसी लोभ-धन के देश की सेवा की हो। अब परिदृश्य में देखा जाए तो, न तो सचिन तेंदुल्कर भगवान हो सकते हैं और न नहीं अमिताभ बच्चन महानायक।इसमें कोई शक नहीं है कि भारत मुनियों-फकीरों का देश है। यहां राम,कृष्ण और गौतम ने जन्म लिया है और परविश पाई है। देश और समाज के लिए कार्य करने वालों का आदर किया जाता रहा है। महात्मा गंाधी जैसे अहिंसावादी नेता की पूरी दुनिया कायल है, सारी दुनिया में अहिंसा के प्रतिमूर्ति के रूप में उन्हें जाना जाता है। गांधी के अलावा भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए हजारों लोगों ने बिना किसी निजी स्वार्थ के अपनी जान की कुर्बानी दी है। सरदार भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, अशफाकउल्ला जैसे तमाम लोग इसकी जीती जागती मिसाल हैं। इन सबके बीच यदि अमिताभ बच्चन को देश के महानायक की उपाधि दी जा रही है, तो यह किस तर्क पर आधारित है। जहां तक अमिताभ बच्चन के शख्सियत का सवाल है तो इसमें कोई शक नहीं है कि वे भारतीय फिल्म इंडस्टृी के सबसे कामयाब सितारे हैं, उन्होंने बालीवुड को नई दिशा दी है। बड़े-बड़े फिल्म निमार्ता-निदेशक उनके साथ काम करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी सच है कि वे फिल्मों में काम खुद के धन और ख्याति अर्जित करने के लिए करते हैं। टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में आते हैं, तरह-तरह की चीजों की एड और माकेर्टिंग करते हैं, जिसके बदले संबंधित कंपनियों से करोड़ों रुपए लेते हैं। और यह धन खुद के लिए अर्जित करते हैं। इससे देश और समाज को कोई खास फायदा नहीं होता। अब ऐसे में सवाल उठता है कि जो आदमी एक-एक क्लिप का लाखों रुपए वसूलता हो, दंत मंजन से लेकर ठंडा तेल जैसे प्रोडक्ट का प्रचार करता हो, वह बहुत बड़ा कलाकार तो हो सकता है, लेकिन देश का महानायक कैसे हो सकता है। आखिर किस आधार पर उन्हें देश के महानायक की संज्ञा दी जा रही है।इसी तरह सचिन तेंदुल्कर को भगवान की संज्ञा दी जा रही है। सचिन की क्रिकेट की प्रतिभा से किसी को इंकार नहीं हो सकता है। उन्होंने समय-समय पर अतुलनीय बल्लेबाजी की है, ढेर सारे रिकार्ड उनके नाम दर्ज हो चुके हैं और आने वाले दिनों में उसमें इजाफा ही होने वाला है।बड़े-बड़े दिग्गज गेंदबाजों को उन्होंने धूल चटाया है। व्यक्तिग रिकार्ड के हिसाब से निःसदेह वे दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट बल्लेबाज हैं। अनगिनत बार उनके प्रदर्शन से भारत को जीत हासिल हुई है। इन सबके बीच हमें यह भी देखना चाहिए कि वे जितने बड़े खिलाड़ी हैं, भारत की क्रिकेट टीम दुनिया के अन्य टीमों के मुकाबले उतनी बड़ी नहीं है, उतनी कामयाबी और रिकार्ड भारतीय क्रिकेट टीम के नाम पर दर्ज नहीं हैं। अगर उन्हें भगवान की संज्ञा दी जा रही है, तो जिस टीम के सदस्यों में एक भगवान हो, उस टीम के हिस्से में पराजय तो कभी आनी ही नहीं चाहिए। जब से वे क्रिकेट खेल रहे हैं, तब से छह विश्वकप का आयोजन हो चुका हैं,मगर छह विश्वकपों में से भारत सिर्फ एक बार ही विश्वविजेता बन सका है, आखिर क्यों। भगवान तो वह होता है जिसके अंदर ईश्वरीय शक्ति हो।क्या सचिन के अंदर ईश्वरी शक्ति है। इसके साथ-साथ हमें यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने क्रिकेट के मैदान में जो प्रदर्शन किया है उसके बदले उन्हें करोड़ों रुपए मिलते रहे हैं। क्रिकेट की वजह से ही उन्हें बेशुमार दौलत और शोहरत मिली है। विभिन्न प्रोडक्ट्स का प्रचार टीवी चैनलों पर करते हैं, उसके बदले करोड़ों रुपए वसूलते हैं। इससे साफ जाहिर हो जाता है कि उनके बेहतरीन प्रदर्शन से सबसे अधिक उनको व्यक्तिगत लाभ हुआ है। ऐसे में व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े से बड़े काम करने वाले को क्या भगवान कहा जाना उचित है। इसमें कोई शक नहीं है कि उनके द्वारा बनाए गए रिकार्ड की चर्चा होती है और वे देश के अन्य तमाम खिलाड़ियों से बेहतर दिखाई पड़ते हैं तो हमें गर्व होता है कि इतने सारे रिकार्ड बनाने वाला खिलाड़ी हमारे देश का है। लेकिन इसके लिए उसे भगवान कैसे कहा जा सकता है। कितनी हैरानी की बात है कि देश को आजाद को कराने के लिए हंसते-हंसते फंासी का फंदा चूमने वाले और अंग्रेजों की गोलियों खाने वालों को तो देश के महानायक की संज्ञा नहीं दी जा रही है। देश से भ्रष्टचार मिटाने के लिए बिना किसी निजी स्वार्थ के संघर्ष करने वाले, समय-समय पर विभिन्न प्रकार का मोर्चा लेने वाले अन्ना हजारे के काम याद नहीं है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला, मंगल पांडेय, वीर सावरकर, महारानी लक्ष्मीबाई, बाबा आम्टे और अन्ना हजारे जैसे लोग जिन्होंने खुद के फायदे के लिए कोई कार्य नहीं किया, इनकेा महानायक नहीं कहा जा रहा है। जो एक-एक क्लिप और एक-एक प्रदर्शन के बदले बकायदा सौदा करते हैं और करोड़ों रुपए वसूलते हैं, वे देश के महानायक है, आखिर इसका आधार क्या है।


नाज़िया गाजी

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

इंसानियत के पैरोकार थे कैफी आज़मी


---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ----

कैफी आज़मी का शुमार उन शायरों में होता है, जिन्होंने जिन्दगी के अंतिम पल तक इंसानियत का धर्म निभाया और और अस्पताल में लंबे समय तक बीमार पड़े रहने के बावजूद उसी अवस्था में शायरी में करते रहे। अंतिम समय में भी लोगों की जी खोलकर मदद करने वाले शख्स थे।उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की बल्कि अपने शायर और अदीब होने का बखूबी फर्ज निभाया। उनकी पत्नी शौकत कैफी बताती हैं, ‘कैफी ने मौत से कभी हार नहीं मानी,निरंतर लड़ते रहे।अस्पताल की एक घटना याद आती है। घर से सवा चार बजेे अस्पताल पहुंची, कैफी बेहोष पड़े थे। उनके कमरे के दरवाजे पर डू ना डिस्टर्ब की तख्ती लगी हुई थी। पत्नी भी चार बजे से पहले उनके कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी।क्या देख रही हूं कि एक छात्र कैफी के सिरहाने बैठा अपना दुखड़ा सुना रहा है और कैफी अर्धमूर्छित अवस्था में अपने सिर दर्द के बावजूद बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। मैं देखते ही झल्ला गई। ‘ हद हो गई, डाक्टर ने आपको बात करने से भी मना किया है और आप उनसे बातें कर रहे हैं।’ फिर मैंने उस लड़के से कहा-मियां तुम ज़रा बाहर जाओ। इस पर वह कसमसाने लगा और बोला, मैं कैफी साहब को अपने हालात सुनाना चाहता हूं। मैंने प्यार से कहा-जरा आप बाहर जाइए मुझे आपसे कुछ कहना है। लड़का उठकर बाहर आने लगा तो कैफी ने अपनी क्षीण लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘ शौकत यह स्टूडेंट है,इसे कुछ मत कहना। हो सके तो इसकी जो ज़रूरत हो उसे पूरा कर देना।’ अच्छा-अच्छा कहकर बाहर निकल गई। पूछने पर पता चला कि वह अहमदाबाद का रहने वाला है। सौतेली मां के अत्याचार से घबराकर भाग आया है और कैफी से काम मांगने आया है।’ एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए शौकत कैफी बताती हैं,‘ एक बार वह लान में बैठे लिख रहे थे।फूल,पौधों से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके लिए बहुत परिश्रम करते। दूर-दूर से फूलों के बीज मंगवाते। उस समय फूलों का मौसम आने वाला था। फूलों के बाग में मुहल्ले की एक मुर्गी अपने दस-बारह छोटे बच्चों सहित आ गयी और पंजों से गमलों के बीज कुरेद-कुरेद कर खाने लगी।बच्चे भी मां का साथ देने लगे। बस कैफी का एकदम गुस्सा आ गया और उन्हें भगाने के लिए एक छोटा सा पत्थर उनकी ओर फेंका। वह पत्थर मुर्गी के एक बच्चे का लग गया और उसने वहीं तड़प-तड़प दम तोड़ दिया। बस फिर कैफी से रहा न गया, जल्दी से अपनी जगह से उठ खड़े हुए। मुर्गी के बच्चे को पानी पिलाने और किसी प्रकार से उसे जीवित करने की कोशिश करने लगे, मगर जब वह बच न सका तो एक दम कलमबंद करके रख दिया और दो दिन तक काम ही न कर सके। मुझसे कहने लगे, ‘मैंने बहुत ज़्यादती की। उन्हें आवाज़ से भी भगा सकता था। पत्थर फेंकने की क्या ज़रूरत थी। अब मुझसे काम नहीं हो पा रहा है। जब बैठता हूं, वह मुर्गी का बच्चा नज़रों के सामने घूमने लग जाता है।’ मैंने हंसकर बिल्कुल बच्चों की भांति समझाया, ‘भई यह तो अकस्मात ऐसा हो गया फिर तुम मुर्गी खाते भी तो हो। अगर अब नहीं मरता तो बड़ा होकर काट दिया जाता। तुम इसके बारे में मत सोचा।’ शौकत कैफी एक और घटना को याद करती हैं, ‘ एक दिन हमारे घर में चोरी हो गयी। तमाम बेड़ कवर, चादरें, कंबल चोरी हो गए। मुझे मालूम था कि चोर कौन है। एक चोर माली हमारे घर किसी प्रकार आ गया था। जब हमारे घर में निरंतर चोरियां होने लगीं और मुझे पता चला कि यह सारा काम उसी माली का है तो मैंने उसे निकाल दिया और एक दिन जब हम घर से बाहर गए हुए थे और घर खुला हुआ था तो मौका पाकर वह माली फिर आया और घर के तमाम कंबल और चादरें उठा ले गया। जब मैंने कैफी से कहा कि तुम पुलिस में सूचना दो, तो कहने लगे, ‘देखो शौकत बारिश होने वाली है-उस गरीब को भी तो चादरें और कंबल की ज़रूरत होगी। उसके बच्चे कहां जाएंगे। तुम तो और खरीद सकती हो लेकिन वह नहीं।’ मैंने अपना सिर पीट लिया और कोेई जवाब नहीं दे सकी।’ अतहर हुसैनी रिजवी उर्फ कैफी आजमी का जन्म 17 जनवरी 1919 का आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में हुआ था। घर में ही शेरी-शायरी का अच्छा-खासा माहौल था, उनके बड़े भाई और पिता भी शायरी के काफी लगाव रखते थे। खुद उनके घर में भी शेरी-नशिस्त का दौर चलाा करता था। कैफी ने मात्र ग्यारह साल की उम्र में ही शेर कहना शुरू कर दिया था। बहुत मशहूर वाकया है, जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे,उनके गांव में ही तरही मुशायरा का आयोजन किया गया था। उस मुशायरे का तरह था ‘ इतना हंसों कि आंख से आंसू निकल पड़े’। उन्होंने कहा-
इतना तो ज़िदगी में किसी की खलल पड़े,
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े।

इस मुशायरे में उन्हें काफी वाहवाही मिली। उनके पिता दंग रह गए। उन्होंने तुरंत एक पारकर पेन, एक शेरवानी के साथ उनका उपनाम ’कैफी’। तब से वे कैफी आजमी हो गए। उनकी तीन प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। आखिरी शब, झंकार और आजाद सज्दे। उन्होंने तमाम फिल्मों में गीत लिखे। जिसके लिए उन्हें नेशनल पुरस्कार के के अलावा फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। इस कलम के सिपाही ने 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

(हिन्दी दैनिक जनवाणी में 09 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित )

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

अज़ीज़ इलाहाबादी: बेहतरीन शायर और जिंदादिल इनसान



इलाहाबाद हमेशा से अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब,संस्कृति और अपनी शेरी व अदबी फ़िज़ा के लिए मशहूर रहा है.शायरी इलाहाबाद के दिल धडकन और रूह की तरह बस्ती है. पुराने ज़माने से लेकर मौजूदा दौर तक बहुत से शायरों ने अपनी शायरी के ज़रिये इलाहाबाद की फ़िज़ा को खुशनुमा बनाये रखा और अपनी गज़लों व नज्मों के ज़रिये शायरी को बुलंदी बख्शी लेकिन बहुत कम शायर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शायरी के गुलदस्ते में ज़िंदगी के तमाम रंगों के फूलों को समेटा और महकाया. इस लिहाज़ से अगर मौजूदा दौर के शायरों का ज़ायज़ा लिया जाये तो जो नाम मेरे जेहन में सबसे पहले आता है वह हैं अज़ीज़ इलाहाबादी, जिनका पिछले 18 सितम्बर 2011 को इन्तेकाल हो गया.अज़ीज़ इलाहाबादी की पैदाइश 1935 में हुई थी. उनके वालिद का नाम जनाब अब्दुल हमीद खान है. अज़ीज़ साहब की चार किताबें छप चुकीं हैं. इन किताबों के नाम- गज़ल का सुहाग, गांव से शहर तक, गज़ल संसार और नुरुल हुदा है.
अज़ीज़ इलाहाबादी ने मुख्तलिफ अस्नाफे सुखन को अपनी शायरी के दायरे में लिया है.उनका शेरी सरमाया गज़लों,नज्मों,हम्द,नात,सलाम,मनकबत,कतआत, गीतों, दोहों वगैरह से मालामत है, लेकिन यहाँ पर मुझे उनकी गज़लों का जायजा लेना मकसूद है. गज़ल शायरी की एक हरदिल अज़ीज़ और मकबूलतरीन सिंफ है. जिसने यह साबित करके अपने मुखालफीन के ज़बान बंद कर दी कि उसका दायरा सिर्फ हुस्न-इश्क की बातें करने तक महदूद नहीं बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू और दुनिया के हर मज़मून को समेट लेने की वुसअत और सलाहियत इसके अंदर मौज़ूद है. इसकी ताज़ा मिसाल अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें हैं, जो महबूब की जुल्फों से अटखेलियां करते, लबो रुखसार की बातें करते हुए, मरमरीं जिस्म की मदहोश कर देने वाली खुशबू से मुअत्तर होकर जामो सुबू के नग्में गाते रिन्दों के दरमयान अपनी मौजूदगी दर्ज करात हुए शहर की गलियों और सड़कों का गहराई से जायजा लेते हुए गांव के तरफ मुड जाती हैं जहाँ वह ताज़ा हवा और पुरसुकून माहौल में सांस लेती है और फिर खेतों-खलिहानों के दरमियान से गुजरकर, पनघट पर अपनी मौजूदगी का अहसाह दिलाते हुए गांव की गोरी पायल और गागर तक पहुँच जाती है. इस तरह हम देखते हैं कि अज़ीज़ इलाहाबादी के ग़ज़लें गांव से लेकर शहर तक के हुस्नो-जमाल का दीदार कराने के साथ-साथ ज़िंदगी के मौजूदा मसायल की ऐसी नंगी तस्वीर दिखाती जिसे हम देखते हुए भी कभी-कभी नहीं देख पाते.
अज़ीज़ इलाहाबादी की गज़लगोयी के बारे में पदमश्री बेकल उत्साही अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर करते हैं-'यह काफी ज़हीन उम्दा और नोकपलक के मालिक हैं. रवायत के साथ जिद्दत की डगर अपना लेते हैं और साफ-सुथरे अशआर निकालने का ज़ज्बा रखते है. बहरहाल लफ़्ज़ों के परखने का हुनर और गज़ल कहने का फन जानते हैं.'
अज़ीज़ इलाहाबादी का रिश्ता गांव और शहर दोनों से रहा है, वह खुद लिखते हैं,'मेरी ज़िंदगी दो हिस्सों में तकसीम है, एक शहर से और दूसरी गांव से मुताल्लिक'. इस तरह उन्होंने गांव और शहर दोनों की ज़िंदगी और रहन-सहन को करीब से देखा और क़ुबूल किया. उनकी गज़लों में गांव और शहर दोनों की सच्ची तस्वीर नज़र आती है. शहर की नुमाइशी ज़िंदगी और इंसानी खुदगर्जी को वह पसंद नहीं करते. उनकी ग़ज़लें शहर की कशमकश भरी ज़िंदगी, तरक्की के नाम पर छलावा, मुहब्बत ने नाम पर फरेब,उलझन, परेशानी की तल्ख़ हकीकात पेश करती है-
दुश्मनी, दोस्ती की शक्ल में है,
उसकी जानिब से घात बाक़ी है,
इस अहदे तरक्की में, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के
परदे पे नए चेहरे दिखलाये गए आखिर
दौरे हाज़िर में सब ही फ़रिश्ते मिले
कोई मिलता नहीं आदमी की तरह
शहर के मुक़ाबले गांव की ज़िंदगी को वह ज़्यादा पसंद करते हैं, जहाँ पुरसुकून माहौल है, खेतों की हरियाली, खलिहानों का सुहाना मंज़र है, सादगी है और सबसे बढ़कर इंसानियत, मुहब्बत और अपनापन है. हालंकि अज़ीज़ साहब की गज़लों में मौजूदा गांव की तस्वीर नहीं बनती, लेकिन वह माजी के गांव की भरपूर तर्जुमानी करती हैं.
कड़वा-कड़वा शहर का लहजा
गांव में अपनापन बाक़ी है,
पेड़ के फल नए मौसम में रसीले होंगे
फूल सरसों के तेरे नाम से पीले होंगे
रौनकें शहर की वह छोड़कर क्यों आएगा
गांव के रस्ते बरसात में गीले होंगे
फागुन आया,सरसों फूली,होली नाचे खेतों में
साजन गोरी को मारे,रंग भरी पिचकारी भी.
डॉ. अहमद लारी अज़ीज़ इलाहाबादी की गांव की शायरी के बारे में लिखते हैं,'मेरे ख्याल से इनका सबसे अहम कारनामा यह है कि इन्होंने गज़ल का रिश्ता गांव की ज़िंदगी से जोड़ा है और इसमें गांव की गोरी के रूप में अनूप,पनघट,सखियों की छेड़छाड़,खेतों की हरियाली,गेंहूँ की बालियों की सुनहरी रंगत,गांव के लोगों की फितरी सादगी और मासूमियत और उनके दुःख-सुख को इन्तेहाई दिलकश अंदाज़ में पेश किया है.' अज़ीज़ साहब की शायरी मौजूदा दौर की शायरी है. उन्होंने समाज के हर तबके की ज़िंदगी का बारीकी से जायजा लिया है, चाहे वह ज़मीदारों,ठेकेदारों और अमीरों की सहूलियत से भरी ज़िंदगी हो या गरीबों की भूख और लाचारी से भरा जीवन, कोई भी पहलू अज़ीज़ साहब से छुटा नहीं है-
ज़मीन बेचकर अपनी वह मज़बूरी में रहते हैं
ज़मीदारों के बेटे हैं जो कालोनी में रहते हैं
तडपती भूख सुलगती है प्यास की शिद्दत
किसी गरीब से पूछो कि ज़िंदगी क्या है

अज़ीज़ इलाहाबादी का कमाल यह है की वह सिर्फ अपने महबूब के हुस्न या लबो रुखसार को ही नहीं देखते बल्कि गांव से लेकर शहर तक की इंसानी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर गहरी निगाह रखते हैं. अहदे हाज़िर में मशीनी इस्तेमाल से जहाँ तरक्की की राहें आसान हुईं हैं और तरह-तरह की सहूलियात और फ़वायद हासिल हुए हैं वहीँ इसमें कई तरह के नुक्सानात भी सामने आयए हैं जिनका ज़िक्र अज़ीज़ साहब की गज़लों में मिलता है-
भूख प्यास और बढ़ गई
हाथ जब मशीन हो गए
अज़ीज़ साहब ने अपनी गज़लों में मौजूदा वक्त में दम तोड़ती हुयी इंसानियत, खत्म होती मुहब्बत,झूठी हमदर्दी और बिखरी हुई पुरानी कद्रों को बड़े ही पुरअसर अंदाज़ में पेश किया है-
यह अहदे सफीराने तरक्की की थकन है
या सिलसिला-ए-दैर-ओ-हरम टूट रहे हैं
लिबास पहने है हर जिस्म शख्सियत का मगर
मिला न कोई भी इंसानियत के पैकर में

अपनी शायरी के ज़रिये वह इनसानों को अपनी बुनियादी कदरों को बरकरार रखने और ज़िंदगी की हकीकत को पहचानने पर जोर देते हैं. उनके मुताबिक इनसानियत से दूर रहकर दुनियावी तरक्की से कोई फायदा नहीं होने वाला. इस झूठी तरक्की और वक्ती चकाचौंध के पसेपर्दा अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं-
तुम्हारे पास उजाला नहीं अँधेरा है
किसी को रौशनी-ए-अफताब क्या दोगे,
अज़ीज़ अहले हुनर क़ैद हैं अँधेरे में
यह दौर, दौर-ए-तबाही है रौशनी क्या है

इस तरह अज़ीज़ साहब की शायरी माजी,हाल और मुस्तकबिल ( भूत,वर्तमान तथा भविष्य) की झलक नज़र आती है. उन्होंने जहाँ-जहाँ मौजूदा दौर के तमाम मसायल को अपनी गज़लों में शामिल किया वहीँ वह शानदार माजी की कद्रों को भी अपनी गज़लों के ज़रिय पेश किया है.डॉ. सय्यद शमीम गौहर उनकी जमालियाती शायरी के बारे में लिखते हैं, 'हुस्ने जानां की तशरीह, जुल्फों की तफसीर,सीनये सोजाँ की रूदाद,ज़ख्मे जिगर और चश्मेतर की तर्जुमानी से अज़ीज़ इलाहाबादी का तर्जे सुखन चमकता-दमकता नज़र आता है. ज़ायकए हुस्न और हुस्नेजन की लतीफ़ सरगोशियाँ इन्हें हमेशा गुदगुदाती रहीं, दर्दो कर्ब और यादों की खराशों से वह कभी घबराते नहीं और न ही हसरतो यास के दीवानापन से परेशान होते हैं बल्कि इन नेमतों को अज़ीज़ जानते सीने सेलगाते हुए ज़ज्बये तख्य्युलात का इज़हार करते हैं.'
ज़बान के ऐतबार से अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें आमफहम हैं. उन्होंने गांव और शहर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोली जाने वाली आम आदमी की ज़बान को गज़लों में इस्तेमाल किया है जिसमें हिंदी और उर्दू के सादे और आसान अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने निहायत सादगी और कामयाबी के साथ अपनी बात कही है. उनकी गज़लों में ऐसे अल्फाज़ भी कसरत के साथ नज़र आते हैं जो गज़ल के मिजाज़ के ऐतबार से मुनासिब नहीं रखते और आमतौर पर शह लतीफ़ की ज़हनी सतह पर गिरन गुजारते हैं, जैसे- अंगनाई,पथरन,कथरी, हटीले,टाट,छप्पर,चितवन,चौकड़ी,पैवंद,नवीन,कड़ी,छैल-छबीली,उपटन,गागर,कटोरा आदि, लेकिन अज़ीज़ साहब जो गज़ल की नजाकत और लताफत के साथ उसके फन से भी बखूबी वाकिफ हैं, वह लफ़्ज़ों को परखने और उसके इस्तेमाल करने का हुनर भी जानते हैं और यही हुनर उनको मकबूल व मुनफरिद करता है.गरजकि अज़ीज़ इलाहाबादी कि गज़लिया शायरी ज़मीन से जुडी खालिस हिन्दुस्तानी शायरी है जो न सिर्फ हुस्नो जमालियात और कैफो निशात की तर्जुमान है बल्कि एक ऐसा आईना भी है जिसमें इंसानी समाज और दुनियावी रिवाज़ की सच्ची तस्वीर नजर आती है, एक ऐसी तस्वीर जो क़ारी के ख्वाबीदा जेहन को झिंझोड कर कुछ देर के लिए बदार करने की कुवत रखती है.
सायमा नदीम
3/6, अटाला,तुलसी कोलोनी, इलाहबाद, मोबाईल: 9336273768