बुधवार, 13 जून 2012

कलाम बांटने वाले उस्ताद शायर

  
                       - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
अजब दुनिया है नाशायर यहां पर सर उठाते हैं।
जो शायर हैं वो महफिल में दरी-चादर उठाते हैं।
ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की खातिर,
कलम किस पर उठाना चाहिए, कलम किस पर उठाते हैं।
मुनव्वर राना की ये पंक्तियां वो सब-कुछ बयान कर रही हैं, जो समाज का आइना कहे जाने वाले अदब की दुनिया में हो रहा है। शायरी को ईश्वरीय देन माना जाता है, इसे सिर्फ़ इल्म या दौलत से हासिल करना तकरीबन नामुमकिन है, मगर देशभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो दूसरे उस्ताद शायरों से ग़ज़लें लिखवाकर मुशायरों में बतौर शायर पढ़ते हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपकर वाहवाही लूटते हैं। कई लोगों के तो काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। हैरानी की बात तो यह है कि शायरी की दुकान चलाने वाले या ग़ज़लें वगैरह बांटने वाले लोग खुलेरूप में  स्वीकार करते रहे हैं कि ऐसा करते आये हैं। इसे वे बुरा भी नहीं मानते। हां, मगर कलाम बांटने वाले ये उस्ताद उन लोगों का नाम नहीं बताते जिनको वे कलाम बांटते हैं।
अब सवाल पैदा होता है कि अदब, जिसे समाज का आइना कहा जाता है, वहां जब इस तरह का खेल खेला जाएगा तो समाज और देश की रूपरेखा कैसी बनेगी? इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रोफेसर अली अहमद फातमी भारी मन से कहते हैं, ‘अदब एक पाकीज़ा, मोकद्दस और जिम्मेदाराना अमल है, इसको एकदम से मजाक बनाया जा रहा है। यही नहीं जबरदस्ती के बनावटी शायर पैदा किया जाना बहुत बड़ा जुर्म है।’ दरअसल, इलाहाबाद अदब का बड़ा मरकज़ रहा है। नूह नारवी, फिराक़ गोरखपुरी, समर हल्लौरी, अकबर इलाहाबादी जैसे उस्ताद शायरों की देखरेख में यहां का अदब पला-बढ़ा है। इन उस्तादों के जमाने में अच्छे शार्गिद पैदा करने की होड़ लगी रहती थी। इन उस्तादों से जुड़े लोगों को उनके उस्तादों के नाम से ही पुकारा जाता था। कभी-कभी ये उस्ताद अपने शार्गिद को पूरा-पूरा कलाम लिखकर दे देते थे। मगर, यह काम वे विशेष परिस्थितियों में ही करते थे। और फिर वे किसी शार्गिद को लगातार कलाम न देकर उसके अंदर शायरी के गुण पैदा करने की कोशिश करते थे। शार्गिद भी पूरी गंभीरता से शायरी के विभिन्न पहलुओं को सीखते और खुद अच्छा और सही शेर कहने लगते थे। मगर, आज स्थिति बिल्कुल बदल गयी है। उस्ताद शायर पूरा-पूरा कलाम लिखकर दे रहे हैं और शार्गिद जानने-सीखने की कोशिश कतई नहीं कर रहे हैं। कुछ शार्गिद अपने उस्तादों को नज़राना पेश करते हैं तो कुछ शेर के बदले उनके दूसरे काम करते या करवाते हैं।
ऐसे कई उस्ताद हैं, जो किसी न किसी तरह से स्वीकार करते हैं कि वे ऐसा कर रहे हैं। ऐसे ही एक उस्ताद इलाहाबाद के काटजू रोड पर दवा की दुकान चलाते थे, नैयर आकि़ल (तीन जून 2006 को निधन हो चुका है) के नाम से मशहूर हैं। लिखने के अलावा खुद महफिलों में शिरकत भी करते थे। बड़ा नाम है उनका, लेकिन वे अपने शार्गिदों की खुलकर ‘इसमें’ मदद करते रहे हैं। वह कहते हैं, ‘वसूलन तो यह गलत है, मगर कुछ लोग ऐसे भी आते हैं, जिन्हें एक-दो बार ग़ज़ल दे देने पर धीरे-धीरे खुद शेर कहने लगते हैं। लेकिन ज्यादातर ऐसे हैं जो पिछले 20-25 वर्षों से लेकर पढ़ते हैं, कभी खुद कहने की कोशिश नहीं करते।’ पूरे मुल्क में आपका नाम है, फिर ग़ज़लों की सप्लाई का काम क्यों करते हैं ? इस सवाल पर दलील पेश करते हैं, ‘घर बैठे शोहरत मिलती है, शार्गिद जहां-जहां जाकर पढ़ते हैं या छपते हैं, वहां-वहां किसी न किसी तरीके से बात पहुंच ही जाती है कि किसका कलाम है।’ पैसा लेकर अशआर बांटने की बात पर वह कहते हैं, ‘और लोगों की तो मैं नहीं जानता, लेकिन जिस दिन जिसको मैं कलाम देता हूं, उस दिन उसके पैसे की चाय तक मैं नहीं पीता।’
इलाहाबाद के अहमदगंज मुहल्ले में रहने वाले उस्ताद शायर अनवार अब्बास, जो पेशे से वकील भी हैं, इनकी शहर में काफी शोहरत है। ग़ज़ल बांटने के सवाल पर इनका अलग ही तर्क है, ‘इस तरह का काम किस क्षेत्र में नहीं हो रहा है। दूसरों से शोधग्रंथ लिखवाये जाते हैं, फिल्मों में गीत कोई लिखता है, नाम किसी का जाता है। तो फिर उर्दू अदब पर ही इल्जाम क्यों लग रहा है ?’ आप क्यों लोगों को कलाम बांटते हैं ? इस सवाल पर कहते हैं, ‘शार्गिद की खिदमत वगैरह से रिश्ता बंध जाता है, शार्गिद को सिखाने पर भी वह नहीं सीख पाता है, ऐसे में उसे लिखकर दे देना ही मुनासिब लगता है।’ प्रो. अली अहमद फ़ातमी इस सफाई को सिरे से खारिज करते हैं, ‘अपनी गलती को छिपाने के लिए दूसरों की गलती को पेश करना किसी भी नजरिये से सही नहीं हो सकता।’
शाहगंज मुहल्ले में रहने वाले उस्ताद शायर मासूम आज़मी की उस्तादी भी काफी चर्चित है, पहले रेलवे में नौकरी करते थे तो अपने को अंजाम देने के लिए कम ही वक़्त निकाल पाते थे, अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लिहाजा काम में भी तेजी आयी है। वे मानते हैं कि कलाम की सप्लाई से अदब का नुकसान हो रहा है, मगर खुद के कलाम बांटने के सवाल पर कहते हैं, ‘लोग आकर बैठ जाते हैं, जब तक उन्हें लिखकर न दे दिया जाए वो नहीं जाते हैं। इनमें से कुछ लोग तो बाद में धीरे-धीरे शेर कहने लगते हैं, मगर ज्यादातर जि़न्दगीभर लेने का ही काम करते रहते हैं।’ ऐसे ही एक अन्य उस्ताद गुलाबबाड़ी काॅलोनी में रहते हैं, उस्तादी के अलावा मुशायरा संचांलन के लिए मशहूर इक़बाल दानिश नामक इस उस्ताद के शार्गिदों की अच्छी-खासी तादाद है। ये कलाम बांटने को गलत नहीं मानते। उनका अपना तर्क है, ‘जिन लोगों के अंदर शेर कहने की सलाहियत नहीं है, मगर उनको उर्दू अदब से लगाव है। ऐसे लोगों को लिखकर देने में क्या बुराई है। आखिर ये लोग अदब की तरफ आ तो रहे हैं।’ कुछ इसी तरह की बात दायराशाह अजमल के पास रहने वाले उस्ताद अरमान ग़ाज़ीपुरी कहते हैं, ‘पहले भी यह सिलसिला था, आज भी है। दूसरे से लिखवाकर ले जाने वाले लोग मुशायरा कराते हैं, चंदा देते हैं और विभिन्न आयोजनों के लिए वितरित किये जाने वाले निमंत्रण पत्र को पहुंचाने का काम भी करते हैं। इतनी खिदमत करने वालों को अगर अशआर लिखकर दे दिया जाता है, तो इसमें बुराई ही क्या है?’ वह कहते हैं कि पहले के भी उस्ताद अपने शार्गिदों के कलाम पर इस्लाह (संशोधन) का काम करते थे और अपना कलाम ज्यादा देते थे। फ़र्क बस इतना है कि पहले के शार्गिद उस्तादों से सीखते थे, शेर कहने की कोशिश करते थे। मगर आज के शार्गिद सीखना नहीं चाहते, उन्हें पूरा लिखकर देना पड़ता है।
सीनीयर शायर एम. ए. क़दीर इस तरह के उस्ताद शायरों और शार्गिदों के बहिष्कार करने की बात करते हैं, ‘ऐसे लोगों को किसी भी साहित्यिक आयोजन में नहीं बुलाना चाहिए। कलाम बांटने वाले और लेने वाले अदब में शामिल होकर इसे जहरीला बना रहे हैं।’ मगर, बहिष्कार की बात पर अरमान ग़ाज़ीपुरी कहते हैं, ‘किसका-किसका बहिष्कार होगा और कौन करेगा? साहित्यिक आयोजन भी तो ग़ज़ल लेने और देने वालों की मदद से होते हैं।’
बहरहाल, इलाहाबाद समेत पूरे देश में उस्तादों द्वार डुप्लीकेट शायर पैदा करने का सिलसिला जारी है। लगभग सभी उस्ताद खुद द्वारा कलाम सप्लाई की बात स्वीकारते हैं, लेकिन अपने उन शार्गिदों के नाम नहीं बताना चाहते, जिन्हें कलाम बांटते हैं, शायद दुकानदारी खतरे में दिखाई देने लगती है।
(हिन्दी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ में 10 दिसंबर 2005 को प्रकाशित)

सोमवार, 11 जून 2012

‘गुफ्तगू’ ने आयोजित की काव्य गोष्ठी


गुफ्तगूकी तत्वावधान में करैली, इलाहाबाद स्थित 'अदब घर' में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम द्वारा की गई, तथा मुख्य अतिथि तलब जौनपुरी थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। इस अवसर पर गुफ्तगू के तकनीकी व्यवस्थापक वीनस केसरी के द्वारा घोषणा की गई की अब से हर महीने के दूसरे शनिवार को 'गुफ्तगू' की और से 'अदब घर' में काव्य गोष्ठी आयोजित की जाएगी, जिसका सभी शायरों तथा कवियों ने खुले दिल से स्वागत किया तथा गुफ्तगू के इस शुरुआत की सराहना की

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए नवोदित कवि अजय कुमार ने हरिवंश राय बच्चन की कृति मधुशाला को समर्पित कविता पढ़ी-

कृष्ण काल की सुरमय भीतर रखती मधुशाला
कर लेता आकर्षित सबको मुरली के जैसा प्याला।

मधुशाला है कृष्ण यहां पर, प्याला है मुरली जैसे,
राधा का किरदार निभाताा, इस युग में पीने वाला।
 



खुर्शीद हसन ने कहा-

गर्मी से बिलखता है हर एक बशर भाई,
राह में लगा देना तुम एक शजर भाई।

 


डाॅ. नईम साहिलने कहा-

बदल दी शक्लो-सूरत आंधियों ने,
मकां सारे पुराने लग रहे हैं।

हालात ऐसे होंगे ये सोचा न था कभी,
होगा मज़े में आइना पत्थर के साथ।

कवि सौरभ पांडेय ने अपनी कविताओं में गांव का चित्रण किया-

सरकारिया बयान सुधर गांव-गांव है
बरबादियों का दौर मगर गांव-गांव है।

जिन कुछ सवाल से सदा बचते रहे थे तुम
हर वो सवाल आज मुखर गांव-गांव है।

 



वीनस केसरी की ग़ज़ल ने सभी का प्रभावित किया-

एक रानी ने गढ़ा गुड्डे का इक किरदार है।
और गुड्डा भी तो बस चाभी भरो तैयार है।

बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर बहस की आड़ में,
काले धन पर मौन हर इक पक्ष को स्वीकार है।


 अजीत शर्मा आकाशने अच्छी ग़ज़ल सुनाई-

एक तिनके का सहारा चाहता है,
और क्या गर्दिश का मारा चाहता है।

नोच खाएगा उसे जिसको कहोगे,
पालतू कुत्ता इशारा चाहता है।


संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल काफी सराही गई-

रस्मे उल्फ़त अदा कीजिए,
आप मुझसे मिला कीजिए।

गर सलीक़ा नहीं इश्क़ का,
बस ग़ज़ल पढ़ लिया कीजिए।

प्यार करते हैं गर आप भी,
एसएमएस कर दिया कीजिए।




सलाह ग़ाज़ीपुरी ने कहा-

नुमाइश जिस तरह अब हो रही है सारी दुनिया में,
खुली सड़कों पे यह आवारगी देखी नहीं जाती।

मुझे वह मुफलिसी के दिन कभी जो याद आते हैं,
किसी घर की भी मुझसे मुफलिसी देखी नहीं जाती।


युवा कवि शैलेंद्र जय की कविताओं ने काफी प्रभावित किया-

त्योंरियां चढ़ाना भी फैशन हो गया।
कितना यांत्रिक मानव जीवन हो गया,

मुस्कुराता है नफा-नुकसान देखकर
आदमी भी आज एक विज्ञापन हो गया।



फरहार बनारसी ने ग़ज़ल पढ़ी-

दुश्मनों की बात क्या थी सारे अपनों ने मुझे
ज़ह्र का प्याला पिलाया, बात जब सच्ची कही।


फरमूद इलाहाबादी की ग़ज़ल को लोगों ने काफी पंसद किया-

किसी तरह नहीं ममता से कमतर बाप का साया,
सभी हाथों के साए से हैं बेहतर बाप का साया।आसिफ ग़ाज़ीपुरी ने कहा-

फूल खिलने भी न पाये थे के मौसम बदला,
लग गयी आग गुलिस्तां में बहारों के करीब

आपकी बज़्म से उठकर मैं चला आया था,
क्या सबब इसका था के आपने पूछा भी नहीं।

शाहिद इलाहाबाद ने कहा-

अब सोचता हूं ईंट का पत्थर से दूं जवाब,
लेकिन रसूले पाक को क्या मुंह दिखाउंगा।

शायर अख़्तर अज़ीज ने तरंन्नुम में ग़ज़ल सुनाकर खूब वाहवाही बटोरी-

छबी चिनगारियां कम कर रहे हैं।
कि हम शोलों को शबनम कर रहे हैं।

खुशी उस शख़्स को क्यों मिल रही है,
इसी इक बात का ग़म कर रहे हैं।


मुख्य अतिथि तलब जौनपुरी ने कहा-

माहौल का अजीब सा तेवर है आजकल।
गुमराहियों में मुब्तिला घर-घर है आजकल।

ज़ालिम ने मेरे सर पे ज़रा हाथ क्या रखा,
रुतबा मेरा जहान से उपर है आजकल।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे एहतराम इस्लाम की ग़ज़ल को खूब दाद मिली-
वार्ताएं, योजनाएं, घोषणाएं फैसले
इतने पत्थर और तन्हा आइना निष्कर्ष का।
 



शुक्रवार, 8 जून 2012

गुफ्तगू के नरेश कुमार ‘महरानी’ अंक का हुआ विमोचन

  
 ‘मय का प्याला’ में हैं कई अनछुए पहलू
इलाहाबाद। नरेश कुमार ‘महरानी’ ने अपनी कृति ‘मय का प्याला’ में कई अनछुए पहलुओं को रेखांकित किया है, जिसे हर पाठक वर्ग पसंद करेगा। कुछ शिल्पगत कमियां होने के बावजूद कवि के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए, साथ ही हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेश की अगली रचना और भी बेहतर होगी। यह बात ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के नरेश कुमार ‘महरानी’ अंक के विमोचन अवसर पर प्रसिद्ध उर्दू आलोचक प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने कही। उन्होंने गुफ्तगू पत्रिका की सराहना करते हुए कहा कि आज के आर्थिक युग में साहित्यिक पत्रिका नौ वर्षों से प्रकाशित करना बड़ी चुनौती है, लेकिन गुफ्तगू की टीम ने इसे कर दिखाया है। 04 जून 2012 को विमोचन समारोह और मुशायरे का आयोजन हिन्दुस्तानी एकेडेमी में किया गया, जिसकी अध्यक्षता प्रो. फ़ातमी ने की, जबकि मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय डाक सेवा के निदेशक कृष्ण कुमार यादव मौजूद रहे। विशिष्ट अतिथियों में शहर पश्चिमी की विधायक पूजा पाल, वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, हाईकोर्ट के संयुक्त निबंधक हसनैन मुस्तफ़ाबादी, डाॅ. पीयूष दीक्षित प्रसिद्ध लेखक मेवाराम और सुलेम सराय के पूर्व सभासद मुकेश केसरवानी मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।
अपने संबोधन में कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि गुफ्तगू का यह अंक अन्य अंकों के मुकाबले बेहतर दिखाई दे रहा है, इससे प्रतीत होता है कि पत्रिका ने काफी प्रगति की है। उन्होंने कहा कि नरेश कुमार की रचना ‘मय का प्याला’ कई मायने में उल्लेखनीय है, इन्होंने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से शराब पीने वालों का विरोध किया है और कई दृश्यों से यह साबित किया है कि एक शराबी का परिवार कई तरह से प्रताडि़त होता है। नरेश कुमार ‘महरानी’ ने कहा कि मैंने अपने निजी अनुभवों से महसूस किया है कि जिस परिवार में एक भी व्यक्ति शराबी हो जाता है, वह परिवार बहुत दुःखी होता है। बड़ों से लेकर बच्चों तक का भविष्य चैपट हो जाता है। यह बात मुझे बहुत परेशान करती रही है, यही वजह है कि मैंने ‘मय का प्याला’ नामक कृति लिख डाली है। गुफ्तगू ने इसे अपने परिशिष्ट में शामिल करके लोगों तक पहुंचाने का काम किया है। शहर पश्चिमी की विधायक पूजा पाल ने कहा कि गुफ्तगू पत्रिका में प्रकाशित हर रचना पठनीय होती है, अच्छी बात यह है कि पत्रिका द्वारा समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किये जाते हैं, जिसकी वजह से सरगर्मी बनी रहती है। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि नरेश कुमार ने एक अच्छा खंड काव्य लिखा है, उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से शराब पीने का विरोध किया है, जो निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। डाॅ. पीयष दीक्षित ने कहा कि यह पत्रिका कई मायने में अन्य पत्रिकाओं से बेहतर है, यही वजह है कि इसके पाठकों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निबंधक हसनैन मुस्तफ़ाबादी ने कहा कि शुरू से ही इस पत्रिका के तेवर ने लोगों को आकर्षिक किया है, इसमें एक ग़ज़ल प्रकाशित हो जाने पर दूर-दूर से पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने लगती है, जिससे यह साबित होता है कि इसके पाठकों की संख्या लाखों में है। रविनदंन सिंह, मेवाराम और वीनस केसरी ने भी लोगों केा संबोधित किया।
 कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने कहा कि गुफ्तगू की टीम खासतौर पर नये प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रयास करती रही है। लेकिन हम नये लोगों से यह अपेक्षा जरूर करेंगे कि वे कविता लिखने से पहले उसके व्याकरण की जानकारी ज़रूर हासिल कर लें। कार्यक्रम का संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ जनवरी 2013 में दस वर्ष पूरे करने जा रही है, बिना किसी संसाधन के हमने दस साल का सफ़र तय कर लिया है। इस अवसर पर हम जनवरी में एक अखिल भारतीय कार्यक्रम करने जा रहे हैं। उन्होेंने कहा कि सिर्फ़ प्रशंसा से पत्रिका नहीं चल सकती, इसलिए गुजारिश है कि इसकी सदस्यता अवश्य लें।
इस अवसर पर एहतराम इस्लाम, फरमूद इलाहाबादी, वीनस केसरी, अख्तर अजीज,  नंदल हितैषी, शकील ग़ाज़ीपुरी, अजीत शर्मा आकाश, शादमा ज़ैदी शाद, रमेश नाचीज, वाकिफ अंसारी आदि मौजूद रहे।