रविवार, 27 मई 2018

जागती आंखें, मंज़िल, अक्कासिये दिल और खुला आकाश


                    -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी



 मुरादाबाद  की रहने वाली मीना नक़वी देश की जानी-मानी उर्दू ग़ज़लकारा हैं, काफी समय से लेखन के प्रति सक्रिय हैं। पत्र-पत्रिकाओं के अलावा साहित्यिक आयोजनों में शामिल होती रही हैं। उर्दू में प्रकाशित इनके दो मजमुए ‘जागती आंखें’ और ‘मंज़िल’ मेरे सामने हैं। इन दोनों ही पुस्तकों को पढ़ते हुए शानदार ग़ज़लों से सामना होता है। जगह-जगह ऐसी ग़ज़लों से सामना होता है, जिन्हें पढ़कर ‘वाह-वाह’ कहना ही पड़ता है। ‘जागती आंखें’ में शायरी की शुरूआत ‘हम्द’ से की गई है। हम्द में कहती हैं ‘तेरी ज़मीन तेरा आसमां जहां भी तेरा/मकान भी है तेरा और लामकां भी तेरा। मेरे करीम कर तो अपनी मीना पर/कि ये हयात भी एहसाने बेकरां भी तेरा।’ आमतौर पर ग़ज़ल मजमुओं की शुरूआत लोग हम्द अथवा नात से करते हैं, मीना नक़वी ने भी यही किया है। हम्द से आगे बढ़ते ही एक से बढ़कर एक ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं, जिनमें रिवायती और जदीदियत दोनों तरह की शायरी है। पहली ग़ज़ल में कहती है- ‘यूं गुलों के दरमियां हैं जागती आंखें मेरी/जैसे खुश्बू में निहां हैं जागती आंखें मेरी।’ इनकी ग़ज़लोें के बारे में नज़ीर फतेहपुरी लिखते हैं कि- ‘ज़िन्दगी एक ऐसी कहानी है, जिसमें किसी तन्हा किरदार के लिए गुंजाइश कम ही होती है और अगर उस कहानी में हालात का मारा हुआ कोई किरदार तन्हा है तो वह अपने आपमें इज्तराब का शिकार है। ऐसे हालात में इसे किरदारशानी की तलाश होती है। जब किरदारेशानी किरदारे अव्वल से मिल जाता है तो दास्तान मुकम्मल हो जाती है। लेकिन कुछ कहानियां ऐसी भी होती है जिनमें मुअवद्द किरदार जिसको कहानी के सारे किरदार तलाश कर रहे हों वह किरदार आएं तो दास्तान मुकम्मल हो’- कहां तुम हो वफ़ा तलाश में/तुम्हें किरदार सारे ढूंढ़ते है।’



इनके दूसरे मजमुए ‘मंज़िल’ की बात करें तो इस किताब में भी इसकी तरह की शायरी से सामना होता है। इस किताब की शुरूआत में हम्द के बाद नात में वह कहती हैं-‘ वह नूरे हक़ रहमतों के पैकर, सलाम उन पर दरूर उन पर/ है जिनके दम से जहां मुनव्वर, सलाम उनको दरूर उनको। शउर  उनको यूं ज़िन्दगी का आया, तमाम आलम पे नूर छाया/करम है उनका ये आगही पर, सलाम उनपर दरूर उन पर।’ फिर एक ग़ज़ल में कहती हैं-‘क्या अजब दिल का हाल है जानां/बस तबीयत नेढाल है जानां। कुरबतों से नवाज़ दे मुझको/मेरे लब ने सवाल है जानां।’ इस तरह कुल मिलाकर मीना नक़वी की शायरी में आज के समाज और इसमें गुजरती ज़िन्दगी और इसके हालात की तर्जुमानी मिलती है, जो शायरी का सबसे अहम पहलू होना चाहिए। ऐसी शायरी के लिए मीना नक़वी मुबारकबाद की हक़दार हैं।
 महामहिम श्री केशरी नाथ त्रिपाठी जी वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। इलाहाबाद के रहने वाले श्री त्रिपाठी राजनीतिज्ञ के अलावा अधिवक्ता और कवि भी हैं। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके काव्य संग्रह ‘मनोनुकृति’ का उर्दू अनुवाद ‘अक्कासिये दिल’ नाम से डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी ने किया है। डाॅ. यासमीन ने इस अनुवाद के जरिए उर्दू दां तक इस किताब को पहुंचाने का सराहनीय कार्य किया है। उनके इस काम पर टिप्पणी करते हुए प्रेम शंकर गुप्त जी लिखते हैं-‘ डाॅ. यासमीन को उर्दू मादरी ज़बान की शक़्ल में हासिल हुई, वह गंगा-जमुनी तहज़ीब की मुकम्मल शक़्ल की नुमाईंदा हैं। मैं सालों से उन्हें मुसलसल कामयाबी की सीढ़ी पर आगे बढ़ते देखकर खुश होता रहा हूं।’ स्वयं महामहिम केशरी नाथ त्रिपाठी जी कहते हैं-‘मुझे उर्दू नहीं आती। दिन-प्रतिदिन की बोल-चाल में प्रयुक्त, या न्यायालय कार्य से संबंधित दस्तावेज़ों में लिखे उर्दू के शब्दों तक ही मेरा ज्ञान है, परंतु इतना मैं अवश्य कहूंगा कि उर्दू भाषा में भी सम्प्रेषण शक्ति बहुत अधिक है। यदि अनुवाद के माध्यम से मेरी रचनाओं के भाव उर्दू-भाषी पाठकों के पास पहुंच जाय तो यह मेरा सौभाग्य है।’ ‘तलाश’ शीर्षक की कविता अनुवाद डाॅ. यासमीन ने यूं किया -‘ अभी भी मुझे तलाश है/उस अनमोल  पेंसिल-काॅपी की/जो मुझे मिली थी इनआम में/जब मैं काॅलेज का तालिब-इल्म था और साथ में मिली थी/ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट/ और पीठ पर शफ्क़त भरी थपथपाहट/जो बन गई मेरे लिए/मील का संगे-अव्वल।’ कुल मिलाकर डाॅ. यासमीन के इस कार्य की जितनी सराहना की जाए कम है। 164 पेज के तर्जुमे की किताब को उर्दू लिपी के अलावा देवनागरी में प्रकाशित भी किया गया है। किताब महल ने इसे प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 300 रुपये है।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले की रहने वाली मंजू यादव अध्यापिका हैं, पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं, कई सहयोगी संकलनों में रचनाएं छपी हैं। कुल मिलाकर काफी समय से साहित्य के प्रति सक्रिय हैं, ख़ासकर कहानी और काव्य लेखन को लेकर। हाल ही में उनका कहानी संग्रह ‘खुला आकाश’ प्रकाशित हुआ है, पुस्तक का संपादन डाॅ. हरिश्चंद्र शाक्य ने किया है। इस संग्रह में कुल 10 कहानियां शामिल की गई हैं। इनकी कहानियों में आम आदमी की पीड़ा, घुटन, गरीबी, लाचारी, भुखमरी, शोषण, नारी मुक्ति आदि का चित्रण हैं, जो समाज की स्थिति का वर्णन कर रही हैं। पुस्तक की पहली कहानी ‘खुला अकाश’ जो कि पुस्तक का नाम भी है, इसमें महिला के जीवन की तुलना पिंजड़े में बंद चिड़िया के जीवन से की गई है। कहानी में बाल मनोविज्ञान के साथ-साथ नारी स्वतंत्रता की भावना का वर्णन है। छोटे बच्चे देव को उसके चाचू जन्म दिवस पर उपहार में रंग-बिरंगे चिड़िया से भरा पिंजड़ा देते हैं। चिड़िया पहले तो रिहाई की गुहार लगाती प्रतीत होती है, लेकिन जब उन्हें पिंजड़े में ही सुख-सुविधाएं मिलती हैं तो वे फिर पिंजड़े में ही रहने की आदि हो जाती हैं और पिंजड़ा खोल देने पर भी नहीं उड़ती हैं। जिस प्रकार खुला पिंजड़ा होने पर भी चिड़िया उड़ती नहीं है, उसी प्रकार औरत को भी खुला आकाश त्यागकर घर रूपी पिंजड़े में अपनों के साथ रहकर सारे सुख मिल जाते हैं। इसी प्रकार अन्य कहानियों में समाजी सरोकार को जोड़ते हुए औरत की स्थिति का वर्णन किया गया है। 80 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को निरूपमा प्रकाशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 160 रुपये है।

गुफ्तगू अप्रैल-जून 2018 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 21 मई 2018

अंग्रेज़ी से मेरा लगाव है, अंग्रेज़ियत का सख़्त विरोधी हूं

प्रो. ओपी मालवीय से साक्षात्कार लेते प्रभाशंकर शर्मा

इलाहाबाद में सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक 85 वर्षीय रिटायर्ट प्रोफेसर ओपी मालवीय का वास्ता आज भी सामाजिक सरोकारों के साथ-साथ शिक्षण कार्य से है। ‘गुफ्तगू’ के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और अनिल मानव ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: सबसे पहले आप अपने शुरूआती जीवन के बारे बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म 17 सितंबर 1933 को एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में रानीमंडी, इलाहाबाद में हुआ। हम 50 वर्षों से कल्याणी देवी मोहल्ले में रह रहे हैं। मेरी शिक्षा म्युनिसपल स्कूल और राजकीय विद्यालय से हुई। अध्ययन के प्रति अभिरुचि होने के कारण मुझे सफलता मिलती गई। इंटरमीडिएट परीक्षा में उस समय मुझे प्रदेश में तीसरा स्थान मिला था। मैंने एमए अंग्रेजी विषय से किया, उसमें भी अच्छा स्थान रहा। हमारे समय में अच्छा एकेडेमिक कैरियर होने पर तुरंत नौकरी मिल जाया करती थी। फिलहाल मेरे परिवार में पांच पुत्र और उनकी संतानें हैं।
सवाल: आप कई वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर रहे, उस दौरान के माहौल के बारे में बताइए ?
जवाब: विश्वविद्यालय में मेरा अनुभव सुखद और प्रेरणादायक था। विश्वविद्यालय में कभी-कभी छात्र आंदोलन भी चलते थे, दूसरी तरफ कक्षाएं भी चलती थीं। एक तरफ छात्र आंदोलन और दूसरी तरफ अविरत पाठ्यक्रम, ये मेरे लिए अच्छा अनुभव था।
सवाल: आपके समय में फ़िराक़ गोरखपुरी साहब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे, उस समय उनका क्या प्रभाव था ? 
जवाब: मैं व्यक्तिगत रूप में फ़िराक़ साहब को जानता हूं। फ़िराक़ साहब मेरे आदरणीय रहे हैं। उन्होंने मुझे यह अवसर प्रदान किया कि मैं उनके चरणों के निकट बैठकर अनेक विषयों पर उनसे चर्चा कर सकूं। मैंने उनके उपर 14 मिनट की एक टाॅक तैयार की थी। मैं उनसे बहुत ही प्रभावित था, वे मेरे लिए बहुत ही प्रेरणादायक गुरु थे। उनके बारे में फैलाई गई भ्रांतियां द्वेषपूर्ण हैं। वे पढ़ाने में बहुत ही दिलचस्पी लेते थे। यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने उनकी अंग्रेज़ी की रेग्युलर क्लासेज और सेमिनार अटेंड की है। मैंने उनकी ग़ज़लों को ताल और राग में निबद्ध किया है और इनका शास्त्रीय गायन भी किया है।

सवाल: आप शिक्षा जगत से जुड़े रहे हैं, बदलते परिवेश में क्या शिक्षा का पैटर्न बदलने की ज़रूरत है ?
जवाब: यह तो प्रतिक्षण महसूस हो रही है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो सत्तारूढ़ लोग हैं, वे शिक्षा के सुधार की तरफ वास्तविक ध्यान नहीं दे रहे हैं। समय-समय पर उनके वक्तव्य प्रकाशित हो जाने से कोई लाभ नहीं है। शिक्षा में आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है। हमारा ‘डेमोग्राफिक डिवीडेंड’ यानी की कार्यशील युवकों की संख्या सर्वाधिक है। चीन औंर सारा यूरोप बूढ़ा हो रहा है। हमारे नवयुवक उर्जा संपन्न हैं, दृष्टि संपन्न हैं लेकिन ये अपने भविष्य के प्रति आश्वास्त नहीं हैं। इसके लिए जिस राजनीतिक संकल्प की आवश्यकता होनी चाहिए उसका बिल्कुल अभाव है।
सवाल: क्वालिटी एजुकेशन के मामले में सरकारी शिक्षण संस्थान एवं प्राइवेट शिक्षण संस्थान में क्या अंतर है ?
जवाब: बहुत बड़ा अंतर है। पहले तो हमारे सरकारी संस्थान थे, जिन्होंने बहुत बड़ा योगदान लोगों को शिक्षित करने में किया है। उनकी पूरी उपेक्षा हो रही है और इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट संस्थान हैं इनका मुझे बहुत निकट का प्रतिक्षण अनुभव है। प्राइवेट संस्थानों में शिक्षक उतने योग्य नहीं हैं फिर भी छात्रों से फीस बहुत अधिक ली जाती है, ये मेरे लिए चिंता का विषय है। राजकीय विद्यालयों की उपेक्षा हो रही है, अध्यापक राजकीय विद्यालयों में पढ़ाने के लिए तैयार हैं, किंतु विद्यार्थी कम मिल रहे हैं। राजकीय विद्यालयों की उपेक्षा हो रही हंै और सारा ध्यान निजी अंग्रेज़ी स्कूलों पर दिया जा रहा है। यह मेरा दुखद अनुभव है और इसके बारे में मैं बड़ी निस्सहायता का अनुभव करता हूं।
सवाल: आज के सामायिम परिवेश में अंग्रेज़ी शिक्षा के संदर्भ में क्या कहना चाहेंगे ?
जवाब: मेरी शिक्षा किसी प्रकार से अंग्रेज़ी या निजी विद्यालय में नहीं हुई, लेकिन मैंने अंग्रेजी को अध्यापन विषय के रूप में चुना। अंग्रेज़ी के प्रति मेरा लगाव है अंग्रेज़ियत से मेरा सख़्त विरोध है।
सवाल: आपने कब्रिस्तान में पौधरोपण का कार्य कराया, इसका ख़्याल आपको कैसे आया ? क्या इसका कोई सामाजिक या धार्मिक विरोध नहीं हुआ ?
जवाब: यह बड़ा अच्छा प्रश्न हैं, इसके दो पहलू हैं। पहला तो यह कि पौधरोपण के प्रति मेरा रूझान क्यों हुआ। मैंने पढ़ाई के समय पंचमुखी महादेव विशाल शिवमंदिर के नीचे बैठकर पढ़ाई की है तो वृक्षों के प्रति मेरा मोह रहा है। दूसरी बात यह कि 1970 में एक कांफ्रेंस हुई ‘सेव द अर्थ’ उस कांफ्रेंस में बहुत सी बातें उभकर आईं, उसमें मैंने अनुभव किया कि पौधरोपण का कार्य प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। कब्रिस्तान को मैंने प्रयोग स्थली बनाया और उस समय वृक्षों के सींचने के लिए बड़ी दूर से पानी लाना पड़ता था, जिसमें हमारे परिवार और हमारे विद्यार्थी सहयोग करते थे। मेरे पौत्र उत्कर्ष और पुत्र परिमल भी इस कार्य में लगे रहते थे। उत्कर्ष की दादी हर गुरुवार को मुख़्तार बाबा की मजार पर जाती थीं। उन्हीं के आग्रह पर कब्रिस्तान में पौधे लगाने की प्रेरणा मिली। कुल मिलाकर कब्रिस्तान पर पौधरोपण का ज्यादा विरोध नहीं हुआ, बल्कि सकारात्मक सहयोग ही मिला। हम लोगों ने पौधरोपण के लिए ‘वृक्ष मित्र समाज’ नामक संस्था भी बनाई है।
सवाल: 1992 के दंगों के समय शहर में कफ्र्यू लगा था, तब के माहौल के विषय में कुछ जानकारी दें ? शहर के क्या हालात थे और आपको कैसे हालात का सामना करना पड़ा ?
जवाब: 1992 के दंगों के प्रारंभ में तो घोर निराशा थी। ऐसा लगा कि कल्याणी देवी और दरियाबाद मोहल्ले आपस में विभक्त हो गए हैं और हम लोग आपस में मिल ही नहीं पाएंगे। फिर हम लोग बनवारी लाल शर्मा जी से मिले और हम लोग ने निकलना शुरू किया। लोगों से मिलकर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। सामंजस्य स्थापित करने में जितना सहयोग हमें मुसलमानों से मिला उतना हिंदुओं से नहीं मिला। हो सकता है इसके पीछे कोई कारण या सुरक्षा की भावना रही हो। अंत में लोगों में सहयोग की भावना पैदा हुई और फिर धीरे-धीरे एक-आध हफ्ते में ही माहौल सामान्य हो गया। हमारे यहां सहयोगपूर्ण वातावरण रहता है। रमजान के महीने में हमारे यहां इफ्तार पार्टी में सभी लोग आते हैं।
सवाल: इलाहाबाद में सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए आपने बहुत काम किया है। सांप्रदायिकत सौहार्द बढ़ाने के लिए देश के मौजूदा हालात में क्या कदम उठाने की ज़रूरत है ?
जवाब: आर्थिक असमानता पूरे देश को एक सूत्र में बांधने में बाधक बन रहा है। सबसे ज़्यादा आवश्यकता है कि आर्थिक प्रगति हो। हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने इसी उद्देश्य से आर्थिक प्रगति के लिए योजना आयोग बनाया था, जो अब नहीं रहा। इस समय मैं रामचंद्र गुहा की एक पुस्तक पढ़ रहा हूं, जिसका नाम ‘भारत गांधी के बाद’ है। इसमें बड़ी ही निष्पक्षता, तटस्थता एवं भावुकता के साथ उस समय की समस्याओं का वर्णन किया है। आर्थिक प्रगति, असमानता के निराकरण के साथ एकेडेमिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम, साहित्य व संगीत की गोष्ठियों में सांप्रदायिकता की दीवारें टूट जाती हैं। मैं आशा और प्राथना करता हूं कि देश के इस तरह का वातावरण बने। पं. नेहरु जी का वाक्य ‘हू लाइव्स इफ इंडिया डाइज?  हो डाइज इफ इंडिया लाइव्स’ अर्थात भारत देश के जिन्दा रहने पर कोई नहीं मरेगा और अगर भारत नहीं है तो आप कहीं नहीं हैं। इस देश को बनाने और संवारने में एक-एक व्यक्ति का योगदान है और हमें अपने नौजवनों को सिखाना है कि वे अपने एक-एक क्षण का प्रयोग अपने अध्ययन और देश के निर्माण में करें।
सवाल: इलाहाबाद को आप लंबे अर्से से देख रहे हैं। आप तब के इलाहाबाद और अब के इलाहाबाद में क्या अंतर महसूस करते हैं?
जवाब: अंतर तो महसूस करते हैं पर वास्तविकताा यह है कि पिछले काफी दिनों से मैं इसी कमरे में रहता हूं। आज के इलाहाबाद को देखने का मुझे उतना अवसर नहीं मिला। सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होता हूं, जिसमें तात्कालिक उद्देश्य की तो पूर्ति हो जाती है पर आपके इलाहाबाद के बारे में मुझे उतनी जानकारी नहीं है। 
सवाल: जहां तक हमें जानकारी मिली है कि आप रिटायरमेंट के बाद भी विदयार्थियों को निःशुल्क ट्यूशन देते हैं ?
जवाब: जो विद्यार्थी फीस दे सकते हैं उसने आंशिक रूप में फीस लेता हूं और इसका एक हिस्सा सामाजिक कार्य में लगाता हूं। अभी तक मैंने बड़ी तल्लीनता के साथ शिक्षण कार्य किया है। पिछले एक-दो वर्षों से पढ़ाने में कठिनाई भी हो रही है, अब हो सकता है घर पर शिक्षा देने का कार्य उस गति से न चल पाए। जितने विद्यार्थियों को मैंने विश्वविद्यालय में पढ़ाया होगा उससे कहीं अधिक बच्चों को मैंने घर पर पढ़ाया है। मेरा फीस हमेशा नाम मात्र हुआ करती थी। मैंने अभी तक किसी बच्चे से 150 रुपये से ज़्यादा फीस नहीं ली है।
सवाल: आज के समय में प्रगतिशील लेखक मंच कहां तक प्रासंगिक है ?
जवाब: प्रासंगिक तो बहुत है, उसे हमेशा प्रासंगिक होना चाहिए क्योंकि यह ऐसे लेखको और साहित्यकारों का संगठन है जिसका उद्देश्य प्रगतिशील विचारों को संरक्षित करना और आगे बढ़ाना है। किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि इस समय मैं इस संघ से संतुष्ट नहीं हूं। पुराने सदस्य तो संघ को छोड़ते जा रहे हैं और नए सदस्य निष्क्रियता के कारण नहीं आ रहे हैं। सदस्यों में आगे निकलने की ख़्वाहिश है, सभी पदाधिकारी बनना चाहते हैं।
सवाल: उम्र के इस पड़ाव में आपकी क्या कार्य योजना है ?
जवाब: अध्ययन मेरे जीवित रहने का प्रमाण है। अगर मैं अघ्ययन न कर पाउं तो समझूंगा कि मेरी उपयोगिता समाप्त हो गई। दूसरा, मेरी साधना एक विषय संगीत है, पिछले छह महीने से संगीत साधना नहीं कर पा रहा हूं। पर अभी कल ही मैंने अपने परपोते के उपलक्ष्य में गाया। मेरे पोते विमर्श और संघर्ष तबले व पखावज़ पर मुझे संगत देते हैं। विमर्श को बालश्री पुरस्कार मिल चुका है। अब इस उम्र में कितना कर पाउंगा देखना है। अभी मैंने ‘गोरा’ और ‘गोदान’ उपन्यास पर अनुशीलन लिखा है जो प्रकाशित होना है।

प्रो. ओपी मालवीय को ‘गुफ्तगू’ पेश करते हुए अनिल मानव
गुफ्तगू के जनवरी-मार्च: 2018 अंक में प्रकाशित

मंगलवार, 8 मई 2018

विपरीत हालात में गुफ्तगू का कार्य सराहनीय

गुफ्तगू साहित्य समारोह-2018’ का किया गया आयोजन


 ‘सुभद्रा कुमारी चाहौन’ और ‘बेकल उत्साही’ सम्मान से नवाजे गए रचनाकार
इलाहाबाद। आज लोग साहित्य से दूर भाग रहे हैं। पठन-पाठन लगातार कम होता जा रहा है। अधिकतर साहित्यिकार अपनी रचनाओं से लोगों को आकर्षित करने में नाकामयाब हैं। ऐसे विपरीत हालात में पिछले 15 वर्षों से गुफ्तगू का साहित्यिक सफ़र प्रासंगिकता के साथ जारी है, यह बेहद सराहनीय है। आज के माहौल यह कार्य बेहद ख़ास हो जाता है। यह बात वरिष्ठ साहित्यकार नीलकांत ने ‘गुफ्तगू’ की ओर से 29 अप्रैल को इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी में आयोजित ‘गुफ्तगू साहित्य समारोह-2018’ के दौरान कही। कार्यक्रम के दौरान 11 महिला साहित्यकारों ’सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान’ और 15 साहित्यकारों को ‘बेकल उत्साही सम्मान’ प्रदान किया गया। साथ ही ‘गुफ्तगू’ के महिला विशेषांक-3 और 14 पुस्तकों का विमोचन किया गया। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।  अपने संबोधन में गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि पिछले 15 वर्षों से गुुफ्तगू के सफ़र को जारी रखने में तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा। लेकिन कुछ लोगों के सहयोग से यह सिलसिला जारी है, और आगे भी जारी रहेगा। गीतकार यश मालवीय ने कहा कि सम्मान के साथ फूल होता है तो कांटों का ताज भी होता है, इसलिए जिन लोगों को आज सम्मानित किया गया है, उनकी जिम्मेदारी बन जाती है कि अपनी लेखनी और सक्रियता यह साबित करें कि उनकों सम्मानित करके सही किया गया है। श्री मालवीय ने कहा कि जब गुफ्तगू की शुरूआत हुई थी तब यह अंदाज़ा नहीं था कि यह सफ़र इतना लंबा होगा, लेकिन इम्तियाज गाजी ने अपनी सक्रियता से इसे सफल बनाया है। 
नंदल हितैषी ने कहा कि पठनीयत का संकट बढ़ा है, ऐसे में साहित्यिक पत्रिका का सफ़र इतना लंबा तय करना एक मिसाल है। गुफ्तगू ने अपनी सक्रियतो से लोगों को जोड़े रखा है, नये-नये रचनाकारों को आगे लाने काम किया है। डाॅ. असलम इलाहाबदी ने कहा कि इम्तियाज़ गाजी की सक्रियता ने इलाहाबाद की अदबी सरगर्मी को बनाए रखा है, ऐसी कोशिश का समर्थन होना चाहिए। उमेश नारायण शर्मा ने गुफ्तगू के कार्यों की सराहना की और बेहतर भविष्य की उम्मीद जताई।
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, नरेश कुमार महरानी, धर्मेंद्र श्रीवास्तव, डाॅ. पीयूष दीक्षित, अमित वागर्थ, रमेश नाचीज़, सुनील दानिश, मयंक मोहन, भोलानाथ कुशवाहा, वाकिफ अंसारी, डाॅ. नईम साहिल,  केदारनाथ सविता, डाॅ. अनुराधा चंदेल ओस, रुचि श्रीवास्तव, फरमूद इलाहाबादी, रामनाथ शोधार्थी, सागर आनंद, शिवम हथगामी, डाॅ. वीरेंद्र तिवारी, शैलेंद्र जय, अजीत शर्मा ‘आकाश’, अपर्णा सिंह, शिवा सारंग, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, शिबली सना, जमादार धीरज आदि ने कलाम पेश किया। 

इन्हें मिला सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान
 नीरजा मेहता (ग़ाज़ियाबाद), मीनाक्षी सुकुमारन (नोएडा), डाॅ. ज्योति मिश्रा (बिलासपुर, छत्तीसगढ़), फौजिया अख़्तर (कोलकाता), डाॅ. यासमीन सुल्ताना नकवी (इलाहाबाद), माधवी चैधरी (सिवान, बिहार),  कांति शुक्ला (भोपाल), डाॅ. श्वेता श्रीवास्तव (लखनऊ), मंजू वर्मा (इलाहाबाद), डाॅ. ओरीना अदा (भोपाल) मंजू जौहरी (बिजनौर, उत्तर प्रदेश)। 

इन्हें मिला बेकल उत्साही सम्मान
रामकृष्ण सहस्रबुद्धे (नाशिक), डाॅ. आनंद किशोर(दिल्ली), आर्य हरीश कोशलपुरी (अंबेडकर नगर),  मुनीश तन्हा (हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश), अब्बास खान संगदिल (हरई जागीर, मध्य प्रदेश), डाॅ. इम्तियाज़ समर (कुशीनगर), मुकेश मधुर (अंबेडकर नगर), रामचंद्र राजा(बस्ती, उत्तर प्रदेश), शिवशरण बंधु (फतेहपुर), डाॅ. रवि आज़मी (आज़मगढ़), डाॅ. वारसी अंसारी (फतेहपुर), सुनील सोनी गुलजार (अंबेडकर नगर), ऋतंधरा मिश्रा (इलाहाबाद), डाॅ. विक्रम (इलाहाबाद), सम्पदा मिश्रा (इलाहाबाद)।


बुधवार, 2 मई 2018

गुफ्तगू के महिला विशेषांक-3 (अप्रैल-जून:2018 अंक) में


3. संपादकीय
4-5. पाठकों के पत्र
6-9. आधुनिक परिवेश में महिला कथाकार: अन्नपूर्णा बाजपेयी ‘अंजु’
10-12. साहित्य, सिनेमा और स्त्री: नाज़ ख़ान
13-15. हिन्दुस्तानी समाज में महिलाओं की भूमिका: शाज़ली खान
16-17. घरेलू महिला वित्तीय तौर पर हो सशक्त: कंचन शर्मा
18-21. चेहना पढ़ना जानती थीं महादेवी वर्मा: डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी
22-23. महिला सशक्तीकरण और भारतीय परिवार: डाॅ. निशा मौर्या
24-30. सुभद्रा जी की सफलता का रहस्य: मुक्तिबोध
31-34. बैंकिंग उद्योग के शीर्ष पर महिलाएं: नौशाबा ख़ान
35-41. इंटरव्यू (चित्रा मुद्गल)
42-45. चौपाल (आधुनिक साहित्य में महिलाओं का योगदान)
46-50. ग़ज़लें (मीना नक़वी, वजीहा खुर्शीद, डाॅ. सरोजनी तन्हा, कांति शुक्ला, चित्रा भारद्वाज ‘सुमन’, रमोला रूथ लाल ‘आरजू’, अना इलाहाबादी, चारु अग्रवाल ‘गुंजन’, फ़ौजिया अख़्तर ‘रिदा’, दीपशिखा सागर, डाॅ. ओरीना अदा, अतिया नूर, आभा चंद्रा, डाॅ. आरती कुमारी, महिमा श्री, संगीता चैहान विष्ट, रागिनी त्रिपाठी, प्रिया श्रीवास्तव )
51-72. कविताएं (ज्योति मिश्रा, ललिता पाठक नारायणी, विजय लक्ष्मी विभा, सरस दरबारी, अंजलि गुप्ता, मंजू वर्मा, डाॅ. जयश्री सिंह, ऋचा वर्मा, प्रतिभा गुप्ता, हेमा चंदानी ‘अंजुलि’, माला सिंह खुश्बू, प्रतिमा खनका, शिबली सना, मंजु जौहरी मधुर, पुष्पलता शर्मा, शालिनी साहू,  उर्वशी उपाध्याय, रुचि श्रीवास्तव, अंजली मालवीय मौसम, प्रीति समकित सुराना, गीता कैथल, स्वराक्षी स्वरा, वंदना शुक्ला, अर्चना सिंह, अपराजिता अनामिका, रचना प्रियदर्शिनी, डाॅ. कविता विकास,  कुमारी अर्चना, लक्ष्मी यादव, वीना श्रीवास्तव, माधवी चैधरी, मंजू यादव, वंदना राणा, मुक्ति शाहदेव, डाॅ. सुनीता देवदूत मरांडी, प्रिया भारतीय, शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’, सम्पदा मिश्रा, विनीता चैल, अपर्णा सिंह, सीमा वर्मा अपराजिता, इल्मा फ़ातिमा, अनीता अनुश्री )
73-77. लधु कथा (अलका प्रमोद, अदिति मिश्रा, सारिका भूषण, डाॅ. श्वेता श्रीवास्तव, भारती शर्मा)
79-80. तब्सेरा (जागती आंखें, मंज़िल, अक्कासिए दिल, खुला आकाश)
81-98. अदबी ख़बरें
83. गुलशन-ए-इलाहाबाद (डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी)
84. ग़ाज़ीपुर के वीर (वीर अब्दुल हमीद)- मोहम्मद शहाब खान
85- 86. परिशिष्ट-1: नीरजा मेहता- परिचय
87-89. अभिव्यक्ति की सितार पर गूंजते शब्द: डाॅ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’
90. साथर्कता से ओतप्रोत नीरजा की कविताएं: डाॅ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
91-118. नीरजा मेहता की रचनाएं
119- 120. परिशिष्ट-2. मीनाक्षी सुकुमारन- परिचय
121-122. विसंगतियों और विडंबनाओं पर तीखा प्रहार: भोलानाथ कुशवाहा
123-124. मीनाक्षी सुकुमारन की कविताएं: शैलेंद्र जय
125-152. मीनाक्षी सुकुमारन की कविताएं