रविवार, 15 जनवरी 2012

कवि बिना अनुभव किए लिखता नहीं है-डॉ. जगदीश गुप्त


----------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -------

डबडबाई आंख सी गंगा बढ़ी है
दूसरा तट है मगर दिखता नहीं है

कवि बिना अनुभव किए लिखता नहीं है

सत्य की तस्वीर सोने में मढ़ी है।


नई कविता के संस्थापाकों में से एक प्रमुख हस्ताक्षर डॉ. जगदीश गुप्त की ये पंक्तियां बताती हैं कि गंगा से उनको कितना लगाव था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे डॉ. गुप्त ने नई कविता को नई धार दी और हिन्दी भाषा के अलावा ब्रज भाषा में भी अभिनव प्रयोग किया है। वे ज़िन्दगी के गीत गाते थे और अपने मिलने-जुलने वालों को भी यही सीख देते थे। उनके अंदर इंसान और इंसानियत के लिए जीने का जबरदस्त जज्बा था, वे यर्थाथवादी प्रवृत्ति के जीवंत रचनाकार थे। प्रसिद्ध गीतकार यश मालवीय बताते हैं कि डॉ. जगदीश गुप्त इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में रहते थे, जिस मुहल्ले में कभी सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का भी निवास था। एक बार की बात है, उनको हाल में ही मैथलीशण गुप्त सम्मान मिला था, मैं धर्मयुग पत्रिका के लिए उनका इंटरव्यू करने गया था। वे बोले, बेटे क्यों न गंगा किनारे बैठकर बातचीत की जाए। यश मालवीय इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। उस समय गंगा नदी शबाब पर थी, चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई पड़ रहा था।गंगा किनारे बैठकर बातचीत कर रहे थे,तभी एक मल्लाह डॉ. गुप्त के पास आकर बोला, बाबूजी एक बार गंगा मईया का चक्कर लगाकर दर्शन करना पसंद करेंगे। वे बोले, हां क्यों नहीं। डॉ. गुप्त और यश मालवीय उसकी नाव में बैठकर गए। नावे के थोड़ी दूर जाते ही हवा तेज हो गई, धीरे-धीरे हवा में इतनी तेजी आ गई कि उसने आंधी का रूप ले लिया। नाव जोरदार हिलकारे मारने लगी, लगा जैसे वह गंगा की जलधारा में समा जाएगी। डॉ. गुप्त को लगा कि अब हम लोग शायद ही सुरक्षित निकल पाएं। उन्होंने मल्लाह से कहा कि देखो, अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि हम दोनों में किसी एक को ही बचा पाओ, तो ऐसे में इस बच्चे को बचाना,उनका इशारा यश मालवीय की ओर था। उन्होंने मल्लाह से कहा कि मैं अपनी ज़िन्दगी जी चुका हूं, जीवन में बहुत कुछ कर लिया है, लेकिन इस बच्चे को अभी पूरा जीवन जीना है, बहुत कुछ लिखना-पढ़ना है। इस पर परेशानहाल मल्लाह बोला, नहीं बाबूजी हम आप दोनों को ही बचाउब। यश मालवीय बताते हैं कि उसके चंद मिनट बाद ही तेज हवाओं का रफ्तार धीमा पड़ने लगा शुरू हो गया, शायर ईश्वर ने उस बड़े हृदय वाले कवि की दुआ सुन ली थी और आंधी समाप्त हो गया। मल्लाह के साथ ही हम दोनों सुरक्षित बाहर निकल आए। एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए यश मालवीय बताते हैं कि डॉ.जगदीश गुप्त को मधुमेह हो गया था, लेकिन अपने घरवालों से छुपकर प्रायः कुछ न कुछ मीठा खा लिया करते थे। एक बार मैं उनसे मिलने के लिए सुबह-सुबह उनके घर जा रहा था। वे अपने घर के थोड़ा पहले ही जहां निराला जी की मूर्ति लगी है, वहीं दोने में जलेबी लेकर खा रहे थे, मुझे देखते ही ,मेरे लिए भी दुकानदार से एक दोना जलेबी लेकर मुझे दिया और बोेले, लो यह तुम्हारे लिए है, इसे मैं तुम्हें रिश्वत के रूप दे रहा हूं खा लो और घर चलकर यह मत बताना कि हम दोनों ने जलेबी खाई है। यश मालवीय बताते हैं कि उनकी इस बात पर मैं सिर्फ मुस्कुरा ही सकता था, मेरे लिए यही बड़ी बात है कि इतना बड़ा साहित्यकार दुकानदार से जलेबी लेकर मुझे खाने के लिए परोस रहा है। डॉ. जगदीश गुप्त का जन्म 1924 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आए।यहीं से एम.ए. और डी.फिल. करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पहले अध्यापक हुए फिर बाद में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गए। जीवन के अंतिम समय तक इलाहाबाद में ही रहे। इनके पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए है, जिनके नाम नाव के पांव,आदित्य एकांत, हिम विध्द, शब्द दंश, शम्बूक और युग्म हैं।हिन्दी भाषा के अलावा उन्होंने गुजराती और ब्रजभाषा में भी शोध ग्रंथ लिखा है। ब्रजभाषा साहित्य मंडल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों ने उन्हें सम्मानित किया था। जीवन के अंतिम समय में चलने-फिरने में असमर्थ रहने के बावजूद वे साहित्यि आयोजनों भाग लेते रहे। इस जीवंत कवि ने 16 माई 2001 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 15 जनवरी 2012 को प्रकाशित