रविवार, 28 अक्तूबर 2012

काव्य संग्रह ‘नेह निर्झर’ की समीक्षा


नये रूप में प्रेम
कविता काव्य की एक शाखा है जिसके माध्यम से मनुष्य अपने समस्त विचारों, अनुभवों और मनोभावों को सुस्पष्ट और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर सकता है. वह भी बिना किसी रूकावट या बाधा के! कविता हर प्रकार के विषय को बड़े ही स्पष्ट रूप में अपने अन्दर समाहित कर लेती है. कविता का प्रचलन हर दौर में रहा है तथा इसमें अपने-अपने दौर की जीवन से सम्बन्धित समस्याओं के साथ-साथ सांसारिक समस्याओं को प्रस्तुत किया जाता रहा है. इस प्रकार कवियों ने हर तरह के विषयों व भावों को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है, किन्तु पुराने समय से लेकर आज के दौर तक ‘प्रेम’ ही एक ऐसा विषय रहा है जो हर दौर में कविता के विभिन्न अंगों के माध्यम से व्यक्ति किया जाता रहा है और पसन्द भी किया जाता रहा है.
कवयित्री डाॅ0 नन्दा शुक्ला ने भी अपने कविताओं के संग्रह ‘नेह निर्झर’ में इसी प्रेम को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है.कवयित्री प्रेम को ही जीवन का सार एवं सत्य मानती है परन्तु प्रेम की उत्पत्ति के विषय में उसका मन अत्यधिक जिज्ञासापूर्ण दृष्टिकोण रखता है और स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करती हुई दिखती है कि वह प्रेम जो जीवन का आधार है, जो इस दृष्टि की रचना का माध्यम है आखिर किस प्रकार उसकी उत्पत्ति हुई, वह कौन-सा आकर्षण था जिसने मनुष्यों को एक दूसरे के करीब कर रखा है! साथ ही कवयित्री प्रेम के प्रभाव से पूर्ण रूप से प्रभावित नजर आती है कि किस प्रकार प्रेमी-प्रेमिका को इस संसार में एक दूसरे के अतिरिक्त कोई दूसरा दिखाई नहीं पड़ता.
कवयित्री डाॅ0 नन्दा शुक्ला ने अपने मनोभावों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने हेतु काव्य संग्रह ‘नेह निर्झर’ को चार खण्डों में विभाजित किया है और प्रत्येक खण्ड प्रेम के भिन्न-भिन्न रूपों को अपने अन्दर समाये हुए है. ये तीनों ही खण्ड अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे से सम्बन्धित मालूम होते हैं और इनके अन्दर शामिल कविताएं एक सूत्र में बंधी हुई प्रतीत होती हंै.
‘नेह निर्झर’ के प्रथम खण्ड में कवयित्री ने प्रेमी-प्रेमिका की प्रथम भेंट के बाद उत्पन्न होने वाले एहसास व दोबारा मिलने की आस और अन्य दूसरी भावनाओं को प्रस्तुत किया है. इस खण्ड में दो कविताएं ‘वह मुस्कान’ और ‘वह तन्वी’ सम्मिलित है. ‘वह मुस्कान’ में कवित्री ने नारी की भावनाओं को प्रस्तुत किया हेै कि किस प्रकार प्रथम भेंट के बाद नारी को चहूं ओर अपना प्रिय ही दिखाई पड़ता है और उसमें ऐसी भावनाएं उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे आज तक वह पूरी तरह अन्जान थी. कवयित्री की प्रशंसा यहां पर करनी होगी कि उसने पुरुष की भावनाओं को भी उतनी आसानी और सहजता के साथ व्यक्त किया है जितनी कि स्त्री के भावों को व्यक्त किया है और इस खण्ड में शामिल दूसरी कविता ‘वह तन्वी’ पुरुष के अन्दर उत्पन्न होने वाले प्रेममयी अनुभवों और भावों को अपने अन्दर समाये हुए है.
प्रेम में जहां संयोग का हर्ष और उमंग होती है वहीं दूसरी तरफ रूठना, बिछड़ना और वियोग की टीस और आह भी होती है और इन समस्त भावों व अनुभवों से मिलकर ही प्रेम-रस पूर्ण होता है. कवयित्री इन समस्त बातों से भली भांति परिचित मालूम होती है. ‘नेह’ का दूसरा खण्ड इन्हीं भावों को अपने में समाहित किए हुए है. कवयित्री ने प्रेमी के रूठने पर प्रेमिका की कैसी मनोदशा होती है, वह किस प्रकार प्रेमी की एक-एक बात को याद करती है और प्रेमी के वियोग में किस प्रकार स्वयं को अकेला अनुभव करती है इस सबका बड़ा ही मार्मिक चित्रण कवयित्री ने किया है, साथ ही प्रेमी की मनोदशा को भी बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार प्रेमिका से रूठने के बाद भी वह अपनी प्रेमिका पर मुग्ध होता जाता है और उससे अपने प्रेम को व्यक्त करने के लिए व्याकुल रहता है. इस खण्ड में तीन कविताएं सम्मिलित हैं. जब हम अकेले थे, आशक्ति और चारू चंचल रूप इनमें से प्रथम दो कविताएं नारी की और अन्तिम कविता नर की मनोदशा से सम्बन्धित है.
कवयित्री ने जहां प्रेम में रूठने मनाने और अन्य भावनाओं को व्यक्त किया है वहीं वह वर्तमान समय से भी पूरी तरह परिचित है. वह जानती है कि आज का मानव भी प्रेम करता है, प्रेम में विश्वास रखता है लेकिन उसमें कुछ बनने की महत्वाकांक्षा उसको उसके प्रेम से दूर कर देती है और वह जो चाहता है वह पा भी लेता लेकिन बाद में उसे वह शान्ति नहीं मिल पाती है जिसकी वह अभिलाषा करता था, अब वह अपने प्रेम को ढूंढता है,, अब उसके हाथों में सिर्फ यादें ही शेष रह जाती है, और वह जीवन भर इन्हीं यादों व वियोग की आग में जलता रहता है और प्रेम को पुनः पा लेने की आशा करता रहता है. ‘नेह निर्झर’ की तीसरे खण्ड में सम्मिलित कविताएं इसी प्रकार के भावो को अपने अन्दर समेटे हुए है और इनका जहन पर ऐसा असर होता है कि पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है कि मनुष्य क्यों अपने प्रेम को समय रहते सफल नहीं कर लेता? वह अन्य दूसरी बातों को अधिक महत्व क्यों देता है? कवयित्री ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रेम के समस्त रूप, प्रेम में उत्पन्न होने वाले आर्कषण, प्रेम में उत्पन्न होने वाली समस्त भावनाओं, मिलने की आस, रूठने मनाने की प्रवृत्ति, वियोग का दुःख, प्रेम में असफलता और जीवन भर दिल में बसी उस असफलता की टीस को बड़े ही मार्मिक व दुखदायी रूप में व्यक्त किया है.
अपने इन भावों को व्यक्त करने के लिए कवयित्री ने जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग  किया है वह सभी उचित प्रतीत होते हैं. श्रृंगार रस के दोनों रूपों संयोग और वियोग का यथोचित प्रयोग हुआ है कवयित्री ने कविता के स्वतंत्र रूप का प्रयोग किया है जिसके कारण उसे अपने भावों को व्यक्त करे में किसी प्रकार की बांधा नहीं हुई है. कवयित्री ने कविताओं में अपने भावों को व्यक्त करने में किसी प्रकार की बांधा नहीं हुई है. कवयित्री ने कविताओं में अपने भावों को व्यक्त करने के लिए छोटी व बड़ी पंक्तियों का प्रयोग किया है लेकिन जहां पर छोटी पंक्तियां प्रयोग की है वहीं पर कविताओं में जादू सा उत्पन्न हो गया है.
वस्तुतः कहा जा सकता है कि नेह निर्झर के माध्यम से कवित्री नन्दा शुक्ला ने अपने काव्य कौशल को अत्यधिक उपर्युक्त और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने की चेष्टा की है और प्रेम को प्रेम के एक नये रूप में प्रस्तुत किया है. इनके  इस काव्य संग्रह के लिए मैं डाॅ0 नन्दा शुक्ला को हार्दिक शुभकामनाएं देती हूं.

-सायमा नदीम
3/6, अटाला काॅलोनी,
तुलसीपुर, इलाहाबाद


मानवीय रिश्ते  को संदर्भित करता लगाव

कवयित्री डाॅ. नंदा शुक्ला का काव्य संग्रह ‘नेह निर्झर’ स्त्री ओैर पुरूष के बीच पनपने वाले मानवीय रिश्ते को संदर्भित करता रागात्मक लगाव के कई पट खोलता है.
आदम और हव्वा ने जिस सृष्टि की रचना की और उसके निर्माण की गाथा लिखी. नंदा जी भी अपनी काव्य अभिव्यक्ति से स्त्री पुरुष के सम्बन्धों के निर्माण की परिभाषा देती हैंः-
इस सृष्टि संरचना में
देा ही मानव का योग रहा
नर-नारी के मिलन योग में
जीवन निर्माण छुपा रहा।
कैसे दो मानव के भावों ने
बांधा खुद को एक बंधन में
था कौन-सा आकर्षक भाव उनमें
जो बंधे जीवन संगुफन में।

साहित्य में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर सदियों से विचार विमर्श किया जा रहा है. जयशंकर प्रसाद की कामायनी विनाश के बाद सृष्टि की रचना को संदर्भित करते हुए मनु, इड़ा और श्रद्धा के माध्यम से स्त्री-पुरुष के रागात्मक सम्बन्धों को विश्लेषित करने वाला मानक है.
नंदा जी ने भी एक काव्य गाथा रचने का प्रयास किया है. यद्यपि नंदा जी को अपनी कविताओं को पुख्ता बनाने के लिए अभी और अभ्यास की आवश्यकता है. कविताओं में दोहराव की स्थिति, जगह-जगह देखने को मिलती है. संयोग और वियोग के माध्यम से उन्होंने स्त्री-पुरुष के भावों का विवेचन किया है.
हर रचनाकार के भीतर एक बच्चा होना चाहिए जो निरन्तर सीख कर कुछ नया करने की चेष्टा करता है? नंदा जी को भी अपने भीतर उस बच्चे को जिलाए रखना चाहिए.
मैं इनके रचना कर्म की सफलता की कामना करती हूं. जीवन के क्लिष्ट और जटिल अनुभवों को इन्होंने सरलतम ढंग से प्रस्तुत किया है.
मेरी शुभकामनाएं नंदा जी के साथ है।
-ज्योतिर्मयी
सहायक सम्पादक-हिन्दुस्तानी
ए-10, पत्रकार कालोनी, अशोक नगर, इलाहाबाद


पुस्तक का नाम- नेह निर्झर, ISBN.978.81.925218.0.0
कवयित्री- डा. नन्दा  शुक्ला
पेज: 80, मूल्यः 100 रुपए सजिल्द, 60 रुपए पेपर बैक
प्रकाशकःगुफ्तगू पब्लिकेशन,इलाहाबाद



मानव-सृष्टि-संरचना

इस सृष्टि संरचना में,
दो ही मानव का योग रहा,
नर-नारी के मिलन योग में,
जीवन निर्माण छुपा रहा,

है आदि अनादि का सत्य यही,
भूधर में इसके आधार का अवलंब यही,
इस जीवन सार्थकता का साकार स्वरूप यहीं,
जीवन निर्माण की इस कला से ही,
निर्मित होती आ रही है सृष्टि यही।

कैसे दो मानव के भावों ने,
बांधा खुद को एक बंधन में,
था कौन-सा आकर्षक भाव उनमें,
जो बंधे जीवन संगुफन में।

है वह प्रेम का भाव जो हर कालों में,
दो मानव जीवन की काया में खिलता,
जो मधुर राग बन इस जीवन का,
हर सृष्टि में विकसित हो दो जीवन में मिलता।
है नर नारी का मिलन योग,
जीवन ही है उसका घटना योग,
यह सृष्टि अपरिमित और अपार,
उसी आदि भावों को लेकर निर्मित हुई आज।

यह भाव अनादि कालों से भी,
मानव जीवन का आधार रहा,
जिसके सुख-दुःख के भावों पर ही,
जीवन निर्माण कला चली रही।

यह कथा वही मुझको कहना,
कैसे दो मानव के संगम से,
कैसे जीवन इतिहास रचा,
कैसे निर्मित हुए वो भाव,
कैसे हुई वो आंखे चार,
कैसे वो दुख-सुख के भाव खिले,
कैसे विकलांत हुए वो भाव,
कैसे निर्मित हुआ मान-अभिमान,
कैसे जागा प्रेम अभाव,
फिर उसमें क्या-क्या भाव जगे,
इसकी ही कहनी है कथा,
फिर कैसे आया संगमकाल,
जिससे निर्मित हुई यह सृष्टि अपार,
है कथा वही है सत्य यही
उन ही भावों का है यह मायाजाल।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

सारे बीमार चले आते हैं तेरी जानिब


                                                                                                      मुनव्वर राना
अपने हकीम साहब मरहूम भी क्या चीज़ थे, अल्लाह उनकी मग़फिरत करे. इस अदा से झूठ बोलते थे कि सच्चाई बगलें झांकने लगती थी. हर जुमले में तहदारी और इतनी परतें होती थीं कि प्याज की खेती करने वाले भी पैदावार बढ़ाने के लिए उनसे मशविरा करते थे हर चंद कि मैंने किसी भी प्याज के काश्तकार को उन्हें मशविरा देते तो नहीं देखा लेकिन कोई भी होटल वाला उनसे सलाद के पैसे नहीं लेता था. जब भी मौसूफ़ से इस मेहरबानी की वजह पूछी जाती तो पहले हंस कर टाल जाते थे, लेकिन तफ़तीश की यलगार से उकता कर मुस्कुराते हुए कहते थे कि कूचए अरबाबे निशात में फ्रेंच लैटर के पैसे नहीं लिए जाते, सलासत के साथ बलागत और उसके साथ-साथ मानी आफ़रीनी उनके गुफ़्तगू का ख़ासा थी, मौसूफ इबहाम के जत्ररिए जदीदियत की तीसरी मंजिल माबाद जदीदियत का संगे बुनियाद रखते हुए भी शेर के मिसरों को कभी दोलख़्त नहीं होने देते थे. नफ़ासत पसंदी का ये आलम था कि इत्र भी ऐसा इस्तेमाल करते थे जो रुसवाई की तरह फैले, उनका कहना था कि ऐसे मुश्क से क्या फायदा कि गवाही के लिए हिरन ले कर घूमना पड़े. इत्र हमेशा एक मख़सूस दूकान से लेते थे. अक्सर फ़रमाते थे, कि इत्र फरोश और जिस्म फरोश अगर अपनी तब़ीयत से नवाज़ दे तो नवाजिश है वरना समझ लो साजि़श है. ज़ुमले को इबहाम की तंग गली से निकालने की कोशिश में ये भी फ़रमाते थे कि यूं तो इत्र की फुरेरी खोंस देना और हवा में बोसा उछाल कर गाहक तक पहुंचा देना, इत्र फ़रोशों के पेशे में शामिल है.
लेकिन बक़ौल बशीर ‘बद्र’-
कभी यूं भी आ मेरी आंख में कि मेरी नज़र को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे मगर उसके बाद सहर न हो

हालांकि बशीर ‘बद्र’ के सिलसिले में जब भी गुफ्तगू होती थी तो हकीम साहब हमेशा यही फरमाते थे कि आदमी कलम के बग़ैर, औरत दुपट्टे के बग़ैर, सिपाही तलवार के बग़ैर और बशीर ‘बद्र’ मुनाफिक़त के बगैर नंगे सर मालूम होते है, साथ में ये भी फरमाते थे कि सर को यहां हशू-ओ-ज़ायद समझा जाए.किसी भी मौजू की तरफ़दारी और मुख़ालिफ़त पर एक साथ गुफ़्तगू कर सकते थे, सियासत को मच्छरदानी में मच्छर का शिकार कहते थे, मच्छरदानी को टट्टी की आड़ में शिकार कहते थे, जदीद शायरी के मसौदे को क़ारूरे की तरह देखते थे. साहिबे क़ारूरा के हाथ में क़ारूरा होता था और हाथ हक़ीम साहब के हाथ में.
जिस हाथ से मैंने तेरी जुल्फों को छुआ था
छुप छुप के उसी हाथ को मैं चूम रहा हूं

(मुशीर झिंझानवी)
तरन्नुम से पढ़ने वालों को सरअत अंज़ाल (नज़ले की जमा) का शिकार कहते थे बहुत जूदगो शायर को भी सरअत अंज़ाल (यहां नज़ले की जमा नहीं है) का नतीजा कहते थे, दवा दोनों को एक ही देते थे, फ़ीस मुशायरे के रेट के मुताबिक़ लेते थे. मुशायरे से वापसी पर हमेशा गुस्ल करते थे, कभी वजह नहीं बताते थे, लेकिन शर्मिदा शर्मिदा से रहते थे, मुशायरे में शायरात की कसरत से कन्वीनर को खानदानी पसमंज़र समझ लेते थे. कई ऐसे ही मुशायरों को कन्वीनर को ख़ानदानी पसमंज़र समझ लेते थे. कई ऐसे ही मुशायरों को कन्वीनरों ने महफि़ले मुशायरा में हकीम साहब को देख कर मुशायरे से तौबा कर ली थी, क्योंकि हक़ीम साहब से उनकी दैरीना शनासाई निकली. उनमें से कई हज़रात ने कूचए अरबाबे निशात की आखि़री मंजि़ल तक सिर्फ़ उनकी रहबरी ही नहीं की थी बल्कि चिराग़े राह भी बन चुके थे. कई शायरात के डी.एन.ए. टेस्ट पर ज़ोर देते थे. लेकिन चंूकि दिल के अच्छे थे लिहाज़ा हर शायरा अच्छी लगती थी. रूमानी शायर को अपना रक़ीबे-रुसिया समझते थे. कभी कभी मूड मंे होते तो ये भी कहते थे कि उल्लू, तवाईफ और शायर, रात में ही अच्छे लगते हैं. दिन में तो ये सब एक जैसे दिखाई देते हैं. मुशायरे को मुजरे और नौटंकी का क्रास ब्रीड कहते थे. अक्सर अपनी शे’री सलाहीयत मनवाने के लिए जुमले में जदीदियत का चूना तेज करते हुए उस पर तोप चाची का कत्था भी उंड़ेल देते थे, ज़ायके को मज़ीद मौअतबर बनाने के लिए गुलकन्द का इस्तेमाल भी करते थे. मतला को अंधे ज़रगर के हाथों का बना हुआ झुमका कहते थे. बकि़या शे’रों को मेले की मिठाई और तख़ल्लुस को नाक की कील कहते थे. मुशायरे की शायरी को चरसी चाय और ख़ूबसूरत शायरत को जर्सी गाय कहते थे. ज़्यादा दाद मांगने वाले शायरों को फ़क़ीरों का नुतफ़ा और ना शायरों को रद्दी फ़रोश कहते थे. रिसाले के मुदीर को बैसाखी, सफ़हात को करंसी, तारीफ़ी ख़ूतूत को गीव एण्ड टेक और एकेडमियों को नक़ली कारतूस का कारख़ाना कहते थे.
शायरों के मोबाइल रखने पर सख़्त ऐतराज़ करते थे. ऐसे शायरों की अलग फ़हरिस्त बना रखी थी जो पाख़ाने में भी मोबाइल ले कर जाते हैं लेकिन अक्सर जल्दी बाज़ी में पानी ले जाना भूल जाते थे और ये बात भी मुशायरे से लौटने के बाद याद आती थी. कई ऐसे शायरों से भी बाख़बर थे जिन्होंने नमाज़ पढ़ना सिर्फ इसलिए छोड़ रखी थी कि वहां मोबाइल बंद करना पड़ता था. स्टेज पर मोबाइल से बातें करने को सिगरेट पीकर दूसरों के मुंह पर धुआं छोड़ना कहते थे. ऐसे बेक़रार शायरों से भी बख़ूबी वाकि़फ़ थे जो मन्दिर की घन्टी बजने पर भी मोबाइल कान में लगा लेते हैं-
‘कैस’ तस्वीर पर्दे में भी उरियां निक़ला
इश्क़ को जज़्बात की आबरू कहते थे. झाडि़यों की लुका छिपी से शदीद नफ़रत करते थे, उनका कहना था कि सच्चा इश्क़ तो वही है कि चाहे आदमी टूट जाए लेकिन सारी जवानी वजू ने टूटे, इश्क़ को ख़ुश रंग चिडि़यों का शिकार समझने वालों से शदीद नफ़रत करते थे. बीड़ी से ज़्यादा जब खुद सुलग उठते तो कहते थे कि फ्रेंच लैदर जेब में रख कर घूमने वाली क़ौमें क्या जानें कि गुलाब की शाख से उलझ कर रह जाने वाले आंचल का एक टुकड़ा आशिक़ के लिए कायनात के बराबर होता है. इश्क़ तो वह पाक़ीज़ा जज़्बा है जो एक बाज़ारी औरत के आंचल के बोसे के इंतिज़ार में भी सारी उम्र गुज़ार देता है. इश्क़ की ये दीवानगी अगर बाज़ार में मिलने वाली चीज़ होती तो लैला की पीठ पर मजनूं के ज़ख़्मों के निशान न होते, और अगर हुस्न की मंजि़ल भी दौलत होती तो फ़रहाद दूध की नहर निकालने के बजाए मुल्कों पर क़ब़्ज़ा करने के लिए तलवार लिए क़त्लों-ग़ारत गिरी कर रहा होता.क्लासीकल शायरी के रसिया थे, लेकिन रंगीन शायरी से अज़ली बैर था, फ़रमाते  थे कि रंगीन ग़ज़ल महबूब के जिस्म का इश्तहार होती है. पराई बहू बेटियों का तज़किरा ग़ज़ल में करना लफ़्ज़ों से ब्लू फिल्म बनाने के मुतरादिफ़ है, अक्सर समझाते थे कि रंगीन ग़ज़ल महबूब की रुसवाई का सबब है, शहवत को भड़काने का मसाला है, जे़हनी अय्याशी का सामान है. मुशायरे और मुजरे को एक निगाह से देखते थे, मुशायरे को अदब की राम लीला कहते हैं. शायरों की टीम को नाटक मंडली और नकीबे मुशायरा को चोबदार कहते थे, ये कहते हुए इतना बुरा मंुह बनाते थे कि तनक़ीद गाली जैसे मालूम होती थी.
ग़रज़ ये कि हकीम साहब की शख़्सीयत ‘छुटती नहीं है मुंह से ये काफि़र लगी हुई’ जैसी थी. उनकी जली कटी सुनकर कभी-कभी तो जी चाहता था कि आइंदा उनकी सूरत भी ने देखने की सूरत निकाली जाए. लेकिन हक़ीम साहब तो इक़तिदार के नशे की तरह मेरे जे़हनो दिल से क्या मोटर साईकिल तक से नहीं उतरते थे. नाराज़ होते थे तो ‘हम अपना मुंह इधर कर लें तुम अपना मुंह उधर कर लो.’ के पेशेनज़र मोटर साईकिल पर इस तरह बैठते थे सड़क पर बेहिजाबाना इज़हारे इश्क़ करने वाले कई जानवर भी शर्मिदा हो जाते थे. हमेशा समझाते थे कि ऐसे हर एक घर से दूर रहा करो जहां बीवेयर आॅफ डाग लिखा हो. क्यांेकि ज़रूरी नहीं कि उस घर में कुत्ता भी मौजूद हो. यूं भी इस बोर्ड के लिए कई घरों में कुत्ते की ज़रूरत ही नहीं होती. वफ़ादारी की वजह से कुत्तों का बहुत एहतराम करते थे, कभी आदमी को कुत्ता नहीं कहते थे उनका ख़याल था कि इससे वफ़ादारी के आबगीने को ठेस पहुंचती है. सियासी लीडरों की तरफ तो निगाह भी नहीं उठाते थे. कहते थे कि ये इतने नंगे होते हैं कि वजू टूट सकता है, ज़्यादा पढ़े लिखे लोगों से ऐसे बिदकते थे जैसे घोड़ा सांप से. नक़्क़ादों को हमेशा दूकान कहते थे, और तनक़ीद को लाल पेड़ा.... जब कोई इस तरकीबो-तलमीह के बारे मे पूछता तो कहते कि हफ़्ते भर की बची हुई मिठाई को फिर से फेंट लपेट कर लाल पेड़ा तैयार किया जाता है और तनक़ीद भी झूठी सच्ची लफ़जि़यात से तैयार की जाती है. कभी कभी तो उनका फ़लसफ़ा आईने की तरह सच बोलता हुआ लगता था. एक दिन बहुत ही अच्छे मूड में थे मेरे लिए अपने पास से चाय मंगवाई, दो अदद सिगरेट भी, नौकर से बचे हुए पैसे भी नहीं लिए, पहले तो नमकीन चने के कुछ दाने मेरे मुंह में रखवा कर अपना नमक ख़्वार बनाया फिर अपनी माचिस से मेरी सिगरेट ऐसे जलाई, जैसे गुजरात में बस्तियां जलाई जाती है. कम्प्यूटर से निकले फोटो की तरह मुस्कुराए फिर कहने लगे कि एक नुक्ता समझ लो, अगर किसी की बुराई जुबानी की जाए तो ग़ीबत है और उसे तहरीर के जे़वरात से आरास्ता कर के क़ाग़ज के राज सिंहासन पर बिठा दो तो तनक़ीद कहलाती है. दिल्ली में इसकी कई दुकानेें हैं, हालांकि उन दूकानों पर कोई साईन बोर्ड नहीं होता लेकिन तलाश करने में बिल्कुल दुशवारी नहीं होती. क्योंकि जिस्म फ़रोशी का भी काई साईन बोर्ड नहीं होता. जिस्म तो खुद ही ऐसा साईन बोर्ड होता है जिस पर तहरीर तो कुछ नहीं होता लेकिन सब कुछ पढ़ लिया जाता है.
हकीम साहब, किसी भी तनक़ीद निगार को अच्छी नज़र से नहीं देखते थे. तनक़ीद ने भी हकीम साहब को कभी नज़र भर के नहीं देखा. नाक़दीन का कहना था कि तनक़ीद उसी जगह अपनी कुटिया बनाती है जहां तख़्लीक़ हो और हकीम साहब तख़्लीक़ी ऐतबार से बिल्कुल ही कल्लाशं है. लेकिन उन बातों को हकीम साहब निसवानी गीबत कहते थे. जबकि हकीम साहब तो यहां तक कहते थे कि मुझ पर नज़र पड़ते ही तनक़ीद निगार अपनी चश्मे बसीरत से यूं महरूम हो जाते है, जैसे हामला औरत को देख कर सांप. किसी ने हकीम साहब से अज़ राहे मज़ाक पूछ लिया कि क्या आप कभी हामला भी हो चुके है, ज़ाहिर है कि हकीम साहब से ये पूछना सांप की दुम पर पंाव रखने के बराबर है. लेकिन हकीम साहब की इसी अदा पर तो हम लोग मरते थे कि वह इस जुमले को ऐसे पी गए जैसे चिराग़ तेल पी जाता है. जैसे मज़दूर सरमाए दारों की गाली पी जाते हैं, जैसे घरेलू उलझनें चेहरे का आब पी जाती है, जैसे मग़रिबी औरतें हंसते हुए शराब पी जाती हैं. थोड़ी देर तक इधर उधर देखते रहे फिर बोले कि उर्दू तनक़ीद निगारों का यही तो फूहड़पन है कि ज़बानों बयान, मुहावरे बंदी, तलमीहात, इबहाम और इशारियत से कतई नावाकिफ होते है और उर्दू तनक़ीद में अंग्रेजी के कुछ गढ़े हुए जुमले और झूठे सच्चे फार्मी अण्डे जैसे अंग्रेजों का नाम लिख कर उर्दू शायरी को कीट्स, वुड्ज वर्थ की शायरी के बदन का मैल साबित करने की कोशिश करते हैं. बल्कि भी-कभी तो ‘शिबली’ की तहरीर को एक नुक़्ते की मदद से ‘शैली’ की तहरीर साबित कर देते हैं. ऐसे नाक़दीने-अदब को टूडी बच्चे कहते है जो अंग्रेजी के पहिए की मदद से अपनी अदबी गाड़ी खींचते हैं.
एक दिन किसी ने इत्तिफ़ाक़न पूछ लिया कि हकीम साहब अदब में अब बड़े लोग क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं, ये सवाल सुनते ही बच्चों की तरह खिलखिला कर हंस दिए फिर फरमाया कि अदब में बड़े लोग इसलिए पैदा नहीं हो रहे हैं कि हमारी तनक़ीद छोटे लोगों पर लिख रही है, हर शायर अपने साथ खुद साख़्ता कि़स्म के नक़्क़ाद लेकर चलता है. जैसे माफि़या अपने साथ दबंगो को लेकर चलते है या ज़्यादातर ये ख़ुद साख़्ता नाक़दीन अब उन लोगों पर लिखना पसंद करते थे जो उनकी सब्ज़ी के झोले में फ़ार्मी मुर्गे रख कर लाते हैं. बल्कि बवक्त़े ज़रूरत फ़ार्मी अण्डे तक देने को तैयार रहते है. ज़ाहिर है कि जब अदब फ़ार्मी अण्डे और मुगऱ्ी में उलझ जाएगा तो क़लम भी पेशेवर मौलवी की तकरीर होकर रह जाएगा. ऐसे घटिया अदबी बाजार में अच्छा अदब तलाश करना, ज़नख़ों के मेले में निरोध बेचना है. हकीम साहब तक़रीबन बेक़ाबू हो चुके थे. मगर बातें पते की कह रहे थे. कहने लगे उर्दू अदम में तनक़ीद उस नील गाय की तरह है जिसे भोले भाले शायर व अदीब उस पर उम्मीद पाल लेते हैं कि आगे चल कर ये दूध देगी. लेकिन ये तनक़ीदी नील गाएं अदब के लहलहाते खेत को चर जाती हैं. सांस लेने को रूके और फिर गोया हुए कि तनक़ीद की बेलगाम घोड़ी सिर्फ़ दौलत, अदबी इक़तिदार और गै़र मुल्की करंसी के कोड़ो से ही काबू में आ सकती है. फिर सबसे अफ़सोस की बात ये है कि हम ने उर्दू के हर तनक़ीद निगार को कई चीजे़ बेचते और बहुत सी ज़रूरी ओैर गैर जरूरी चीजें़ खरीदते देखा है लेकिन आज तक यानी 68 बरस की उम्र होने को आ गई, उसे कोई उर्दू रिसाला, कोई शेरी मजमूआ, कोई कहानियों की किताब यहां तक कि उर्दू का अख़बार भी ख़रीदते नहीं देखा और जिस ज़बान के अदीब व दानिशवर उर्दू ज़बान की बक़ा के लिए सौ पचास रुपये नहीं ख़र्च कर सकते, उस ज़बान की हिफ़ाज़त की गारंटी कौन ले सकता है. लिहाज़ा ये समझ लिया जाए कि उर्दू मर चुकी है.-
कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
हम लाश हैं और गिद्ध हमें नोच रहे हैं।।

                (मुनव्वर राना)
(गुफ्तगू के सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित)


रविवार, 21 अक्तूबर 2012

डा. नन्दा शुक्ला का काव्य संग्रह ‘निशीथ’ की समीक्षा


  
संवेदनाओं की सघन आहट देता स्त्री मन
                        - यश मालवीय
स्त्री मन की पारदर्शी तरल पर्तों में सतह दर सतह संवेदनाओं का संगुफन सजाती कवयित्री नन्दा शुक्ला की कविताओं की पांडुलिपी के पृष्ठ मेरे सामने पंख फड़फड़ा रहे हैं, इस फड़फड़ाहट में शामिल है हमारा कठिन समय और बदल रहा समाज। एक जूझती हुई, पराजय न स्वीकार करती मगर क्षोभ से भरी महिला का चित्र जे़हन में उभरता है। यह चित्र वास्तव में स्त्री विमर्श के दौर में आधी आबादी का प्रतिनिधि-विंब बनकर उभरता है, उभरती है कुछ बनी अधबनी तस्वीरें, कुछ अधूरी रंग-रेखाएं और बहुत कुछ टूटा बिखरा मन। मन के इसी ताल में उम्मीदों के कमल खिलते-मुरझाते जि़न्दगी के अस्तित्व का प्रमाण देते होते हैं। इस कमल की पंखुडि़यों पर ग़लाज़त भरे युग की कीचड़-काई भी लिपटी होती है। इस आक्रमक समय में आक्रोश की चिनगारियां फूटती होती हैं। फूटता है लावा हमारी टुकड़ा-टुकड़ा होती संस्कृति का। कवयित्री कहतीं हैं-
कैसी ये विडंबना हो गई अब
कवि भी हो गया मशीन सा जब
अभिव्यक्त करता है अपने का ऐसे अब
कुछ भी स्पष्ट नहीं कर पाता अपना सब।

क्रूर दुनिया और सह्दय दुनिया दोनों की समानांतर भाव से चलती रहती है, इस प्रक्रिया में बहुत कुछ टूटता-जुड़ता चलता है और बनता-बिगड़ता भी है। स्वयं की शिनाख़्त करनी होती है। चिन्तन करनी होती है अपनी भूमिका। गहरे तोष की बात है कि कवयित्री ने अपनी भूमिका को बाखूबी समझा है और उसका यथाशक्ति निर्वाह भी किया है। उसका कथ्य महत्वपूर्ण है इसलिए वह शिल्प से किंचित समझौता भी कर लेती है। यह ‘काव्यात्मक एडजेस्टमेंट’ अपने कथ्य को आंच न आने पाए महज़ इसलिए होता है। यह एक रचनात्मक सलीके के तहत अंजाम दिया जाता है जिसकेे अंतर्गत शिल्प लचीला तो होता है पर शिथिल नहीं होता इसलिए कहन भी अलग सी तासीर का सुख देती है। नन्दा शुक्ला कहती हैं-
एक अंजान सफ़र है इस जीवन पथ का
हर राही जिस पर है चलता
कोई बन जाता हमराही
कोई अकेले जीवन का पथ तय करता

अथवा

ये वीरान सा प्रांगण
ये खण्हर होते भाव
यह कुछ और नहीं
मानव मन का नीरव एहसास

‘जीवन पथ’ पर ही ‘मन की नीरवता’ का गहरा एहसास होता है। मन की नीरवता का एहसास ही जब सघन होता है तो महादेवी जी जैसी कवयित्री कह उठती हैं- ‘मैं मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो’। इस प्रकार नन्दा शुक्ला सहज ही महादेवी जी की काव्य परम्परा और उसके सर्जनात्मक संस्कारों से जुड़ जाती है।
निश्चित ही कविताओं की इन संवेदनाओं का हिन्दी जगत में स्वागत होगा

--    ए-111,मेंहदौरी काॅलोनी, तेलियरगंज, इलाहाबाद, मोबाइल 98397922402

 पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती कवितायें
               - डाॅ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
कविता मनुष्य के सुख-दुःख की सहज अभिव्यक्ति है। काव्य हमें चेतना प्रदान करता है और कुछ करने की ही नहीं, कुछ कर गुज़रने की भी प्रेरणा देता है। निराश मानव ने कविता के आँचल में सदैव आश्रय प्राप्त किया है और पुनः अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हुआ है। कविता ब्रह्माण्ड की प्रत्येक हलचल को अपने आपमें सँजोती है। देश-दुनिया और समाज से मनुष्य को यत्र-तत्र-सर्वत्र जोड़ती है। यही कारण है कि कविता केवल साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह इतिहास, भूगोल, राजनीति, दर्शन तथा और भी बहुत कुछ है। कविता हमें संवेदना के उस स्तर तक ले जाती है, जहाँ केवल शुभ की सत्ता होती है और अशुभ धूल-धूसरित हो जाता है। इस स्तर पर मनुष्य, मनुष्य हो जाता है और उसके होने की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। किन्तु काव्य की सार्थकता का एक पहलू यह भी है कि वह समाज से सहज रूप से जुड़ सके। उसका लक्ष्य पाठक व श्रोता का मानसिक व्यायाम कराना मात्र न हो, उसमें अनावश्यक क्लिष्टता न हो, बल्कि सहज संप्रेषणीय हो और वे उसे हृदयांगम कर सकें। वर्तमान में कविता के नाम पर बहुत कुछ बकवास और कूडा़-करकट भी लिखा जा रहा है और छप भी रहा है; ऐसे में कवयित्री नन्दा शुक्ला की चिंता और सुझाव नाहक नहीं हैं-
      रसता हो, सरसता हो/अर्थ में भावगम्यता हो
      पढ़ते ही तादात्म्य कर लें आप
      समझते ही भाव अपना ले अपने आप।

‘कविता’ शीर्षक की इस कविता के माध्यम से उन्होंने रचनाकारों के लिये काफ़ी कुछ इशारा किया है। इसके पीछे मुख्य वजह प्रकाशन-अवसरों की बहुलता और नयी कविता के नाम पर कुछ भी लिख डालना है। एक बात यह भी है कि हिन्दी के अधिकांश कवि स्वयं के सिद्धहस्त होने का भ्रम पाले हुए हैं। ऐसे में प्रकाशकों-संपादकों की जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है।
पेशे से पुलिस विभाग की मातहत सुश्री नन्दा शुक्ला की कवितायें पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती हैं और अपनी बात बहुत साफ़गोई से कहती हैं-
इस मेले में/कितने हैं अंजान डगर
कितने हैं पथ के राही
हर राही की अपनी मंजि़ल
हम खोजें क्यों हमराही।

कवयित्री ने इन कविताओं के माध्यम से शब्दों का मकड़जाल नहीं बुना है, बल्कि विषय व भाव की बोधगम्यता को ध्यानगत रखते हुए अपनी बात बहुत सरल व स्पष्ट तरीक़े से कही है। यद्यपि कहीं-कहीं पर तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ किया गया है तो भी काव्य की सोंधी ख़ुशबू और काव्य माधुर्य पाठक सरलता से महसूस कर सकता है-
वीथि में विहंग कलरव/बता रहा नव्य विहान
विलम्य विभावरी से ही/विकसित होता दिवस का रूप।

इन कविताओं के सहारे सुश्री नन्दा यद्यपि किसी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे को प्रत्यक्ष तौर पर बहस का केन्द्र नहीं बनातीं तथापि उनकी मानसिक संवेदना मानव मन व जीवन की अनेक विसंगतियों यथा- निराशा, पीड़ा, क्षोभ, असफलता, रिश्तों का खोखलापन आदि को उद्घाटित करती साकार शब्द-रचना के रूप में जीवन्त हो उठती है। यही कारण है कि इन कविताओं में दर्शन के अणु-परमाणु भी मौज़ूद हैं-
ये वीरान-सा प्रांगण/ये खंडहर होते भाव
ये कुछ और नहीं/मानव मन का नीरव अहसास।

कवयित्री नन्दा मिश्रा की कविताओं के शिल्प को किसी कसौटी या मानक पर नहीं कसा जा सकता क्योंकि इनमें छंद विधान का न तो कोई तत्व मौजूद है और न ही इसकी कोई परिकल्पना। नयी कविता के शिल्प से भी इन कविताओं का साम्य स्थापित नहीं किया जा सकता तथापि अपने भाव और कथ्य को लेकर रचनाकार ने ईमानदार कोशिश की है और भविष्य के प्रति अपार संभावनाओं की खिड़की खुली है, यह महसूस कराया है।

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     हृदय के अंतः स्थल से निकली हैं कविताएं
                   - डाॅ. मोनिका मेहरोत्रा ‘नामदेव’

कहते हैं जब कवि हृदय में भावनाओं का सागर उमड़ता है, जब दूसरों की पीड़ा अपनी सी लगती है और जब सरसता और नीरसता के बीच शब्दों का झंझावत उठता है तो कविता का जन्म होता है। कविता रूपी माला में शब्द रूपी जितने मोती पिरोये जाते हैं कविता की सार्थकता और भी फलीभूत हो उठती है। अपने इसी सार्थक प्रयास में डाॅ. नन्दा शुक्ला पूर्णतः सफल हैं क्योंकि आपकी लेखनी से जीवन का जो पहलू सामने आया है वह कावगम्य है ही साथ ही वास्तविकता का परिचय भी देता है। कवयित्री ने अपनी कविता में ‘कविता के मूल’  से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया है-
कविता का मूल है भावों का संसार
न कि ऐसा शब्दों का माया जाल
प्रभुता में खो जाये इसमें ऐसे आप
ढूढ न पाये जिसमें अपना से संसार।

ज्ञान क्या है ? इसकी थाह क्या है ? इसका प्रारंभ और अंत कहां है ? ये प्रश्न ऐसे हैं कि आप जिन्हें जितना खोजते जायेंगे उतना ही इसमें छिपे रहस्य खु    लते जायेंगे यानी ज्ञान एक विशाल सागर है, जिसमें गोते लगाते-लगाते शायद हम थक जायेंगे पर सागर की विशालता और गहराई कम नहीं होगी। अतः हमारे सामने मानवता की परिपाटी मे जो सद् है और जो श्रेष्ठ है वही ज्ञान है। कवयित्री डाॅ. नन्दा शुक्ला ने ज्ञान जैसे विशाल विषय को बड़ी ही सरलता से व्यक्त किया है-
कहे कुछ
समझे कुछ
नहीं है ये ज्ञान का आलोक
समझे वही जो समझायें आप
यही है ज्ञान का सच्चा प्रकाश।

डाॅ. नन्दा शुक्ला की कविताओं को देखने से ऐसा लगता है जैसा कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सोच और सामाजिक विचारधाराओं को मेल खाती कविताओं की रचना की है जो कि लगभग प्रत्येक कवि हृदय करता है। बाहरी झूठ, दिखावा, भ्रष्टाचार, निम्न सोच जैसे तथ्य कवि हृदय को अपने लेखनी से वही लिखवाते हैं जो समाज का प्रत्यक्ष आईना होती है। हम जो बताना चाहते हैं और वास्तव में सत्य है इसका अंतर कवयित्री की कविताओं से स्पष्ट है-
कैसी विडम्बना है
सत्य की खोज में निकले थे आज
झूठ के आडम्बर में फंस गये अपने आप
क्योंकि चाहते नहीं थे सत्य का बताना सब
समझते हैं कुछ वैसे।

‘जहां चाह वहां राह’ यानी इंसान अपने श्रम और अपनी सकारात्मक इच्छा शक्ति जो चाहे वह प्राप्त कर सकता, परंतु वर्तमान समय में यश, लक्ष्मी और धन प्राप्त करने की चाहत में इंसान वह सारे करम करने लगता है जो मानवता के खिलाफ होते हैं। कवयित्री ने अपनी कविता ‘मानव की चाहत’ में इस बात को बड़ी ही खूबसूरत से उभारा है, वह कहती है-
अपने को इतना निस्तेज न कर
श्रम का आशय सिर्फ़ श्रेय न हो
ढहा दो इन प्रबंध बितानों को
साकार करो इन मानव भावों को

अपनी कविताओं जैसे नवालोक, मानव की चाहत, कविता, जीवन पथ और ये जीवन शेष में कवयित्री ने जीवन के अनुभवों केा काव्य के रूप में शुद्ध काया व्यंजना और अलंकार के साथ प्रस्तुत किया है। समाज में व्याप्त व्याधियों से हमारा और आपका कभी न कभी सामना होता है हमारे अंदर भी पीड़ा उत्पन्न होती है। अगर आप डाॅ. नन्दा की कविताओं को देखेंगे तो उनकी यह पीड़ा कविता के रूप में अवश्य दिखेगी। कवयित्री ने एक स्थान पर कहा भी है-
कोई न कोई भाव
हमेशा खटकता है
हर मानव के अंतस्थल में
आत्म-पीड़ा बन जाये जन-पीड़ा
ऐसे शुरूआत होती है आत्मस्थल से
जो जगह लेती है अपने आप ही काव्य स्थल में

मैं डाॅ. नन्दा शुक्ला को हृदय से बधाई देती हूं और आशा करती हूं कि वह अपने इस प्रयास को सदैव जारी रखते हुए साहित्य रूपी यज्ञ में अपनी कविता रूपी सम्विधा समर्पित करती रहेंगी।
                                            ए-306,जीटीबी नगर, करैली, इलाहाबाद
                                                     मोबाइल नंबर: 9451433526



पुस्तक का नाम- निशीथ,  ISBN- 978-81-925218-1-7
पेज: 64
मूल्य: 40 रुपए पेपर बैक, 60 रुपए सजिल्द प्रकाशकः गुफ्तगू पब्लिकेशन
, 123ए-1,हरवारा,धूमनगंज, इलाहाबाद

कविता

कविता वह नहीं,
जिसमें खो कर इंसान
डूब जाए ऐसे
कि गहराई का लगा न पाये अंदाज़
भूल जाये अपने को सोचे हर बार
लिख दिया है क्या इसने हे भगवान।

रसता हो सरसता हो
अर्थ में भागवगम्यता हो
पढ़ते ही तदात्म्य कर लें आप,
समझते ही भाव अपना ले अपने आप।

ऐसा न आडम्बर हो,
बुद्धि प्रखरता समझाने के खातिर
कुछ भी समझ न पाये आज
भ्रांति में न डाले उसे आप
स्पष्टीकरण देकर फिर समझाये न उसे आप
सब कुछ अपने में ऐसा हो स्पष्ट
ज़रूरत न पड़े इसकी फिर आज।

कविता का मूल है भावों का संसार
न कि ऐसा शब्दों का माया जाल
प्रभुता में खो जाये इसमें ऐसे आप
ढूढ न पाये जिसमें अपना ये संसार।

इतने भी विज्ञ न बने
समझ न पाये जिसे कोई दूजा
माना विस्तृत है ज्ञान का सागर आपका
फिर भी निरर्थक ही रह गया
यह माया जाल आपका।

कहे कुछ
समझे कोई कुछ
नहीं है ये ज्ञान का आलोक
समझे वहीं जो समझायें आप
यही है ज्ञान का सच्चा प्रकाश।

आत्म-भिज्ञता के डोर से बंधे हम सब
ऐसे करते हैं अपने को अभिव्यक्त अब
जैसे चोर ने चोरी की हो कोई ऐसी
जिसे समाज में दिखाने से डरता है वह
आडम्बर में घेरता है फिर अपने को ऐसे
श्वेत वस्त्र धारण किये नेता घूमता है जैसे।

आडम्बरविहीन नहीं है जब जीवन ही आपका
कैसे दे पायेंगे अपना सर्वस्व ही समाज को
भावों में कोमलता आती नहीं ऐसे
खोना उसमें ज़रूरी होता है सबसे पहले।

कैसी ये विडम्बना हो गई अब
कवि भी हो गया मशीन सा जब
अभिव्यक्त करता है अपने को ऐसे अब
कुछ स्पष्ट नहीं कर पाता अपना सब।

खोजते रहते हैं प्रकाश को हम सब
क्या कहना चाहता है ये राही अब
बुद्धि को देते हैं हम सब दाद
कोई बेवकूफ न समझे हमको आज
फिर भी कुछ समझ नहीं पाते अपने में आप।

कैसी विडम्बना है
सत्य की खोज में निकले थे आज
झूठ के आडम्बर में फंसे गये अपने आप
क्योंकि चाहते नहीं सत्य का बताना हमस ब
समझाते हैं कुछ बाहर वैसे।

भक्ति बताता अनुरक्ति का भाव
काम बताता सात्विकता
समाजवाद बताता धन का अभाव
कर्म योग बताता धर्म-अज्ञानी
जिसको खलता है जो अभाव
उसकी बातें करता वह महानुभाव।

भाव अभावों को साधन न हो
अपने को छुपाने का माध्यम न हो
कविता करुण भावों का वो साधन न हो
पढ़कर जिसको हर जन साध्य करें
विचार करें उसे पर खुद ही अपने से।

कोई न कोई भाव
हमेशा खटकता है
हर मानव के अन्तस्थल में
आत्म-पीड़ा बन जाये जन-पीड़ा
ऐसे शुरूआत होती है आत्म स्थल से
जो जगह लेती है अपने आप ही काव्य स्थल में।

अभिव्यक्त कर दे आप वो स्र्वस्व
हर मानव में होते हैं मानव के हर भाव
छुपाना नहीं है हमें अपना अभाव
मनव सुन्दरतम जग में डूब कर ही
जान  पायेंगे इस मानव जीवन को।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

गुफ्तगू के ग़ज़ल व्याकरण अतिरिक्तांक में


3.संपादकीय- अतिरिक्तांक की ज़रूरत
4-11. नई इक़दार और नई उर्दू ग़ज़ल- प्रो. अली अहमद फ़ातमी
12-21.हिन्दी वाड्मय और ग़ज़ल-एहतराम इस्लाम
22-25.उर्दू शायरी पर हिन्दी का प्रभाव-उपेंद्र नाथ अश्क़
26-28.ग़ज़ल सिर्फ़ महबूब से बात करने का नाम नहीं है-मुनव्वर राना
29-31.हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल हो ग़ज़ल-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
32-35.हिन्दी कविता के संदर्भ में आज की ग़ज़ल-एहतराम इस्लाम
36.ग़ज़ल: कल से आज तक-नक़्श इलाहाबादी
37-39.ग़ज़ल की लोकप्रियता क्यों बढ़ी-अशोक रावत
40-42.उर्दू कविता के बाबा-ए-आदम वली दकनी- डा. परमानंद पांचांल
43-45.ग़ज़ल के रुक़्न या खंड- डा. श्याम सख़ा श्याम
46-57.ग़ज़ल की आरंभिक जानकारी-वीनस केसरी
58. ग़ज़ल में कितने शेर हों- आचार्य आसी पुरनवी
59-60.शब्द की मात्रा की गणना का ज्ञान- सुनहरी लाल शुक्ल
61-63.बह्र विज्ञान के बारे में- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
64-90.बह्र विज्ञान- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
91-95.उर्दू बह्रों का शेरो-शायरी में महत्व- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
96-98.ग़ज़लों के लिए उपयुक्त हिन्दी छंद- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
99-100.क़ाफि़या के बारे में- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
101-110.इल्मे क़ाफि़या- आर.पी शर्मा ‘महर्षि’
111.माहिया-रमेश प्रसून
112.जनक छंद-रमेश प्रसूनइस अंक की कीमत 50 रूपए   

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को चुका हुआ मानती है-नीरज


गोपाल दास ‘नीरज’ हिन्दी साहित्य से लेकर हिन्दी सिनेमा तक में बेहद चर्चित नाम है। नयी पीढ़ी के कवियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं, उन्होंने अपनी लेखनी से जो इबारत रची है, वह मील के पत्थर सरीखा है। चार जनवरी 1924 को इटावा जिले के इकदिल में आपका जन्म हुआ। ‘नीरज की पाती’,‘बादलों से सलाम लेता हूं’,’गीत जो गाये नहीं’,‘बादर बरस गये’,‘लहर पुकारे’, और ‘कारावां गुजर गया’ नामक उनके काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। बाॅलीवुड में उन्होंने ‘कन्यादान’,‘मेरा नाम जोकर’,‘छुपा रुस्तम’,‘गैम्बलर’,‘तेरे मेरे सपने’,‘शरमिली’,‘प्रेम पुजारी’,‘नई उम्र की नई फसल’ और ‘गुनाह’ नामक फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं। वर्ष 2007 में उन्हें पद्मविभूषण सम्मान से नवाजा जा चुका है, इस समय वे उत्तर भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं। गुफ्तगू के उपसंपादक डाॅ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने उनसे कई मुद्दों पर बात की-

सवाल- गीत और ग़ज़ल की संवेदना में किस प्रकार की भिन्नता होती है?

जवाब- जिस प्रकार अच्छी ग़ज़लें दिल को छूती हैं, उसी प्रकार अच्छे गीत भी दिल को छूते हैं लेकिन शब्दों की जो जादूगरी ग़ज़ल के पास है वो अभी हिन्दी के पास नहीं है। ग़ज़ल में क्या है कि ग़ज़ल गद्य की ज़ुबान है लेकिन संकेत के माध्यम से वो ग़ज़ल बन जाती है, जैसे-आप तो रात सो लिये साहब/हमने तकिये पे सो लिये साहब। उनके दामन को छूके आयें हैं/हम तो फूलों से सो लिये साहब।

........तो ग़ज़ल संकेत की ज़ुबान है, मुशायरों की जु़बान है। गीत में भी वही सनसनी है। आजकल गीतकार बहुत समझदारी के साथ गीत नहीं लिख पा रहें हैं। वे यह समझते ही नहीं हैं कि गीत भी संकेत की भाषा है। काश यह बात हिन्दी वाले भी समझते।


सवाल- भाषा के नाम पर ग़ज़ल को ‘हिन्दी ग़ज़ल’ और ‘उर्दू ग़ज़ल’, दो अलग-अलग नाम दिया जा रहे हंै, इसे आप कहां तक सही मानते हैं?

जवाब- ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है। वे चाहे हिन्दी में लिखी जाये या उर्दू में।‘हम तेरी चाह में ऐ यार वहाँ तक पहुँचे/होश यह भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे।सदियों न पहुँचेगी दुनियाँ वहाँ सारी/एक ही घँूट में मस्ताना जहाँ तक पहुँचे’

......तो ग़ज़ल में तरन्नुम होना चाहिये, गम्भीरता होनी चाहिये। यदि ये बातें नहीं हैं तो ग़ज़ल चाहे हिन्दी में हो या उर्दू में, वह बेकार है। ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है। वह न तो हिन्दी होती है, न उर्दू।


सवाल- वर्तमान में ग़ज़ल विधा हिन्दी में बहुत लोकप्रिय हो रही है, लेखकीय एवं पाठकीय दृष्टिकोण दोनों से, किन्तु एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि हिन्दी के बहुत से ग़ज़ल लेखक अधूरे छन्द ज्ञान के साथ प्रचुर मात्रा में ग़ज़लें लिख रहें हैं, छप रहे हैं। यह प्रवृत्ति कहाँ तक उचित है?

जवाब- यह प्रवृत्ति ग़लत है। आपको बह्र का ज्ञान न हो, छन्दों का ज्ञान न हो तो ग़ज़ल लिखें या गीत; ग़लत है।

सवाल- आज का फि़ल्मी लेखन साहित्य से अपने सम्बन्ध पूरी तरह से पृथक कर चुका है, कैसा महसूस करते हैं आप?

जवाब- आज समाज भ्रष्ट हो चुका है, चूँकि फि़ल्मी लेखन व्यवसायिक लेखन है तो उनको सन्तुष्ट करने के लिये कभी-कभी रचनाकार को नीचे उतरना पड़ता है। पहले मज़रूह थे, इन्दीवर थे, प्रदीप थे..........लेकिन अब क्या है कि कबूतरबाज़्ाी होने लगी है। यह कालचक्र है; कभी ऊँचे जाता है, कभी नीचे। सारा समाज दूषित-प्रदूषित हो गया है, उसको हीरे नहीं पत्थर चाहिये तो पत्थर मिलेंगे। इसमें रचनाकार का कोई दोष नहीं हैं। जो समाज की माँग है, वे वही लिख रहे हैं।

सवाल- नई कविता के नाम पर लिखा जा रहा तमाम कूड़ा-करकट और गीतों के नाम पर महज तुकबंदी को साहित्यिक कचरा कह देना कितना उचित होगा?

जवाब- बिलकुल सही है। यह ज़रूरी नहीं है कि जो कविता छप जाये वह कविता ही हो। आज के दौर में बहुत कम अच्छे रचनाकार हैं, जो वाकई अच्छा लिख रहे हैं।

सवाल- आपके दो पसंदीदा रचनाकार कौन हैं और क्यों?

जवाब- कुंअर बेचैन और सूर्यभानु गुप्त। इनके अतिरिक्त राजेन्द्र राही भी बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं, उनका एक शेर है-

‘मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम-सा बच्चा/बड़ों की देखकर दुनियाँ बड़ा होने से डरता है।’


फि़ल्मी लेखन से जुड़े लोगों में गुलज़ार और जावेद अख़्तर पसंद हैं। नये लड़कों में प्रसून जोशी अच्छा लिख रहे हैं।


सवाल- वर्तमान पीढ़ी साहित्य में भी शार्टकट फार्मूले ढँूढ़ रही है। टेक्नोलाॅजी के बढ़ते प्रभाव ने उन्हें मौका दिया है कि वे अपना कच्चा-पक्का सबकुछ सबके सामने परोस दें; न कोई रियाज़, न कोई पठन-पाठन, बस नेट में सबकुछ शेयर कर दो। इस तरह से आपको साहित्य का भविष्य कैसा दिखता है?

जवाब- साहित्य एक साधना है, कविता लिखना एक साधना है। शार्टकट से कुछ नहीं होने वाला; दो-चार पंक्तियाँ लिखकर कोई हमेशा के लिये लोकप्रिय नहीं हो सकता। समय सबको सूप की तरह छाँट देता है। जहाँ तक साहित्य के भविष्य की बात है तो साहित्य का भविष्य अच्छा ही है। साहित्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता। जब तक आदमी के अन्दर सुख-दुःख की पीड़ा रहेगी तब तक साहित्य रहेगा। हाँ, विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के चलते साहित्य का प्रभाव थोड़ा कम अवश्य हो गया है, किन्तु यह कभी ख़त्म नहीं हो सकता, कविता कभी ख़त्म नहीं हो सकती।

सवाल- कवि सम्मेलन और मुशायरों में आजकल बहुत से नकली शायर आ रहे हैं। वे लोग दूसरों की, उधार की रचनायें पढ़ते हैं और अपने सुन्दर कण्ठ की वजह से मंच पर छा जाते हैं........
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जवाब- हाँ, यह हिन्दी में भी चल रहा है और उर्दू में भी चल रहा है, क्या किया जाये! यह सब पैसों का मामला है और पैसे में बहुत ताक़त है। आजकल हर काम पैसों के लिये हो रहा है और यही यहाँ भी हुआ है।

सवाल- पुरानी पीढ़ी के अधिकांश रचनाकार नयी पीढ़ी के रचनाकारों को सहज होने का अवसर नहीं देते और अपनी जि़म्मेदारी से भी मुँह चुराते हैं, ऐसा क्यों?

जवाब- वे जि़म्मेदारी से मुँह नहीं चुराते, बल्कि वे करें भी क्या......! (हँसते हुये) नयी पीढ़ी वाले पुरानी पीढ़ी के लोगों को चुका हुआ मानती है। वे उनसे कुछ प्रेरणा ही नहीं लेना चाहते, उनसे कुछ सीखना ही नहीं चाहते-‘आसमां के सौन्दर्य  का शब्दरूप है काव्य/मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।’

सवाल- समय के बदलाव के साथ क्या साहित्य और अदब में भी कुछ बदलाव की आवश्यकता है?

जवाब- परिवर्तन तो संसार का धर्म है। परिवर्तन हर चीज में होता है; साहित्य में भी होता है, कविता में भी होता है, भाषा में भी होता है। ये सब अपने आप हो जाता है। आज कुछ अच्छा लगता है, कल कुछ और।

सवाल- हिन्दी और उर्दू का पाठक साहित्य से कट रहा है। वे साहित्य पढ़ना ही नहीं चाहते हैं। साहित्य जनमानस में पहले की तरह लोकप्रिय हो, इसके लिये आप क्या सुझाव देंगे?


जवाब- सही बात है। देखिये समय बड़ा बलवान होता है और बड़ों-बड़ों को उठाकर पीछे फेंक देता है। इसलिये चिन्ता की बात नहीं है। अच्छा समय भी आ सकता है, ख़राब समय भी आ सकता है...........वैसे अच्छा समय फिर आने वाला है।

सवाल- आपने हिन्दी सिनेमा और भारतीय जनमानस को बहुत ही सुन्दर गीत दिया है- ‘कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे........’ ऐसे आपने और भी कई गीत दिये हैं। आज जब आप अपने गीत खुद सुनते हैं तो कैसा महसूस करते हैं?

जवाब- अच्छा ही लगेगा भाई! ये सब तो अब जनता के हो गये हैं। मैं दुनिया के जिस हिस्से में गया, लोगों ने मुझे मेरे गीत सुनाये। मैं आस्ट्रेलिया गया, मुझे मेरे गीत सुनाने वाले मिले। अमरीका गया, कनाडा गया, इंग्लैण्ड गया, जहाँ-जहाँ भी गया, मुझे मेरे गीत सुनाने वाले मिले। इससे अच्छा सौभाग्य क्या होगा मेरा! .......आगे भविष्य में वही कवि जीवित रहेगा, जो जनता की गोद में बैठेगा, उनका दुःख-दर्द उनकी भाषा में व्यक्त करेेगा।

सवाल- आपने ढेरों गीत लिखे हैं, कई बहुत लोकप्रिय हुये। आपको अपनी कौन-सी कविता बहुत अच्छी लगती है, जिसे आप अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं?

जवाब- मैंने माँ को सम्बोधित करते हुये चार कवितायें लिखी थीं, वे मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ कवितायें हैं।

सवाल- नयी पीढ़ी के रचनाकारों के लिये आपका क्या संदेश है?


जवाब- मेरा संदेश यह है कि ‘लेखनी अश्रु की स्याही में डुबाकर लिखो/दर्द को प्यार से सिरहाने बिठाकर लिखो।जि़न्दगी कमरों किताबों में नहीं मिलती है/धूप में जाओ, पसीने में नहाकर लिखो।’

गुफ्तगू के सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित


मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

गुफ्तगू की मासिक गोष्ठी में बही कविताओं की बयार

इलाहाबाद। साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन इलाहाबाद स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्टृीय हिन्दी विश्वविद्यालय के शाखा में किया गया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि मुनेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने किया। मुख्य अतिथि डाॅ. अमिताभ त्रिपाठी थे, जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर वरिष्ठ शायर सागर होशियापुरी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। इस अवसर पर ‘गुफ्तगू कैम्पस काव्य प्रतियोगिता’ के विजेताओं को डीवीडी और फोटो वितरित किया गया।

सबसे पहले अनुराग अनुभव ने तरंन्नुम में कविता पढ़कर महफिल में जोश पैदा कर दिया-
मैं हवा पुरवई,तुम महक सुरमई /आओ मिलकर के कर दें समा जादुई।

युवा कवि पंकज फराज ने कहा-
फूलों की खूश्बू चुराने लगे हैं/मेरे महबूब ख़्वाब में आने लगे हैं।

भानु प्रकाश पाठक की कविता यूं थी- 
धीरे-धीरे कगना उतारा बहुरानी, सेंदुरा क खतम भइल तोहरे कहानी

कुमार विकास ने लय में गीत पढ़ा-
करीब आसमां के और ज़मीं से दूर होना है, जरा मगरूर हूं फिर भी बहुत मगरूर होना है

लवकुश कुमार आनंद की कविता भी सराहनीय रही-
आज हजारो के संग, संग अलख जगाने आया,रूप वतन का फिर वह नया दिखाने आया है।

नितीश कुमार कुशवाहा ने कहा-
हालात हुये हैं कुछ यूं हर वक्त/ खल्वत को खलाओ से लड़ते देखा है।

नित्यानंद राय ने कहा-
तुम भी शांत रहो, मत चिल्लाओ, तुम्हारे खेतों में भी उगेंगे माल, मत घबराओ।

 

रमेश नाचीज़ की ग़ज़ल काफी सराही गई-
दर्द हम अपने दिल का सुनाने लगे/लोग महफिल से उठ-उठ के जाने लगे।
क्या नसीहत मैं नाचीज़ देता उन्हें/ऐब मेरे ही जब तो गिनाने लगे।

पीयूष मिश्र ने कहा-
मैंने ये कैसी सजा पाई है, घर की मेरे रोशनी चुराई है।
दूर हो जाता है वो चुभ-चुभकर, और कहता है मेरा भाई है।

कवयित्री गीतिका श्रीवास्तव ने तरंन्नुम ने गीत पेश किया-
दुनिया के बेडि़यों को तोड़ते जाना/खुद से जो वादा है उसको निभाना।
पग-पग काटे हैं ये ना बिसराना/इन कांटों के ही आगे खुशी का खजाना।

विमल कुमार ने कहा-
नहीं सिर्फ़ पत्थरों में, नहीं बस किताबों में,कण-कण में व्याप्त सर्वत्र चेतना हूं मैं।

 

शुभ्रांशु पांडेय ने व्यंग्य लेख पढ़ा-
आप लोग हिन्दी में किसी से कहते हैं न बैठ जाओ, सो जाओ, और तो और आ जाओ, अब ये बताइये कि अगर कोई बैठ गया तो मतलब ये हुआ कि उसकी क्रिया की गति समाप्त हो गयी है, फिर अगर उसे चलना कहा जाये तो वो क्या चलेगा।

मंजूर बाकराबादी ने व्यंग्य कविता पढ़ा-
रिश्वत चाहे जितनी ले लो, बाबू हमको नौकरी दे दो
चाय के बदले पव्वा पी लो, बाबू हमको नौकरी दे दो।

विपिन श्रीवास्तव ने कहा- 
आइये मत शरमाइये बैठिये हुजूर नवाजि़श आपकी

शैलेंद्र जय ने कहा-
जीने की कला मैंने फूलों से उधार ली है, यूं ही नहीं जि़न्दगी कांटों में गुजार ली है।

अजय कुमार ने कहा-
मर्यादा के भाव न जाने बनते रघुनंदन, कट्टा पिस्टल हाथों में हैं माथे पर चंदन।
वीनस केसरी की कविता लोगों ने पसंद किया-
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे, शब्द चित्रों की सफलता के लिए
शह्र धीरे-धीरे, बन बैठा महीन, दिख रहा हर कोई, कितना जहीन।गांव दंडित है सहजता के लिए।


 
तलब जौनपुरी ने कहा-
मेरी वो सरबुलन्दी है कोई छू भी नहीं सकता,
मुकाबिल अपनी हस्ती के केाई हस्ती नहीं लगता

अखिलेश द्विवेदी की कविता यूं थी-
इस जग में सब कुछ सुंदर है, तुम सुंदरता की किताब हो।
कितना मैं चाहूं तुझको, तुम मेरी चाहत का खिताब हो।

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल भी सराही गई-
जख़्म देगा न बद्दुआ देगा, ग़म मेरा तुझको आसरा देगा,
शाम को तेरा छत पे आ जाना, शह्र में हादसा करा देगा।

सुषमा सिंह की ग़ज़ल सराहनीय रही-
कितने जज़्बात हमारे दिल में, धूप-बरसात हमारे दिल में।
बाहरी क़ैद न हथकडि़यां हैं, हैं हवालात हमारे दिल में।

सौरभ पांडेय ने कहा-
रुइया बादल कोना-कोना,परती धरती दौड़े छौना।
आस दुपहरी सोख गयी रे, हरिया तन की क्यारी-क्यारी।आओ गटकें पान-सुपारी।



नायाब बलियावी की ग़ज़ल ने महफिल में जोश पैदा कर दी-
दिल लगा लीजिए कुछ देर को हंस ली जै मगर,
मुस्तकि़ल इसके लिए आप को रोना होगा।

सागर होशियारपुरी ने कहा-
हमने किसी के इश्क़ में खुद को मिटा दिया,
मेयार आशिक़ी का यूं उंचा उठा दिया।
है पूजना तो पूजिए एक-इक किसान को,
मेहनत से जिसने मिट्टी को सोना बना दिया।
मुख्य अतिथि डा. अमिताभ त्रिपाठी ने कहा-
किसी को इतना न चाहो कि बदगुमां हो जाये
न लौ इतना बढ़ाओ के वो धुआं हो जाये।
       अध्यक्षता कर मुनेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने कहा-
मन में जहां दुराव हो हमका न ले चलो
प्यार का अलगाव हो, हमका न ले चलो।
हम भाव के गगन के, उड़ते हुए पंछी,
जलता हुआ अलाव हो, हमको न ले चलो।


इस मौके पर आसिफ गा़ज़ीपुरी, अजय कुमार पांडेय, अशोक कुमार स्नेही, खुर्शीद हसन,अजीत शर्म आकाश, अरविन्द वर्मा आदि मौजूद रहे।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

सराहनीय है गुफ्तगू का प्रयास-सोम ठाकुर


गुफ्तगू कैम्पस काव्य प्रतियोगिता में गीतिका श्रीवास्तव प्रथम
इलाहाबाद।कैम्पस काव्य प्रतियोगिता की शुरूआत करके ‘टीम गुफ्तगू’ ने एक सराहनीय कार्य किया है, इससे नये लिखने वालों की जबरदस्त हौसलाअफज़ाई होगी। हमें ऐसे प्रयासों का तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। इलाहाबाद की सरज़मीन वैसे भी साहित्य के लिए काफी ज़रखेज रही है, गुफ्तगू का यह कदम इसमें एक जबरदस्त बढ़ोत्तरी है। यह बात उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पूर्व अध्यक्ष प्रो.सोम ठाकुर ने ‘गुफ्तगू कैम्पस काव्य प्रतियोगिता के अवसर पर कही। गांधी जयंती के अवसर पर प्रीतमनग के मदर इंटरनेशलन पब्लिक स्कूल में कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम ने की जबकि मुख्य अतिथि प्रो. सोम ठाकुर थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। इस अवसर पर साहित्यिक पत्रिका गुफ्तगू के ‘अब्बास खान संगदिल’ अंक का विमोचन भी किया गया। मेयर श्रीमती अभिलाषा गुप्ता ने दीप प्रज्ज्वलित करके कार्यक्रम का उद्घाटन किया।काव्य प्रतियोगिता के अतंर्गत 20 प्रतिभागियों से काव्य पाठ कराया गया। जजों ने पैनल ने कविताओं के आधार पर प्रतियोगियों को अंक दिया, जिसके बाद विजेताओं का निर्णय हुआ। प्रतियोगिता में प्रथम स्थान गीतिका श्रीवास्तव   ने द्वितीय स्थान पीयूष मिश्र ने हासिल किया, जबकि तीसरे स्थान पर अनुराग अनुभव रहे। इसके अलावा कु. नीलू मिश्रा, दुर्गेश सिंह, अजय कुमार, प्रवीण वर्मा, सुशील द्विवेदी, रोहित त्रिपाठी रागेश्वर, अमनदीप सिंह,नितीश कुशवाहा, अजय कुमार भारतीय और भानु प्रकाश पाठक को सांत्वना पुरस्कार के रूप में 500-500 रुपये की किताबें दी गईं। आनंद कुमार अािदत्य, दीपक त्रिपाठी,पंकज फराज, नैतिक प्रसाद पांडेय, अवधेश यादव एवं सनी सिंह को सहगाभागिता स्वरूप प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया। कार्यक्रम की रूपरेखा पेश करते हुए शिवपूजन सिंह ने कहा कि हमने पिछले वर्ष इस कार्यक्रम का शुभारंभ किया था, लोगों का सहयोग मिलता रहा तो आने वाले दिनों यह आयोेजन और बड़ा रूप लेगा। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि गुफ्तगू की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है, एक छोटे प्रयास से शुरू की गई यह पत्रिका आज देश-विदेश में नाम कर रही है। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम ने कहा कि आज गुफ्तगू जैसी पत्रिकाओं का ही चलन है, इसकी ख़ासियत यह है कि इसमें हिन्दी और उर्दू दोनों ही साहित्य की सामग्री पढ़ने को मिलती है। मध्य प्रदेश के खंडवा से आये शायर अब्बास खान संगदिल का कहना था कि इलाहाबाद जैसे नगरी में आकर सम्मान पाना मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि है, इसे मैं कभी भूल नहीं सकता। इस अवसर अपर नगर आयुक्त प्रदीप कुमार, जी डी गौतम, संजय कुमार सिंह,सी आर यादव, डाॅ. जे़बा महमूद, धनंजय सिंह, डाॅ. पीयूष दीखित, डाॅ. राजीव  सिंह, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, सौरभ पांडेय, वीनस केसरी, नरेश कुमार महरानी, संजय सागर,डाॅ. सोनिया सिंह, तारिक सईद अज्जू, कृष्ण बहादुर सिंह, राजेश कुमार सिंह, नायाब बलियावी, सौरभ पांडेय आदि लोग मौजूद रहे।

दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का उद्घाटन करतीं इलाहाबाद की मेयर श्रीमती अभिलाषा गुप्ता
मेयर श्रीमती अभिलाषा गुप्ता का स्वागत करतीं श्रीमती खुर्शीद जहां
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे एहतराम इस्लाम का स्वागत करते वीनस केसरी
एहतराम इस्लाम का स्वागत करते किसलय केसरवानी
उ.प्र. हिन्दी संस्थान के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सोम ठाकुर का स्वागत करते शिवपूजन सिंह
प्रो. सोम ठाकुर का स्वागत करते कृष्ण बहादुर सिंह
अब्बास खान ‘संगदिल’ का स्वागत करते नित्यानंद राय
राजीव राय का स्वागत करते नरेश कुमार ‘महरानी’
वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र का स्वागत करते नरेश कुमार महरानी
मुंडेरा मंडी परिषद के सचिव संजय सिंह का स्वागत करते तारिक सईद अज्जू
इलाहाबाद हाईकोर्ट ke संयुक्त निबंधक हसनैन मुस्तफ़ाबादी का स्वागत करते नायाब बलियावी
श्रीमती इंदु सिंह का स्वागत करतीं कु. नूरजहां
सी.आर. यादव का स्वागत करते आनंद सिंह
डा. ज़ेबा महमूद को प्रतीक चिन्ह भेंट करते प्रो. सोम ठाकुर साथ में खड़े हैं इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और नरेश कुमार महरानी
विचार व्यक्त करतीं मेयर श्रीमती अभिलाषा गुप्ता
कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
विचार व्यक्त करते शिवपूजन सिंह
विचार  व्यक्त करते धनंजय सिंह
काव्य पाठ करते प्रवीण वर्मा
काव्य पाठ करती कु. नीलू मिश्रा
काव्य पाठ करती कु. गीतिका श्रीवास्तव
काव्य पाठ करते अनुराग अनुभव
काव्य पाठ करते सौरभ पांडेय
काव्य पाठ करते अब्बास खान संगदिल
विचार व्यक्त करतीं डा. ज़ेबा महमूद
काव्य पाठ करते प्रो. सोम ठाकुर
गुफ्तगू के अब्बास खान संगदिल अंक का विमोचनः बायें से-प्रदीप कुमार,इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी,नरेश कुमार महरानी, हसनैन मुस्तफाबादी,एहतराम इस्लाम, प्रो. सोम ठाकुर, अब्बास खान संगदिल, श्रीमती अभिलाषा गुप्ता,डा. ज़ेबा महमूद, मुनेश्वर मिश्र, जी डी गौतम, राजीव राय,श्रीमती इंदु सिंह, धनंजय सिंह और राजीव सिंह
ग्रूपिंग फोटोः खड़े हुए बायें से- वीनस केसरी, राजीव राय, नरेश कुमार महरानी, धनंजय सिंह, सौरभ पांडेय,डा. ज़ेबा महमूद, अब्बास खान संगदिल, प्रो. सोम ठाकुर, एहतराम इस्लाम, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डा.रेखा सिंह, डा. शालिनी सिंह, डा. सोनिया सिंह और शिवपूजन सिंह। फूलमाला पहनकर बैठे हुए बायें से- अनुराग अनुभव, पीयूष मिश्र और गीतिका श्रीवास्तव
तृतीय पुरस्कार विजेता को पुरस्कार देते हुए अब्बास खान संगदिल, प्रो. सोम ठाकुर, डा. सोनिया सिंह और अन्य
द्वितीय पुरस्कार विजेता पीयूष मिश्र को पुरस्कार देते हुए डा.सोम ठाकुर, एहतराम इस्लाम और अन्य
प्रथम पुरस्कार विजेता गीतिका श्रीवास्तव को पुरस्कार देतीं डा. सोनिया सिंह,। बायें से शिवपूजन सिंह, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, राजीव राय, गीतिका श्रीवास्तव, धनंजय सिंह, प्रो.सोम ठाकुर, डा सोनिया सिंह, वीनस केसरी

विचार व्यक्त करतीं डा. जे़बा महमूद, पीछे खड़े हैं गुफ्तगू के संस्थापक इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
प्रथम पुरस्कार विजेता गीतिका श्रीवास्तव अपनी सहेली के साथ
प्रथम पुरस्कार विजेता गीतिका श्रीवास्तव का बधाई देतीं डा. सोनिया सिंह
कार्यक्रम के दौरान डा. ज़ेबा महमूद से बात करते हुए गुफ्तगू के संस्थापक इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
काव्य पाठ करते नायाब बलियावी
कु. नीलू मिश्रा का सांत्वना पुरस्कार के लिए प्रशस्ति पत्र प्रदान करते प्रो.सोम ठाकुर, साथ में खड़े हैं एहतराम इस्लाम और सौरभा पांडेय
प्रतिभागियों का काव्य पाठ ध्यानपूर्वक सुनते निर्णायक मंडल के सदस्य सौरभ पांडेय, डा. पीयूष दीक्षित और नायाब बलियावी

धनंजय सिंह को प्रतीक चिन्ह भेंट करते प्रो. सोम ठाकुर साथ में खड़े हैं शिवपूजन सिंह, अब्बास खान संगदिल और नरेश कुमार महरानी