बुधवार, 7 जून 2023

महरानी की ग़ज़लां में समाज का दर्द

पुस्तक ‘मेरी तल्खियां’ के विमोचन अवसर पर बोले छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजी



प्रयागराज। नरेश महरानी की ग़ज़लों में समाज का लगभग प्रत्येक पहलू स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, इनकी ग़ज़लों में समाज का दर्द स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने समाज की जिन विडंबनाओं और खूबियों को देखो है, उसी को शायरी का विषय बना लिया है। यही वजह कि इनकी ग़ज़लें आज के समय में पूरी तरह से प्रासंगिक होती दिखाई देती हैं। अपनी अति व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर इन्होंने अदब को दिया है। जिसका परिणाम है कि इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मेरी तल्खिायां’ प्रकाशित होकर समाज के सामने आ गया है। यह बात 04 जून 2023 को ‘गुफ़्तगू’ की ओर सिविल लाइंस स्थित बाल भारती स्कूल में नरेश महरानी के ग़ज़ल संग्रह ‘मेरी तल्खियां’ के विमोचन अवसर पर छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी मोहम्मद वजीर अंसारी ने कही। श्री अंसारी ने कहा कि नरेश महरानी जैसे कलमकार आज से समय की जरूरत हैं। ऐसी किताब का समाज में स्वागत किया जाना चाहिए।

 सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डॉ. सरोेज सिंह ने कहा कि नरेश महरानी ने समय का बहुत अच्छा उपयोग करते हुए रचानाकर्म किया है। जिसका परिणाम है कि इनकी पुस्तक प्रकाशित होकर समाज के सामने आ गई है। जो संवेदनशील नहीं होता, वह इंसान नहीं हो सकता। बेहद व्यस्त व्यापारी होने के साथ-साथ इनके अंदर संवेदनशीलता बहुत अधिक है, इसकी वजह यह है कि इनके अंदर एक कवि बैठा हुआ है। नरेश महरानी  आज के समय के बेहतरीन और काबिले-कद्र शायर हैं। 

 डॉ. धनंजय चोपड़ा ने कहा कि आज के समय में जब लोगों का शब्दों से नाता टूट रहा है, ऐसे में किसी रचनाकार की किताब ्रप्रकाश में आती है तो यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। महरानी की ग़ज़लों में जगह-जगह ख़बरनवीसी दिखाई देती है, ऐसा लगता है कि ये अपनी ग़ज़लें के जरिए ख़बरें लिख रहे हैं। इन्होंने अपनी ग़ज़लों के जरिए समाज की अच्छी पड़ताल की है।

 गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि ग़ज़लों को छंद की तलवार से काटने की कोशिश नहीं करना चाहिए। ग़ज़ल के लिए छंद ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ़ छंद ही ग़ज़ल नहीं हो सकती। नरेश महरानी इसी मानक को परिपूर्ण करते हुए बड़ी बात अपनी ग़ज़लों के कथन में कहते हैं। इन्होंने जिन चीज़ों को समाज में देखा है उसे ही अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया है। डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा नरेश महरानी की ग़ज़लें अपने कथ्य में पूरी तरह से सफल हैं, आज ऐसी ही ग़ज़लें कहे जाने की आवश्यकता है। नरेश महरानी ने कहा मैंने समाज में जो भी देखा और समझा है, उसे अपनी ग़ज़लों में बांध दिया है। अब पाठक को फैसला करना है कि मेरी ग़ज़लें कैसी हैं।

दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, अनिल मानव, प्रभाशंकर शर्मा, नीना मोहन श्रीवास्तव, धीरेंद्र सिंह नागा, हकीम रेशादुल इस्लाम, अफसर जमाल, संजय सक्सेना, शिबली सना, कमल किशोर, तलब जौनपुरी, कविता महरानी, नाज़ ख़ान, सुजीत जायसवाल, मसर्रत जहां, राजेंद्र यादव, तस्कीन फ़ात्मा, अजय वर्मा ‘साथी’, राकेश मालवीय आदि ने कलाम पेश किया। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।


गुरुवार, 25 मई 2023

समय की बात करती हैं प्रमोद दुबे की कहानियां

डॉ. समर की ग़ज़लें वास्तविक समय का चित्रण

दो किताबों के विमोचन पर बोले मशहूर न्यूरो सर्जन डॉ प्रकाश खेतान



प्रयागराज। आज के समय में अपनी रचनाओं के जरिए समाज की विडंबनाओं को उकेरना, ग़लत चीज़ों के खिलाफ़ अपनी रचनाओं के जरिए खड़ा होना बड़ी बात हैं। कहानियों और ग़़ज़लों के जरिए क़लमकार अपनी बात कहता आया है और आगे भी कहता रहेगा। यह चीज़ स्पष्ट रूप से प्रमोद दुबे की कहानी संग्रह ‘घोंसला’ और डॉ. इम्तियाज़ समर के ग़ज़ल संग्रह ‘मोहब्बत का समर’ में दिखाई देती हैं। इन दोनों ही लोगों ने वर्तमान समय की विसंगतियों को समझा, देखा और परखा है, इसी हिसाब से सृजन किया है। यह बात 21 मई 2023 को साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की ओर से करेली स्थित अदब घर में अयोजित कार्यक्रम के दौरान  मशहूर न्यूरो सर्जन और कवि डॉ. प्रकाश खेतान ने अपने वक्तव्य मेें कही।

श्रीप्रकाश मिश्र


गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि प्रमोद दुबे और डॉ. इम्तियाज़ समर 21वीं सदी के उल्लेखनीय रचनाकार हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं से शानदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा कि प्रमोद दुबे ने अपनी कहानियों में समाज की विसंगतियों को बहुत ही मार्मिक ढंग से रेखांकित किया। रेलवे में नौकरी करते हुए श्री दुबे ने जो-जो अनुभव किया, उसका बहुत सटीक ढंग से मूल्यांकन और रेखांकन किया है। कहीं-कहीं इनकी कहानियों में प्रेमचंद की कहानियों के पुट भी मिलते हैं।



 डॉ. प्रकाश खेतान

अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने कहा कि डॉ. इम्तियाज़ समर को ग़ज़ल की बारीकियों और छंद-बह्र की बहुत अच्छी जानकारी हैं। यही वजह है कि इनके कहन में ग़ज़ल का सलीक़ा और परंपरा पूरी तरह से जगह-जगह दिखाई देती है। आज के समय में ऐसी ही ग़ज़लें लिखे जाने की आवश्यकता है।

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


 प्रमोद दुबे ने कहा कि आज प्रयागराज आकर यहां की साहित्यिक गतिविधियों को देखकर धन्य हो गया। जिसके लिए यह शहर मशहूर है, वह आज स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। डॉ. इम्तियाज़ समर ने कहा कि गुफ़्तगू और प्रयागराज ने साहित्य की परंपरा को बरकरार रखा है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। मेरी किताब का यहां विमोचन मुझे गौरवान्वित करता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि लिखना आपके प्रगतिशील होने का प्रमाण है, जो व्यक्ति प्रगतिशील होता है, वहीं अपने विचारों कागज पर उकेरता है। प्रमोद दुबे और डॉ. इम्तियाज़ समर की रचनाएं मौलिक, पारदर्शी और समाज को दिशा देने वाली हैं, आज के समय में ऐसे ही लेखन की आवश्यकता है। कार्यक्रम का संचालन अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने किया। 

दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। नरेश महरानी, अफसर जमाल, प्रभाशंकर शर्मा, संजय सक्सेना, शिवाजी यादव, अर्चना जायसवाल, मुसर्रत जहां, फ़रमूद इलाहाबादी, विजय लक्ष्मी विभा, किरन प्रभा, असलम निज़ामी, भारत भूषण वार्ष्णेय, आसिफ उस्मानी आदि ने कलाम पेश किया।


मंगलवार, 16 मई 2023

स्तरीय काव्य रचनाओं का श्रेष्ठ संग्रह

                                   - अजीत शर्मा ‘आकाश’

                                             

 
‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ कवि एवं शायर स्व. पं. बुद्धिसेन शर्मा का काव्य संग्रह है, जिसे उनके परम शिष्य डॉ. कण्व कुमार मिश्र ‘इश्क’ सुल्तानपुरी ने प्रकाशित करवाया। पुस्तक के प्रारंभ में डॉ. कण्व कुमार मिश्र, यश मालवीय, फ़ारूक़ जायसी, ताहिर फ़राज़, इम्तियाज़ अहमद ‘ग़ाज़ी’, डा. वेद प्रकाश शुक्ल ‘संजर’, इबरत मछलीशहरी और मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो बुद्धिसेन शर्मा के जीवन परिचय तथा उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्तरूपेण प्रकाश डालते हैं। इस पुस्तक में बुद्धिसेन शर्मा की 61 ग़ज़लें एवं फुटकर शेर, 91 दोहे, तथा 10 गीत सम्मिलित हैं। रचनाएं संख्या में भले ही कम हैं, किन्तु वे गुणवत्तापूर्ण हैं, जो एक सच्चे कवि की कसौटी होती है। समस्त रचनाएँ काव्य व्याकरण तथा ग़ज़ल व्याकरण की कसौटी पर पूर्णरूपेण खरी उतरती हैं। ग़ज़लों की फ़ारसी बह्रें हों अथवा हिन्दी के शास़्त्रीय छन्द हों, दोनों की काव्यशास्त्रीय शर्तों का पूर्ण निर्वाह किया गया है। इसी कारण सम्पूर्ण काव्य में भरपूर रवानी तथा लय एवं यति का सुन्दर सामंजस्य एवं निर्वाह है। एक-एक रचना पढ़ते समय पाठक रचनाकार के साथ तत्काल तादात्म्य स्थापित कर लेता है। संग्रह में कुछ गीत और दोहे भी हैं, लेकिन रचनाकार की विशेष पहचान ग़ज़लों से होती नज़र आती है। उनकी शायरी में सूफ़ियाना रंग झलकता है। रचनाओं की भाषा अत्यन्त सरल, सहज एवं बोधगम्य है। आम बोलचाल की हिन्दुस्तानी भाषा में लिखी गयी रचनाएं पाठक के दिलो-दिमाग़ में उतर जाती हैं। 
पुस्तक में सम्मिलित ग़ज़लों के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-‘राजनीति के गलियारों में मत जाना/ नागिन अपने बच्चों को खा जाती है।, ‘हमारी जान का बचना है मुश्किल/हमारे चाहने वाले बहुत हैं।’, ‘ये गुरुद्वारे ये गिरजा और ये बुतख़ाने बना डाले/हज़ारों रूप तेरे तेरी दुनिया ने बना डाले।’, ‘रास्ता तो एक ही था, ये किधर से आ गये/ बिछ गयी क्यों इनके नीचे बनके चादर रौशनी।’ पुस्तक में शामिल कुछ गीत इस प्रकार से हैं-‘जिस तट पर प्यास बुझाने में अपमान प्यास का होता हो/उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।’, ‘शस्त्रों से सजी हुई बीसवीं सदी अपने ही लोगों की है/अपनी संगीनें हैं, अपने ही सीने, अपनों का अपनों से अन्धा टकराव/घड़ी-घड़ी मरहम है, घड़ी-घड़ी घाव।’ कहा जा सकता है कि ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ काव्य संग्रह में सामाजिक सरोकार, जीवन एवं उसकी विसंगतियां तथा भ्रष्ट राजनीति और उच्छ्रंखल समाज और सामाजिक परिस्थितियों की विडम्बना पर किये गये सटीक व्यंग्य रचनाकार के कृतित्व की वास्तविक पहचान हैं। 144 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 300 रूपये है, जिसके रचनाकार बुद्धिसेन शर्मा हैं, पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।

विविध रंगों से सुशोभित ‘अम्बर छलके’




 ‘अम्बर छलके’ काव्य संग्रह में डॉ.एस.एन.भारद्वाज ‘अश्क’ की कविता, गीत एवं ग़ज़ल की रचनाएं सम्मिलित हैं। संकलन को आराधन, राष्ट्र, भाव, तरुण, महाव्याधि शोक एवं ग़ज़ल- इन सात तरंगों में विभाजित किया गया है। आराधन-तरंग में आध्यात्मिक भावों की 6 रचनाएं सम्मिलित हैं। राष्ट्र-तरंग में 6 देश प्रेम की रचनाएं हैं। भाव-तरंग में विभिन्न मनोभावों का चित्रण एवं प्रकृति वर्णन है। हास्य-व्यंग्य की कुछ रचनाओं को भी इसमें स्थान प्रदान किया गया है। तरुण-तरंग में कवि के कथनानुसार अल्हड़ उम्र की कुछ कविताएं है। महाव्याधि की शोक-तरंग के अन्तर्गत कोरोना काल से सम्बन्धित 8 रचनाएं पुस्तक में हैं। ‘मैंने ईश्वर देखा है’, ‘आशा के सपने’, ‘सड़क पर ग़रीब’, ‘बस कोरोना को रोना क्यूं’ रचनाओं के माध्यम से कोरोना की विभीषिका को दर्शाते हुए लोगों की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक स्थितियों एवं जीवन-संघर्ष को प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई है। अंतिम भाग ग़ज़ल-तरंग में रचनाकार की 10 ग़ज़लें सम्मिलित हैं, जिनमें ग़ज़ल के व्याकरण एवं इसकी अन्य शर्तों को पूरा करने का प्रयास किया गया है।
 पुस्तक में सम्मिलित कविताओं, गीतों एवं ग़ज़लों में विभिन्न मनोभावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की चेष्टा की गई है। इनका वर्ण्य विषय प्रमुखतः श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियां एवं संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण आदि है। कथ्य की दृष्टि से रचनाओं में विविधता परिलक्षित होती है। यथा-‘माँ ! मुझको एक रोटी दे दे’ कविता के अन्तर्गत एक बालक की अपनी मज़दूर माँ से एक ख़्वाहिश- भूख से मुझे निजात दिला दे/अपन दुख मां किसे सुनाऊँ/ख़ाली पेट न मैं सो पाऊं/गिरा अभावों की खाई में/उम्मीदों की चोटी दे दे/मां ! मुझको एक रोटी दे दे। रचनाओं की भाषा सहज एवं भावानुकूल है। आम भाषा से लेकर साहित्यिक भाषा तक के शब्दों का प्रयोग इनमें किया गया है। कहीं-कहीं सामान्य बोलचाल के अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग है। इस काव्य संग्रह की कुछ रचनाओं की झलकें प्रस्तुत हैः- करें विचार एक क्षण, जो उत्सवों में लीन हैं/स्वतंत्र वो भी हों कि जो स्वतंत्रता विहीन हैं (“जो स्वतंत्रता विहीन हैं”)। कोना-कोना खिल जाएगा मुरझाऐ तन-मन का/काश कहीं से फिर आ जाए दौर सुहाना बचपन का  (“बचपन”)। थोड़े-से सच्चे हो जाएँ/आओ फिर बच्चे हो जाएँ! (“स्नेह-सूत्र”)। इनके अतिरिक्त “धूप और बारिश”, “शान्त शरद आया”, “भोर का गीत” आदि कविताएं भी सराहनीय हैं। तकनीकी दृष्टिकोण से पुस्तक का मुद्रण, गेट अप, शब्द संयोजन उत्तम कोटि का है तथा आवरण पृष्ठ आकर्षक है, यद्यपि प्रूफ़ आदि तकनीकी दोष भी कहीं-कहीं रह गये हैं। कुल मिलाकर ‘‘अम्बर छलके...’’ डॉ. एस.एन.भारद्वाज ‘अश्क’ का एक अच्छा काव्य-संग्रह है। अमृत प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 136 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 400 रुपये है।

गांवों की पहचान है मिट्टी की सोंधी महक




  अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ के ‘सोंधी महक’ काव्य संग्रह में आज के ग्राम्य जीवन एवं ग्रामीण परिवेश की अनेक परिदृश्य प्रस्तुत किये गये हैं। संग्रह में कुल 30 कविताएं सम्मिलित हैं, जिनमें गांव एवं उसके जन-जीवन’ का चित्रण परिलक्षित होता है। कविताओं में गांव के साथ-साथ समाज और देश की चिन्ताओं को भी उजागर करते हुए अनेक सामाजिक एव राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार करने का प्रयास किया गया है। रचनाकार ने वर्तमान ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण करने की चेष्टा की है। किसानों को कभी सूखा और कभी बाढ़ का क़ह्र झेलना पड़ता है। कर्जों में फंसे, तंगी में जीते, छोटे-छोटे झगड़ों को निपटाने के लिए कचहरी के चक्कर लगाते हुए भोले-भाले ग्रामीण अपना जीवन बिता देते हैं। कृषि कार्य से अब एक सामान्य कृषक के पूरे परिवार की ज़रूरतें को पूरी नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त जनसंख्या विस्फोट, रूढ़िवादिता तथा अंधविश्वासों से भी ग्रामीण जन ग्रसित हैं। गरीबी और अशिक्षा के कारण पुरानी परंपराओं तथा सामाजिक बंधनों ने उन्हें जकड़ रखा है। आज गांव में भी बदलाव आता जा रहा है। अनेक विसंगतियाँ ग्रामीण जनों को भी घेरती सी दृष्टिगत होती हैं। गांववासी विशेषकर युवा, नगरों की चकाचौंध से प्रभावित होते जा रहे हैं। उन्हें गांवों में रहना अब अच्छा नहीं लगता। वह शिक्षा, नौकरी और सुख सुविधाओं का पीछा करते हुए नगर पहुंचना चाहता है। इन सभी समस्याओं को संग्रह की कविताओं में स्थान दिया गया है।
 संग्रह की लगभग सभी कविताओं में बुधिया नामक पात्र एक आम ग्रामीण का प्रतिनिधित्व करता है, जिसको केन्द्रित कर ग्रामीणजन की छटपटाहट एवं उसके भीतर की कसक तथा गांवों की दशा-दुर्दशा को शब्दचित्रों के माध्यम से उजागर किया गया है। कहा जा सकता है कि सभी रचनाएँ ग्राम्य जनों के मनोभावों एवं ग्रामीण परिवेश को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। पुस्तक को पढ़ना ग्राम्य जीवन को समझना है। संग्रह की कविताएँ गाँव में बोली जाने वाली सहज एवं सरल भाषा में हैं, जिनमें आम बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। पुस्तक का मुद्रण एवं कवर पृष्ठ आकर्षक है। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 175 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।

सृजनात्मक लेखन का सराहनीय प्रयास



 ‘अक्षर-अक्षर गढ़कर’ काव्य संग्रह में कवयित्री शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’ की 97 कविताएँ सम्मिलित हैं। इन रचनाओं के माध्यम से जीवन की विसंगतियों एवं विभिन्न परिस्थितियों को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है। रचनाओं का वर्ण्य विषय प्रमुख रूप से सामाजिक एवं राजनीति व्यवस्था, समाज के प्रति चिन्तन, मानवता का कल्याण, सामाजिक समरसता आदि है। इसके अतिरिक्त देशभक्ति, नारी शक्ति, प्रकृति का सौन्दर्य के साथ ही प्रेम एवं र्श्रृगार से सम्बन्धित कविताएं भी हैं। रचनाओं में विभिन्न प्रकार के संदेश हैं तथा अंधकार में प्रकाश की आशा रखने के भाव निहित हैं। रचनाओं में अनेक स्थलों पर जीवन के यथार्थ चित्रण की झलक है। कविताओं में मनोभावों एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। पुस्तक में जीवन के विविध आयामों को स्पर्श करते हुए विभिन्न मनोभावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। पुस्तक की रचनाकार एक शिक्षिका हैं, अतः रचनाओं पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। पुस्तक में कुछ रचनाएँ विद्यालय एवं बच्चों से सम्बन्धित हैं। ‘मेरा देश, ‘सच्चा मानव’, ‘ईद कैसे मनाऊँ, ‘आजा काले बादल, ‘ये दौर है नया-नया, ‘वसन्त ऋतु, ‘नारी, प्रेम तुम्हारा पाकर, ‘अनमोल प्रेम’आदि कुछ कविताओं के शीर्षक हैं। काव्य-संग्रह की कुछ रचनाओं के अंश प्रस्तुत हैं - ‘नफ़रत का बीज-मजहब बड़ा और खुदा का घर छोटा हो गया/इंसान की सोच को यहां अब क्या हो गया।’, ‘मेरा देश कविता में-यह मेरा देश, मेरा देश/तेरा भी वतन, ये तेरा भी वतन/झूम-झूम गाएं हम, सबका है वतन, सबका है वतन’, ‘नारी- हिम्मत की पहचान है नारी/हौसलों का जान है नारी।’
रचनाओं का भावपक्ष एवं कथ्य सराहनीय है, किन्तु शिल्प की दृष्टि से काफ़ी कमज़ोर हैं। कविताओं में प्रायः सपाटबयानी-सी आ गयी है। अधिकतर कविताओं को ग़ज़ल के फ़ॉर्म में लिखने का प्रयास किया गया है। संग्रह को पढ़ते समय रचनाकार में काव्य-व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान का अभाव प्रतीत होता है। रचनाकार की यह पहली पुस्तक है। आशा है भविष्य के संग्रहों में और अच्छी रचनाएं सम्मिलित होंगी। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 175 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।

शे’रगोई के समुन्दर में तैराक ही उतरते हैं




ग़ज़लकार पदम ‘प्रतीक’ के ग़ज़ल-संग्रह ‘सरगोशियाँ’ में उनकी 45 ग़ज़लें सम्मिलित हैं। सम्पूर्ण पुस्तक तथा उसकी सभी ग़ज़लें हिन्दी एवं उर्दू, दोनों ही भाषाओं में हैं। ध्यातव्य है, कि ग़ज़ल का एक विशेष अनुशासन एवं व्याकरण है। ग़ज़ल फ़ारसी से होती हुई हिन्दी में आयी है। ग़ज़ल कहने के लायक बनने के लिए बहुत से क़ायदे-क़ानून एवं ऐब-हुनर हैं जिन्हें एक शायर के लिए जानना तथा सीखना अत्यन्त आवश्यक है। इस तथ्य के प्रति सजग रचनाकार अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं। शायर पदम ‘प्रतीक’उन्हीं में से एक हैं। संकलन में कुछ ग़ज़लें रिवायती हैं, कुछ आधुनिक समाज का दर्पण भी हैं। ग़ज़लें अपनी परम्पराओं से जुड़ी हुई हैं, जो इस विधा को निरन्तर आगे बढ़ाये जाते रहने के लिए निहायत ज़रूरी चीज़ है। संग्रह में सम्मिलित ग़ज़लों की भाषा मधुरता और सरसता लिए हुए आम फ़हम भाषा है, जिसे हर कोई आसानी से समझ सकता है। बड़ी ही खूबसूरती और सलीक़े की शायरी है। गजलें रचनाकार के अपने अनुभव से कही गयी हैं, जिनमें जीवन का तत्व एवं तथ्य झलकता है। मन के भावों की सफल प्रस्तुति की गयी प्रतीत होती है। पुस्तक की शायरी आम और खास इंसान के हर एहसास को बयान करती है। संग्रह की ग़ज़लें अच्छे स्तर की हैं तथा उनकी बुनावट ठीक है। सभी ग़ज़लें शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल-व्याकरण का पूरी तरह पालन किया गया है। विशेष तौर पर बह्र-विधान का पूर्णतः ध्यान रखा गया है। रचनाकार को उर्दू की अच्छी जानकारी होने के कारण अशुद्ध शब्दों का प्रयोग भी ग़ज़लों में नहीं है।  फिर भी ऐबे तनाफ़ुर (अब बहाने पृ.79, उभर रहा पृ. 97 आदि) तथा तक़ाबुले रदीफ़ (पृ.-61,87,97) जैसे दोष भी यत्र-तत्र दिख जाते हैं। पुस्तक में प्रूफ़ रीडिंग सम्बन्घी मामूली दोष (जैसे मज़बूर- पृ.37) भी कहीं-कहीं रह गये हैं। 
      कथ्य की दृष्टि से ग़ज़लों में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ तथा संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, राजनीतिक हालात आदि की झलक भी देखने को मिलती है। अपने एवं ज़माने के दुख-दर्द को भी शायर ने अभिव्यक्ति प्रदान की है। पुस्तक की कुछ ग़ज़लों के उल्लेखनीय अशआर इस प्रकार हैं-‘जो क़ाबू जु़बां पर हमारा रहे तो/मुनासिब है जो ये वही बोलती है।’, ‘हर बुराई से अब करो तौबा/जब भी जागो तभी सवेरा है।’, ‘कतर के पर मुझे आज़ाद करके/वो बस अहसां जताना चाहता है।’ ग़ज़लें सलीक़े से कही गयी हैं, इनमें एक सहजता है। इन्हें पढ़कर लगता है, कि शायर दिल की गहराइयों में उतरकर अपनी बात कह रहा है। ग़ज़लकार का यह शे’र स्वयं उन्हीं पर सटीक बैठता है- शे’रगोई तो वो समुन्दर है, जिसमें तैराक ही उतरते हैं। पदम ‘प्रतीक’निश्चित रूप से शे’रगोई के समुन्दर के कुशल तैराक हैं। कहा जा सकता है कि ग़ज़ल संग्रह अत्यन्त सराहनीय है। अमृत प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 300 रुपये है। 

 सृजन के क्षेत्र में सराहनीय प्रयास

 


  डॉ. मधुबाला सिन्हा के कविता-संग्रह ‘प्यार बिना’ में उनकी  छन्दबद्ध तथा छन्दहीन प्रकार की छन्दबद्ध तथा छन्दहीन प्रकार की 75 कविताएँ सम्मिलित हैं, जिनमें जीवन, विशेषकर नारी-जीवन के विभिन्न रंगों एवं पहलुओं को उजागर करने की चेष्टा की गयी है। अधिकतर कविताओं में कहा गया है कि नारी प्रेम को ही जीती है, क्योंकि दुनिया में प्रेम से परे और कुछ भी नहीं है। प्रेम ही जीवन की वास्तविकता है। अधिकतर रचनाओं में नारी के मूर्त रूप एवं उसके अन्तर्मन का चित्रण परिलक्षित होता है, जिसमें नारी की पीड़ा, उसकी भावना, बेचौनी, तड़प, ख़ुशी, दुःख, प्यार आदि विभिन्न रंग समाहित हैं। उसकी संवेदना, चेतना, भाव-संघर्ष, जीवन-संघर्ष और द्वन्द्व से रचनाएं सीधे जुड़ी हैं। इसके अतिरिक्त जीवन की विभिन्न विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को भी रचनाओं का आधार बनाया गया है। कुछ रचनाओं में वर्तमान समय के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को भी उजागर करने की चेष्टा की गयी है। साथ ही, प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएँ भी हैं। कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कविताओं के माध्यम से जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। रचनाओं में जीवन के अन्य अनेक रंग भी परिलक्षित होते हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवयित्री ने सृजनात्मकता को उजागर करने का प्रयास किया है। यह कहने का प्रयास किया गया है कि ज़िन्दगी के तमाम धागे प्यार बिना अनसुलझे ही रहते हैं। हालाँकि पुस्तक के शीर्षक ‘प्यार बिना‘ नामक कोई कविता संग्रह मे नहीं है। संकलन की रचनाओं में कवयित्री के मनोभावों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती हैं। कविताओं में विषम परिस्थितियों में भी जीवन का सन्देश प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कुछ कविताओं के उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं- पनपते रिश्ते- दबी राख के नीचे से/चमक उठते हैं दबे रिश्ते/सुधरने की आस में फिर से जी उठते हैं। सोचती हूं- आज पूछ ही डालूँ मैं भी प्रश्न/जो जाने कब से/समंदर की गहराइयों में/छटपटा रहे हैं। इनके अतिरिक्त उठता धुआँ, जीवन की रेल, मैं आती हूं, मेरा जीवन, मज़दूर, सच्चा धर्म, नदी का दर्द आदि रचनाएँ भी सराहनीय हैं। शिल्प की दृष्टि से संकलन की छन्दबद्ध कविताएँ कमज़ोर प्रतीत होती हैं। छन्द विधान एवं छन्दानुशासन का अभाव परिलक्षित होता है, जिसके कारण प्रवाह एवं लयबद्धता बाधित होती है। कविताओं को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं छन्द शास्त्र की सम्यक् जानकारी नहीं है। पुस्तक में संग्रहीत कविताओं के कथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि रचनाकार के लेखन में सरलता और सहजता है, लेकिन भाषागत एवं व्याकरणिक अशुद्धियां यत्र-तत्र दृष्टिगत होती हैं। इसके अतिरिक्त महत्वकांक्षा, अठ्ठाहास, झंझावत, ख़्याल, भर्मित, संसय जैसे अशुद्ध वर्तनीयुक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिसे साहित्यिक लेखन की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। साहित्यिक सृजन हेतु काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान रचनाकार को निश्चित रूप से होना चाहिए। कह सकते हैं कि सृजन के क्षेत्र में यह एक सार्थक एवं सराहनीय प्रयास है, जो रचनाकार की सृजनात्मकता का द्योतक है। जिज्ञासा प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद द्वारा प्रकाशित 114 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।


(अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित )

शनिवार, 6 मई 2023

गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2023 अंक में



4. संपादकीय: दो प्रशासनिक अधिकारियों की शायरी

5. पवन कुमार का परिचय

6-7. प्रशासन और साहित्य का रिश्ता बहुत अहम - पवन कुमार

8-9. एक संजीद शायर पवन कुमार - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

10-11. अहसासों की आवाज़ है पवन की शायरी  - शीन काफ़ निज़ाम

12. बारहागे ग़ज़ल का एक खिदमतगार- अक़ील नोमानी

13-14. इम्कानात की राहों के रौशन चिराग़ हैं पवन कुमार - डॉ. राकेश तूफ़ान

15-18. नई पीढ़ी का अलबेेला शायर पवन कुमार - डॉ. फुरकान अहमद सरधनवी

19-21.साहित्य के पटल पर जगमगाता सितारा - अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

22-61. पवन कुमार की ग़ज़लें

62. अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ का परिचय

63-64. अफ़सरी लबादा उतारकर अमरोहा के गली-कूचों के नशिस्तों में होता हूं शामिल- अनुराग ग़ैर

65. किधर है राजधानी ढूढ़ते हैं - यश मालवीय

66-67. रोमांश के सफल ग़ज़लकार अनुराग ग़ैर- अखिलेश मयंक

68-69. ग़ैर की ग़ज़लों में अपनापन- इश्क़ सुल्तानपुरी

70-71. ग़ैर की ग़ज़लों में जीवन के अनेक रंग- डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

72-73. नई उम्मीदें जगाता एक शायर- अतिया नूर

74-75. समाज के सभी पहलुओं पर रेखांकित शायरी-शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’

76-78. शानदार कृतित्व के रचनाकार हैं ग़ैर- नीना मोहन श्रीवास्तव

79. प्रेम, रति, हास और मनुहार का समावेश- साजिद अली सतरंगी

80-111. अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ की ग़ज़लें

112-118. तब्सेरा: हमारे चाहने वाले बहुत हैं, अंबर छलके, संोंधी महक, अक्षर-अक्षर गढ़कर, सरगोशियां, प्यार बिना, मेरी तल्खियां

119-121. उर्दू अदब:  ग़ज़ल पारा, नियामतउल्लाह अंसारी-शख़्सियत और कारनामे, सवांही नॉॅवेल, काविश-ए-तलअत, 

122-123. गुलशन-ए-इलाहाबाद: सादिक़ हुसैन सिद्दीक़ी

124-125. ग़ाज़ीपुर के वीरः स्वामी सहजानंद सरस्वती

126-130. अदबी ख़बरें

131-132. अमर राग की कविताएं


शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

ऐतिहासिक दस्तावेज है ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’

                           
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी’ का विमोचन करते अतिथि ।


प्रयागराज। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ में इलाहाबाद की महत्वपूर्ण विभूतियों की पूरी जानकारी दी गई है। यह इतिहास में दर्ज़ की जानी वाली किताब है, इस तरह के काम का विशेष महत्व है। हालांकि अभी कई अन्य लोगों इसमें शामिल किए जाने की आवश्यकता है, जिसे इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने खुद भाग-2 और तीन में पूरा करने की बात कही है। यह बात 05 मार्च को गुफ़्तगू की ओर से मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज के डॉ. प्रीतमदास प्रेक्षागृह में आयोजित कार्यक्रम के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज मित्थल ने कही। इस मौके पर इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’, नरेश कुमार महरानी की पुस्तक ‘मेरी तल्ख्यिां’ और शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’ की पुस्तक ‘अक्षर-अक्षर गढ़कर’ का विमोचन किया गया। साथ ही ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ में शामिल सभी लोगों को सम्मानित किया गया।                             
कार्यक्रम के दौरान लोगों को संबांेधित करते सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज मित्थल।
   
 मुख्य अतिथि माननीय पंकज मित्थल ने कहा कि गुफ़्तगू और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ऐसा कार्य कर रहे हैं, जिसके लिए इलाहाबाद पहचाना जाता है। यह बहुत उल्लेखनीय कार्य है, इसकी हर स्तर पर सराहना की जानी चाहिए। कार्यक्रम का संचालन मशहूर गीतकार यश मालवीय ने किया। राज्य उपभोक्ता विवाद परितोष आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ एक बेहद की महत्वपूर्ण किताब है, ऐसे कार्य से हम इतिहास को सहेजते हैं, इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने इसे करके दिखा दिया है।                                                               
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते पूर्व मंत्री डॉ. नरेंद्र सिंह गौर।

                                                
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह।

                                                       
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करतीं पद्मश्री राज बवेजा।

  
                                       
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते लालजी शुक्ला।


‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते यश मालवीय।


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि इलाहाबाद में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले लोगों के बारे में अपनी अगली पीढ़ी को बताने के लिए यह किताब लिखी गई है। आमतौर साहित्यकारों के बारे में तो कुछ न कुछ लिख ही दिया जाता है, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में काम करने वालों के बारे में प्रायः नहीं लिखा जाता है, इसलिए भी इस किताब का लिखना बहुत जरूरी था।
‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते डॉ. एस.पी. सिंह।


  अघ्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रमराव ने कहा कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। ऐसी किताबों से दूसरें लोगों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। आमतौर पर पत्रकारों के बारे में नहीं लिखा जाता, लेकिन इम्तियाज ग़ाज़ी ने इसमें पत्रकारों को भी शामिल करके एक बड़ा और अनोखा कार्य किया है। गुफ़्तगू के सचिव नरेश महरानी के सबके प्रति धन्यावद ज्ञापन किया। 

कार्यक्रम के दौरान एक साथ बैठे हुए चिदुप अग्रहरि, अनुग्रह नारायण सिंह और डॉ. नरेंद्र सिंह गौर।

‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते इंटरनेशनल बैडमिंटन खिलाड़ी अभिन्न श्याम गुप्ता।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

शिक्षण-स्वास्थ्य केंद्रों के संस्थापक राजेश्वर सिंह

                                           

राजेश्वर प्रसाद सिंह

 

                                                                               - अमरनाथ तिवारी ‘अमर’

  सुदर्शन काया, काया पर भारतीय परिधान श्वेत धोती-कुर्ता, हंसमुख-मिलनसार और आडंबरहीन स्वभाव, सहज-सरल चेहरे पर तेज, आंखों में चमक, वाणी में ओज, सामने वाले को अकस्मात व बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर देने वाले चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी स्मृतिशेष राजेश्वर प्रसाद सिंह (बाबूजी) का जन्म 1923 में सैदपुर के रामपुर गांव निवासी जमीदार बाबू सरजू प्रसाद सिंह के घर हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई। राजकीय सिटी इंटर कॉलेज, ग़ाज़ीपुर से हाईस्कूल, उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी से 1964 में इंटरमीडिएट करने के बाद स्नातक व विधि स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद से प्राप्त की।

ग़ाज़ीपुर जिले में दर्जनभर शिक्षण सहित विभिन्न संस्थानों के संस्थापक बाबू राजेश्वर प्रसाद सिंह आत्मबल के धनी थे। बाल्यावस्था में ही अनाथ हो जाने के बावजूद उनका आत्म विश्वास नहीं डिगा। पहला शिक्षण संस्थान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग़ाज़ीपुर की स्थापना के लिए इन्होंने अथक एवं अनवरत प्रयास किया। इस महाविद्यालय को बढ़िया स्वरूप् प्रदान करने के लिए इन्होंने अपना जी-जान लगा दिया। इसके लिए तिनका-तिनका जोड़ा और पाई-पाई जुटाई।  आज इस महाविद्यालय में लगभग इस महाविद्यालय में लगभग दस हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

ग़ाज़ीपुर के बहुमुखी विकास हेतु वे आजीवन प्रयत्नशील रहे। शिक्षा, स्वास्थ्य, खेेल सहित अन्य क्षेत्रों में भी जनपद के विकास के लिए उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इनके द्वारा स्थापित संस्थाओं की विविधता ही उनकी बहुमुखी सोच और सपनों के शिलालेख हैं। स्नातकोत्तर महाविद्यालय, तकनीकी शिक्षा एवं शोध संस्थान, आदर्श इंटर कॉलेज, राजर्षि बाल विद्या निकेतन उनके शिक्षा प्रेम के विशाल शिलालेख हैं। होमियापैथी कॉलेज एवं अस्पताल गरीब आदमी के स्वास्थ्य के प्रति उनकी चिंता का तो नेहरु स्टेडियम उनकी खेल रुचि का परिचायक है। डिवाइन हार्ट फाउंडेशन ह्दय रोग के इलाज के लिए उनका एक ठोस प्रयास है तो विकास निगम जनपद के बहुमुखी विकास की सोच की गाथा है। कवींद्र रवींद्र गं्रथालय और राही शोध एवं सृजन संस्थान साहित्य और साहित्यकारो के प्रति उनके सम्मान-भाव का प्रतीक है। ग़ाज़ीपुर गृह निर्माण समिति

के माध्यम से ग़ाज़ीपुर नगर में सैकड़ों लोगों को आवास हेतु ज़मीन और संसाधन उपलब्ध कराना और कुष्ठ आश्रम उनके सेवाभावी मन का परिचायक है। भारत सरकार के सहयोग से स्थापित कृषि विज्ञान केंद्र किसानों के प्रति उनके सहयोग-भाव का द्योतक है। एफएम रेडियो स्टेशन की स्थापना संचार माध्यम से लोगों को जोड़ने के लिए उनकी उत्सुकता को दर्शाता है। राजेश्वर प्रसाद सिंह का 02 अप्रैल 2019 को निधन हो गया। 


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित)


रविवार, 29 जनवरी 2023

आखिर क्या है ‘नावक’ और उसका तीर

                                                           

अजित वडनेरकर

                                                             - अजित वडनेरकर

   आज की हिन्दी में चाहे ‘नावक’ शब्द का प्रयोग नहीं होता, पर पाठ्यपुस्तकों वाली हिन्दी के ज़रिये इस शब्द से वास्ता ज़रूर पड़ता है। महाकवि बिहारी के सात सौ दोहों के संग्रह ‘सतसई’ का परिचय जिस “सतसैया के दोहरे, ज्यों ‘नावक’ के तीर, देखन में छोटे लगै, घाव करे गंभीर”  दोहे में आता है, दरअसल हर किसी का ‘नावक’  शब्द से पहली बार साबका तभी पड़ता है। दिक्कत यह है कि सहजता से उपलब्ध हिन्दी सन्दर्भ ‘नावक’ का अर्थ बताने में लड़खड़ाते नज़र आते हैं। ‘हिन्दी शब्दसागर’ भी जब ‘नावक’ का अर्थ ‘एक छोटा तीर’ बताता है तब सामान्य शब्दकौतुकी की जिज्ञासा का समाधान कैसे हो?  गौरतलब है कि ‘नावक’ शब्द की आधारोक्ति में ही ‘ज्यों ‘नावक’ के तीर’ यानी जिस तरह ‘नावक’ के तीर होते हैं”...स्पष्ट किया गया है तब भी कोशकारों ने ‘नावक’ का अर्थ ‘छोटा तीर’  बता कर ही काम चला लिया जबकि अंग्रेजी, फ़ारसी, हिन्दुस्तानी कोशों में इसका अर्थ छोटे तीर के साथ साथ नली, नाली भी दिया हुआ है। दोहे से ही स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक तरह का उपकरण है जिससे छोटे तीर चलाए जाते होंगे। अनजानेपन का आलम यह कि उच्चस्तरीय परीक्षाओं में ‘नावक’ के सम्बन्ध में आधिकारिक तौर पर कल्पना की उड़ान भरी जाती है। राज्य लोकसेवा आयोग की अभ्यास पुस्तिका (2008) में देखिए क्या दर्ज़ है- ‘नावक’ यानी एक प्रकार के पुराने समय का तीर निर्माता जिसके तीर देखने में बहुत छोटे परन्तु बहुत तीखे होते थे।  इसी तरह उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड की परीक्षा में ‘नावक’ का अर्थ बहेलिया बताया गया। आश्चर्य क्या जब अनेक विद्वान-लेखक इसे ‘नाविक’ लिखते-बोलते हैं और ‘नाविक’ की पैरवी भी करते हैं। अब भला नाविक चप्पू चलाएगा या तीर? 

हिन्दी के विद्वानों में “नावक और तीर” को लेकर कई तरह की भ्रान्तियाँ हैं मसलन- 1. नावक का अर्थ कहीं नाविक यानी माँझी है और कहीं तीर। 2. तीर का अभिप्राय भी बाण न होकर नाविक, नाव, नदी के सन्दर्भ में तट यानी तीर से जोड़ा जाता है। 3. शायरी में नावक का प्रयोग बतौर बाण हुआ है, इसलिए यही इसका अर्थ मान लिया गया। 4. नावक अगर छोटा-धनुष था तब बिहारी के अलावा अन्य किसी ने इस शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया।  5. भारतीय नदियों के नाविक छोटे-छोटे धनुष रखते थे अतः नावक का अर्थ नाविक ही है। 

‘नावक’ का प्रयोग सही, व्युत्पत्ति भ्रामक: आमतौर पर बन्दूक में एक नली होती है। ‘दुनाली’ शब्द सामने आते ही हमारे सामने ऐसी बन्दूक की छवि आती है जिसके साथ दो नलियां जुड़ी होती हैं। इसी तरह ‘नावक’ को भी समझा जा सकता है। ‘नावक’ दरअसल फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में आया है। फ़ारसी में ‘नावः’ शब्द का अर्थ होता है पनाला, परनाला। संस्कृत में प्रणाली या प्रणालिका जैसे शब्द हैं और इनका फ़ारसी रूप हुआ परनाला, पनाला। ‘नावः’ या ‘नाव’ में सामान्य नाली, नहर या प्रणाली का भाव भी है। गौर करें नली जहां चारों और से बन्द लम्बी मगर पोली प्रणाली है वहीं नाली अर्धवृत्ताकार, खुली प्रणाली है। ‘नाव’ का प्रणाली वाला अर्थ और स्पष्ट होता है नाबदान से जिसका अर्थ भी दूषित पानी बहाने वाली नाली ही है। यह मूलरूप से ‘नावदान’ है। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओँ में ‘व’ का रूपान्तर अक्सर ‘ब’ में होता है (जैसे वन से बन) उसी के तहत ‘नावदान’ का उच्चार ‘नाबदान’ हो गया। मद्दाह के कोश में नाव यानी नाली, नावः यानी छत से पानी गिराने वाला पाइप, नाबदान यानी दूषित जल का परनाला जैसे अर्थ दिए हैं। कुल मिलाकर हमें प्रणाली वाला अर्थ ग्रहण करते हुए ‘नावक’ का नलीदार भाव समझने में समस्या नहीं होनी चाहिए। मूलतः फ़ारसी में ‘नावक’ एक ऐसे अर्धस्वचालित धनुष को कहा जाता है जिसमें सीधे कमान में तीर फंसाकर नहीं छोड़ा जाता बल्कि कमान खींचने के बाद तीर को एक नाली में से गुज़ारा जाता है। तीर को लीवर या ट्रिगर के ज़रिये कमान से मुक्त किया जता है। ‘नावक’ में जो मुख्य भाव है वह तीर नहीं बल्कि उसका आशय खांचा, सिलवट, शिकन, दर्रा, घाट, नहर, पाइप, नाड़ी, प्रणाली, प्रवाहिका आदि से है। एक ऐसा रास्ता जिससे सहज प्रवाह और गति मिले। जिससे कोई वस्तु गुज़र सके। यह प्रणाली ही गुज़रने वाली चीज़ को दिशा प्रदान करती है, लक्ष्य की ओर ठेलती है। संस्कृत में नाव का अर्थ नौका है फ़ारसी में ‘नाव’, ‘नावः’ दोनों शब्द हैं। दरअसल नाव जहां नौका है वहीं ‘नावः’ का अर्थ नाली भी है। फ़ारसी नावः (नावह) का एक रूप ‘नावक’ हुआ। भारत में ‘नावक’ इस्लामी दौर में ही आया।



 

हिन्दी कोशों में पूरा सन्दर्भ नहीं: साहित्य-सुधियों में दशकों से जो ग़लतफ़हमी है वह नावक ‘के’ तीर की वजह से है। यह जो ‘के’ सम्बन्ध-कारक है इससे पता चलता है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि ‘नावक’ वाला तीर है या ‘नावक’ का तीर है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि एक उपकरण है और बात उससे चलाए जाने वाले तीर की हो रही है। तो विद्वानों को भी यह सम्बन्धकारक ‘के’ खटका अवश्य किन्तु बजाय ‘नावक’ पर शोध करने के उन्होंने पण्डिताऊ ढंग से इसे ‘नाविक’ माना और तीर को किनारा। 

नाविक नहीं है ‘नावक’ : हिन्दी कोश परम्परा में व्युत्पत्ति के नज़रिए से शोध की प्रवृति कम और अद्यतन के नाम पर पूर्ववर्तियों के कामों को जस का तस या थोड़ा बहुत फेरफार करते रहने की प्रवृत्ति ज्यादा रही है। या तो रामायण में ‘र’ वर्ण की आवृत्ति जैसे विषयों पर शोध होते हैं अन्यथा बैठे-बैठाए की गवेषणा और पाण्डित्य ही हिन्दी वालों का मूल स्वभाव है। इसी तरह कोश देखने की वृत्ति भी हिन्दी वालों में विरल है। अधिकांश लोग अगल-बगल के लोगों से अपनी वर्तनी सम्बन्धी जिज्ञासाएं शान्त कर लेते हैं, बजाय कोश देखने के। वर्तनी के सम्बन्ध में लोग लिखित सन्दर्भों की तुलना में सुनी-सुनाई पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लेखक तो लेखक है, कोई कीर्तनिया नहीं। सब कुछ उच्चार के आधार पर बरतना है तब सारे शब्दकोश जला दिए जाएँ। कुछ विद्वान कहते हैं कि, ‘नावक’ और नाविक दोनों ही पद चलते हैं। हमने छोटे तीर-कमान वाले ‘नावक’ की वर्तनी ‘नाविक’ किसी भी स्तरीय कोश में नहीं देखी। खास बात यह कि हिन्दी के लगभग सभी महत्वपूर्ण और प्रचलित कोशो में बतौर छोटा तीर ‘नावक’ ही दर्ज़ है। कहीं भी ‘नावक’ का पर्याय अथवा वर्तनी नाविक नहीं है। अलबत्ता हमें नाविकों के तीर-कमान रखने की बात पर कोई ऐतराज नहीं है। और तो और हमारी लोक बोलियों में तो नाविक का उच्चार भी ‘नावक’  हो जाता है- “उदधि उतरने जावत जेहु, ‘नावक’ शरन सो लेवत तेहु”। अब हुआ यह कि हिन्दी कोशों ने ‘नावक’ प्रविष्टि के तहत ‘नावक’ का एक अर्थ नाविक भी दे दिया। स्पष्ट है कि यह जो ‘नावक’ है वह नाविक का अपभ्रंश है और आमतौर पर नाविक का मैथिल या कहीं कहीं अवधी-भोजपुरी उच्चार है। हमारे विद्वानों ने ‘नावक’ और नाविक को पर्याय समझ कर बरतना शुरू कर दिया।...  और क्या प्रमाण चाहिए ‘नाविक’ को ख़ारिज़ करने का ?

देखन में छोटे लगे: अनेक विद्वान “देखन में छोटे लगे” से भाव ग्रहण करते हुए ऐसे लघु धनुष-बाण की कल्पना करते हैं जिसकी ज़रूरत ‘शिप्रा’ जैसे नालों के नाविकों को नहीं थी बल्कि जिनकी नौकाएं गंगा-यमुना जैसी विशाल नदियों में तैरती थीं उनके पास होते थे छोटे-छोटे धनुष-बाण। नाविक के पक्ष में वे तर्क देते हैं कि ‘नावक’  अगर नाविक नहीं है तो मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सिवाय बिहारी के ‘नावक’ का ज़िक़्र किसी अन्य ने क्यों नहीं किया? यह मान्यता भी निर्मूल है। इसकी कई मिसालें आगे आएंगी पर इससे पहले सवाल उठाना चाहेंगे कि क्या ज़रूरी है जो बात आपके यहां प्रचलित हो, उसी का उल्लेख साहित्य में होता है!! हमारे यहां ख़ूबसूरती के सन्दर्भ में कोहकाफ़ की परियों का ज़िक़्र होता रहा तो क्या कोहकाफ़ हिन्दुस्तान में है? प्रसंगवश एशिया-यूरोप के बीच काकेशस उपत्यका ही फ़ारसी में कोहकाफ़ कहलाती है। हमारे यहां कारूं के ख़ज़ाने का इस क़दर ज़िक़्र होता है कि इसका मुहावरे की तरह सटीक प्रयोग होने लगा। तो क्या कारूं और उसका ख़ज़ाना यहां था? ज़ाहिर है ये तमाम बातें अरबी, तुर्की, फ़ारसी, मंगोल लोगों से लम्बे संपर्क के दौरान ही हमारी भाषा-संस्कृति में दाख़िल हुईं। 

अकेले बिहारी नहीं, और भी हैं: जहां तक नावक के आम इस्तेमाल का प्रश्न है, ‘आम’ था या नहीं इस पचड़े में हम नहीं पड़ेंगे मगर बिहारी, कुलपति, ब्रजवासी दास या चरणदास जैसे मध्यकालीन कवियों से लेकर उन्नीसवीं सदी में ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ ने इसे बरता- “नावक-अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे। नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजाँ होंगे”। फिर बीसवीं सदी ‘फ़ैज़’ की शायरी में यह नज़र आता है- “न गंवाओ ‘नावक’-ए-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गंवा दिया जो बचे हैं संग समेट लो, तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया”। इक्कीसवीं सदी में डॉ शैलेष ज़ैदी तक की कविताई में इसका इस्तेमाल हआ- “शाखे-शजर पे बैठा हूं मैं इक यतीम सा,  सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा”। ज़रा सोचिए, ‘आम’ का सवाल कितना ‘ख़ास’ रह जाता है? फिर भी बताते चलें कि ‘नावक’ का उल्लेख करने वाले बिहारी अकेले न थे बल्कि तत्कालीन समाज इस नए किस्म के फौजी अस्त्र से परिचित था तभी यह साहित्य में भी दर्ज़ हुआ। सत्रहवीं सदी में आचार्य कुलपति मिश्र ने ‘रस-रहस्य’ में लिखा-“नावक तीर लौं प्राण हरै पलकैं बिछरैं हिय व्याकुल साजै” ब्रजवासी दास की उक्ति “बय बालक चालक दृगनि, सुन्दरि सुछिम सरीर, मनौं मदन गुन पै धरौ, इह नावक कौ तीर” को देख लें। इसी तरह संत कवि चरणदास कहते हैं- “सदगुरु सबदी लागिया नावक का सा तीर, कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर”। यही नहीं बिहारी दास ने भी एकाधिक जगह ‘नावक’ का उल्लेख किया है- “नावक सर में लाय कै तिलक तरुनि इति नाकि” आदि। 

‘नावक’ मूलतः नली थी, तीर नहीं: ‘नावक’ मूलतः नली है न कि तीर, इस बारे में किसी सन्देह की गुंजाइश ही नहीं है। फ़ारसी के नाव और नावः (अवेस्ता में नवाज़ा, फ़ारसी का एक रूप नाविया भी) बुनियादी तौर पर एक ही हैं मगर एक वाहन है और दूसरा वाहिका/प्रवाहिका। नाव पेड़ को काट कर, कुरेद कर बनाई जाती है और प्रकृति द्वारा कुरेदी गई सिलवटों, दरारों से होकर नदियां बहती हैं। संस्कृत में नाव, नौ के लिए आधार शब्द ‘नु’ है जिसमें नौका, पोत जैसे भाव हैं पर वे बाद में स्थापित हुए। ‘नु’ में निहित पहला अर्थ ध्वनि है। आह्लाद की। गिरते प्रपात की, बहते पानी की ध्वनि मनुष्य के लिए कितनी सुखद रही होगी। इसीलिए नाद का अर्थ आवाज़ हुआ। बाद में प्रवाही-जल ने अपना रास्ता बनाया। यूं नद और नदी शब्द प्रचलित हुए। इसी तरह बाँस की खोखल को नद् की तर्ज़ पर नड़् संज्ञा मिली होगी। एक मिसाल देखें। संस्कृत में नड् का अर्थ है खोखल, बाँस, बांसुरी, नली। नड का रूपविकास है नद् जिसका अर्थ है विशाल जल प्रवाह। जाहिर है धरती में बने खोखले, पोले स्थान में ही पानी जमा होता है। जिस दरार या खांचे से होकर पानी सतत प्रवाही रहे उसे नद् या नदी कहते हैं जो नड् से सम्बद्ध है। इसका एक रूप नळ या नल होता है जिसमें नाली या नाड़ी का भाव है। ‘नू’ का अर्थ एक विशेष अस्त्र भी है। 


नाल, बांस, पुंपली: प्रायः सभी शब्द कोशों में ‘नावक’ का अर्थ अनिवार्य रूप से नली बताया गया है। तीर से हट कर इसकी जितनी भी अर्थछटाएं हैं वे नली, नाली से जुड़ती हैं क्योंकि व्युत्पत्तिमूलक अर्थ ही नल, नाली, प्रवाहिका, वितरिका, नहर, बांस, पुंपली, पोंगली आदि है। “ए डिक्शनरी ऑफ पर्शियन अरेबिक एंड इंग्लिश डिक्शनरी” में देखिए जॉन रिचर्ड्सन ‘नावक’ के बारे में क्या कहते हैं- 1. बांस से बना एक तीर जिसकी दांतेदार नोक तेजी से सीधे निशाने पर लगती है और जिसका उपयोग प्रायः तीतर-बटेर के शिकार के लिए किया जाता था। 2.एक ऐसी नली जिसके ज़रिये तीर छोड़ा जाता था. 3.एक बांस या बाँस सरीखी ऐसी कोई भी चीज़ जो सामान्यतः या कृत्रिम रूप से नालीदार या खोखली बनाई गई हो. 4.किसी अनाज पीसने की चक्की तक जाने वाली प्रवाहिका 5.कोई भी नहर, कैनाल. 6.मनुष्य की पीठ गर्दन से कमर तक बनी लम्बी गहरी धारी.) आदि। 


नली में बारूद से तीर का प्रक्षेपण: जॉन रिचर्ड्सन समेत डेविड निकोल, डंकन फोर्ब्स, जॉन प्लाट्स आदि के कोशों में भी ‘नावक’ शब्द की विवेचना में उसे नाल बताया गया है। गौरतलब है कि जिस तरह वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत-अंग्रेजी कोश, संस्कृत-हिन्दी कोश मूलतः मोनियर विलियम्स के काम पर आधारित है उसी तरह हिन्दी शब्दसागर समेत हिन्दी कोशों में अंग्रेजों द्वारा बनाए हिन्दुस्तानी, उर्दू, फ़ारसी कोशों से बहुत कुछ लिया है। हिन्दी शब्दसागर शब्दकोश परियोजना 1928 में पूरी हो गई थी। इसमें ‘नावक’ को “एक छोटा तीर” बता कर काम चला लिया गया। इसके सम्पादक मण्डल के एक सदस्य रामचन्द्र वर्मा नें दशकों बाद इस ग़लती को दुरुस्त किया। 1965 के आसपास उन्होंने अपनी पुस्तक ‘शब्दार्थ-दर्शन’ में स्पष्ट किया कि ‘नावक’ का अर्थ तीर ही समझा जाता है पर ‘नावक’ साधारण तीर नहीं है बल्कि एक विशेष प्रकार का छोटा तीर या उसका फल होता है जो लोहे की नली में रखकर बारूद की सहायता से चलाया जाता था”। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘केशवदास’ में ‘नावक’ का अर्थ दिया है बाँस की छोटी पुपली। ध्यान रहे पुपली, पींपनी अथवा पीपी का अर्थ लोकबोलियों में नली होता है।

क्रॉसबो जैसी चीज़: ‘नावक’ के नालधनुष या क्रॉसबो जैसा चीज़ रही होगी। अनेक ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि क्रॉसबो जैसी तकनीक यूरोप और एशिया की धरती पर अनेक स्थानों पर प्रचलित थी और इसका प्राचीन इतिहास है। अरब, फ़ारस और चीन का भारत से इतना गहरा नाता रहा है कि यह माना नहीं जा सकता कि ‘नावक’ कभी भारत आया न हो। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि ‘नावक’ दरअसल नालधनुष था। ये हम अपने मन से नहीं कह रहे हैं बल्कि जॉन प्लॉट्स, रामचंद्र वर्मा समेत अनेक विद्वान लेखक-कोशकार कह रहे हैं और ‘नावक’ का हवाला क्रॉसबो जैसे उपकरण से दे रहे हैं जो नलीदार होता है और कमान के ज़ोर से तीर को नली से होकर गुज़ारा जाता है। 


काफूर की दक्षिण विजय में ‘नावक’’: ‘नावक’ के आम इस्तेमाल की बात पर फिर लौटते हैं। ऊपर अनेक मिसालें दी गई हैं कि किस तरह साहित्य में ‘नावक’ शब्द दर्ज़ हुआ है। कहीं प्रक्षेपास्त्र के तौर पर तो कहीं प्रक्षेपण-यन्त्र के तौर पर। हां, ‘नावक’ को बतौर मांझी या नाखुदा कहीं दर्ज़ नहीं किया गया। ये अलग बात है कि भोजपुरी, मैथिली या अवधी में अनेक स्थानों पर नाविक को ‘नावक’ की तरह बरता जाता है। उसकी भी चर्चा ऊपर हो चुकी है। ‘नावक’ का इस्तेमाल आम था या नहीं इसे तूल देने की बजाय गौर किया जाना चाहिए कि मध्यकाल में समाज ‘नावक’ से परिचित था। यूं ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी ‘नावक’ का उल्लेख दर्ज़ है। मुग़ल फ़ौज़ें जिन जिन हथियारों और प्रणालियों का इस्तेमाल करती थीं, उनमें ‘नावक’ का उल्लेख है। मुग़ल फौजो में ‘नावक’ का प्रयोग होता था इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। मुगलों से भी पहले सल्तनत काल में अलाउद्दीन खलजी के सिपहसालार मलिक काफूर ने दक्षिण अभियानों के दौरान ‘नावक’ का जमकर इस्तेमाल किया था, ऐसा द स्केर्क्राे प्रेस, लंदन से प्रकाशित इक्तिदार अहमद खान की “हिस्टॉरिकल डिक्शनरी ऑफ़ मीडिवल इंडिया” समेत अनेक सन्दर्भों में भी ज़िक़्र मिलता है।   


वैतस्तिक और नालास्त्र: ‘नावक’ तुर्की से लेकर फ़ारस तक और फिर चीन के कुछ हिस्सों में प्रचलित रहा। यही नहीं, नावः या नाव (नली) के ज़रिये चलाए जाने वाले धनुषाकार अस्त्र की श्रेणी में ही क्रॉसबो भी आता है। फ़ारसी में इसे ही ‘नावक’ कहते थे। इसका आविष्कार चीन में बताया जाता है जहाँ इसे ‘थुंग’ कहते हैं। गौरतलब है। साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में जोसेफ़ नीधम ने इसी थुंग की तुलना फ़ारसी ‘नावक’  और अरबी शैली के नालधनुष ‘मजरा’ से की है। तमाम सन्दर्भ भरे पड़े हैं जो इसे पूरब का और चीन का आविष्कार बताते हैं। यहां तक कि प्राचीन भारत में भी नालधनुष जैसा अस्त्र था, इसकी गवाही मिलती है। अमरकोश मं  नालिका नाम के एक अस्त्र का भी उल्लेख है जिसकी व्याख्या बतौर नालास्त्र की गई है। वैदिक सन्दर्भों में बालिश्त भर आकार के तीर को वैतस्तिक कहा गया है। महाभारत के द्रोणपर्व में “शरैर्वैतस्तिकै राजन् विव्याधासन्नवेधिभिः” में इसका उल्लेख है। संस्कृत विद्वान डॉ.विक्रमजीत के मुताबिक यहाँ श्वितस्तिश् शब्द ‘द्वादशाङ्गुल प्रमाण’ यानी एक बालिश्त माप का वाचक है। वितस्ति से इक प्रत्यय करके वैतस्तिक बनेगा। यहां वैतस्तिक शब्द शर (बाण) का विशेषण है सो वैतस्तिक शर का अर्थ हो गया- बारह अंगुल के तीर। वितस्ता से भी वैतस्तिक शब्द तो बन सकता है पर यहाँ वितस्ता से कोई लेना-देना नहीं। इस तरह श्लोक का अर्थ हो जाएगा - हे राजन् ! निकटवर्ती (शत्रु) को बींधने वाले वैतस्तिक बाणों से (उसने उसको) बींध दिया।” प्रसंगवश पाली भाषा में धनुक का तात्पर्य छोटे धनुष से है। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के पाली-हिन्दी कोश में दर्ज़ है। शैलेष ज़ैदी ने तुलसी काव्य की अरबी-फ़ारसी शब्दावली में भी इसी आशय का उल्लेख किया है कि भारतीय लोग ‘नावक’ से काफी पहले से परिचित थे। उन्होंने तो यहां तक अनुमान लगाया है कि फ़ारसी ‘नावक’ शब्द दरअसल हिन्दी की ज़मीन से ही बना होगा। उनके इस अनुमान का प्रमाण मुझे नहीं मिला। इसी तरह ‘नावक’ को संस्कृत ‘नखक’ का रूपान्तर भी बताया जाता है मगर इसकी भी पुष्टि नहीं होती। संस्कृत सन्दर्भों में इसे नाखून की आकृति में आगे की ओर से मुड़ा हुआ चाकू बताया गया है। ध्वनिसाम्य के अलावा नखक के ‘नावक’ बनने का और कोई आधार नहीं है। 


क़ौस-अल-नावकिया: गौरतलब है कि करीब 224 ई. से 651 ई. के दौर में फ़ारस के सासानी वंश के दौर में अल-नावकिया नाम का एक समूह भी था जिसे यह नाम ‘नावक’ की वजह से मिला। यह भी उल्लेख है कि ‘नावक’ के ज़रिये दुश्मनों पर जलते हुए तीर भी बरसाए जाते थे। यही नहीं इसी दौर में ‘नावक’ का उल्लेख “क़ौस-अल-नावकिया”  भी मिलता है। ध्यान रहे अरबी में क़ौस यानी धनुष। अरबी-फ़ारसी का ‘इया’ प्रत्यय सम्बन्धसूचक है। सो नावकिया का अर्थ हुआ ‘नावक’ वाला। इस तरह क़ौस-अल-नावक़िया का अर्थ हुआ नालधनुष या नलीदार धनुष। कहने वाले कह सकते हैं क़ौस-अल-नावकिया का अर्थ छोटे (तीर) वाला धनुष भी हो सकता है! हमारा कहना है ऐसा सोचना भूल होगी। धनुष में बाण समाहित है। धनुष से तीर ही चलाया जाएगा। यहाँ आशय तीर नहीं प्रणाली से है। मिसाल के तौर पर रायफल, बन्दूक, रिवॉल्वर, मशीनगन सबका रिश्ता गोली से है पर इनके अलग अलग नाम गोली के आकार में बदलाव की वजह से नहीं बल्कि तकनीक के बदलाव की वजह से है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक प्रणाली पहले है, तीर बाद में है।


और आखिर में...बंदूक से निकली बंदूक: अस्त्रों के नामकरण का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कभी उसे प्रक्षेपित करने वाले उपकरण का नाम मिला तो कभी प्रक्षेपित होने वाले पदार्थ का। जैसे ‘नावक’ का मूलार्थ है “वह नली जिससे तीर छोड़ा जाए” पर ‘नावक’ का अर्थ तीर भी हुआ, हालाँकि नली की पहचान भी बनी रही। इसके उलट हाल बंदूक का है जो अरबी शब्द है और दरअसल वह गोली है। बंदूक की नली से भी बंदूक ही निकलती है और बंदूक ही लगती है। बंदूक शब्द ध्यान में आते ही लंबी नली नज़र आती है मगर बंदूक के नामकरण में नली का नहीं बल्कि गोली का योगदान है। श्बंदूकश् मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द भी नहीं है, यह ग्रीक के ‘पोंटिकोन’ से बना। पोंटिकोन का ही अरबी रूप श्अल-बोंदिगसश् हुआ। इसका अगला रूप ‘फुंदुक’ और फिर ‘बुंदूक’ हुआ। बाद में जब राईफल का आविष्कार हुआ तो उसकी गोली यानी कारतूस को बंदूक कहा जाने लगा। बाद में मुख्य हथियार का नाम ही बंदूक लोकप्रिय हो गया। इसके विपरीत बेहद छोटे आकार के जेबी हथियार के तौर पर बनाई गई पिस्तौल की पहचान नली की बजाय उसका हत्था और ट्रिगर होती है, मगर पिस्तौल के नामकरण में नली का योगदान है। पिस्तौल शब्द का मूल पूर्वी यूरोपीय माना जाता है। रूसी भाषा में एक शब्द है पिश्चौल चंेबींस जिसका अर्थ होता है लंबी पतली नली। बंदूक और पिस्तौर की मिसालों से साबित होता है कि ‘नावक’ के साथ भी वैसा ही हुआ। ‘नावक’ मूलतः उपकरण है। कालान्तर में तीर को भी उपकरण का ही नाम मिल गया और उसे भी ‘नावक’ कहा जाने लगा।  


अपनी बात: शब्दों के जन्मसूत्र तलाशना मेरा शौक़ है, कोई अकादमिक विवशता नहीं। प्रामाणिकता के साथ किया जा रहा शब्दविलास है। इसे भाषा वैज्ञानिक, साहित्यिक या सर्जनात्मक कर्म माना जाए ऐसी भी महत्वाकांक्षा नहीं। भाग्यवान हूं कि इसके बावजूद हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वानों की सराहना मिल रही है। बहुत वर्षों से साध है कि बोलचाल की हिन्दी का अपना एक ऐसा व्युत्पत्ति कोश ज़रूर होना चाहिए जिसमें आमफ़हम शब्दों के जन्मसूत्र तो हों ही साथ ही वे तमाम शब्द भी अपनी मूल पहचान के साथ इसमें हों जो अलग अलग कालखण्ड में विदेशी भाषाओं से हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में समा गए। इसी मक़सद को लेकर मैने ‘शब्दों का सफ़र’ परियोजना पर काम शुरू किया। हिन्दी शब्द-सम्पदा के जन्मसूत्रों की तलाश और उनकी विवेचना का काम बीते दस वर्षों से चल रहा है। राजकमल प्रकाशन से शब्दों का सफ़र के दो पड़ाव आ चुके हैं। तीसरा आने वाला है। इस काम को दस पड़ावों में समेटने का मन है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

प्रेरणादायक व्यक्तित्व पद्मश्री डॉ. राज बवेजा

                                               

पद्मश्री डॉ. राज बवेजा


                                                              -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

                                          

  पद्मश्री डॉ. राजकुमारी बवेजा राष्ट्रीय स्तर की ख्याति प्राप्त स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं। इन्होंने अपनी क़ाबलियत, सक्रियता और मानव सेवा के जरिए समाज में एक अलग मकाम बनाया है, जिसकी वजह से पूरे देश में इनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। लगभग 90 वर्ष की आयु में आज भी अपने चिकित्सीय सेवा का निर्वहन बड़ी तन्मयता से करती हैं। जार्जटाउन स्थित अपने निवास पर आज भी शाम के वक़्त मरीजों को देखती हैं। इनका कार्य दूसरे चिकित्सकों के लिए प्रेरणास्रोत है।

डॉ. राज बवेजा का जन्म 19 नवंबर 1934 को संतनगर, लाहौर में हुआ था। पिता स्वर्गीय श्री प्रभुदयाल बवेजा लाहौर में ही सरकारी नौकरी करते थे। देश के विभाजन के समय माहौल खराब होने पर पिता ने राज बवेजा को उनके मामू के यहां दिल्ली छोड़ दिया, ताकि बिना किसी खतरे के उनकी परवरिश हो सके। उन दिनों इस बात का डर था कि लड़कियों को उपद्रवी उठा ले जाएंगे। फिर देश का बंटवारा हो जाने पर पिता रोहतक आ गए और राज बवेजा को भी उनके पिता रोहतक कैम्प में ले गए। वहां शरणार्थियों के लिए पूड़ी-सब्जी आती थी, सब लोग मिलकर खाते थे। राज बवेजा की नानी और दादाजी का इसी दौरान अमृतसर में निधन हो गया। 

 कुछ दिनों बाद ही लखनऊ में पिता श्री प्रभुदयाल बवेजा को सरकारी नौकरी मिल गई। राज बवेजा की एक छोटी बहन और एक भाई थे। तीनों लोग लखनऊ में ही पढ़ाई करने लगे। किसी ने राज बवेजा को बताया कि होम साइंस पढ़ने से डाक्टर बना जा सकता है। इसी वजह से लालबाग लखनऊ में कक्षा नौ में होम साइंस विषय में दाखिला ले लिया। इसी दौरान पिता प्रभुदयाल बवेजा का दक्षिण भारत के विजयवाड़ा में तबादला हो गया। मां ने इनकी पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी, हर तरह से सहयोग करके पढ़ाई कराई। राज बवेजा ने कक्षा 11 में साइंस विषय से लखनऊ में ही दाखिला लिया। वर्ष 1952-53 में आपका पी.एम.टी. में चयन हो गया। इसी समय में बी.एस-सी में भी दाखिला ले लिया था। पीएमटी में चयन और दाखिला के बाद बी.एस-सी का नामांकन बड़ी मुश्किल से रद्द कराया गया, क्योंकि फीस वापस लेनी थी। लेकिन एक अंजान लड़के के सहयोग से फीस की वापसी हुई। पिता के बिजयवाड़ा में होने की वजह से उनके पिता के दोस्त ने राज बवेजा का पूरा मार्गदर्शन किया। आपने किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज लखनऊ से एम.बी.बी.एस. और एम.एस. किया था। इसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से गाइनाकोलॉजी में पी.एच-डी. किया। इसके बाद आप इलाहाबाद के मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में पहले ऑफिसर, फिर प्रोफेसर और इसके बाद महिला एवं प्रसूति विभाग की विभागाध्यक्ष हो गईं। जहां आपने वर्ष 1992 तक कार्य किया। 1998-99 में आप मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज की निदेशक थीं। आपने कॉमन वेल्थ स्कॉलरशिप के माध्यम से बांझपन और गर्भावस्था हानि (भ्स्। इवकपमें) में इम्यूनोलॉजी पहलू पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और जॉन राडक्लिफ अस्पताल में भी काम किया है। 1984-85 में आपने डब्ल्यू.एच.ओ. जिनेवा में अस्थायी सलाहकार डब्ल्यू.एच.ओ. जिनेवा के प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों के लिए आवश्यक प्रसूति और स्त्री रोग संबंधी शल्य प्रक्रिया तैयार की थी।

 विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का ह्यूमन रिप्रोडक्शन रिसर्च सेंटर स्थापित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। कई सामाजिक संगठनों से जुड़ी हैं और आज भी जरूरतमंदों की सेवा में अपना योगदान दे रही हैं। उनके सेवा कार्यों की वजह से ही भारत सरकार ने उन्हें पदमश्री से वर्ष 1983 में नवाजा। जीवन के प्रति सकारात्मकता और संयमित जीवन उन्हें 90 वर्ष की उम्र में भी ऊर्जावान बनाए हुए हैं। खुद ड्राइविंग करने और मरीजों का आपरेशन करने में उनके हाथ नहीं कांपते। डॉ. बवेजा कहती हैं कि जब तक आप न चाहें उम्र आप पर प्रभाव नहीं डाल सकती। उन्हें आज भी सेवा में वही सुख मिलता है, जो सुख उन्हें पहली बार एप्रिन पहनने पर मिला था।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित )


बुधवार, 18 जनवरी 2023

जीवन की अभिव्यक्तियों के चित्रण की कविताएं

                                                   - अजीत शर्मा ‘आकाश



  ‘ठोकर से ठहरो नहीं’ कवयित्री अर्चना सबूरी की 90 कविताओं एवं क्षणिकाओं का संग्रह है। कहा गया है कि कविताएं मन के भावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम हैं। इस काव्य संग्रह की रचनाओं के माध्यम से जीवन की विसंगतियों एवं जटिल परिस्थितियों को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है। कविता-लेखन के संबंध में पुस्तक के आत्मकथ्य के अंतर्गत कवयित्री का कहना है कि ज़ि़न्दगी किसी की भी आसान नहीं है, सब की ज़िन्दगी में अपने-अपने तरीके के कष्ट हैं, दुःख हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाएं कवयित्री के इसी दार्शनिक विचार से ओतप्रोत प्रतीत होती हैं। रचनाओं में अनेक स्थलों पर जीवन के यथार्थ चित्रण की झलक परिलक्षित होती है। कविताओं में संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। अधिकतर कविताएं समय और व्यक्ति के बीच के द्वंद्व को पाठक के समक्ष लेकर आती हैं तथा संवाद और संघर्ष करती प्रतीत होती हैं। सामाजिक सरोकारों के ताने-बाने में रचा-बसा कथ्य सराहनीय है। रचनाओं में यत्र-तत्र जीवन के अन्य अनेक रंग भी सामने आते हैं। संग्रह में ‘सपनों में सही’, ‘मीठी यादें’, ‘निभाती हूं’, ‘मत आया करो’ जैसी श्रृंगार एवं प्रेम विषयक कुछ रचनाओं एवं क्षणिकाओं को भी स्थान दिया गया है। ये कविताएं प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों, सुखद अनुभूतियों और प्रेम की वयक्त-अव्यक्त अभिव्यक्तियों को चित्रित करती हैं तथा संयोग एवं वियोग के भाव उत्पन्न करती हैं। काव्य संग्रह में कवयित्री के सराहनीय सृजन की झलक परिलक्षित होती है। कुछ स्थानों पर वर्तनीगत, व्याकरणिक एवं प्रूफ़ संबंधी अशुद्धियां भी हैं, जिन्हें दूर किया जा सकता था। कुल मिलाकर यह  कहा जा सकता है कि नई कविता लेखन-क्षेत्र में ‘ठोकर से ठहरो नहीं’ कवयित्री अर्चना सबूरी का एक सराहनीय प्रयास है। 96 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।

 

हिन्दी के छन्द विधान की जानकारी की पुस्तक



 हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन आचार्य कवियों ने आत्म-प्रदर्शन के अंतर्गत अपनी बहुज्ञता प्रदर्शित करने के लिए या काव्य प्रेमियों को ज्ञान देने के लिए लक्षण ग्रन्थों की रचना की थी। इन लक्षण ग्रन्थों में काव्यांगों का लक्षण देकर उसका स्वरचित उदाहरण देने की परम्परा थी। सम्भवतः उसी परंपरा के अंतर्गत अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने अपनी ‘अंतर्नाद’ पुस्तक में हिन्दी साहित्य के प्रचलित एवं अप्रचलित विभिन्न मात्रिक एवं वर्णिक छन्दों के शिल्प विधान के अन्तर्गत उनकी मात्राओं, विभिन्न गणों एवं मापनी की जानकारी का उल्लेख करते हुए उनके स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक दो खण्डों में विभाजित की गयी है। खण्ड एक में 21 मात्रिक छन्दों एवं खण्ड दो में 21 वर्णिक छन्दों का परिचय एवं उनके उदाहरण हैं। प्रचलित मात्रिक छन्दों के अंतर्गत दोहा, सोरठा, चौपाई, रोला, कुण्डलिया, आल्हा जैसे शास्त्रीय छन्दों का उल्लेख है, तो अनेक अप्रचलित छन्द भी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार वर्णिक छन्दों के अन्तर्गत भी सवैया एवं घनाक्षरी जैसे प्रचलित एवं अन्य अनेक अप्रचलित छन्दों का उल्लेख स्वरचित उदाहरण देकर किया गया है। पुस्तक में वर्णित कुछ मात्रिक छन्द तो उर्दू ग़ज़लों की अति प्रचलित बह्रों की भांति हैं, जिन्हें हिन्दी छन्दों का नाम दिया गया है। यथा- बिहारी, दिगपाल, शुद्ध गीता, विधाता आदि छंद। रचनाकार ने रचनाओं की भाषा को सहज रखने का प्रयास किया है, जिसके लिए हिन्दी खड़ी बोली के साथ-साथ आसपास के क्षेत्र की बोली में प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। हालांकि कहीं-कहीं कठिन एवं संस्कृतनिष्ठ शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। पाठकों की सुगमता के लिए रचनाओं के अन्त में कुछ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिए गए हैं। पुस्तक के अन्तर्गत कहीं-कहीं अशुद्धियां भी परिलक्षित होती हैं, यथा- कुछ रचनाएं शिल्प की दृष्टि से दोषयुक्त हैं, जिसके कारण लयभंग की स्थिति आ जाती है। सोरठा छन्द के कुछ उदाहरणों में मात्राओं की गणना ठीक होते हुए भी इसी प्रकार का लय भंग दोष है। रचनाओं में जप्त, भृष्ट, खतम, नीती, खयालें जैसे अशुद्ध शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए था। कुल मिलाकर पुस्तक का लेखन श्रमसाध्य कहा जाएगा। साहित्य के गहन एवं गंभीर अध्येताओं के लिए यह पुस्तक पठनीय है। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की 128 पृष्ठों की इस पुस्तक को नवकिरण प्रकाशन, बस्ती (उ0प्र0) द्वारा प्रकाशित किया गया है, जिसका मूल्य  180 रुपए है।

    पठनीय एवं सराहनीय काव्य-संग्रह



 ’आईना-ए-हयात’  अतिया नूर के 80 गीतों और नज़्मों का संग्रह है। बेहतरीन कलाम और सशक्त शैली इस संग्रह की मुख्य विशेषता है। हिंदी और उर्दू में एकता स्थापित करके आम बोलचाल की भाषा में ये अपनी बात कहती हैं। भाषा, शिल्प और सलीक़े की बात कहने में इन्हें पूरी महारत हासिल है। रचनाकार का अपना अनुभव, अपनी सोच एवं भावाभिव्यक्ति उत्तम कोटि की है। ’आईना-ए-हयात’ का काव्य सृजन रचनाकार की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता को उजागर करता है। कई रचनाएं बहुत अच्छी बन पड़ी हैं। शिल्प विधान की दृष्टि से भी कविताएं आकर्षित करती हैं तथा काव्य व्याकरण की कसौटी पर सभी रचनाएं पूर्णतः खरी उतरती हैं। कथ्य की दृष्टि से भी सभी रचनाएं श्रेष्ठ एवं सराहनीय हैं। ‘उर्दू की कहानी’ कविता के माध्यम से संक्षेप में उर्दू भाषा का पूरा इतिहास बता दिया गया है। ‘तख़्त पे क़ातिल बिठाया जाएगा’ कविता में तुच्छ राजनीति पर प्रहार करने का प्रयास किया गया है। ’ऐ मेरी माँ’, ’जहाँ सर झुका दो’ या ’ये कौन लोग है’ सभी रचनाएं बेहतरीन है। अतिया नूर की लेखनी में परिपक्वता एवं काव्य की व्यापक समझ है। शिल्प विधान की दृष्टि से भी कविताएं आकर्षित करती हैं। संग्रह में सम्मिलित’झीनी-झीनी बिनी चदरिया’ गीत दार्शनिकता का पुट लिए हुए हैः- झूठे सारे बंधन हैं और झूठे रिश्ते नाते हैं/मैं हूँ तेरी, तू है मेरा ,सब किस्सों की बातें हैं/चार दिनों का खेल-तमाशा, चार दिनों का मेला है/आते वक़्त अकेला था तू, जाते वक़्त अकेला है/पल दो पल है यहां ठहरना दुनिया जैसे ढाबा जी/मन में हो गर मैल तो फिर क्या जाना काशी-काबा जी। पुस्तक में कहीं-कहीं प्रूफ़ सम्बन्धी त्रुटियां हैं। इसके अतिरिक्त एक रचना को मात्र एक पृष्ठ में समेट देने के लिए पुस्तक के मुद्रण में अलग-अलग फ़ॉण्टृस साइज़ का प्रयोग प्रकाशक ने किया है, पढ़ने के दौरान पाठक को कुछ असुविधा-सी होती है। कुल मिलाकर ’आईना-ए-हयात’ एक अतिया नूर का पठनीय एवं अत्यन्त सराहनीय काव्य-संग्रह है। रवीना प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 90 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।


 मनोभावों को अभिव्यक्त करतीं कविताएं    


  

डॉ. मधुबाला सिन्हा के कविता-संग्रह ‘पहली बून्द’ में उनकी 64 कविताएं संग्रहीत हैं। इन कविताओं में कवयित्री द्वारा वर्तमान सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को उभारने की चेष्टा की गयी है। कविताएं समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई संवाद और संघर्ष करती सी प्रतीत होती हैं। अधिकतर रचनाएं आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियां, संवेदनाएं, उसका अलगाव जैसी अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुंचाती है। जीवन की विसंगतियां, मानव मन की गुत्थियां, अंतर्मन की पीड़ाएं, नारी-मन की व्यथा एवं आज के सरोकार आदि का चित्रण भी संकलन की कविताओं में किया गया है। कविताओं में जीवन की विषमता एवं विवशता, निराशाएं तथा कुण्ठाएं, समाज की पुरानी रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति क्षोभ एवं आक्रोश परिलक्षित होता है। साथ ही, प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएं भी हैं। कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कथ्य की दृष्टि से रचनाओं में विविधता परिलक्षित होती है। 

 कविता-संग्रह में ‘रेशमी लड़की’, ‘रिश्ता’, ‘स्वप्न’ जैसी स्त्री-विमर्श की रचनाएं भी सम्मिलित हैं। कवयित्री का मानना है कि ‘कविता चाहे वह देश की हो, दर्द की हो या फिर छटपटाते-तड़पते दिलों की हो, वह नारी की ही आवाज़ है। नारी वर्ग के प्रति समाज की पूर्वपोषित परम्पराओं से विद्रोह की भावना इन रचनाओं में स्पष्ट रूप से इंगित होती है तथा नारी-मन की व्यथा को उजागर करने में रचनाकार को सफलता मिली है।  शिल्प की दृष्टि से संकलन की कविताएँ अतुकान्त एवं छन्दहीन हैं। लेखन में सरल एवं सहज शब्दों का प्रयोग किया गया है। शब्दों में कृत्रिमता एवं आडम्बर नहीं झलकता है। यद्यपि, अनेक रचनाओं में व्याकरणिक एवं वर्तनीगत त्रुटियां परिलक्षित होती हैं। ध्यातव्य है कि साहित्यिक सृजन हेतु काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान भी रचनाकार के लिए अत्यावश्यक होता है। संकलन के शीर्षक में प्रयुक्त ‘बून्द’ शब्द ही वर्तनीगत रूप से त्रुटिपूर्ण है। इस पर दृष्टि जाते ही लेखक एवं प्रकाशक का भाषा एवं वर्तनी ज्ञान पाठक के समक्ष स्वयमेव उजागर हो जाता है। फिर भी, महिला लेखन के क्षेत्र में कवयित्री का यह प्रयास स्वागत योग्य है तथा रचनाशीलता सराहनीय है। 64 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 100 रूपये है, जिसका प्रकाशन नवारम्भ, पटना ने किया है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित)


मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

बुद्धिसेन ने शब्दों को नगीने की तरह पिरोया: प्रो. फ़ातमी

‘बुद्धिसेन शर्मा जन्मोत्सव-2022’ में जुटे कई महत्वपूर्ण साहित्यकार

कई पुस्तकों को हुआ विमोचन, तीन लोगों को किया गया सम्मानित



प्रयागराज। बुद्धिसेन की गजल सुनना पूरे काल खंड को सुनना होता है। उनकी पुस्तक ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ उनके व्यक्तित्व को बताती रहेगी। यह उद्गार मशहूर गीतकार यश मालवीय ने उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र के प्रेक्षागृह में दिया। गुफ़्तगू संस्था के तत्वावधान में दिवंगत शायर बुद्धिसेन शर्मा का जन्मोत्सव उनके जन्म दिवस पर 26 दिसंबर को  मनाया गया। इस अवसर पर बुद्धिसेन शर्मा की पुस्तक ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ के काव्य संग्रह ‘सोंधी महक’ और गुफ़्तगू के नये अंक का विमोचन भी किया गया। वरिष्ठ शायर डॉ. असलम इलाहाबादी, वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र और शायरा अना इलाहाबादी को ‘बुद्धिसेन शर्मा सम्मान’ से नवाजा गया।

 कार्यक्रम में गीतकार यश मालवीय ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा गंगा जमुना तहजीब के जिंदा मिशाल थे। उनकी गजलों को सुनना ऐसा लगता है कि पूरा एक काल खंड को सुन रहे हैं। वो इलाहाबाद के इतिहास पुरूष रहे हैं। शर्मा जी गजल में ही रहते जीते थे। इश्क सुल्तानपुरी ने गुरु शिष्य परंपरा में नया आयाम दिया, यह आयोजन कराकर वह बुद्धिसेन शर्मा के श्रवण कुमार बन गए। दरअसल लेखक की असल जिंदगी उसकी मौत के बाद ही शुरू होती है। इम्तियाज अहमद गाजी ने बुद्धिसेन शर्मा की किताब का प्रकाशन करके उन्हें फिर से जीवंत कर दिया। अब इश्क़ सुल्तानपुरी और इम्तियाज अहमद गाज़ी पंडित जी की दो आंखे हैं। अपने अध्यक्षीय संबोधन में अली अहमद फातमी ने कहा कि हम बुद्धिसेन शर्मा को मीर तकी के समकक्ष मान सकते हैं। सादगी से शेर कहना उनकी शख़्सियत की निशानी है। जिंदगी का जो फलशफ़ा उन्हेंने सीखा वह उनकी शायरी में दिखता है। वो सादगी के साथ सामने के शब्द उठाते हैं। उन शब्दों को शायरी में नगीने की तरह पिरोते थे। सर से पांव तक शायर थे खुद ही उर्दू ग़ज़ल थे। उनकी शायरी में गजब की सादगी एक फकीरी थी।

 मशहूर शायर अजीत शर्मा ने अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की पुस्तक ‘सोंधी महक’ के बारे में कहा कि इनकी 28 कविताओं में गांव के ज़न जीवन को उकेरा गया है। गांव की तमाम विसंगतियों एवं आडम्बरों पर करारा प्रहार किया। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा के जन्मोत्सव का आयोजन कराने और उनकी रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने को ऐतिहासिक पहल बताया। उन्होंने कहा कि गुफ़्तगू परिवार से जुड़ने के बाद बुद्धिसेन शर्मा जी से ज्यादा जुड़ाव हुआ। उनकी गज़ल ही उनके व्यक्तित्व का बयान करती है। हमारे चाहने वाले बहुत हैं इसकी एक बानगी है। सोंधी महक गांव के जीवन से जुड़ी हुई कविता संग्रह है। 

मुख्य अतिथि पूर्व पुलिस महानिरीक्षक बद्री प्रसाद सिंह ने इश्क सुल्तानपुरी के प्रयास की सराहना की। उन्होंने गुफ़्तगू के 20 साल के सफर को मील का पत्थर बताया। इंस्पेक्टर के०के० मिश्र ‘इश्क’ सुल्तानपुरी ने उपस्थित सभी लोगों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि बुद्धिसेन शर्मा हमारे आत्मिक गुरु थे। उनकी सींख और यादों की सँजोने का सही तरीका उनकी नवीन रचनाओं का संग्रह कर उसका प्रकाशन रहा है। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने वो सारे गुर हमें सिखाते रहे जिनका उन्हें इल्म था। सीएमपी डिग्री कॉलेज की अध्यापिका मालवीय, डॉं. सरोज सिंह ने भी बुद्धिसेन शर्मा और अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की पुस्तक पर विचार व्यक्त किया। संचालन शैलेंद्र जय ने किया। 

दूसरे सत्र में अखिल भारतीय मुशायरे का आयोजन हुआ। जिसमें देशभर के शायरों ने कलाम पेश किया।ं इनमें वाराणसी के शंकर बनारसी, वेद प्रकाश शुक्ल ‘संजर’, जौनपुर से इबरत जौनपुरी, औरैया से अयाज अहमद अयाज, मशहूर व्यंग्यकार फरमूद इलाहाबादी, तलब जौनपुरी, अशोक श्रीवास्तव, अजीत शर्मा, विभा लक्ष्मी विभा, नरेश कुमार महारानी, अनिल मानव, इश्क सुल्तानपुरी, शिवपूजन सिंह, क्षमा द्विवेदी, शाहिद सफर, विवेक सत्यांशु, असद गाजीपुरी आदि शामिल रहे।


गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में

 


4.संपादकीय- विश्वस्तरीय कवि और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं

5-9. तहज़ीब के मरकज़ हैं इलाहाबाद के दायरे - अली अहमद फ़ातमी

10-15. आखि़र क्या है ‘नावक’ और उसका तीर- अजित वडनेरकर

16-24.ग़ज़लें: (अशोक कुमार ‘नीरद’, विजय लक्ष्मी विभा, मनीष शुक्ल, सरफ़राज़ अशहर, अजीत शर्मा ‘आकाश’, बहर बनारसी, संजीव प्रभाकर, अरविन्द असर, अतिया नूर, विनोद कुमार उपाध्याय ‘हर्षित’, गीता विश्वकर्मा ‘नेह’, डॉ. शबाना रफ़ीक़, सूफ़िया ज़ैदी, विवेक चतुर्वेदी, शहाबुद्दीन कन्नौजी, डॉ. फ़ौज़िया नसीम ‘शाद’, मधुकर वनमाली)

25-29. कविताए (अमर राग, यश मालवीय, अरुण आदित्य, यशपाल सिंह, डॉ. वारिस अंसारी, चंद्र नारायण ‘राजन’, केदारनाथ सविता, जया मोहन )

30-34. इंटरव्यू डॉ. एन. अय्यूब हुसैन (निदेशक- आंध्र प्रदेश उर्दू अकादमी)

35-37. चौपाल:  अच्छी शायरी के लिए नौजवानों को क्या करना चाहिए ?

38-43. तब्सेरा (आधुनिक भारत के ग़ज़लकार, बारानामा, रहगुजर, पत्थर के आंसू, सुरबाला, वाह रे पवन पूत)

44-45. उर्दू अदब (सहरा में शाम, निकाह)

46. गुलशन-ए-इलाहाबाद: डॉ. राज बवेजा

47. ग़ाज़ीपुर के वीर: राजेश्वर सिंह

48-51. अदबी ख़बरें


52-84. परिशिष्ट-1: नरेश कुमार महरानी

52. नरेश कुमार महरानी का परिचय

53-54. नए प्रतीकों और नए तरीकों का इस्तेमाल - इश्क़ सुल्तानपुरी

55. महरानी की ग़ज़लें: भोले मन की बातें - मासूम रज़ा राशदी

56-57. रोम-रोम में भरी सृजनात्मकता - रचना सक्सेना

57-84. नरेश कुमार महरानी की ग़ज़लें


85-113. परिशिष्ट-2: रामशंकर वर्मा

85. रामशंकर वर्मा का परिचय

86. अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता - डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

87-88. कलात्मक ढंग से कविता रचने वाले कवि- शैलेंद्र जय

89-91. अंतरमन की बेचैनी और द्वंद्व - नीना मोहन श्रीवास्तव

92-113. रामशंकर वर्मा की कविताएं


114-144. परिशिष्ट-3: डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’

114. डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’ का परिचय

115-116. असमानता पर प्रहार करती कविताएं - शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’

117-118. भाषायी आडंबर से दूर जीवन की रचना - प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम्’

119-120. मानवीय अनुभव और उसके सूक्ष्तम निहितार्थ - सरफ़राज आसी

121-144. डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’ की कविताएं