शनिवार, 21 जून 2025

           बच्चों के किरदारसाज़ नदीम अंसारी

                                                                                 - डॉ. वारिस अंसारी 


 

 डॉक्टर बनना आसान है लेकिन बच्चों का डॉक्टर बनना बहुत कठिन काम है। क्योंकि बच्चे कुछ बता नहीं सकते, उनकी हालात का जायज़ा लेकर ही उन्हें समझा जा सकता है। इसी तरह कहानीकार वह भी बच्चों का कहानीकार एक बड़ी सिफत का मालिक होता है। लेखक को बच्चों के तर्जे अमल को करीब से खंगालना होता है। उनके एहसासात समझने पड़ते हैं। उनके दुख सुख को जानना होता है। तब कहीं जाकर बच्चों के लिए कुछ लिखा जा सकता है  नदीम अंसारी ने बच्चों को बहुत करीब से देखा-समझा और उनका अध्ययन किया है, तब कहीं उनकी मेहनत ‘सुनहरा कलम’ की शक्ल में मंजरे आम पर आ पाई। बच्चों के लिए बहुत पहले से अदबी कहानियां लिखी जाती रही हैं लेकिन उनमें वह सब नहीं है जो आज के बच्चों की ज़़रूरत है। नदीम अंसारी ने आज के बच्चों के मेज़ाज को परखा और समझा तब उन्होंने बच्चों के लिए अपना कलम उठाया ताकि इन कहानियों को पढ़ कर बच्चे दर्स हासिल कर सकें। ‘सुनहरा कलम’ में 24 कहानियां हैं, जिनमें ‘साबरह’ एक ऐसी कहानी है जो दो अलग-अलग मज़हब के मानने वालों पर मुन्हसिर है, और ये कहानी हिदोस्तानी तहज़ीब और कौमी यकजहती की नुमाइंदगी करती है। इसी मजमूआ (संग्रह) में ‘नेकी की राह’ से बच्चों में हमदर्दी का जज़्बा पैदा किया जा सकता है । 

 नदीम की ज़बान में बला की सादगी है, सलासत है। इनकी कहानियां पढ़ने में एक अलग का लुत्फ आता है। नदीम अंसारी दुनिया में भले ही न हों वह अदब में आज भी जिंदा हैं। उनके छोटे भाई मो. इरशाद की लगन और इरफान अहमद अंसारी की मेहनत ने उनकी कहानियों को मंजरे आम पर ला कर एक बड़ा काम किया है। यकीनन इस अदबी काम से मरहूम नदीम की रूह को तस्कीन ज़रूर मिली होगी। दुआ है अल्लाह उनको गरीके रहमत करे ।

 इस मामूली से कालम में उनकी कहानियों पर तब्सेरा करना आसान नहीं है। उनकी कहानियों में सब एक से बढ़ कर एक कहानी हैं। ‘फुलवारी’, ‘इंसाफ’, ‘झूठा ख़्वाब’, ‘अटूट रिश्ते’, ‘नई जिं़दगी’ जैसी तमाम कहानियां पढ़ने के लायक हैं जिनका सीधा असर दिलो दिमाग पर पड़ता है। हार्ड जिल्द के साथ 160 पेज की इस किताब को मीनाई ग्राफिक्स , तारैन जलाल नगर, शाहजहांपुर कंपोज करा कर रोशन प्रिंटर्स दिल्ली से सन 2022 में प्रकाशित किया गया। किताब की कीमत मात्र 250 रुपए है ।

एक अज़ीम शख़्सियत दिल शाहजहांपुरी



  ये बात बिलकुल सच है कि हर ज़िंदा और बेदार कौम अपने पुरखों को याद करती हैं। और जिसने अपने पुरखों को भुला दिया तो समझें उसने अपनी नस्लों को मिटा दिया। सो अपने बुजुर्गों की याद दहानी बहुत ज़रूरी है। इस कड़ी में इरफान अहमद अंसारी का नाम लेना बहुत ज़़रूरी है क्योंकि उन्हीं की मोरत्तिब किताब ‘इरफान-ए-दिल’ का ज़िक्र होना है । इरफान को अगर अदबी दुनिया का मुजाहिद कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इन्होंने अदब में नुमाया खिदमात अंजाम दीं हैं जो कि उनके जिंदादिली और अपने पुरखों से दिलचस्पी का सुबूत हैं । 

  दिल शाहजहांपुरी पर मुरत्तिब उनकी किताब इरफान ए दिल कोई मामूली किताब नहीं और मामूली होगी भी कैसे। क्योंकि दिल शाहजहांपुरी कोई छोटा मोटा या मामूली नाम नहीं है। ये वह शख्सियत है जिसे हजरते अमीर मीनाई की शागिर्दी हासिल है। दिल शाहजहांपुरी शायरी की दुनिया का बहुत बड़ा नाम है। उन पर और उनकी शायरी पर अब तक हजारों मजमून लिखे जा चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये  कि अल्लामा इकबाल भी दिल शाहजहांपुरी की शायरी से बहुत मुतास्सिर थे। इरफान अहमद अंसारी ने भी इन्हीं बड़ों के नक्शे कदम पर चलने का काम अंजाम दिया और अपने कलम को अफसाना निगारी व मज़मून निगारी की जानिब मुंतखिब करके अदबी खिदमात को अंजाम दे रहे हैं । 

 पच्चासों लोगों से मज़मून इकट्ठा करना और फिर उन पर काम करके किताब की शक्ल देना कोई बच्चों का खेल नहीं। ये बड़े दिल और बड़े हौसला वालों का काम है। जहां ज़र और वक्त सब कुछ कुर्बान करना पड़ता है। दिन का चैन और रातों की नींद कुर्बान करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर इस तरह की किताबें मंजरे आम पर आ पाती हैं। यकीनन ये किताब तलबा के लिए बहुत ही नायब किताब है। ख़ास तौर पर स्कॉलर्स के लिए बेहद काम की किताब है। जो अदबी दुनिया के लिए मील का पत्थर साबित होगी। किताब को रोशन प्रिंटर्स देहली से कंपोज करा कर सन 2018 में एजुकेशनल पब्लिकेशन हाउस 3191, वकील स्ट्रीट , लाल कुआं, देहली 6, से प्रकाशित किया गया । 336 पेज के इस किताब की कीमत 400 रुपए है।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


मंगलवार, 17 जून 2025

उमाकांत जी के घर में दलित महिला बनाती थी खाना

उन्होंने बचपन से ही बच्चों को दी कविता लिखने-पढ़ने की ट्रेनिंग

कर्मचारी यूनियन में सक्रियता के कारण एजी ऑफिस से हुए थे निलंबित

                                                                   - डॉ. इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी

नैनीताल के एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते उमाकांत मालवीय

उमाकांत मालवीय अपने कार्य, चरित्र और स्वभाव से भी सच्चे साहित्यकार थे। उनके अंदर एक महान कवि, पिता, दार्शनिक, मंच संचालक और समाज सेवी समाहित था। उन्होंने अपने तीन बेटों को इंसानियत के लिए जीने का सबक दिया था। किसी भी बेटे पर किसी प्रकार का दवाब नहीं था। सभी ने अपने मन और रुचि के अनुसार पढ़ाई की, कविता लिखा और समाज को समझने के लिए कार्य किया। उनके अंदर समाजिक स्तर पर कोई भेद-भाव नहीं था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उनके घर में खाना बनाने महिला भी दलित वर्ग से थी। इसकी जानकारी होने पर दोस्तों और रिश्तेदारों ने ऐतराज़ जताया, कई लोगों ने उनके यहां चाय-नाश्ता करना बंद कर दिया था, लेकिन उमाकांत जी ने उस खाना बनाने वाली को निकाला नहीं। इस मामले में उनकी पत्नी भी पूरी तरह उनके साथ खड़ी थीं।

बीच में बैठी हुई हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। सबसे बाएं खड़े हैं उमाकांत मालवीय


 उमाकांत मालवीय अपने समय के जाने-माने कवि थे। देशभर के कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ के साथ-साथ मंच का संचालन भी करते थे। उनका मानना था कि कविता लिखने का प्रांरभ छंद से होना चाहिए और कविता का बेसिक ज्ञान होना चाहिए कि कविता क्या है ? जो लोेग बिना छंद को समझे ही कविता का लेखन कर रहे हैं, वे पूर्ण रूप से कभी कवि नहीं हो सकते, उन्हें सही ढंग से कविता लिखना नहीं आ सकता। कविता का प्रारंभ छंद से ही होना चाहिए, बाद में भले ही बिना छंद वाली कविता लिखें। कविता में एक मैसेज होना चाहिए, साथ ही उसमें आपका कमिटमेंट भी ज़रूरी है। उमाकांत जी के मझले पुत्र यश मालवीय बताते हैं कि हम तीनों भाइयों को वे अपनी कविताएं सुनाते थे और हमारी लिखी हुई कविता पर चर्चा करते थे। मुझे बड़े पिता जी, बसु को मझले पिताजी और अंशु को छोटे पिताजी कहकर बुलाते थे। उनका हमारे साथ पिता-पुत्र वाला संबंध नहीं था, बिल्कुल दोस्तों वाला संबंध था। वे अपने बच्चों को इसका प्रशिक्षण देते थे। छंद सिखाने के लिए शब्द बोलकर अपने बेटांे से पूछते थे कि बताओ इसमें कितनी मात्राएं हैं। कहते थे- जो सही बताएगा उसे चवन्नी मिलेगी। 

 उमाकांत मालवीय महालेखाकार ऑफिस में कार्य करते थे। कर्मचारी यूनियन में सक्रिय रहने के कारण वर्ष 1968 से 1971 तक निलंबित रहे थे। तब ख़ास तौर पर बच्चों की फीस जमा करने में उन्हें काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। यश मालवीय इस घटना को याद करते हुए बताते हैं-‘हम तीनों भाई एक तरह से कविता के पाले हुए हैं। फीस न जमा होने के कारण कई बार स्कूल से नाम भी कटा। जब कवि सम्मेलन से पारिश्रमिक मिलता था तब फीस जमा हो पाती। कई बार पिताजी 500 से 600 रुपये में पूरा कविता संग्रह लिखकर दूसरों को दे देते थे, ताकि हम लोगों की पढ़ाई चलती रहे।  

मदादेवी वर्मा और रामजी पांडेय के साथ बैठे हुए उमाकांत मालवीय।

एक बार की बात है। अंशु मालवीय के स्कूल में नामांकन के समय आवेदन-पत्र में यह भी भरना था कि आप अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर क्या बनाना चाहते हैं ? किसी ने डाक्टर, किसी ने इंजीनियर और किसी ने आईएएस आदि लिखा था। उमाकांत जी ने लिखा- ‘नेक इंसान’। उनका यह आवेदन-पत्र स्कूल की प्रार्थना-सभा में लहराकर दिखाया गया कि एक आवेदन ऐसा भी आया ह,ै जिसमें पिता अपने बेटे को नेक इंसान बनाना चाहता है।

आपस में बातचीत करते बाएं से- अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और यश मालवीय।

यश मालवीय जब हाईस्कूल में थे, तब परीक्षा का परिणाम आया तो बहुत ही सामान्य नंबर से पास हुए थे। तब डॉ. जगदीश गुप्त ने उमाकांत जी से कहा कि यश की पढ़ाई-लिखाई पर भी ज़रा ध्यान दीजिए, कविता से कुछ होगा नहीं। उमाकांत जी बोले- ‘कुछ नहीं होगा तो मेरा बेटा कविता की दिहाड़ी करेगा, गीतों की दिहाड़ी करेगा, बच्चा मेरा भूखों नहीं मरेगा।‘ आज यश मालवीय के साथ पढ़े-लिखे लोगों को कोई नहीं जानता, जबकि यश मालवीय की साहित्य के क्षे़त्र में एक ख़ास पहचान हैै। 


उमाकांत मालवीय की किताबों के कवर पेज।    

यश मालवीय की पहली कविता वर्ष 1971 में ‘दैनिक जागरण’ और ‘धर्मयुग’ में छप गई थी। इसी वर्ष पहली बार आकाशवाणी इलाहाबाद से इन्हें काव्य पाठ का अवसर मिला। तब से यह सिलसिला आज तक जारी है। मझले पुत्र बसु मालवीय का मुंबई में एक एक्सीटेंड के दौरान निधन हो गया था। छोटे भाई अंशु मालवीय कविताओं का सृजन करते हैं। उमाकांत मालवीय का 1982 में निधन हो गया था।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)   


शनिवार, 14 जून 2025

साम्प्रदायिकता एकता को समर्पित लेख

                                      - अजीत शर्मा ‘आकाश’


 

‘भारत और इस्लाम’ नामक पुस्तक पश्चिम बंगाल के लोकप्रिय लेखक रेज़ाउल करीम के लेखों का संकलन है, जो कलकत्ता के विभिन्न पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। यह लेख पराधीन भारत के समय मुसलमानों की दयनीय दशा को देखते हुए लिखे गये हैं। डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल ने इन मूल निबन्धों का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद कर उन्हें पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे हिन्दू-मुसलमान एकता के लिए समर्पित किया गया है। पुस्तक के विषय में कहा गया है कि यह देश की साम्प्रदायिक परिस्थिति में साम्प्रदायिकता को कम करने में सहायता करेगी। इन निबन्धों को भारत और इस्लाम के शत्रुओं से मुक़ाबला करने के उद्देश्य से लिखा गया है। लेखक इनमें प्रतिक्रियावादी एवं साम्राज्यवादी नीतियों वाले नेताओं की कटु आलोचना करते हुए चेतावनी देता है कि देश के मुसलमान इस प्रकार के तत्वों द्वारा किये जा रहे भ्रामक प्रचार से पथभ्रष्ट न हों। पुस्तक के माध्यम से यह प्रमुख सन्देश दिया गया है कि व्यक्ति को सर्वप्रथम परिवार से प्रेम करके देशप्रेम और विश्वप्रेम अर्थात् मानवता प्रेम की ओर बढ़ना चाहिए।

 पुस्तक में साम्प्रदायिक एकता जैसे ज्वलन्त विषय को लेकर लिखे गये कुल 22 लेख संकलित हैं। ‘भारतीय प्रथम एवं सदैव भारतीय’ शीर्षक वाले इस प्रथम लेख में स्वयं को भारतीयता की भावना से ओतप्रोत होने का सन्देश दिया गया है। ‘मै राष्ट्रीय ध्वज को प्रणाम करता हूं’ में झण्डे का सम्मान करने की बात कही गयी है। ‘इस्लाम में सहिष्णुता’ में बताया गया है कि पवित्र क़ुरआन में बहुत सी बहुमूल्य आयतें मुसलमानों को दूसरे धर्म के समर्थकों के प्रति सहनशील होने के लिए सलाह देती हैं। ‘राजकुमार दारा शिकोह का जीवन दर्शन’ शीर्षक लेख में मुसलमानों में एकता और सहिष्णुता की सीख मानने पर बल दिया गया है। “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां” जैसी रचना लिखने वाले सर मुहम्मद इक़बाल को लिखे गये एक खुले पत्र के माध्यम से पुस्तक के लेखक द्वारा उनकी राजनीति की चालबाज़ियों और झूठ के संकुचित क्षेत्र में आने की भरपूर आलोचना की गयी है। ‘मुसलमानों का क्या हित है?’ लेख में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि मुसलमान भारत के अभिन्न अंग हैं एवं भारत की समस्त महानता एवं वैभव से अपृथक रूप से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार से ‘इस्लाम में पैग़म्बर और ग़ै़र मुसलमान’, ‘निम्न वर्ग एवं मुसलमानों का कर्तव्य’, ‘महामान्य आग़ा ख़ाँ का सन्देश’, ‘धर्म एवं अन्तर साम्प्रदायिक एकता, राष्ट्रीय आदर्श’ आदि लेखों में आवश्यक बातें कही गयी हैं। पुस्तक में संग्रहीत अन्तिम निबन्ध ‘क्या इस्लाम ख़तरे में है?’के अंतर्गत लेखक ने कहा है कि यह एक कायरतापूर्ण मानसिकता है। इसमें यह भी कहा गया है कि स्वार्थी एवं चालाक नेताओं ने अपने समर्थकों के मस्तिष्कों में इस पकार का झूठा भय घुसाकर, मुसलमानों को धोखा दिया है।

पुस्तक के उद्धरणों के कुछ अंश प्रस्तुत हैं -‘प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पवित्र क़ुरआन पढ़ो एवं तुम्हें यहां वहां बहुत सी बहुमूल्य आयतें बीच-बीच में मिलेंगी जो कि मुसलमानों के दूसरे धर्म के समर्थकों के प्रति सहनशील होने के लिए सलाह देती हैं। धर्म में कोई ज़बर्दस्ती नहीं है।’ (पृ. सं.-23) 

‘धर्म को व्यक्ति की आत्मा से ही तात्पर्य होना चाहिए उसे उसके शरीर के साथ नहीं हस्ताक्षेप करना चाहिए जोकि पृथ्वी पर ईश्वर का तम्बू है। मुनष्य का शरीर वह जिस भी सम्प्रदाय से सम्बन्धित हो, प्रत्येक धर्म एवं प्रत्येक दूसरे मानव का संरक्षित हित होना चाहिए एवं हमें सभी मनुष्यों के साथ समानता, न्याय एवं बिना किसी भेदभाव के साथ बर्ताव करना चाहिए।’ (पृ. सं.-58) पुस्तक का मुद्रण एवं प्रकाशन सामान्य कोटि का कहा जा सकता है। लेखों के अन्तर्गत कहीं- कहीं ‘अनेकों’, ‘पाश्विक’ जैसी व्याकरणिक अशुद्धियां दृष्टिगोचर होती हैं। कुल मिलाकर बु़द्धजीवियों एवं आम पाठकों के लिए इसे एक पठनीय, सराहनीय एवं आवश्यक दस्तावेज़ कहा जा सकता है। प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 118 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रुपये है।


विभिन्न रंगों के अशआर का संकलन


                                        

 गुफ़्तगू पब्लिकेशन की पुस्तक-श्रृंखला के अन्तर्गत ‘अनिल मानव के चुनिंदा अशआर’ शीर्षक से लघु पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। जिसके अन्तर्गत अनिल ‘मानव’ की ग़ज़लों के प्रतिनिधि शे’र संग्रहीत किये गये हैं। इन चुने गये शे’रों के माध्यम से शायर की काव्यात्मक क्षमता एवं उसकी सृजनात्मक शक्ति का पर्याप्त परिचय पाठकों को प्राप्त होता है। संग्रहीत किये गये शे’रों को पढ़कर ज्ञात होता है कि ग़ज़लों के व्याकरण एवं उनके शिल्प पक्ष पर रचनाकार की पकड़ है। पुस्तक में संग्रहीत शे’रों का भावपक्ष एवं कथ्य भी सराहनीय है। इनके माध्यम से रचनाकार के मन में चल रहा रचनाशीलता का द्वन्द्व परिलक्षित होता है। जीवन में व्याप्त आपाधापी, भागदौड़ तथा घर-परिवार एवं देश-दुनिया की बातें इत्यादि विषयों को शब्द चित्रों के माध्यम से प्रकाश में लाया गया है। आसान शब्दावली से युक्त इन संग्रहीत शे’रों की भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य तथा जनसामान्य की भाषा है। इनमें प्रयुक्त हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी के प्रचलित एवं अति प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिसके कारण ये आम बोलचाल की भाषा के निकट के प्रतीत होते हैं। पुस्तक के अन्तर्गत संग्रहीत हर एक शे’र का अपने आप में एक अलग महत्व है, जिसके माध्यम से रचनाकार की प्रतिनिधि शायरी की झलक देखने को मिलती है। प्रस्तुत हैं इस पुस्तक के कुछ अंशः-‘जुर्म सहने वाला भी इतिहास में/कोई भी हो दोषी माना जाएगा।‘, ‘राज़ सब खोलती है मगर बाद में/ज़िन्दगी पहले से कुछ बताती नहीं।’,:ग़म की एक कहानी देकर जाता है/कुछ तो इश्क़ निशानी देकर जाता है।‘, ‘फ़ख़्र है हमें अपने देश के किसानों पर/वो अगर नहीं होते रोटियाँ नहीं होतीं।’, ‘घर बड़ा है आपका/दिल ज़रा बड़ा करो।’ 

  लेखन में भाषा-व्याकरण सम्बन्धी कुछ छोटे-मोटे दोष भी दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- सूरज के कभी आगे (वाक्य विन्यास), प्रेम की गणित, ज़िन्दगी काट लिया (लिंग दोष), ‘आपका’ के साथ ‘करो’ का प्रयोग आदि। “लुगाई’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने से ग्रामत्व दोष भी आ गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जीवन एवं समाज के अनेक रंग लिए हुए चुनिन्दा अशआर की यह पुस्तक पठनीय एवं सराहनीय है। 24 पृष्ठों की पुस्तक की कीमत 25 रुपये है।


राशदी के शेर कहने का अंदाज़ है अनूठा



  गुफ़्तगू पब्लिकेशन की सौ अशआर की पुस्तक-श्रृंखला के अन्तर्गत मासूम रज़ा राशदी के सौ शेर की पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। वस्तुत, किसी भी ग़ज़लकार की ग़ज़लों में कुछ शे’र सामान्य, कुछ अच्छे और कुछ उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। सभी ग़ज़लों में से उत्कृष्ट कोटि के चयनित शे’र उस शायर विशेष की अलग पहचान निर्मित करते हैं। मासूम रज़ा राशदी दूसरे ग़ज़लकारों के मध्य अपनी अलग पहचान रखते हैं। इनके शे’र कहने का अन्दाज़ अनूठा है। चुने गये सौ शे’रों के माध्यम से शायर की काव्यात्मक क्षमता एवं उसकी सृजनात्मक शक्ति का परिचय पाठकों को प्राप्त होता है।

  संग्रहीत शे’रों के कथ्य एवं उनमें निहित भावपक्ष पर दृष्टिपात करने पर पाठक को ज्ञात होता है कि सामाजिक विसंगतियों पर शायर की सूक्ष्म दृष्टि है। समाज के बिगड़े हुए हालात को सुधारने के लिए शायर समाज को सकारात्मक दिशा एवं अंधेरों से संघर्ष करने की प्रेरणा दे देता है। कुछ शे’रों को पढ़कर पाठक को आनन्द की अनुभूति होती है। पुस्तक के अन्तर्गत संग्रहीत हर एक शे’र का अपने आप में एक अलग स्थान है, जिनकी एक झलक देखने के लिए प्रस्तुत हैं कुछ अंशः-‘ख़ार हैं फूलों में अब इस ख़ौफ़ से/ कैसे कोई बाग़बानी छोड़ दे। .... पहले रोटी का इंतज़ाम करूं/ बाद में शाइरी भी कर लूंगा। .... अगर सवाल तिरी प्यास का है ऐ साक़ी/ मैं ख़ुद को आखि़री हद तक निचोड़ सकता हूं। .... तैरना सीख ही लेगा वो यक़ीनन इक दिन/ हो के बेख़ौफ़ जो पानी में उतर जाएगा। .... आप तो आइने में संवरते रहे/ आईना आपको देखता रह गया। .... तुमने इतना डरा दिया मुझको/ अब ज़रा सा भी डर नहीं लगता। संग्रहीत शे’रों में कुछ हल्के-फुल्के दोष भी हैं, यथा- ‘न’ के स्थान पर ‘ना’ का प्रयोग किया जाना वर्जित है। “हर मुसाफ़िर के नसीबों” जैसे अंश भाषा-व्याकरण की दृष्टि से वचन सम्ब्न्धी त्रुटि को इंगित करते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पुस्तक के सौ शेर हमारी ज़िन्दगी एवं समाज के सौ रंग लिए हुए हैं। इस प्रकार के चुनिन्दा शेरों को पुस्तकाकार में प्रकाशित किया जाना साहित्यिक दृष्टि से एक अच्छा एवं सराहनीय कार्य है। ‘मासूम रज़ा राशदी के सौ शेर’ नामक इस पुस्तक की कीमत: 20 रुपये है।


गम्भीर प्रकृति की कविताओं का संग्रह



‘सम्वेदना’ (स्व.) सन्तोष कुमार श्रीवास्तव की 65 छन्दहीन नयी कविताओं का संग्रह है, जिसका रचना-चयन एवं सम्पादन श्रीमती ऊषा किरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत रचनाएं गम्भीर सामाजिक विषयों तथा वर्तमान समाज में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं तथा अनुभूतियों पर आधारित हैं, जिनमें मानवीय मूल्यों तथा परम्पराओं के प्रति संवेदनशीलता को प्रमुख विंषय बनाया गया है। मुख्य रूप से मानव मन की प्रेम संकल्पनाओं और दार्शनिक मान्यताओं के साथ-साथ, समाज में व्याप्त विषमताओं तथा विभीषिकाओं एवं विडम्बनाओं से से उपजे ऊहापोह एवं मनुष्य की जिजीविषा का चित्रण किया गया है। आज के दौर में परम्पराओं के निरन्तर अवमूल्यन तथा मस्तिष्क मे उमड़ते वैचारिक झंझावात को इन कविताओं में दर्शाया गया है। पुस्तक में संग्रहीत कविताओं की भाषा सरल एवं सहज है, जिसके अन्तर्गत हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत हैं पुस्तक में संग्रहीत रचनाओं के कुछ अंशः-‘भावना- बिखर जाती/जैसे ही होता/सत्य से सामना।’, ‘खोज- खोजते नए आयाम/हो गए दिशा विहीन/खो गया वो आसमान/खो गयी अपनी जमीन।’, ‘कामना- प्यार की हो कल्पना/प्यार की हो साधना/प्यार ही बस प्यार हो/ज़िन्दगी की कामना।’,  ‘इन्सान से भगवान- करते जाओ कर्म/तभी बन पाओगे/आदमी/आदमी से इन्सान/इन्सान से भगवान।’ इनके अतिरिक्त अन्य कुछ अन्य रचनाओं के शीर्षक हैं- जीवन का सार, सूर्य, सामंजस्य, सच की तलाश, सम्वेदना, ज़िन्दगी आदि। कहा जा सकता है कि यह रचना संग्रह गम्भीर प्रकृति के पाठकों के लिए है। ‘सम्वेदना’ (काव्य संग्रह) पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित किया गया है, जिसकी की 150 रुपये है।


दो पाती के फूल में हैं प्रासंगिक दोहे


 

ग़ज़ल लेखन की भांति रचनाकारों के मध्य आजकल दोहा लेखन अत्यधिक लोकप्रिय हो रहा है। वस्तुत, दोहा-सृजन इतना आसान कार्य नहीं है, जितना बाहर से दिखता है। गम्भीर रचनाकार दोहा लेखन कर इसका भविष्य उज्ज्वल करने हेतु प्रयासरत हैं। इसी क्रम में नरेश कुमार महरानी द्वारा लिखित ‘दो पाती पर फूल’ शीर्षक से दोहों की एक पुंस्तक का प्रकाशन हनुआ है। पुस्तक का कथ्य विविधता लिए हुए है और इसका भाव पक्ष सराहनीय है। रचनाकार ने सामाजिक परिवेश के अनेक पक्षों पर दृष्टिपात करने का प्रयास किया है। वर्तमान समय को देखते हुए संग्रह के दोहे प्रासंगिकता लिये हुए हैं, जिनमें नवीन उपमाओं एवं मिसालों का प्रयोग किया गया है। राजनैतिक और सामाजिक विसंगतियाँ, देश, समाज, परिवार, हमारे संस्कार एवं छूटती परम्पराएं, भौतिकता की चाह, सत्ता लोलुपता, देश के गम्भीर हालात और आज की इंटरनेट संस्कृति पर प्रहार आदि रचनाओं के प्रमुख वर्ण्य विषय हैं। रचनाकार ने समाज को जिस रूप में देखा, समझा और परखा है, उसको वर्णित करने का प्रयास किया है। संग्रह की रचनाओं के कुछ अंश इस प्रकार हैं-धन कुबेर सब बढ़ गए, मध्यम बोझा जाय/निर्धन मस्त सदा दिखे, सूखी रोटी खाय।.... ताला चाभी देखिए, साथी दिखती प्रीति/इक दूजे के बिन यहां, नहिं खुलने की रीति।.... विपक्ष चुनौती ना रही, अब चिल्लाये कौन/तानाशाह जन्म लिया, सब सुख रहता मौन।.... फोन प्रयोग न कीजिए, करते कोई काज/जीवन जोखि़म में रहे, बिगड़त है सब राज।’ 

 दोहे स्थानीय भाषा मिश्रित खड़ी बोली में लिखे गये हैं, तथा इनमें दैनिक बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है। संग्रह की अधिकतर रचनाओं में सपाटबयानी है तथा काव्यात्मकता कहीं-कहीं पर ही झलकती है। अच्छा होता, यदि प्रकाशन से पूर्व संग्रह की पाण्डुलिपि किसी वरिष्ठ रचनाकार को दिखाकर उनसे इस विषय में सलाह ली जाती। कथ्य एवं वर्ण्य-विषय को दृष्टिगत रखा जाए, तो संग्रह को सराहनीय कहा जा सकता है। रचनाकार की लेखनधर्मिता तथा सृजनशीलता सराहनीय है। नरेश कुमार महरानी की इस सजिल्द पुस्तक की कीमत मूल्यः 250 रुपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।


राधा एवं कृष्ण भक्तिपरक रचनाएं


‘अच्युतम केशवम’ नामक लघु पुस्तक कामिनी कृष्णा भारद्वाज द्वारा लिखित है। इसमें कुल 29 भक्ति रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन्हें भजन कहा जा सकता है। अधिकतर रचनाएं राधा एवं कृष्ण भक्ति तथा वृंदावन से सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त भगवान शिव एवं गणेश की स्तुतिपरक रचनाएँ भी हैं। पुस्तक के शीर्षक अच्युतम केशवम में ‘म’ के नीचे हलन्त (्) नहीं लगाया गया है, जिसे वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध कहा जाएगा, क्योंकि अपने मूल रूप में संस्कृत भाषा के शब्दों अच्युत एवं केशव को द्वितीया विभक्ति, एकवचन के रूप में प्रयोग किया गया है, जिनका संस्कृत स्वरूप अच्युतम् केशवम् है। हलन्त (्) चिह्न किसी वर्ण के आधे होने का संकेत देता है। प्रेम तथा भक्ति के वशीभूत कृष्णमय हो जाने की चाहत को इस पुस्तक की मुख्य विषयवस्तु बताया गया है। लेखिका के अनुसार प्रभु तक पहुंचने के लिए केवल भक्ति मार्ग ही है। इसी कारण हर कविता में कृष्ण एवं राधा रानी को पाने की पुकार करते हुए अपने मन के भक्ति भावों को शब्दों का स्वरूप प्रदान किया गया है। इन रचनाओं को मन्दिरों, मठों एवं पूजाघरों में गाये जाने वाले भजनों में सम्मिलित किया जा सकता है। पुस्तक में संग्रहीत कुछ रचनाओं के अंश प्रस्तुत हैं -जीवन को नया मोड़ दो-‘हृदय के सागर में भक्ति रंग घोल दो/भक्ति के सहारे जीवन को नया मोड़ दो।’ मोहन राधे संग आ जाओ- ‘मां एक बार फिर राधा बन कर आओ/इस दुनिया को तुम प्रेम का पाठ पढ़ाओ/कान्हा के साथ तुम्हें फिर से आना होगा/संसार से इस नफरत को मिटाना होगा।’

 तकनीकी दृष्टि से यह लघु पुस्तक सुन्दर कलेवर तथा अनुपम साज-सज्जा से युक्त है। मुद्रण हेतु अच्छे एवं महंगे आर्ट पेपर का प्रयोग किया गया है। हर एक पृष्ठ पर राधा एवं कृष्ण के विभिन्न आकर्षक चित्र हैं। 30 पृष्ठों की इस भव्य एवं आकर्षक गेट अप वाली इस लघु पुस्तक का मूल्यः 250 रुपये है।

कर्ण के जीवनवृत्त का ख़ास चित्रण


 

पुस्तक ‘अविजित कर्ण’ के कृतिकार रामलखन शुक्ल हैं। यह महाकाव्य है, जिसे 18 सर्गों में विभक्त किया गया है। प्राचीन ग्रन्थ महाभारत से कथानक ग्रहण कर उसके एक प्रमुख पात्र कर्ण के जीवनवृत्त को चित्रित कर इस कृति का प्रणयन किया गया है। काव्यशास्त्र के अन्तर्गत महाकाव्य के कुछ लक्षण बताये हैं, जिनके अनुसार इसमें अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छन्द में की जाती है। इसके अतिरिक्त महाकाव्य के प्रारम्भ में आशीर्वाद, देवस्तुति या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है।‘अविजित कर्ण’ कृति में रचनाकार ने महारथी कर्ण को उदात्त गुणों से सम्पन्न, वीर शिरोमणि, त्यागी, अजेय, सर्वगुण सम्पन्न तथा महान वचन पालक एक महान योद्धा के रूप में वर्णित किया है। उनका पराक्रम, शौर्य, दानशीलता, मैत्री भाव अद्वितीय है। 

कथानक की दृष्टि से देखा जाए तो पुस्तक में कुन्ती को दुर्वासा से गर्भ धारण की वर-प्राप्ति से लेकर पाण्डवों के स्वर्गलोक प्रस्थान तक की महाभारत की कथा वर्णित की गयी है। ‘अविजित कर्ण’ पुस्तक को दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली मिश्रित अवधी है। संस्कृत निष्ठ एवं अवधी के शब्दों के साथ ही कहीं-कहीं राज, कमतर, जलन, ईमान जैसे सामान्य बोलचाल के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। काव्य में अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। शैली रोचक एवं प्रवाहमय प्रतीत होती है। पुस्तक के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं-‘‘कर्ण पराक्रम जे सुनहिं हिय महं हर्षित होहिं/बल पौरूष लखि वीर का सबै सराहहिं ओहिं।’ कर्ण का चरित्र- ‘तजेहुं प्रान त्यागेहु नहिं संगा/कबहुं वचन कीन्हेउ नहिं भंगा/दीन्हेउ दान आइ जो मांगा/सत्य धर्म ईमान न त्यागा।’ युद्ध वर्णन- ‘बान घटोत्कच छोड़त अइसे/नभ से बरसत गोले जइसे।’   वीभत्स रस- ‘सोणित की धारा बही दिखे लास ही लास/चील गिद्ध कुरूक्षेत्र महं नोंच रहे हैं मांस।’ करूण रस- ‘रूदन विलाप चर्तुर्दक होई/दुखी उदास मलिन सब कोई।’ 

काव्य-रचना में यत्र-तत्र अशुद्धियां भी परिलक्षित होती हैं। उदाहरणार्थ नीर-बैन (पृ.-200), विनासा-घाता (पृ.- 201) जैसी तुकान्तता की अशुद्धियां। ‘तुम’ और ‘तेरे’ (पृ.-170) तथा ‘तुम्हारा’ और ‘तोहि’ (पृ.-177) का एक साथ प्रयोग जैसे सम्बोधन सम्बन्धी व्याकरण दोष भी कहीं-कहीं हैं। इसके अतिरिक्त प्यस, विषाइ, धृत, जैसी प्रूफ़ सम्बन्धी अशुद्धियां भी कहीं-कहीं हैं। अन्त में कहा जा सकता है कि समीक्ष्य पुस्तक में मुख्य रूप से कर्ण के उदात्त गुणों को चित्रित करते हुए उनका महिमा मण्डन किया गया है, जो पौराणिक तथा प्राचीन सन्दर्भों की अभिरुचि वाले पाठकों के लिए रोचक एवं पठनीय होगा। अविजित कर्ण’ पुस्तक को सरस्वती साहित्य संस्थान, अल्लापुर, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, 208 पेज की इस किताब का मूल्य 475 रुपये है।


रोचक, मनोरंजक अवधी मुक्तकों का संग्रह


 
डॉ. शम्भुनाथ त्रिपाठी ‘अंशुल’की पुस्तक ‘काऽ करबऽ‘ अवधी भाषा में रचित मुक्तकों का संग्रह है। जिन्हें आराधन, उद्वेग, संवेग, मनश्चिन्ता, समाज, राजकाज, परिवर्तन, भारत देश, आस्था, बारहमासा, तथा अध्यात्म- इन एकादश तरंगों में विभक्त किया गया है। काव्यशास्त्रानुसार चार पंक्तियों के मुक्तक के अन्तर्गत एक अनुभूति, एक भाव या कल्पना का चित्रण होता है तथा इनका वर्ण्य विषय अपने में पूर्ण होता है। प्रस्तुत मुक्तक संग्रह की रचनाएँ अन्तर्मन के द्वंद्व को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं तथा एक आम आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियों संवेदनाओं, जैसी अनेक अभिव्यक्तियाँ को प्रदर्शित करती हैं। अधिकतर मुक्तकों में रचनाकार परम्परावादी तथा रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करता हुआ-सा प्रतीत होता है। अहिरे कऽ मीत बनावइ, नाऊ ठाकुर बड़ा छतीसा, पंडित बीच बजार बइठि जूता बेंचइं/फूँकइं शंख चमार बतावऽ काऽ करबऽ, ध्वस्त भई सब वर्ण व्यवस्था काऽ करबऽ, करइ न बाभन सन्ध्या वन्दन काऽ करबऽ/माथे नाहीं टीका चन्दन काऽ करबऽ आदि पंक्तियों में रचनाकार द्वारा जातिवाद एवं रूढ़िवाद का समर्थन दृष्टिगत होता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं कारणों से पुस्तक का रचनाकार वर्तमान सत्ताधारियों का गुणगान करते हुए सत्तापक्ष के सम्मुख नतमस्तक सा होता हुआ प्रतीत होता है, यथा- “पी.एम. मोदी जुगुति लगाएनि काऽ करबऽ/सारी जनता कऽ समझाएनि काऽ करबऽ। जोगी बाबा हाथ लगाएनि काऽ करबऽ/सुदृढ़ व्यवस्था सबइ कराएनि काऽ करबऽ।“ “ बसपा, सपा काँग्रेसी खपतुलहवास भें/मोदी अमित साह जउ होकइं काऽ करबऽ। जैसी पंक्तियाँ साम्प्रदायिक भावनाओं का पोषण करती-सी प्रतीत होती हैं। शिल्प की दृष्टि से रचनाकार ने छन्दविधान का पूर्णरूपेण पालन किया है, जिससे छन्दों में लय, प्रवाह एवं गतिशीलता निरन्तर विद्यमान रहती है। 

    बोए बबुर तऽ आम न खाये, मूड़ मुड़उतइ बरसइ ओला, बालू से केउ भीत बनावइ, दूर कऽ ढोल सुहावन, जान जाइ न जाये दमड़ी, मूस भवा लोढ़ा मुटाइ के, आँखि कऽ आँन्हर नाम नयनसुख, चोर-चोर मउसेरे भाई,, सूप बोल बोलइ तऽ तन्निउ अनुचित नाहीं/अब तऽ बोलइ छेदही चलनी काऽ करबऽ आदि मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी अधिकतर स्थानों पर किया गया है। इसके अतिरिक्त गदेला, लतखोर, धुँआधार, चौचक, चूतिया, लबार दहिजराए खपतुलहवास आदि ठेठ आंचलिक शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। पंक्तियों में कहीं-कहीं ‘ग्राम्यत्व’ एवं ‘अश्लीलत्व’ दोष भी आ गया है, जिससे बचा जा सकता था (पृ.-102, मुक्तक-14)।

कुल मिलाकर पुस्तक रोचक एवं व्यंग्यात्मक शैली में है, जिसे अवधी भाषा-भाषी पाठक अधिक रुचिपूर्वक पढ़ना चाहेंगे। प्रभाश्री विश्वभारती प्रकाशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित साहित्यकार डॉ. शम्भुनाथ त्रिपाठी ‘अंशुल’ के अवधी मुक्तक काव्य “काऽ करबऽ“  का मूल्यः 250 रुपये है।


 भोजपुरी साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास


 

 हिन्दी लघुकथा लेखन की भांति भोजपुरी रचनाकार भी इस विधा को समृद्ध करने के लिए निरन्तर प्रयासरत हैं। भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा एवं बोली है, जो मुख्य रूप से पश्चिम बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘अनहद’उनकी सत्तर भोजपुरी लघुकथाओं का संग्रह है, जिनके माध्यम से घर-परिवार, गांव, समाज की छोटी-छोटी घटनाओं आदि का यथार्थ चित्रण करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत ‘गूँज’ एवं ‘नयतनतारा’ आदि लघुकथाओं के माघ्यम से समाज में पति के सामने पत्नी की स्थिति तथा उस पर लगाये गये लांछनों एवं प्रताड़ना को चित्रित करते हुए स्त्री विमर्श को रेखांकित किया गया है। ‘तेरहवीं’ शीर्षक लघुकथा में बेटे की दृष्टि पिता की मृत्यु पर न होकर उनके द्वारा बनाये गये मकान पर रहती है। ‘लखपतिया’ समाज में व्याप्त नौकरी में ऊपरी आमदनी जैसे भ्रष्टाचार को चित्रित करती है। ‘तियना’ लघुकथा में कोरोना काल की त्रासदी की ओर संकेत किया गया है। इनके अतिरिक्त ‘रिस्ता’, ‘राजनीति’, ‘जमाना’, ‘आजु के नारी’, ‘बाँझ’, ‘नोकरी’, ‘कराटे’, ‘लभ इन’, ‘बेरोजगारी’ आदि कुछ प्रमुख लघुकथाओं के शीर्षक हैं, जिनसे इन कथाओं की विषयवस्तु ध्वनित होती है। अनेक लघुकथाएँ स्त्री विमर्श, परिवार में वृद्धजनों की स्थिति, सामाजिक संरचना की विकृतियों एवं विसंगतियों को रेखांकित करती हैं। कुछ लघुकथाएँ अनावश्यक विस्तार के कारण छोटी कहानी जैसी प्रतीत होती हैं। वस्तुतः आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक प्रमुख विशेषता है। इस दृष्टि से कुछ रचनाओं में फालतूपन-सा आ गया प्रतीत होता है। बावजूद इसके अधिकतर लघुकथाओं का प्रस्तुतीकरण रोचक एवं भावपूर्ण बन पड़ा है। सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 88 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 225 रुपये है।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 24 मई 2025

हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमाशंकर तिवारी

                                                                          - अमरनाथ तिवारी अमर 

  हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. उमाशंकर तिवारी का जन्म 31 जुलाई 1940 को ग़ाज़ीपुर जनपद के बहादुरगंज में हुआ था। इनकी शुरूआती शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनकी प्रतिभा से चकित होकर तत्कालीन उप-विद्यालय निरीक्षक कृष्ण बिहारी अस्थाना ने प्रांथमिक नाम पांचवीं कक्षा में लिखाने का आदेश दे दिया था। विद्यार्थी जीवन से ही ये प्रतिभावान एवं मेधावी थे। इन्होंने छठवीं से आठवीं तक की शिक्षा जूनियर हाईस्कूल बहादुरगंज, फिर नवीं और दसवीं की शिक्षा गांधी स्मारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बहादुरगंज से पूरी की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए ग़ाज़ीपुर शहर स्थित सिटी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लेकर वर्ष 1955 में यहीं से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी, अंग्रेज़ी एवं संस्कृत विषय के साथ वर्ष 1957 में सतीशचंद्र कॉलेज, बलिया से स्नातक किया।

डॉ. उमाशंकर तिवारी

18 वर्ष की आयु में ही सिटी इंटर कॉलेज में अध्यापन करने लगे। एक वर्ष पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में एम.ए. की कक्षा में प्रवेश ले लिया। उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। हिन्दी विभाग अत्यंत समृद्ध था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. जगन्नाथ शर्मा, पं. करुणापति त्रिपाठी, डॉ. श्रीकृष्ण लाल और प्रो. विद्याशंकर मल्ल हिन्दी विभाग से जुड़े थे। ऐसे आचार्यों में डॉ. उमाशंकर तिवारी को संस्कारित एवं प्रशिक्षित किया। ये आचार्य द्विवेदी के प्रिय शिष्यों में थे। आचार्य द्विवेदी के सन्निध एवं मार्गदर्शन में ही इनकी काव्य प्रतिभा परवान चढ़ीं।

  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात इन्होंने ज़मानियां, ग़ाज़ीपुर, रानीपुर-आज़मगढ़ में अध्यापन किया। तत्पश्चात डी.सी.एस.के. महाविद्यालय मउ में हिन्दी विभाग से जुड़े। इसी महाविद्यालय से वर्ष 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर की विद्या परिषद एवं शोध समिति के संयोजक भी रहे। ‘छायादवोत्तर गीत-काव्य के शिल्पगत विकास’ विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत कर वर्ष 197ं4 में काशी विद्यापीठ के डॉ. शंभुनाथ सिंह के निर्देशन में पी.एच-डी. किया। वर्ष 1969 से 2001 तक उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े रहकर डॉ. तिवारी ख़्याति व यश अर्जित किया।

 डॉ. उमाशंकर तिवारी की गणना नवगीत के चर्चित हस्ताक्षर और व्याख्याता के रूप में अत्यंत सम्मान के साथ की जाती है। नवगीत के उन्नायक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने अपने अंतिम समय में इनकी इमानदार सृजनशीलता पर विश्वास करते हुए ‘नवगीत’ के विकास के अधूरे पड़े कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंप दी थी।

 वर्ष 1968 में इनका पहला नवगीत संग्रह ‘जलते शहर में’ प्रकाशित हुआ। वर्ष 1968 में ‘तोहफं कांच घर के’ प्रकाशित हुआ। इस नवगीत संग्रह के लिए प्रधानमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निराला पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया। इसी कृति के लिए इन्हें डॉ. जगदीश गुप्त द्वारा डॉ. शंभुनाथ सिंह नवगीत पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1996 में ‘धूप कड़ी है’ प्रकाशित हुआ। 

 इनका शोध प्रबंध ‘आधुनिक गीत काव्य’ वर्ष 1997 में प्रकाशित हुआ। इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया। जिनमें प्रमुख है- नवगीत के प्रतिमान और आयाम, गद्य-विधिक़़ा, कथा यात्ऱा, कथा सेतु, समकालीन काव्य, नवलेखन की पत्रिका-पूर्ण। 

  कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित डॉ. उमाशंकर तिवारी ने हिन्दी नवगीत को महत्तर उंचाई प्रदान की। शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। डॉ. तिवारी का निधन 28 अक्तूबर 2009 को हो गया, लेकिन आपने नवगीतो के माध्यम से वे आज भी जीवित हैं।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 22 मई 2025

 गुफ़्तगू का कार्य अप्रत्याशित है: राजेंद्र गुप्ता

‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ में प्रतिभावान लोगों को  मिला अवार्ड


राजेंद्र गुप्ता

प्रयागराज। आमतौर पर साहित्यिक संस्थाएं बनती हैं, कुछ ही दिनों में टूट जाती हैं। क्योंकि अधिकतर मामलों में लोगो कें इगो हर्ट होने लगता है। मगर, प्रयागराज में गुफ़्तगू लगातार 23 वर्षों से संचालित हो रही है, यह बहुत बड़ी बात है, यह अप्रत्याशित है। पूरे देश से प्रतिभावानों का चयन करके प्रत्येक वर्ष सम्मानति किया जाना अपने-आप में बहुत बड़ा काम है। प्रयागराज में आकर इस तरह आयोजन देखना मुझे ही अच्छा लगा। संस्था के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अपनी कार्यकुशलता से यह काम करके मिसाल कायम किया है। यह बात 19 मई 2025 को मुट्ठीगंज स्थित आर्य कन्या इंटर कॉलेज में आयोजित ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ के दौरार मशहूर फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी राजेंद्र गुप्ता ने कही।

सीमा अपराजिता अवार्ड ग्रहण करती अलका सोनी

कार्यक्रम की भूमिका प्रस्तुत करते हुए डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हमने एक टीम बनाने बनाकर साहित्य को समर्पित काम किया है। हमेशा से कोशिश रही है कि अच्छे कार्य करने वालों का सम्मान किया जाए, ताकि अच्छे कामों का प्रोत्साहन मिले।

कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रतिभान त्रिपाठी


कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रोहिताश्व कुमार वर्मा


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड करती डॉ.शहनाज़ ज़ाफ़र बासमेह

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए न्यायमूर्ति  क्षितिज शैलेंद्र ने कहा कि इस कठिन दौर में इमानदारी के साथ गुफ़्तगू ने बहुत ही परिश्रम से अपने-आपको खड़ा किया हैै। यह कार्य अपने आपमें अतुलनीय है।

न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र


न्यायमूर्ति अशोक कुमार


डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि साहित्यिक आयोजन की रूपरेखा तैयार करके उसे करके दिखा देना बड़ी बात है, यह काम टीम गुफ़्तगू ने करके दिखा दिया है। सिविल डिफेंस के चीफ वार्डेन अनिल कुमार ‘अन्नू भइया’ ने कहा कि प्रयागराज इलाहाबाद बहुत ही अच्छा कार्य कर रही है। इससे अन्य लोगों को भी सबक लेना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, शिक्षाविद् पंकज जायसवाल और पूर्व एडीशनल एडवोकेट जनरल क़मरुल हसन सिद्दीक़ी, नरेश कुमार महरानी, ने भी विचार व्यक्त किया। इस अवसर ‘गुफ़्तगू’ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

अनिल कुमार उर्फ़ अन्नू भइया


पंकज जायसवाल


मुनेश्वर मिश्र

 दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। हकीम रेशादुल इस्लाम, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, प्रभाशंकर शर्मा, मासूम रज़ा राशदी, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, नीना मोहन श्रीवास्तव, अनिल मानव, राजेश राज जौनपुरी, अर्चना जायसवाल ‘सरताज’, शिवाजी यादव, अफसर जमाल, शैलेंद्र जय, मधुबाला गौतम, राम नारायण श्रीवास्तव, सिद्धार्थ पांडेय, भारत भूषण वार्ष्णेय, दयाशंकर प्रसाद, उत्कर्ष मालवीय, कमल किशोर कमल आदि ने काव्य पाठ किया।

 

गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक का हुआ विमोचन

इन्हें मिला अवार्ड

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी - अकबर इलाहाबादी अवार्ड


कुलदीप नैयर अवार्ड -

रोहिताश्व कुमार वर्मा (दैनिक जागरण-मुजफ्फरनगर),

रतिभान त्रिपाठी (राजनैतिक संपादक-देशबंधु)

दिनेश सिंह (टीवी-9)

अचिन्त्य रंजन मिश्र (आज)


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड -

डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह (औरंगाबाद, महाराष्ट्र)

डॉ. कामिनी व्यास रावल (उदयपुर)

निरुपमा खरे (भोपाल)

वंदना रानी दयाल (ग़ाज़ियाबाद)


कैलाश गौतम अवार्ड -

अविनाश भारती (मुजफ्फरपुर)

विनोद कुमार विक्की (खगड़िया)

डॉ. आकांक्षा पाल (प्रयागराज)

डॉ. संतोष कुमार मिश्र (प्रयागराज)


उमेश नारायण शर्मा अवार्ड-

एडवोकेट रोहित पांडेय

एडवोकेट सत्येंद्र सिंह

एडवोकेट सय्यद आफ़ताब मेंहदी

एडवोकेट अमरेंद्र कुमार मिश्र 


डॉ.सुधाकर पांडेय अवार्ड-

अलीशेर राईनी ‘भोलू’ (मरणोपरांत, दिलदानगर)

विनय राय ‘बबुरंग’ (ग़ाज़ीपुर)

संतोष कुमार शर्मा (ज़ामानिया)

मोहम्मद आरिफ़ अंसारी (प्रयागराज),


सीमा अपराजिता अवार्ड-

डॉ. प्रीता पंवार (फरीदाबाद)

डॉ. ऋषिका वर्मा (पौड़ी गढ़वाल)

अलका सोनी (बर्नपुर, पश्चिम बंगाल)

ज्योति सागर सना (दिल्ली)


मिल्खा सिंह अवार्ड-

ज़हीर हसन (फुटबाल)

प्रो. राकेश कुमार नायक (बॉक्सिंग)

भास्कर चंद्र भट्ट (बॉक्सिंग)

रणविजय सिंह (शॉटफुट थ्रोवर)


गुफ़्तगू अवार्ड-

अनुराग मिश्र (लखनऊ)

बसंत कुमार शर्मा (जबलपुर)

सरफराज हुसैर फराज (मुरादाबाद)

डॉ. रामावतार सागर (कोटा)

सुशील खरे ‘वैभव’ (पन्ना)

मंजुलता नागेश (प्रयागराज)



बुधवार, 14 मई 2025

1929 से निकली ‘माया’ पत्रिका देशभर में छा गई

मनोहर कहानियां’, ‘सत्यकथा’ और ‘गंगा-जमुना’ भी यहीं से निकलीं 

इसकी सफलता को देखकर ही हिन्दी में शुरू हुई ‘इंडिया टुडे’ 

                                                                               - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 इलाहाबाद जो अब प्रयागराज है। यहां से पत्रिकाओं और अख़बारों का प्रकाशन नेशनल लेवल पर होता रहा है। पब्लिकेशन का हब तो यह शहर रहा ही है, इसके साथ ही पत्रिकाओं और अख़बारों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। मित्र प्रकाशन, पत्रिका हाउस और इंडियन प्रेस प्रमुख रूप से अपनी ख़ास पहचान रखते थे। ख़ासतौर पर मित्र प्रकाशन से निकलने वाली पत्रिका ‘माया’ ने अपनी अलग पहचान और हनक बनाई थी, जिसके किस्से आज भी वरिष्ठजन बड़ी शान से सुनाते हैं। मित्र प्रकाशन से ‘माया’ के अलावा भी कई पत्रिकाएं और अख़बार निकलते थे, लेकिन माया ने राजनैतिक ख़बरों की दुनिया में जो छाप छोड़ी है, उसे क्रास करना आज भी लगभग नामुमकिन ही लगता है। उन दिनों पूरे देश में ‘माया’ की लगभग चार लाख प्रतियां बिकती थीं।

लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके मित्र प्रकाशन के ऑफिस को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। प्रयागराज के मुट्ठीगंज स्थित इसी ऑफिस से निकलती थी माया पत्रिका।

  वर्ष 1929 में 151, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन के अंतर्गत अन्य पत्रिकाओं के साथ मासिक पत्रिका ‘माया’ की भी शुरूआत हुई। कुछ ही दिनों बाद 151, मुद्ठीगंज की जगह इसके सामने वाली बिल्डिंग 281, मुद्ठीगंज में यह ऑफिस स्थानांतरित हो गया। क्षितिद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपनी देख-रेख और संपादन में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारभ किया था। इनमें ‘माया’ का नाम प्रमुख रूप से आता है, क्योंकि राजनैतिक स्तर पर माया ने जो छाप छोड़ी है। उसकी कहानी और इतिहास सबसे अलग है। 

माया पत्रिका के शुरूआती अंक का कवर पेज

इस पत्रिका की हनक इतनी अधिक थी कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा और केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी तक इसके आफिस आते रहे। जब पत्रिका शुरू हुई तब देश अंग्रेज़ों की गुलामी में जकड़ा हुआ था और किसी चीज़ का प्रकाशन करके आम जनता तक पहुंचाना आसान काम नहीं था। मगर, इस माहौल में भी माया ने अपनी अलग छाप छोड़ी। वर्ष 1929 में जब इस पत्रिका की शुरूआत हुई तो इसमें सिर्फ़ कहानियां ही प्रकाशित होती थीं। इन कहानियों में मुख्यतः देश और समाज को रेखांकित करने वाली घटनाओं और यथार्थ को दर्शाया हुआ होता था। तब तकनीक के नाम पर कुछ भी नहीं था। हाथ से एक-एक अक्षर जोड़कर कम्पोजिंग होती थी। उस दौर में कई अंक ऐसे भी प्रकाशित हुए जिनमें एक भी चित्र या रेखांकन नहीं था। फोटो प्रकाशित करने की तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। किसी-किसी अंक में बड़ी मुश्किल से किसी कहानी में रेखांकन प्रकाशित हो पाता था।

मनोहर कहानियां’ शुरूआती अंक का पत्रिका का कवर पेज।

 डॉ. मुश्ताक़ अली बताते हैं कि आर्थिक तंगी के कारण शुरू के कई अंकों के छपने के बाद इसका प्रकाशन रोक दिया गया। फिर दो अंकों के विराम के बाद किसी तरह आर्थिक व्यवस्था जुटाकर प्रकाशन शुरू हुआ। विराम के बाद जब प्रकाशन शुरू हुआ तो क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपने संपादकीय में लिखा-‘बहुत समय बाद मैं आज ‘माया’ को पुनः आप लोगों के सम्मुख उपस्थित कर सका हूं। इस बीच आप लोगों के अनेक पत्र मेरे पास आये, पर उनमें से केवल कुछ का ही उत्तर दे सका। अब मैं आरंभ से ‘माया’ की कहानी आपको सुनाता हूं। इसके अवलोकन से आप लोगों को उसके कुछ समय तक बंद रहने और प्रारंभ से ही विलंब से निकलने का कारण ज्ञात हो जाएगा। बीस वर्ष की आयु में मैंने भविष्य की चिंता किये बिना अपने हिन्दी-प्रेम एवं उत्साह की प्रेरणा से ‘माया’ निकाली। मेरी वन्दनीया पुत्रहीना बुआजी, जिन्होंने तीन साल की अवस्था से ही निज संतानवत मेरा लालन-पालन किया था, इस अवसर पर किंचिन्त् धन द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया। मुझे भविष्य में उनसे धन प्राप्ति का पूर्ण निश्चय था। किन्तु दो ही अंक निकल पाये थे कि उनका निधन हो गया। मृत्यु के पहले दानपत्र नहीं लिख सकीं। इस कारण उनका अवशिष्ट धन पौष्यपुत्र को मिला। अब मेरे लिये धनप्राप्ति का कोई द्वार नहीं रह गया। कई दिक्कतों के बाद आज ’माया’ फिर आप के सामने प्रस्तुत हो सकी है। अब हर महीने से पहले सप्ताह में ही माया आप लोगों के पास पहुंचा करेगी।’

चित्र में बाएं से: नन्दा रानी मित्र, अशोक मित्र, आलोक मित्र, दीपक मित्र, क्षितेंद्र मोहन मित्र और बीच में बैठे हुए मनमोहन मित्र।

 प्रकाशन जारी रहा और 1986 में यह पत्रिका पाक्षिक हो गई। इससे पहले मासिक ही छपती रही। क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ के पौत्र संदीप मित्र बताते हैं-‘माया’ तब अधिक हाईलाइट हुई जब इमरजेंसी में जेपी के निधन और संघर्ष पर एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी छपी। यह स्टोरी रवींद्र किशोर ने किया था। इस स्टोरी के बाद पूरे देश में यह पत्रिका चर्चा में आ गई। इससे पहले ‘माया’ कहानियों की पत्रिका थी। रवीन्द्र किशोर के सलाह पर ही इसे राजनैतिक पत्रिका बना दी गई। जब ‘माया’ राजनैतिक पत्रिका बनी, तब आलोक मित्र प्रधान संपादक और संपादक बाबू लाल शर्मा थे।

वर्तमान समय में मित्र प्रकाशन के अंदर का दृश्य।

  निशीथ जोशी बताते हैं-’राजनैतिक पत्रिका बनाने के बाद माया में एक ख़ास स्टोरी ‘मीसा ने किसको पीसा’ छपी। उस दौरान हाजी मस्तान, युसूफ पटेल, करीम लाला समेत कई लोगों पर ‘मीसा’ लगाया गया था। यह स्टोरी बहुत ही पापुलर हुई।’ श्री जोशी का कहना है कि ‘माया’ की पापुलेरेटी को देखकर ही हिन्दी की ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका निकली। मेरे एक मित्र इंडिया टुडे में काम करते थे, वे बुलंदशहर में किसी रिपोर्टिंग के लिए गये तो लोगों ने कहा - अच्छा वह पत्रिका जो ‘माया’ की तरह निकली है। विभिन्न कारणों से वर्ष 2000 में ‘माया’ पत्रिका बंद हो गई। 


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘माया’ पत्रिका की फाइल खंगालते लाइब्रेरियन दुर्गानंद शर्मा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


 सूरज नंदा का कहना है- मित्र प्रकाशन से ही बच्चों की पत्रिका ‘मनमोहन’ का भी प्रकाशन शुरू हुआ था। इसके संपादक सत्यव्रत रॉय थे। लेकिन यह पत्रिका चल नहीं पाई। वर्ष 1975 में बंद हो गई। इस पत्रिका के चित्रकार राजा हुस्न थे। ये अपने समय के बहुत ही माने हुए चित्रकार थे। 

पूर्व केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी, पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा, मैनेजिंग डायरेक्टर आलोक मित्र और मार्केटिेग डायरेक्टर दीपक मित्र।

‘माया’ और ‘मनमोहन’ के साथ-साथ इसी प्रकाशन से ‘मनोहर कहानियां’ ‘सत्यकथा’ और साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकलीं। गंगा-जमुना के संपादक रवीन्द्र कालिया थे। ‘गुफ़्तगू’ को दिए गए एक इंटरव्यू में रवीन्द्र कालिया ने बताया था-‘पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाये। तब मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था, जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। वे इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं, जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसका उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेठ इलाहाबादी भाषा में था। जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश के साहित्य, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले कि माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करता, माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।’

 रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ संदीप मित्र।

पत्रकार शिवाशंकर पांडेय ने बताया कि इसी प्रकाशन से अंग्रेज़ी में ‘प्रोब इंडिया’ और बंग्ला में ‘आलोक पाथ’ नामक पत्रिकाएं भी निकली थीं। संदीप मित्र ने अप्रैल 2004 में दिल्ली से फिर से इसका प्रकाशन शुरू किया। फरवरी  2007 तक इसका प्रकाशन सफलतापूर्वक जारी रहा। संदीप मित्र के मुताबिक कोर्ट के आदेश पर इसको बंद कर देना पड़ा। 

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)



 

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शनिवार, 10 मई 2025

 साहित्य  का  मूल काम लोगों की सम्वेदना को उभारना है: डॉ. मुश्ताक़ अली

डॉ. मुश्ताक़ अली से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. मुश्ताक़ अली ‘माया’ पत्रिका में उप-संपादक रहे हैं। इनके कार्य के लिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र सम्मान पुरस्कार, गोस्वामी तुलसीदास सम्मान, अकबर इलाहाबादी सम्मान, बाबू गुलाबराय सम्मान और भीमसेन अलंकरण नआदि से इन्हें नवाजा जा चुका है। इनकी पहचान हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के विद्वान शिक्षक, प्रखर विचारक तथा अपने विचारों को स्पष्ट रूप से रखने लाले गंभीर वक्ता के रूप में है। आपका जन्म 15 जुलाई  सन् 1953 को राजवारी गांव, वाराणसी में हुआ है। आपने प्रारंभिक शिक्षा, अपने गांव से प्राप्त करने के पश्चात,  बीए, एमए  तथा डीफिल की उपाधि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। अब तक आपकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तक देशभर की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़़ाई जाती हैं। इनके पचास से अधिक लेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इलाहाबाद आकाशवाणी और दूरदर्शन से, साठ से अधिक आपकी वार्ताएं, परिचर्चाएं एवं साक्षात्कार प्रसारित हो चुके हैं। एक दर्जन विद्यार्थियों ने आपके कुशल निर्देशन में डीफिल की उपाधि अर्जित की है। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत पर आधारित प्रमुख अंश-


सवाल: हिंदी साहित्य की तरफ आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: दरअसल हम बनारस के रहने वाले हैं। मेरा गांव बहुत छोटा सा गांव है। उसमें हमारे ही घर में पढ़ने लिखने का माहौल था। हमारे यहां पढ़ने लिखने का माहौल अदबी न होकर इस तरीके का था कि  मस्जिद में कुरान पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। मौलवी साहब या मोअज्जिन पढ़ाते थे। बाकी माहौल, सब हिन्दी-संस्कृत का ही था। रात में भी स्कूल में पढ़ाई होती थी और खाना खाने के बाद रात आठ बजे, हम लोग स्कूल में पढ़ने चले जाते थे और दस बजे तक पढ़ते थे। टीचर साथ में रहते थे, सुबह चार बजे वो उठाते थे। लड़के उस समय नींद में रहते थे तो वो संस्कृत के श्लोक और खासकर गीता का श्लोक, त्वमामि देवः पुरुषरू पुराणा वाला श्लोक और कई श्लोक सुनाने को कहते थे, क्योंकि श्लोक याद करने से और उच्चारण करने से नींद भाग जाती थी। हिन्दी के प्रति रूझान हम लोग का गांव से ही है। यही कारण है कि हमारे बैक ग्राऊंड में हिन्दी-संस्कृत ही है।

सवाल: साहित्य का पत्रकारिता से क्या संबंध है?

जवाब: त्रकारिता दो तरह की है। एक समसामयिक पत्रकारिता है, जिसमें पत्रिकाएं वगैरह आती है और एक राजनीतिक पत्रकारिता होती है, जिसमें समाचार-पत्र मूलतः आते हैं। यद्यपि अख़बारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी साहित्य के लिए जगह होती है, लेकिन उनका मूल उद्देश्य साहित्य का विकास नहीं होता। साहित्य में खासकर साहित्य के केंद्र में सम्वेदनाएं होती हैं। मीडिया में समसामयिक घटनाक्रम होता है। मूल बात यह है कि हर घटनाक्रम के पीछे भी कोई न कोई साहित्यिक मूल्य होता है, जैसे सम्वेदना वाला। जब हम बेरोजगारी पर या महंगाई पर बात करते हैं तो ये भी पोलिटकल विषय है, लेकिन जब हम उस बेरोजगारी और महंगाई से जो परिवार गुजर रहा है, जब हम उसकी दुर्दशा दिखाने लगते हैं और उसका चित्रण करते हैं तब वह साहित्य बन जाता है। पत्रकारिता बाहरी चीज़ों को कवर करती है, जिसका सम्वेदनाओं से बहुत मतलब नहीं होता। हालांकि अख़़बारों में भी कुछ फीचर होते हैं जैसे ‘जनसत्ता’ का शुरू से मैं पाठक था। मैं देखता था, उसके फीचर बहुत अच्छे होते थे। कई बार बहुत भावनात्मक भी होते थे। आमतौर पर किसी राष्ट्रनायक के देहावसान पर, या किसी एक्सीडेंट पर, कुछ इस तरह के फीचर वगैरह आते हैं जो बड़े भावनात्मक होते हैं लेकिन आमतौर पर सदा ऐसा नहीं होता। सम्वेदनाओं का जैसे-जैसे जीवन में स्थान कम होता जा रहा है वैसे-वैसे पत्रकारिता में भी कम होता जा रहा है। केवल चीजों का तकनीकी महत्व रह गया है। पैकेजिंग का महत्व बढ़ रहा है। भारतेंदु युग में जो भी उस समय की  पत्रकारिता में था वो ही धीरे-धीरे साहित्य में आता था। उस समय की कविताएं व्यंग्य, बहुत सारे लेख, यात्रावृत्तांत हैं, वो सब साहित्य में धीरे-धीरे आये। द्विवेदी युग तक भी आता रहा। ‘सरस्वती’ का सम्पादन जो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 से 1920 तक किया, उस दौर में भी जो साहित्यिक पत्रकारिता वो करते थे वो चीजें स्थायी मूल्य की हुई और वो पाठ्यक्रमों में भी आती रही। फिर धीरे-धीरे ये कम होता गया, लेकिन अब भी पाठ्य-पुस्तकों को बनाने का या पाठ्यक्रमों को तय करने का जो तरीका होता है उसमें पत्र-पत्रिकाओं की अपनी भूमिका रहती थी। हम कोई विषय पर कोई चीज लेना चाहें तो लोग मीटिंग्स में डिस्कस करते थे कि यह अच्छी चीज वहां छपी है इसको लेना चाहिए। उस दौर की जितनी भी कहानियां हैं प्रेमचंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी वगैरह की हैं। ‘उसने कहा था’, ‘मंत्र’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहकनियां, ये सब मैगजीनों से ही तो आई हैं और धीर-धीरे साहित्य का अटूट हिस्सा बन गई। अब या तो ऐसा कुछ नहीं छप रहा है, जिसको वो उसमे डायरेक्ट ले रहे हों। इसका जो प्रसार है वो दूसरी तरह का हो गया है। इसमे कुछ विचारधारा भी आ गई है। उस विचार धारा को जो जो चीज हो, चाहे जैसी भी हो, उसको ही लेंगे। मेरिट पर चयन नहीं हो रहा है।


सवाल: तेजी से बदलते वर्तमान दौर का विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षा स्तर  पर क्या असर है?

जवाब: दिल्ली यूनिवर्सिटी में 70 से अधिक कालेज हैं। उसका मानक बहुत अच्छा था। पहले जो आनर्स का पाठ्यक्रम होता था वो बहुत अच्छा था। इंग्लिश का जो पाठ्यक्रम था उसमें देखिए अभिज्ञान शाकुंतलम,  मृच्छकटिकम और महाभारत का शांति पर्व, इस तरीके की चीजें, इंग्लिश में भी पढ़ाई जाती थीं। लेकिन धीरे-धीरे सब तब्दील हो गया। मेरा बेटा डीयू में पढ़ता था तो उसका पाठ्यक्रम जो मैंने देखा था वैसा पाठ्यक्रम मैंने कहीं नहीं देखा। बहुत अच्छा था। पुराने लोग, पढ़े लिखे लोग थे जो इनके चयन का कार्य करते थे। आजकल बोर्ड ऑफ स्टडीज में ऐसे लोग हैं जिनका कोई संबंधित अनुभव नहीं है और मनचाहे तरीके से कार्य करते हैं। जो लोग पीसीएस वगैरह का पाठ्यक्रम बना रहे हैं, उन्होने इतने अधिक उपन्यास रख दिए हैं कि बच्चे उपन्यास पढ़-पढ़ कर परेशान हो गए हैं। पहले भी उपन्यास रखे जाते थे, लेकिन मशहूर उपन्यासकारों के चुनिन्दा उपन्यास को, प्रतिनिधित्व के लिए, एक एक रखते थे। अब कोई  दृष्टि ही नहीं, सब घालमेल हो गया है। विश्वविद्यालय में सेमेस्टर सिस्टम जब से लागू हुआ है तब से पढ़ाई का माहौल बदल गया है। पहले पढ़ाई का जो वातावरण-माहौल था वो दूसरी तरह का था। परीक्षा एक होती थी और पढ़ाई साल भर होती थी लेकिन अब हर महीने, तीसरे महीने इम्तिहान है और उसका पाठ्यक्रम सब यूनिट में बंटा हुआ है। 16 जुलाई को अगर विश्वविद्यालय खुला तो 16 जुलाई से 16 अगस्त तक दो यूनिट खत्म हो जानी चाहिए और उसका इम्तिहान उसका टेस्ट हो जाना चाहिए। लेकिन होता यह है कि 16 जुलाई को विश्वविद्यालय खुल तो जाएगा लेकिन पढ़ाई नहीं होगी। एडमिशन सहित सारे कार्य होंगे लेकिन क्लास नहीं होगा। पाठ्यक्रम धीरे-धीरे पिछड़ता जाता है। पढ़ने का ही वक्त नहीं है। पहले वाला माहौल अब नहीं है। सब बदल गया है। अब लड़के नंबर बहुत पाते हैं। नब्बे फीसदी लिट्रेचर में भी पाते हैं लेकिन आता कुछ नहीं है। पहले 60 फीसदी पाने का, बहुत मतलब होता था। 

सवाल: आपने विश्वविद्यालय के छात्रों को पत्रकारिता भी पढ़ाया भी पढ़ाया है। इस दायित्व के निर्वहन के समय छात्रों की क्या प्रतिक्रिया रही ? 

जवाब:  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मीडिया वाला एक विभाग भी है, जो पहले पत्रकारिता और जनसंचार वाला विभाग था। हिंदी विभाग के अलावा तीन साल तक हमने वहां भी पढ़ाया है। हमको ‘माया’ में रहने की वजह से एडिटिंग वगैरह की जानकारी पहले से थी, उन लोगों ने हमको एडिटिंग सिखाने के लिए रखा था। बच्चों को सिखाते थे कि कॉपी कैसे हैंडिल करें और कैसे करेक्शन करें। दो तीन साल तक हमने वहां भी कार्य किया था। मेरा अनुभव उनके बारे में बहुत अच्छा नहीं रहा। उसकी वजह यह थी कि विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के छात्र, अपने पाठ्यक्रम के प्रति बहुत जागरूक और गंभीर होते है,ं लेकिन पत्रकारिता वाले छात्र, कक्षा में भी ठीक से नहीं, बल्कि मनचाहे ढंग से बैठते थे। बहुत मतलब नहीं रखते थे।  वो गंभीरतापूर्वक इस विषय को नहीं पढ़ते थे।


सवाल: आपके निर्देशन में होने वाले शोध किन विषयों से संबंधित रहे हैं। पर्याप्त संख्या में शोध होने के बावजूद, आजकल देश की महत्वपूर्ण लाइब्रेरियों में भी, शोधकर्ताओं की उपस्थिति नगण्य ही रहती है। आपकी नज़र में इसका क्या कारण है ?

जवाब: म लोगों के समय, हिन्दी विभाग में रिसर्च का रुख बदल गया था। यह विमर्शों की तरफ उन्मुख हो गया। नब्बे के दशक में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पिछड़ों का विमर्श आया। ये जो विमर्श आए उन विमर्शों ने शोध की दिशा ही बदल दी। नब्बे के बाद से ज्यादातर शोध, विमर्श पर ही हैं। जो पुरानी लाइब्रेरियां हैं उनमें विमर्श से संबंधित साहित्य नहीं है। इसका एक नुकसान यह हुआ कि ज्यादातर लाइब्रेरियां उजाड़ हो गई हैं। अब लड़कों का काम गूगल पर ज्यादा होता है। गूगल पर शोध संबंधित बहुत सी साईट है उस पर आप जाएंगे तो आपको पता चल जाएगा कि किस विश्वविद्यालय में किस विषय पर कितना शोध हो रहा है।

पहले क्या होता था कि जैसे हिन्दी अनुशीलन पत्रिका, भारतीय हिन्दी परिषद से निकलती थी। सन् 1935 में धीरेन्द्र वर्मा ने इसको शुरू किया था। इसका ऑफिस हिन्दी विभाग में था। हिन्दी अनुशीलन के बहुत सारे अंक, शोध पर निकलते  थे। पूरे देश भर भें कितने शोध कहां-कहां, किस विषय पर हुए थे, सारी जानकारी होती थी। अतः पहले मदद इस सब से ली जाती थी। इस कम्प्यूटर युग में अब हर चीज कम्प्यूटर पर है। उस पर बहुत कुछ सामग्री मिलती है लेकिन टेक्स्ट कम मिलता है। शोध करना है तो पूरा टेक्स्ट चाहिए। कम्प्यूटर पर थोड़ा-बहुत ही मिलेगा। इसलिए वो तो आपको लेना पड़ेगा शोध आधार है। बाकी जो संदर्भ वगैरह के लिए नई किताब लेनी पड़ेगी लेकिन लाइब्रेरियों में इस तरह की सामग्री, अब कम मिलती है इसलिए नये शोधकर्ताओं के लिए, ये लाइब्रेरियां अब उतनी उपयोगी नहीं रह गई  हैं। पहले शोधकर्ता को बताया जाता था कि सम्मेलन संग्रहालय जाओ। अगर आप आजकल सम्मेलन संग्रहालय जाएंगे तो शायद ही एक दो छात्र वहां आपको नज़़र आएं। हम लोग के ज़माने में, कोई भी अगर  शोध करता था तो सबसे पहले कहा जाता था, सम्मेलन संग्रहालय जाओ, वहां हर विषय पर सामग्री मिलेगी। पर अब शोध की दिशा बदल गई  है। शोध की  दिशा बदलने से पुरानी लाइब्रेरियां उजाड़ पड़ी हैं। 

सवाल: नई और निष्पक्ष विचारधारा को हिंदी साहित्य में निरंतर प्रवाहित करने के लिए आप अपने विद्यार्थियों को कैसे प्रेरित करते थे ?

जवाब: सन 2019 तक हम विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। तब तक इतनी बंदिशे नहीं थे और हम लोग हर विषयों पर खुलकर बोलते थे। लड़कों को भी वैसे ही तैयार करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऊपर का दबाव बढ़ा है। अब लोग जागरूक भी हो गए हैं। हर विचारधारा के लोग क्लासों में बैठे हैं। जो बोलो, छात्र वो उसको रिकार्ड कर लेते हैं। अगर आप सत्ता के खिलाफ बोलते हैं तो वो तबका, उसे रिकॉर्ड करके आगे तक पहुंचा देता है फिर उसके खिलाफ एक्शन होता है। पहले ऐसा नहीं था। पहले हम लोग बेबाक होकर किसी भी विचार धारा पर बोलते थे। अगर आप दलित विमर्श की बात करिएगा, अल्पसंख्यक की बात करिएगा, ट्राइब की बात करिएगा तो दलित तबका बड़े ध्यान से सुनेगा। अगड़े भी चूंकि पढ़ना है तो वो भी जानना चाहते है कि हमारे बारे में दलित क्या कह रहा हैं। लेकिन पहले कोई बंदिश नहीं थी, अब हो गई है। हम लोग बहुत अच्छे समय में थे। कुछ भी बोल-बालकर निकल गए। अब कोई बोल नहीं सकता। अब तो आपने बोला नहीं कि ख़बर आगे तक पहुंच जाती है। 

बाएं से: डॉ. मुश्ताक़ अली, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।                       


सवाल: जैसा आपने बताया कि आजकल साहित्य, विमर्श के इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसको देखते हुए आप, नये साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब:  चूंकि हवा में यही है और राजनीतिक विचारधारा के साथ यह जुड़ा है इसलिए इससे उलट कोई नयी बात करना, संभव नहीं है। साहित्य का काम समाज में व्याप्त सम्वेदना को देखना है और सम्वेदना दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श या जनजातीय विमर्श में भी है। उसमें मूल चीज़ तो निश्चित तौर पर विद्यमान है। जब भी आप गरीब की बात करेंगे तो अमीर अपने आप आ जाएगा। शासक की बात करेंगे तो शोषित सामने आ जाएगा। रहेगा तो दोनों तरफ, ऊपर से नाम आप चाहे जो दे दें। साहित्य का मूल काम ही सम्वेदना को उभारना है। सम्वेदनाएं जहां भी हैं, वो साहित्य का ही विषय है। अत: मुझे इसमें कोई दुराव नहीं लगता।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)