शनिवार, 28 जुलाई 2012

ग़ालिब को भारत रत्न क्यों नहीं ?



पिछले दिनों ‘भारत रत्न’ पुरस्कार देने को लेकर खूब चर्चा हुई, लोगों ने सचिन तेंदुल्कर से लेकर मेजर ध्यानचंद और मिर्ज़ा ग़ालिब तक का नाम लिया गया है। ‘गुफ्तगू’ ने अपने मार्च-2012 अंक के चौपाल कालम में इस बार विषय इसे ही बनाया और साहित्यकारों से राय पूछी गई। उपसंपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने इन साहित्यकारों से बात की है।
 
निदा फ़ाज़ली: अगर इस तरह से गणना की जाएगी तो ग़ालिब से पहले वली दकनी हुए हैं, जिनसे ग़ज़ल शुरू हुई है, उन्हें भी देना चाहिए, और फिर उनसे पहले महात्मा बुद्ध हुए हैं, उन्हें भी देना चाहिए। उनका काम भी बहुत बड़ा था..... और उनसे पहले आर्य आए थे, उन्हें भी भारत रत्न मिलना चाहिए। ये कोई तर्क नहीं है।ग़ालिब बड़े कवि ज़रूर हैं लेकिन हर भाषा में बड़े कवि होते हैं और हुए हैं। मीर को क्यों नहीं, कुछ लोग कहेंगे..... वली का क्यों नहीं, कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह ‘भारत रत्न’ की होड़ है। हमारा जो ग्राफ है, उसमें क्रिकेटर, एक्टर और नेता ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं, मेरा एक दोहा है-  
क्रिकेटर नेता एक्टर, हर महफ़िल की शान।
 स्कूलों में कैद है,ग़ालिब का दीवान।

 जब ग़ालिब की ज़बान ही ख़तरे में हो तो ग़ालिब को एवार्ड देने का क्या मतलब होगा।

प्रो.वसीम बरेलवी:
ग़ालिब को भारत रत्न देने से ग़ालिब का इतना सम्मान नहीं बढ़ेगा, जितना कि भारत रत्न का, इसलिए कि ग़ालिब साहित्यिक आदर्शों के एक बड़े शिख़र हैं।... तो यह सम्मान मरणोपरांत दिया जाता है। मैं समझता हूं कि ऐसा सम्मान किसी भी समाज के सोचों के मेच्योरड हो जाने का उदाहरण हुआ करता है। हमारे देश की जो व्यवस्था है उसके अंदर हम साहित्यकार को वह स्थान नहीं दे पा रहे हैं जिसका कि वह हक़दार होता है। ग़ालिब, जो सदियों से हमारी हिन्दुस्तानी संस्कृति का एक नायक बनकर उभरता है और उसको दुनिया पढ़ती है, उसके उपर शोध होता है और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है... तो उर्दू के इस महान शायर को भारत रत्न मिलता तो मैं यह समझता हूं कि पूरे देशवासियों को इसकी खुशी होगी... मुझे वह मौका याद है जब पिछली मर्तबा यह आवाज़ जस्टिस काटजू ने जश्न-ए-बहार के एक कार्यक्रम में दिल्ली में उठायी थी, उस वक़्त लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार साहिबा भी वहां मौजूद थीं, तो जहां जनता ने इस बात का समर्थन किया था,वहीं मौजूद सियासी लोगों ने भी इसे अपना समर्थन दिया था।..... और बौद्धिक लोग भी इसका समर्थन कर रहे हैं, तो मेरा मानना है कि यह कदम उठाया जाना चाहिए।


डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र:
देखिए, जो भारत रत्न है यह सरकारी अलंकरण है और साहित्यकार हमेशा सरकार के खिलाफ रहता है,क्योंकि सरकार पर अंकुश लगाने वाला अगर कुछ है तो वह साहित्य है, तो अगर साहित्यकार अलंकरण के चक्कर में पड़ेगा तो उसका स्तर घट जाएगा। बहुत अच्छे साहित्यकारों को कोई अलंकरण नहीं मिलता और मिलता है उन्हीं लोगों को... पद्मश्री काका हाथरसी को मिला है और नागार्जुन का कुछ भी नहीं मिला। यही कारण है कि सशक्त साहित्यकार सरकारी अलंकरण से प्रभावित नहीं होता। मुझे लगता है कि अगर ग़ालिब को भारत रत्न दिलाने की पहल की जाती है तो यह ग़ालिब को नीचे गिराने की कोशिशें हैं.... फिर कहेंगे तुलसीदास को दें,सूरदास को दें। यह लोग सब ऐसे लोग हैं कि जिनसे देशों का निर्माण होता है तो भारत रत्न से इनका कोई गौरव बढ़ने वाला नहीं है। इस तरह की पहल नॉन्सेन्स है। साहित्यकार को किसी भी तरह का अलंकरण नहीं चाहिए।


डॉ. राहत इंदौरी:
अब अगर भारत रत्न ग़ालिब को देने की सिफ़ारिश करते हैं तो कालीदास कहां जाएंगे, कबीर और तुलसी कहां जाएंगे, मीर कहां जाएंगे। ग़ालिब एक बड़े शायर थे, इससे किसी को इंकार नहीं है लेकिन ग़ालिब हिन्दुस्तान के सबसे बड़े शायर नहीं थे। जहां तक भारत रत्न की बात है तो ग़ालिब को भारत रत्न मिल भी जाएगा तो ग़ालिब का क्या भला हो जाएगा, यह बता दीजिए आप?

मुनव्वर राना:
बड़ा मुश्किल सवाल है। असल में यह जो भारत रत्न है, अब यह राजनीतिक हो गया है। यह जब से राजनेता लोगों को मिलने लगा,हमारे ख़्याल से तब से यह इस लायक नहीं रह गया कि ग़ालिब जैसे शायर को मिले। अब तो आए दिन अख़बारों फ़रमाइशें मिलने लगीं हैं कि इनको मिल जाए, उनको मिल जाए....तो हम देखें न देखें हमारे बच्चे ज़रूर देखेंगे कि कभी राखी सावंत को मिल जाए यह एवार्ड।.... तो इसलिए इस एवार्ड की हमारी नज़र में कोई अहमीयत नहीं रह गई। अफ़सोस की बात है कि हमारे देश का सबसे बड़ा एवार्ड राजनीतिक प्रभाव में आ गया है और ऐसे लोग फ़रमाइश कर रहे हैं कि इनको मिल जाए, उनको मिल जाए जिनको कि .... अगर मतलब जम्हूरियत न होेती तो इन्हें गिरफ्तार कर लेना चाहिए। चूंकि डेमोक्रेसी है, किसी को भी लेकर फरमाइश की जा सकती है, मुमकिन है कल कोई गोरखपुर से खड़ा हो जाए कि शबनम मौसी को दे दिया जाए... तो यह एवार्ड इस लायक नहीं रह गया कि ग़ालिब जैसे शायर को दिया जाए।


नवाब शाहाबादी:
पहली बात तो यह है कि भारत रत्न शुरू कब से हुआ है, उसमें ग़ालिब थे क्या?... और जिन्हें मरणोपरांत भी मिला, स्वत्रंत भारत के बाद जो हुए उन्हीं को दिया गया। फिर ऐसी बात यदि है भी तो ग़ालिब ही क्यों...? कालीदास क्यों नहीं? तुलसीदास क्यों नहीं ? मीर क्यों नहीं ? इस प्रकार की मांग एक विशेष विचारधारा के लोग करने लगते हैं। इस तरह से एक परंपरा बन जाएगी कि इन्हें भी....इन्हें भी।....और यह ग़लत परंपरा होगी। मैं मानता हूं कि इस तरह की मांग उठाने वालों की सोच ग़लत है। ग़ालिब के लिए भारत रत्न की मांग करने वालों ने तुलसीदास के लिए भारत रत्न की मांग क्यों नहीं की, उनका साहित्य और क्षेत्र तो ग़ालिब से भी अधिक व्यापक है। मैं इस तरह की मांग का समर्थन नहीं करता।

बेकल उत्साही- देखिये,भारत रत्न से ग़ालिब कोई बड़े शायर नहीं हो जायेंगे। भारत रत्न आज है, ग़ालिब के ज़माने में तो था नहीं। अब मरणोपरांत आप चाहे जिसे दें। हम इसके क़ायल नहीं हैं कि ग़ालिब को भारत रत्न मिले। वे भारत रत्न या पद्मश्री या किसी भी अलंकरण के मोहताज नहीं हैं। ग़ालिब एक बहुत बड़े शायर हैं... इस तरह की आवाज़ उठाना सियासत का एक हिस्सा है। ग़ालिब को भारत रत्न देकर आप उन्हें बड़ा बनायेंगे, वे इन सब चीज़ों से बहुत आगे हैं।

डाॅ. मलिकज़ादा मंजूर-मिल जाये तो बहुत अच्छा है। देखिये हमारे यहां बहुत बड़े-बड़े कवि-शायर हुए हैं। मुझे लगता है काटजू साहब ने जो बात कही है, उसमें उनकी उर्दू से माहब्बत शामिल है.... तो अगर ये सिलसिला शुरू हो जाये तो इसमें बुराई क्या है ? ग़ालिब उर्दू के बहुत बड़े शायर थे, इसमें कोई शक नहीं। चूंकि उर्दू हिन्दुस्तान में पैदा हुई, हिन्दुस्तान की ज़बान है, हिन्दुस्तान में उसके बोलने वाले लोग हैं... इसलिए ऐसा होना चाहिये।....लेकिन ग़ालिब का ज़माना बहादुरशाह ज़फ़र का ज़माना था, वह मुग़लों का आखि़री दौर था। उस ज़माने के जो बड़े खि़ताबात थे, वे मिजऱ्ा ग़ालिब को दिये गये, उस ज़माने में भारत रत्न तो था नहीं। हां, अगर मरणोपरांत यह पुरस्कार दिया जाता है तो यह सिलसिला शुरू होना चाहिये। ग़ालिब को ही नहीं कालीदास, सूरदास, तुलसीदास, अमीर खुसरो, मीर तक़ी मीर और अन्य शीर्षस्थ क़लमकारों को भी मिलना चाहिये,जिन्होंने हिन्दुस्तान का सर पूरी दुनिया में उंचा किया है।

प्रो. अली अहमद फ़ातमी- मेरी अपनी राय यह है कि मिजऱ्ा ग़ालिब जैसे बड़े शायर किसी एवार्ड वगैरह से बहुत उंचे हैं। ग़ालिब को भारत रत्न मिल गया तो, नहीं मिल गया तो...इससे कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं है। अच्छा, अगर भारत रत्न मिलेगा तो लेने कौन आयेगा? ये सब तमाशेबाज़ी है, शोशा है। कहीं किसी बड़े शायर या फ़नकार की अहमियत क्या किसी एवार्ड से बनती है, ये सब बिल्कुल बेकार की बातें हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं भारत रत्न के खि़लाफ़ हूं या मिजऱ्ा ग़ालिब के खि़लाफ़ हूं। मिजऱ्ा ग़ालिब जैसा शायर, इन तमाम छोटी-मोटी बातें बल्कि बेवकूफियों से बहुत उपर हैं। ये सब बचकानी बातें हैं। ग़ालिब बड़े हैं, अपनी शायरी से, अपने काम से, न कि किसी एवार्ड के कारण...फिर ग़ालिब जिस ज़बान के शायर हैं, उस ज़बान का आप क़त्ल करने में लगे हुए हैं, उसको किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं है तो ऐसे में ग़ालिब को भारत रत्न देने का क्या मतलब है। ग़ालिब अज़ीम हैं तो हैं, ग़ालिब ग़ालिब हैं। ग़ालिब की अज़मत ग़ालिब की शायरी से है, उनकी फनकारी से है। भारत रत्न वगैरह देने की मुहिम सब बेकार की बाते हैं, ये सब सियासी बाते ंहैं। इन सब तमाशों की ग़ालिब का कोई ज़रूरत नहीं।

मेराज फ़ैज़ाबादी- ग़ालिब के ज़माने में भारत रत्न था ही नही ंतो उनको कहां से मिलता...और जो भारत रत्न का क्राइटेरिया है, उसमें लिटरेचर बहुत बाद में आता है। किसी भी बड़े शायर,कवि या लेखक का नाम बताइये जिसे भारत रत्न मिला हो...हां, पद्मश्री, पद्मभूषण तक ही सिमटकर रह जाते हैं, तो साहित्य के काम की इतनी महत्ता कभी समझी ही नहीं गयी कि मीर तक़ी मीर को या मिजऱ्ा ग़ालिब को या सुमित्रानंदन पंत को या निराली जी का या किसी अन्य बड़े लेखक-कवि को यह पुरस्कार दिया जाये। सच तो यह है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर पहला नाम है जिसे भारत रत्न मिलना चाहिये। भारत रत्न का क्राइटेरिया निश्चित करने वालों को पढ़ने-लिखने में बहुत दिलचस्पी नहीं है। अन्य भाषाओं में भी हर ज़माने में क़लम के कई बड़े नाम हुए हैं...लेकिन कभी किसी को भारत रत्न नहीं मिला तो मसला यह है कि आज तक क़लम को भारत रत्न क्यों नहीं मिला ?
 

यश मालवीय- ग़ालिब भारत रत्न से नहीं पहचाने जायेंगे। भारत रत्न जैसे सम्मान ग़ालिब के लिये छोटे हैं, जो आदमी विश्व रत्न हो, उसको भारत रत्न तक में कैसे सीमित किया जा सकता है और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे लोग तुलसी, ग़ालिब,मीर आदि ये सब भाषा के आभूषण हैं और इन्हें वहीं तक सीमित करना ठीक नहीं है। आश्चर्य यह है कि पहले एक खिलाड़ी के लिए आप भारत रत्न की बात करते हैं, फिर ग़ालिब के लिये बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारी यह सोच हमारी सांस्कृतिक चेतना के ह्रास को परिलक्षित करती है। ग़ालिब को भारत रत्न दे भी दे तो उससे क्या फकऱ् पड़ता है...इसलिये इस तरह की बातें अपने आपमें बेमानी है, ये इसलिए भी कि क्या हम सूर,तुलसी, मीरा, मीर या ग़ालिब केा सीमित कर सकते हैं....ये सब संपूर्ण विश्व की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले लोग हैं। इनसे हिन्दी या उर्दू की ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कविता और मानवता की पहचान है। ये बजबजाता हुआ मामला है। ग़ालिब ग़ालिब हैं, उन्हें कांटों में मत खींचिये। वे हमारी संस्कृति की पहचान हैं। ग़ालिब अपने आप में ग़ालिब रत्न हैं।

गुफ्तगू  के मार्च  2012 और जून 2012 अंक  में प्रकाशित 
 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

आर्ट और तिज़ारत का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है-निदा फ़ाज़ली

बाॅलीवुड से लेकर साहित्य तक में निदा फ़ाज़ली का नाम बहुत इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। एक तरफ जहां उनके गीतों ने बाॅलीवुड में धूम मचाया मचाया तो दूसरी ओर उनकी शायरी और दोहों की वजह से उन्हें आधुनिक कबीर कहा जाता है। 12 सितंबर 1938 को जन्मे श्री फ़ाज़ली का पूरा नाम मुक्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली है। ग़ज़ल, दोहा और नज़्म लिखने में इन्हें महारत हासिल है। सुर,आप तो ऐसे न थे,सरफरोश,तमन्ना,इस रात की सुबह नहीं,रजिया सुल्ताना सहित कई फिल्मों के लिए आपने गीत लिखे हैं। जबकि टीवी सीरियल सैलाब, नीम का पेड़,जाने क्या बात हुई, और ज्योति के लिए टाइटल सांग भी आपने ही लिखा है। लफ्ज़ों के फूल, मोरनाच,आंख और ख़्वाब के दरम्यां,सफ़र में धूप तो होगी एवं खोया हुआ कुछ नामक किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य अकादमी, स्टार स्क्रीन एवार्ड और बालीवुड मूवी एवार्ड से आपको नवाजा जा चुका है। गुफ्तगू की संपादक नाजि़या ग़ाज़ी ने उनसे कई मुद्दों पर बात की-
सवाल: आज देश में हर तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ तेज़ होती जा रही है। इस आवाज़ को और मुखर करने में साहित्य जगत की समुचित भागीदारी किस प्रकार से हो सकती है।
जवाब: आज देश में या देश से बाहर जो हो रहा है उससे हर समझदार ज़ेह्न जुड़ा हुआ है, यह ज़रूरी भी लेकिन इस ज़रूरत की अभिव्यक्ति के तरीके, साहित्य से अलग हैं और पत्रकारिता के अलग हैं। पत्रकार ख़बर लिखता है, उसके लेखन की भाषा दो और दो चार जैसी होती है। और साहित्य की शब्दावली में दो और दो पांच होते हैं और कभी सात हो जाते हैं। देखे हुए को दिखाने और देखे हुए में अनदेखे को दर्शाने में अंतर है। और दोनों की भाषाओं का यही अंतर एक को दूसरे से अलग करता है। ख़बर छपने के बाद दूसरे दिन बासी हो जाती है, जबकि ग़ालिब, फि़राक़, यगाना की ग़ज़लें जितनी कल जवान थीं आज भी उतनी ही जवान हैं। साहित्य की भागीदारी समय के उतार-चढ़ाव से शुरू हो रही है और हमेशा रहेगी। ग़ज़ल के प्रथम शायर वली दकनी ने औरंग़जेब के युग में कहा था-
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द और एतिबार खोती है।
एक शेर में मर्द के एक शब्द में उस युग के धर्मन्द्व के कितने आयाम छुपे हुए हैं, इसकी सूचना कोई शब्दकोश नहीं दे सकता। इसकी पहचान के लिए पत्रकारिता और साहित्य के अंतर की पहचान ज़रूरी है। मर्द मज़बूर भी है और सरमद की तरह से हाकिम भी है बादशाह की तरह से बेखौफ़ भी है उस इमाम की तरह से जिसने औरंग़जेब को सीख दी थी।
सवाल: वर्तमान में पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने वाले कवि और मंचीय कवियों में कहीं कोई तालमेल नहीं दिख रहा है, क्यों ?
जवाब: आपके प्रश्न से डाॅ. धर्मवीर भारती जी का एक वाक्य याद आ रहा है। हुआ यूं, एक रात मैं अपने घर में टीवी पर कोई कवि सम्मेलन सुन रहा था, सुनते-सुनते मैंने भारती जी को फोन कर दिया। मैंने उनसे उसी मंचीय चुटकुलेबाजी का जिक्र किया जो आपकी भी शिकायत है। भारती जी ने मेरी बात सुनी और सवाल का सीधा जवाब देने के बजाए मुझसे ही सवाल पूछ लिया, ये बताओ धर्मयुग के लिए अपनी कविताएं कब भेज रहे हो। उनकी नज़र में चुटकेलेबाजी का कोई महत्व नहीं था, मंच पर उस समय काका हाथरसी और नीरज का दरबार सजा हुआ था। लेकिन आज अंधायुग और ठंडा लोहा के कवि भारती जी हर जगह हैं और दरबार मंच के साथ ही रुख़सत हो गया। उर्दू में अनवर मिजऱ्ापुरी मुशायरों की छतें उड़ाते थे और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मुश्किल से सुने जाते थे। आज फ़ैज़ हर जगह हैं और उनके साथ के मुशायरों के शायर कहीं नहीं हैं।
सवाल: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वर्तमना में साहित्य में गैर जिम्मेदार लोग ज़रूरत से अधिक आ गए हैं?
जवाब: इतिहास के हर युग में ऐसा ही होता रहा है, हर युग में कई-कई नाम होते हैं, लेकिन हर युग हमेशा किसी एक युग पुरुष के नाम से जाना जाता है। ज़ौक, मोमिन, आशुफ्ता का दौर मिजऱ्ा ग़ालिब से मंसूब है और बहुत से नामों की भीड़ और निराला अलग से नज़र आते हैं। समय की छलनी धान फटककर चावल को और भूसे को अलग कर देती है।
सवाल:  एक आलोचक और एक शायर की भूमिका में क्या फ़कऱ् है ?
जवाब:  आलोचक और रचनाकार का रिश्ता है तो ज़रूरी, लेकिन  ये रिश्ता इतिहास के लंबे रास्ते में उतार-चढ़ाव से गुजरा है। कभी इस रिश्ते ने कबीर और नज़ीर को सिरे से कवि मानने से इंकार किया, कभी अपनी पसंद के ग़ैर ज़रूरी नामों को प्यार दिया, लेकिन न प्यार से बात बनी न इंकार से, जब भी बात बनी रचनाकार के व्यक्तिगत किरदार से ही बात बनी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कबीर को गले से लगाया और प्रगतिशील आलोचना ने नीरज को अपनाया। आज आलोचना के दोनों शिकार हमारी अदबी विरासत की निशानियां हैं।
सवाल:  फिल्मी गीतों में संगीत के शोर-शराबे के बीच कथ्य और शिल्प नदारद होते जा रहे हैं, इस गिरावट के क्या कारण हैं ?
जबाव:  आर्ट और तिज़ारज का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है, ज़रा सी भूल चूक से इसका संतुलन बिगड़ जाता है। यही बात फिल्मों ने गीत और संगीत के बदलते स्तरों के बारे में कही जा सकती थी, ज़ुबानो-बयान की कमज़ोरी और ताक़त दोनों लिखने वाले के क़लम में होती है। जब साहिर के हाथ में होता है तो ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ लिखा जाता है और शैलेन्द्र के हाथों में होती है तो वह लिखता है ‘जो लोग जानते हैं, इंसान को बस पहचानते हैं’ और हाथ बदलते हैं तो शब्द भी अपना रूप बदलते हैं। इश्क़ कमीना और चलती है खंडाला जैसे बताते हैं कि क़लम और किनके हाथों में है। शब्दों की तरह सुर भी छोटे-बड़े हाथों की तरह छोटे-बड़े होते हैं। उर्दू-हिन्दी पहले के  संगीतकारों को आती थी। आज संगीतकार इन भाषाओं से दूर हैं, इसलिए शब्दों का अनादर करने के लिए मज़बूर हैं।
सवाल: मंचों पर हुल्लड़बाजी, चुटकुलेबाजी और फुहड़पन ही बचा है, बड़े कवि शायर इस स्थिति का विरोध क्यों नहीं करते ?
जवाब: विरोध करने में जो समय खर्च होगा, वह बेकार जाएगा, इसलिए यही अच्छा होगा कि मीर की नसीहत मानकर -
ग़ैरते यूसुफ़ है ये वक़्ते अज़ीज़
मीर इसको रायगां खोता है क्या।
इसे अपनी रचनात्मकता के लिए इस्तेमाल किया जाए। कुसूर स्टेज का नहीं है। स्टेेेज पर निराला, फि़राक़, फ़ै़ज़ आदि सभी आते थे, लेकिन जो लिखते थे वहीं सुनाते थे। श्रोता और रचनाकार के बीच तालमेल था। सुनने वाला कवि को उसके नाम से नहीं काम से जानता था। सुनाने वाला भी अपने मकाम को पहचानता था, अब न तो वह सुनने वाले हैं न वे सुनाने वाले हैं। इसलिए अब स्टेज से जो पेश किया जाता है उसमें शब्दों की महक नहीं होती, धंधे की चमक होती है। अब आज मुशायरा-कवि सम्मेलन तफरीह या तमाशा बन गये हैं। ग़ालिब और फि़राक़ की ग़ज़ल को सुनने के लिए श्रोताओं में जिस तहज़ीब की ज़रूरत है, वह आज के श्रोताओं में नहीं है।
सवाल:  आपने लेखन की प्रेरणा कहां से ग्रहण की और अपना उस्ताद किसे मानते हैं ?
जवाब:  मेरी उस्ताद पुस्तक है। मेरी प्रेरणा, मेरे जिये हुए रात-दिन हैं। मैंने जि़न्दगी को पढ़कर जि़न्दगी को लिखा है और जो भी सीखा है वह इसी से सीखा है।
सवाल: नई पीढ़ी साहित्य को अधिक तवज्जो नहीं दे रही, इलेक्टृानिक मीडिया ने प्रिन्ट मीडिया का महत्व घटा दिया है। इस बात से आप कहां तक सहमत हैं ?
जवाब: प्रिन्ट मीडिया की ज़रूरत कभी कम नहीं होगी। लिखे हुए शब्द से ही बोला हुआ शब्द चित्रित किया जाता है।
सवाल: नये रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: पढ़ो ज़्यादा, लिखो कम। पढ़ने को ज़मीनों की तरह भाषाओं की सरहदों में कैद नहीं करो। हर भाषा का अपना दायरा होता है, देश की भाषायें हो या विदेश की, हर भाषा का साहित्य हमारी विरासत का हिस्सा है।
दीवारें उठाना तो हर युग की सियासत है,
ये दुनिया जहां तक है, इंसां की विरासत है।
गुफ्तगू के जून 2012 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 2 जुलाई 2012

सफेद जंगली कबूतर


     - मुनव्वर राना
कबूतर भी अजीव परिंदा है. इंसानों का साथ उस वक्त भी नहीं छोड़ा जब हज़रत नूह (अलि.) की कश्ती सैलाब में बेसिम्ती का शिकार हो गई थी, चहार सिम्त ग़रक़ाब बस्तियों के निशानात के बावजूद इस ताजा ज़मीन की तलाश में निकल पड़ता जिस पर सैलाब के पानी ने अपने गुल बूटे न टाके हों. अपनी उम्मत के उतरे हुए चेहरे हज़र नूह (अलि.) से नहीं देखे जाते थे और कबूतरों की परेशानी का सबब ये था कि अगर बची खुची उम्मत भी सैलाब की नज़र हो गई तो वह किसी के साथ रहेंगे, इंसान अगर अशरफुलमखलूकात है तो कबूतर इंसानों से बेपनाह मुहब्बत करने वाला परिंदा. हजरत नूह (अलि.) के ज़माने से ही कबूतर इंसानों के लिए ज़मीन तलाश करते हंै और खुद दरबदरी का शिकार रहते हैं-
सफ़र है खत्म मगर बेघरी न जाएगी
हमारे घर से ये पैगम्बरी न जाएगी। (शाहीन)
दुनिया पर हुकूमत का ख्वाब देखने वाले इंसानों को क्या मालूम कि फिज़ा में उड़ते हुए कबूतर को ज़मीन खेत की तरह और दुनिया गांव के बराबर मालूम होती है. कबूतर अमन व आशती का पैगंामबरियों कहलाता है कि उसकी मासूमियत में स्कूल जाते हुए नन्हें बच्चों की झलक दिखायी देती है. उसको आवाज़ मंे फ़ाख़्ता और कोयल का मुश्तरका दर्द शामिल रहता है. उसके शहपरों की हवा बीमार की सेहत बख्शती है, जहां रहता है वहां नफरतें घोंसला नहीं लगा पाती, जिन छतों पर बैठता है वह जलजले में भी महफूज रहती है, जिस शाने पर बैठ जाए वह जिम्मेदारियां उठाने के लायक बन जाएं, बिजली के नंगे तार भी उसके खून की हिद्दत के आगे बर्फ हो जाते हैं. जिन तालाबों के करीब उतरता है, वह बरसहाबरस दरिया बने रहते हैं. अमन की बहाली में एक कबूतर एक हजार सिपाहियों के बराबर होता है. कहा जाता है कि जिस घर में कबूतर का टूटा हुआ पर गिर जाए, सांप बिच्छू उस घर से गुजरना छोड़ देते हैं, कबूतर सुबह होते ही अपने परों की सफेदी से सूरज का मवाजना करता है. रोज नए हौसले के साथ उड़ता है और बुलंदी पर पहुंच कर तारा बन जाता है, इंसानों के साथ रहने वाला यही एक परिंदा है जो हमेशा इंसानों के साथ ही रहना चाहता है, वरना पर निकलते ही चींटी भी अलग ठिकाना तलाश करने लगती है. इंसानों के साथ रहना कितना दुश्वार है, ये शायद कबूतर से ज्यादा कोई नहीं जानता. भटकती हुई कश्ती के मुसाफिरों को नई जमीन का पता देने वाला ये कबूतर आज भी मुस्तकिल सफर में रहता है. इंसानों को जलाई हुई बस्तियों से हमेशा के लिए हिजरत कर जाता है. न सोने के पिजड़े की फरमाईश करता है, न चंादी की दीवारें तलाश करता है. पेड़ पर भी ब-हालते-मजबूरी बैठता है. दरख्तों पर नहीं बैठता कि वहां वीरानी होती है, जंगल में नहीं रहता कि वहां जानवर होते हैं, सेहराओं में नहीं रूकता कि वहां आबादी नहीं होती, खेतों में नहीं रहता कि कनाअत की ताजदारी छनती है. हां बंजर जमीनों पर बैठ जाता है क्योंकि अल्लाह की बनाई दुनिया में कबूतर ही अशरफुखाकसार होता है. बुलंदी से गिद्ध खाना देखता है, उकाब निशाना देखता है, इंसान घराना देखता है और कबूतर सिर्फ ठिकाना देखता है.
कबूतर सदियों तलक पैगाम रसानी का काम करता रहा. न डाकिये थे, न पोस्ट आफिस, न वायरलेस था, न टेलीफेान. न मोबाइल था, न इन्टरनेट. न तेज रफ्तार गाडि़या थीं, न हवाई जहाज. लेकिन एक दूसरे की ख़ैरियत और मिज़ाज़ पुरसी के चिराग़ दिलों में टिमटिमाते रहते थे. यूं तो मुहब्बत हर अहद में संगसारी के मराहिल से गुजरती है लेकिन एक वह ज़माना भी था कि इश्क़ कबूतर के सिवा किसी के सामने भी इज़हार की किताब नहीं खोलता था-
गुफ़्तगू फन पे हो जाती है ‘राना’ साहब
अब किसी छत पे कबूतर नहीं फेंका जाता
कबूतर जब तक पैगाम रसानी करता रहा, मजारे इश्क की सज्जादां नशीनी और नमाज इश्क़ की इमामत के लिए उर्ज़ अवामिक, लैला मजनूं, शीरीं फरहाद, सोहनी महीवाल, रोमियों जुलियट और मिजऱ्ा साहबान का जन्म होता रहा. लेकिन मुहब्बत तो पत्थर की तरह होती है, किसी के लिए हीरा बन जाती है और किसी को मिट्टी मंे मिला देती है. जब से कबूतरों ने खत लाना, ले जाना छोड़ दिया, दुनिया में इश्क़ की दास्तान एैयाशियों की कहानी बन कर रह गई-
चाहिए पैगाम्बर दोनों तरफ
लुत्फ क्या जब दूबदू होने लगी। (दाग़)
मुझे बचपन से कबूतरबाजी का शौक है. दरअसल उत्तर प्रदेश के बेशुमार शहर, खुसूसी तौर पर अवध के कस्बात और तहसीलें कबूतरबाजों से आबाद थीं. कबूतर के शौक में हर मजहब, हर मसलक और हर उम्र के लोग गिरफ्तार थे लेकिन सान्हा पाकिस्तान, काॅलोनी कल्चर, बढ़ती हुई बेरोजगारी और एक एक घर में कई कई चूल्हों की आंच में कबूतरों के पर जल कर राख हो गए. कबूतरबाजों के हौसले ख़ाक हो गए और कबूतर बाजी के शौक ने हिन्दू बीवी की तरह सिमट कर एक कोना पकड़ लिया. ख़ानदानों के इंतिशार, दौलत की बेइंतिहा हवस, गुरबत और दरबदरी के जमाने में कबूतर की तरफ कौन निगाह डालता है, कभी शहर में सिर्फ एक अस्पताल होता था और सारा शहर सेहतमंद रहता था. अब हर मुहल्ले मंे कई नर्सिग होंम होते हैं लेकिन सारा शहर बीमार रहता है. शायद खुद ग़रज ज़माने ने हर आदमी को ये समझा दिया है कि उसकी कहानी दुनिया के इसकरीन पर उसी वक्त तक फूल बिखेरती रहेगी, जब तक वह जि़न्दा रहेगा, लिहाजा लोग जि़न्दा रहने की कोशिश में और ज़्यादा मरने लगे. यूं तो कबूतर के लिए जितने मुंह उतने मुहावरे मशहूर हैं लेकिन खास मुहावरों से लुत्फ हासिल करने के लिए कस्बाती और जस्बाती होना ज़रूरी है. कुछ मुहावरे कबूतरबाज़ ही समझ सकते हैं. कुछ ऐसे भी मुहावरे हैं जिन्हें कबूतर बन कर ही समझा जा सकता है. मसलन कुछ लोगों के कहने के मुताबिक कबूतर सैयद होते हैं लेकिन कुछ लोगों का ये भी कहना है कि कबूतर सिर्फ अपनी अफ़जाईशे-नस्ल चाहते हैं. इन दोनेां मुहावरों में ग़ज़ब का तजाद हैं. अगर कबूतर सैयद होते हैं तो फिर अफ़जाईशे नस्ल की चाह गलत है क्योंकि सैयद अगर अफ़जाईशे नस्ल पर ही ध्यान देते तो कर्बला में जाम शहादत क्यों नोश फरमाते-
उम्मत की सर बुलंदी की खातिर खुदा गवाह
जालिम से खुद नबी के नवासे उलझ पड़ें (मुनव्वर राना)
यूं तो कबूतर कई रंगों के होते हैं. लेकिन फि़ज़ा में सफेद और सियाह कबूतर ही ज्यादा दिखाई देते हैं. अमूमन सियाही मायल कबूतर जंगली ओैर सफे़द रंग के कबूतर पालतू कहलाते हैं. कबूतर अपना घर फि़ज़ा में उड़ते हुए भी नहीं छोड़ता. कुछ कबूतर तो अपने घर को इस कदर करकज़ बना कर उड़ते है कि आंगन में रखे कटोरे के पानी में मुस्तकिल दिखाई देते हैं. घर से इसी बेपनाह मुहब्बत की मौजूदा हालत भी अब कबूतरों जैसी हो कर रह गई है. वह घर से लगाव के सबब हिजरत भी नहीं कर सके और शब व रोज सियासी चील कौव्वों के शिकार होते रहते हैं.
दुश्मनी ने काट दी सरहद पे अपनी जि़न्दगी
दोस्ती गुजरात में रह कर मुहाजिर हो गई। (मुनव्वर राना)
आदमी, कबूतर और कुत्ता अपनी ड्योड़ी, ठिकाना और आशियाना आसानी से नहीं छोड़ते. पुलिस की गिरफ़्त में आने वाले बेशतर ख़तरनाक मुजरिम सिर्फ़ घर से मुहब्बत के ऐवज एनकाउंटर की नज़र हो जाते हैं. दंगे में भी वही लोग मारे जाते हैं जो अपने बुजुर्गो की जूतियां आंखों से लगाए रहते हैं. वफादारी की सबसे बड़ी खराबी तो यही है कि शेर को भी कुत्ता बना देती है. मुसलमानों का मसला भी यही है कि शेर की तरह जीना चाहता है और बेइंतिहा वफादारी उसे कुत्ता बनाए रखती है.
कबूतर जब तक घरों में रहते है, बिल्कुल पालतू होते हैं. कभी बच्चों की तरह दादी की गोद में बैठ जाते हैं, कभी ताक पे रखी रेहल के पास अदब से अपने परों को समेट लेते हैं, कभी बच्चों की तरह स्कूल के बस्ते पर बैठ जाते हैं, कभीे अम्मी की नकाब में छुपने की कोशिश करते हैं, कभी सुराही पर बैठ कर अपनी साकीगरी का ऐलान करते हैं, कभी अनाज चुनती हुई लड़कियों में अपनी जगह बनाने में मसरूफ रहते हैं, कभी बाल सुखाती मौसी के साथ छत पर अपने परों को सुखाने में मशगूल दिखाई देते हैं, कभी चोंच में तिनका दबा कर अपने ख्वाब की ताबीर का ऐलान करते हैं, कभी रोटी की डलिया के पास बच्चों की तरह बे अदब नज़र आते हैं, कभी मिट्टी के प्याले में पानी पीते हुए कभी चाय के कप में अपनी चोंच भिगोते हुए, कभी घर की अलगनी पर कभी मुंडेरे पर कभी बुजुर्गो को करतब दिखाते हुए, कभी अनाज में अपना हिस्सा लगाते हुए, कभी रोशनदान में गुनगुनाते हुए, कभी चारपाई पर बेतकल्लुफी से परों को छप्पर बनाते हुए ये कबूतर जिस घर में भी रहते हैं. वहां का अटूट हिस्सा बन जाते हैं.
सर्दियों में सुबह की पहली आहट पर धूप की गुनगुनाहट से हमकलाम होने के लिए ढाबलियों से बाहर निकल आते हैं, थोड़ी देर तक अपने शैपरों को फड़फड़ाहट की तरबीयत दे कर अलसाई हुई तबीअ़त से छुटकारा हासिल करते हैं, थोड़ा झूमते हैं, फिर सूरज की अंगीठी में तापते हैं. अपने आपको धूप में सेकते हैं, जैसे मां सर्दी खाए हुए बच्चे के सीने पर तेल सुखाती है, जैसे लड़कियां स्कूल की ड्रेस धो कर अलगनी पर सूखने को टांग देती हंै, जैसे बच्चे धुली हुई तख्ती सुखाते हैं, जैसे दादी अपने घुटनों पर तेल मलती है, दादी स्कूल के बच्चों के आने के मुन्तजिर रहती है और बच्चे आसमान से कबूतरों के मुन्तजिर रहते हैं. कबूतर कितनी ही बुलंदी पर पहुंच जाए, अपना घर नहीं भूलते. उनकी आंखों से शामासाई की रोशनी फूटती रहती है. वह अपने घर के ताज़ महल को शाहजहां की आंखों से देखा करते हैं. बहादुरशाह की नजरों से दिल्ली का जायज़ा लेते हैं. वाजिब अली शाह और बेगम हजरत महल की हिजरत नसीब आंखो से लखनऊ को देखते हैं. खुली फिज़ा में भी अपनी आंखों में घर की फूल पत्तियां सजाए रहते हैं. अपने ही टूटे परों से अपने घोसले की तामीर करते हैं. अपने परों की सफेदी से बादलों को शर्मिन्दा करते हैं. मौसमों से जंग करते हैं हादसों से निगाहे मिलाते हैं. आसमान को अपने परों के बराबर समझते हैं. चांद को अपना साथी समझते हैं. छिटकी हुई धूप को चांदनी समझते हैं, जिन्दगी को उड़ान और मौत को महबूबा समझते हैं.
लेकिन उड़ान को जिन्दगी और हादसात को अपने कूवते बाजू को इम्तिहान समझने वाला कबूतर कभी कभी तेज़ बारिश, मौसम की खराबी, तूफान की शिद्दत, आंधी के तेज झकड़ों या शाम के धुंधलकों के गहरा जाने की वजह से अपना घर तलाश करने में परेशान हो जाता है. देर तक उड़ने वाले गिरहबाज कबूतर जब आसमान की बुलंदियों पर पहुंच कर तारा बन जाते हैं तो अक्सर घर वापसी के वक्त अंधेरा हो जाता है. घर से दूर अंधेरा हो जाने के बाद औरत को कबूतर की वापसी दुश्वार हो जाती है. यूं भी औरत और कबूतर की जि़न्दगी में बड़ी मसामलत होती है. अपना घर ढूंढता हुआ कबूतर अगर किसी कबूतरबाज के हाथ लग जाता है तो वह फौरन उसके पर कतर देता है या मजबूती से बांध देता है. पाकिस्तान जाती हुई बहुत सी हिजरत नसीब औरतें भी पंजाब के कबूतर बाजों के हाथ लग गई फौरन उनकी दोशीजगी का कत्ल कर के उनकी कोख में नए रिश्तों की चलती फिरती जंजीरें बो दी गई कि फिर वह हमेशा के लिए अपनी उड़ान के किस्से को भूल जाएं. उनके इतजार में पुराने रिश्ते की आंखे पथरा गई, चेहरे झुरिर्यो की आमाजगाह बन गए और जिस्म हड्डियांें के ढांचों
में तब्दील हो गए-
परवाज़ की ताकत भी नहीं बाकी है लेकिन
सय्याद अभी तक मेरे पर बांधे हुए हैं. (मुनव्वर राना)
घर से भटका हुआ कबूतर कई दिनों तक मुसलसल फिजा में उड़ते हुए अपना घर तलाश करता है. कभी ऊंची ऊंची इमारतों के दरमियान से गुजरते हुए, कभी मन्दिरों के कलश को चूमते हुए, कभी मस्जिदों के बुलंद होती हुई सदाए हक़ के उजाले में, लेकिन मेले में खोया हुआ बच्चा और घर से भटक जाने वाला कबूतर वापस कहां आता हैं. भूख प्यास की शिद्दत, घर छूटने का गम और मुस्तकिल तलाश व जुस्तजू में सरगर्म रहते रहते कबूतर अपने परों को ताकत से नावाकिफ़ होने लगता है. कुछ दिनों तक जंगल झाड़ी खेत, खलिहान, मुहल्ले और बस्तियों में भटकने के बाद कबूतर की आरजूओं के पर मैले होने लगते हैं. फिर एक दिन यही दूध और चांदनी से धुला धुलाया कबूतर किसी मन्दिर या मस्जिद के गुबंद को आबाद कर लेता है. कुछ दिनों तक तो वह अपने आस-पास बैठे हुए जंगली कबूतरों में अजनबीयत महसूस करता है लेकिन रफ़्ता रफ़्ता वह भी उसी माहौल, मौसम और ठिकानों का आदी हो जाता है. थोड़े ही दिनों के बाद इल्म से आरास्ता लोग उसे भी जंगली कहना शुरू कर देते हैं. इंसान भी कितना खुदगरज होता है जो उसका कहना मान ले, वह पालतू और जो कहना न माने वह जंगली कहलाने लगता है.
भिवंडी में अलीगढ़ या बनारस में नहीं लड़ते
कबूतर जंगली हो कर भी आपस में नहीं लड़ते। (मुनव्वर राना)

(गुफ्तगू के जून 2012 अंक में प्रकाशित)