गुरुवार, 22 मार्च 2012

मंच पर इलाहाबाद के अगुवा कवि


------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -------

साहित्य चाहे हिन्दी का हो या उर्दू का। दोनों ही भाषाओं के प्रमुख साहित्याकर इलाहाबाद से हुए हैं। मंचों की बात की जाए तो इस मामले में भी यह सरज़मीन काफ़ी जरखेज़ रही है। एक समय था जब निराला,महादेवी, फि़राक़, बच्चन,पंत और राज़ इलाहाबादी जैसे कवि मंचों पर विराजमान होते थे। तब देश का कोई बड़ा कवि सम्मेलन इलाहाबाद के कवियों को शामिल किए बिना असंभव था। ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा ज्ञान, निकलकर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अंजान’ जैसी कालजयी कविता का सृजन सुमित्रानंदन पंत ने इलाहाबाद की सरज़मीन पर बैठककर की थी। आज भी इस शहर की पहचान साहित्य और संस्कृति के रूप में ही होती है। वर्तमान में भले ही राष्टृीय स्तर के कवियों का इलाहाबाद में कमी दिखती हो, लेकिन यहां होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों की सरगर्मियों में ज़रा भी कमी नहीं आयी है। वैसे तो अब वर्षभर इस शहर में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे होते रहते हैं, लेकिन होली के मौके पर होने हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलनों ने देशभर में अपनी पहचान बनाई है। दूसरे शहरों और प्रांतों के कवि-शायर आज भी होली के मौके पर हेाने आयोजनों में खुद के बुलावे का इंतज़ार करते रहते हैं। महामूर्ख, महालंठ, हुड़दंग और ठिठोली आदि नामों से होने वाले आयोजनों ने इलाहाबादी परंपरा को जारी रखने का काम अब भी जारी रखा है। ये और बात है कि इनमें से कुछ आयोजनों की बागडोर, ख़ासतौर पर कवि को आमंत्रित करने की जिम्मेदारी ग़लत हाथों में सौंप दी गई है। जब तक कैलाश गौतम और अतीक इलाहाबादी जैसे लोगों के हाथों में यह कमान थी, जब तक अपेक्षाकृत आयोजन अधिक स्तरीय हुआ करते थे। बदलते दौर के साथ कुछ बदलाव आएं हैं, लेकिन यह उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि गलत चीज़ें बहुत अधिक दिनों तक जारी नहीं रह सकतीं।
इलाहाबाद के कवि सम्मेलनों और यहां की सरज़मीन से रची गई शायरी की बात की जाय तो अकबर इलाहाबादी से होता हुआ कारवां निराला, महादेवी, फि़राक़, बच्चन,पंत,राज इलाहाबादी, अतीक इलाहाबादी और कैलाश गौतम तक पहुंचा है। इसके आगे की कड़ी को जोड़ने का प्रयास जारी है, मगर अभी इलाहाबाद से ऐसा कोई नाम नहीं दिख रहा जो इन महान रचनाकार की अगली कड़ी से जुड़ सके। हां, इतना अवश्य है कि प्रयास जारी है तो एक न एक दिन कामयाबी ज़रूर मिलेगी। बहरहाल, अकबर इलाहाबादी की बात की जाए तो उर्दू हास्य-व्यंग्य के कवियों में इतना बड़ा नाम अब तक नहीं हुआ। अकबर ने न्यायालय जैसे गंभीर और जिम्मेदार विभाग में नौकरी की, मगर उनकी कलम अपने विभाग से लेकर अपने कौम तक पर तंज करने में जरा भी नहीं हिचकी। वे फरमाते हैं
बेपर्दा कल जो आयीं नज़र चंद बीवियां।
अकबर जमीं पे गैरते-कौमी से गड़ गया।

पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ,

कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दो के पड़ गया।


बात जब अपनी शर्तों और गरिमा के साथ काव्य धर्म निभाने की आती है तो सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का नाम सबसे पहले लिया जाता है। निराला ने जीवनभर काव्य सृजन ही नहीं किया बल्कि काव्यधर्म को जिया भी है। उन्होंने व्यक्ति लाभ के लिए कभी किसी हुक्मरान के आगे अपने को नीचे नहीं होने दिया। मंच पर उनके साथ महादेवी वर्मा और फि़राक़ गोरखपुरी जैसे लोग हुआ करते थे, लोग वास्तविक कविताओं का भरपूर आनंद लिया करते थे। ये और बात है कि अब इस तरह के मंचों की सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है। निराला की काव्य सृजन का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक मजदूरनी को जेठ की भरी दुपहरी धूप में पत्थर तोड़ते हुए देखा और कालजयी रचना का सृजन कर डाला-
वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई
स्वीकार
श्याम तन,भर बंधा यौवन, नख नयन,
प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार सामने तरु-मालिका
अट्टालिका, प्रकार
चढ़ रही थी धूप गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई
लू
सई ज्यों जलती हुई भू गई
चिनगीं छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।


हिन्दी साहित्य में महिला रचनाकारों का जब भी जिक्र होता है तो सबसे पहले महादेवी वर्मा का नाम लिया जाता है। और यह इलाहाबाद का सौभाग्य है कि महादेवी वर्मा की कर्मभूमि भी यही शहर रहा है। महादेवी को मंचों का ‘स्वर कोकिला’ कहा जाता रहा है। उनकी मौजूदगी कवि सम्मेलनों की सफलता की जमानत हुआ करती थी। उनकी एक मशहूर कविता-


कहां रहेगी चिडि़या?

आंधी आई जोर-शोर से

डाली टूटी है झकोर से
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी
अब यह चिडि़या कहां रहेगी?


फि़राक़ गोरखपुरी ने अदब के चाहने वालों के लिए ऐसी शायरी पेश की है, जिसका जिक्र किए बिना कम से कम उर्दू शायरी का इतिहास तो पूरा नहीं हो सकता। उनकी नफ़ासत और शायरी का अंदाज़ उन्हें तमाम शायरों अलग खड़ा कर देती है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंच पर उनकी मौजूदगी भी विशेष महत्व रखती थी। वे फरमाते हैं-

बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं।
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
तबीयत अपनी घबराती है जब सूनसान रातों में,
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं।

सुमित्रानंदन ‘पंत’ छायावादी युग के प्रवर्तक कवियों में से हैं। इलाहाबाद की सरज़मीन से उन्होंने अपने सृजन को देशभर के कोने-कोने में पहुंचाया है। लिखते हैं-

चंचल पग दीप-शिखा-से धर
ग्रह मग,
वन में आया वसंत।

सुलगा फाल्गुन का सूनापन,

सौंदर्य-शिखाओं में अनंत सौरभ की
शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में
मधुर दाह
आया वसंत,
भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

‘मधुशाला’ नामक कृति के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हुए कवि हरिवंश राय बच्चन की कर्मभूमि भी इलाहाबाद ही रहा है। उन्होंने शिक्षा से लेकर काव्य सृजन का हुनर यहीं सीखा है।


बड़े-बड़े परिवार मिटें यों,
एक न हो रोने वाला

हो जाएं सुनसान महल वे,
जहां थिरकती सुरबाला।

राज्य उलट जाएं,
भूपों का भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,

जमे रहेंगे पीने वाले,
जगा करेगी मधुशाला


मुशायरों की दुनिया में राज़ इलाहाबाद का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता रहा है। आज भी उनकी ग़ज़लें और नात पाकिस्तान तक में बेहद मक़बूल है और गायी जाती है। फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार और हेमामालिनी तक उनकी शायरी के फैन रहे हैं-


लज्जते
ग़म बढ़ा दीजिए, आप फिर मुस्कुरा दीजिए।

मेरा दामन बहुत साफ है,कोई तोहमत लगा दीजिए।

एक समुंदर ने आवाज़ दी, मुझको पानी पिला दीजिए।

हैरत इलाहाबादी का यह शेर पूरी दुनिया में मुहावरों की तरह इस्तेमाल होता है-


आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं,

सामान सौ बरस का पहल की ख़बर नहीं।

मंचों पर चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी,उमाकंात मालवीय, कैलाश गौतम और अतीक़ इलाहाबादी का नाम भी बड़ी इज्जत से लिया जाता रहा है। जब तक ये लोग जीवित रहे इलाहाबाद की विरासत को मंच के माध्यम से देश-विदेश में पहुंचाते रहे। कैलाश गौतम की कविताओं की मक़बूलियत तो मंत्री से लेकर संत्री तक के बीच आज भी। आम आदमी में अपनी कविताओं की वजह से मक़बूल होने वाले कैलाश गौतम इलाहाबाद के अेकेल कवि हैं। मंचों पर सक्रिय रहने वाले इलाहाबाद के प्रमुख कवियों में असलम इलाहाबादी, यश मालवीय, फरमूद इलाहाबादी, नायाब बलियावी,अख्तर अज़ीज़, ख़्वाजा जावेद अख़्तर, इक़बाल दानिश, जमीर अहसन, बुद्धिसेन शर्मा,सुरेंद्र नाथ नूतन, एहतराम इस्लाम, सुधांशु उपाध्याय,शकील गा़ज़ीपुरी,मखदूम फूलपुरी, शरीफ़ इलाहाबादी, नजीब इलाहाबादी, अरमान ग़ाजीपुरी, गुलरेज इलाहाबादी,जयकृष्ण राय तुषार,श्लेष गौतम,वाकिफ़ अंसारी, नईम साहिल,सुनील दानिश,अशोक कुमार स्नेही, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव, जमादार धीरज,अखिलेश द्विवेदी,रविनंदन सिंह,नंदल हितैषी,मुनेंद्र नाथ श्रीवास्तव,हरीशचंद्र पांडे,जोवद शोहरत,तश्ना कानपुरी, अरविंद वर्मा आदि शामिल हैं।

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

कवि सम्मेलन के दलाल

.............. नाजि़या ग़ाज़ी ................

एक दौर था, जब कवि सम्मेलन और मुशायरों के मंच पर फि़राक़ गोरखपुरी, निराला, महादेवी वर्मा, पंत, राज़ इलाहाबादी जैसे साहित्यकार विराजमान होते थे और लोग उनकी शायरी को गंभीरता से सुनते थे. तब ऐसे मं
चों से कही गई बात देश और समाज के लिए मार्गदर्शक होती थी, संसद तक में यहां कही गई बातों पर चर्चा होती थी. मगर इस समय ऐसे मंचों को दलालों ने अपने कब्जे में कर लिया है. कवि सम्मेलन-मुशायरा कराने के लिए अलग-अलग गुट बन गए हैं, इन गुटों के लोग दिनभर विभिन्न सरकारी-गै़र सरकारी दफ्तरों में घूम-घूम कर कवि सम्मेलन कराने के लिए अधिकारियों को तैयार करने की कोशिश करते हैं, जी-हुजूरी करते हैं और फिर अधिकारी के तैयार हो जाने पर अपने गुट के कवियों को उसमें शामिल कराया जाता है, ऐसे लोगों को भी मंच पर बुलाकर काव्य पाठ कराया जा रहा है, जिनको न तो कविता लिखने की तमीज़ है और न ही समझने की. इस तरह के दलालों को अधिकारी भी ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं, अधिकारी अपने विभाग से सांस्कृतिक आयोजन के नाम पर धन उपलब्ध करा रहे हैं और खुद मंच पर मुख्य अतिथि बनकर गौरवान्वित हो रहे हैं. इसमें सबसे खराब बात यह है कि कवि सम्मेलनों की दलाली करने वाले लोग जानबूझकर उन लोगों को मंचों पर ले आ रहे हैं, जिन्हें एक लाइन की कविता-शायरी लिखने की तमीज़ नहीं है, दूसरों से मांगकर पढ़ते हैं और गलेबाजी की वजह से बड़े कवि बनते फिर रहे हैं. सबकुछ जानते हुए भी कवि सम्मेलनों के दलाल वास्तविक कवियों को मंच पर लाने की बजाए गवैयों को मंच पर बुला रहे हैं. कवि सम्मेलनों के संयोजक बने ये दलाल ‘तुम मुझे बुलाओ, मैं तुम्हें बुलाता हूं’ की तजऱ् पर काम कर रहे हैं. अच्छी और स्तरीय शायरी के आधार पर कवि सम्मेलनों में पढ़ने के लिए कवियों-शायरों को नहीं बुलाया जा रहा है. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कवियों की पुण्य तिथि तक पर आयोजित होने वाले कार्यक्रम में दलाल और गैर मैयारी टाइप के उन कवियों को आमंत्रित करते हैं, जिन्हें खुद वही कवि पसंद नहीं करते थे, जिनके पुण्य तिथि पर कार्यक्रम हो रहा होता है. उनकी आत्मा इस बात पर भी नहीं जागती कि कम से कम पुण्य तिथि पर होने वाले कार्यक्रम में उन कवियों को बुलाएं जो अच्छे कवि के साथ उनके साथी भी रहे हैं. ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कवि सम्मेलनों की क्या स्थिति है. पिछले दिनों इलाहाबाद के हिन्दुस्तानी एकेडमी में मुशायरे का आयोजन किया गया था, मंच पर उर्दू के कई बड़े अदीब मौजूद थे. संस्थान के एक बड़े अधिकारी ने अपने वक्तव्य में देश एक बहुत बड़े शायर के बारे में कहा, ‘ये साहब तो इसी कार्यक्रम के लिए इलाहाबाद में तीन दिन से पड़े हुए हैं, और ये जो दूसरे सुल्तानपुर के कवि हैं इनको तो मैंने सिविल लाइन चैराहे से उठा लिया है.’ अफ़सोस की शायरों की इस तरह बेइज़्ज़ती करने वाले उस अधिकारी के वक्तव्य का किसी ने विरोध तक नहीं किया, दांत चिहार कर सब लोग हंस रहे थे. अधिकारी को भी मालूम है कि कवियों को आमंत्रित करने का लालच देकर उनके खिलाफ़ कु भी बोल दो, फ़कऱ् नहीं पड़ता. हालत इतना बदतर है कि लोग दिनभर यह पता लगाने में जुटे रहते हैं कि कहां और कब मुशायरा हो रहा है और उसमें शामिल होने के लिए किससे जुगाड़ लगवानी है.दूसरी बात यह है कवि सम्मेलनों के मंच पर उन लोगों को भी बुलाया जा रहा है जो कवि न होकर लतीफेबाज हैं, और तकऱ् दिया जा रहा है कि क्या करें लोग इन्हीं को पसंद कर रहे हैं. यहां यह गौरतलब है कि अगर लतीफेबाजों को ही लोग सुन रहे हैं और उन्हें ही बुलाना है तो फिर उस आयोजन का नाम कवि सम्मेलन या मुशायरा क्यों दिया जाता है. जिन कार्यक्रमों में लतीफेबाज बुलाए जा रहे हैं, उनका नाम लाफ्टर शो, लतीफा सम्मेलन या इसी तरह कुछ और नाम दिया जाना चाहिए, ये क्या बात हुई कि नाम कवि सम्मेलन का और मंच पर बैठे हैं लतीफेबाज लोग. दुखद पहलू यह है कि सबकुछ जानते हुए भी इन स्थितियों के खिलाफ़ खड़ा होने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है, जबकि तमाम ऐसे प्रभावशाली साहित्यका हैं जो अगर खुलकर सामने आ जाएं तो बात ब सकती है.

गुफ्तगू के मार्च 2012 अंक का संपादकीय

गुरुवार, 15 मार्च 2012

युवा कवयित्री कु. सोनम पाठक



जन्म ः 16 अप्रैल 1993

पिता
ः श्री राकेश विहारी पाठक

शिक्षा
ः बी.ए.द्वितीय वर्ष (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

संपर्क ः क्वार्टर नं032, चैथी बटालियन, पी.ए.सी. काॅलोनी, धूमनगंज, इलाहाबाद-211011 विशेष ः ‘गुफ़्तगू’ द्वारा 30 अक्टूबर 2011को आयोजित कैम्पस काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान

अगर तुम न होती

अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती.....
मेरा ये जहान न होता, मेरी ये पहचान न होती...
तुम्हारी वजह से मैं आज जिन्दा हूं.....
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......

तुमने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना है सिखाया.....
इस संसार को मुझे अपनी आंखो से है दिखाया....

हर अच्छे-बुरे का ज्ञान है सिखाया.....

अपनी इच्छाओं का बलिदान देकर मेरा जीवन है सजाया.....

इस जीवन रूपी मझधार से वाकिफ है कराया...

जब रोए हम तुम्हारी भी आंखें नम हो गई....
जब भूख से तड़पें हम तुमने अपना कौर खिलाया.....

अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......

जीवन का सारांश बताकर मुझे अपने कत्र्तव्यों पर चलना है सिखाया...
जिसको मैंने बड़ी ही सरलता से स्वीकार है किया॥
तुमने मुझे दुखों के सैलाब से उभरना है सिखाया....
संघर्ष और अवसादों में मुझे खुश रहना है सिखाया.....

जीवन के हर कदम पर मेरा साथ है निभाया.....

हर उतार-चढ़ाव में संभलना है सिखाया...
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......

ज्यों-ज्यों मुस्काता हुआ चांद धरती पर....

अपनी चमकती हुई रोशनी बिखेरता है...

त्यों-त्यों मुझे तुम्हारी याद सताती है....

मानों ऐसा लगता है ममता के बादलों में....

मंडराती कोमलता मेरे हृदय को छू रही हो....

हर पल, हर तरफ, चारो दिशाओं में.....

आकाश में, पाताल में बस तुम्हारी ही तस्वीर नजर आती है.

मुझसे इतनी दूर क्यों चली गई हो....
मैंने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया जिसके कारण...

मेरे अन्तर्मन को दुःख हो रहा है.....

मानों ऐसा लगता है कि कहां तेरी खुशबू का अन्दाज मिल
मैं अपने पूरे जीवन को महका लूं....
तुझे और तेरी खुशबू को ऐसे कौन से पिंजरे में बन्द कर लूं.
जहां तू हर पल मौजूद रहे और मैं तुझे एकटक निहारती रहूं...

तेरी ममता की छांव को अपने अन्तर्मन में आत्मसात कर लूं.

तेरी इतनी दूरियां मुझसे सहीं नहीं जाती....

तेरे बिना मुझे हर विजय में हार का एहसास होता है....
ऐसा लगता है मानो पूरा संसार मुझ पर खिलखिला कर हंस रहा हो.

मेरी जिन्दगी रूक सी जाती है, कदम लड़खड़ाने से लगते हैं.

मुझे ऐसा लगता है मैं ऐसी कौन सी जगह ढूंढूं...

जहां सिर्फ और सिर्फ तेरा निशा हों, तेरा आसमां हूं....

सचमुच मैं ऐसे पाताली अन्धेरे की गुफाओं में....
धुंए के बादलों में, ऐसे बीहड़ो में खो जाना चाहती हूं....

जहां सिर्फ मुझे तेरी ममता की छांव मिले....

और मैं तेरी गोद में सर रखकर हमेशा के लिए सो जाऊ.....।


गुफ्तगू के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित

बुधवार, 7 मार्च 2012

अराजक स्वरूप है मुक्तछंद की कविताः माहेश्वर


22 जुलाई 1939 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में प्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर तिवारी मंचो से लेकर पत्र-पत्रिकाओं तक के माध्यम से साहित्य प्रेमियेां में मक़बूल है. इनका जन्म जमींदार परिवार में हुआ, जहां कला के प्रति रूचियां तो थी, लेकिन लिखने की परंपरा नहीं थी. लेखन का संस्कार स्व. रामदेव सिंह ‘कलाधर’ से मिला. अब तक आपके चार संग्रह ‘हरसिंगार कोई तो हो’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’, ‘नदी का अकेलापन’ और ‘फूल आये है कनेरों’ से प्रकाशित हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काव्य सौरभ कानपुर और विप्रा कला संस्था द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. ‘गुफ़्तगू’ के उप-संपादक डा0 शैलेष गुप्त ‘वीर ने इनसे बात की।
सवाल- इधर देखा जा रहा है कि बहुत से रचनाकार नवगीत लिख रहे हैं, किन्तु छन्द अनुशासन को तोड़कर और धड़ल्ले से छप भी रहे हैं?

जवाब
- ऐसा है कि गीत की पहली शर्त है कि वह गाया जा सकें और गेयता के लिये वार्षिक या मात्रिक छन्द उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि लय महत्वपूर्ण है. यदि आपकी लय नहीं टूटती है तो छन्द को तोड़ सकते हैं. ‘निराला’ ने भी यह काम किया है. उन्होंने घनाक्षरी छन्द को तोड़ा और उसमें गीत लिखे. गिरिजा कुमार माथुर ने सवैया जैसे छन्द का उपयोग किया तो जब आप नया साहित्य लिख रहे हैं, नयी बात कह रहे हैं तो आपका कथ्य कहीं से बाधित नहीं होना चाहिये. बात यह है कि यदि कथ्य आपका बाधित होता है तो छन्द को लचीला बनाना पड़ेगा. हां, यह अवश्य है कि छन्द को इस तरह मत तोडि़ये कि वह पद्य के बजाय गद्य हो जाये.


सवाल-मल्टीमीडिया और इण्टरनेट के युग में साहित्य ने भी अपना चोला बदल लिया है, कैसा महसूस करते है आप?


जवाब- आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. दरअसल यह है कि मीडिया में जो बाज़ार घुसा है वो बाज़ार साहित्य में भी दखल दे रहा है. साहित्य को उसके प्रतिपक्ष में खड़ा होना चाहिये थे, वह कोशिश तो कर रहा है किन्तु जिस व्यापक स्तर पर कोशिश होनी चाहिये, उस तरह से नहीं हो रही. अब कई लोग गीतों के नाम पर कूड़ा-करकट परोस रहे हैं और तमाम तरह से उनका प्रचार-प्रसार भी हो रहा है. प्रचार साहित्य का उद्देश्य कभी भी नहीं रहा है, उसका उद्देश्य तो मनुष्य के संस्कारों को संवर्धित करने का रहा है.


सवाल-कई रचनाकार ‘नयी कविता’ के नाम पर गद्य लिख रहे हैं. यदि उनकी पंक्तियों को जोड़कर लिख दिया जाय तो उसमें कविता कहीं बचती ही नहीं है. ‘नयी कविता’ के नाम पर बहुत कुछ कूड़ा-करकट छप रहा है. इन सबके बीच आप अपने आपको कितना सहज पाते हैं?


जवाब-मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूं. दरअसल संवेदना महत्वपूर्ण है. आपकी रचना में यदि संवेदना नहीं है और वैचारिकता ऊपर से लादी गयी है तो वह गद्य का ही हिस्सा बनेगी, कविता का नहीं. वैचारिकता को भी आपकी संवेदना में घुलकर आना चाहिये.....और हम लोग भी इसका विरोध करते हैं कि कविता को अखबार मत बनाइये. कविता संक्षिप्त होती है और संकेतों से बात करती है. गद्य में आप ऐसा नहीं करते हैं तो अगर आपकी कविता गद्य में परिवर्तित होती है तो ठीक बात नहीं है. छन्द को तोड़ने की जो बात कही गयी, उससे कहीं न कहीं अराजकता भी फैली है और इस अराजकता में हर तरह का कूड़ा-करकट शामिल होता गया. जैसे नदी बंधे हुये तटों के बीच चलती है तो उसकी एक मर्यादा होती है, उसकी अपनी एक गति होती है और जब वह तटों से बाहर फैलने लगती है तो उसमें वह संयम नहीं रह जाता है और वह अराजक हो जाता है. एक बार अशोक बाजपेई ने कहा था कि मुक्त छंद की कविता, कविता का प्रजातांत्रिक स्वरुप है तो मेरा कहना है कि वह प्रजातांत्रिक स्वरुप नहीं अराजक स्वरुप है क्योंकि प्रजातंत्र का भी एक अनुशासन होता है.


सवाल-फि़ल्मों में म्यूजिक ने गीतों के शिल्प, भाव, कथ्य सबको काफी हद तक लील लिया है. उल्टे-पुल्टे शब्दों का प्रयोग और अश्लीलता के बढ़ते तांडव के बीच इन गीतों को गीत कहना कितना उचित है?


जवाब-ऐसा है कि नवगीत ने अपने लिये जो एक नया नाम स्वीकार किया उसके पीछे यही एक दबाव था कि फि़ल्म में लिखने वाला भी अपने को गीतकार कहता है और साहित्य में लिखने वाला भी. तो इसीको लेकर गीत विरोधी थे, वे हमला करते थे और यह मानते थे कि फि़ल्मों में जो गीत लिखे जाते हैं वे धुनों के आधार पर लिखे जाते हैं, वहां कविता नहीं है, जबकि फि़ल्मों में भी कुछ बहुत अच्छे गीत लिखे गये हैं जैसे कि फि़ल्म ‘परिचय’ काा एक गीत है-‘बीती न बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना...’ या ‘ले के चलूं तुझे नीले गगन के तले, जहां प्यार ही प्यार पले’ इन गीतों में कविता है, किन्तु अब होने यह लगा है कि संगीत प्रमुख हो गया है और उसमें भी फ्यूजन वाला. वहां शोर अधिक है. साहिर लुधियानवी, मज़रुह सुल्तानपुरी और शैलेन्द्र आदि ने बहुत अच्छे गीत लिखे हैं किन्तु अब बाज़ार हावी है और यह सही है कि अबके गीतकार गीत के नाम पर कुछ ख़ास नहीं लिख रहे हैं. म्यूजि़क के लिये लिखे गये गीतों में सिर्फ़ ट्यून्स ही होंगे, कविता नहीं.


सवाल-आपके पसंदीदा दो रचनाकार कौन से है?


जवाब
-ये तो बड़ा ख़तरे वाला काम है लेकिन मेरे प्रिय रचनाकारों में, जिन्हें मैं मानता रहा हूं उनमें कबीरदास जी और ‘निराला’ जी प्रमुख है. इनके अतिरिक्त भवानी प्रसाद मिश्र भी मेरे प्रिय रचनाकारों में हैं. हां, एक बात अवश्य है कि मैं इन सब से प्रभावित नहीं रहा हूं, किन्तु ये मेरे प्रिय रचनाकार है.


सवाल
-नये रचनाकारों को शिकायत है कि वरिष्ठ रचनाकार उन्हें कोई भाव हीं नहीं देते?

जवाब-वरिष्ठ रचनाकार अगर भाव नहीं देते तो माहेश्वर तिवारी आज कहीं नहीं होते. सिर्फ़ यह है कि आप नया लिख रहे हैं तो एक अनुशासन आपके लिये भी आवश्यक है कि आप ज़बरदस्ती मनवाने की कोशिश मत करें. अगर आपकी रचना में कहीं कुछ है तो वरिष्ठ रचनाकार निश्चित रूप से आपको निकोगनाइज्ड करेंगें. इस दृष्टि से मैं उमाकांत मालवीय जी की प्रशंसा करूंगा. भवानी प्रसाद मिश्र भी यह काम करते थे. एक बार एक कवि सम्मेलन मे ंपहली बार भारत भूषण जी से मेरा परिचय हुआ. हम दोनों को मिलाने वाले थे हमारे मित्र कथाकार शत्रुघ्न लाल. उन्होंने भारत भाई से कहा कि भारत भाई, ये माहेश्वर ‘शलभ’ हैं, अच्छे गीत लिख रहे हैं और इन्हें आपका आर्शीवाद चाहिये तो उन्होंने कहा था कि ‘सूरज को कभी किसी के सहारे की ज़रुरत नहीं होनी चाहिये.’ तो कभी-कभी वरिष्ठ रचनाकार इस तरह से भी प्रोत्साहित करते हैं।

सवाल-लेकिन वरिष्ठ रचनाकार प्रोत्साहन के अपने दायित्व से जी चुराते नज़र आते हैं, ऐसा क्यों?

जवाब-अगर वो जी चुराते हैं, तो अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करते हैं, पहली बात तो मैं यह कहूंगा क्योंकि घर के बड़े का काम है जो घर का बच्चा है उसे संवारना, उसका पाल-पोषण करना, जितना कुछ हो सकता है अपनी तरफ़ से उसे देना. अगर यह नहीं दे रहे हैं....कभी-कभी यह भी होता है कि हमार बाज़ार न मारा जाये (ज़ोरदार ठहाका), मतलब इसको अगर हमने दुकान का लाइसेंस दे दिया तो हमारी दुकान को ख़तरा न हो, कभी-कभी यह भी एक भाव होता है और कभी-कभी छोटे होने के कारण नया रचनाकार उपेक्षा का पात्र बन जाता है; किन्तु वरिष्ठ रचाकारों को ऐसा करना नहीं चाहिये, यह उनका दायित्व है.


सवाल-आपने साहित्यिक बदलाव का एक लम्बा दौर देखा है. वर्तमान सन्दर्भो में साहित्य को अपनी अभिव्यक्ति किस प्रकार से करनी चाहिये?


जवाब-सबसे बड़ी चीज़ यह है कि आप अभिव्यक्ति का क्या करना चाहते हैं. आप अपने समय से जुडि़ये. वर्तमान से ही शाश्वत साहित्य निकलता है. हर रचनाकार ने अपने वर्तमान को ही गाने की कोशिश की है और उसकी जटिलताओं को व्यक्त करने की कोशिश की है. आप अपने समय से जुडि़ये तो भीतर से भी जुडि़ये और बाहर से भी; और इन दोनों के द्वन्द से जो बात पैदा होती है, उसकी अभिव्यक्ति देने की कोशिश कीजिये, सबसे बड़ी बात यह हैं।
सवाल-वर्तमान पीढ़ी के रचनाकारों के लिये आपका संदेश क्या है?

जवाब-वर्तमान पीढ़ी के रचनाकार जितना अधिक से अधिक, अच्छे से अच्छा साहित्य पढ़ सके, उसे पढ़ने की कोशिश करें क्योंकि अध्यवसाय से रचना में निखार और रचनाकार में गम्भीरता आती हैं.


गुफ्तगू के मार्च-2012 अंक में प्रकाशित

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

मार्च-2012 अंक में



3. ख़ास ग़ज़लें (मीर, अकबर इलाहाबादी, फि़राक़ गोरखपुरी, शकेब जलाली)

4. आपकी बात

5-6. संपादकीयः कवि सम्मेलन के दलाल
ग़ज़लंे
7. निदा फ़ाज़ली, डाॅ0 बशीर बद्र
8मुनव्वर राना, गयास शमसी ‘शाद’ बरेलवी

9. गौतम राजरिशी, धीरेन्द्र पाण्डेय

10. अक्स वारसी

11. फ़साहत अनवर, किशन स्वरुप, ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र, इक़बाल हुसैन इक़बाल

12. कमलेश व्यास ‘कमल’, अजीत शर्मा ‘आकाश’, महेश अग्रवाल, राजेन्द्र तिवारी

13. डाॅ0 दिनेश रस्तोगी, सत्यप्रकाश शर्मा, अनिल पठानकोटी, आर्य हरीश कोशलपुरी
14. डाॅ0 रंजन विशद, सुशील कुमार गौतम

15. उषा यादव ‘उषा’, शिबली सना, सिबतैन परवाना, डाॅ0 सौम्या जैन ‘अम्बर’

16. इरशाद अहमद बिजनौरी, डाॅ0 कमलेश द्विवेदी, हुमा अक्सीर, अंगद कुमार

43. भारत भूषण जोशी
48. डाॅ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’
कविताएं

17. कैलाश गौतम, जसप्रीत फ़लक, संजीवन मयंक
18. तलअत खुर्शीद

19. एस.वाई ‘सहर’, कंचन ‘आरजू’, धमेन्द्र
27. आनंद कुमार आदित्य
38.शकील ग़ाज़ीपुरी

9.धीरेंद्र पांडेय
16.अंगद कुमार
20-21 तआरुफ (सोनम पाठक)

22-23 संस्मरणः फि़राक़ गोरखपुरी
24-27 विशेष लेख (आफताब का चिरागः बहादुर शाह जफ़र)

28-30. इंटरव्यू (माहेश्वर तिवारी)

31-32. चैपाल-ग़ालिब को ‘भारत रत्न’ क्यों नहीं?

33-34. शखि़्सयतः सुधांशु उपाध्याय

35-36 कहानी (मेरी कीमती चीज़ खरीदो) शादमा बानो

37-38 अदबी खबरें

39-43 एहतराम इस्लाम के सौ शेर

44-45 इल्में काफि़या-भाग 9

46-48 तब्सेरा (कांच, मौसम के हवाले से, त्रिमूल धारें, अनुशासित इन्क़लाव)
परिशिष्ट: इश्क़ सुल्तानपुरी

49परिचयः इश्क सुल्तानपुरी

50-51. मोहब्बत की स्मृतियों का शायर -रविनंदन सिंह

52-53.सुकुमार मन की अभिव्यक्ति हे
कण्ण कुमार की कविताएं-विजय शंकर पाण्डेय
54-55 पुलिस अधिकारी की शायरी गौरतलब है-हुमा अक्सीर
56-80. इश्क सुल्तानपुरी की कविताएं