शनिवार, 25 मई 2013

फेसबुकिया शायरों ने किया सत्यानाश


    नाजि़या ग़ाज़ी
फेसबुक तेरा करूं मैं किस तरह से शुक्रिया/तूने बिलआखि़र सुखन को एक पैमाना दिया।
हर कोई अब शेर कह लेता है तेरी बज़्म में/शायरे  आज़म निकम्मों को बना तूने दिया।
टूटेफूटे शेर पर तहसीम की बाछौर उफ/अहकमों ने अब अदब को कितना छिछला कर दिया।
शायरा सबा ख़ान के ये अश्आर साफ़तौर पर इशारा कर रहे हैं कि फेसबुक पर किस तरह शायरी की जा रही है और ग़लत चीज़ों को किस तरह प्रमोट करने की कोशिशें जारी हैं। फेसबुक और इसके जैसे अन्य सोशल साइट्स ने साहित्य का कबाड़ा बनाने का जैसा बीड़ा ही उठा लिया है। कई प्रकार से शायरी का नुकसान हो रहा है। हालत यह है कि लोग एक शेर लिखते हैं और उसे बिना किसी से सलाह मश्विरा किये ही तुरंत फेसबुक पर पब्लिश कर देते हैं, शेर पब्लिश करते ही उसे पसंद करने वालों और उसके तारीफ़ में कमेंट करने वालों का तांता लग जाता है। इसमें अधिकतर पसंद व कमेंट करने वाले लोग तो बिना पढ़े ही तारीफ़ के पुल बांध देते हैं, और अगर शेर पब्लिश करने वाली कोई महिला हुई तो फिर उसके शेर को पसंद करने वालों की संख्या मिनटों में सैकड़ा पार कर जाती है। साथ ही कोई भी शेर पब्लिश होते ही वही शेर चंद मिनटों में कई लोग काॅपी करके अपने नाम से फ़ौरन ही पब्लिश कर देते हैं। जांचने के लिए किसी भी पब्लिश हुए शेर को सर्च करके देखा जा सकता है। ऐसे में काॅपी पेस्ट करके खुद को शायर-कवि बताने वालों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। एक बात और उल्लेखनीय है कि जो लोग दूसरों के अश्आर पर कमेंट करते हैं या उसे पसंद करते हैं उन्हीं के अश्आर को लोग पसंद करते हैं। कहने का मतलब यह है कि अगर कोई शायर सचमुच का अच्छा शेर कहता है और वह खुद किसी के शेर की तारीफ़ नहीं करता है तो उसके अश्आर को पसंद करने वालों की संख्या बहुत ही कम होती है। बाकायदा लोगों का ग्रुप बना हुआ है कि किसका पसंद करना है और किसका नहीं करना है। कई लोग तो ऐसे हैं जिनके शेर पर तारीफ़ के कमेंट न करो तो वे नाराज़ हो जाते हैं, बातचीत बंद कर देते है, अनफ्रेंड करने में भी देर नहीं करते। विडंबना यह है कि कट-पेस्ट करके शायर बने लोग एक दूसरे को बड़ा शायर साबित करने में तल्लीनता से जुड़े हुए हैं। उनकी नज़र में वहीं सक्रिय और बड़े साहित्यकार हैं जो सोशल साइट्स से जुड़े हुए हैं। जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है, अधिकतर बड़े और स्तरीय साहित्यकार सोशल साइट्स पर नहीं आते। इस तरह की सक्रियता से ख़ासतौर पर नये लोगों में गलत संदेश जा रहा है और नये लोग सीख़ने-पढ़ने की बजाय कट-पेस्ट करके ही अपने को साहित्यकार साबित करने में जुटे हुए हैं। तुरंत ही कुछ लिखा और कहीं से कट किया अपने वाॅल पर पब्लिश कर दिया और धड़ाधड़ तारीफ करने वालों की लाइन लग गई। यह प्रवृत्ति साहित्य के लिए बेहद ही ख़तरनाक है। बकौल मुनव्वर राना ‘शायरी करना कुएं में नेकियां फेंकने जैसा अमल है। शायरी तो वो सब्र है, जिसका बांध कभी-कभी तो सदियों के बाद टूटता है। शायरी तो वह इम्तिहान है, कभी-कभी जिसका नतीज़ा आते-आते कई नस्लें मर-खप चुकी होती हैं। लेकिन ये सब्र इस लिहाज से क़ाबिले मुबारकबाद है कि आज तुलसी, कबीर, जायसी और ग़ालिब को तकरीबन सभी जानते हैं, लेकिन इस अहद के राजा नवाब या बादशाह के बारे में वो मुअर्रिख़ भी यक़ीन से नहीं बता सकते, तारीख़ रक़म करते-करते जिनकी उंगलियां शल, हाथ लरजिशज़दा और चेहरा झुर्रियों से मकड़ी के जाले जैसा हो चुका है ( गुफ्तगू- जुलाई-सितंबर 2005)।’
कहने का आशय है कि साहित्य ऐसी हंसी-मजाक की चीज़ नहीं है, जिसे फेसबुकिया शायरों ने बना रखा है। एक-एक शेर कहने और उस पर घंटों गौर करने के बाद अपने उस्ताद को दिखाया जाता है, उसे उस्ताद हर नज़रिये से जांचता परखता है फिर उसे कहीं छपने को दिया जाता है या किसी महफि़ल में पढ़ा जाता है। लेकिन फेसबुक के गिरोहबंद शायरों ने कट-पेस्ट करके और कचरी-अधकचरी सामग्री को लोगों के सामने ले आ रहे हैं। इसका सबसे ग़लत संदेश उन लोगों के सामने जा रहा है जो नये-नये लेखन से जुड़ते हैं, उनको लगता है कि असली साहित्य या शायरी यही है जो फेसबुक  और इसके जैसे अन्य सोशल साइट्स पर पेश किया जा रहा है। इन साइटों पर विभिन्न प्रकार के गु्रप बने हुए हैं, इन गु्रपों में शामिल लोग एक-दूसरे को देश का सबसे बड़ा शायर-कवि साबित करने में लगे हुए हैं। अपनी सामग्री अधिक से अधिक लोगों को पहुंचाने के लिए सोशल साइट्स बहुत अच्छे माध्यम हैं, लेकिन इनका दुरुपयोग ज़्यादा हो रहा है, इस पर ग़ौर किये जाने की ज़रूरत है।        
                                                                 

बुधवार, 15 मई 2013

बात सिर्फ एक अदद हिन्दुस्तानी एकेडेमी की ही नहीं है

Imtiyaz Ahmad Ghazi

                                                              -इम्तियाज़ अहमद गाजी
प्रदेश सरकार ने हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अध्यक्ष सुनील जोगी को क्या बनाया, शहर के साहित्यकारों का जैसे जमीर जाग उठा है। इस बहाने शुरू हुए अभियान ने साहित्य के लिए कई राहें खोल दी हैं, साथ ही यह संकेत सामने आ गया है कि निराला और फि़राक़ जैसे लोगों का यह शहर उपर से थोपी हुई सभी चीज़ों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। एक अदद हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पर नई नियुक्ति को लेकर शुरू हुआ अभियान अब प्रदेश स्तर का मुद्दा बना चुका है। ऐसे में प्रदेश सरकार को देर-सबेर साहित्यकारों की बात सुननी ही पड़ेगी। अच्छी बात यह है कि इस एक मुद्दे पर ही सही अधिकतर साहित्यकार एक जुट हुए हैं और भविष्य में उम्मीद की जा सकती है कि साहित्य की भलाई के लिए साहित्यकार एकजुट हो सकते हैं।
अप्रैल के पहले पखवारे में जब हिन्दुस्तनी एकेडेमी के अध्यक्ष की नियुक्ति हुई तो इलाहाबाद के साहित्यकारों को बड़ा झटका लगा। ख़ासकर जागरुक लोगों को यह एहसास हुआ कि सुनील जोगी किसी प्रकार से इस पद के लायक नहीं हैं। फिर साहित्यकारों की बैठकें शुरू हुईं, बात आगे बढ़ी तो पता चला कि सिर्फ़ हिन्दुस्तानी एकेडेमी ही नहीं बल्कि भारतेंदु नाट्य एकेडेमी,उत्तर प्रदेश संगीत नाटक एकेडेमी, उत्तर प्रदेश ललित कला एकेडेमी और उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर जिन लोगों की नियुक्ति हुई, वे सभी इन पदों के लायक नहीं है। उर्दू अदीबों के विरोधों के कारण उर्दू एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर जिस महिला केा नियुक्त किया गया था, उसे 24 घंटे के अंदर ही प्रदेश सरकार को हटाना पड़ा है, सरकार की इस कार्यवाही से साहित्यकारों में आस भी जगी है कि उनकी सुनी जाएगी। अब आंदोलन शुरू हो चुका है, लगभग सभी प्रमुख शहरों में इन नियुक्तियों के विरोध में हस्ताक्षर अभियान जारी है, जिन्हें एकत्र करके लखनउ में प्रेस कांफ्रेस करके जारी किया जाएगा और मुख्यमंत्री से मुलाकात करके उनके सामने अपनी बात रखनी है।
6 अप्रैल को इलाहाबाद में ही एक कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें सुनील जोगी ने लोगों से समर्थन में हाथ उठवाते हुए एक कविता पढ़ी-‘बहुत हो चुका अब ना जनता के घाव कुरेदो, सारा देश कह रहा है अब मोदी को दिल्ली दे दो।’ आश्चर्यजनक है कि प्रदेश की सपा सरकार ने इसके चार दिन बाद जोगी को हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अध्यक्ष बना दिया। जोगी कार्यभार ग्रहण करने के लिए इलाहाबाद आते हैं और बयान देते हैं कि यहां के साहित्यकारों ने इलाहाबाद को महाराष्टृ बना दिया है और मेरे साथ ठाकरे जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जबकि जोगी को यह अच्छी तरह से पता है कि महाराष्टृ में यूपी-बिहार वालों के खिलाफ हिंसात्मक रवैया अपनाया जाता है, इलाहाबाद में उनके साथ ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ, मर्यादित ढंग से प्रदेश सरकार के इस निर्णय का विरोध हो रहा है, कोई धरना-प्रदर्शन या काम रुकावाट या फिर हिंसा वाली बात कभी नहीं आयी। इसके बाद फिर एक कार्यक्रम होता है तो उसमें जोगी इलाहाबाद के साहित्यकारों को संबोधित करते हुए कविता पढ़ते हैं कि ‘लूले लगड़े लोग अब मुझे चलना सिखला रहे हैं’। जोगी जी को यह कैसे भ्रम हो गया है कि इलाहाबाद के लोग लूले लगड़े हैं, वे अपने पैरों पर नहीं चल सकते हैं। जाहिर है ऐसी बातों से साहित्यकारों का पारा और चढ़ेगा ही और वही हुआ है।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के संदर्भ में दो और महत्वपूर्ण बातें हैं, जिसका संज्ञान साहित्यकार तो ले चुके हैं, लेकिन सरकार ने अब तक नहीं लिया है। पहली बात यह है कि 80 के दशक तक एकेडेमी के अध्यक्ष पर नियुक्ति करने के लिए प्रदेश सरकार इलाहाबाद के वरिष्ठ साहित्यकारों से सलाह मांगती थी कि किसको अध्यक्ष बनाया जाए। साहित्यकारों द्वारा सुझाए गए नामों में से किसी को यह दायित्व दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। यही वजह है कि जिस प्रकार आज जोगी का विरोध हो रहा है, उतना विरोध कभी किसी अध्यक्ष के खिलाफ नहीं हुआ। दूसरी बात यह है कि एकेडेमी का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए जो मानक तय किये गए थे, उनमें एक यह भी था कि सेवानिवृत्त अर्थात 60 वर्ष अधिक आयु के साहित्यकारों को ही अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि जोगी की नियुक्ति के लिए यह आयु सीमा घटाकर 25 वर्ष कर दी गई है। ये चीजें साफ दर्शा रही हैं कि राजनैतिक हितों के लिए साहित्यिक हितों की बलि किस प्रकार दी जा रही है। विडंबना यह है कि एक-दुक्का चाटुकार टाइप के साहित्यकार इन चीजों को समझते हुए भी अपने व्यक्तिगत हितों के लिए समर्थन कर रहे हैं। चाटुकार किस्म के लोग सत्ता में बैठे निर्णायक लोगों के पास भी आसानी से पहुंच जाते हैं।
साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है इसलिए सरकार से ये उम्मीद करना बेमानी नहीं है कि कम से कम अन्य निगमों की तरह सांस्कृतिक, साहित्यिक अकादमियों के अध्यक्ष पदों पर सिर्फ राजनैतिक हितों के मद्देनजर अध्यक्ष पदों पर नियुक्ति न करे। बल्कि ऐसी अकादिमयों पर योग्य लोगों की नियुक्ति करे ताकि कम से कम कला और संस्कृति का सही काम हो। जानकारों का यह भी मानना है कि अन्य राजनितिज्ञों के मुकाबले मुलायम सिंह यादव साहित्यकारों को तरजीह देते हैं, इसलिए अगर उनके पास इन बातों को ठीक ढंग से पहुंचाया जाए तो बात जरूर बनेगी। इसलिय यह माना जा रहा है कि साहित्यकारों की आवाज मुख्यमंत्री और सपा मुखिया के दरबार में दबायी नहीं जाएगी।

गुफ़्तगू की मासिक नशिस्त में चला शेरो-शायरी का दौर

इलाहाबाद।साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में 7 मई को मासिक काव्य गोष्ठी एवं नशिस्त का आयोजन  महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के परिसर में किया गया। अध्यक्षता एहतराम इस्लाम ने किया, मुख्य अतिथि के रूप में सागर होशियापुरी व विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर  मिश्र थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।
 युवा अजय कुमार की पंक्तियां यूं थीं-
रोजगार दफ्तर में जाकर खड़े हुए थे भइया,
भीड़ बहुत थी पैर दब गया और मार दी गइया।
भत्ता तो अब नहीं मिलेगा और भाग्य भी फूटा,
जांच कराये पता चला कि पैर का पंजा टूटा।
 अनुराग अनुभव की कविता यूं थी-
मैं हवा पुरवई, तुम महक सुरमई,
और मिलकर के कर दें समा जादुई
 राजीव श्रीवास्तव ‘नसीब’ ने कहा-
मर गए लोग सेरआम गलत, ढल गई जि़न्दगी की शाम गलत।
उठ काम बाकी है बहुत अभी, कर रहा है तू आराम गलत।
 इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल काफी सराही गई-
तेरे आंसुओं का सिला भी न देगा। ये मोहसिन तुझे हौसला भी न देगा।
बुलंदी पे पहंुचा जो तेरे सहारे, सहारा तो क्या रास्ता भी न देगा।
 सबा ख़ान ने ग़ज़ल का अलग ही रंग पेश किया-
गुलाब रंग सबा और बहार की बातें।
घुटन बहुत है करो अब करार की बातें।
 वीनस केसरी ने कहा-
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियां आने लगीं।
फैसले को खाप की कुछ पगडि़यां आने लगीं।
उम्र फिर गुजरेगी शायद राम की बनवास में,
दासियों के फेर में फिर रानियां आने लगीं।
 देवयानी ने कविता प्रस्तुत की
तुम समय को ढूंढ रहे हो, सुनो फिर
समय है जीवन और मृत्यु के बीच का अंतराल।
 विमल वर्मा ने कहा-
मां आटे में गूध कर,पानी के संग प्यार।
सिर्फ़ रोटियां ही नहीं, रचती है संसार।
 जयकृष्ण राय ‘तुषार’ ने इलाहाबाद की वसंगति पर गीत पेश किया-
मंच विदूषक, अब
दरबारों के रत्न हुए
मंसबदारी, हासिल
करने के बस यत्न हुए
यही
शहर है जहां
कलम की दुर्दिन सहती थी।
 नायाब बलियावी ने तरंनुम में कलाम पेश किया-
क़रीब हो के जो बंजर ज़मीन लगते हैं,
सितारे दूर ही रहके हसीन लगते हैं।
 शाहीन-
सुर्ख लाली लिये शाम ढलने लगी
ओढ़नी सर से नीचे सरकने लगी
ऐसे शरमाई जेैसे खता हो गयी।
प्यार करने को देखो सजा हो गयी।


सागर होशियारपुरी-
घर ही अमादा हो जब खुद लूटने को आबरू,
भागकर जाएं कहां घर से घरों की बेटियां।


एहतराम इस्लाम-
नेवले के दांत सांप की गर्दन में धंस गए,
बोला मदारी भीड़ से ताली बजाइए।