रविवार, 28 अक्तूबर 2018

आलोचना का बुरा दौर चल रहा है

     
डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (दाएं) से बात करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार, संपादक, विचारक और शिक्षक हैं। वर्ष 1978 से वे गोरखपुर से साहित्यिक पत्रिका ‘दस्तावेज’ निकाल रहे हैं। दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया तथा हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। वे साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष रहे हैं। अपने समृद्ध रचना संसार के अंतर्गत आखर अनंत, फिर भी कुछ रह जाएगा, साथ चलते हुए, चीज़ों को देखकर, शब्द और शताब्दी उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। प्रमुख अलोचना में समकालीन हिन्दी कविता, रचना के सरोकार, आधुनिक हिन्दी कविता, गद्य के प्रतिमान, कविता क्या है, आलोचना के हाशिए पर, छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य, नए साहित्य का तर्क शास्त्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि सम्मिलित हैं। एक नाव यात्री संस्मरण एवं आत्म की धरती और अंतहीन आकाश उनके यात्रा संस्मरण हैं। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, पुश्किन पुरस्कार, व्यास सम्मान, सरस्वती सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, हिन्दी गौरव सम्मान, सहित कई पुरस्कार मिले हैं। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने पिछले दिनों उनसे विस्तृत बातचीत की। फोटोग्राफी सुधीर हिलसायन ने की।
सवाल: अपने जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म 1940 ई. में गोरखपुर जनपद (अब कुशीनगर जनपद) के एक गांव रायपुर भैंसही (भेड़िहारी) में हुआ। परिवार एक सम्पन्न किसान परिवार माना जाएगा क्योंकि अपनी जरूरतें पूरी करने में सक्षम था। लेकिन परिवार में किसी ने प्राइमरी स्कूल से आगे की शिक्षा नहीं पाई थी। परिवार आस्तिक और माता-पिता शाकाहारी। पांच भाई, दो बहनें। मैं भाइयों में सबसे बड़ा हूं। परिवार का एक मात्र आश्रय खेती थी। गांव अत्यन्त पिछड़ा और आधुनिक सुविधाओं से दूर है। मेरा गांव गोरखपुर शहर से लगभग 70 किलोमीटर ईशान कोण पर स्थित है।

सवाल: आप स्वयं को ज्यादा संतुष्ट किस रूप में पाते हैं, कवि के रूप में या आलोचक के?
जवाब: रचनात्मक लेखन में ही अपने को ज्यादा संतुष्ट पाता हूं, वह चाहे कविता हो या गद्य की कोई सर्जनात्मक विधा। जैसे संस्मरण, यात्रा संस्मरण, डायरी या आत्मकथात्मक कुछ। कभी-कभी कुछ सैद्धान्तिक आलोचनात्मक लेखों से भी पर्याप्त संतोष मिलता है।

सवाल: आप कवि के साथ हीएक आलोचक भी हैं। एक कवि सहृदय होता है और एक आलोचक को अपना कर्म निभाने के लिए प्रायः कठोर भी होना पड़ता है। आपकी रचनाधर्मिता इन विरूद्धों में सामंजस्य कैसे बैठा पाती है?
जवाब: कवि और आलेचक दोनों का सहृदय होना जरूरी है, दोनों का कठोर होना भी आवश्यक है। टी. एस. इलिएट जो कवि और आलेचक दोनांे ही थे, ने कविता और आलोचना दोनों को समान महत्व दिया है। कविता में आलोचना के गुण और आलोचना में कविता के गुण दोनों को श्रेष्ठ बनाते हैं। कविता न तो निरी भावुक होनी चाहिए न आलोचना शुष्क और नीरस।

सवाल: आपकी राय में क्या आज भी समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की सक्रिय भूमिका है या फिर साहित्य मात्र कुछ विद्वत वर्गों की चर्चा-परिचर्चा का ही विषय मात्र रह गया है?
जवाब: समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की भूमिका आज कम ज़रूर हो गई है, लेकिन अब भी उसे एकदम निष्प्रभावी नहीं कहा जा सकता। आज विज्ञान और यांत्रिक माध्यम ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हो गये हैं तथा इनका तात्कालिक प्रभाव भी ज्यादा है पर साहित्य का असर जहां पड़ता है ज्यादा स्थायी होता है।


सवाल: पीछे जाने माने कन्नड़ विद्वान एम. एम. कलबुर्गी की हत्या और दादरी कांड के बाद जिस तरह का माहौल देश में बना और असहिष्णुता के मुद्दे को लेकर देश के कई साहित्यकारों ने साहित्य अकेदेमी अवार्ड लौटाए। क्या आप एक साहित्यकार होने के नाते इस घटना से आहत हुए और अकेदेमी के अध्यक्ष होने के नाते आपके सामने क्या चुनौतियां थीं?
जवाब: प्रो. कलबुर्गी की हत्या एवं दादरी कांड दोनो ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं थीं जिनकी जितनी निंदा की जाय, कम है। लेखकों-बुद्धिजीवियों का आक्रोश और विरोध स्वाभाविक था। पर इस विरोध ने जिस तरह का माहौल बनाया उसमें भी राजनीति थी और उसे देश की जनता तथा स्वयं बुद्धिजीवियों ने समझ लिया। अकादमी अध्यक्ष होने के नाते मुझे उस माहौल में अकादमी को बचाने की चिन्ता थी। अकादमी का उसमें कोई दोष नहीं था। अकादमी का कार्य क्षेत्र साहित्य है, देश में शान्ति-व्यवस्था कायम रखना सरकारों की जिम्मेदारी है।
सवाल: आप विगत कई वर्षाें से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दस्तावेज़’ का सम्पादन कर रहे हैं। कृपया पत्रिका की एक संक्षिप्त यात्रा और उसके विशेषांकों के बारे में हमारे पाठकों को बताएं।
जवाब: ‘दस्तावेज़’ पत्रिका की शुरूआत 1978 में हुई थी। लगभग 40 वर्षाें से वह नियमित निकल रही है। उसने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर बहुत मूल्यवान सामग्री प्रकाशित की है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक विशेषांक प्रकाशित किये हैं जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। दस्तावेज़ किसी राजनीतिक-साहित्यिक संगठन की पत्रिका नहीं रही, न चर्चित होना या हंगामा खड़ा करना उसका लक्ष्य रहा। साहित्यिक गुटबंदियों से दूर सभी प्रकार के लेखकों को साथ लेकर वह चलती रही और मुझे प्रसन्नता है कि सभी प्रकार के लेखकों का उसे सहयोग भी मिला।
सवाल: साहित्य की किस विधा को आप अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ और सक्षम माध्यम मानते हैं?
जवाब:  जहां तक लेखक का पक्ष है, भाव और विचार स्वयं उसके भीतर से अपनी विधा लेकर प्रकट होते हैं। एक लम्बे समय तक कविता अभिव्यक्ति की विधा रही है और उसका व्यापक प्रभाव भी रहा है तथा आज भी है। जब से गद्य का विकास हुआ अनेक विधाओं में रचनात्मक अभिव्यक्तियां हुईं। महत्व विधा का नहीं कृति का है। जिस भी विधा में श्रेष्ठ कृति होगी, उसका प्रभाव पड़ेगा। हर विधा में कमजोर कृतियां होती हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि आज गद्य ही लोकप्रिय माध्यम है और उसकी विधाओं के पाठक भी अधिक हैं। अतः यह भी कहा जा सकता है कि गद्य-विधाएं ज्यादा प्रभावी हैं आजकल कथेतर विधाएं (जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त आदि) ज्यादा पढ़ी जा रही हैं।
सवाल: आपकी दृष्टि में आलेचना का गुण-धर्म क्या है?
जवाब: आलोचना का अर्थ ही है ‘देखना’। यह ‘देखना’ बहुत मुश्किल काम है। यदि आप राग, द्वेष या काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर के वशीभूत हैं तो सही और तटस्थ होकर देख नहीं सकते। किसी चीज को उसके प्रकृत रूप में देखने के लिए देखने वाले को स्वयं को प्रकृतस्थ करना पड़ता है। आलोचना का सबसे बड़ा गुण है कृति को उसके वास्तविक रूप में देखना। यही आलोचना का धर्म भी है।
सवाल: हिन्दी जगत में अब यह बात प्रायः उठने लगी है कि हिन्दी आलोचना का एक बुरा दौर अभी चल रहा है, कोई भी नया नाम उल्लेखनीय नहीं है, आपका क्या मानना है?
जवाब: आपका कहना सही है कि आलोचना का बुरा दौर चल रहा है। हमारे समय में आलेचना अविश्वसनीय हो गई है। यह तो किसी कृति की अतिप्रशंसा की जाती है या निन्दा। संतुलित आलोचना, जिसमें कृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाय और उसके सामथ्र्य तथा सीमा को उद्घाटित किया जाय, कम देखने को मिलती है। इसमंे स्वयं रचनाकारों का भी दोष कम नहीं है। वे हमेशा अपनी कृति की प्रशंसा ही पढ़ना चाहते हैं तथा उस पर उपने मित्रों से ही लिखवाना चाहते हैं।

सवाल: आपने दुनिया के कई देशों की यात्राएं की हैं। विदेशों में आप भारतीय साहित्य और खासकर हिन्दी की क्या स्थिति पाते हैं?
जवाब: विदेशों में भारतीय साहित्य और हिन्दी की स्थिति सामान्य ही कही जा सकती है। भारतीय साहित्य, विदेशों में, एक समय में काफी महत्वपूर्ण रहा। खास कर संस्कृत साहित्य। आज भी विदेशी विद्वान भारत के क्लासिक साहित्य (कालजयी रचनाओं) का अनुवाद करने में दिलचस्पी रखते हैं। समकालीन साहित्य का पठन-पाठन भी होता है पर उसे वह महत्व प्राप्त नहीं है। विदेशों के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है और पढ़ने वाले छात्र भी हंै। अतः हिन्दी की हालत ठीक कही जा सकती है। अन्य भाषाओं की स्थिति हिन्दी जैसी नहीं है।

सवाल: आपकी कविता की एक पंक्ति है- ‘‘हमें उत्तराधिकार में नहीं चाहिए पुस्तकें, आजकल साहित्यिक पुस्तकों के लिए पाठकों का संकट है, प्रकाशकों की भी अपनी समस्याएं हैं, आपका इस बारे में क्या कहना है?
जवाब: पुस्तकों पर संकट तो है, इसमें कोई संदेह नहीं। यांत्रिक माध्यमों ने इस संकट को और गहरा किया है। हमारी युवा पीढ़ी सब कुछ मोबाइल पर इंटरनेट के सहारे पढ़ना चाहती है। पुस्तकों के प्रकाशन की भी समस्याएं हैं। कुछ पापुलर साहित्य बहुत बिक रहा है और अधिकांश साहित्य के पाठक नहीं हैं। यह स्थिति सभी भाषाओं में है। अंग्रेजी भाषा का आक्रमण भी एक बड़ा संकट है। हमारी युवा पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम में पली-बढ़ी है। वह अपनी मातृ भाषा में नहीं, अंग्रेजी में पढ़ना चाहती है। लेकिन फिर भी पुस्तकों का महत्व रहेगा। सभी भाषाओं में जो श्रेष्ठ साहित्य छप रहा है, वह अंततः पढ़ा तो जायेगा ही।

सवाल: साहित्य और पत्रकारिता का गहरा संबंध रहा है किन्तु आजकल पत्रकारिता में साहित्य हाशिए पर चला गया है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
जवाब: आपका कहना सही है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग में साहित्य और पत्रकारिता में कोई विशेष अन्तर नहीं था। जो साहित्यकार थे वे पत्रकार भी थे। हिन्दी के सभी बड़े पत्रकार साहित्यकार भी रहे हैं। मगर आज पत्रकारिता में साहित्य गायब है। यह मुनाफा कमाने की संस्कृति और बाजार के दबाव के कारण है। आज साहित्य से ज्यादा उपयोगी है विज्ञापन।

सवाल: दलित लेखन और स्त्री लेखन के संदर्भ में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब: इस संबंध में मैं अन्यत्र भी लिख चुका हूं। स्वानुभूति का दायरा सीमित होता है, सहानुभूति का व्यापक। स्वानुभूति से रचना में प्रामाणिकता आती है, इसमें संदेह नहीं। दलित और स्त्री आत्मकथाएं इसकी प्रमाण हैं। पर एक बडे़ लेखक को किसी बड़ी रचना, जैसे उपन्यास या प्रबंध काव्य के लिए, सैकड़ों चरित्रों की सृष्टि करनी पड़ती है और उन सबको अपनी सह अनुभूति से ही खड़ा करना पड़ता है। परकाय प्रवेश लेखक की विशिष्ट शक्ति है। यदि किसी लेखक में यह क्षमता नहीं है तो वह कोई बड़ी रचना नहीं कर सकता। बिना इस शक्ति के कोई लेखिका किसी स्त्री या कोई दलित किसी दलित चरित्र का भी चित्रण नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त लेखक में भाषा की सर्जनात्मक शक्ति होती है। अगर यह नहीं है तो उसकी रचना समर्थ नहीं होगी। स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस साहित्य के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )
                   

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

नज़ीर हुसैन ने की भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत

                                                 

                         
nazeer hussain
                                                                            -मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                               
आजाद हिंद फ़ौज़ के जाबाज़ सिपाही और भोजपुरी फिल्म के पितामह कहे जाने वाले कुशल निर्माता और निर्देशक नजीर हुसैन का जन्म 15 मई 1922 को उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर जिले के उसिया गांव मे हुआ था। इनके पिता का नाम साहबजाद खान रेलवे में गार्ड थे और माता रसूलन बीबी जो एक धार्मिक गृहिणी थीं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मकतब में प्रारंभ हुई और आगे की पढ़ाई लखनऊ में। नज़ीर हुसैन ने 400 से अधिक फिल्मों में काम किया। इससे पहले उन्होने कुछ समय के लिए ब्रिटिश सेना में काम किया, जहां पर नेता सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव में आकर भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) में बिमल रॉय बोस के साथ शामिल हो गए, कुछ दिनों तक जेल में रहे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया गया था। 16 फरवरी 1961 भोजपुरी सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक दिन है, इसी दिन पटना के शहीद स्मारक में भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ का मूहूर्त समारोह हुआ और उसके अगली सुबह से इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई, इसी के साथ भोजपुरी फिल्मों के निर्माण का काम शुरू हुआ। नज़ीर हुसैन को भोजपुरी फिल्म बनाने की प्रेरणा उनको देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से मिली थी। राजेंदर बाबू के सामने जब नजीर साहब ने अपनी इच्छा प्रकट की तो उन्होंने कहा आपकी बात तो बहुत अच्छी है लेकिन इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। इसके बाद उसने उन्होंने एक बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखी जिसका नाम रखा ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ और फिर वक़्त की रफ्तार के साथ निर्माता ढूंढने की उनकी कोशिश अनवरत जारी रही। उनके इस काम में नज़ीर साहब के हमसफ़र बने निर्माता के रूप में विश्वनाथ शाहाबादी, निर्देशक के रूप में कुंदन कुमार। इस फिल्म के हीरो असीम कुमार और हिरोइन कुमकुम थीं। ये क़ाफ़िला जब आगे बढ़ा तो इसमें रामायण तिवारी, पद्मा खन्ना, पटेल और भगवान सिन्हा जैसी शख़्सियतें भी शामिल हो गईं। गीत का जिम्मा शैलेन्द्र ने उठाया तो संगीत के जिम्मेदारी ली चित्रगुप्त जी ने। फिर क्या था, फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनी और 1962 में रिलीज हुई। नतीजा ये कि गांव तो गांव शहर के लोग भी इस भोजपुरी फिल्म को देखने में खाना-पीना भूल गए। जो वितरक इस फिल्म को लेने से ना-नुकुर कर रहे थे अब दांतो तले अंगुली काटने लगे थे। पांच लाख की पूंजी से बनी इस फिल्म ने लगभग 75 लाख रुपए का व्यवसाय किया। इसे देखकर कुछ व्यवसायी  भोजपुरी फिल्म को सोना के अंडे देने वाली मुर्गी समझने लगे। नतीजा ये निकला कि भोजपुरी फिल्म निर्माण का जो पहला दौर 1961 से शुरू हुआ वो 1967 तक चल पड़ा। इस दौर में दर्जनों फिल्में बनीं, लेकिन ‘लागी नाहीं छूटे राम’ और ‘विदेसिया’ को छोड़ कर कोई भी फिल्म अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। एक दशक की चुप्पी 1967 के बाद दस साल तक भोजपुरी फिल्म निर्माण का सिलसिला ठप रहा। सन 1977  में विदेसिया के निर्माता बच्चू भाई साह ने इस चुप्पी को तोड़ने का ज़ोखि़म उठाया। उन्होंने सुजीत कुमार और मिस इंडिया प्रेमा नारायण को लेकर पहली रंगीन भोजपुरी फिल्म ‘दंगल’ का निर्माण किया। नदीम-श्रवण के मधुर संगीत से सजी ‘दंगल’ व्यवसाय के दंगल में भी बाजी मार ले गई। भोजपुरी फिल्म के इस धमाकेदार शुरुआत के बावजूद दस साल 1967 से 1977 तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण लगभग बंद रहा। भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की ये हालत भोजपुरिया संस्कार और संस्कृति की भोथर चाकू से हत्या करने वाले फिल्मकारों के चलते हुई। सन् 1967 से 1977 के अंतराल में जगमोहन मट्टू ने एक फिल्म ‘मितवा’ भी बनाई, जो कि 1970 में उत्तर प्रदेश और 1972 में बिहार में प्रदर्शित की गई। इस तरह से ये फिल्म पहले और दूसरे दौर के बीच की एक कड़ी थी। भोजपुरी फिल्म का सुनहरा दौर 1977 में प्रदर्शित ‘दंगल’ की कामयाबी ने एकबार फिर नज़ीर हुसैन को उत्प्रेरित कर दिया। जिसके बाद उन्होंने राकेश पाण्डेय और पद्मा खन्ना को शीर्ष भूमिका में लेकर ‘बलम परदेसिया’ का निर्माण किया। अनजान और चित्रगुप्त के खनखनाते गीत-संगीत से सुसज्जित ‘बलम परदेसिया’ रजत जयंती मनाने में सफल हुई। तब इस सफलता से अनुप्राणित होकर भोजपुरी फिल्म के तिलस्मी आकाश में निर्माता अशोक चंद जैन का धमाकेदार अवतरण हुआ और उनकी फिल्म ‘धरती मइया’ और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ ने हीरक जयंती मनाई। भोजपुरी फिल्म निर्माण का ये दूसरा दौर 1977 से 1982 तक चला। सन् 1983 में 11 फिल्में बनीं जिनमें मोहन जी प्रसाद की ‘हमार भौजी’, 1984 में नौ फिल्में बनीं जिसमें राज कटारिया की ‘भैया दूज’, 1985 में 6 फिल्में बनीं जिनमें लाल जी गुप्त की ‘नैहर के चुनरी’ और मुक्ति नारायण पाठक की ‘पिया के गांव’, इसके अलावा 1986 में 19 फिल्में बनीं जिनमें रानी श्री की ‘दूल्हा गंगा पार के’ हिट रही, जिन्होंने भोजपुरी फिल्म व्यवसाय को खूब आगे बढ़ाया जो सभी फिल्मे बिहार में प्रदर्शित की गई थी। वह स्पोर्ट्स के साथ-साथ बेहतरीन समाज सेवक रहे, नज़ीर हुसैन का अपने पैतृक गांव उसियां एवं ‘कमसारोबार’ क्षेत्र से शुरू से ही अच्छा जुड़ाव रहा, इसलिए वो अपनी कई सारी फिल्मों की शूटिंग भी अपने क्षेत्रीय इलाको में की। आखिरकार, 25 जनवरी 1984 को अचानक उनकी मृत्यु मुंबई में हो गई। 
           ( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

आज भी सक्रिय हैं पत्रकार वीएस दत्ता

VS DUTTA



                                                    -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 लगभग नौ दशक पहले वीएस दत्ता का जन्म पंजाब के उस हिस्से में हुआ, जो आज पाकिस्तान में है। आपके पिता श्री एन.एस. दत्ता एयरलाइंस में थे, माता श्रीमती कृष्ण कुमारी दत्ता कुशल गृहणि थीं। पांच भाई और दो बहनों में आप चाथे नंबर पर हैं। आज इनकी एक बहन अमेरिकी में अपने परिवार के साथ रहती, एक भाई दिल्ली में रहते हैं। वीएस दत्ता की प्रारंभिक शिक्षा कराची के सेंट पैट्रिक हाईस्कूल में हुई, इसी स्कूल से पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवानी ने भी शिक्षा हासिल की थी। कराची से आपके पिताजी का तबादला ग्वालियर हुआ तो यहां आ गए। तब उर्दू की पढ़ाई करते थे, ग्वालियर आकर एक प्राइवेट ट्यूटर से हिन्दी पढ़ी, सीखी। ग्वालियर से पिताजी का तबादला इलाहाबाद होने पर यहां आकर सेंट जोसेफ में पढ़ाई की, फिर यहां जीआईसी और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर इकोनामिक्स से एमए किया। छात्र जीवन से ही लेखन के प्रति रूझान था, सबसे पहले ‘संपादक के नाम पत्र’ लिखना शुरू किया, पहला पत्र ‘पत्रिका’ में छपा।
पढ़ाई पूरी करने के बाद सन 1962 ई. में पत्रकारिता में प्रवेश किया। अंग्रेज़ी अख़बार ‘लीडर’ में पत्रकार की नौकरी के लिए लिखित परीक्षा ली गई, परीक्षा पास करने के बाद 162 रुपये प्रति माह पर नौकरी मिल गई। 1967 में लीडर अख़बार बंद हो गया, बेरोजगारी का दंश झेलते हुए कुछ दिन जीप फैक्ट्री में नौकरी की। 1973 में एनआईपी ज्वाईन किया। तब से एनआईपी में ही नौकरी करते है, हालांकि बीच-बीच में कई बार एनआईपी बंद होता रहा है। इसके साथ ही दत्ता साहब युनाइटेड भारत अख़बार में संपादकीय लिखते हैं। इनका पुत्र युनाइटेड कालेज में कंप्यूटर पढ़ाता है।
आज की पत्रकारिता के बार में श्री दत्ता का कहना है कि पहले पत्रकार आर्थिक तौर पर बहुत अधिक परेशान होते थे, लेकिन बिकते नहीं थे। आज गिफ्ट और डीनर के बिना रिर्पोटिंग नहीं होती। पहले अख़बारों में ‘संपादक के नाम पत्र’ में भी कोई शिकायत छप जाती थी तो उस पर प्रशासन चैकन्ना हो जाता था, उस पर कार्रवाई हो जाती थी, आज लीड ख़बर बनने पर भी कार्रवाई नहीं होती। तब के पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में यह फ़र्क़ आ गया है।
(गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

अपराजिता में थी अपार संभावनाएं: राम नरेश त्रिपाठी


   
सीमा वर्मा ‘अपराजिता’ अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद। सीमा वर्मा अपराजिता की कविताओं को पढ़ने के बाद बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि उसमें अपार संभावाएं थीं, लेकिन समय के काल ने उसे 27 वर्ष की आयु में ही हमसे छीन लिया है। उसकी कविताओं को ‘गुफ्तगू’ ने परिशिष्ट में रूप में प्रकाशित करते बहुत ही सराहनीय काम किया है, ऐसे की कामों की वजह से साहित्य की दुनिया में गुफ्तगू की अलग पहचान है। यह बात 09 सितंबर 2018 की शाम सिविल लाइंस स्थित बाल भारती स्कूल में साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के सीमा वर्मा अपराजिता अंक के विमोचन के अवसर पर मुख्य अतिथि प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और पत्रकार पं. राम नरेश त्रिपाठी ने कही। श्री त्रिपाठी ने कहा कि सीमा की रचनाएं बताती हैं कि उसके अंदर कितनी गहराई थी, अल्प आयु में ही उसने जीवन के सच पहचान लिया था, आसाध्य रोग से पीड़ित होने के बावजूद उसने कभी हार नहीं माना।
 गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि अपराजिता करीब तीन साल पहले अपनी कविताएं लेकर पत्रिका में छपवाने के लिए आई थी, तब उसमें कविता के प्रति काफी लगाव दिखा था, उसकी कविताओं को बराबर गुफ्तगू को स्थान दिया गया, मगर यह नहीं पता था कि ईश्वर उसे अल्प आयु में ही अपने पास बुला लेगा, मगर वह हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेगी। अपराजिता के भाई देवेंद्र्र प्रताप वर्मा ने कहा कि मेरी छोटी बहन अपराजिता मेरी बहन, मित्र और सहपाठी भी थी, उसके निधन ने पूरे परिवार को तोड़ दिया है, मगर उसकी लेखनी को गुफ्तगू ने प्रकाशित करके एक तरह से अमर कर दिया है।
 सामाजिक कार्यकर्ता उमैर जलाल ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ के निरंतर बढ़ते कदम साहित्य के लिए बेहद खास बात है, इसमें तमाम नये लोगों को अवसर मिलता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे शकील ग़ाज़ीपुरी ने कहा पिछले 15 साल से गुफ्तगू पत्रिका के निरंतर प्रकाशन ने अपने आप में एक इतिहास बनाया है। निरंतर मेहनत और समर्पण् ने गुफ्तगू को एक कामयाब पत्रिका के रूप में स्थापित किया है, इस अंक में सीमा अपराजिता को विशेष रूप में प्रकाशित करके ‘गुफ्तगू’ ने एक और बड़ा काम किया है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।
दूसरे दौर में मुशायरे  का आयोजन किया गया। जिसमें नरेश कुमार महरानी, प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, शिवाजी यादव ‘सारंग’, शिवपूजन सिंह, शैलेंद्र जय, जमादार धीरज, बुद्धिसेन शर्मा, भोलानाथ कुशवाहा, फरमूद इलाहाबादी, रचना सक्सेना, संपदा मिश्रा, राम लखन चैरसिया, नूतन द्विवेदी, विवेक विक्रम सिंह, शिबली सना, वाक़िफ़ अंसारी, डाॅ. नईम साहिल, अना इलाहाबादी, सुनील दानिश, कविता पाठक नारायणी, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, कविता उपाध्याय, उर्वशी उपाध्याय, सांभवी, अजीत शर्मा ‘आकाश’, नंदिता एकांकी, इरशाद खान, शाहिद इलाहाबादी, रंजीता समृद्धि आदि ने कलाम पेश किया।