nazeer hussain |
आजाद हिंद फ़ौज़ के जाबाज़ सिपाही और भोजपुरी फिल्म के पितामह कहे जाने वाले कुशल निर्माता और निर्देशक नजीर हुसैन का जन्म 15 मई 1922 को उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर जिले के उसिया गांव मे हुआ था। इनके पिता का नाम साहबजाद खान रेलवे में गार्ड थे और माता रसूलन बीबी जो एक धार्मिक गृहिणी थीं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मकतब में प्रारंभ हुई और आगे की पढ़ाई लखनऊ में। नज़ीर हुसैन ने 400 से अधिक फिल्मों में काम किया। इससे पहले उन्होने कुछ समय के लिए ब्रिटिश सेना में काम किया, जहां पर नेता सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव में आकर भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) में बिमल रॉय बोस के साथ शामिल हो गए, कुछ दिनों तक जेल में रहे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया गया था। 16 फरवरी 1961 भोजपुरी सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक दिन है, इसी दिन पटना के शहीद स्मारक में भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ का मूहूर्त समारोह हुआ और उसके अगली सुबह से इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई, इसी के साथ भोजपुरी फिल्मों के निर्माण का काम शुरू हुआ। नज़ीर हुसैन को भोजपुरी फिल्म बनाने की प्रेरणा उनको देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से मिली थी। राजेंदर बाबू के सामने जब नजीर साहब ने अपनी इच्छा प्रकट की तो उन्होंने कहा आपकी बात तो बहुत अच्छी है लेकिन इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। इसके बाद उसने उन्होंने एक बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखी जिसका नाम रखा ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ और फिर वक़्त की रफ्तार के साथ निर्माता ढूंढने की उनकी कोशिश अनवरत जारी रही। उनके इस काम में नज़ीर साहब के हमसफ़र बने निर्माता के रूप में विश्वनाथ शाहाबादी, निर्देशक के रूप में कुंदन कुमार। इस फिल्म के हीरो असीम कुमार और हिरोइन कुमकुम थीं। ये क़ाफ़िला जब आगे बढ़ा तो इसमें रामायण तिवारी, पद्मा खन्ना, पटेल और भगवान सिन्हा जैसी शख़्सियतें भी शामिल हो गईं। गीत का जिम्मा शैलेन्द्र ने उठाया तो संगीत के जिम्मेदारी ली चित्रगुप्त जी ने। फिर क्या था, फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनी और 1962 में रिलीज हुई। नतीजा ये कि गांव तो गांव शहर के लोग भी इस भोजपुरी फिल्म को देखने में खाना-पीना भूल गए। जो वितरक इस फिल्म को लेने से ना-नुकुर कर रहे थे अब दांतो तले अंगुली काटने लगे थे। पांच लाख की पूंजी से बनी इस फिल्म ने लगभग 75 लाख रुपए का व्यवसाय किया। इसे देखकर कुछ व्यवसायी भोजपुरी फिल्म को सोना के अंडे देने वाली मुर्गी समझने लगे। नतीजा ये निकला कि भोजपुरी फिल्म निर्माण का जो पहला दौर 1961 से शुरू हुआ वो 1967 तक चल पड़ा। इस दौर में दर्जनों फिल्में बनीं, लेकिन ‘लागी नाहीं छूटे राम’ और ‘विदेसिया’ को छोड़ कर कोई भी फिल्म अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। एक दशक की चुप्पी 1967 के बाद दस साल तक भोजपुरी फिल्म निर्माण का सिलसिला ठप रहा। सन 1977 में विदेसिया के निर्माता बच्चू भाई साह ने इस चुप्पी को तोड़ने का ज़ोखि़म उठाया। उन्होंने सुजीत कुमार और मिस इंडिया प्रेमा नारायण को लेकर पहली रंगीन भोजपुरी फिल्म ‘दंगल’ का निर्माण किया। नदीम-श्रवण के मधुर संगीत से सजी ‘दंगल’ व्यवसाय के दंगल में भी बाजी मार ले गई। भोजपुरी फिल्म के इस धमाकेदार शुरुआत के बावजूद दस साल 1967 से 1977 तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण लगभग बंद रहा। भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की ये हालत भोजपुरिया संस्कार और संस्कृति की भोथर चाकू से हत्या करने वाले फिल्मकारों के चलते हुई। सन् 1967 से 1977 के अंतराल में जगमोहन मट्टू ने एक फिल्म ‘मितवा’ भी बनाई, जो कि 1970 में उत्तर प्रदेश और 1972 में बिहार में प्रदर्शित की गई। इस तरह से ये फिल्म पहले और दूसरे दौर के बीच की एक कड़ी थी। भोजपुरी फिल्म का सुनहरा दौर 1977 में प्रदर्शित ‘दंगल’ की कामयाबी ने एकबार फिर नज़ीर हुसैन को उत्प्रेरित कर दिया। जिसके बाद उन्होंने राकेश पाण्डेय और पद्मा खन्ना को शीर्ष भूमिका में लेकर ‘बलम परदेसिया’ का निर्माण किया। अनजान और चित्रगुप्त के खनखनाते गीत-संगीत से सुसज्जित ‘बलम परदेसिया’ रजत जयंती मनाने में सफल हुई। तब इस सफलता से अनुप्राणित होकर भोजपुरी फिल्म के तिलस्मी आकाश में निर्माता अशोक चंद जैन का धमाकेदार अवतरण हुआ और उनकी फिल्म ‘धरती मइया’ और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ ने हीरक जयंती मनाई। भोजपुरी फिल्म निर्माण का ये दूसरा दौर 1977 से 1982 तक चला। सन् 1983 में 11 फिल्में बनीं जिनमें मोहन जी प्रसाद की ‘हमार भौजी’, 1984 में नौ फिल्में बनीं जिसमें राज कटारिया की ‘भैया दूज’, 1985 में 6 फिल्में बनीं जिनमें लाल जी गुप्त की ‘नैहर के चुनरी’ और मुक्ति नारायण पाठक की ‘पिया के गांव’, इसके अलावा 1986 में 19 फिल्में बनीं जिनमें रानी श्री की ‘दूल्हा गंगा पार के’ हिट रही, जिन्होंने भोजपुरी फिल्म व्यवसाय को खूब आगे बढ़ाया जो सभी फिल्मे बिहार में प्रदर्शित की गई थी। वह स्पोर्ट्स के साथ-साथ बेहतरीन समाज सेवक रहे, नज़ीर हुसैन का अपने पैतृक गांव उसियां एवं ‘कमसारोबार’ क्षेत्र से शुरू से ही अच्छा जुड़ाव रहा, इसलिए वो अपनी कई सारी फिल्मों की शूटिंग भी अपने क्षेत्रीय इलाको में की। आखिरकार, 25 जनवरी 1984 को अचानक उनकी मृत्यु मुंबई में हो गई।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )
2 टिप्पणियाँ:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व पोलियो दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बढ़िया जानकारी
एक टिप्पणी भेजें