रविवार, 28 अक्तूबर 2018

आलोचना का बुरा दौर चल रहा है

     
डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (दाएं) से बात करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार, संपादक, विचारक और शिक्षक हैं। वर्ष 1978 से वे गोरखपुर से साहित्यिक पत्रिका ‘दस्तावेज’ निकाल रहे हैं। दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया तथा हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। वे साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष रहे हैं। अपने समृद्ध रचना संसार के अंतर्गत आखर अनंत, फिर भी कुछ रह जाएगा, साथ चलते हुए, चीज़ों को देखकर, शब्द और शताब्दी उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। प्रमुख अलोचना में समकालीन हिन्दी कविता, रचना के सरोकार, आधुनिक हिन्दी कविता, गद्य के प्रतिमान, कविता क्या है, आलोचना के हाशिए पर, छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य, नए साहित्य का तर्क शास्त्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि सम्मिलित हैं। एक नाव यात्री संस्मरण एवं आत्म की धरती और अंतहीन आकाश उनके यात्रा संस्मरण हैं। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, पुश्किन पुरस्कार, व्यास सम्मान, सरस्वती सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, हिन्दी गौरव सम्मान, सहित कई पुरस्कार मिले हैं। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने पिछले दिनों उनसे विस्तृत बातचीत की। फोटोग्राफी सुधीर हिलसायन ने की।
सवाल: अपने जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म 1940 ई. में गोरखपुर जनपद (अब कुशीनगर जनपद) के एक गांव रायपुर भैंसही (भेड़िहारी) में हुआ। परिवार एक सम्पन्न किसान परिवार माना जाएगा क्योंकि अपनी जरूरतें पूरी करने में सक्षम था। लेकिन परिवार में किसी ने प्राइमरी स्कूल से आगे की शिक्षा नहीं पाई थी। परिवार आस्तिक और माता-पिता शाकाहारी। पांच भाई, दो बहनें। मैं भाइयों में सबसे बड़ा हूं। परिवार का एक मात्र आश्रय खेती थी। गांव अत्यन्त पिछड़ा और आधुनिक सुविधाओं से दूर है। मेरा गांव गोरखपुर शहर से लगभग 70 किलोमीटर ईशान कोण पर स्थित है।

सवाल: आप स्वयं को ज्यादा संतुष्ट किस रूप में पाते हैं, कवि के रूप में या आलोचक के?
जवाब: रचनात्मक लेखन में ही अपने को ज्यादा संतुष्ट पाता हूं, वह चाहे कविता हो या गद्य की कोई सर्जनात्मक विधा। जैसे संस्मरण, यात्रा संस्मरण, डायरी या आत्मकथात्मक कुछ। कभी-कभी कुछ सैद्धान्तिक आलोचनात्मक लेखों से भी पर्याप्त संतोष मिलता है।

सवाल: आप कवि के साथ हीएक आलोचक भी हैं। एक कवि सहृदय होता है और एक आलोचक को अपना कर्म निभाने के लिए प्रायः कठोर भी होना पड़ता है। आपकी रचनाधर्मिता इन विरूद्धों में सामंजस्य कैसे बैठा पाती है?
जवाब: कवि और आलेचक दोनों का सहृदय होना जरूरी है, दोनों का कठोर होना भी आवश्यक है। टी. एस. इलिएट जो कवि और आलेचक दोनांे ही थे, ने कविता और आलोचना दोनों को समान महत्व दिया है। कविता में आलोचना के गुण और आलोचना में कविता के गुण दोनों को श्रेष्ठ बनाते हैं। कविता न तो निरी भावुक होनी चाहिए न आलोचना शुष्क और नीरस।

सवाल: आपकी राय में क्या आज भी समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की सक्रिय भूमिका है या फिर साहित्य मात्र कुछ विद्वत वर्गों की चर्चा-परिचर्चा का ही विषय मात्र रह गया है?
जवाब: समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की भूमिका आज कम ज़रूर हो गई है, लेकिन अब भी उसे एकदम निष्प्रभावी नहीं कहा जा सकता। आज विज्ञान और यांत्रिक माध्यम ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हो गये हैं तथा इनका तात्कालिक प्रभाव भी ज्यादा है पर साहित्य का असर जहां पड़ता है ज्यादा स्थायी होता है।


सवाल: पीछे जाने माने कन्नड़ विद्वान एम. एम. कलबुर्गी की हत्या और दादरी कांड के बाद जिस तरह का माहौल देश में बना और असहिष्णुता के मुद्दे को लेकर देश के कई साहित्यकारों ने साहित्य अकेदेमी अवार्ड लौटाए। क्या आप एक साहित्यकार होने के नाते इस घटना से आहत हुए और अकेदेमी के अध्यक्ष होने के नाते आपके सामने क्या चुनौतियां थीं?
जवाब: प्रो. कलबुर्गी की हत्या एवं दादरी कांड दोनो ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं थीं जिनकी जितनी निंदा की जाय, कम है। लेखकों-बुद्धिजीवियों का आक्रोश और विरोध स्वाभाविक था। पर इस विरोध ने जिस तरह का माहौल बनाया उसमें भी राजनीति थी और उसे देश की जनता तथा स्वयं बुद्धिजीवियों ने समझ लिया। अकादमी अध्यक्ष होने के नाते मुझे उस माहौल में अकादमी को बचाने की चिन्ता थी। अकादमी का उसमें कोई दोष नहीं था। अकादमी का कार्य क्षेत्र साहित्य है, देश में शान्ति-व्यवस्था कायम रखना सरकारों की जिम्मेदारी है।
सवाल: आप विगत कई वर्षाें से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दस्तावेज़’ का सम्पादन कर रहे हैं। कृपया पत्रिका की एक संक्षिप्त यात्रा और उसके विशेषांकों के बारे में हमारे पाठकों को बताएं।
जवाब: ‘दस्तावेज़’ पत्रिका की शुरूआत 1978 में हुई थी। लगभग 40 वर्षाें से वह नियमित निकल रही है। उसने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर बहुत मूल्यवान सामग्री प्रकाशित की है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक विशेषांक प्रकाशित किये हैं जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। दस्तावेज़ किसी राजनीतिक-साहित्यिक संगठन की पत्रिका नहीं रही, न चर्चित होना या हंगामा खड़ा करना उसका लक्ष्य रहा। साहित्यिक गुटबंदियों से दूर सभी प्रकार के लेखकों को साथ लेकर वह चलती रही और मुझे प्रसन्नता है कि सभी प्रकार के लेखकों का उसे सहयोग भी मिला।
सवाल: साहित्य की किस विधा को आप अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ और सक्षम माध्यम मानते हैं?
जवाब:  जहां तक लेखक का पक्ष है, भाव और विचार स्वयं उसके भीतर से अपनी विधा लेकर प्रकट होते हैं। एक लम्बे समय तक कविता अभिव्यक्ति की विधा रही है और उसका व्यापक प्रभाव भी रहा है तथा आज भी है। जब से गद्य का विकास हुआ अनेक विधाओं में रचनात्मक अभिव्यक्तियां हुईं। महत्व विधा का नहीं कृति का है। जिस भी विधा में श्रेष्ठ कृति होगी, उसका प्रभाव पड़ेगा। हर विधा में कमजोर कृतियां होती हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि आज गद्य ही लोकप्रिय माध्यम है और उसकी विधाओं के पाठक भी अधिक हैं। अतः यह भी कहा जा सकता है कि गद्य-विधाएं ज्यादा प्रभावी हैं आजकल कथेतर विधाएं (जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त आदि) ज्यादा पढ़ी जा रही हैं।
सवाल: आपकी दृष्टि में आलेचना का गुण-धर्म क्या है?
जवाब: आलोचना का अर्थ ही है ‘देखना’। यह ‘देखना’ बहुत मुश्किल काम है। यदि आप राग, द्वेष या काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर के वशीभूत हैं तो सही और तटस्थ होकर देख नहीं सकते। किसी चीज को उसके प्रकृत रूप में देखने के लिए देखने वाले को स्वयं को प्रकृतस्थ करना पड़ता है। आलोचना का सबसे बड़ा गुण है कृति को उसके वास्तविक रूप में देखना। यही आलोचना का धर्म भी है।
सवाल: हिन्दी जगत में अब यह बात प्रायः उठने लगी है कि हिन्दी आलोचना का एक बुरा दौर अभी चल रहा है, कोई भी नया नाम उल्लेखनीय नहीं है, आपका क्या मानना है?
जवाब: आपका कहना सही है कि आलोचना का बुरा दौर चल रहा है। हमारे समय में आलेचना अविश्वसनीय हो गई है। यह तो किसी कृति की अतिप्रशंसा की जाती है या निन्दा। संतुलित आलोचना, जिसमें कृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाय और उसके सामथ्र्य तथा सीमा को उद्घाटित किया जाय, कम देखने को मिलती है। इसमंे स्वयं रचनाकारों का भी दोष कम नहीं है। वे हमेशा अपनी कृति की प्रशंसा ही पढ़ना चाहते हैं तथा उस पर उपने मित्रों से ही लिखवाना चाहते हैं।

सवाल: आपने दुनिया के कई देशों की यात्राएं की हैं। विदेशों में आप भारतीय साहित्य और खासकर हिन्दी की क्या स्थिति पाते हैं?
जवाब: विदेशों में भारतीय साहित्य और हिन्दी की स्थिति सामान्य ही कही जा सकती है। भारतीय साहित्य, विदेशों में, एक समय में काफी महत्वपूर्ण रहा। खास कर संस्कृत साहित्य। आज भी विदेशी विद्वान भारत के क्लासिक साहित्य (कालजयी रचनाओं) का अनुवाद करने में दिलचस्पी रखते हैं। समकालीन साहित्य का पठन-पाठन भी होता है पर उसे वह महत्व प्राप्त नहीं है। विदेशों के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है और पढ़ने वाले छात्र भी हंै। अतः हिन्दी की हालत ठीक कही जा सकती है। अन्य भाषाओं की स्थिति हिन्दी जैसी नहीं है।

सवाल: आपकी कविता की एक पंक्ति है- ‘‘हमें उत्तराधिकार में नहीं चाहिए पुस्तकें, आजकल साहित्यिक पुस्तकों के लिए पाठकों का संकट है, प्रकाशकों की भी अपनी समस्याएं हैं, आपका इस बारे में क्या कहना है?
जवाब: पुस्तकों पर संकट तो है, इसमें कोई संदेह नहीं। यांत्रिक माध्यमों ने इस संकट को और गहरा किया है। हमारी युवा पीढ़ी सब कुछ मोबाइल पर इंटरनेट के सहारे पढ़ना चाहती है। पुस्तकों के प्रकाशन की भी समस्याएं हैं। कुछ पापुलर साहित्य बहुत बिक रहा है और अधिकांश साहित्य के पाठक नहीं हैं। यह स्थिति सभी भाषाओं में है। अंग्रेजी भाषा का आक्रमण भी एक बड़ा संकट है। हमारी युवा पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम में पली-बढ़ी है। वह अपनी मातृ भाषा में नहीं, अंग्रेजी में पढ़ना चाहती है। लेकिन फिर भी पुस्तकों का महत्व रहेगा। सभी भाषाओं में जो श्रेष्ठ साहित्य छप रहा है, वह अंततः पढ़ा तो जायेगा ही।

सवाल: साहित्य और पत्रकारिता का गहरा संबंध रहा है किन्तु आजकल पत्रकारिता में साहित्य हाशिए पर चला गया है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
जवाब: आपका कहना सही है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग में साहित्य और पत्रकारिता में कोई विशेष अन्तर नहीं था। जो साहित्यकार थे वे पत्रकार भी थे। हिन्दी के सभी बड़े पत्रकार साहित्यकार भी रहे हैं। मगर आज पत्रकारिता में साहित्य गायब है। यह मुनाफा कमाने की संस्कृति और बाजार के दबाव के कारण है। आज साहित्य से ज्यादा उपयोगी है विज्ञापन।

सवाल: दलित लेखन और स्त्री लेखन के संदर्भ में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब: इस संबंध में मैं अन्यत्र भी लिख चुका हूं। स्वानुभूति का दायरा सीमित होता है, सहानुभूति का व्यापक। स्वानुभूति से रचना में प्रामाणिकता आती है, इसमें संदेह नहीं। दलित और स्त्री आत्मकथाएं इसकी प्रमाण हैं। पर एक बडे़ लेखक को किसी बड़ी रचना, जैसे उपन्यास या प्रबंध काव्य के लिए, सैकड़ों चरित्रों की सृष्टि करनी पड़ती है और उन सबको अपनी सह अनुभूति से ही खड़ा करना पड़ता है। परकाय प्रवेश लेखक की विशिष्ट शक्ति है। यदि किसी लेखक में यह क्षमता नहीं है तो वह कोई बड़ी रचना नहीं कर सकता। बिना इस शक्ति के कोई लेखिका किसी स्त्री या कोई दलित किसी दलित चरित्र का भी चित्रण नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त लेखक में भाषा की सर्जनात्मक शक्ति होती है। अगर यह नहीं है तो उसकी रचना समर्थ नहीं होगी। स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस साहित्य के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )
                   

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें