गुरुवार, 26 नवंबर 2020

जासूसी पात्रों के जनक हैं गोपाल राम गहमरी

                                                     

गोपाल राम गहमरी

                                                               - शहाब ख़ान गोड़सरावी

     जब कभी जासूसी कहानियों या उपन्यास का जिक्र होता है, तो सबसे पहले गोपाल राम गहमरी का नाम ही सामने आता है। इन्होंने जासूसी कहानियां लिखकर पाठकों के बीच जो अपनी पहचान बनाई है, उसके करीब आज तक कोई भी जासूसी कहानियों का लेखक पहुंच सका है। इनका जन्म सन् 1866 ई. में गाजीपुर जिले के बारा गांव में हुआ था, लेकिन बचपन से ही वो अपने ननिहाल गहमर गांव में रहे। जब वे छह माह के थे, तभी उनके पिता की प्लेग से मौत हो गई, इससे घबराकर मां अपने बेटे गोपाल को लेकर अपने मायके चली आईं और यहीं रहने लगीं। 

 गोपाल ने मीडिल तक की पढ़ाई गहमर के ही उर्दू माध्यम के मीडिल स्कूल से पूरी की। इसके बाद इसी स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे। सन.1883 में पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस शर्त को उन्होंने स्वीकार कर लिया। उनकी हिंदी की लिखावट काफी अच्छी थी, इसलिए उन्हें बलियां में खसरा जमाबंदी की पहली नौकरी मिल गई। 1889 में रोहतासगढ़ मिडिल स्कूल में हेडमास्टर नियुक्त हो गए। मगर, यहां भी वे टिक नहीं पाए और बंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक सेठ गंगा विष्णु खेमराज के आमंत्रण पर 1891 में बंबई चले गए। फिर 1892 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कालाकांकर से निकलने वाले दैनिक ‘हिन्दोस्थान’ में वे नियमित काॅलम लिखने लगे। 1893 में फिर मुंबई का रुख किया और वहां के समाचार पत्र ‘बंबई ब्यापार सिंधु’ एवं ‘भाषा भूषण’ का संपादन करने लगे। जब खेमराज जी ने ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू तो गहमरी जी इससे जुड़ गए। 

 इसी दौरान प्रयाग से निकलने वाले ‘प्रदीप’ (बंगीय भाषा) में ट्रिब्यून के संपादक नगेंद्रनाथ गुप्त की एक जासूसी कहानी ‘हीरे का मोल’ प्रकाशित हुई थी। गहमरी जी ने इस कहानी का हिंदी में अनुवाद कर श्री वेंकटेश्वर समाचार में कई किस्तों में प्रकाशित किया। यह जासूसी कहानी बहुत लोकप्रिय हुई। इसकी लोकप्रियता से उनके समझ में आ गया कि जासूसी कहानियों के पाठकों एक बड़ा वर्ग है। इससे प्रभावित होकर गोपाल राम गहमरी ने सन 1900 में ‘जासूस’ नाम से पत्रिका निकालना शुरू किया, तब वे ‘भारत मित्र’ का संपादन कर रहे थे, उन्होंने ‘जासूस’ निकालने की सूचना ‘भारत मित्र’ में दे दी थी। इसका लाभ यह हुआ कि सैकड़ों पाठकों ने प्रकाशित होने से पहले ही पत्रिका की सदस्यता ले ली। हालांकि इसके उसके हर अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं भी छपती थीं। ‘जासूस’ का पहला अंक बाबू अमीर सिंह के हरिप्रकाश प्रेस से छपकर आया और पहले ही महीने में पौने दो सौ रुपए की आमदनी पत्रिका बिक्री से हुई। इसकी अपार लोकप्रियता को देखकर गोपालराम गहमरी जब जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हो हुए तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह पत्रिका 38 वर्ष तक गहमर रेलवे स्टेशन के निकट स्थित उनकी कोठी से निकलती रही। गहमरी जी ने जासूसी विधा से हटकर आध्यात्मिक विषयक दो पुस्तकें लिखीं। ‘इच्छाशक्ति’ और ‘मोहिनी विद्या’ है। सैकड़ों कहानियों एवं दो सौ उपन्यासों के अनुवाद किए। रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘चित्रागंदा’ काव्य का भी अनुवाद पहली बार इन्हीं के द्वारा किया गया। गहमरी जी ने जासूस पत्रिका से खूब धन कमायें। इसके बीच उस समय की की पत्र-पत्रिकाएं ‘बिहार बंधु’, ‘भारत जीवन’, ‘सार सुधानिधि’ आदि में भी लिखते रहे। सन्.1906-08 के बीच ‘बिहार बंधु’ पटना में संपादन का कार्य किया। 

 गौतम सान्याल ने हंस के एक विशेषांक में लिखा कि - ‘प्रेमचंद के जिस उपन्यास को पठनीयता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उस ‘गबन’ की अनेक कथा स्थितियां एक विदेशी क्राइम थ्रिलर से मिलती-जुलती हैं और जिसका अनुवाद गोपालराम गहमरी ने सन.1906 में जासूस पत्रिका में कर चुके थे।’ गोपालराम गहमरी ने जासूस की चोरी, खूनी का भेद, जमुना का खून, मालगोदाम में चोरी सहित कुल 88 उपन्यास, 6 नाटक एवं 9 कहानियां लिखने के साथ बंगला पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। वे अपने आखिरी दिनों में वाराणसी स्थित बेनियाबाग में रहने लगे थे, वहीं से अपनी जासूसी नामक पत्रिका का प्रकाशन करते रहे। उनका स्वर्गवास 20 जून 1946 को काशी में हुआ। सन 1965 ई० में गहमर के स्थानीय सात सदस्य टीम द्वारा उनकी याद में गोपालराम गहमरी सेवा संस्थान की स्थापना हुई। गोपालराम के करीबी मित्र सत्यनारायण उर्फ नन्दा और पद्मश्री डॉ. कपिल देव द्विवेदी द्वारा लिखी पुस्तक ‘गहमर खोज’ गहमरी जी पर ही आधारित है। गोपालराम गहमरी की याद में अखंड प्रताप गहमरी प्रत्येक वर्ष के सितंबर माह में कार्यक्रम का आयोजन करते हैं, जिसमें देशभर से साहित्यकार आते हैं। जमानियां के संजय कृष्ण की गोपालराम गहमरी पर अबतक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2020 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 23 नवंबर 2020

काॅमरेड ज़ियाउल हक़ ने दुनिया को अलविदा कहा

काॅमरेड ज़ियाउल हक़
                                                                     
                                                                          - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 22 नवंबर की दोपहर 100 वर्ष की उम्र में ज़िया भाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया है। 28 सितंबर 1920 को इलाहाबाद के दोंदीपुरी मुहल्ले में जन्मे श्री ज़ियाउल हक़ के पिता का नाम सैयद जीमल हक़ है। तीन भाई-तीन बहनों में आप सबसे बड़े थे। प्राइमरी तक की शिक्षा घर में ही हासिल की। गर्वमेंट कालेज में कक्षा पांच से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई पूरी की। 1940 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़ गए थे। इन्हें पार्टी के अंडरग्राउंड काम के लिए नामित किया। इस काम को अंज़ाम देने के लिए इन्होंने बिना किसी को बताये ही अपना घर छोड़ दिया। तत्कालीन पोलित ब्यूरो सदस्य आरडी भारद्वाज के साथ पार्टी का काम करने के लिए इन्हें लगाया, घर छोड़ते ही इनके परिवार में कोहराम मच गया। इनके वालिद ने अपने सू़त्रों से बहुत खोज की इनकी, घर के बड़े लड़के के ही अचनाक लापता हो जाने से परिवार काफी परेशान हुआ। आप श्री भारद्वाज के लिए आने वाले डाक और उनके निदेर्शों को उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में पहुंचाने का काम करते रहे। इनके पिता ने इनके रहने के ठिकाने का पता लगा लिया और कम्युनिष्ट पार्टी के उस समय के बड़े नेता अजय घोष पर दबाव बनाया कि उनके लड़के को घर के लिए रवाना कर दिया जाए। छह महीने अंडरग्राउंड रहने के बाद वे घर लौट आए। लेकिन अंडरग्राउंड रहने के कारण इनका नाम सीआईडी में आ गया, जिसकी वजह से इनका घर में रहना मुमकिन नहीं था। इसी कारण फ़ैज़ाबाद में रहने वाले अपने मामू के यहां चले गए, फिर कुछ दिनों बाद इलाहाबाद लौटे और फिर एलएलबी भी किया। सन 1941-42 में देश में राजीनतिक बदलाव आया। कम्युनिष्ट पार्टी को कानूनी मान्यता भी मिल गई। 1942 में कम्युनिष्ट पार्टी का जीरो रोड पर कार्यालय खुला, कार्यालय खुलते ही एक बार फिर इन्होंने घर छोड़ दिया और पार्टी कार्यालय में ही रहने लगे। फिर पार्टी का कार्यालय जानसेनगंज में खुला, जो आज भी कायम है, यहीं आप रहने लगे, इस दौरान इन्हें पार्टी की तरफ से 15 रुपए प्रति माह वेतन मिलने लगा। 1947 तक इसी दफ्तर में काम करते रहे। 1948 में आप तीन महीने नैनी जेल में रहे, कांग्रेस ने कम्युनिष्ट पार्टी पर यह इल्जाम लगाते हुए इनके साथ अन्य लोगों को जेल भिजवा दिया, ये लोग कांग्रेस की हुकुमत नहीं बनने दे रहे हैं। विभिन्न मामलों केा मिलाकर श्री हक़ कुल तीन बार नैनी जेल गए। इसी दौरान बीमारी के चलते इनके छोटे भाई का इंतिकाल हो गया। इनके पिता पर बहुत दबाव पड़ने लगा कि वे परिवार के साथ पाकिस्तान चले जाएं, पिता के बहुत से दोस्त अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए थे। ऐसे में पिता परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए, लेकिन श्री ज़ियाउल हक़ यहीं रहे। आज भी आपकी तीन बहनें और एक भाई अपने परिवार के साथ पाकिस्तान में रहते हैं। 1952 में आम चुनाव हुआ, कांग्रेस की सरकार बनी। कम्युनिष्ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही। पार्टी का उर्दू अख़बार ‘हयात’ शुरू हुआ तो आपको दिल्ली भेज दिया गया। फिर अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘न्यू ऐज़’ के लिए आपको विशेष संवाददाता बनाया गया। इस दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू का प्रेस कांफ्रेंस भी कवर करते रहे। 1955 में वल्र्ड यूथ फेस्टेविल का आयोजन ‘पौलैंड’ में किया गया, आप वहां कवरेज करने गए। वहीं से पूरा इंडियन डेलीगेशन मास्को गया। उस समय वियतनाम की लड़ाई जारी थी। कम्युनिष्ट पार्टी के सचिव अजय घोष उन दिनों मास्को में थे, उन्होंने आपको वियतनाम भेज दिया। तीन महीने वियतनाम में रहे। फिर सोवियत संघ और जर्मनी में भी ख़बरें कवरेज करने गए। 1960 में सोवियत संघ और अमेरिका के राष्टृपति की बैठक पेरिस में होनी थी, इसको कवर करने के लिए आपको भेजा गया। बैठक से ठीक पहले सोवियत संघ के राष्ट्रपति ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि आपने जासूसी करने के लिए मेरे देश में प्लेन भेजा था, जिसे हमने मार गिराया है, इसके लिए आपको माफी मांगनी पडे़गी। अमेरिकी राष्ट्रपति ने माफी मांगने से इनकार कर दिया, जिसके वजह से बैठक नहीं हुई। फिर रूस में लेनिन की सौवां सालगिरह पर वहां गए। रसियन ऐम्बेसी ने भारत के तीन सीनियर पत्रकारों को इस मौके पर बुलाया था। इन लोगों में निखिल चतुर्वेदी और ए. राघवन के साथ जियाउल हक़ भी थे। 1978 में अंतिम बार रूस गये।1963-64 में क्यूबा में आजादी के पांचवीं वर्षगांठ पर भी आपको बुलाया गया। फिर कम्युनिष्ट पार्टी में फूट गई। आप भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी में रहे। जनवरी 1965 में आपने विवाह कर लिया और इसके कुछ ही दिनों फिर से इलाहाबाद लौट आए। इस दौरान बीच-बीच में अपने भाई-बहनों और उनके परिवार से मिलने पाकिस्तान भी जाते रहे। अंतिम बार 2005 में भाई के बेटे की शादी में पाकिस्तान गए थे।

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

साहित्यिक प्रतिभा से होता है रेलकर्मियों का मानसिक विकास: डीआरएम

बाएं से: मनमोहन सिंह तन्हा, अमिताभ और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

29 जून 1966 को स्वर्गीय रामेश्वर दयाल अग्रवाल के घर जन्मे अमिताभ वर्तमान समय में प्रयागराज रेल मंडल के मंडल रेल प्रबंधक (डीआरएम) हैं। इन्होंने मैकेनिल इंजीनियरिंग में स्नातक और इंजीनियरिंग आॅफ प्रोडक्शन एवं मशीन-एक्वीपमेंट में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल किया है। आप आईआरएसएमई के 1987 बैच के अफसर हैं, सेलेक्शन के बाद रेलवे में विभिन्न पदों पर काम करते हुए 18 अप्रैल 2018 से प्रयागराज के मंडल रेल प्रबंधक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। ‘रेलकर्मी विशेषांक’ के लिए उनका इंटरव्यू लेने इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और मनमोहन सिंह तन्हा  01 जून 2020 को उनके दफ्तर पहुंचे। मौजूद हालात में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उनसे बातचीत की गई। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश।

सवाल: रेलकर्मियों के लेखन को किस रूप में देखते हैं ?

जवाब: रेलकर्मी बहुत ही मुश्किल हालात में 24 घंटे लगकर काम करते हैं, बहुत मेहनत और लगन से अपनी ड्यूटी का निर्वहन करते हैं। लेकिन किसी प्रकार की साहित्यिक प्रतिभा से उनका मानसिक विकास होता है, इससे उन्हें अपने नियमित काम करने में भी सहायता मिलती है। लेखन वही लोग करते हैं जो समाज और देश को लेकर संवेदनशील होते हैं, उनके अंदर अच्छी भावनाओं होती है। इससे मन का भी विकास होता है, ऐसे लोग बेहतर कर्मचारी भी होते हैं। रेलवे की तरफ से विभिन्न आयोजन होते रहते हैं, जिनमें रेलकर्मियों और उनके बच्चों को प्रोत्साहित करने का काम किया जाता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में करने वाली विभिन्न प्रतिभाओं को पुरस्कृत किया जाता है।

सवाल: गुफ़्तगू के रेल कर्मी विशेषांक को किस प्रकार से देखते हैं ?

जवाब: यह बहुत अच्छा प्रयास है। रेलकर्मियों का जो साहित्यिक रूझान है उन्हें प्रोत्साहित करने का यह अच्छा प्रयास है, जो भी साहित्य के पाठक हैं, उनको पढ़कर अच्छा लगेगा। रेलेकर्मियों के लिए अच्छी बात हैं कि उनके लेखन को प्रकाशित करके तमाम पाठकों तक पहुंचाया जा रहा है, यह बहुत अच्छी बात है। रेलकर्मियों की रचना को किसी पत्रिका में स्थान मिलना भी बहुत महत्वूपर्ण है।

सवाल: सोशल मीडिया ने साहित्य सृजन और मानसिक विकास पर कितना प्रभाव डाला है ?

जवाब: सोशल मीडिया पर अधिकांश मैसेज फारवर्डेड होते हैं, मूल मैसेज बहुत कम होते हैं। अगर 1000 मैसेज आते हैं तो इनमें 10 ही मूल मैसेज होते हैं। सोशल मीडिया में उलझने का काम ज़्यादा होता है, मानसिक विकास की जगह मानसिक उलझन ज़्यादा होती है, मानसिक विकास की संभावना काफी कम हो जाती है। जब आप सोशल मीडिया पर लगातार चीज़ों को देखते और पढ़ते रहते हैं तो अंदर की प्रतिभा निकलकर आने की संभावना बहुत कम हो जाती है। सोशल मीडिया का प्रयोग लोग बहुत ही सावधानी से करें, जितनी आवश्यकता है उतनी ही करें, केवल कामभर का करें। हर प्रकार की ख़बरें हैं यहां, अगर बुरा देखेंगे, बुरा पढ़ेंगे, निगेटिव चीजों के बीच रहेंगे तो आपके अंदर निगेटिव चीज़ें ही आएंगी। इसलिए बहुत सावधानी की आवश्यकता है। अच्छी चीजों को देखेंगे, पढ़ेंगे तो अच्छा काम करेंगे।  

सवाल: प्रयागराज साहित्य का गढ़ रहा है, डीआरएम के रूप में आपने इसे किस प्रकार महसूस किया है ?

जवाब: मैं प्रयागराज में ही पैदा हुआ, यहीं पला, बढ़ा हूं। मेरी माता जी 2018 में गुजर गई थीं। यहीं डीपी गल्र्स इंटर काॅलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका थीं। वो साहित्य से बहुत जुड़ी हुई थीं, महादेवी वर्मा समेत तमाम लोगों का आना-जाना था मेरे यहां। इस वजह से साहित्य के बड़े-बड़े लोगों से मिलना हुआ। निश्चित रूप से प्रयागराज साहित्य का बहुत बड़ा गढ़ है, यहां की हवा साहित्य लेखन में सहायक है। यहां साहित्य का बहुत अच्छा माहौल है।

सवाल: वर्तमान समय में समाज पर साहित्य लेखन का असर पड़ता है ?

जवाब: निश्चित रूप से असर पड़ता है। समाज पर लेखन का असर बहुत पड़ता है। जिस चीज़ को आप लिखेंगे उसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेगे। जैसे सोशल मीडिया पर अच्छी चीज़ों को पढेंगे, अच्छी चीज़ों का चयन करेंगे पढ़ने के लिए तो बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। ज़रूरी है कि अच्छे लेखन को सोशल मीडिया और अख़बारों-पत्रिकाओं में सही जगह मिले। रचनाओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाए। हर कोई लिखने में सक्षम भले ही न हो लेकिन उसे पढ़कर लेखक की भावनाओं को कुछ हद तक समझकर उससे प्रभावित भी हो सकता है। ज़रूरी है कि अधिक से अधिक अच्छा लेखन हो।

सवाल: सोशल मीडिया की वजह से अख़बार, पत्रिका और किताबें पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ?

जवाब: समय बदल रहा है। पहले मोटी-मोटी किताबें होती थीं, लंबे-लंबे लेख होते थे, बड़ी-बड़ी कहानियां होती थी, उपन्यास होेते थे। लेकिन यह शार्ट और स्वीट का समय है। आज की तारीख में अगर कोई हमारे काम पर फिल्म बनाकर भेजता है, काम को दिखाने का प्रयास करता है तो मैं कहता हूं की छोटे-छोटे पार्ट में ही भेंजे। अगर वो आठ या दस मिनट का होता है तो मैं कहता हूं कि उसे दो-दो मिनट का बनाकर भेजंे। आज की तारीख में इतना कुछ बाज़ार में है कि कोई एक ही चीज़ पर अधिक समय नहीं दे सकता है। आप बहुत लंबा समय नहीं निकाल सकते, पूरे उपन्यास को खतम करना बहुत मुश्किल है, लेकिन अगर वह लधुकथा के रूप में हो तो उसे ज़्यादा लोग पढ़ते हैं। रचनाकारों को भी ख़्याल रखना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि उपन्यासों पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम हो जाएगी, अभी भी बहुत लोग हैं जो समय निकालेंगे। लेकिन जो युवा वर्ग है और जो एक्टिव लोग हैं, वो बड़े-बड़े लेख और उपन्यास नहीं पढ़ पाते। जो बुजुर्ग हैं, रिटायर हो गए हैं, उपन्यास पढ़ रहे हैं तो अच्छी बात है। लेकिन वो कमांडिंग जोन में नहीं हैं। जो सक्रिय लोग हैं उनके लिए बड़े उपन्यास पढ़ना संभव नहीं हैं। स्पोर्ट्स में भी देखिए 20-20 मैच का प्रचलन ज्यादा बढ़ा है, क्योंकि पूरा दिन एक मैच देखने पर देना बहुत ही मुश्किल है। शार्ट फिल्में भी बहुत अधिक संख्या मंें बनने लगीं है, जिन्हें खूब देखा जा रहा है।

सवाल: कोरोना काॅल में रेलवे आमलोगों की किस प्रकार मदद कर रहा है ? क्या यह मदद पर्याप्त है ?

जवाब: कोराना संक्रमण वैश्विक महामारी है, इस महामारी में सरकारें, संस्थाएं और व्यक्तिगत तौर पर मदद करने वाले लोग चाहे जितनी मदद कर लें उतना कम है, इसमें कमी रहेगी। हमेशा ही कुछ न कुछ कमी रहेगी। ऐसे माहौल में हम सबको काम भी करना है और बहुत संभालकर काम करना है। यह समय सभी लोगों के लिए चैलेंज है, क्योंकि सबको काम भी करना है और अपने आपको बचाकर काम करना है। यह सभी को ध्यान में रखना है। रेलवे ने बहुत काम किया है, बहुत सी श्रमिक स्पेशल गाड़ियां, माल गाडियां आदि चलाई हैं। पूरा विभाग लगा हुआ है लोगों की मदद के लिए।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2020 अंक मेें प्रकाशित )