मंगलवार, 13 सितंबर 2016

लघु पत्रिका चलाना बड़े जीवट का कार्य: डॉ. अदीब


सुधाकर अदीब और प्रभाशंकर शर्मा


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुधाकर अदीब का जन्म 17 दिसंबर 1955 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियों में ‘अथ मूषक उवाच’, ‘चीटी के पर’, ‘हमारा क्षितिज’, ‘मम अरण्य’, ‘मृण तृष्णा’, ‘देह यात्रा’, ‘अनुभूति व संवेदना’ के अलावा दर्जनभर अन्य किताबें प्रकाशित हैं। साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए आपको अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। 08 मार्च-2016 को ‘गुफ्तगू’ के महिला विशेषांक के विमोचन के अवसर पर आपका इलाहाबाद आगमन हुआ। इस दौरान पत्रिका के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की, प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: आपके लेखन की शुरूआत कैसे हुई?
जवाबः जब मैं मुरादाबाद में कक्षा आठ का विद्यार्थी था, उस ज़माने में अतुल टंडन साबह थे, जो अच्छे कहानी लेखक व हमारे बड़े भाई के मित्र थे, उनके साथ उठना बैठना हुआ और वहीं से कहानियों की ओर रूझान हुआ। मुरादाबाद में एक पत्रिका निकलती थी ‘साथी’, उसमें मेरी शुरूआती कहानियां छपी और लिखने-पढ़ने का दौर चलता रहा। परंतु पुस्तक के रूप में जो कहानी संग्रह वे 1990 के बाद आए।
सवाल: शुरूआत कहानियों में जो आपको याद हो उल्लेखनीय उसका जिक्र कीजिए?
जवाब: शुरूआत कहानियों में कोई ख़ास बताने वाली चीज़ नहीं है। जैसे होता कि शुरू में लोग अपनी कल्पनाओं से लिखते हैं, अनुभव कम होते हैं। मैंने बहुत सारी कहानियां लिखी थीं और प्रकाशित हुई थीं जैसे- ‘राह भटका’, ‘’पांच घेरे’ आदि। लेकिन ये कहानियां अब मेरे पास नहीं हैं, मेरे मित्र लोग किताब मांगकर ले गए और गुम हो गई। आज मेरे पास प्रमाण स्वरूप् किसी को देने के लिए नहीं है। बाद में जो कुछ प्रकाशित हुआ वह तो उपलब्ध है ही। बचपन में मैं कविताएं लिखता था स्कूल के दिनों में। अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताओं में भी जाता था। यह बात कक्षा सात और आठ की है। शुरूआत कविता लेखन से हुई थी उसके बाद कहानी लेखन शुरू हुआ।
सवाल: हिन्दी संस्थान द्वारा पुस्तक प्रकाशित करने के लिए धनराशि उपलब्ध कराई जाती है, इसे प्राप्त करने का क्या तरीका है? लगभग 90 फीसदी साहित्यकार इस बारे में नहीं जानते?
जवाबः जिन लेखकों की सालाना इनकम पांच लाख तक की है, वे साहित्यकार अपनी पांडुलिपी देकर अप्लाई कर सकते हैं। इसके लिए संस्थान से विज्ञापन निकलता है। समस्त लोगों की प्रतियां विद्वानों के पैनल में रखी जाती है और उन्हें पढ़कर उनका चयन किया जाता है। छपने योग्य प्रतिलिपियां होती हैं उन्हें 50 हजार रुपये तक का प्रकाशन योगदान दिया जाता है। लेकिन यह साधनविहीन रचनाकारों के लिए है। इसके अलावा संस्थान द्वारा एक प्रकाशन और होता है, जिसमें यूजीसी से मान्यता प्राप्त कोर्स हैं उनके अंतर्गत पाठ्यक्रमों से जुड़े विषयों संबंधित पुस्तकें छापता है और उन पुस्तकों की बिक्री आदि करवाता है।
सवाल: पहली केटेगरी में जो आपने बताया कि पुस्तकों का प्रकाशन अनुदान 50 अनुदान रुपये मिलता, क्या इसके अंतर्गत पुस्तकों की कुछ संख्या भी निर्धारित होती है?
जवाब: इसमें बहुत डिटेल और तकनीकि बात पूछेंगे तो हो सकता है हम कुछ बताएं और कुछ मिस हो जाए, अच्छा होगा कि आप इसके विषय में हिन्दी संस्थान की वेबसाइट देख लें। इस समय मैं संस्थान का निदेशक नहीं हूं, इसलिए मैं ऑथेंटिक व्यक्ति नहीं हूं।
सवाल: हिन्दी संस्थान में पुरस्कार प्रदान करने की क्या प्रक्रिया है?
जवाब: इसकी नियमावली हिन्दी संस्थान की वेबसाइट पर आप देख सकते हैं। वैसे विभिन्न 34 विधाओं की पुस्तकों को पुरस्कार दिया जाता है और 60 वर्ष से उपर की कटेगरी के लिए अलग से पुरस्कार की व्यवस्था है। इन पुरस्कारों के लिए विज्ञापन प्रकाशित होता है। इसमें कैटेगरीवार पुस्तकें दो विशेषज्ञों के पास जाती हैं और ये विशेषज्ञ इन पर नंबर देते हैं। कोेई विवाद होने पर पुरस्कार समिति अंतिम निर्णय लेती है।
सवाल: हिन्दी संस्थान के आपका कार्यकाल कैसा रहा?
जवाब:  बहुत अच्छा रहा, मुझे बहुत ही प्रसन्नता है कि मुझे दो बार कार्य का अवसर मिला। एक बार सवा साल लगभग दूसरी बार साढ़े तीन साल। अपने कार्यकाल में मुझसे जो कुछ बन पड़ा मैंने सेवा की।
सवाल: क्या समस्याएं भी आईं कभी?
जवाब: तमाम समस्याओं का निराकरण हुआ है, कर्मचारियों के तमाम हित की बातें हुईं। बहुत से पुरस्कार रुके हुए थे जिसे वर्तमान सरकार ने बहाल किया और पुरस्कार की धनराशि हुई। हिन्दी संस्थान के लाइब्रेरी हाल व बिक्री केंद्र का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण कराया गया।
सवाल: वर्तमान समय में कौन ऐसे लेखक हैं जो गद्य लेखन में आपकी नज़र में अच्छा लिख रहे है या आपके पंसदीदा लेखक?
जवाब: उपन्यासकारों में जिन्हें मैं जानता हूं, जिनसे मैं प्रभावित हूं, उनमें कृष्णमूर्ति जी हैं, शिवमूर्ति जी हैं। कथाकारों में दयानंद पांडेय, तेजेंद्र शर्मा, मै़त्रेयी पुष्पा जी हैं, चंद्रकला जी हैं। ये सभी अच्छा लिख रहे हैं, बहुत प्रेरणादायक लिखते हैं। कुछ मेरे समकालीन हैं और कुछ वरिष्ठ हैं।
सवाल: इस समय साहित्य में पठनीयता कम होती जा रही है, इसका क्या कारण है?
जवाब: इसमें दृश्य-श्रव्य माध्यमों का बहुत प्रभाव है। दूसरा यह है कि प्रकाशित पुस्तकों के मूल्य बहुत ज़्यादा हैं और दाम अधिक होने की वजह से पाठकों तक पुस्तकें नहीं पहुंच पाती है। अब इधर प्रकाशकों की समझदारी बढ़ी है, जो पुस्तकें ज्यादा चर्चित होती हैं, जिनकी मांग होती है ऐसी पुस्तकों की पेपर बैक अब पहल से ज्यादा निकलने लगे हैं। इस हद तक तो समस्या हल हुई है, अभी भी इसमें बहुत कुछ होना बाकी है। फिर भी में समझता हूं कि प्रिंटेड सामग्री या जो पुस्तक को पढ़ने का आनंद है वह किसी अन्य माध्यम से कहीं ज्यादा है। मुझे उम्मीद है आने वाले समय में पठनीयता बढ़ेगी और पुस्तकों का महत्व कम नहीं होगा।
सवाल: हमारी पत्रिका ‘गुफ्तगू’ और अन्य लघु पत्रिकाओं के बारे में आपकी क्या राय है?
जवाब: लघु पत्रिकाएं बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं और बहुत ही सीमित संसाधनों में अच्छा कर रही हैं। जहां प्रतिबद्धता होती है वहां पर पत्रिकाएं दूर तक चलती हैं। अधूरे मन से जो कार्य होता है उसकी सफलता संदिग्ध होती है। बहुत सारी पत्रिकाएं शुरू होती हैं और कुछ ही समय में काल कलवित हो जाती हैं। लधु पत्रिका चलाने में बहुत सी समस्याएं आती हैं। फिर भी आज के ज़माने में लघु पत्रिका चलाना बहुत बड़े जीवट का कार्य है। मैं समझता हूं ‘गुफ्तगू’ पत्रिका को 12 साल से अधिक हो गए हैं, इसे संयोजक, संचालक और संपादक ये सभी बहुत ही बधाई पात्र हैं।
सवाल:कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है, क्या यह प्रासंगिकता अब भी हमारे समाज में कायम है?
जवाब: जो भी रचनाकार है उसका प्राथमिक दायित्व सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना होता है। हम चाहे समकालीन विषयों के उपर लिखें या ऐतिहासिक संदर्भों को लें, लेकिन अगर हमारे लेखन में सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव और समाजिक विसंगतियों के प्रति प्रतिरोध का स्वर लेखक या कवि का मूल उद्देश्य होना चाहिए। यही साहित्य का मर्म है। ज़ाहिर सी बाती है साहित्य समाज का दर्पण है और उस दर्पण को दिखाने वाला सहित्यकार ही है। लेखक या कवि की जिम्मेदारी है कि वह सकारात्म सोच के साथ अपने लेखन को आगे बढ़ाए।
सवाल:  इलेक्टानिक मीडिया के आने के से प्रिंट मीडिया या साहित्य का प्रभाव कम हुआ है क्या?
जवाब: साहित्य तो आज भी अच्छा और सतही दोनों लिखा जा रहा है, लेकिन दुखद यह  है कि अच्छा साहित्य इलेक्टानिक मीडिया में स्थान नहीं बना पा रहा है। आजकल जिस प्रकार के सीरियल परोसे जा रहे हैं, यह आम लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। कुछ चैनल नागिन या चुड़ैल के सीरियल भी दिखाते रहते हैं, यह ठीक नहीं है। कुछ चैनल अच्छा भी दिखाते हैैं। इलेक्टानिक मीडिया में अच्छे साहित्य को स्थान मिलना चाहिए।
प्रभाशंकर शर्मा, सुधाकर अदीब और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’

गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2016 अंक में प्रकाशित

शनिवार, 3 सितंबर 2016

गुलशन-ए-इलाहाबाद : अजीत पुष्कल

ajit pushkal

                                                                         
                                                 -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
अजीत पुष्कल जी वर्तमान समय में इलाहाबाद के सबसे अधिक बुजुर्गों में से एक हैं। 81 वर्ष की उम्र में भी बेहद सक्रिय हैं, आज भी साहित्य सृजन करते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप रहे हैं, देश और समाज की भलाई के लिए चिंतित रहते हैं। आपका जन्म 08 मई 1935 को बांदा जिले के पैगंबरपुर गांव में हुआ। पिता देवी प्रसाद श्रीवास्तव गांव में ही खेती बाड़ी करते थे। अजीत पुष्कल ने प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूरी करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘प्रेमचंद की शब्दावली’ पर शोध कार्य शुरू किया, लेकिन विभिन्न कारणों से यह शोध पूरा नहीं हो पाया। फिर कुछ इलाहाबाद के जुमना क्रिश्चिय कालेज में अध्यापक कार्य किया, इसके बाद सन 1961 में केपी इंटर कालेज में हिन्दी के अध्यापक के तौर कार्य शुरू किया, जहां से 1995 में सेवानिवृत हुए। कुछ दिन पहले ही आपकी पत्नी का देहांत हो गया। आपके एक पुत्र और एक पुत्री है। बेटा नई दिल्ली के मिनिस्टी आफ लॉ एंड जस्टिस में अधिकारी है। बेटी लखनउ में भारतेंदु नाट्य एकेडेमी कार्यरत है।
साहित्य के क्षेत्र में आप शुरू से ही सक्रिय रहे हैं। कविता, कहानी, लधुकथा, नाटक और एकांकी लिखते रहे हैं। छात्र जीवन से ही केदारनाथ अग्रवाल और नागुर्जन के संपर्क रहे हैं, उनके  साथ बहुत कुछ देखा और समाज के लिए कार्य किया है। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर विभिन्न आंदोलनों के सहभागी रहे हैं, इलाहाबाद इकाई के अध्यक्ष रहने के अलावा 1980 में प्रलेस के उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव रहे हैं। इनके नेतृत्व में कई बार प्रलेस के ऐसे कार्यक्रम हुए हैं, जिनमें सरदार जाफ़री से लेकर मज़रूह सुल्तानपुरी तक आते रहे। आपके लिखे नाटकों का मंचन इलाहाबाद के अलावा लखनउ, नई दिल्ली, भोपाल, शाहजहांपुर, आजमगढ़ आदि जगहों पर समय-समय पर किया जाता रहा है। रेडियो का बहुचर्चित कार्यक्रम ‘हवा महल’ में आपके लिखे 50 से अधिक नाटकों का प्रसारण हो चुका है, अब भी समय-समय पर उन नाटकों का प्रसारण होता है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में काव्य संग्रह ‘पत्थर के बसंत’, तीन कहानी संग्रह ‘नई इमारत’, ‘नरकुंड की मछली’ और ‘जानवर जंगल और आदमी’ हैं। कई नाटकों ,एकांकी, कविताओं आदि का प्रकाशन धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका आदि पत्रिकाओं में हुआ है। इनके लिखे ‘चेहरे की तलाश’, ‘प्रजा इतिहास रचती है’, ‘भारतेंदु चरित्र’,‘जनविजय’, ‘घोड़ा घास नहीं खाता’ और ‘जल बिन जीयत पियासे’ आदि नाटक बेहद मक़बूल हुए हैं, इनका मंचन देश के अधिकर शहरों में समय-समय पर होता रहा है। ‘भारतेंदु चरित्र’ पर शोधकार्य भी हुआ, एनएसडी में इसका कई बार मंचन किया गया। ‘जनविजय’ नामक नाटक प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया था। बुंदेलखंड ग्रामांचल पर आपने काफी काम किया है, इसकी पृष्ठभूमि में कई छोटे-छोटे नाटक और एंकाकी आपने लिखा है। इनमें ‘अनुबंधहीन’, ‘नई धरती के लोग’ और ‘किट्टी’ काफी मशहूर हुए हैं। फिल्म ‘नदिया के पार’ के निर्देशक गोविंद मौलिस इनके लिखे नाटक ‘किट्टी’ को पढ़ने के बाद इलाहाबाद आए थे, उन्होंने इस पर फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की और इनक सहमति से ‘किट्टी’ पर फिल्म बनाने के लिए काम शुरू कर दिया। लेकिन बाद में किसी व्यवधान के कारण फिल्म नहीं बन पाई।
अजीत पुष्कल आजकल इलाहाबाद के झूंसी में रहते हैं। पत्नी के देहांत और बच्चों के दूसरे शहरों में नौकरी करने की वजह से आजकल वृद्धावस्था में खुद ही भोजन बनाना पड़ता हैं, इसके बावजूद लेखन में बेहद सक्रिय हैं। आजकल कविता लेखन की ओर अधिक सक्रिय हैं।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2016 अंक में प्रकाशित)