सोमवार, 23 जनवरी 2017

पीपल बिछोह में, स्वाति,मचलते ख़्वाब और शब्द संवाद

                                          -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


वड़ोदरा के ओम प्रकाश नौटियाल सीनियर कवि हैं, काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं। हाल में इनका तीसरा काव्य संग्रह ‘पीपल बिछोह में’ प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में शामिल कविताओं का फलक एक तरफ जहां इंसानियत और समाज की भलाई की बातें करती हैं तो दूसरी ओर आज के समय का मूल्यांकन बहुत ही शानदार ढंग से करती हैं। जगह-जगह कविताओं को पढ़ते समय रुककर सोचना और समझना पड़ता है, शायद यही कविता की कामयाबी भी है। पुस्तक की भूमिका में डाॅ. कुंअर बेचैन लिखते हैं- ‘नौटियाल जी ने आज के समय में जब कि पारिवारिक और सामाजिक मूल्य विघटन की ओर जा रहे हैं उन्हें पूरी तरह संभालने और जोड़ने का काम किया है। इस संग्रह में मां और पिता पर लिखी हुई रचनाएं परिवार में माता’पिता के महत्व को प्रतिपादित करने वाली रचनाएं हैं। वर्तमान में देश की दशा को व्यक्त करते हुए उसके प्रति प्रीति की प्रतिबद्धता को भी शीर्ष स्थान दिया गया है।’ एक कविता में कहते हैं- ‘पत्थर से टकरा जाने से/जल कभी कठोर नहीं होता/जीवन में धक्के  खाने से/मयमस्त नहीं मानव होता।’ आज कन्या भ्रूण हत्या आम बात हो गई है, लोग कोख में ही बेटी को खत्म करने पर आमादा हो गए हैं, ऐसे में कवि की रचना बेटियों की महत्व का तार्किक ढंग से प्रस्तुत करती है- ‘करवाती जीवन से, नव पहचान बेटियां/हम तो हुई हैं, बड़ा अहसान बेटियां। निस्वार्थ समर्पित सेवा, मज़हब रहा सदा/देखी न कभी हिन्दु मुसलमान बेटियां। खगों की लिए चहक और फूल सी मुस्कान/केसरी सुगंध का हैं, मर्तबान बेटियां।’ लगभग पूरी दुनिया में मार-काट और निजी स्वार्थों के लिए इंसानियत का क़त्ल करने का काम चल रहा है, इंसान एक तरह से हैवान हुए जा रहा है, ऐसे में नौटियाल जी का कवि मन छलक उठता हैं, कहते हैं- भोजन के डिब्बों से/बम के धमाके हुए / बच्चों के मरने पर/अपनों के ठहाके लगे/भटका कर कौन इसे/ कुमार्ग पर हांक गया/ दरिंदा दरिंदगी की/सीमा हर लांघ गया।’ इस तरह 136 पेज वाली इस पुस्तक में जगह-जगह समाज को उल्लेखित करती हुई कविताएं शामिल हैं। इस सजिल्द पुस्तक को शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर ने प्रकाशित किया है। कविता के चाहने वालों को यह किताब एक बार ज़रूर पढ़नी चाहिए। 
‘तुम्हारी ज़िन्दगी में गर किसी काग़म नहीं होता/तो खुशियों का ज़माने में कभी मातम नहीं होता’ यह कविता से इलाहाबाद के सीनियर कवि आरसी शुक्ल की। ये काफी समय से काव्य लेखन के प्रति सजग हैं। हाल में आपकी कविताओं का संग्रह ‘स्वाति’ प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं में जहां इन्होंने प्रेम को प्रमुख विषय बनाया है, वहीं समाज की घटती विडंबनाओं पर भी प्रहार किया है। अपने अनुभव और फिक्र का जगह-जगह शानदार ढंग से वर्णन करते हुए संसार को सही राह दिखाने और सच्चाई का सामना करने की नसीहत दी है। शायद साहित्य लेखन का यही मुख्य उद्देश्य भी है। प्रेम का वर्णन करते हुए कहते हैं-‘ जो निगाहों से प्यार करते हैं/वो बहुत तेज़ वार करते हैं। आ भी जा मुझको भूलने वाले/हम तेरा इंतज़ार करते हैं।’ एक दूसरी कविता में जीवन के अनुभव को रेखांकित करते हुए कहते हैं-‘वो आदमी जो अंधेरों से खेलता ही रहा/तमाम उम्र उजालों को झेलता ही रहा। नदी की राह में अवरोध जो नज़र आए/वो पत्थरों को किनारे ढकेलता ही रहा।’ और फिर एक जगह कहते हैं-‘ज़िन्दगी धूल हो गई होगी/आपसे भूल हो गई होगी। जो निगाहों में नृत्य करती थी/वो नज़र शूल हो गई होगी। वो कली जो गुलाब बन न सकी/कांच का फूल हो गइ्र होगी।’ 186 पेज वाले इस पेपर बैक संस्करण की कीमत केवल 100 रुपये है, जिसे अरूणा प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है।
 वीना श्रीवास्तव मूलतः उत्तर प्रदेश के हाथरस की रहने वाली हैं, फिलहाल झारखंड प्रदेश के रांची में रहती हैं। हाल में इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। पहली पुस्तक ‘मचलते ख़्वाब’ है। इस पुस्तक में कुल 64 छंदमुक्त कविताएं शामिल हैं। इस पुस्तक में प्रेम विषयक कविताओं के साथ ही देश और समाज की घटनाओं और प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन जगह-जगह किया गया है। आमतौर पर कहा जाता है कि महिलाओं की कविताओं में सबसे अधिक दुख और मुसीबत का वर्णन होता है, लेकिन वीना श्रीवास्तव के इस पुस्तक में शामिल कविताएं इससे बिल्कुल ही अलग हैं। अपने प्रेम का विभिन्न आयामों  से वर्णन करने के साथ ही जीवन को साहस और गंभीरता से जीने वर्णन किया गया है, किसी एक दुख या परेशानी को लेकर बहुत हताश होने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है, यही बताने का प्रयास किया गया है, यही जीवन की सच्चाई भी है। एक कविता में कहती हैं -‘ख़्वाबों के परिंदे/नहीं देखते उंचाई/आकाश की/छू आते हैं चांद की/घरौंदा बना लेते हैं/मंगल पर/सितारों से आगे/ मिलती है/नई दुनिया/हवाओं पर/पलता है प्यार’। अपने प्रेम का वर्णन करते हुए एक कविता में कहती हैं-‘ बारिश की पहली बंूद/मरुस्थल की/तपती रेत/तुम दोनों में हो/कभी मिट्टी की/सौंधी महक बनकर/ छा गये/तन-मन पर/समा गये/सांसों में/ तो कभी/ तपते सूरज के साथ/ तपा गये/धरती को’। जीवन में आशा और उम्मीद का अलख जागाने का हौसला देती हुई एक कविता यूं कहती हैं-‘एक बार/बस एक बार/बहकर देखो/ प्यार/ लुटाक देखो/ खुशियां/ बांटकर देखो/ दुरूखों को/हौसलों से लड़कर देखो/ दुश्मनी को/ पाटकर देखो/ प्यार में बह जाएंगे/सारे गिले-शिकवे/खिलेंगे नये फूल।’ इस तरह पूरी पुस्तक में जगह-जगह संवेदनात्मक एहसास दिखाई देते हैं। 136 पेज वाली इस सजिल्द पुस्तक को समय प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 170 रुपये है।
वीना श्रीवास्वत के संपादन में उनकी दूसरी पुस्तक ‘शब्द संवाद’ प्रकाशित हुआ है। इस प्रस्तक में देशभर 22 कवियों की रचनाएं संकलित की गई हैं। इनमें अधिकतर लोगों की नई कविता ही शामिल हैं, लेकिन कुछ ग़ज़लें भी शामिल हैं। 22 कवियों में अमित कुमार, अशोक कुमार, अशोक सलूजा ‘अकेला’, आशु अग्रवाल, कलावंती, किशोर कुमार खोरेंद्र, मदन मोहन सक्सेना, मनोरमा शर्मा, मंटू कुमार, निहार रंजन, नीरज बहादुर पाल, प्रकाश जैन, प्रतुल वशिष्ठ, राजेश सिंह, रजनीश तिवारी, रश्मि प्रभा, रश्मि शर्मा, रीता प्रसाद, शारदा अरोड़ा, डाॅत्र शिखा कौशिक ‘नूतन’, शशांक भारद्वाज, वीना श्रीवास्तव और विधू हैं। देशभर में जगह-जगह साझा काव्य संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं, उसी का एक सिलसिला यह भी है। हालांकि ऐसे संकलनों का प्रकाशन भी आसान नहीं हैं, सभी को सूचित करना और इसके शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करने के बाद सारे काम करना बहुत आसान नहीं है। 228 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 399 रुपये है, जिसे ज्योतिपर्व प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद ने प्रकाशित किया है।
(publish in GUFTGU- oct-dec 2016 )

रविवार, 8 जनवरी 2017

गुम हो गया इलाहाबद की सड़कों से लाल हेलमेट


(कैलाश गौतम को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए  )
                                                                        -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कथाकर अमरकांत ने एक इंटरव्यू में कैलाश गौतम के बारे में पूछने पर कहा था कि ‘कैलाश इस समय का एक मात्र हिन्दी कवि है जो मंत्री से लेकर संत्री तक में अपनी कविताओं के लिए समान रूप से लोकप्रिय है’। बिल्कुल सत्य है। कैलाश गौतम की ‘कचहरी’, ’अमवसा क मेला‘, ‘पप्पू की दुलहिन’, ‘रामलाल क फगुआ’, ‘बियाहे क घर’ और ‘गांव गया था गांव से भागा’ समेत अनेक कविताओं को रिक्शे-तांगे वाले तक गाते-सुनते देखे जाते थे। आम जनता में अपनी कविता से इस मशहूर और प्रचलित होना बेहद ही मुश्किल और प्रायः अकेला उदाहरण है। 
मुझे अच्छी तरह से याद है, वे इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष थे (दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री)। 5 दिसंबर 2006 का दिन था। ‘गुफ्तगू’ के सुनील दानिश विशेषांक का विमोचन पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूकी के हाथों हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में ही होना था, कैलाश जी को संचालन करना था। कार्यक्रम शुरू होने से लगभग 30 मिनट पहले मैं उनके चैंबर में उनके साथ बैठा था। मैं उनका बेहद सम्मान करता था, इसलिए उनके सामने ज्यादा कुछ बोलने और पूछने की हिम्मत नहीं थी। चाय पीने बाद वे अचानक बोल पड़े ‘इम्तियाज, तुम्हें पता है मैं बहुत परेशान हो गया था, मुझे लगने लगा था कि हार्ट प्रॉबलम हो गया है, मैंने डाक्टर से चेकअप कराया है, लेकिन पता चला है कि पीलिया(ज्वाइंडिश)है, सतर्कता बरत रहा हूं। मैंने उन्हें एहतियात बरतने को कहा।’ फिर कार्यक्रम शुरू हुआ और शानदार संचालन कैलाश गौतम ने किया। तब मैं कानपुर में नौकरी करता था, अगले ही दिन कानपुर चला गया। दो दिन बाद मैंने उनका हाल-चाल जानने के लिए उनके मोबाइल पर फोन किया। फोन उनके बेटे श्लेष गौतम ने उठाया, रोते हुआ बोला- इम्तियाज़ भाई पापा की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है, आईसीयू में हूं। यह सुनते ही मुझे जैसे करंट मार गया हो। मेरी समझ में नहीं आ  रहा था कि क्या करूं। फिर तकरीबन आघे घंटे बाद इलाहाबाद से ही जयकृष्ण राय तुषार का फोन आया, बोले- इम्तियाज़ पूर्वांचल का सूरज हमेशा-हमेशा के लिए डूब गया, कैलाश गौतम जी नहीं रहे।’ फोन काटने के बाद बेहद दुखी मन से वहीं बैठ गया। उस दिन किसी तरह आफिस का काम करने के बाद छुट्टी लेकर इलाहाबाद आ गया, उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ। घर आने पर मेरी अम्मी घर के सोफे की तरफ इशारा करती बोलीं, यही जगह है जहां कैलाश गौतम जी ईद वाले दिन आकर बैठे थे, वो भी बहुत दुखी थीं, मेरे पिता जी के देहांत के बाद कैलाश जी मेरे ऐसे अभिभावके के रूप में थे, जिनसे मैं अपने दुख व्यक्त करता था और वे सहारा देते हुए हर तरह से सहयोग करते थे। मुझे नौकरी दिलवाने से लेकर तमाम काम ऐसे हैं जो कैलाश जी वजह से ही मुझे मिले हैं। हर वर्ष ईद के दिन कैलाश जी को मेरे घर आना और साथ में भोजन करना तय था, इसके लिए मुझे उन्हें आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती थी।
कानपुर में नौकरी के दौरान मेरी आदत में शामिल था कि सुबह घर पहुंचने के बाद चाय-नाश्ता करके उनसे मिलने उनके घर चला पैदल ही जाता था, उनका घर मेरे घर से मात्र आधा किमी की दूरी पर है। एक बार उनके घर पहुंचा तो बोले, इम्तियाज बेकल उत्साही साहब का फोन आया था उनकी लड़की शादी यही सराय इनायत में तय हो रही है, उन्होंने तुम्हें और मुझे उनके परिवार वालों के बारे में पता लगाने को कहा है, अगले हफ्ते तुम आओ तो साथ में चलते हैं। फिर अगले हफ्ते हम हिन्दुस्तानी एकेडेमी की कार से सराय इनायत स्थित गांव में पहुंचे, वहां पहुंचकर उस परिवार से मिले बातचीत की और वापस आ गए। कार चलाने वाले चालक का नाम राम अचल है। वह चालक जब भी कुछ गड़बड़ या देरी करता कैलाश जी उस पर हंसते हुए कहते -यार तुम अपने नाम में से ‘अ’ शब्द हटा लो।
कैलाश गौतम अपनी पुरानी स्कूटर पर लाल हेलमेट लगाकर चलते थे, कब किस मुहल्ले किस रास्ते में लाल हेलमेट दिख जाए कहा नहीं जा सकता था। तमाम लोगों के काम अपने जिम्मे लिए शहर में घूमते रहते थे। उनके निधन पर अब लाल हेलमेट नहीं दिखता, जिसके देखने के लिए लोग मंुतजिर रहते थे।