बुधवार, 29 जनवरी 2020

अपने शरीर पर भी स्त्री का अधिकार नहीं: प्रो. अनिता गोपेश


. अनिता गोपेश से बातचीत करके प्रभाशंकर शर्मा

 बहुमुखी प्रतिभा की धनी, रंगमंच से लेकर कला की अन्य विधाओं, नृत्य संगीत के साथ-साथ लेखन में सक्रिय प्रो. अनिता गोपेश का जन्म 24 अगस्त 1954 को इलाहाबाद में हुआ। मुख्यतः कहानी विधा में लेखन करने वाली प्रो. अनिता गोपेश का पहला कहानी संग्रह ‘कित्ता पानी’ ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। वर्ष 2018 में आपको ‘साहित्य शिखर सम्मान’ से नवाज़ा जा चुका है। आप स्त्री विमर्श की ऐसी लेखिका हैं जो समाज को स्त्री-पुरुष में न बांटकर समेकित समाज में विश्वास करती हैं। आपकी मुख्य रचनाओं में ‘टैडी बियर’, ‘अनंत’, ‘लाइफ़ लाइन’, ‘देहरी भइल विदेश’, ‘पहला प्यार’ और ‘कंजगली नहि सांकरी’ आदि हैं। वर्तमान में आप प्रतिष्ठित रंग संस्था ‘समानांतर’ की अध्यक्ष हैं। साथ ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राणि विज्ञान विभाग की विभागाध्यक्ष हैं। प्रभाशंकर शंकर शर्मा और डाॅ. नीलिमा मिश्रा ने आपसे मुलाकात कर विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश-
सवाल: सबसे पहले आप अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं आरंभिक जीवन के बारे में बताइए ?
जवाब: साहित्यकार परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरी मां साधारण गृहणी थीं। मेरे पिता साहित्यकार थे और आकाशवाणी इलाहाबाद में कार्यरत थे। उन्होंने आरंभिक दिनों में बहुत संघर्ष किया था। जब मैंने अपनी आंखें खोली तो मेरे पिता मास्को में थे। मेरा जन्म होते ही वे कलकत्ता गए और उसके बाद मास्को चले गए थे। मेरा पालन-पोषण निहायत साधारण पुरातन पंथी ब्रह्मण परिवार में संस्कारों के बीच हो रहा था। शुरूआती 8 से 10 वर्ष तक मुझे पिताजी का साथ नहीं मिला। उस समय मैं बड़ी टिपिकल दबी सहमी लड़की की तरह ग्रो कर रही थी, पर कहीं कोई बीज या संस्कार मेरे पिता का था। उस समय जो बाल पत्रिकाएं एवं कहानी की किताबें जैसे- पराग, चंदामामा आदि मैं ज़रूर पढ़ती थी और बचपन से ही डायरी के रूप में अपने भाव लिखा करती थी। मेरे पिताजी जब यूरोप घूमकर आए तो उन्हें मैं एयरपोर्ट पर अजनबी की तरह देख रही थी। मेरे पिता अपने अप्रोच में बहुत ही प्रोग्रेसिव थे। मेरे तीन भाई थे और मैं अकेली बहन। मेरे पिता मुझे अपने साथ बड़े लोगों के यहां जैसे पन्त जी, महादेवी जी, फ़िराक़ गोरखपुरी, रामकुमार वर्मा, सीवी राव साहब की पत्नी उमा राव जी के पास ले जाते थे और कहते थे तुम्हें ऐसा बनना है, कुछ विशेष बनना है, तुम सामान्य नहीं बल्कि गोपेश जी की बेटी हो। एक बार गलती से उनके हाथ मेरी काॅपी लग गई। उसे उन्होंने पढ़ा और अगले दिन सुबह मुझे बुलाया, मुझे डर लग रहा था कि अब मुझे डांट पड़ेगी, पर उन्होंने मुझसे पूछा ये तुमने लिखा है ? मैंने सर हिलाया कहा हां। उन्होंने मेरी पीठ थपथपायी और बोले बहुत अच्छा तुम्हें जो अच्छा लगे ज़रूर लिखा करो। इस तरह पिताजी ने मुझे प्रोत्साहित किया और मेरी ग्रूमिंग की। मेरे पिता बहुत ही प्रगतिशील थे, वे कहा करते थे जो तुम्हारे भाई कर सकते हैं वो तुम क्यों नहीं कर सकती। मेरे पापा एवं मेरे भाई ने बहुत सपोर्ट किया। मेरे मन में कभी जेंडर डिस्क्रिमनेशन नहीं आया। मेरा बचपन और कौशौर्य बहुत ही क्रिएटिव रहा। मेरे बड़े भाई मुझसे नौ साल बड़े थे, वे मुझे डांस सिखाने संगीत समिति ले जाते थे। हमारे क्रिएटिव ग्रुप में म्यूज़िक, ड्रामा, डांस और तबला बजाने वाले सभी थे। हम लोग पैलेस में अपने बलबूत पर तीन दिन का कार्यक्रम कर लेते थे। हम कभी बोर नहीं हुए। हम लोगों की बड़ी हेल्दी दोस्ती थी, अजामिल और कृष्ण कुमार मालवीय, शुभा मुद्गल आदि हमारे दोस्त थे। शहर के साहित्यकारों के साथ हमारा पारिवारिक जुड़ाव था। उस समय उमाकांत मालवीय जी, नीरज जी, फ़िराक़ साहब, रमानाथ अवस्थी जी आदि के साथ बराबर उठना-बैठना था। हमारे पिताजी का बच्चन जी से घनिष्ठ संबंध था। बच्चन जी और धर्मवीर भारती जी से बराबर पत्र-व्यवहार होता रहा। संस्कार धीरे-धीरे परिमार्जित होते गए और हम लेखन से जुड़ गए।

सवाल: जंतु विज्ञान का प्रोफेसर होने के बावजूद आप हिन्दी लेखन से कैसे जुड़ गईं ? क्या यह डायरी लेखन के माध्यम से शुरू हुआ ?
जवाब: हमारा मन तो साहित्य में बसता था। साइंस समय की बहुत डिमांड करता है व साहित्य हमारा मन खींचता है। साहित्य में मेरा मन बसता है, विज्ञान में मेरा दिमाग बसता है। मेरी वही स्थिति है ‘काबा मेरे आगे है कलीसा मेरे पीछे’। विज्ञान ने हमें  वैज्ञानिक तरीके से सोचने व विश्लेषण करने की दृष्टि दी है। यही वजह है कि हम भावुकता वाले साहित्यकार नहीं बन सके। तार्किक रूप से जो सही है वो माना। मुझे लिखने में कोई असुविधा नहीं होती, मैं एक ही बार में कहानी या टाॅक लिखती हूं।

सवाल: स्त्री होने के नाते आप अपने लेखन में महिलाओं की समस्याओं पर कितना ध्यान देती हैं ?
जवाब:  हमने ज़्यादातर महिलाओं पर ही लिखा है। मेरे पिताजी का मुझे सपोर्ट था। पिताजी के निधन के बाद मैं पारंपरिक ब्राह्मण परिवार से घिर गई थी। यद्यपि मेरे बड़े भाई मुझे बहुत प्यार करते थे पर थे तो उसी परिवार से और पितृ सत्ता का हिस्सा ही थे। आज की स्त्री बेहतर है पर बहुत बेहतर नहीं है। सामाजिक तौर पर स्त्रियों के प्रति अपराध कम नहीं हुए हैं। स्त्रियों के प्रति दहेज और यौन शोषण कम नहीं हुआ है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र होन पर भी स्वतंत्र नहीं है। अपने शरीर पर भी उसका अपना अधिकार नहीं है। चाहे वह सेक्स संबंधी अनुभव क्यों न हो। स्त्री ने अपने मन का जीवन कब जीया ? अभी मेरी जो किताब आई है उसे मैंने मां और मौसियों की उस पीढ़ी को समर्पित किया है जिनको अपने मन का जीवन जीने को नहीं मिला। मैंने ज़्यादातर कहानियां स्त्रियों पर लिखी है।

सवाल: स्त्री की भावनात्मक समस्याओं को प्रकाशित करने में आज का साहित्य कितना सफल है ?
जवाब: आज का साहित्य बहुत सफल है। आज के साहित्य में स्त्री की तरह-तरह की समस्या न कहकर सोच कहें, जिस पर पर्याप्त लिखा जा रहा है। कई बार अनावश्यक तूल भी दिया जाता है। खुशी की बात है कि हर स्तर पर महिलाओं को लेकर खूब लिखा जा रहा है। विमल चंद्र पांडेय जो बनारस के लेखक है, उन्होंने एक छोटी कहानी ‘डर’ लिखी है जो उल्लेखनीय है। पर कई बार कहानियों में रिश्तों में घालमेल के प्रयोग हो रहे हैं। प्रयोग के नाम पर तोड़-फोड़ की कहानियां लिखी जा रही हैं। पुरूष मानसिकता बदल नहीं रही है और स्त्री की मानसिकता थोड़ा भटक गई है।

सवाल: स्त्री विमर्श का वास्तविक अर्थ क्या है ? यह साहित्य में निर्लज्जता या खुलेपन तक सीमित है या इसके व्यापक मायने क्या हैं ?
जवाब: हम स्त्री विमर्श को समाज से काटकर नहीं देख सकते। पूरे समाज में माइनारिटी व दलित के साथ स्त्री को रखकर देखना पड़ेगा। मुद्दा सिर्फ़ सेक्स या देह तक नहीं है। स्त्री की बेहतरी के लिए किया गया कोई भ प्रयास, सरोकार या सोच स्त्री विमर्श है। इसका दायित्व सिर्फ़ स्त्री का ही नहीं बल्कि संवेदनशील पुरुषों का भी है। जैनेंद्र जी की रचनाओं में, प्रेमचंद जी के करेक्टर, शरतचंद्र जी आदि ने स्त्री विमर्श की बात की है। अज्ञेय जी ने ‘नदी के द्वीप’ में नायिका रेखा के रूप में सचेत आधुनिक नारी की परिकल्पना की है जो अपने मूल्यों की कीमत देने को तैयार है। आज की पीढ़ी को चाहिए सब कुछ पर उसकी कीमत देने को तैयार नहीं है। मेरा मानना है आप अधिकारों की बात करो पर अपने नैसर्गिक गुणों का मत भूला, पुरुषों की नकल करके अपने का विद्रूप मत करो। हम अपनी फेमिनिन क्वालिटी जैसे चिन्ता, प्यार, ममता आदि को साथ रखकर समता की मांग करें और उसके लिए कीमत अदा करे, तब आगे का रास्ता बनेगा। हम स्त्री विमर्श को देह विमर्श नहीं मानते, देह विमर्श स्त्री विमर्श का एक छोटा सा हिस्सा है।

सवाल: साहित्य में स्त्री विमर्श अपने मूल उद्देश्य से भटक तो नहीं रहा है ?
जवाब: थोड़ा सा भटकाव तो है पर किरन सिंह की कहानियां अलग-अलग वर्ग के स्त्रियों का दर्द लेकर आती है। इस विषय पर शिवमूर्ति जी, ममता कालिया जी और नासिरा शर्मा व्यापक स्तर पर लिख रही हैं। नासिरा शर्मा के साहित्य में स्त्री विमर्श पूरे समाज का हिस्सा होकर आता है। इसके अलावा सारा राय, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा और कृष्णा सोबती आदि भी बहुत अच्छा लिख रही हैं। स्त्री विमर्श में पुरुष लेखक भी अच्छा लिख रहे हैं, इसमें नए लड़के भी अच्छा लिख रहे हैं, जिसमें अब्दुल बिसमिल्लाह, कुन्दन, कुणाल सिंह और विमल चंद पांडेय आदि अच्छा लिख रहे हैं। ये सभी संवेदनशील से लिख रहे हैं।

सवाल: एक शिक्षक के नाते वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर आपके क्या विचार हैं ? और इसमें बदलाव की ज़रूरत महसूस हो रही है ?
जवाब: वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बहुत ज़्यादा परिष्कार की ज़रूरत है। शिक्षा जो जीवन को बेहतर बनाने हेतु होती थी आज व्यवसाय के लिए हो गई है। इसमें इतना भ्रष्टाचार हो गया है कि क्या बताएं ....। बिल्डिंग और प्रयोगशाला नहीं है काॅलेज में साइंस सेक्शन कर दीजिए। कोचिंग इंस्टीट्यूट तो सिर्फ़ पास होने के लिए पढ़ा रहे हैं। ज्ञान कम देते हैं सिर्फ़ फ़ार्मूलाबद्ध पढ़ाई कराते हैं। हमारी यूनिवर्सिटी कोर्स से ज़्यादा ‘जीवन की शिक्षा’ के लिए जानी जाती थी। उस ज़माने में फ़िराक़ गोरखपुरी साहब, एससी देव एवं वाई सहाय साहब कुछ ऐसे टीचर होते थे जिनके यहां यूनिवर्सिटी के 8-10 गरीब छात्र पढ़ाई के लिए पड़े रहते थे।
 आज की पीढ़ी गूगल पर निर्भर है, इसने हमारी पढ़ाई को काफी चैपट किया है। गूगल सूचना दे सकता है, ज्ञान नहीं। विश्लेषण करने की क्षमता व जीवन के मूल्य गूगल नहीं सिखा सकता। पूरा एजुकेशन सिस्टम सिर्फ़ स्टेटस पाने के लिए है। शिक्षा में बड़े बदलाव की ज़रूरत है।

सवाल: इलाहाबाद में महिला लेखन का इतिहास रहा है। इस समय कौन-कौन सी लेखिकाएं अच्छा लिख रही हैं ?
जवाब: इलाहाबाद में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर हमारे समय में शकुंतला सिरोठिया, शांति मेहरोत्रा, महिमा मेहता, दूधनाथ जी की पत्नी निर्मला जी लिखती थीं। ममता कालिया बढ़िया लिखती हैं। हमने ममता को बचपन से देखा, वे मेरा आदर्श रहीं। इस समय सारा राय, शाइस्ता फ़ाख़री, मीनू रानी दुबे, संध्या निवेदिता, नीलम शंकर के अलावा शशि शर्मा कथा लेखिका जो अब लखनउ में हैं और उर्मिला जैन जो अब लंदन चली गई हैं, सभी अच्छा लेखन कर रही हैं।

सवाल: सोशल मीडिया के दौर में महिला लेखन की क्या स्थिति है ?
जवाब: सोशल मीडिया से महिलाओं का बहुत नुकसान हुआ है। सोशल मीडिया पर हर समय सजी-धजी किसी सांठ-गांठ में लगी महिलाएं दिखती हैं। ऐसी औरतें हमारे समाज में होती तो हमारा समजा उलट गया होता। मुझे सोशल मीडिया अरुचिकर लगता है।

सवाल: स्त्रियों के शोषण का जिम्मेदार क्या स्त्रियां स्वयं नहीं हैं ?
जवाब: यह अभिव्यक्ति घिसी पिटी हो गई है, वे स्त्रियां जो शोषण करती हैं अपने वजूद ममें कहां हैं ? इसमे पुरुष के चाहने से ही ऐसा हो रहा है। अभी हमारी औरतें स्वतंत्र इकाई नहीं हुई हैं बल्कि पितृ सत्तामत्क समाज का औज़ार मात्र हैं। जिस दिन औरत अपने आप में स्वतंत्र इकाई होगी उस दिन औरत का दर्द समझेगी और सुख-दुख की सहभागी बनेगी। यदि सास, बहू को सता रही है मो पुरुष क्यों नहीं रोकता कि तुम ऐसा मत करो। यह एक सोचा समझा षड़यंत्र है। औरत, औरत की दुश्मन नहीं वह अपनी असुरक्षा में दूसरी औरत को छोटा दिखा रही है। 


प्रभाशंकर शर्मा, प्रो. अनिता गोपेश और डाॅ. नीलिमा मिश्रा  

सवाल: पिछले 4-5 वर्षों में प्रलेस से इतने लोग बाहर क्यों हो गए ? 1932 से जब से प्रलेस बना कभी इतने इस्तीफ़े नहीं हुए, इस समय ऐसी क्या स्थिति आ गई ?
जवाब: वर्चस्व की लड़ाई हर जगह हो जाती है। प्रलेस में कुछ ऐसे लोग आ गए जो वर्चस्व की लालसा में थे। इलाहाबाद के लोगों में वर्चस्व का कभी मोह नहीं रहा। एकाधिकार की लालसा जब आ जाती है तो जो आपका विरोध करेगा वह अच्छा नहीं लगेगा। जो लोग प्रतिवाद करते थे उन्हें प्रलेस से हटने के लिए मज़बूर कर दिया गया। हम वहां क्रिएटिव कार्य करने जाते हैं राजनीति करने नहीं जाते हैं। हमारा कार्य क्षेत्र सिर्फ़ प्रलेस में नहीं है। हम कार्य करते रहेंगे चाहे किसी संस्था से जुड़े या न जुड़ें। वहां का माहौल सकारात्मक नहीं था इसलिए हम वहां से निकल आए।

सवाल: वर्तमान पीढ़ी और नए लेखकों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगी ?
जवाब: नए लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं। इनसे हमें बहुत आशा है और यह भी आशा है कि स्त्री विमर्श पर भी बहुत ही संवेदनशील तरीके से अपनी सोच बनाए रखेंगे। बहुत से लेखक अपने जीवन में भी स्त्रीवादी दिखाई पड़ते हैं। संतोष चतुर्वेदी, अजामिल और यश मालवीय आदि संवेदनशील हैं। इन लोगों ने बेटा-बेटी के भेद का ख़त्म किया है। युवा सक्षम तरीके से आगे बढ़ रहे हैं औश्र युवा पीढ़ी हमें आशा बंधाती है।

( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2019 अंक में प्रकाशित )

सोमवार, 20 जनवरी 2020

इलाहाबाद में आकर जाग जाता है अंदर का शायर

नागरिक अभिनंदन और विमोचन समारोह में बोले संजय मासूम
जया मोहन के कहानी संग्रह ‘मेरी चुनिंदा कहानियां’ का विमोचन, बाएं से- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, जमादार धीरज, संजय मासूम, अशरफ़ ख़्याल, जया मोहन, मनमोहन सिंह ‘तन्हा’

प्रयागराज। इलाहाबाद में आते ही मेरे अंदर का शायर जाग उठता है और शायरी करने लगता हूं। मुंबई की भीड़भाड़ से जब भी थकता हूं तो इलाहाबाद में आकर पनाह लेता हूं, यहां भरपूर उर्जा मिलती है, यहां की मिट्टी में अजीब की कसक है। लेखन के लिए जितनी उर्जा यहां मिलती है, उतनी दुनिया के किसी दूसरे शहर या गांव में नहीं मिलती। यह बात फिल्म संवाद लेखक संजय मासूम ने 19 जनवरी को गुफ्तगू की ओर से करैली स्थित अदब घर में आयोजित नागरिक अभिनंद, विमोचन और मुशायरा कार्यक्रम में कही। 

 टीम गुफ़्तगू की तरफ से उनका नागरिक अभिंनदन किया गया। इससे पहले संजय मासूम ने जया मोहन के कहानी संग्रह ‘मेरी चुनिंदा कहानियां’ का विमोचन किया गया। संजय ने जया मोहन की कहानियां की तारीफ़ करते हुए उनकी प्रशंसा की। गुफ़्तगू के अध्यक्ष
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि संजय मासूम जी गुफ़्तगू के ख़ास पाठकों में से हैं, पत्रिका पढ़ने के बाद अक्सर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। यह कार्यक्रम उनके सम्मान में इसलिए किया गया है, क्योंकि यहां से उनका ख़ास नाता है, ये मुंबई में इलाहाबाद का नाम रौशन कर रहे हैं, ऐसे में इलाहाबाद वालों का फ़र्ज़ बनता है कि इनका अभिनंदन किया जाए। इनकी लेखनी और मेहनत इलाहाबाद के लोगों के लिए एक नज़ीर है, जो बताता है कि अच्छे और गंभीर लेखन से फिल्मी दुनिया में स्थान बनाया जा सकता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जमादार धीरज ने कहा कि संजय मासूम का नागरिक अभिनंदन करके गुफ़्तगू ने एक ज़रूरी काम किया है, ऐसे लोग हमारे लिए बेहद ख़ास है। संजय की शायरी और संवाद लेखन बेहद शानदार और मार्मिक है। विशिष्ट अतिथि अशरफ़ ख़्याल ने कहा कि मुंबई की फिल्मी दुनिया में अपना स्थान बनाना बेहद कठिन काम है, लेकिन संजय मासूम ने यह करके दिखा दिया है, हमें इससे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।
 दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। प्रभाशंकर शर्मा, नीना मोहन श्रीवास्तव, अनिल मानव, इश्क़ सुल्तानपुरी, पूजा रूही, वाक़िफ़ अंसारी, डाॅ. नईम साहिल, शैलेंद्र जय, शिवाजी यादव, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, शकील ग़ाज़ीपुरी, रमोला रूथ लाल, रचना सक्सेना, मुजाहिद लालटेन, प्रकाश सिंह अश्क, शरद चंद्र श्रीवास्तव, दया शंकर प्रसाद, जया मोहन, ललिता पाठक नारायणी, असद ग़ाज़ीपुरी, सेलाल इलाहाबादी, बशारत खान, शाहिद इलाहाबादी आदि ने कलाम पेश किया। अंत में इश्क़ सुल्तानपुरी ने सबके प्रति आभार प्रकट किया। 


संजय मासूम का नागरिक अभिनंदन करते बाएं से- अनिल मानव, प्रभाशंकर शर्मा, जमादार धीरज और प्रकाश सिंह अश्क



मंगलवार, 7 जनवरी 2020

गरीबों, मजलूमों की आवाज़ है कैफ़ी की शायरी

कैफ़ी आज़मी के जन्म दिवस समारोह पर बोले प्रो. फ़ातमी
प्रो. अली अहमद फ़ातमी


रविनंदन सिंह

प्रयागराज। आज़मगढ़ के मेज़वा गाँव में जन्मे कैफ़ी आज़मी की शायरी में अपने समय के गरीबों, मजलूमों की आवाज़ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती है। उन्होंने तमाम विपरीत माहौल में बिना डरे ज़ालिमों और बेरमह लोगों के खिलाफ़ शायरी के ज़रिए अपनी बात कही। उनके घर वालों ने सुल्तानपुर के मदरसे में उनका दाखिला कर दिया था, ताकि मज़हबी तालीम हासिल करके घर और इस्लाम की खिदमत करें, लेकिन मदरसे में हो रही ग़लत चीज़ों का भी उन्होंने बिना खौफ़ विरोध किया। अक्सर वो मदरसे के गेट पर खड़े होकर मदरसे के मौलवियों की दकियानूसी के खिलाफ़ नज़्म पढ़ते रहते थे। यह बात 05 जनवरी को करैली स्थित अदब घर में साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की ओर से आयोजित ‘कैफ़ी आज़मी जन्म दिवस समारोह’ के दौरान मुख्य वक्ता प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने कही। उन्होंने कहा कि कैफ़ी ने अपने गांव में मात्र 11 वर्ष की उम्र में शायरी शुरू कर दी थी, उन दिनों उनके गांव और परिवार में शायरी का अच्छा माहौल था। प्रो. फ़ातमी ने कहा कि 1974 में कैफ़ी साहब इलाहाबाद आए तो उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन किया, कई ख़ास लोगों को जोड़ा गया और तमाम बड़े आयोजन हुए। प्रलेस का गोल्डन जुबली कार्यक्रम भी इलाहाबाद में ही उनकी मौजूदगी में हुआ था।  
 गुफ़़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि पिछले वर्ष भी गुफ्तगू की ओर से ‘कैफ़ी आज़मी जन्म शताब्दी समारोह’ का आयोजन किया गया, क्योंकि कैफ़ी साहब की शायरी एक तरह से देश और समाज का सच्चा नक़्शा खींचती है। उन्हें इलाहाबाद से ख़ास लगाव था। उन्हें अपने गांव से इतना अधिक लगाव था कि जीवन के अंतिम आठ वर्ष गांव में ही बिताएं। उनकी नज्म ‘अवारा सज्दे’ आज भी बेहद प्रसांगिक है। आज के समय में कैफ़ी की शायरी और अधिक चर्चा करने की ज़रूरत है। मुख्य अतिथि रविनंदन सिंह ने कैफ़ी को आज के समाज का शायर बताते हुए कहा कि उनकी शायरी गरीबों, मजलूमों की आवाज़ थी। उनकी पहली किताब 1944 में ‘झनकार’ थी, इसमें सिर्फ़ उनकी नज़्में शामिल हैं, उन्होंने इस किताब में एक ग़ज़ल शामिल नहीं किया। कैफ़ी साहब ने जब 11 वर्ष में पहली बार ग़ज़ल लिखी तो लोगों को यकीन नहीं हुआ कि यह उन्होंने ही लिखी है, लोगों ने बहुत जांच-पड़ताल करके पता लगाया कि उन्होंने ही लिखी है, तब लोग बहुत हैरान हुए।
 डाॅ. सीपी श्रीवास्तव ने कि क़ै़फी साहब जिस कलम से लिखते थे उसका नाम ‘माॅन्ट ब्लाॅक’ था, जो अमेरिका से आती है, खराब हो जाने पर न्यूयार्क में बनने को जाती थी, भारत में उसकी सविर्सिंग नहीं होती थी। कै़फी साहब के निधन हो जाने पर उनके यहां से यही आठ कलमें उनके पास से मिलीं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया, अध्यक्षता डाॅ. नीलिमा मिश्रा ने किया।
 दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें केके मिश्र ‘इश्क़ सल्तानुपरी’, प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, नीना श्रीवास्तव, शैलेंद्र जय, अफ़सर जमाल, फ़रमूद इलाहाबादी, नंदिता एकांकी, जमादार धीरज, संतोष मिश्र, खुर्शीद हसन, असद ग़ाज़ीपुरी, अश्तिन राम इश्क, वाक़िफ़ अंसारी, सेलाल इलाहाबादी, अशरफ़ अली बेग, डाॅ. नईम साहिल, एसएम शाहिद, प्रकाश सिंह अश्क, डाॅ. वीरेंद्र तिवारी, डाॅ. एसपी तिवारी, रचना सक्सेना, संजय सक्सेना, सुहैल अख़्तर, रामाशंकर राज, अशरफ़ ख़्याल, शरीफ़ इलाहाबादी आदि ने कलाम पेश किया। अंत में इश्क़ सुल्तानपुरी ने सबके आभार प्रकट किया।