मंगलवार, 7 जनवरी 2020

गरीबों, मजलूमों की आवाज़ है कैफ़ी की शायरी

कैफ़ी आज़मी के जन्म दिवस समारोह पर बोले प्रो. फ़ातमी
प्रो. अली अहमद फ़ातमी


रविनंदन सिंह

प्रयागराज। आज़मगढ़ के मेज़वा गाँव में जन्मे कैफ़ी आज़मी की शायरी में अपने समय के गरीबों, मजलूमों की आवाज़ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती है। उन्होंने तमाम विपरीत माहौल में बिना डरे ज़ालिमों और बेरमह लोगों के खिलाफ़ शायरी के ज़रिए अपनी बात कही। उनके घर वालों ने सुल्तानपुर के मदरसे में उनका दाखिला कर दिया था, ताकि मज़हबी तालीम हासिल करके घर और इस्लाम की खिदमत करें, लेकिन मदरसे में हो रही ग़लत चीज़ों का भी उन्होंने बिना खौफ़ विरोध किया। अक्सर वो मदरसे के गेट पर खड़े होकर मदरसे के मौलवियों की दकियानूसी के खिलाफ़ नज़्म पढ़ते रहते थे। यह बात 05 जनवरी को करैली स्थित अदब घर में साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की ओर से आयोजित ‘कैफ़ी आज़मी जन्म दिवस समारोह’ के दौरान मुख्य वक्ता प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने कही। उन्होंने कहा कि कैफ़ी ने अपने गांव में मात्र 11 वर्ष की उम्र में शायरी शुरू कर दी थी, उन दिनों उनके गांव और परिवार में शायरी का अच्छा माहौल था। प्रो. फ़ातमी ने कहा कि 1974 में कैफ़ी साहब इलाहाबाद आए तो उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन किया, कई ख़ास लोगों को जोड़ा गया और तमाम बड़े आयोजन हुए। प्रलेस का गोल्डन जुबली कार्यक्रम भी इलाहाबाद में ही उनकी मौजूदगी में हुआ था।  
 गुफ़़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि पिछले वर्ष भी गुफ्तगू की ओर से ‘कैफ़ी आज़मी जन्म शताब्दी समारोह’ का आयोजन किया गया, क्योंकि कैफ़ी साहब की शायरी एक तरह से देश और समाज का सच्चा नक़्शा खींचती है। उन्हें इलाहाबाद से ख़ास लगाव था। उन्हें अपने गांव से इतना अधिक लगाव था कि जीवन के अंतिम आठ वर्ष गांव में ही बिताएं। उनकी नज्म ‘अवारा सज्दे’ आज भी बेहद प्रसांगिक है। आज के समय में कैफ़ी की शायरी और अधिक चर्चा करने की ज़रूरत है। मुख्य अतिथि रविनंदन सिंह ने कैफ़ी को आज के समाज का शायर बताते हुए कहा कि उनकी शायरी गरीबों, मजलूमों की आवाज़ थी। उनकी पहली किताब 1944 में ‘झनकार’ थी, इसमें सिर्फ़ उनकी नज़्में शामिल हैं, उन्होंने इस किताब में एक ग़ज़ल शामिल नहीं किया। कैफ़ी साहब ने जब 11 वर्ष में पहली बार ग़ज़ल लिखी तो लोगों को यकीन नहीं हुआ कि यह उन्होंने ही लिखी है, लोगों ने बहुत जांच-पड़ताल करके पता लगाया कि उन्होंने ही लिखी है, तब लोग बहुत हैरान हुए।
 डाॅ. सीपी श्रीवास्तव ने कि क़ै़फी साहब जिस कलम से लिखते थे उसका नाम ‘माॅन्ट ब्लाॅक’ था, जो अमेरिका से आती है, खराब हो जाने पर न्यूयार्क में बनने को जाती थी, भारत में उसकी सविर्सिंग नहीं होती थी। कै़फी साहब के निधन हो जाने पर उनके यहां से यही आठ कलमें उनके पास से मिलीं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया, अध्यक्षता डाॅ. नीलिमा मिश्रा ने किया।
 दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें केके मिश्र ‘इश्क़ सल्तानुपरी’, प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, नीना श्रीवास्तव, शैलेंद्र जय, अफ़सर जमाल, फ़रमूद इलाहाबादी, नंदिता एकांकी, जमादार धीरज, संतोष मिश्र, खुर्शीद हसन, असद ग़ाज़ीपुरी, अश्तिन राम इश्क, वाक़िफ़ अंसारी, सेलाल इलाहाबादी, अशरफ़ अली बेग, डाॅ. नईम साहिल, एसएम शाहिद, प्रकाश सिंह अश्क, डाॅ. वीरेंद्र तिवारी, डाॅ. एसपी तिवारी, रचना सक्सेना, संजय सक्सेना, सुहैल अख़्तर, रामाशंकर राज, अशरफ़ ख़्याल, शरीफ़ इलाहाबादी आदि ने कलाम पेश किया। अंत में इश्क़ सुल्तानपुरी ने सबके आभार प्रकट किया।


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