बुधवार, 27 मार्च 2013

होली के रंग में सराबोर हो छलका शेरो-शायरी का जाम


इलाहाबाद। होली नजदीक आते ही हर तरफ माहौल रंगीन नजर आने लगा है, इसे देखते हुए साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ ने कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन करैली स्थित अदब घर में 24 मार्च को किया। अध्यक्षता वरिष्ठ कवि अजामिल ने किया, मुख्य अतिथि सागर होशियापुरी और विशिष्ट अतिथि बुद्धिसेन शर्मा थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।
 अजय कुमार -
ये भारतवर्ष है इसकी तरक्की के तो क्या कहने,
कमीशन आज पंडित से यहां जजमान लेते हैं।
 इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
बात सदियों की सिमटी तो पल हो गयी।
उनसे नज़रें मिलीं और ग़ज़ल हो गयी।

 वीनस केसरी -
एक दिन पव्वा पिला, वो रहनुमा हो जाएगा
चार दिन अध्धी पिला दे तो खुदा हो जाएगा
उसकी आंखों में नशा है उसकी बातों में नशा
नालियां कहती हैं वो इक दिन मेरा हो जाएगा।
पीयूष मिश्र-
अब क्या तुमका बतलाउं मैं आंखें नम हो जाती हैं
रामकृष्ण की इस धरती से पापों की बू आती है।
नादानी में भूले ‘पीयूष’ जिसने तुम्हें बनाया है
जिसके हाथों में देखो तो सारे घर की चाबी है।
रमेश नाचीज़-
कैसा-कैसा फ़जऱ् निभाना पड़ा मुझे
विष का प्याला भी पी जाना पड़ा मुझे
प्रेम का धागा टूट गया अंजाने में
फिर क्या करता गंाठ लगाना पड़ा मुझे।
 शैलेंद्र जय-
ख़्वाबों से ही कुछ राहत होती है
जि़न्दगी तो पल-पल आहत होती है
चाहता हूं मैं मुस्कुराना मगर
गमों की भी एक विरासत होती है।

 चांद जाफरपुरी-
हुनर ऐसा है ऐ हमदम तेरी चढ़ती जवानी का
लगा दे आग ये पल में तलातुमख़ेेज पानी में
तुझे जब देखता हूं यूं उमड़ती है तमन्नाएं
बड़ी हलचल सी होती है बदन की राजधानी में।
 जफर सईद जिलानी-
अपने किरदार अगर तुम ने संवारे होते
दिन बुर इतने कभी फिर न तुम्हारे होते
हौसले उसके जवां हो नहीं सकते थे ‘जफर’
गरचे क़ातिल को तुम्हारे न इशारे होते।
 आसमा हुसैन-
होली के मौके पर खुशियों से झोली भर लेना
गुझिया खाते याद हमें भी कर लेना

 हुमा अक्सीर-
क्यों भला वक़्त के हाथों से गंवाया जाए
आज होली है ता होली को मनाया जाए

 सौरभ पांडेय -
कचनार से लिपटकर महुआ हुआ गुलाबी
फिर रात से सहर तक मौसम रहा गुलाबी
करने लगीं छतों पर कानाफुसी निगाहें
कुछ नाम बुदबुदाकर फागुन हुआ गुलाबी

 शादमा बानो शाद-
मैं वर्तमान हूं इस कलयुग का
अपने इस भारत महान का

 सबा ख़ान -
कुछ रमक आफताब से कम है, मेरी शोहरत जनाब से कम है।
वो निगाहों से बात करते हैं, क्या ये नश्शा शराब से कम है।
 शकील ग़ाज़ीपुरी-
उस की सब बेवफाइयों को ‘शकील’
खुबियों में शुमार करते हैं। 

 विपिन श्रीवास्तव-
परवीन मैं डीएसपी जि़याउल हक़ बोल रहा हूं
मैं साजि़श में फंसाकर मारा जा रहा हूं।

 शादमा जै़दी शाद-
फागुन बनके आ गये देखो केसरिया कचनार
बिन अबीर के हो गया गोरा मुख कचनार
चलती फिरती वाटिका लगे बसंती नार
सजन होली में

 शाहीन-
होली में साजन की होली
ऐसह होली कभी न खेेली
चली सासरे जब मेरी डोली
सबने मारी पिचकारी

 राजेश कुमार-
दर्द शीशे में जब जड़ा होगा, उसने तब आईना गढ़ा होगा।
सिर्फ़ रफ्तार कुछ नहीं होती, वक़्त का फैसला बड़ा होगा।
 अजीत शर्मा ‘आकाश’-
हर नौजवान बूढ़ा और बच्चा पुकारे,
हम साथ हैं संघर्ष करो अन्ना हजारे।

 शाहिद अली शाहिद -
शहर गया था शहर से आया
सच्चाई की हार देखकर, हाथों में हथियार देखकर
मतलब के सब यार देखकर, खादी का भंडार देखकर।
 तलब जौनपुरी-
नहीं इब्तिदा है नहीं इन्तिहा है,
ये दुनिया रवानी का इक सिलसिला है।

 सागर होशियारपुरी-
दरख़्त धूप को साये में ढाल देता है,
गुरूर शम्स का गोया निकाल देता है।

 बुद्धिसेन शर्मा-
मछली कीचड़ में फंसी सोचे या अल्लाह
आखिर कैसे पी गये दरिया को मल्लाह।

 अजामिल व्यास-
दरवाजे खोलो, और दूर तक देखो
खुली हवा में, मर्दों की इस तानाशाही दुनिया में
औरतें जहां भी हैं, जैसी भी हैं
पूरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं
वो हमारे बीच


शुक्रवार, 8 मार्च 2013

नयी कविता खत्म हो जायेगीः प्रो. सोम ठाकुर

प्रो. सोम ठाकुर हिन्दी साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं. उन्होंने नवगीत को नया आयाम दिया. हिन्दी साहित्य में उनकी सफलता प्रमाण की मोहताज नहीं है. इनकी साहित्य जीवन पर कुल तीन शोध पत्र विभिन्न विश्वविद्यालयों में लिखे जा चुके हैं. वे उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष भी रहे हैं. आपका जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में स्व. दीप ठाकुर के यहां हुआ था. आगरा कालेज और सेन्ट जोन्स कालेज में अध्यापन करने के बाद आप मैनपुरी के नेशनल कालेज में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष भी रहे, बाद में वहां से त्यागपत्र देकर आप अमेरिका चले गये तथा अमेरिका के 29 शहरों और कनाडा के 10 शहरों में आपने अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति का गठन किया. उसके बाद आपको मारिशस सरकार ने बुला लिया, वहां से लौटने के पश्चात सन् 2004 में आपको उ.प्र. हिन्दी संस्थान का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया. आपके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है. जिनके नाम एक ऋचा पाटल को, अभिराम, चन्दन और अबीर, सोम सतसई, लोकप्रिय आदि है. आपको यश भारती, निराला पुरस्कार तथा अन्य छोटे बड़े सम्मान प्राप्त है. गुफ़्तगू के संवाददाता अजय कुमार ने उनसे बात की, जिसका संपादित अंश प्रस्तुत हैः-
सवाल-आप गीतों का क्या भविष्य देखते हैं?
जवाब- गीतों का भविष्य तो अच्छा है क्योंकि बिना गीतों के काम नहीं चलेगा, क्योंकि जब आदमी संवेदनशील स्थिति में होता तो गीत ही उसका साथ देते हैं और कोई चीज़ उसका साथ नहीं देती, जब आदमी परेशान होता है तो गुनगुनाने लगता है, तो गीत का भविष्य मुझे तो अच्छा लग रहा है.
सवाल-हिन्दी कवियों में ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ने की क्या वज़ह है?
जवाब- ग़ज़ल का प्रयोग बढ़ने के दो तीन कारण है, जिसमें पहली बात ये है कि ग़ज़ल अगर अच्छी ग़ज़ल कहनी हो तो वो बहुत मुश्किल है और वैसे तो रदीफ़ और क़ाफि़या मिलाकर चाहे जो कहा जा सकता है. इसके लिये जरूरी है व्यक्ति सबसे पहले अच्छे साहित्य को पढ़े और फिर लिखे और फिर प्रकाशित कराये. ग़ज़ल एक ऐसी संस्कृति की विधा है जो पश्चिम से आये जो जुझारू लोग रहे. आज यहां कल वहां रहे जहां रहे वहीं झण्डा गाड़ लिया उनका स्थायित्व नहीं था यही कारण है कि जितने भी शेर होते हैं. उनमें एक शेर में कहीं और की बात कही जायेगी दूसरे में कहीं और की विचारों की निरन्तरता नहीं है. गीत में है और हमारा सबसे अच्छा साहित्य वो है जो कुटिया में और झोपडि़यों में लिखा गया है और उनका वो साहित्य दरबार में लिखा गया है, दरबार में हमारे यहां भी लिखा गया पर वह भक्तिकाल से कम माना गया. उसमें कलात्मक ऊँचाई तो बहुत है पर विचारों एवं भावों की ऊँचाई कम है.

सवाल- चुटकुलेबाजी के दौर में मंच की कितनी महत्ता रह गई है.
जवाब- चुटकुलेबाजी के दौर में जो लोग बहुत अच्छा लिखने पढ़ने वाले हैं उनकी महत्ता है और बाकी ये लोग बहुत जल्द खत्म हो जायेगें जो चुटकुलेबाज है. चुटकुला पहली बार सुनने में अच्छा लगता है फिर उसके लुत्फ में कमी आ जाती है और ये तो खत्म ही होना है गीत ही जिन्दा रहेंगें.
सवाल- फिल्मों में जो गीत गाये जा रहे हैं उनमें प्रायः हिन्दी के शब्दों का प्रचलन कम तथा उर्दू के शब्दों का प्रचलन ज्यादा देखने को मिल रहा है, इस पर आप क्या कहेंगें?
जवाब-नहीं, ऐसाा नहीं है उर्दू के शब्दों का एक जमाना था जब प्रचलन बढ़ता जा रहा था लेकिन इस समय प्रचलन बढ रहा है. पंजाबी भाषा का. बिरला ही कोई फिल्म होगी जिसमें पंजाबी का गीत या मुखड़ा न होगा तो मेरे अनुसार उर्दू को जानने वाले कम हो रहे है, धीरे-धीरे, जितना पहले जानते थे उर्दू को उतना अब नहीं जानते नई पीढ़ी तो बिल्कुल नहीं जानती.
सवाल-नई कविता का क्या भविष्य है?
जवाब- नई कविता का कोई भविष्य नहीं है, कारण यह है कि कविता का काम है आदमी को तनाव से दूर रखना है और नई कविता तनाव ग्रस्त करती है तो ये तो आदमी को बीमार बनाती है. गीत भावनाओं का उदास्तीकरण करता है मन को विश्राम देता है तो गीत ही जिन्दा रहेगा नई कविता तो खत्म हो जायेगी.
सवाल- छन्द कविता के लिए कितना महत्व रखते हैं?
जवाब- छन्द कविता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि छन्द का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह याद होता है और नई कविता याद नहीं होती और छन्द की लयवत्ता के कारण वह धारणा शक्ति में स्थान बनाती है. नई कविता बहुत कम ऐसी मिलती है जो मन पर प्रभाव डालती है.
सवाल- साहित्यिक पुरस्कारों की वर्तमान स्थिति पर आपके क्या विचार हैं.
जवाब- साहित्यिक पुरस्कार तो अलग-अलग संस्थायें देती हैं. उनके अपने जीवन मूल्य होते हैं जिनके अनुसार दिये जाते हैं.
सवाल- आपने हिन्दी संस्थान की उपाध्यक्षता के दौरान कौन-कौन से उल्लेखनीय कार्य किये, तथा क्या करना शेष रह गया?
जवाब- सबसे पहले तो मैने वाचनालय को पब्लिक लाइब्रेरी बना दिया, दूसरा काम ये किया कि जो लोग अहिन्दी भाषी साहित्य रचते थे वो अपने क्षेत्र तक ही रहते थे, मैंने केरल, तामिलनाडु, गुजरात जैसे राज्यों में हिन्दी भाषी लोगों के कार्यक्रम कराये. फि़र इंग्लैण्ड और अमेरिका में भी उनको ले गया. मैं ‘धर्मयुद्ध’ जैसी ही एक पत्रिका निकालना चाहता था पर नहीं निकाल पाया क्योंकि सरकार गिर गई. दूसरे मैं चाहता था, जिस प्रकार केदारनाथ, ब्रदीनाथ पीठ है उसी तरह हिन्दी पीठ स्थापित की जाये चारों दिशाओं में, जिसके लिए 5 करोड़ रुपये के लिए हमने मुलायम सिंह से बात कर ली थी, और मेरे जो असिस्टेन्ट आई.ए.एस.अधिकारी थे उन्होंने कहा की उनकी ही बैच के लोग सब जगह पर हैं, वो मुफ्त में जमीन दिला देंगें. मुलायम सिंह ने 5 करोड़ रुपये स्वीकार कर लिया था ताकि वहां पर एक तो हालबनाया जा सके और एक हास्टल जहां लोग ठहर सकें, वहां एक-एक महीने का कार्यक्रम रखा जाये, उस एक माह में वहां के स्थानीय रचनाकारों को भी शामिल किया जाये और कुछ बाहर के भी शामिल हों लेकिन हो नहीं सका. तीसरा काम मैं करना चाहता था, हिन्दी को रोजगार की भाषा नहीं मानते हैं, मैं न्यूयार्क में गया वहां के विभागाध्यक्ष से बात की. बहुत लोग ऐसे है जो अंग्रेजी से एम.ए. किये बिगड़ गया तो उन्होंने हिन्दी से एम.ए. किया और पी.एच.डी की और यहां आकर पढ़ाने लगे. ऐसे लोगों को हैण्डसम रेमुनेरेशन देकर 3-3 वर्षो के लिए बुलाते तो हिन्दी रोजगार की भाषा बनती वो मैं नहीं कर पाया.
सवाल- लघु पत्रिकाओं को किस नजर से देखते हैं?
जवाब- लघु पत्रिकायें बहुत जरूरी तो है क्योंकि जो आंचलिक प्रयोग छोटी-छोटी जगहों पर किये जा रहे हैं वो यहां तक नहीं पहुंच पाते है. जो पहुंचने चाहिये. किस्सों में ही सही. आजकल मैं देखता हूं बिहार में छोटे-छोटे गांवो से पत्रिकायें निकल रही है, जहां तक मेरा ख्याल है तो बिहार में सबसे ज्यादा लघु पत्रिकायें निकल रही है. थोड़े ही लोग हैं और वो भी खुद को प्रकाशित करते हैं तो कुछ तो दायरा है उनका, कुछ तो क्षेत्र है जहां तक वो पहुंच रहे हैं.
सवाल- गुफ़्तगू पर आपकी क्या राय है?
जवाब- गुफ्तगू बहुत अच्छी पत्रिका है. इसमें हमको चतुर्दिक दर्शन होते हैं. सृजन के भी इन्टरव्यू के भी, कवितायें भी निकालते है और साथ ही एक व्यक्ति पर विशेषांक निकालते हैं तो एक सामूहिक रूप में उजागर होता है ‘सृजन’.
सवाल- नये लिखने वालों को क्या सन्देश देना चाहेंगें?
जवाब- सबसे पहले तो नवलेखकों को खूब पढ़ना चाहिये, जरुरी नहीं है कि आप नई कविता लिखेतभी नई कविता पढ़े सब कुछ पढ़ना चाहिये और आपको रास्तें मिलेंगे कि अपनी बात को लोगों ने कैसे कहा है. ये देखेंगे तो आपको अपना एक रास्ता भी मिलेगा, जिससे आप अपना विकास कर सकेंगे, खूब पढि़ये और लिखिये उसमें से छटा हुआ प्रकाशित कराइये, इससे बहुत लाभ होगा हिन्दी कविता का ऐसा मेरा ख्याल है.


गुफ्तगू के मार्च-2013 अंक में प्रकाशित

बुधवार, 6 मार्च 2013

फि़राक़ की शायरी उर्दू दुनिया में मिसाल -प्रो. ज़ाफ़र रज़ा

फि़राक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर संगोष्ठी एवं तरही मुशायरा आयोजित
इलाहाबाद। फि़राक़ गोरखपुरी की शायरी उर्दू अदब में मिसाल है, उनकी शायरी में सांस्कृतिक चेतना कूट-कूट कर भरी हुई है, यही वजह है कि फि़राक़ साहब की शायरी आम से लेकर ख़ास तक में मक़बूल हुई है। हमारे लिए फख्र की बात यह है कि फि़राक़ साहब इलाहाबाद से ही जुड़े रहे और हमारे ही यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा रहे हैं। यह बात प्रो.जाफर रज़ा ने 3 मार्च को हिन्दुस्तनी एकेडेमी में आयोजित एक कार्यक्रम में कही। फि़राक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के संयुक्त तत्वावधान में संगोष्ठी और तरही मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता प्रो.रजा ने ही की जबकि मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार अजामिल व्यास थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। रविनंदन सिंह का कहना था कि फि़राक़ साहब की शायरी उर्दू दुनिया से लेकर अन्य भाषाओं तक में काफी चर्चा का विषय रही है। सबा ख़ान ने फि़राक़ गोरखपुरी से जुड़ी हुई तमाम लतीफों और किस्सो-कहानियों का जिक्र करके लोगों को खूब गुदगुदाया। उन्होंने बताया कि फि़राक़ से जुड़ी सैकड़ों कहानियां और घटनाएं हमेशा से चर्चा का विषय रही हैं, जिसे आज की पीढ़ी मजे ले लेकर सुनती और सुनाती है। मुख्य अतिथि अजामिल व्यास ने कहा कि हमलोग यूनिवर्सिटी में अध्यापन के दौरान फि़राक़ साहब को देखा है और उनसे तालीम हासिल किया है, ये हमारे लिये गौरव की बात है। आज के समय में फि़राक़ जैसे अध्यापक बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, उनके पढ़ाने का ढंग भी अन्य शिक्षकों से काफी अलग था, यही वजह थी कि उनके क्लास में छात्र-छात्राओं की तादाद काफी अधिक रहती थी। कार्यक्रम के दूसरे दौर में फि़राक़ गोरखपुरी के मिस्रा ‘तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं’ पर तरही मुशायरे आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ शायर इक़बाल दानिश ने की। 

विचार व्यक्त करते प्रो. जाफर रज़ा
विचार व्यक्त करते अजामिल व्यास
विचार व्यक्त करते रविनंदन सिंह
विचार व्यक्त करते डा. पीयूष दीक्षित

कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
इक़बाल दानिश-
पसे पर्दा हक़ीक़त क्या है उसको जान लेते हैं।
कहा जो आप ने चलिये उसे हम मान लेते हैं।
उन्हीं को मंजि़लें जानां जुनू का नाम देती है,
मुहब्बत में जो ख़ाके दश्तो-सहरा छाने लेते हैं।

सागर होशियारपुरी-
अक़ीदत दिल में दोनों के लिए यकसां है ऐ ‘सागर’
कभी हम हाथ में गीता,कभी कुरआन लेते हैं।

हसनैन मुस्तफ़ाबादी-
चलो गर आप कहते हैं तो हम ये मान लेते हैं,
जिन्हें दावाये उल्फ़त है उन्हें पहचान लेते हैं।
बहुत मुश्किल है ये कहना जलाते हैं बहू-बेटी,
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।


शकील ग़ाज़ीपुरी-
अना को पास रखते हैं तबीयत में है खुद्दारी,
तुम्हारे हुस्न की खैरात तो नादान लेते हैं।
सोंक के बाद की बेताबियां देखी नहीं जातीं,
हजारों करवटें देखो मेरे अरमान लेते हैं।

तलब जौनपुरी-
फ़ज़ा दहशत ज़दा है आज के वहशी दरिन्दों से,
किसी बेबस की अक्सर आबरू औ जान लेते हैं।

फरमूद इलाहाबादी-
नज़र आए न आए सूंघ कर ही जान लेते हैं।
तुझे ऐ गन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
मेर उस्ताद की गुफ्तार में थोड़ी लुकनत है,
वो मेरा नाम भी फ़रमद ख़ा-ख़ा ख़ान लेते हैं।

अख़्तर अज़ीज़-
वो अपनी निगाही का सबब जब जान लेते हैं।
तो पत्थर मारकर हर आईने की जान लेते हैं।
मिज़ाजन गुफ्तगू हर शख़्स की हम छान लेते हैं,
ज़रा सी देर में हम आदमी पहचान लेते हैं।

सबा ख़ान-
बहुत सी उंगलियां उठ जाती हैं किरदारे हव्वा पर,
कभी गलती से गर दिल का कहा हम मान लेते हैं।

डा. नईम ‘साहिल’-
हमें आवाज़ देता है मुसलसल मीर का लहजा,
कभी हाथों में जब ग़ालिब हम दीवान लेते हैं।
बड़ी मुश्किल से होती है कोई उम्दा ग़ज़ल ‘साहिल’
उन्हें मालूम है जो क़ाफिया आसान लेते हैं।

सौरभ पांडेय-
लुटेरे थे लुटेरे हैं ठगी दादागिरी से वो,
कभी ईरान लेते हैं, कभी अफगान लेते हैं।

रमेश नाचीज़-
है तेरी जि़द तो तेरी बात हम मान लेते हैं।
तू हीरा है या मोती है या पत्थर जान लेते हैं।
हैं कितने मोटे आसामी ये पंडे जान लेते हैं,
ये जज्मानों को अपने दूर से पहचान लेते हैं।


शादमा ज़ैदी ‘शाद’-
फरेबो मक्र का चेहरा नुमाया हो ही जाता है,
अगर आंखों की हम कभी अपनी मीज़ान लेते हैं।

वीनस केसरी-
बिगड़ते मौसमों में पुल का जो अहसान लेते हैं।
वो क्या जाने कि क्या-क्या इम्तिहां तूफान लेते हैं।

डा. क़मर आब्दी-
हवा का रुख रुखे जानां के रुख से जान लेते हैं।
शनासाए ग़मे दौरां नज़र पहचान लेते हैं।
बहुत वाज़ेह नज़र आ जाये उनका बदनुमा चेहरा,
सियासत की मगर वो लोग चादर तान लेते हैं।

शाहिद अली ‘शाहिद’-
रहे पेशे नज़र उक़बा तो दुनिया जान लेते हैं।
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।

 नजीब इलाहाबादी-
किसी दीपक से जब क़ब्जे में हम जान लेते हैं।
हमारी हर अदा दिल से मुख़तलिफ मान लेते हैं।

 आरपी सोनकर-
हक़ीक़त जि़न्दगी की जो यहां पहचान लेते हैं।
वो दुनियाभर के इंसानों को अपना मान लेते हैं।
तुम्हार काम है नफ़रत के जितने बीज बो डालो,
हमार काम है अच्छा बुरा पहचान लेते हैं।

विमल वर्मा-
नचाकर सर्वशिक्षा और मिड-डे मील की धुन पर,
वो शिक्षक से पढ़ाई के सिवा हर ज्ञान लेते हैं।

हुमा अक्सीर-
मेरे दिल पे ग़मे तन्हाई की जब वार होता है,
तो ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं।

नुसरत इलाहाबादी-
बस इतना रह गया कुरआन से अब वास्ता ‘नुसरत’
कसम खाने के खातिर हाथ में कुरआन लेते हैं।


चांद जाफरपुरी-
कही से भी तू गुजरे आहट मिल ही जाती है,
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।


अजय कुमार-
ये भारतवर्ष है इसकी तरक्की के तो क्या कहने,
कमीशन आज पंडित से यहां जजमान लेते हैं।