बुधवार, 12 जनवरी 2011

फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क से बातचीत



कहो ना प्यार है, कोई मिल गया और वेल्कैम जैसी हिट फिल्मों के गीतकार इब्राहीम अश्क का जन्म २० जुलाई १९५१ को मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के एक किसान परिवार में हुआ। शुरूआती शिक्षा बडनगर में हुई। स्नातक की परीक्षा इंदौर विशवविद्यालय से पास करने के बाद यहीं से हिंदी में स्नातकोत्तर किया। बारह सालों तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद १९८१ में मुंबई आकर फिल्मों से जुड़ गए। इन्होने अबतक गीत मेरे प्यार की, बहार आने तक, दो पल,ये रात फिर न आएगी, जीना मरना तेरे संग, कहो न प्यार है, कोई मिल गया, कोई मेरे दिल से पूछे,धुंध,ऐतबार, वेल्कैम, मिस इंडिया,जानशीन,युवराज, चादनी, क्योंकि हम दीवाने है आदि फिल्मों के लिए गात लिक्खा लिखा है। और अभी पंछी मस्ताना, मिस मेरी या तेरी, हार क्रिस टू मेरी, मर्री टू अमेरिका, सत्यम,महाभारत, दिल तो दीवाना है, इशारा, मैड लोवर और क्योंकि हम दीवाने हैं आदि फल्मों में गीत लिख रहे हैं। टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले सेरिअलों में से संस्काक, शकुन्तला, कोई तो होगा, गुलबानो और ऑफिस-ऑफिस आदि के लिए गीत लिखा है। अबतक आपकी कई किताबें आ चुकी हैं, जिनमे अल्मास,आगाही,अल्लाह ही अल्लाह,अलाव और अंदाजे बयां प्रमुख हैं। साहित्य सृजन के लिए इन्हें उत्तर प्रदेश साहित्य अकादमी से सम्मान के साथ एम एफ हुसैन के हातून स्टार डस्ट सम्मान, मध्य प्रदेश सद्भावना मंच का कालिदास सम्मान, इंतसाब ग़ालिब सम्मान, एल ऍन सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल सवाल इंस्टिट्यूट का बेदिल सम्मान, मजरूह सुल्तानपुरी सम्मान आदि मिले हैं। इम्तियाज़ अहमद गाजी ने उनसे बातचीत की।
सवाल: फ़िल्मी गीतों का साहित्यिक गीतों से किस प्रकार का सम्बन्ध है ?
जवाब: साहित्यिक गीतों का फिल्म के गीतों से कोई सम्बन्ध नहींन होता, क्योंकि फ़िल्मी गीत कहानी सिचुअशन के मुताबिक़ लिखे जाते हैं और साहित्यिक गीत रचनाधर्म को निभाने के लिए। लेकिन कभी-कभी साहित्य से जुदा फ़िल्मी गीतकार अपने गीतों में साहित्य का रस घोल कर अपने गीत को 'दो आतेशा' बना देता है। यह आम फिल्म गीतकारों के बस की बात नहीं है।
सवाल:ग़ज़ल और गीतों में आप किस विधा को प्रभावशाली मानते हैं?
जवाब: दोनों ही विधाएं प्रभावशाली और लोकप्रिय हैं। यह रचनाकार पर निर्भर करता है की वह किस विधा में कितनी गहराई में उतारकर मोती चुनने का फ़र्ज़ अदा करता है।
सवाल:उर्दू साहित्य का हिंदी साहित्य से कितना सम्बन्ध है?
जवाब:उर्दू और हिद्नी साहित्य एक दुसरे के रस में ऐसे रचे बसे हैं की कई कहानीकार और शायर एक ही वक़्त में दोनों ही भाषाओं के रचनाकार माने जाते हैं। और अब तो ग़ज़ल की विधा ने दोनों भाषाओं के रचनाकारों को इतना करीब कर दिया है के ये दोनों भाषाएँ दो जिस्म एक जान होकर रह गयी हैं। दो भाषाओं का इतना करीब सम्बन्ध कहीं और देखने को नहीं मिलता।
सवाल: आज के मुशाएरों को देखकर कैसा लगता है?
जवाब:अफ़सोस होता है के गैर मेयारी शायेरों और मुशायेरों के दलालों ने इल्मो-अदब के मंच को तावाएफों के कोठे से भी ज्यादा बदतर बना दिया है। मुशायेरों की असल रिवायत और तहजीब ख़तम होकर रह गयी है।
सवाल: किस तरह के संगीतकारों के साथ मिलकर गीत लिखना ज़्यादा पसंद करते हैं?
जवाब: जो संगीतकार संगीत की आला दर्जे सुझबुझ के साथ शाएरी की समझ भी रखता हो उसके साथ काम करने मज़ा आता है।
सवाल: गीत लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
जवाब: अपनी माँ से। जब वह मीठे स्वरों में कोई गीत गुगुनाती थी तो मेरे कानो में रस घुल गाया करते थे, उनकी प्रेरणा ही से में गीत लिखने लगा।
सवाल: आपके पसंदीदा शाएर कौन-कौन से हैं?
जवाब: फ़ारसी में हाफिज़ शिराज़ी और अब्दुल कदीर 'बेदिल' , उर्दू में ग़ालिब,इकबाल और मीर।
सवाल: आपके उस्ताद कौन हैं?
जवाब: इब्तिदा में थोड़ा बहुत मरहूम असद बद्नाग्री से सिखा, बाद में हर वह रचनाकार जिसने मुझे प्रभावित किया, मेरे उस्ताद की तरह है।
सवाल: साहित्य की किन-कनी विधाओं में आपने सृजन किया है?
जवाब: ग़ज़ल,गीत,नज़्म,रुबाई,दोहा,मसनवी,मर्सिया,सवैया,कुंडली, माहिया ग़ज़ल, माहिया मतले,लालन और चाहारण के अलावा दस नइ बहरों की इजाद की। गैर मंकुता कलाम कहानी , समालोचना हर विधा में संजीदगी के काम किया।
सवाल: नए लिखने वालों को क्या सलाह देंगे?
जवाब: लिखने से ज्यादा पढ़ें, कर्म करते जाएँ फल की चिंता न करें, शोहरत और नामवरी के करीब से बचें।
सवाल: आपका ख्वाब क्या है?
जवाब: ख्वाब टूट जाते हैं,उनपर भरोसा नहीं। हकीक़त यह है की इल्मो-अदन की दुनिया में सरमाया छोड़कर कर जाना है। इसलिए मैंने हर विधा में मेयारी काम करने की कोशिश की है।
सवाल:शोहरत का कितना असर आपपर हुआ है?
जवाब:जो मेरे करीब दोस्त हैं, वे बखूबी जानते हैं के मैंने हमेशा वक जैसा ही महसूस किया है.शोहरत की वजह सर कोई ख़ास तबदीली मुझमे नहीं होती।
सवाल: अपने पसंदीदा लिबास और खाने के बारे में बताइये?
जवाब: अच्छे जाएकेदार मुगलिया तर्ज़ के खाने का बचपन से ही शौक़ रहा है.लिबास भी अच्छे सजने वाले पहनने की आदत है।
सवाल: निजी जिन्दगी में सबसे अधिक प्यार किस से करते हैं?
जवाब:मैंने अपनी माँ से सबसे अधिक प्यार किया है। उनके बाद अपने परिवार और सच्चे दोस्तीं से।
नोट: यह बातचीत ०३ जनवरी २००४ को हिंदी दैनिक आज और गुफ्तगू के मार्च २००६ अंक में प्रकाशित हो चुका है, कुछ सम्पादन के साथ यहाँ पब्लिश किया जा रहा है.

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

लेखक परिचय



इम्तियाज अहमद गाजी
जन्मः ०८ जुलाई १९७६ को ग्राम रकसहां, जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में
पिता का नामः स्वर्गीय मोहम्मद याहिया अंसारी
माता का नामः श्रीमती नजमा खातून
शिक्षाः बीएस सी
संप्रतिः अमर उजाला, कानपुर में सब एडीटर के पद पर कार्यरत।
संपादनः १- हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका गुफ़्‌तगू का पांच सालों तक संपादन।
२- सन २००० में काव्य संकलन 'साहित्यिक विरासत' का संपादन।
३- सन २००१ में काव्य संकलन ' अब तक' का संपादन।
४- सन २००३ में ' बढ़ते कदम' का संपादन।
५- देशभर के २७५ शायरों की ग़ज़लों का संकलन 'मुल्क-ए-ग़ज़ल' का संपादन कार्य जारी।
सम्मानः १- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सन २००६ में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए 'जुगल किशोर शुक्ल' सम्मान। तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय मुलायम सिंह के हाथों से एक लाख रुपए की धनराशि और सम्मान पत्र।
२- मध्य प्रदेश खंडवा की संस्था 'सुरभि' द्वारा वर्ष २००३ के लिए 'राष्ट्र गौरव' सम्मान।
३- बिहार, खगड़िया की संस्था भाषा साहित्य परिषद द्वारा वर्ष ३००२ के लिए ' फिराक गोरखपुरी रजत स्मति सम्मान।
४- कौमी एकता सप्ताह के अंतगर्त १३ मार्च २००४ को जिला सूचना कार्यालय द्वारा सम्मान पत्र।
प्रसारणः आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा समय-समय पर ग़ज़लों का प्रसारण। साथ ही परिचर्चा में सहभागिता।
संपर्कः १२३ए-१, हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद-२११०११
मोबाइलः ९३३५१६२०९१

सोमवार, 10 जनवरी 2011

हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल हो ग़ज़ल


इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विहंगम दृश्य


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
ग़ज़ल मूलतः फारसी की विधा है। हिंदुस्तान में आने के बाद धीरे-धीरे यह उर्दू भाषा में इस तरह समाहित हुई कि उर्दू की विधा बन गई। आज ग़ज़ल उर्दू की विधा मानी जा रही है, यह सब ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण है। ग़ज़ल की लोकप्रियता यहीं नहीं रुकी, उर्दू में घुलने मिलने के बाद इसने कई दूसरी भाषाओं पर जादू बिखेरा, इनमें प्रमुख रूप से हिन्दी है। आज ग़ज़ल हिन्दी भाषी लोगों के काफी करीब हो चुकी है, हिन्दी भाषी लोगों में इस कदर घुल मिल गई कि तमाम लोग इसे हिन्दी की विधा समझने लगे हैं। हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं तेलुगु, कन्नड़ बंगाली और मराठी के साथ ही विदेशी भाषा चीनी व फ्रेंच में भी ग़ज़ल खूब कही जा रही है। आज हिन्दुस्तान में ग़ज़ल को उर्दू से ज्यादा हिन्दी भाषा के जानकार लिख और पढ़ रहे हैं। ये और बात है कि कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग इसे उर्दू भाषा की विधा समझते हुए छूत समझते हैं। मगर इसके विपरीत बहुत से साहित्यकार हिन्दी उर्दू को अलग भाषा न मानकर एक साथ मिलजुल कर काम रहे हैं। आज तमाम स्थानों पर कवि सम्मेलन और मुशायरा एक ही साथ एक मंच पर आयोजित किए जा रहे हैं। ऐसे में मंच पर पढ़ने वाला व्यक्ति जब ग़ज़ल पढ़ता है तो यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि मंच पर खड़ा होकर पढ़ने वाला हिन्दी का कवि है या उर्दू का शायर। कहने का मतलब यह है कि ग़ज़ल को हिन्दी भाषियों ने तहेदिल से अपना लिया है। ये लोग इसे अपने से अलग बिल्कुल भी नहीं समझते। ऐसे हालात में यह चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि ग़ज़ल को हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं, तो विरोध करने वालों की भी कमी नहीं है। विरोध करने वाले कहते हैं कि ग़ज़ल शुद्ध रूप से उर्दू की विधा है, इसलिए इसे हिन्दी के पाठ्यक्रम में क्यों शामिल किया जाए, विरोध करने वाले बहुत से लोग समझते हैं कि उर्दू विदेशी या मुसलमानों की भाषा है। मगर, यह बात सच्चाई से परे है। उर्दू भारत की ही भाषा है और भारत में ही पली बढ़ी है। अंग्रेज़ों ने भारत के लोगों को भाषागत आधार पर भी बांटने का कुचक्र रचा था, जिसमें वे काफी हद तक कामयाब भी रहे। अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की बातें हिन्दी में और मुसलिम धर्म की बातें उर्दू में अनुवाद करवाया। आज़ादी के बाद जहां भारत में राष्ट्र भाषा को लेकर अभी विचार विमर्श चल रहा था, वहीं पाकिस्तान में आनन-फानन में उर्दू को राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया गया। इसी का असर था कि भारत में फौरन ही हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया। ग़ज़ल का विरोध कई लोग इस वजह से भी करते हैं कि उन्हें इसके छंद को लेकर परेशानी है। इसका बेहद जटिल छंद समझ में न आने के कारण झल्ला जाते हैं और कहते हैं कि इसका छंद बदला जाना चाहिए। इनका अपना तर्क है कि रटे-रटाए छंद में ही ग़ज़ल कब तक कही जाती रहेगी, अब कुछ नया होना चाहिए। इसी दलील के तहत कई लोग अनाप-शनाप और बिना किसी छंद के ग़ज़ल लिख रहे हैं और इसे नई विधा बता देते हैं। यहां कई चीजें समझने की जरूरत है। पहले तो यह कि ग़ज़ल की अपनी एक पहचान है, और यह पहचान इसके अपने छंद और लय के कारण ही है। ग़ज़ल की लोकप्रियता भी इसके छंद और लय के चलते ही है। ऐसे में यह कहना कि इसके छंद और लय को ही बदल बदला जाए, किसी भी हिसाब से मुनासिब नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह जैसे कि कोई व्यक्ति पायजामा को पैंट कहना शुरू कर दे, और दलील दे कि यह नया अंदाज़ है मैं तो इसे पैंट ही कहूंगा। जैसे दोहा का अपना एक निर्धारित छंद है, उसी तरह ग़ज़ल के अपने पैमाने हैं जिसके साथ छेड़छाड़ करके शायरी करना और उसे ग़ज़ल बताना सही नहीं कहा जाएगा। जब ग़ज़ल को हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात आती है तो इसके चाहने वाले अपना तर्क देते हैं। इनका कहना है कि विधा की कोई भाषा नहीं होती है। जब ग़ज़ल हिन्दी भाषियों के बीच अपना मुकाम बना चुकी है तो इसे हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल करने में कोई हर्ज नहीं है। गौरतलब है कि भारत के कई विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल को शुमार किया गया है जो छात्र-छात्राओं के बीच काफी लोकप्रिय है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालय इनमें अग्रणी हैं। अब जरूरत इस बात कि है कि उत्तर प्रदेश और अन्य प्रदेशों के विश्वविद्यालयों सहित इंटरमीडिएट और हाईस्कूल के पाठ्यक्रमों में ग़ज़ल को शामिल किया जाए। इसके लिए साहित्यकारों के बीच रायशुमारी कराई जा सकती है। किसी विधा को भाषा विशेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

अमर उजाला काम्पैक्ट में 12 सितंबर 2010 को प्रकाशित

चित्र admissiondiary.com से साभार

हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल: विद्वानों की राय

हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल को शामिल किया जाये या नहीं. इसे लेकर पिछले दस-बारह सालों से बहस ज़ारी है. हिंदी-उर्दू के साहित्यकार इस बारे में क्या कहते हैं। यह जानने के गुफ्तगू में एक सीरियल चलाया गया । गुफ्तगू के उपसंपादक डॉक्टर शैलेश गुप्त वीर ने इन साहीत्याकारों से उनकी राय पूछी, जिसे गुफ्तगू के दिसम्बर २००९, मार्च २०१० और जून २०१० अंक में प्रकाशित किया. ब्लॉग के पाठकों के लिए हम यह प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि इस अभियान को व्यापक बनकर इसमें सफलता हासिल की जा सके, आपके कमेन्ट इंतज़ार है

प्रोफेसर फजले इमाम :हाँ, बिलकुल शामिल करना चाहिए क्योंकि ग़ज़ल bhartiye सांस्कृतिक परम्पराओं से प्रभावित है। इसको हिंदी की विधाओं में शामिल करना लाभकारी भी होगा और ज्ञानवर्धक भी। ग़ज़ल का जो स्वरुप है , ग़ज़ल के जो प्रत्यय और प्रतिमान हैं, उनका हिंदी काब्य धरा में समावेश होना चाहिए क्योंकि ग़ज़ल अपनी सम्पूर्ण कलातामक्ता के साथ जिनbb विन्दुओं को प्रस्तुत करती है वो गीत से सम्बंधित है। गीत जो गिये धातु से बना हुआ है, उसके संपूर्ण आयाम से सम्बंधित है। ग़ज़ल लिखने और सोचने दोनों की कविता है.इसलिए का जो मूल रूप है , उसे हिंदी की काब्य धारा में निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए । इसके अंतर्गत मेरे,ग़ालिब और इकबाल की ग़ज़लें भी शामिल करनी चाहिए.
निदा फाज़ली : ग़ज़ल विधा हिंदी के लिए नयी नहीं है। कबीर से लेकर भारतेंदु हरीश चन्द्र तक इसका इतिहास है। जो ग़ज़लें अचछी हों बिना पछ्पात के शामिल की जानी चाहिए। मैं तो यह कह रहा हूँ की मीर की भी ग़ज़ल शामिल होना चाहिए.हिंदी-उर्दू का भेदभाव ही नहीं है.जब हिंदी में ग़ज़ल लिखी जा रही है तो विधा को विधा की कसौटी पर परखा जाएगा न की भाषा की कसौटी पर.हिंदी और उर्दू दो भाषाएं नहीं थीं , ये दो भाषाए बना दी गएँ और इसके पीछे राजनीति काम कर रही है.इस राजनीति से हटकर साहित्यकारों को इसे ज़िंदा रखना चाहिए। पंडित दयाल, नागार्जुन, बिसन कुमार मेरे लिए अजनबी कैसे हो सकते हैं.कबीर ने सिकंदर लोदी के समय ग़ज़ल लिखी थी, हमन है इश्क मस्ताना, हमन से होशियारी क्या.तो ये भेद भाव की बाते राजनीति में अच्छी लगती हैं, साहित्य में नहीं।
डॉक्टर राहत इन्दौरी: देखिये ग़ज़ल विधा तो उर्दू में भी फारसी से आई है.उर्दू हिंदुस्तान की भाषा है,इरान की भाषा नहीं नहीं है और उसमे ग़ज़ल को जोड़ दिया गया। बाद में ग़ज़लें हिंदी,गुजराती,मराठी,तमिल और कई अन्य दूसरी भाषाओं खासकर पंजाबी में लिखी जाने लगी। आपको यह जानकार हैरानी होगी की मध्य प्रदेश में कई इलाकाई भाषाएँ प्रचालन में हैं, उनमे एक बोली निमारी है.नामारी में भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, इसमें सिकंदर अली पटेल का नाम प्रमुख है। तो शाएरी किसी विधा की नहीं होती। उर्दू में दोहा लिखा जा रहा है तो पूरी दुनिया में दोहा नाम से ही लिखा जा रहा है , विधा तो वह हिंदी की है। मेरी नज़र में यह अच्छी बात है, अगर ऐसा होता है तो अपने देश की किसी विधा को ही बढ़ावा देंगे।

बेकल उत्साही : ग़ज़ल को हिंदी में ज़रूर शामिल करना चाहिए। हिंदी ही क्यों हर उस भाषा में शामिल करना चाहिए, जिसमे ग़ज़ल लिखी जा रही है.आज का दौर में जब ग़ज़लें विभिन्न भाषाएँ यथा अरबी,फ़ारसी,तमिल, तेलुगु आदि में लिखी जा रही है तो हिंदी के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं शामिल की जा सकती.यहाँ यह ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है की ग़ज़ल की जो असल रूह है वो कायम रहे, उससे खिलवाड़ नहीं होना चाहिए,क्योंकि ग़ज़ल के नाम पर बहुत कुछ अनाप-शनाप भी लिखा जा रहा है ।

वसीम बरेलवी : ग़ज़ल बुनियादी तौर पर फ़ारसी से हिन्दुस्तान आई और हिदुस्तान आने पर यहाँ की मिटटी का रचाव उसके अंदर शामिल हुआ , इस प्रक्रिया में समय तो ज़रूर लगा है क्योंकि ग़ज़ल पहले खानकाहों से शुरू हुई थी और खानकाहें जो थीं वो बुजुर्गों, फकीरों और सुफिओं की थीं.ये जगहें आम जनता के मरकज़ हुआ कार्टू थीं। इसलिए ग़ज़ल को प्रारम्भिक समर्थन फकीरों के कतरों से मिला। बाद में बादशाहों के दरबार में आने पर इसके लहजे में अरबी और फ़ारसी का असर हुआ.लेकिन ग़ज़ल की अपनी जो पहचान है , वो मेरे के ज़माने से हुई, वो हमारी ज़मीनी बोली थी, आम भाषा थी। उसका प्रयोग हुआ तो ज़ाहिर बात है हिदुस्तान के पुरे साहित्यिक कलेवर को समझाने के लिए ग़ज़ल को हिंदी पाठ्यक्रम शामिल किया जाता है तो यह एक अच्छा कदम होगा। हमारे यहाँ भक्तिकाल-रीतिकाल , ये तमाम परिवर्तन हिंदी के अंदर हुए हैं। ग़ज़ल ने अपने आपको अमीर खुशरू के समय से आजतक भिन्न-भिन्न परिवेश के हिसाब से हर ज़माने में अपने आपको बदलने की कोशिश की है। हिंदी और उर्दू, दोनों ही भाषाएँ अमीर खुशरू को अपना पहला कवी-शाएर स्वीकार करती हैं.ग़ज़ल में हिंदुस्तान के तमाम मौसमों की पहचान और खूबसूरती भरी हुई है। इन्सांज ज़ज्बात से लेकर काएनात के मसाईल तक, समाजी हालात से लेकर इंसानी हालात की जी नाक्श्याती गिरह है वहां तक मौजोद है। तो मैं समझता हूँ की हिंदी के पाठक इसे पढने का मौक़ा पाते हैं तो इसका एक अच्छा असर होगा, खासतौर पर साझा संस्कृति को समझाने का अच्छा मौका मिलेगा.
इब्राहीम अश्क: निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए । ग़ज़लों के माध्यम समाज साहित्य और संस्कृति के विभिन्न आयाम उजागर हुए हैं। साथ ही गज़लें साहिये की चरम सीमा को छू रही हैं.इसलिए य्स्दी ग़ज़ल विधा को हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो इससे पाठ्यक्रम को ही गौरव मिलेगा। इनमे उन गजलों को विशेष रूप से शामिल करना चाहिए, जिनमे साहित्यिक चिंतन हो.ऐसे चिंतन हमारे पूर्वजों यथा सूर,तुलसी,कबीर,रसखान, मीरा आदि के साहित्य में मिलता है। यद्यपि ग़ज़ल की विधा अलग है, किन्तु चिंतन के अस्तर पर एकरूपता हो सकती है।

एहतराम इस्लाम: ज़रूर शामिल करना चाहिए। क्या ग़ज़ल हिंदी की विधा नहीं है। इसे अब तक शामिल कर लेना चाहिय था, यद्यपि कुछ पाठ्यक्रम में शामली भी है.सीबीएसई के इंटर के कोर्स में दुष्यंत कुमार बहुत दिनों से शामिल हैं। हाँ हिंदी के कोर्स में पूरी तरह से शामिल करने के लिए उनलोगों को ज़रोर दबाव बनाना चाहिए जो उर्दू को हिंदी की शैली मानते हैं। मैं यह भी नहीं कहता की रखा ही जाना चाहिए। जब उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएँ हैं और दोनों को अलग-अलग मान्यता प्राप्त है तो यदि मीर और ग़ालिब को नहीं रखा गया तो यह कोई गलत बात नहीं है। चूकी शैली भिन्न हैबहुत सारे हिंदी के लोग जो इन्हें समझ नहीं पाते अतः उर्दू की जो ग़ज़लें हिंदी में चल पाएंगी, उन्हें ज़रोर शामिल करना चाहिए। यह कोइ सहस्य मूलक बात नहीं है। मेरे और ग़ालिब जैसे शाएर आते हैं तो बहुत अच्छी बात है, स्वागत की बात है। समस्या तो यह है की इस प्रक्रिया में उसमे हिंदी की ग़ज़ल शामिल है की नहीं । उसमे मई कहता हूँ की शामिल किया जाना चाहिए और पहले से भी शामिल है।

डॉक्टर मलिकज़ादा मंज़ूर: आजकल तो ग़ज़लों का खाज हिंदी कवियों में बहुत बढ़ गया है। कवी सम्मेलनों में हम गज़लें सुनते हैं और अच्च्चा लगता है। इस्सी तरह से मुशाएरों के अंदर गीतों का खाज बहुत बार गया है। तो ये दोनों के लेन-देने से हमारे अदब में भी और हिंदी अदब में भी नै चीजें आ रही हैं.अतः हिंदी के कोर्स में ग़ज़लें शामिल कर ली जाएँ तो यह बात अच्छी होगी, लेकिन ग़ज़ल कई तरह की होती है- आसान ग़ज़लें , जिनके अल्फाज़ आसान होते हैं। अगर इस प्रकार की ग़ज़लें हिंदी शामिल की जाती हैं तो मेरा ख़याल है की कोई हर्ज़ की बात नहीं है। और इस्सी प्रकार से उर्दू में गीतों को शामिल कर लिया जाए तो यह अच्छी बात होगी.इससे अदब आगे बढ़ेगा, साहित्य की वृद्धि होगी.
मेराज फैजाबादी: जब ग़ज़ल साहित्य की एक विधा है और साहित्य की कई विधाएं हिन्ही के पाठयक्रम में शामिल हैं तो ग़ज़ल को भी शामिल करना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यह है जब हिंदी कविता ने ग़ज़ल को एक विधा के रूप में स्वीकार कर लिया है तो फिर उसे कोर्स में क्यों न रखा जाए। मेरे ख़याल में तो अच्छा ही रहेगा की गज़लें पाठ्क्रम में शामिल हो जाएँ ताकि पढ़ने वाले को यह मालुम हो की हिंदी साहित्य ने इसे विधा के रूप में स्वीकार कर लिया है। ज़ाहिर सी बात है पाठ्यक्रम में शामिल होगी तो उसकी इज्ज़त बढ़ेगी, लेकिन जो पढ़ने वाले हैं उनका कैनवास और ज्यादा बढ़ा होगा। इसके अंतर्गत सभी प्रकार की ग़ज़लें शामिल की जानी चाहिए। कुछ लोग अपनी अलग पहचान बनाने के लिए इसे हिंदी और उर्दू ग़ज़ल के रूप में बाटते हैं। इसपर हिंदी और उर्दू का ठप्पा लगाना ग़ज़ल को महदूद करना है। अब अगर उर्दू ग़ज़ल का कोई पाठ्क्रम बने और उसमे नीरज की ग़ज़लें न आयें तो वह पाठ्यक्रम अधूरा ही होगा। अतः हिंदी के पाठ्यक्रम में निश्चित रूप से ग़ज़ल को शामिल करना चाहिए।

बुद्धिसैन शर्मा: मैं इस बात पर सौ फिसगी सहमत हुई की ग़ज़ल के हिंदी कोर्स में हर अस्तर पर शामिल किया जाना चाहिए। ग़ज़ल हमारे यहाँ उर्दू से आई है, किन्तु उर्दू से यह तमाम भारतीय भाषाओं में फ़ैल गयी। ग़ज़ल में दम है इसलिए फ़ैल गए है.यह है समय की ज़रूरत होती है की जो हल्का होता है , समय उसको उड़ा देता है, और जो दमदार होता है , समय उसको अपने साथ ले लेता है। ग़ज़ल में दम था इसलिए समय ने अपने साथ ले लिया.सीधी सी बात है समय के साथ रहना है तो ग़ज़ल को शामिल करना पडेगा क्योंकि आज के दौर के जितने तकाज़े है, ज़रूरतें हैं और जितना जो कुछ भी साहित्य में कहने के लिए है, वो सब कुछ ग़ज़ल अपने में समेटने में सच्कम है। ग़ज़ल को हिंदी में शामिल करना हिंदी का सौभाग्य होगा.जब हिंदी में सोनेट, छादिकाएं और कहीं न कहीं हाईकू शामिल कर लिए गए तो गजल क्यों नहीं। यदि ग़ज़ल को आप हिंदी में शामिल नहीं करेंगे तो अप्प साहित्य के साथ भी बेईमानी करेंगे और समय के साथ भी।

असलम इलाहाबादी: मेरे विचार में निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए.हिंदी साहित्य में ग़ज़ल शामिल कर देने से हिंदी साहित्य और संपन्न हो जायेगी.ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमे आपके सारे खयालात बड़ी आसानी दो लाइनों में आ जाते हैं। विसंगतियों के इस दौर में किसी के पास इतना समय नहीं है की किसी बिंदु पर वह एक या दो पेज पढ़े। शेर गागर में सागर की तरह होते हैं। वे ज्यादा प्रभावी होते हैं। आने वाला समय हिंदी उर्दू का नहीं बल्कि हमारी ज़रोरतों के मुताबिक़ होगा। जिसमे हमे आसानी होगी , हमारी नई नस्ल उन्ही बातों को अपनाएगी.जो हम रोज़मर्रा में बोल रहें हैं आगे चलकर वही हमारी ज़बान होगी.जब कोई चीज़ पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है तो उसके प्रत्येक पहलु को देखा जाता है। हमें यह ध्यान रखना होगा की पाठ्यक्रम बच्चों के पढ़ाने के लिए है तो इसमें कोई ऐसी बात न हो जैसे की कुछ ग़ज़लें तफरीह क्र लिए कही जाती हैं और कुछ जिंदगी के करीब होकर कही जाती हैं। इसमें आम इंसान की हकीक़त होतो है। तो ग़ज़ल तो गजल है। साहित्य को किसी कौम से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए.अतः ग़ज़ल को हिंदी पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल करना चाहिए।

मैत्रेयी पुष्पा: निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए। भले ही लोग कुछ कहें इधर जो अतुकांत कविता चली है, उसने आमजनता कविता से बहुत डोर कर दिया है। ग़ज़ल ही वह विधा है जिसने कविता को आमजन से जोड़ रखा है। एक कहानीकार-उपन्यासकार होने बावजूद में शुरू से ही ग़ज़लों की प्रशंसिका रही हूँ.ग़ज़ल के एक-एक शेर में इतनी बातें होती हैं । जिसके लिए हम कहानी और उपन्यास के पेज भर देते हैं। ग़ज़ल की खूबी यह भी है की जो इसे पढ़ता और सुनता है, वो इससे एकदम बंध जाता है और इसे याद भी कर लेते है, तथा समयानुसार जगह-जगह कोट भी करता है। गज़लें समय और समाज का मुक़म्मल रूप हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ग़ज़ल वर्त्तमान की ज़रोरत है, उसे नकारा नहीं जा सकता, तो इसलिए ग़ज़ल को हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल करना ज़रोरी है.यह साहित्य के प्रति रूचि तो पैदा करती ही है, इसके माध्यम से अधिक सोचने और समझने को भी मिलता है।

डॉक्टर शैलेन्द्र नाथ मिश्र : ज़रूर शामिल करना चाहिए, हिंदी गज़लें तो बहुत पहले से लिखी जा रही हैं। दुष्यंत जी ने इन्हें लोकप्रिय बनाने का काम किया। ग़ज़ल को कुछ निश्चित प्रतीकों और बिम्बों से धक् दिया गया था, वह बिलकुल एकांगी हो गए थी.किन्तु दुष्यंत जी ने उसे आम जनता और साहित्य के मूल सरोकारों से जोड़ने का काम किया। उसके बाद कई लोग यथा - गोंडवी जी , राम कुमार कृषक, बेचैन जी, विराट जी आदि हिंदी ग़ज़ल लेखन के छेत्र में आये। इस समय हिंदी ग़ज़ल पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल होना चाहिए क्योंकि साहित्य से जो अपेक्चायें हैं, वे ग़ज़ल के माघ्यम से पूरी हो रही हैं.ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसने बिना किसी आलोचक और बिना किसी अध्यापक के बहुत अच्छी लोकप्रियता हासिल की है। मेरे विचार में वर्त्तमान में कविता के क्षेत्र में कोई विधा सबसे आगे जा रही है , तो वह ग़ज़ल है। वर्त्तमान में हिंदी के रचनाकार हिंदी उत्कृष्ट गज़लें दे रहे हैं और व्यापक पैमाने पर हिंदी में गज़लें लिखी जा रही हैं।

डॉक्टर सुरेन्द्र विक्रम : ग़ज़ल की परंपरा बड़ी पुरानी है, मुख्य रूप से यह अरबी-फारसी से आये है, किन्तु पहली बार ग़ज़ल को हिंदी में दुष्यंत कुमार ने एक नया आयाम दिया। उन्होंने अपनी गजलों हे माध्यम से न केवल नए शिल्प संवारा बल्कि उसे आज के समाज से जोड़कर भी प्रस्तुत किया। दूसरी बात यह है की पहली बार हिंदी गजलों में दुष्यंत जी ने आम जीवन की समस्याओं को उठाया- कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। आज तो ग़ज़ल निश्चित रूप से एक विधा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है और इसे निश्चित रूप से हिंदी में अस्थान दाना चाहिए। देखेये बात यह है की जो हमारी परम्परा है उसे नकार नहीं सकते, लेकिन आज की समस्या को, आज के जीवन को जोड़कर जो गज़लें लाही जा रही हैं वो पहले से बहतर इस्थिति में हैं।

डॉक्टर प्रकाश चन्द्र गिरी: जौर शामिल करना चाहिए। वर्त्तमान गजलों पर तमाम शोध कार्य हो रहे हैं और सबसे उधार्रियता भी गजलों में है। आपने महसूस किया होगा की कोई भी वक्ता मंच पर चाहे राजनीत हो या सामाजिक हो, खरा होता है तो ग़ज़ल के अशार के कुछ उदाहरण ज़रूर देता है, तो यह तो कविता की एक तरह से मकबूलियत है। आखिरकार आप कविता को किस पैमाने पे नापेंगे। वर्त्तमान परिवेश में ग़ज़ल समाज को दिशा प्रदान कर रही है और इसके माध्यम से से लोग बहुत सोचने को विवश भी होते हैं। ग़ज़ल कविता की एक विधा है। उर्दू ग़ज़ल के भीतर को लेकर उसके सहारे कोई नै चीज़ शुरू की गई है तो इसमें बुरा क्या है? दुष्यंत के बाद कम से कम सौ रचनाकार ऐसे आये जिनके कम से कम दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जब इतनी अधिक संख्या में गज़लें आ रही हैं तो इन्हें पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल किया जाना चाहिए।

वाहिद अली वाहिद : ज़रूर शामिल करना चाहिए, यह तो अब बहुत लोकप्रिय विधा हो गयी है। हिंदी में बहुत गजें लिखी जा रही है उनके अस्तर में कोई कमी नहीं है। अतः इसको हिंदी के प्ठ्क्रम में स्वीकार किया जाना चाहिए। जहाँ तक मीर,ग़ालिब,मोमिन या दाग जैसे शायेरों की बात है तो वे उर्दू के पाठ्क्रम में चल रहे हैं। हमें हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में हिंदी गजलों को ही अस्थान देना चाहिए, आजकल तो हिंदी लिपि में और हिंदी अस्तर की गज़लें लिखी जा रही हैं। हिंदी शब्दावली में लिखी जा रही हैं और मिलाजुला इसका जो स्वरुप है वह नै विधा है, नया युग है,आप सभी कार्य हिंदी में हो रहे हैं। तो यह विधा भी हिंदी पाठ्यक्रम में आनी चाहिए। उन हिंदी में हमे हिंदी की शुद्धता रखनी होगी, जिन्हें हम हिंदी के पाठ्क्रम में शामिल करना चाहते हैं।

डॉक्टर शिव नारायण शुक्ल : कुछ गज़लें ऐसी हैं, जो आज की तमाम समस्याओं को तरासती है, तो ग़ज़ल को पाठ्यक्रम में क्यों नहीं शामिल करना चाहिए। गज़लें पढाई भी जा चुकी हैं और कुछ विश्वविद्यालयों में शामिल भी हैं। इसलिए अब ग़ज़ल हो हर अस्तर पर हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए.

रविवार, 2 जनवरी 2011