गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

धीरज की रचनाओं पर गंभीरता से काम करना चाहिए

गुफ़्तगू की ओर से ‘धीरज जन्मोत्सव-2021’ का आयोजन



प्रयागराज। जमादार धीरज हमारे समय के ऐसे कवि रहे हैं, जिनकी रचनाएं बेहद गंभीर, प्रासंगिक और समय से वार्तालाप करते हुए हैं, इन रचनाओं का गंभीरता से अध्ययन करते हुए काम किया जाना चाहिए। समय के अनुसार पर इनकी कविताओं पर विश्वविद्यालयों के माध्यम से शोध कराया जाना चाहिए। यह बात इलाहाबाद दूरदर्शन केंद्र्र के पूर्व निदेशक वरिष्ठ साहित्यकार श्याम विद्यार्थी ने 20 अक्तूबर को राजरूपपुर स्थित डॉ. अंबेडकर मार्ग पर गुफ़्तगू की ओर से आयोजित ‘जमादार धीरज जन्मोत्सव-2021’ में कही। 
‘धीरज सम्मान-2021’ प्राप्त करते मासूम रज़ा राशदी


 कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री विद्यार्थी ने कहा कि धीरज जी ने अपने बच्चों में ऐसा संस्कार दिया है कि उनके निधन के बाद भी उनकी रचनाओं को कालजयी बनाने, स्थापित कराने और उन्हें उनके जन्मदिन पर याद करने का वीणा है उठाया है, यह एक ऐसा आदर्श जिसे स्थापित करना बेहद ज़रूरी है।
‘धीरज सम्मान-2021’ प्राप्त करते विजय लक्ष्मी विभा 


गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि जमादार धीरज की रचनाएं बेहद खास और हमारे के समय लिए प्रासंगिक है, इनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में शामिल कराने का प्रयास करना चाहिए, इसके लिए हमलोग अपने स्तर प्रयास करेंगे।
‘धीरज सम्मान-2021’ प्राप्त करते गोपीकृष्ण श्रीवास्तव


 मुख्य अतिथि पूर्व अपर महाधिवक्ता क़मरुल हसन सिद्दीक़ी ने कहा कि आज के दौर में जिस तरह से जमादार धीरज को याद किया जा रहा है, यह बहुत बड़ी बात है। वर्ना इसी इलाहाबाद से बड़े-बड़े शायरों का निधन हो गया, आज उनके परिवार के लोग भी उन्हें याद तक नहीं करते। इसलिए इस आयोजन के लिए टीम गुफ़्तगू के साथ जमादार धीरज परिवार बहुत ही बधाई का पात्र है। रांची की कवयित्री अंकिता सिन्हा ने कहा निराला, फ़िराक़, महादेवी, पंत और अकबर इलाहाबादी की सरजमीन पर आकर आज बेहद फख्र महसूस कर रही हूं। जिस तरह से जमादार धीरज को याद किया जा रहा है, वह इलाहाबाद जैसे साहित्यिक नगरी में ही हो सकता है। लाल सरन, गोपाल सिंह, तलब जौनपुरी, मधुबाला गौतम, अशोक कुमार, शीला सरन, अंजनी कुमार आदि ने भी विचार व्यक्त किए। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

‘धीरज सम्मान-2021’ प्राप्त करते प्रभाशंकर शर्मा


 दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। अनिल मानव, फ़रमूद इलाहाबादी, शिवाजी यादव, श्रीराम तिवारी सहज, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, अना इलाहाबादी, अजीत शर्मा आकाश, केशव सक्सेना, अर्चना जायसवाल, मीठी मोहन, प्रीता बाजपेयी, अन्वेशा सिंह और शाहिद इलाहाबादी ने कलाम पेश किया। 

इन्हें मिला धीरज सम्मान

नज़र कानपुरी का सम्मान प्राप्त करते शिवाजी यादव


नज़र कानपुरी (लखनऊ), मासूम रज़ा राशदी (ग़ाजीपुर), गोपीकृष्ण श्रीवास्तव (प्रयागराज), विजय लक्ष्मी विभा (प्रयागराज) और प्रभाशंकर शर्मा (प्रयागराज) 

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम पर’

                          

                                                                                       - डॉ. हसीन जीलानी


                                         

 ‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम पर’ दिनेश बोहरा की मराठी ज़बान में लिखी गई किताब है, जिसका उर्दू में तर्जुमा मोहतरमा सैयद नौशाद बेगम ने किया है। मोहतरमा ने इससे क़ब्ल भी मुन्फरिद मौज़ूआत पर लिखी गई किताबों के उर्दू ज़बान में तर्जुमे किए हैं। खुदा ने इंसान को सबसे अशरफ़ मख़्लूक बनाकर दुनिया में भेजा है। इंसान अपनी ज़ेहानत से बड़े-बड़े मारके सर करता रहा है। लेकिन दुनिया में बहुत से ऐसे भी इंसान हैं जिनका कोई नसबुल-ऐन नहीं, बस ज़िन्दगी जिये जा रहे हैं। मीर तक़ी मीर का बहुत मशहूर शेर है-

            बारे दुनिया रहो ग़मज़दा या शाद रहो,

            ऐसा कुछ करके चलो यां कि बहुत याद रहो।

 बहुत याद रहने की चाह अगर हर इंसान के दिल में पैदा हो जाए तो हज़रत-ए-इंसान दुनिया में बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है। बहुत से इंसान दुनिया में बड़े-बड़े कारनामे अंजाम देने के ख़्वाब तो देखते हैं लेकिन इन ख़्वाबों को शर्मिन्द-ए-ताबीर करने के लिए जिस कूव्वत-ए-इरादी, हिम्मत, सब्र-ओ-इस्तेक़लाल और जां-फिशानी की ज़रूरत होती है वो उससे कोसो दूर होते हैं, और अक्सर अपनी नाकामी का ठीकरा अपनी तक़दीर के सिर फोड़ देते हैं। शायर ने क्या उम्दा बात कही है-‘तद्बीर के दस्त-ए-जर्री से तक़दीर दरख्शां होती हैै/कुदरत भी मदद फ़रमाती है, जब कोशिश-ए-यकसां होती है।’ ‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम दूर पर’ अपने मौजूआत और मवाद के लिहाज से एक मुन्फरिद किताब है। इस किताब का मुतालिआ बग़ौर बार-बार किया जाना चाहिए। कामयाबी की राह में पेश आने वाली दुश्वारियों का सामना करने में ये किताब सहायक साबित होगी। इस किताब को पढ़ने के बाद इसकी मदद से इंसान एक बा-मक़सद और बा-मानी ज़िन्दगी गुजार सकता है। बक़ौल दिनेश बोहरा-‘दोस्तों ! ये किताब उन अफ़राद के लिए जो अपने नसबुल-ऐन का तअय्युन करके अपनी ज़िन्दगी को ख़ास बनाने और रौशन मुस्तक़बिल की तरफ कदम बढ़ाने का इरादा रखते हों और जिन्होंने अपने क़ौल से आगे बढ़कर अमली दुनिया में पेश रफ्त की है, उन्हें राह दिखाने की एक दयानत दाराना काविश है।’  200 सफ्हात पर मुश्तमिल इस किताब का कवर दिलकश और दीदा जेब है, जिसकी कीमत सिर्फ़ 150 रुपये है। 


‘बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क़लमकार’   


                               

 अहसन इमाम अहसन उर्दू ज़बान-ओ-अदब का एक जाना पहचाना नाम है, जो उर्दू की बेलौस खि़दमात अंजाम दे रहे हैं। वे मुलाज़मत के सिलसिले में भुवनेश्वर, उड़ीसा में कयाम पेज़ीर है जहां उर्दू ज़बान व अदब की तरवीज व तरक़्क़ी में रियासती हुकूमत की दिलचस्पी बिल्कुल नज़र नहीं आती। इसके बाजवूद अहसन इमाम मुसलसल न सिर्फ़ अदब का मुतालिआ कर रहे हैं, बल्कि उम्दा मज़ामीन भी तहरीर कर रहे हैं। आज जबकि हर इंसान नफ़ा व नुकसान को जे़हन में रखकर अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है, ऐसे में अहसन इमाम उर्दू के गुमनाम अदीबों व शायरों पर मजामीन लिख रहे हैं, वे गोशा-नशीन होकर अदब तख़्लीक कर रहे हैं। मुल्क के मुख़्तलिफ़ सूबों से वाबस्ता अदीबों व शायरों पर इन्होंने अपनी कीमती आरा पेश की हैं। जे़रे तब्सेरा किताब ‘बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क़लमकार’ इनकी पांचवीं किताब है। इससे क़ब्ल इन्होंने महाराष्ट्र और झारखंड के क़लमकारों पर मज़ामीन लिखे हैं, जो किताबी शक्ल में शाया हो चुके हैं।

 अदबी तन्क़ीद रोज़ ब रोज़ कारोबार की शक्ल अख़्तियार करती जा रही है। अपने मोहसिनों और अपने चाहने वालों पर उर्दू के नाम-निहाद नक़्क़ादों ने ऐसे मज़ामीन तहरीर किए जो मुबालग़े से पुर हैं। बजाए खूबियों और ख़ामियों का जिक्र करने के उन्होंने तख़्लीककार के मन्सब और ओहदे को ज़ेहन में रखकर बाज़ ऐसी बातें लिख दी जो हक़ीक़त में उनमें थी ही नहीं। इसीलिए अब हर फनकार अपनी तख़्लीक के साथ-साथ अपनी तन्क़ीद का बोझ भी अपने सिर उठाने के लिए मज़बूर है। ये बात अहसन इमाम खूब अच्छी तरह से समझते हैं। इनकी इस किताब में बिहार के दस, बंगाल के आठ और उड़ीसा के 13 क़लमकारों पर मज़ामीन तहरीर किए गए हैं। इनमें शायर भी हैं और अफसाना निगार भी। साफ़ सुथरी ज़बान में लिखे गए ये मज़ामीन दिलचस्प और मालूमाती हैं। उम्मीद है अदबी हल्के में इस किताब की ख़ातिर-ख़्वाह पज़ीराई होगी। 192 सफ़्हात पर मुश्तमिल इस किताब की कीमत सिर्फ़ 200 रुपये है, जिसे एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली ने शाया किया है। किताब के कवर पर मुसन्निफ़ व नाशिर अहसन इमाम असहन की तस्वीर उनके बेटे अतहर इमाम ने बहुत उम्दा स्केच की है।


 ‘सैयद मोहम्मद अली शाह मयकश अकबराबादी’                                  


 

आगरा यानी अकबराबाद एक तारीख़ी शहर है। जो किसी ज़माने में अहल-ए-इल्म व अदब और आलिमों का मरकज़ हुआ करता था। नज़ीर अकबराबादी, सीमाब अकबराबादी, सबा अकबराबादी और दीगर अदबी शख़्सियतें इस शहर से वाबस्ता रही हैं। ज़ेरे तब्सेरा किताब दबिस्तान-ए-आगरा के मुमताज शायर व अदीब सैयद मोहम्मद अली शाह मयकश अकबराबादी के मुरत्तेबीन डॉ. नसरीन बेगम अलीग और सैयद फ़ैज़ अली शाह नियाज़ी ने इस किताब को शाया कर उर्दू अदब की गिरां क़द्र खि़दमत अंजाम दी है। किताब में खुद मयकश अकबराबादी के तीन अहम मज़ामीन और उर्दू के कई नामी गिरामी अदीबों व तन्कीदनिगारों मसलन आफ़ाक़ अहमद इरफानी, प्रो. मुग़ीसउद्दीन फ़रीदी, प्रो. ज़हीर अहमद सिद्दीक़ी, प्रो. उन्वान चिश्ती, प्रो. शमीम हन्फ़ी, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, डॉ. सिराज अजमली वगैरह के मेयारी मज़ामीन यकजा कर दिए गए हैं। मयकश अकबराबादी का नाम तसव्वुफ के हवाले से एक मोतबर नाम है। वह एक अच्छे शायर ही नहीं अच्छे इंसान भी थे। उनकी शख़्सियत तसव्वुफ के रंग में रंगी हुई थी। वह एक इंसान दोस्त और रौशन ख़्याल शख़्स थे। शायरी और तसव्वुफ़ मयकश अकबराबादी को विरसे में मिले। और इन दोनों से फितरी मुनासबत के सबब इन्होंने बहुत कम उम्री में ही बग़ैर किसी उस्ताद की रहनुमाई के शेरगोई का आग़ाज़ कर दिया और तसव्वुफ़ के असरार रोमूज़ से वाक़फियत हासिल कर ली।

 प्रो. शमीम हन्फ़ी ने मयकश अकबराबादी के तअल्लुक से उम्दा बात कही है-‘मयकश साहब ने बुजुर्गों की मीरास को आज तक जिस जिस तरह से बचाए रखा, ये हिकायत भी कम अजीब नहीं। ये मीरास इल्मी और अदबी नवादिर से क़ता नज़र उन कद्रों, रिवायतों और जीने के उन करीनों से इबारत है जो सीना-ब-सीना मयकश साहब को मुन्तक़िल हुई।’ किताब का कवर पेज सादा लेकिन दिलकश है। जो ऐन मयकश अकबराबादी के रंग के मुताबिक है। 286 सफ्हात के इस किताब की कीमत महज 300 रुपये है। इसकी इशाअत लेथू आफ़सेट प्रिन्टर्स, अलीगढ़ से हुई है।

( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2021 अंक में प्रकाशित )


शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

बेहद जिन्दादिल थे कमेंटेटर इफ़्तेख़ार पापू


                                                  -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

इफ़्तेख़ार अहमद पापू 


 इंटरनेशनल क्रिकेट मैचों की रेडियो पर आंखों देखा हाल यानी कमेंट्री की बात होती है तो प्रयागराज के इफ़्तेख़ार अहमद पापू का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अगर प्रयागराज से इंटरनेशनल मैचों की कमेंट्री करने वालों की बात की जाती है तो एक अकेला नाम पापू का ही सामने आता है। हालांकि पिछले 03 मई को उनका इंतिक़ाल हो गया, मगर उनके द्वारा किए गए काम को किसी भी कीमत पर भुलाया नहीं जा सकता। 19 मार्च को हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने अपने कार्य के बारे में विस्तार से हमें बताया था, उनकी जिन्दादिली और आने वाले लोगों के स्वागत करने अंदाज़ पर फिदा हुए बिना नहीं रहा जा सकता था।

 पापू का जन्म 04 मई 1958 को इलाहाबाद में ही हुआ था। वालिद मरहूम फैयाज़ अहमद खुद का कारोबार करते थे, मां मरहूमा मोबीना बेग़म कामयाब गृहणि थीं। नौ भाई और चार बहन में आप पांचवें नंबर पर थे। शुरूआती पढ़ाई नगर के अटाला स्थित मजीदिया इस्लामिया  कॉलेज से किया था, इसके बाद स्नातक की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। स्नातकोत्तर में दाखिला लिया था, लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए। 1986 में रेलवे में क्लर्क ग्रेड-1 में नौकरी लग गई। बचपन से ही क्रिकेट खेलने का शौक़ रहा, गली-मुहल्लों में खूब खेलते थे। इसी दौरान कमेंट्री करने का शौक़ हुआ, 1970 के दशक में कमेंट्री करने के लिए मनीष देव का नाम काफी लोकप्रिय था, पापू इन्हीं की नकल करने की कोशिश करते थे। स्थानीय स्तर पर होने वाले क्रिकेट मुकाबलों की कमेंट्री करने लगे।


इफ़्तेख़ार अहमद पापू से बात करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी (फाइल फोटो)


 एक बार मजीदिया इस्लामिया इंटर कॉलेज के हो रहे क्रिकेट मुकाबले की कमेंट्री कर रहे थे, वहां आकाशवाणी इलाहाबाद की टीम भी आई थी, टीम के लोगों को पापू की आवाज़ और कमेंट्री करने का अंदाज़ बहुत पसंद आया। फिर मदन मोहन मालवीय स्टेडियम में हो रहे मैच की कमेंट्री करने के लिए ट्रायल के तौर इन्हें आमंत्रित किया गया, इनकी कमेंट्री को रिकार्ड करके आकाशवाणी की टीम ले गई। फिर इन्हें आकाशवाणी इलाहाबाद की टीम ने अपने पैनल में शामिल कर लिया। 1978 में पहली आकाशवाणी के लिए कमेंट्री किया, तब इन्हें पहली बार पारिश्रमिक के तौर पर 75 रुपये का चेक मिला था। यहीं से सिलसिला शुरू हो गया। फिर इन्हें दिल्ली बुलाया गया, यहां जोनल क्रिकेट मैच की कमेंट्री कराई गई। 1983 में पहली बार भारत-ए और वेस्टइंडीज के मुकाबले की कमेंट्री का अवसर मिला। 1984 में श्रीलंका और भारत-ए के मुकाबले की कमेंट्री किया।  1987 में अहमदाबाद में भारत और वेस्टइंडीज के बीच इंटरनेशनल एक दिवसीय मैच हुआ तो इन्हें कमेंट्री करने का अवसर मिला, यह इनका पहला इंटरनेशनल मैच में कमेंट्री करने का अवसर था। 1987, 1996, 2007, 2011, 2015 और 2019 के वर्ल्ड कप क्रिकेट मुकाबलों में भी आपने कमेंट्री किया था। 1987 में बीबीसी के लिए भी कमेंट्री किया। टेस्ट मैच और वन-डे को मिलाकर लगभग 150 मुकाबलों की कमेंट्री कर चुके थे, कमेंट्री के लिए आपने पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश का भी दौरा किया था। आखिरी बार 13 से 17 फरवरी तक चेन्नई में भारत और इंग्लैंड के बीच हुए टेस्ट मैच की कमेंट्री पापू ने किया था।

 प्रयागराज के मिन्हाजपुर में इनका निवास स्थान है। इनकी एक बेटी और बेटा है, बेटी की शादी हो गयी है। पापू का कहना था कि टीवी प्रसारण के मुकाबले रेडियो पर कमेंट्री सुनते समय लोग टीवी पर देखने के मुकाबले ज्यादा सजग रहते हैं। टीवी पर मैच देख रहे लोगों से स्कोर वगैरह पूछ लिया जाए तो बता नहीं पाएंगे, याद नहीं होगा। लेकिन रेडियो पर कमेंट्री सुनने वाले से पूछ लीजिए तो उसको सब याद रहता है।

   (गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2021 अंक में प्रकाशित )