बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम पर’

                          

                                                                                       - डॉ. हसीन जीलानी


                                         

 ‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम पर’ दिनेश बोहरा की मराठी ज़बान में लिखी गई किताब है, जिसका उर्दू में तर्जुमा मोहतरमा सैयद नौशाद बेगम ने किया है। मोहतरमा ने इससे क़ब्ल भी मुन्फरिद मौज़ूआत पर लिखी गई किताबों के उर्दू ज़बान में तर्जुमे किए हैं। खुदा ने इंसान को सबसे अशरफ़ मख़्लूक बनाकर दुनिया में भेजा है। इंसान अपनी ज़ेहानत से बड़े-बड़े मारके सर करता रहा है। लेकिन दुनिया में बहुत से ऐसे भी इंसान हैं जिनका कोई नसबुल-ऐन नहीं, बस ज़िन्दगी जिये जा रहे हैं। मीर तक़ी मीर का बहुत मशहूर शेर है-

            बारे दुनिया रहो ग़मज़दा या शाद रहो,

            ऐसा कुछ करके चलो यां कि बहुत याद रहो।

 बहुत याद रहने की चाह अगर हर इंसान के दिल में पैदा हो जाए तो हज़रत-ए-इंसान दुनिया में बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है। बहुत से इंसान दुनिया में बड़े-बड़े कारनामे अंजाम देने के ख़्वाब तो देखते हैं लेकिन इन ख़्वाबों को शर्मिन्द-ए-ताबीर करने के लिए जिस कूव्वत-ए-इरादी, हिम्मत, सब्र-ओ-इस्तेक़लाल और जां-फिशानी की ज़रूरत होती है वो उससे कोसो दूर होते हैं, और अक्सर अपनी नाकामी का ठीकरा अपनी तक़दीर के सिर फोड़ देते हैं। शायर ने क्या उम्दा बात कही है-‘तद्बीर के दस्त-ए-जर्री से तक़दीर दरख्शां होती हैै/कुदरत भी मदद फ़रमाती है, जब कोशिश-ए-यकसां होती है।’ ‘कामयाबी सिर्फ़ छह कदम दूर पर’ अपने मौजूआत और मवाद के लिहाज से एक मुन्फरिद किताब है। इस किताब का मुतालिआ बग़ौर बार-बार किया जाना चाहिए। कामयाबी की राह में पेश आने वाली दुश्वारियों का सामना करने में ये किताब सहायक साबित होगी। इस किताब को पढ़ने के बाद इसकी मदद से इंसान एक बा-मक़सद और बा-मानी ज़िन्दगी गुजार सकता है। बक़ौल दिनेश बोहरा-‘दोस्तों ! ये किताब उन अफ़राद के लिए जो अपने नसबुल-ऐन का तअय्युन करके अपनी ज़िन्दगी को ख़ास बनाने और रौशन मुस्तक़बिल की तरफ कदम बढ़ाने का इरादा रखते हों और जिन्होंने अपने क़ौल से आगे बढ़कर अमली दुनिया में पेश रफ्त की है, उन्हें राह दिखाने की एक दयानत दाराना काविश है।’  200 सफ्हात पर मुश्तमिल इस किताब का कवर दिलकश और दीदा जेब है, जिसकी कीमत सिर्फ़ 150 रुपये है। 


‘बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क़लमकार’   


                               

 अहसन इमाम अहसन उर्दू ज़बान-ओ-अदब का एक जाना पहचाना नाम है, जो उर्दू की बेलौस खि़दमात अंजाम दे रहे हैं। वे मुलाज़मत के सिलसिले में भुवनेश्वर, उड़ीसा में कयाम पेज़ीर है जहां उर्दू ज़बान व अदब की तरवीज व तरक़्क़ी में रियासती हुकूमत की दिलचस्पी बिल्कुल नज़र नहीं आती। इसके बाजवूद अहसन इमाम मुसलसल न सिर्फ़ अदब का मुतालिआ कर रहे हैं, बल्कि उम्दा मज़ामीन भी तहरीर कर रहे हैं। आज जबकि हर इंसान नफ़ा व नुकसान को जे़हन में रखकर अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है, ऐसे में अहसन इमाम उर्दू के गुमनाम अदीबों व शायरों पर मजामीन लिख रहे हैं, वे गोशा-नशीन होकर अदब तख़्लीक कर रहे हैं। मुल्क के मुख़्तलिफ़ सूबों से वाबस्ता अदीबों व शायरों पर इन्होंने अपनी कीमती आरा पेश की हैं। जे़रे तब्सेरा किताब ‘बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क़लमकार’ इनकी पांचवीं किताब है। इससे क़ब्ल इन्होंने महाराष्ट्र और झारखंड के क़लमकारों पर मज़ामीन लिखे हैं, जो किताबी शक्ल में शाया हो चुके हैं।

 अदबी तन्क़ीद रोज़ ब रोज़ कारोबार की शक्ल अख़्तियार करती जा रही है। अपने मोहसिनों और अपने चाहने वालों पर उर्दू के नाम-निहाद नक़्क़ादों ने ऐसे मज़ामीन तहरीर किए जो मुबालग़े से पुर हैं। बजाए खूबियों और ख़ामियों का जिक्र करने के उन्होंने तख़्लीककार के मन्सब और ओहदे को ज़ेहन में रखकर बाज़ ऐसी बातें लिख दी जो हक़ीक़त में उनमें थी ही नहीं। इसीलिए अब हर फनकार अपनी तख़्लीक के साथ-साथ अपनी तन्क़ीद का बोझ भी अपने सिर उठाने के लिए मज़बूर है। ये बात अहसन इमाम खूब अच्छी तरह से समझते हैं। इनकी इस किताब में बिहार के दस, बंगाल के आठ और उड़ीसा के 13 क़लमकारों पर मज़ामीन तहरीर किए गए हैं। इनमें शायर भी हैं और अफसाना निगार भी। साफ़ सुथरी ज़बान में लिखे गए ये मज़ामीन दिलचस्प और मालूमाती हैं। उम्मीद है अदबी हल्के में इस किताब की ख़ातिर-ख़्वाह पज़ीराई होगी। 192 सफ़्हात पर मुश्तमिल इस किताब की कीमत सिर्फ़ 200 रुपये है, जिसे एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली ने शाया किया है। किताब के कवर पर मुसन्निफ़ व नाशिर अहसन इमाम असहन की तस्वीर उनके बेटे अतहर इमाम ने बहुत उम्दा स्केच की है।


 ‘सैयद मोहम्मद अली शाह मयकश अकबराबादी’                                  


 

आगरा यानी अकबराबाद एक तारीख़ी शहर है। जो किसी ज़माने में अहल-ए-इल्म व अदब और आलिमों का मरकज़ हुआ करता था। नज़ीर अकबराबादी, सीमाब अकबराबादी, सबा अकबराबादी और दीगर अदबी शख़्सियतें इस शहर से वाबस्ता रही हैं। ज़ेरे तब्सेरा किताब दबिस्तान-ए-आगरा के मुमताज शायर व अदीब सैयद मोहम्मद अली शाह मयकश अकबराबादी के मुरत्तेबीन डॉ. नसरीन बेगम अलीग और सैयद फ़ैज़ अली शाह नियाज़ी ने इस किताब को शाया कर उर्दू अदब की गिरां क़द्र खि़दमत अंजाम दी है। किताब में खुद मयकश अकबराबादी के तीन अहम मज़ामीन और उर्दू के कई नामी गिरामी अदीबों व तन्कीदनिगारों मसलन आफ़ाक़ अहमद इरफानी, प्रो. मुग़ीसउद्दीन फ़रीदी, प्रो. ज़हीर अहमद सिद्दीक़ी, प्रो. उन्वान चिश्ती, प्रो. शमीम हन्फ़ी, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, डॉ. सिराज अजमली वगैरह के मेयारी मज़ामीन यकजा कर दिए गए हैं। मयकश अकबराबादी का नाम तसव्वुफ के हवाले से एक मोतबर नाम है। वह एक अच्छे शायर ही नहीं अच्छे इंसान भी थे। उनकी शख़्सियत तसव्वुफ के रंग में रंगी हुई थी। वह एक इंसान दोस्त और रौशन ख़्याल शख़्स थे। शायरी और तसव्वुफ़ मयकश अकबराबादी को विरसे में मिले। और इन दोनों से फितरी मुनासबत के सबब इन्होंने बहुत कम उम्री में ही बग़ैर किसी उस्ताद की रहनुमाई के शेरगोई का आग़ाज़ कर दिया और तसव्वुफ़ के असरार रोमूज़ से वाक़फियत हासिल कर ली।

 प्रो. शमीम हन्फ़ी ने मयकश अकबराबादी के तअल्लुक से उम्दा बात कही है-‘मयकश साहब ने बुजुर्गों की मीरास को आज तक जिस जिस तरह से बचाए रखा, ये हिकायत भी कम अजीब नहीं। ये मीरास इल्मी और अदबी नवादिर से क़ता नज़र उन कद्रों, रिवायतों और जीने के उन करीनों से इबारत है जो सीना-ब-सीना मयकश साहब को मुन्तक़िल हुई।’ किताब का कवर पेज सादा लेकिन दिलकश है। जो ऐन मयकश अकबराबादी के रंग के मुताबिक है। 286 सफ्हात के इस किताब की कीमत महज 300 रुपये है। इसकी इशाअत लेथू आफ़सेट प्रिन्टर्स, अलीगढ़ से हुई है।

( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2021 अंक में प्रकाशित )


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