ऐ दोस्त वहाँ चल जहाँ इंसान मिले, हिंदू नज़र आये न मुसलमान मिले।
मस्जिद जहाँ वेदों की निगेहबान मिले, मंदिर में पुजारी के लिए कुरआन मिले।
ये अशआर नक्श इलाहाबादी के हैं । १८ मार्च १९४१ को इलाहाबाद मुख्यालय से १५ किमी दूर थरवई गांव में पैदा हुए मोहम्मद हनीफ, जो नक्श इलाहाबादी के नाम से विख्यात हुए, आपकी जीवन यात्रा १४ फ़रवरी २००८ को समाप्त हुई। इंसानियत के प्रति इस शायर की बेहिसाब मोहब्बत की कोई सीमे नहीं थी। दुनिया का कोई भी प्रलोभन आपको अपने से न डिगा सका और अपने शायरी के वजूद को कायम रखने के लिए हर तरह की कुर्बानी देने में कभी कोई कोताही नहीं की। आज जहाँ एक शायर चंद रचनाएँ करके उसका वाचन प्रकाशन और अन्य उपयोग करने के सारे प्रयास कर डालता है, वहीँ हमारे नक्श साहब जीवनभर शायरी के प्रति समर्पित होकर भी अपना एक मुक़म्मल संकलन नहीं छपवा सके।
जिंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों को नक्श साहब के शायर ने भरपूर अनुभव किया और अपनी रचनावों में उन्हें मुक्कम्मल तौरपर अभिव्यक्त किया। आज समाज में जिस तरह की संवेदनशून्यता, मूल्यहीनता,तिकडम,छल,फरेब,बेईमानी,चोरी, डकैती आदि का बोलबाला हैहै उसे नक्श साहब ने खुली आँखों से देखाऔर उनके यथार्थ चित्र अपनी रचनाओं में उतार दिए हैं। पर इससे कोई ये न समझे कि नक्श साहब निराशावादी हैं। वे इंसानियत के कायल हैं और उनकी नज़र में इंसान कि जिंदगी खुशहाली,अमनपरस्ती और बेहतर भविष्य का सपना कभी ओझल नहीं होता है। जो रचनाकार इंसानियत में आस्था रखता है, उससे दिली लगाव कायम रखता है और जो है उससे बेहतर चाहिए का स्वप्न देखता है, वही इस तरह कि सामयिक चेतावनी दे सकता है-
इंसान तू अपना किरदार बदल, मत डाल जहान के तू ख्वाबों में खलल।
हो जाए वीरान न ये गुलशन सोच, मिटने को है तेरी पहचान संभल ।
नक्श इलाहाबादी साहब शायरी के पुराने उस्तादों जैसे थे। वे उर्दू शायरी के व्याकरण के पारंगत जानकार थे। उन्होंने शायरी के व्याकरण और छंदशास्त्र पर काफी कुछ लिखा है और वे इस विषय पर एक पुस्तक भी छपवाना चाहते थे।
नक्श इलाहाबादी कि ग़ज़लें-
सफर कठिन है तुम इतना भी न कर सको तो चलो।
हयातो मौत की हद से गुज़र सको तो चलो।
कदम कदम पे सलीबों की प्यास बिखरी है,
लहू की शक्ल में तुम भी बिखर सको तो चलो।
हयातो-मौत का है सिलसिला अजीब वहाँ,
नफस नफस पे जियो और मर सको तो चलो।
खयालो ख्वाब तसव्वुर सभी हैं जुर्म वहाँ,
के खुद भी ज़हन से अपने उतर सको तो चलो।
क़दम क़दम पे समुन्दर हैं अश्को आतिश के,
उन्हें जो डूब के तुम पार कर सको तो चलो।
( दो )
हवा पे अम्बर पे बिजली पे गुल पे तारों पर।
ये किसका नाम लिखा है इन इश्तेहारों पर ।
मिटा न दे कोई इन शोख मंज़रों का वजूद,
लगा दो गैब की पाबंदियां बहारों पर ।
हुई तो मुद्दतों लेकिन वो डूबने वाला,
दिखाई देता है अब भी इन्ही किनारों पर।
वो इक फकीर जो पहने है चीथड़ों के लिबास,
सूना है इसकी हुकूमत है ताजदारों पर।
तुम पढ़ के देख मेरे गम के आन्सुनों की किताब,
कहानियाँ तो बहुत सी हैं आबशारों पर।
( तीन)
मैं अपनी आग में जलता रहा और जल भी गया।
कि आंच तक न लगी और मैं पिघल भी गया।
वो एक पल जो मेरी जिंदगी का हासिल था,
अभी सुना है मेरे हाथ से वो पल भी गया।
न उसके आने की आहट मिली न ही कोई सुराग,
वो मुझमे आया भी ठहरा भी और निकल भी गया।
पहुंच सका न मैं अबतक किसी नतीजे पर ,
मेरा तो आज भी जाता रहा और कल भी गया।
वो मेरे क़त्ल की साजिश न कर सका पूरी,
कल उसको वक्त का इक हादिसा निगल भी गया।
(चार)
शहर जब जल ही चुका है तो बचा क्या होगा।
अब वहाँ यादें गुजिश्ता के सिवा क्या होगा।
वो अज़ल से मेरी साँसों की हरारत में है गुम,
दूर रह कर भी वो अब मुझसे जुदा क्या होगा।
एक ही पल में वो कर जाएगा हर शै को हलाक,
उसकी ताक़त का सुबूत इससे बड़ा क्या होगा,
अपने ही खून से प्यास अपनी बुझाने लगे लोग,
वक्त इंसान पे अब इससे बुरा क्या होगा।
इक इशारे पे बटा चाँद भी दो टुकड़े में ,
जब है बंदे का ये आलम तो खुदा क्या होगा।
( पांच )
रास्ते में दफ्न कर देगा कि घर ले जाएगा।
क्या पता मुझको कहाँ मेरा सफर ले जाएगा।
इक क़दम जन्नत की जानिब इक जहन्नुम की तरफ,
वो बताता ही नहीं मुझको किधर ले ले जाएगा।
जिंदगी की और भी शक्लें हैं ढल जाउंगा मैं,
मारने वाला मेरे बस वालोपर ले जाएगा।
और क्या दे सकती है दुनिया उसे वक्तेसफ़र,
कुछ अधूरे ख्वाब वो आँखों में भर ले जाएगा।
उसके साये मुख्तलिफ सम्तों से आयेंगे और फिर,
शाम उठा ले जाएगा कोई सहर उठा ले जाएगा।
जिन अंधेरों से मैं डरता था उन्ही में इक दिन,
क्या पता था खुद मुझे मेरा ही सर ले जाएगा।