रविवार, 27 फ़रवरी 2011

असली मुद्दों से भटक गया है मीडिया- फजले हसनैन



हिन्दुस्तान का मीडिया असली मुद्दों से भटक गया है। वक्ती चीज़ों को राइ का पहाड़ बनाकर वह सनसनी तो फैलाता है लेकिन बेहद असली मुद्दों की तरफ उसकी दृष्टि नहीं पहुंचती। इलेक्ट्रानिक मीडिया में अश्लीलता और बेहयाई की सारी सीमायें तोड़ दी है अब परिवार के साथ बैठ कर ख़बरें देखने में भी आम आदमी को परेशानी होती है। आल इंडिया मीर एकेडमी एवार्ड से सम्मानित इलाहाबाद के जानेमाने पत्रकार और व्यंग्यकार फजले हसनैन ने गुफ्तगू के साथ एक मुलाक़ात में यह विचार व्यक्त किया। श्री हसनैन ने कहा की एक ज़माना था जब समाचारपत्रों के साप्ताहिक परिशिष्ट में साहित्य को महत्वपूर्ण स्थान मिलता था। अच्छे-अच्छे साहित्यकारों की रचनाएं छपती थीं और आम आदमी उससे लाभान्वित होता था लेकिन अब यह परम्परा खत्म हो रही है। चटपटी और बाजारू सनसनीखेज ख़बरों ने साहित्य को बहुत पीछे धकेल दिया है। अख़बारों में बाजारवाद और पूंजीवाद हावी हो गया है। उन्होंने कहा कि अब पांच मिनट की खबरों के बीच में पच्चीस बार चड्डी बनियान देखने को मिलती है। क्रिकेट के बढते वर्चस्व को भी श्री हसनैन अच्छा संकेत नहीं मानते। उनका कहना है कि होली कि गुझिया और ईद की सिवइयों का स्वाद भी क्रिकेट में बाजारवाद ने फीका कर दिया है। श्री हसनैन का कहना है कि क्रिकेट में हो रहे करोड़ों-अरबों के खेल से आकर्षित होकर हज़ारों होनहार अपना बहुमूल्य समय इसके पीछे गवां देतें हैं जबकि सफलता एकाध को ही मिल पाती है।


व्यंग्य विधा अपनी पहचान बना चुके जानेमाने पत्रकार फजले हसनैन का जन्म इलाहाबाद जनपद के लालगोपालगंज कसबे के निकट स्थित रावां गाँव में ७ दिसम्बर १९४६ को एक सामान्य परिवार में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही प्राप्त करने के बाद आपने १९७३ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उर्दू में परास्नातक कि डिग्री हासिल की और इलाहाबाद से प्रकाशित नार्दन इंडिया पत्रिका से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की। बाद में अमृत प्रभात और स्वतंत्र भारत समाचार पत्रों में भी आपने अपनी सेवाएं दी। १९७४ से ही श्री हसनैन ने हिंदी उर्दू और अंग्रजी में लेखन कार्य शुरू किया। अबतक अनवरत ज़ारी है। आपकी कहानियाँ नाटक और व्यंग्य की रचनाएं देश-विदेश की नामी-गिरामी पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी हैं. १९८२ में श्री हसनैन का पहला व्यंग्य संग्रह रुसवा सरे बाज़ार उर्दू में प्रकाशित हुआ जिसे उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया. उर्दू में आपके तीन नाट्य संग्रह रोशनी और धुप, रेत के महल, राह ढलती रही प्रकाशित हो चुके हैं. हास्य व्यंग्य रचना संग्रह दू-बदू वर्ष २००१ में प्रकाशित हुआ है। हिंदी और उर्दू में आपने समाचार पत्रों में कालम भी लिखे हैं। वह साहित्यकारों और आम पाठकों के बीच हमेशा चर्चा में रहे। शहर के जाएने-माने साहित्यकारों, मनीषियों और बुध्धिजिवियों का परिचय


कराती आपकी पुस्तक हुआ जिनसे शहर का नाम रोशन का प्रथम प्रकाशन २००४ में हुआ। इस पुस्तक के अबतक तीन एडिशन छप चुके है। ग़ालिब पर लिखी आपकी पुस्तक ग़ालिब एक नज़र में को इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है। श्री हसनैन के सौ से अधिक नाटक-नाटिकाएं धारावाहिक और कहानियाँ इलाहाबाद आकाशवाणी से प्रसारित किये जा चुके हैं। आपने चार दाकुमेंट्री फिल्मों की स्क्रिप्त भी लिखी है। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के उर्दू अकादमी से पुरस्कृत फजले हसनैन को प्रतिष्ठित आल इंडिया मीर अकादमी एवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। श्री हसनैन को यह पुरस्कार २००९ में समग्र लेखन और साहित्य सेवा के मिला। जिसमे उन्हें एक लाख रूपये का नगद पुरस्कार देखनेकर सममानित किया गया। श्री हसनैन ने कौमी कौंसिल बराए फरोगे उर्दू दिल्ली के अनुरोध पर मशहूर उपन्यास का चार्ल्स डेकेन्स के वृहद उपन्यास डेविड कापर फिल्ड का उर्दू में अनुबाद भी किया है।



विजय शंकर पाण्डेय गुफ्तगू के अंक मार्च २०११ में प्रकाशित




गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

नक्श इलाहाबादी और उनकी शायरी

अपने अध्ययनकक्ष में नक्श इलाहाबादी

गायक इकबाल सिद्दीकी, एम मांटरोज, म्युज़िक डायेरेक्टर यस बसंत के साथ नक्श इलाहाबादी
लाकेट
फिल्म के डाएरेक्टर डी पी मौर्या के साथ नक्श इलाहाबादी




ऐ दोस्त वहाँ चल जहाँ इंसान मिले, हिंदू नज़र आये न मुसलमान मिले।

मस्जिद जहाँ वेदों की निगेहबान मिले, मंदिर में पुजारी के लिए कुरआन मिले।

ये अशआर नक्श इलाहाबादी के हैं । १८ मार्च १९४१ को इलाहाबाद मुख्यालय से १५ किमी दूर थरवई गांव में पैदा हुए मोहम्मद हनीफ, जो नक्श इलाहाबादी के नाम से विख्यात हुए, आपकी जीवन यात्रा १४ फ़रवरी २००८ को समाप्त हुई। इंसानियत के प्रति इस शायर की बेहिसाब मोहब्बत की कोई सीमे नहीं थी। दुनिया का कोई भी प्रलोभन आपको अपने से न डिगा सका और अपने शायरी के वजूद को कायम रखने के लिए हर तरह की कुर्बानी देने में कभी कोई कोताही नहीं की। आज जहाँ एक शायर चंद रचनाएँ करके उसका वाचन प्रकाशन और अन्य उपयोग करने के सारे प्रयास कर डालता है, वहीँ हमारे नक्श साहब जीवनभर शायरी के प्रति समर्पित होकर भी अपना एक मुक़म्मल संकलन नहीं छपवा सके।

जिंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों को नक्श साहब के शायर ने भरपूर अनुभव किया और अपनी रचनावों में उन्हें मुक्कम्मल तौरपर अभिव्यक्त किया। आज समाज में जिस तरह की संवेदनशून्यता, मूल्यहीनता,तिकडम,छल,फरेब,बेईमानी,चोरी, डकैती आदि का बोलबाला हैहै उसे नक्श साहब ने खुली आँखों से देखाऔर उनके यथार्थ चित्र अपनी रचनाओं में उतार दिए हैं। पर इससे कोई ये न समझे कि नक्श साहब निराशावादी हैं। वे इंसानियत के कायल हैं और उनकी नज़र में इंसान कि जिंदगी खुशहाली,अमनपरस्ती और बेहतर भविष्य का सपना कभी ओझल नहीं होता है। जो रचनाकार इंसानियत में आस्था रखता है, उससे दिली लगाव कायम रखता है और जो है उससे बेहतर चाहिए का स्वप्न देखता है, वही इस तरह कि सामयिक चेतावनी दे सकता है-

इंसान तू अपना किरदार बदल, मत डाल जहान के तू ख्वाबों में खलल।

हो जाए वीरान न ये गुलशन सोच, मिटने को है तेरी पहचान संभल ।

नक्श इलाहाबादी साहब शायरी के पुराने उस्तादों जैसे थे। वे उर्दू शायरी के व्याकरण के पारंगत जानकार थे। उन्होंने शायरी के व्याकरण और छंदशास्त्र पर काफी कुछ लिखा है और वे इस विषय पर एक पुस्तक भी छपवाना चाहते थे।

नक्श इलाहाबादी कि ग़ज़लें-

सफर कठिन है तुम इतना भी न कर सको तो चलो।

हयातो मौत की हद से गुज़र सको तो चलो।

कदम कदम पे सलीबों की प्यास बिखरी है,

लहू की शक्ल में तुम भी बिखर सको तो चलो।

हयातो-मौत का है सिलसिला अजीब वहाँ,

नफस नफस पे जियो और मर सको तो चलो।

खयालो ख्वाब तसव्वुर सभी हैं जुर्म वहाँ,

के खुद भी ज़हन से अपने उतर सको तो चलो।

क़दम क़दम पे समुन्दर हैं अश्को आतिश के,

उन्हें जो डूब के तुम पार कर सको तो चलो।



( दो )
हवा पे अम्बर पे बिजली पे गुल पे तारों पर।
ये किसका नाम लिखा है इन इश्तेहारों पर ।
मिटा न दे कोई इन शोख मंज़रों का वजूद,
लगा दो गैब की पाबंदियां बहारों पर ।

हुई तो मुद्दतों लेकिन वो डूबने वाला,

दिखाई देता है अब भी इन्ही किनारों पर।

वो इक फकीर जो पहने है चीथड़ों के लिबास,

सूना है इसकी हुकूमत है ताजदारों पर।

तुम पढ़ के देख मेरे गम के आन्सुनों की किताब,

कहानियाँ तो बहुत सी हैं आबशारों पर।

( तीन)

मैं अपनी आग में जलता रहा और जल भी गया।

कि आंच तक न लगी और मैं पिघल भी गया।

वो एक पल जो मेरी जिंदगी का हासिल था,

अभी सुना है मेरे हाथ से वो पल भी गया।

न उसके आने की आहट मिली न ही कोई सुराग,

वो मुझमे आया भी ठहरा भी और निकल भी गया।

पहुंच सका न मैं अबतक किसी नतीजे पर ,

मेरा तो आज भी जाता रहा और कल भी गया।

वो मेरे क़त्ल की साजिश न कर सका पूरी,

कल उसको वक्त का इक हादिसा निगल भी गया।


(चार)

शहर जब जल ही चुका है तो बचा क्या होगा।

अब वहाँ यादें गुजिश्ता के सिवा क्या होगा।

वो अज़ल से मेरी साँसों की हरारत में है गुम,

दूर रह कर भी वो अब मुझसे जुदा क्या होगा।

एक ही पल में वो कर जाएगा हर शै को हलाक,

उसकी ताक़त का सुबूत इससे बड़ा क्या होगा,

अपने ही खून से प्यास अपनी बुझाने लगे लोग,

वक्त इंसान पे अब इससे बुरा क्या होगा।

इक इशारे पे बटा चाँद भी दो टुकड़े में ,

जब है बंदे का ये आलम तो खुदा क्या होगा।


( पांच )

रास्ते में दफ्न कर देगा कि घर ले जाएगा।

क्या पता मुझको कहाँ मेरा सफर ले जाएगा।

इक क़दम जन्नत की जानिब इक जहन्नुम की तरफ,

वो बताता ही नहीं मुझको किधर ले ले जाएगा।

जिंदगी की और भी शक्लें हैं ढल जाउंगा मैं,

मारने वाला मेरे बस वालोपर ले जाएगा।

और क्या दे सकती है दुनिया उसे वक्तेसफ़र,

कुछ अधूरे ख्वाब वो आँखों में भर ले जाएगा।

उसके साये मुख्तलिफ सम्तों से आयेंगे और फिर,

शाम उठा ले जाएगा कोई सहर उठा ले जाएगा।

जिन अंधेरों से मैं डरता था उन्ही में इक दिन,

क्या पता था खुद मुझे मेरा ही सर ले जाएगा।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

इम्तियाज़ अहमद गाज़ी की दो ग़ज़लें



ज़ख्म देगा न बददुआ देगा।
गम मेरा तुझको आसरा देगा।

मेरी आँखों में वो समुंदर है,
जो तेरी प्यास को बुझा देगा।
बावफा होना जुर्म बनकर के,
मुझको भी बेवफा बना देगा।

शाम को तेरा छत पे आ जाना,
शहर में हादसा करा देगा।

ऐ सितारों गुमान मत करना,
एक सूरज तुझे बुझा देगा।

मिन्नतें बार-बार मत करना,
अपनी नज़रों से वो गिरा देगा।

गाज़ी इंसानियत को पहचानो,
कोई अपना तुझे दगा देगा।
(२)
दोस्त कहके बुलाया गया।
और खंज़र चलाया गया।
फूल की जिंदगी के लिए,
मुझको कांटा बनाया गया।
चाँद की चांदनी के लिए,
सूर्य तक को तपाया गया।

खा के वीरों की कसमें सदा,
मुल्क को बरगलाया गया।

उसकी मस्ती भरी चल को,
मोरनी से मिलाया गया।

सोखिये हुस्न को हर जगह
शायरी से सजाया गया।
जीत ली जंग जब कौम की,
मुझको गाज़ी बताया गया.

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

ताकि साहित्य समाज का आइना बना रहे



-------------- इम्तियाज़ अहमद गाजी--------------------------


साहित्य को समाज का आइना कहा जाता है, क्योंकि इसमें समाज के विभिन्न पहलुओं का बारीकी से उल्लेख किया होता है। आमतौर पर यह अवधारणा रही है कि साहित्यकार समाज कि बेहतरी के लिए रचनाधर्मिता अपनाते हैं। समाज में फैली विसंगतियों को दूर करने का प्रयास अपने नज़रिए से करते करते रहे हैं। इन्ही वजहों से साहित्यकारों को अन्य वर्गों से भिन्न और बेहतर माना जाता रहा है। मगर आज इन तथ्यों कि कि वास्तविकता पर गौर किया जाये तो स्थिति काफी भिन्न नज़र आती है। साथ ही तमाम तरह के सवाल मन में उठने लगते हैं। ऐसा लगता है कि अदब से जुड़े लोगों का आचरण और लेखन में दोमुहांपन भरा पड़ा है। कई साहित्यकारों कि रचना में देशप्रेम,समाज सेवा और इंसानियत के लिए जीने के उपदेश भरे पड़े रहते हैं, लेकिन उनकी खुद की जिंदगी में इन चीजों का बेहद अभाव दिखता है। जिन तत्वों से परहेज़ करने की बात वे अपनी रचनाओं में करते हैं, ठीक उसी के विपरीत आचरण वे अपनी जिंदगी में करते हैं। ऐसे में चिंता की लकीर बढ़ना स्वाभाविक है। अहम सवाल यह है की क्या राजनीतिज्ञों की तरह साहित्यकार भी सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए रचनाओं में अच्छी-अच्छी बातें लिखते हैं।क्या साहित्य रचना का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन भर है। वैसे मनोरंजन के कई सरल और रोमांचक साधन अब मौजूद हैं, तो फिर साहित्य क्या ज़रूरत।अगर साहित्य प्रभावी नहीं हो रहा, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है।


कवि सम्मेलनों में शामिल होने, पत्रिकाओं में छपने और पुरस्कार हासिल करने के लिए जिस तरह साहित्य जगत में तोड़जोड़ की राजनीत और गुटबाजी के दौर चल रहा है, उसे देखकर लगता है कि साहित्यकार अब नेताओं को इन सबमें पीछे छोड़ देने के लिए कमर कस चुके हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में तोड़जोड़ कि राजनीत अब हैरान करने वाली बात नहीं लगती। साहित्यकारों के अलग-अलग गुट बन गए हैं। इसी आधार पर पत्रिकाओं का बंटवारा सा हो गया है। संपादक अपने गुट के लोगों कि रचनाओं को तरजीह देते हैं। हालात यह हैं कि संपादक के नाम को देखकर ही पता लग जाता है कि इसमें किस-किस कि रचनाएँ शामिल होंगी। जिन साहित्यिक पत्रिकाओं में पारिश्रमिक का प्रावधान है वहाँ स्थिति और खराब है। वहाँ ठेके पर रचनाएं प्रकाशित कि जा रहीं हैं।ऐसा काम करने वाले लोग जब किसी सेमिनार में बोलने के लिए खड़े होते हैं तो नैतिकता कि दुहाई देते नहीं थकते।इनकी बातों को सुनकर इनके आचरण के बारे में अंदाजा लगाना हो तो बड़े-बेड़े गच्चे खा जाएँ।पुरस्कारों का भी यही आलम है। साहित्य अकादमी से लेकर हिंदी संसथान के पुरस्कारों सहित लगभग सभी पुरस्कारों पर हर साल विवाद होना आमबात है।देशभर में ऐसे तमाम साहित्यकार हैं, जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं लेकिन उनका कोई गुट नहीं है, इसलिए न तो उनको किसी साहित्यिक आयोजन में बुलाया जाता है और न ही पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें ठीक से स्थान मिल पाता है। पुरस्कारों के लिए उनके बारे में सोचना तो बहुत दूर कि बात है।उच्च पद पर कार्यरत किसी साहित्यकार के पीछे साहित्यकारों कि भीड़ जमा रहना अब आमबात है।इसी तरह कई साहित्यकार नेताओं कि चमचागिरी करके अपना और सहित्य जगत का महत्व कम करते जा रहे हैं.


एक बहुत मशहूर वाकया है।प्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कि रचनाओं से प्रभावित होकर देश के पहले पप्रधानमंत्री पंडित जवाहर ली नेहरु ने उनसे मुलाकात करने का निश्चय किया। निरालाजी इलाहबाद के दारागंज मोहल्ले में रहते थे।नेहरूजी ने जिलाधिकारी के माध्यम से उन्हें घ्रर पर ही मुलाक़ात करने का सन्देश भिजवाया । निरालाजी ने स्वीकृति देदी।किसी कवि के घर देश का प्रधानमंत्री खुद उनसे मिलने आयें ये बड़े गर्व कि बात हो सकती है। नेहरूजी दिल्ली से दारागंज में निरालाजी के यहाँ पहुंचे लेकिन तय समय से लेट हो गए थे। निरालाजी का दरवाजा बंद मिला। जिलाधिकारी ने दरवाजा खटखटाया, टी निरालाजी नि खिडकी से झांककर देखा। जिलाधिकारी ने कहा नेहरूजी आपसे मिलने आये हैं। निरालाजी ने दोटूक जवाब दिया यह भी कोई मिलने का समय है। उनसे कहिये मैं अभी सोने जा रहा हुईं दिन में आयें। यह प्रसंग मौजूदा समय में जुगाड़ टाइप लेखकों के सामने एक मिशाल है। मौजूदा समय में साहित्य जगत को आत्मचिंतन कि ज़रूरत है, ताकि साहित्य समाज का आइना बहना रहे।


अमरउजाला काम्पक्ट में १९ नवंबर २०१० को प्रकाशित

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

राहत इन्दौरी का इंटरव्यू

हर मुशायरे की अपनी कहानी होती है : राहत इन्दौरी
राहत इन्दौरी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। फ़िल्मी दुनिया से लेकर मुशायरों तक और मुशायरों से लेकर अदब तक में आपका नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है। अहमद आब्दी ने उनसे बात की। सवाल: राहत साहब शाएरी आपके लिए क्या है ?
जवाब: शायरी दिली ज़ज्बात का अहसाह है, अहसाह के इज़हार का नाम शायरी है।
सवाल: एक अच्छा शायर होने के लिए क्या ज़रूरी है?
जवाब: मुताला, मुशाहिदा और महसूस करने की कुवत। शायरी ख्याल की गहराइयों से निकलती है। इसके लिए सलीका होना भी ज़रूरी है।
सवाल: आपकी शायरी अन्य शायरों से कितनी अलग है?
जवाब: देखिये, हर शायर का अपना मिजाज़ होता है, शेर कहने का अपना तरीका होता है। मैं भी कोशिश करता हुईं कि मेरी शायरी दूसरों से अलग हो।
सवाल: फिकरो-ख़याल के एतबार से आप किन शायरों प्रभावित हैं?
जवाब: उर्दू अदब में बहुत से काबिलेकद्र शायर गुज़रे हैं, लेकिन ग़ालिब पसंदीदा शाएर हैं। इसके अलावा फ़िराक गोरखपुरी ने भी मुझे काफी मुताअसीरi किया है। मीर से लेकर आजतक कई बेहतरीन शायर रहे हैं लेकिन मेरी उनसे ज्यादा नजदीकी नहीं हो पायी।
सवाल : इकबाल ने एक नज़्म में कहा है जब जिस्म के किसी हिस्से में दर्द होता है तो आँखें रोटी हैं। हाल-फिलहाल में कौन से मसायल और वाकये हुए जिनपर आपने शिद्दत से शायरी की ?
जवाब: हर जिंदादिल शायर अपने आसपास के माहौल से देशकाल से प्रभावित होता है। मैं भी जब अपने आसपास - ज्यादतियां और नफरत देखता हूँ तो मेरे अन्दर मौजोद शायर उनपर गौर कर शेर कहता है। जिन हालात से मेरा किरदार गुजारता है । मैं उसपर फिक्रो-ख़याल करके कलम चलाता हूँ और ज़ज्बात को अलफ़ाज़ का जामा पहनाता हूँ। दुनिया ने ताज़ुर्बातो-हवादिस कि शक्ल में , जो कुछ मुझे दिया लौटा रहा हूँ मैं , साहिर लुधियानवी का यह शेर है और यही आपके सवाल का जवाब भी।
सवाल: आपने तक़रीबन तीस साल पहले पाकिस्तान के अक मुशायरे में धूम मचा दी थी। उसके बाद आप सुर्ख़ियों में आ गए, कुछ उस मुशायरे के बारे में बताये?
जवाब: हंसते हुए, हर मुशायरे की अपनी कहानी होती है। मैं चालीस साल से मुशायरा पढ़ रहा हूँ। मैं शेर पढ़ता हूँ फिर भूल जाता हुईं। आप जिस मुशायरे की बात कर रहे हैं वो करीब तीस साल पहले की बात है। मैंने कराची के एक मुशायरे में शेर पढ़ा था जिसे वहाँ के लोंगों ने काफी पसंद किया था। हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद जो हिजरत करके पाकिस्तान गए थे उनके दुःख ताज़ा थे। उस वक्त काराची में पढ़े मुशायरे के एक शेर में उन्हें अपने ज़ज्बात नज़र आये। शेर यूँ था, अब की जो फैसला होगा यहीं पर होगा, अब हमसे दूसरी हिजरत नहीं होने वाली, । ज़ाहिर है इस शेर में काराची में हिन्दुस्तान से जाकर बसे लोंगों को अपनी तकलीफें और दुःख नज़र आये। एक दूसरे मुल्क के शायर की जुबां अपनी आप बीती और तजुर्बात सुनकर लोंगों ने इसे खूब सराहा। मुझे उसवक्त का मंज़र याद आता है। मेरे इस शेर को सुनने के बाद करीब २५-३० हज़ार लोग खड़ें होकर तालियाँ बजा रहे थे। लेकिन मैं इसे कोई कारनामा नहीं मानता हूँ, यह भी मुशायरे का एक हिस्सा था।
सवाल : आप एक पेंटर भी हैं, आपकी पेंटिंग के फन का आपकी शायरी पर कितना असर पड़ता है? आपके अंदर मौजूद पेंटर और शायर में क्या रिश्ता है ?
जवाब : मेरे अंदर मौजूद पेंटर और शायर में गहरा रिश्ता है। मैं बुनियादी तौर पर पेंटर ही हूँ। जिंदगी काफी लंबा वक्त मैंने पेंटिंग में गुजारा है। मेरे अंदर शाएर तो यकायक पनपा। वैसे मैं इन दोदों माध्यमों में फर्क नहीं समझता। पेंटिंग कैनवस पर होती है और शायरी कागज़ पर। पेंटिंग में आप कैनवस पर रंग भरते हैं और शायरी में रोशनाई से लफ्ज़ लिखते हैं।
सवाल : अपने जिंदगी के शुरूआती दौर में बहुत संघर्ष किया है। जाती तजुर्बात ने आपकी शायरी पर क्या असर डाला ?
सवाल : हाँ , यह बात सही है कि मेरी जिंदगी में मेरे निजी अनुभवों को जगह मिली । मैंने जो जद्दोजहद किया उसकी परछाइयाँ मेरी शायरी में नज़र आती है। मेरे तजुर्बात शायरी में मौजूद हैं लेकिन वे सिर्फ इशारे कि तरह हैं। इन्हें मैंने कभी मातम कि शक्ल नहीं अख्तियार करने दिया।
सवाल : क्या वज़ह है कि हिंदी गीतकारों कि तुलना में उर्दू शायरों ने फिल्मों में ज्यादा कामयाबी हासिल की है ?
जवाब : दरअसल , उर्दू शायरों को फिल्मों में कामयाबी इसलिए मिली क्योंकि उर्दू में शीरी है। उर्दू में कुछ मिठास ऐसी है कि वो आम लोगों को ज्यादा पसंद आती है । आप अगर गौर करें तो पायेंगे कि पाकीजा, रजिया सुल्ताना और उमराव जान उर्दू फ़िल्में हैं। इन फिल्मों में गानों और सम्बादों में सिर्फ उर्दू ही नज़र आती है लेकिन इन्हें हिंदी फिल्मों कि श्रेणी में रखा जाता है। उर्दू ज़बान हिंदी भाषा में घुलमिल गयी है ।


सवाल: इस वक्त हिंदी फिल्मों फिल्मों में जो गाने लिखे जा रहे हैं, उनमे ज्यादातर गैर्मेयारी हैं। इसकी वज़ह क्या है?


जवाब: हाँ, ये बात सही है कि हिंदी फिल्मों में इस समय जो गाने लिखे जा रहे हैं उनमे गिरावट आई है। इसकी एक वज़ह बाज़ार है। जो बिक रहा है उसको ही लोग आँखों पर बिठा रहे हैं । ऐसे में क्वालिटी पर असर पडना लागिमी है। मैंने भी कई फिल्मों में गाने लिखे और वे गाने खूब हिटभी हुए।लेकिन मैं वहाँ के हालात में ज्यादा दिन नहीं टिक सका। समझ लीजिए मैं वहाँ से भाग के आया हूँ। फिल्मों में जिस तरह के गाने लिखवाने कि अब मुझसे बात कि जाती है वो मुझे मंज़ूर नहीं.


सवाल: आजकल लोगों कि रीडिंग हैबिट कम हो गयी है। दृश्य मीडिया का हर तरफ बोलबाला है। ज़ाहिर है इससे अदब का नुक्सान हो रहा है। आप इसे कैसे देखते हैं?


जवाब: इस वक्त विजुअल मीडिया हाबी है ये बात सही है लेकिन अखबारों-किताबों कि अहमियत हमेशा रही है और आगे भी रहेगी।


सवाल: आज बाजार हाबी हो चुका है, उपभोक्तावादी संस्कृति बढती जा रही है। इस सूरतेहाल में अदब के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?


जवाब: मेरे हिसाब से साहित्यकार को हमेशा ज्मानदार होना चाहिए। ये आपने ठीक कहा कि इस वक्त बाज़ार हावी है।जहाँ-जहाँ बाजार हावी होता है , मेयार कम होता है।अच्छा साहित्य पहले भी लिखा जा रहा था, अब भी लिखा जा रहा है। सारा अदब बाज़ार के हवाले नहीं हुआ है।अगर कोई शायर सोचता है कि उसकी शायरी बाज़ार में धूम मचा देगी तो ऐस्स सोचना गलत होगा। ईमानदार साहित्य कि हमेशा क़द्र होती है।


सवाल: मुशायेरों के स्तर में गिरावट आई है, उसके लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?


जवाब: मुशायरे के स्तर में गिरावट की बड़ी वजह बाज़ार का हावी होना है। वहाँ पर भी क्वालिटी से समझौता हो रहा है। मुशायरों को तीसरे दर्जे के शायरों ने नुक्सान पहुंचाया है। गैर ज़िम्मेदार शायर मुशायरों को चौपट कर देते हैं। शायरी बिना मेयार और सलीके के नहीं होती।मुशायरों में नाचने और गाने वालों का काम नहीं है कि किसी के भी हाथ में माइक पकड़ा दिया जाए. मुशायरों में अच्छी शायरी पर जोर होना चाहिए.


सवाल: इस वक्त उर्दू ज़बान बदहाली के दौर से गुज़र रही है , आप इसके पीछे क्या वजह देखते है?


जवाब: इल्जाम लगाना बेहत आसान है, लेकिन देखा जाए तो उर्दू कि खस्ता हालत के लिए खुद उर्दू वाले ही जिम्मेदार हैं। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ, जिनके घर की रोज़ी-रोटी उर्दू से चलती है लेकिन उनके बच्चे अंगरेजी मीडियम स्कूलों में पढते हैं। अंगरेजी मीडियम स्कूलों में जाना गलत नहीं है लेकिन खराब बात ये है कि उर्दू से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते। वहीँ मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूँ कि उर्दू पर उतना ख़तरा नहीं जितना हम महसूस कर रहे हैं।गुजिश्ता साठ सालों में हिन्दुस्तान में उर्दू कि सूरत काफी बदली है।आज हमारे मुल्क में जो उर्दू बोली जा रही है, उसमे कहीं महाराष्ट्र कहीं बंगाल तो कहीं गुजरात झाँक रहा है,देश में उर्दू भाषा का बोलबाला है, दृश्य मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक में। उर्दू को अगर ख़तरा है तो सिर्फ़ स्क्रिप्त के ऊपर.भाषाओं का मुक़द्दर बनना और बिगाडना रहा है.तमाम बैटन के मद्देनज़र हमारा फ़र्ज़ है कि हम उर्दू कि तरक्की के लिया काम करें.


सवाल:साहित्य के लेखन में पुरस्कारों कि कि क्या भूमिका है?


जवाब:मेरे ख़याल से जो सरकारी-दरबारी किस्म के अवार्ड मिलते हैं उनमे जुगाड़ ज्यादा लगाया जाता है। पुरस्कारों को हासिल करना साहित्यकार के लिए बड़ी बात नहीं है। अवार्ड से अदीब के कद पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। मुझे नहीं लगता कि रवीन्द्र नाथ टैगोर को नोबले अवार्ड, फ़िराक गोरखपुरी को ज्ञानपीठ नहीं मिलता तो वे बड़े शायर न होते।


सवाल: वर्तमान समाज के निर्मार्ण में साहित्य कि क्या भूमिका है?


जवाब: ऐसे सवालों पर मैं अक्सर उलझ जाता हूँ,तवक्को भी नहीं करनी चाहिए।देखिये शायर कोई हकीम नहीं होता,कोई लीडर नहीं होता।शायर से सिर्फ तवक्को करें कि वो सिर्फ शेर कहे। शायरी समाज में रहकर होती है लेकिन यह उम्मीद करना गलत होगा कि वो समाज में हकीम या नुमाइंदे के तौर पर काम करे।देखिये सिर्फ लफ़्ज़ों से शेर नहीं बनता।ख्यालों कि गहराइयों से शेर बनता है. गो हाथ में जुम्बिस नहीं आँखों में तो दम है,रहने दो अभी सागरों मीना मेरे आगे, इस शेर में ग़ालिब ने किसी कि तस्वीर नहीं खिची, ये शेर उजड़ी हुई दिल्ली का मर्सिया है.शायरी समाजी और सियासी मुद्दों पर हो सकती है लेकिन शायर से ये उम्मीद करना सही नहीं है कि वो कोई मजहबी पैगाम देदे या कोई इलाज़ कर दे.


सवाल: गज़ल को उर्दू-हिंदी में बांटना तर्कसंगत है?


जवाब:गज़ल सिर्फ गज़ल होती है।इसे हिंदी और उर्दू में बांटना गलत होगा।आज उर्दू के अलावा गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी आदि भाषाओं में ग़ज़लें कही जा रही हैं।पाकिस्तान मेरे शायर दोस्त दोहा लिखते हैं।लेकिन वहाँ दोहा सिर्फ दोहा है, न कि पंजाबी या उर्दू दोहा।


सवाल: अप्प सोशल नेटवोर्किंग फेसबुक और ट्विटर पर भी हैं।इससे लोगों को आपतक और आपको लोगों तक पहुँचने तक कितनी मदद मिलती है?


जवाब: मैं पूरी तरह सोशल नेटवोर्किंग साइट्स पर डिपेंड नहीं करता। हालांकि इससे अपनी बात और लोगों के राय,सलाह और नज़रिए के बारे में पता चलता रहता है।मैं बहुत ज्यादा कंप्यूटर फ्रेंडली नहीं हूँ लेकिन कभी-कभी इसके लिए समय निकाल लेता हूँ.


सवाल: नए रचनाकारों के लिए आपका क्या सन्देश है?


जवाब: बहुत अच्छे नए रचनाकार साहित्य जगत में आ रहे हैं। युवा रचनाकारों में कई काबिलेगौर हिनहिन।हमें उनकी हौसलाफजाई करनी चाहिए। उन्हें पहचानने कि ज़रूरत है। नए रचनाकारों को इमानदारी से काम करना चाहिए। मेहनत और लगन से काम करेंगे तो उन्हें कामयाबी मिलेगी।


गुफ्तगू के जनवरी-मार्च २०११ अंक में प्रकाशित