रविवार, 28 मई 2017

मौन की बांसुरी, पिघलते हिमखंड, लड़कियां, नदी को सोचने दो और.......



  -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


डाॅ. तारा गुप्ता देश की सुप्रसिद्ध साहित्यकारों में से एक हैं। ग़ाज़ियाबाद में रहती हैं, तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ी हैं। वर्ष 2016 में इन्हें ‘गुफ्तगू’ की ओर से ‘सुभद्रा कुमारी चैहान सम्मान’ प्रदान किया गया था। हाल में इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मौन की बांसुरी’ प्रकाशित हुआ है। 112 पेज वाली सजिल्द पुस्तक में 80 ग़ज़लें शामिल की गई हैं। पुस्तक की भूमिका में डाॅ. कुंअर बेचैन लिखते हैं- ‘डाॅ. तारा गुप्ता की ग़ज़लों में जो शब्द-व्यवहार हैं, जिससे कभी आत्म-तत्व और बाहा्र-जगत की टकराहट की दर्शन होते हैं तो कभी आत्म-तत्व की विजय के। जिसे हम आत्म-तत्व कहते हैं वह भी अपने अंदर एक मौन संगीत छुपाए रहता है, या यूं कहें कि यह संगीत ‘मौन की बांसुरी’ बनकर अपनी अनुगूंज से भीतर-भीतर एक ऐसी हलचल पैदा करता है जो ब्रहा्र के चारों और आत्माओं का नृत्य बन जाता है, मन वृंदावन में महारास को जन्म देता है।’ इस टिप्पणी से सहज ही समझा जा सकता है कि इनकी ग़ज़लों में वह संगीत है, जिसे ‘ग़ज़ल’ की वास्वतिक परिभाषा से जोड़ा जाता है। एक ग़ज़ल के मतला में कहती हैं- ‘हम न मानेंगे बुरा तुम शौक़ से इल्ज़ाम दो क्या ज़रूरी है हमाने नाम का उपनाम दो।’ इस तरह पूरी पुस्तक में जगह-जगह उल्लेखनीय अशआर से सामना होता है। इस पुस्तक को अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 220 रुपये है।

‘एहसास कभी मरते नहीं/एहसास ज़िन्दा हैं/ तो ज़िन्दगी है/वक़्त के आंचल में सहेजे/लम्हा-लम्हा एहसास/खुदा की बंदगी है’-यह कविता रजनी छाबड़ा की है, वे लेखन क्षेत्र में काफी सक्रिय हैं, तमाम सोशल साइट्स, ब्लाग आदि पर खूब लिख रही हैं। राजस्थान में शिक्षा विभाग मे सक्रिय हैं। कई किताबें अब तक छप चुकी हैं। पिछले दिनों ‘पिघलते हिमखंड’ नाम से इनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है। प्रायः स्त्रियों की कविताओं में प्रेम-प्रसंग और व्यक्गित जीवन के दुख का वर्णन होता है। इसी परंपरा का पालन करते हुए रजनी छाबड़ा ने भी काव्य लेखन किया है। छंदमुक्त कविताओं में इन्होंने कहीं-कहीं तीज-त्योहारों और जीवन के अन्य परिदृश्यों का भी जिक्र किया है। एक कविता में कहती हैं- ‘हर शहर की/हर गली में/कुछ इबादतख़ाने और/कुछ बुतख़ाने होते हैं/जहां लोग अपनी-अपनी आस्था के बुत/बना देते हैं/अपने-अपने रस्म-ओ-रिवाज़ों से/उनको सजा लेते हैं/बाकी दुनिया के/धर्म कर्म से फिर वे बेमाने होत हैं।’ इसी तरह जगह-जगह उल्लेखनीय कविताएं पूरी पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं। 96 पेज की इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है, जिसे अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।
रांची, झारखंड की वीना श्रीवास्तव पत्रकार रही हैं और अब स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं। सात किताबें अब तक छप चुकी हैं, इनमें एक किताब का सपंादन भी शामिल है। पिछले दिनों ‘लड़कियां’ नाम से इनकी काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है। पुस्तक में लंबी-लंबी 13 कविताएं शामिल की गईं है। कवयित्री ने अपने जीवन के अनुभवों को इन कविताओं में विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है। पुस्तक की पहली कविता ‘लड़कियां’ और दूसरी कविता ‘लड़के’ शीर्षक से हैं। इन दोनों ही कविताओं में लड़कियों और लड़कों की मनः स्थिति का वर्णन अपने नज़रिए से किया है। लड़कियां कविता में कहती हैं-‘कुछ लड़कियां/होती हैं/जटिल निबंध/क्लिष्ट भाषा, बड़े-बड़े वाक्य /जिन्हें समझना है/बहुत मुश्किल/अपने आस-पास/ हठधर्मिता का कचव ओढ़े/जीती हैं ज़िन्दगी/कुछ होती हैं/प्रेमचंद की कहानियों की तरह/सीधी, सरल, प्रवाहमयी/भोली-भाली, गांव की गोरी/कुछ होती हैं/पंत की कविता की तरह/निर्मल, कोमल/प्रकृति की तरह निश्छल/जिसमें चाहता है दिल रम जाना।’ लड़के शीर्षक की कविता में कहती हैं-‘कुछ होते हैं/बादल से मनचले/जिनका नहीं होता/ठौर-ठिकाना/जो उड़ते रहते हैं/एक शहर से दूसरे शहर/मिट जाती है/ज़िंदगी जिनकी/दूसरे को/कुछ होते हैं/ उस माली की तरह जो अपने ही बाग के फूल को/बेच देते हैं/ दूसरे के हाथ कभी बालों में/ सजने के लिए /कभी गजरा बांधने के लिए।’ इसी तरह इस पुस्तक में शामिल ‘झरेगा हरसिंगार’, ‘वो बूढ़ी अम्मा’,‘नियति’,‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘सजा क्यों’, ‘सत्य परम’ आदि कवितों में विस्तृत वर्णन किया है, अपना नज़रिया पेश किया है। 136 पेज वाले इस पेपरबैक पुस्तक की कीमत  149 रुपये है, जिसे ज्योतिपर्व प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद ने प्रकाशित किया है।

रश्मि शर्मा रांची, झारखंड की रहने वाली हैं, काफी दिनों से लेखन कर रही हैं, पहले भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही उनकी नई पुस्तक ‘नदी को सोचने दो’ प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह में 100 कविताएं हैं। अधिकतर कविताओं में प्रेम-प्रसंग के अंतर्गत अपने एहसास का वर्णन किया गया है। काव्य का एक प्रमुख केंद्र बिंदु ‘प्रेम’ रहा है। उर्दू काव्य में तो प्रेम-प्रेसंग कविताएं ही प्रमुखतः रची गई हैं, लेकिन हिन्दी में सामाजिक विसंगतियांें केे साथ-साथ काव्य अपना स्थान रहा है। कवयित्री के पास अपने एहसास को पिरोने के लिए सही शब्द विधान है और उसकी उक्तियों में व्यक्त व्यंजनाओं में गहरे उतरने का कौशल भी। कई बार तेज बहाव में तैरती हुई बातें वर्णित होती हैं तो भी अभिव्यक्ति में भाषाई विसंगति प्रायः नहीं दिखती। उसके बिम्बों में उर्दू नज़्म की तासीर कहीं-कहीं अवश्य झलकती है, लेकिन उसके उद्गारों में प्रयुक्त उपालम्भों की ऐकांतिक निजता उनकी अपनी अर्जित पूंजी है। एक कविता में कहती हैं- ‘ओस की बूंदें पड़ने पर/लाजवंती/झुका के सर शरमाती थी/सुर्ख गुलाब की/पंखुड़ियां/छूते ही बिखर जाती थी/कुछ खूबसूरत सी सुनहरी तितलियां/ मेरे आंगन में मंडराती थीं/एक वक़्त ऐसा था जब दुनिया की सारी रानाइयां/मेरे घर आती थीं।’ प्रेम-प्रसंग से इतर आसमान छू लेने की इच्छा व्यक्त करते हुए कवयित्री कहती है-‘बाबा मेरे/ नहीं करना ब्याह मुझे/मैं कालंबस की तरह/ दुनिया की सैर पर जाउंगी/ ना दो मुझे तुम दहेज/मत बनाओ जायदाद का हिस्सेदार/बस मुझे दे दो/ एक नाव/ज़िन्दा रहने भर रसद/ और ढेर सारी किताबें।’ इसी तरह जगह-जगह अच्छी कविताओं से सामना इस किताब में होता है। 160 पेज वाले इस पेपर बैक संस्करण को बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 120 रुपये है।

मूलत: उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की रहने वाली किरण सिंह बिहार के पटना शहर में रहती हैं। अब तक इनकी तीन किताबें छप चुकी हैं, हाल में चैथी पुस्तक ‘मुखरित संवेदनाएं’ प्रकाशित हुई है। कवयित्री ने अपने जीवन के अनुभवों और प्रेम के एहसास का बयान करते हुए रचनाओं का सृजन किया है। जगह-जगह अपने एहसास को नया स्वरूप और अभिव्यक्ति का रूप देने के प्रयास में मशगूल होती दिख रही हैं। एक कविता में अपने एहसास का जिक्र यूं करती हैं- ‘लाज शरम से होठ सिले हैं/पलकें भी हैं बंद/मन ही मन में भाव उमड़कर/गढ़ गईं नव छंद/तुमसे कैसे कहूं।’ अपने प्रियतम से बतियाते हुए कहती हैं- रात अंधेरी/स्वप्न सुनहरी/आंखें उनींदी/दिन दोपहरी/क्यों ख़्याल बन आई/क्या प्रिय तुमको लाज न आई।’प्रेम प्रसंग के अलावा जीवन के जूझने, सच से लड़ने और लोगों को सजग करने का काम भी कवयित्री ने अपनी कविताओं के माध्यम से किया है। 96 पेज पेपर बैक पुस्तक को वातायन प्रकाशन,पटना ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 125 रुपये है।
बदायूं, उत्तर प्रदेश की रहने वाली डाॅ. ऋचा पाठक वर्तमान समय में उत्तराखंड में अध्यापिका हैं। कहानी संग्रह पहले ही प्रकाशित हो चुका है, हाल ही ‘अंबेडकर आज भी’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में डाॅ. ऋचा पाठक ने देश के संविधान निर्माता डाॅ. भीमराव अंबेडकर की पूरी जीवनी को नए परिदृश्य में सफलतापूर्वक पेश किया है। प्रस्तावना, डाॅ. बीआ अंबेडकर का राजनीति में प्रवेश, डाॅ. अंबेडकर के राजीतिक विचार, डाॅ. अंबेडकर के समय की सामाजिक बुराइयां, अंबडेकर के धर्म विषयक विचार, अस्पृश्यता-निवाराण/चेतना व संघर्ष, डाॅ. अंबेडकर का आधुनिक भारत का सपना, उपसंहार,बाइबिलाग्राफी, और संदर्भ ग्रंथ सूची समेत  दस खंडों में डाॅ. अंबेडकर के बारे में उनके एक-एक पहलू को रेखांकित किया है। अंबेडकर के अमेरिका में शिक्षा ग्रहण करने के हालत का वर्णन करते हुए बताया है -‘उन दिनों महाराजा सयाजीराव बंबइग् में थे और उच्च शिक्षा दिलाने के लिए कुछ विद्यार्थियों को अमेरिका भेजने की व्यवस्था कर रहे थे, इसी समय भीमराव अंबेडकर बड़ौदा में अपने निवास की समस्या लेकर पहुंचे कि उनको देखते ही महाराज ने पूछो- क्या तुम उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका जा सकोगे? उनके सहर्ष तैयार होते ही तीन साल के लिए ग्याहर पौंड मासिक छात्रवृत्ति मंजूर हो गई, जिसकी अवधि 15 जून 1913 से 16 जून 1916 तक थी। इसके बदले भीमराव को इकरारनामा लिखना पड़ा कि शिक्षा पूरी होने पर दस वर्ष बड़ौदा रियासत की नौकरी करेंगे।’ उनके राजनीति के प्रवेश का उल्लेख करते हुए इस पुस्तक में बताया गया है कि वे ज्योतिबा फुले, महादेव गोबिन्द रानाडे, जाॅन स्टुअर्ट मिल, माक्र्स और प्लेटो, अरस्तू आदि के विचारों से काफी प्रभावित रहे। राजनीति में आने के बाद दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहे। 206 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को आधारशिला प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 350 रुपये है।
मुंबई की रहने वाली डाॅ. सुमि ओम शर्मा ‘तापसी’ पेशे से चिकित्सक हैं, मेडिकल की चिकित्सा सेव के अलावा साहित्य और चिकित्सा की तमाम गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं। जिनमें स्लम में रहने वाले लोगों के लिए चेरिटेबिल क्लिनिक भी शामिल है। साहित्य में कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले दिनों इनका कहानी संग्रह ‘मातृछाया’ प्रकाशित हुआ है। 112 पेज वाले इस संग्रह
में कुल छह कहानियां शामिल की गई हैं। अधिकतर कहानियों में महिलाओं के परेशानियों, उनके हालात और उनके अनुभवों विभिन्न परिदृश्य में उल्लेखित किया गया है। पुस्तक की परिकल्पना में ‘दो शब्द’ के अंतर्गत लेखिका कहती है- ‘छोटे शहरों और देहात में तो नारी जीवन एक कसौटी पर सतत कसा जा सकता है। पुरुष प्रधान समाज उसे बराब कटघरे में खड़ा कर प्रताड़ित करता है। आज भी बाल विवाह, सतीप्रथा, अकेली रह गयी स्त्री को डायन घोषित कर देना... ये सब हमारे भारतीय समाज के माथे पर दाग़ है। पराश्रित, प्रताड़ित स्त्री कहां जाये? चारो ओर रक्षक ही भक्षक बने बैठे हैं।’ लेखिका के इस कथन से इनकी कहानियों के परिदृश्य का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इस सजिल्द पुस्तक को रचना साहित्य प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित किया है।
(गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2017 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 14 मई 2017

आजकल तो बहुत लोग बड़े कवि हो गए हैं: डाॅ. जगन्नाथ पाठक

डाॅ. जगन्नाथ पाठक
हा जाए तो विद्वान, समझा जाए तो बेहतरीन अनुवादक और पढ़ा जाए तो साहित्यकार, डाॅ. जगन्नाथ पाठक ऐसे साहित्यकार हैं, जो 82 वर्ष की उम्र में भी लेखन से जुड़े हुए हैं। संस्कृत में किए गए आपके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सन 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने आपको सम्मानित किया था। आपने संस्कृत की उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्याल से प्राप्त की और फिर पीएचडी किया। हिन्दी, संस्कृत के अलावा आपको उर्दू, अंग्रेेज़ी, बांग्ला, मैथली और पर्सियन भाषाओं का ज्ञान है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य करते हुए गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। संस्कृत भाषा में प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों में ‘कापिशायनी (पद्य संग्रह), मृद्विका, पिपासा (संस्कृत ग़ज़ल गीतियों का संग्रह), विच्छित्ति वातायनी (दो हजार मुक्तक प्रार्याओं का संग्रह), आर्यासस्राराममृ और विकीर्णपत्र लेखम् (लघु नाटिका) आदि हैं। इनके अतिरिक्त आपने कुछ संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया है। जयशंकर प्रसाद की कृतियांः कामायनी और आंसू का संस्कृत पद्य में और ग़ालिब के दीवान का संस्कृत पद्य में अनुवाद ‘ग़ालिब काव्यम्’ नाम से किया है।
संस्कृत साहित्य में आपके योगदान के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत होने के साथ आपको कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। जिनमें प्रमुख रूप से ‘कापिशायनी’ के लिए साहित्य अकादमी नई दिल्ली और उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी का विशिष्ट पुरस्कार, ‘मृद्विका’ पर वाचस्पति और पिपासा पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी का विशिष्ट पुरस्कार के अतिरिक्त कई अन्य सम्मान-पुरस्कार आपको प्राप्त हुए। गुफ्तगू के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और  डाॅ. विनय श्रीवास्तव ने आपसे मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की, प्रस्तुत है उसका संपादित अंश। 
सवाल: आप अपने पारिवारिक जीवन के शुरूआती दिनों के बारे में बताइए?
जवाब: मेरा जन्म 1934 में सासाराम, बिहार में हुआ था। मैंने अपने दादा, पिता, माता सबको देखा, सभी सीधे-सादे छल-कपट रहित लोग थे। मेरी आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में ही हुई, जहां रटन्त विद्या थी, यही कमी थी। लेकिन मैं जिज्ञासु छात्र था। पं. रामरूप पाठक जी जो साहित्य अकादमी से सम्मानित थे, उन्होंने मुझमें संस्कृत में लिखने व कविता करने की प्रवृत्ति जागृत की और मैं लिखने लगा, उस समय मेरी आयु 15-18 वर्ष की रही होगी। 19 वर्ष की अवस्था में बनारस आ गया और वहां से मध्यमा और शास्त्री की परीक्षा पास की।
सवाल: आप मूलरूप से संस्कृत के विद्वान थे, उर्दू के प्रति आपका लगाव कैसे हुआ?
जवाब: मैं विद्वान तो नहीं विद्याथी रहा हूं। सासाराम में हिन्दुओं के अतिरिक्त मुस्लिम भी कवि और शायर हैं, और साधारण से लगने वाले एक शायर मानुष सहसरावीं (अल्ताफ़ हुसैन मानुष सहसरावीं) से मिला, उन्होंने मुझे उर्दू सिखाया। वे घड़ी बनाकर और बीड़ी बनाकर अपनी जीविका चलाते थे
सवाल: आपके मन में उर्दू सीखने की इच्छा क्या हुई?
जवाब: कुछ मुसलमान मेरे साथी थे जो उर्दू पढ़ लेते थे, तो मुझे लगा कि मैं उर्दू क्यों नहीं पढ़ सकता। मुझे उर्दू के शेर अच्छे लगते थे। मैंने कुछ सिनेमा भी देखा था। हिन्दी सिनेमा में उर्दू के सरल वाक्य और कहन के ढंग ने मुझे प्रभावित किया। मैं मानुष साहब के संपर्क में आया, उनकी 2-3 पुस्तकें भी छपी हैं, उन पर लोगों ने पीएचडी भी की है। कुल मिलाकर मानुष साहब के चलते मेरा उर्दू में लगाव बढ़ा और वही मेरे प्रेरक रहे।
सवाल: उर्दू और संस्कृत में किसी स्तर पर कोई समानता है?
जवाब: मूल तो दोनों का एक ही है। हिन्दी-उर्दू की लिपि भिन्न हो गई।
सवाल: आपने संस्कृत में आर्या छंद पर विशेष रूप से कार्य किया है, इसके विषय में जानकारी दें ?
जवाब: मुक्तक काव्य रचना आर्या छंद में होती है, इसमें प्रत्येक छंद का भाव अलग होता है, जैसे उर्दू के एक शेर में पूरी बात कही जा सकती है, उसी तरह आर्या में थोड़े से शब्दों में पूरी बात कही जा सकती है। आर्या शप्तशती बिहारी सतसई के पहले लिखी गई है। इस छंद में नफ़ासत भी है और कहने की क्षमता भी। यह मात्रिक छंद इसके पहले और तीसरे चरण में 12-12 मात्राएं और दूसरे तथा चैथे चरण में क्रमशः 18-15 मात्राएं होती हैं।
सवाल: आप अपनी आवाज़ में एक आर्या सुनाएं ?
जवाब: खर्जूर यं ग्रदध्रं, स्थितमद्राक्षं निदा मध्याह्ने
       हन्त तमेव रसालद्रुमेदद्य पश्यामि कृतनीड्म।
सवाल: उर्दू के नामचीन शायर ग़ालिब के दीवन का आपने संस्कृत में ‘ग़ालिब काव्यम्’ नाम से अनुवाद किया, यह योजना आपके दिमाग़ में कैसे आई ?
जवाब: ग़ालिब जैसे शायर को जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो तब मुझे लगा कि ग़ालिब को समझना मेरे बस की बात नहीं है। फिर मैंने यह घृष्टता की और ग़ालिब के दीवान को अनुवाद करने की कोशिश की। ग़ालिब ह्दय से मुझे खींचता है, उनका एक शेर -
      देखना तकदीर की लज़्ज़त जो उसने कहा,
      मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।
इस शेर को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि मैं भी कह सकता हूं। बनारस में पढ़ते हुए मेरे मन में लगा कि क्यों न किसी मौलवी साहब से मैं फारसी पढ़ूं, ग़ालिब को और समझ सकूं। इसी विचार के साथ मैं मौलवी साहब से पांच रुपये प्रतिमाह देकर फारसी पढ़ने लगा। यह बात 1960 से 1970 के बीच की है। अनुवाद के सिलसिले में मैं अलीगढ़ गया और वहां पर परमानंद शास्त्री जी से मिला तो उन्होंने बताया कि मेरे मन में यह बात आई, लेकिन अभी तक तय तक नहीं किया था। तो मुझे लगा कि क्यों न मैं यह काम करूं। ग़ालिब के कुछ संस्करण हिन्दी में छपे हैं, उसे आधार बनाकर मैंने काम शुरू किया, मुझे लगा कि कुछ सफलता मिल रही है। अनुवाद एक सतत प्रक्रिया है और मैंने कोशिश की।
सवाल: हिन्दी के तमाम मूर्धन्य साहित्यकारों जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, वासुदेव शरण के सपंर्क में आप रहे, उनके साथ आपका क्या अनुभव रहा ?
जवाब: जब मैं शास्त्री का विद्यार्थी था तब उनके छोटे भाई ने पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से मुझे मिलवाया। पं. जी हंसे और मुझसे बोले, मैं भी पहले संस्कृत में लिखता था, बाद में हिन्दी में लिखने लगा क्योंकि हिन्दी जानन वाले ज़्यादा लोग हैं। संस्कृत में लिखने वाला जहां का तहां रह जाता है। जैसे रात में बंधी नाव को खेने वाला। मेरी भाषा पर भी पं. जी का प्रभाव पड़ा। डाॅ. वासुदेव शरण जी के साथ मैं ज्याद बैठता था, वे 60 की आयु तक रहे संसार में , लेकिन बहुत ज़्यादा काम कर गए। उनसे मैंने ग्रहण किया। उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘तुम भोजपुरी पर काम करो और शब्दों की व्युपत्ति की जानकारी रखो।’
सवाल: वर्तमान समय में संस्कृत को लेकर एक वर्ग विशेष की बात होती है, इस पर आपकी क्या राय है ?
जवाब: संकीर्ण दृष्टि हर जगह है। लोग संस्कृत या उर्दू को वर्ग विशेष की भाषा मानते हैं। बाक़ी तो संस्कृत में दाराशिकोह ने भी लिखा है, ऐसा नहीं है कि संस्कृत सिर्फ़ ब्राह्मणों की भाषा रही है। च्रंदभान ब्राह्मण ने फारसी में भी रचना की थी, कायस्थों व जैन लोगों ने भी संस्कृत में लिखा है।
सवाल: साहित्यकारों की भीड़ बढ़ रही है और पाठक कम होते जा रहे हैं, इसकी आप क्या वजह मानते हैं ?
जवाब: जीवन में व्यस्तता की वजह है से साहित्य पढ़ने वाले कम हो गए हैं। पठनीयता की कमी हो रही है, किन्तु मैंने देखा है बिहार में पढ़ने वाले ज़्यादा हैं, वहां पुस्तकों की बिक्री ज्यादा होती है। अपनी-अपनी भाषाओं में लोग पढ़ रहे है। मेरा ख़्याल है कि अब ‘गुफ्तगू’ को पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ी है।
सवाल: ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के विषय में आपकी क्या राय है ? इसमें हम और क्या सुधार कर सकते हैं ?
जवाब: ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के विषय में बड़ी अच्छी धारणा है। इसके बारे में मेरी पुष्कल जी से बात होती है, उन्होंने कहा कि यह इलाहाबाद के अनुकूल है। ‘गुुफ्तगू’ पत्रिका में उर्दू के शेर ज़्यादा हैं, कुछ और भी कविताएं जोड़ी जाएं और हिन्दी के दोहे भी छापे जाएं।
सवाल: कबीरदास जी की भाषा तो खिचड़ी है, तो इन्हें हिन्दी कवि कैसे मानते हैं ?
जवाब: तो किसका कवि मानें ? मीराबाई तो राजस्थान की थीं, किन्तु हिन्दी की ही मानी जाती हैं। तुलसी अवधी के थे, सूर बृज के थे, क्या से भाषाएं हिन्दी नहीं हैं? हिन्दी बृहद रूप में हैं क्षेत्रीय भाषाएं, चाहे जो भी रही हों।
सवाल: उर्दू अदब में उस्ताद-शार्गिद की परंपरा है, ऐसा हिन्दी जगत में नहीं है क्यों?
जवाब: कोई प्रमाण तो नहीं मिलता, किन्तु हिन्दी में भी यह परंपरा रही है। लोग मार्गदर्शन करते थे। बाद में लोगों ने समझा हम ही सबकुछ हैं और परंपरा कम हो गई। मैंने संस्कृत में लिखने का अभ्यास किया है, लेकिन मुझे कोेई कवि कहता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता, क्योंकि कवि होना बड़ी बात है। मैं सिर्फ़ विनम्रता के नाते यह बात नहीं कर रहा हूं। सचमुच कवि होना कठिन है। आजकल तो बहुत से लोग ‘बड़े’ कवि हो गए हैं।
सवाल: आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: आधुनिक साहित्य की पत्रिका ‘दृक’ है, इसमें हिन्दी, अंग्रेज़ी और संस्कृत तीनों भाषाओं में लेखते हैं। यह काम इलाहाबाद में हो रहा है। इससे प्रेरणा लेकर और काम किए जाने की आवश्यकता है।
सवाल: आपके जीवन का कोई आदर्श या मार्गदर्शक शेर ?
जवाब: हां, जौक़ साहब का एक शेर है-
              है उसकी सादगी भी तो कुछ इक फ़बन के साथ,
              सीधी सी बात भी है तो इक बाकपन के साथ।

बाएं से: रविनंदन सिंह, अजीत पुष्कल, डाॅ. जगन्नाथ पाठक और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

(गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2016 अंक में प्रकाशित)
नोट: 08 मार्च 2017 को डाॅ. जगन्नाथ पाठका निधन हो गया।

मंगलवार, 2 मई 2017

व्यंग्य एक यथार्थ है: अजित पुष्कल

प्रभाशंकर शर्मा और अजित पुष्कल

रेडियो के बहुचर्चित कार्यक्रम ‘हवा महल’ के हास्य की हास्य गुदगुदी व्यंग्य का चुटीलापन समेटे हुए साहित्य सृजन के साथ-साथ समाज के लिए कार्य करने वाले बुजुर्ग लेखक अजित पुष्कल 81 वर्ष की अवस्था में भी अपने कार्य के प्रति सजग दिखाई देते हैं, और अपने इसी सक्रियता के कारण अपनी अवस्था के 20 वर्ष कम मालूम पड़ते हैं। आप 1980 में प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव रहे हैं। आपके द्वारा रचित ‘जनविजय’ नामक नाटक का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है। अजीत पुष्कल के चार दर्जन से अधिक नाटकों का प्रसारण रेडियो के कार्यक्रम ‘हवा महल’ में हो चुका है। कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक विधाओं में आपने लेखन कार्य किया है। बुंदेलखंड ग्रामंचल पर आधारित आपके चार उपन्यास प्रकाशित हैं। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख ‘पत्थर का बसंत’, नई इमारत, नरकुंड की मछली,, जानवर और आदमी, चेहरे की तलाश, प्रज्ञा इतिहास रचती है, भारतेंदु चरित्र, जनविजय, घोड़ा घास नहीं खाता, जल बिना जियत पियासे आदि हैं। आप के रचित नाटकों का मंचन देश के विभिन्न शहरों में होता रहता है। श्रेष्ठ नाट्य लेखन के लिए आपको उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से एवार्ड भी मिल चुका है। ‘गुफ्तगू’ के उपसंपादक प्रभाशंकर शर्मा और डाॅ. विनय श्रीवास्तव ने आपसे विस्तृत बात की, प्रस्तु है उसका संपादित अंश।
सवाल: आप अपनी पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म बांदा जिले के पैगंबरपुर गांव में हुआ। हम तो गांव से आए और हमारे घर में अच्छी-ख़ासी खेती-बाड़ी थी। हमारे चाचाजी और पिताजी पढ़े लिखे लोग थे, उर्दू भी जानते थे। बचपन में हमें ‘रामचरित मानस’ का पाठ सुनने को मिला। नज़ीर अकबराबादी की कविताएं और लोकगीत गाते-सुनते थे, पर लिखित साहित्य का चश्का हमें हाईस्कूल में लगा। बांदा में कवि सम्मेलन होते थे जो मुझे अच्छा लगता था। इंटरमीडिएट तक जाते-जाते मेरा केदार जी के संपर्क हो गया और उन्होंने मुझे कविता क्या है? इसकी सही पहचान कराई। इंटर में मुझे कविता की मुख्यधारा समझ में आने लगी और बीए तक पहुंचते-पहुंचते हम छपने भी लगे थे। सबसे पहले ‘नई दुनिया’ जिसका संपादन शरद जोशी करते थे, में मेरी कविताओं का प्रकाशन शुरू हुआ।
सवाल: आपके लेखन की शुरूआत कब से हुई, कैसे ?
जवाब:काम छोड़कर कोट उतारकर आराम से मेरे पास बैठ जाते थे और साहित्यिक चर्चा वगैरह करते थे। प्रगतिशील कवियों में केदारनाथ प्रमुख स्तंभ थे। उन दिनों प्रकाशक नहीं मिला करते थे। केदारनाथ जी की पहली पुस्तक 60 वर्ष की आयु में छपी थी। यद्यपि केदारनाथ जी ‘हंस’ पत्रिका में छपते थे, वे बड़े कवि थे। फिर भी पुस्तकों को प्रकाशक बड़ी मुश्किल से मिलते थे। मेरी भी कविता संग्रह बहुत बाद में ‘पत्थर के बसंत’ नाम से छपी थी। मेरे लेखन की शुरूआत संभवतः 1952-53 से हुई थी। जब मैं हाईस्कूल का छात्र था। मुझे कवि सम्मेेलन सुनना अच्छा लगता था। मेरा मुख्य धारा में शामिल होने का श्रेय केदरनाथ जी को जाता है। उनके साथ रहकर मैंने कविता की मुख्यधारा को पहचाना। केदारनाथ जी पेशे से एक वकील थे, पर मैं जब उनके पास जाता था तो वे सारा 
सवाल: इस समस आपके बच्चे कहां पर कार्यरत हैं ?
जवाब: एक बच्चा मिनिस्ट्री आॅफ लाॅ एंड जटिस्ट दिल्ली में है और मेरी बेटी लखनऊ में भारतेंदु नाट्य अकादमी में कार्यरत है।
सवाल: आप साहित्य से जुड़े थे, तो कैसे अचानक रेडियो से जुड़ाव हो गया, जबकि मूलरूप से आप साहित्यकार हैं ?
जवाब: जब मैं इलाहाबाद आया तो यहां पहले में ईसीसी में था, उसके बाद केपी कॅालेज में था। उसी समय मैं यहां प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गया था। उस समय इलाहाबाद में सृजनात्मक उर्जा पर बहुत काम हो रहा था। उस समय प्रलेस में अश्क जी, अमृता राय, मार्कण्डेय जी तमाम बड़े लेखक गोष्ठियों में आते थे। इन सब के संपर्क में आकर मैं बदलने लगा और बाबा नागार्जुन ने कहा कि - तुम कविता में रेशम बुनते ही हो लेकिन इस समय गद्य का युग है, तुम गद्य लेखन करो। वहीं से मैं कहानी लेखन की ओर मुड़ गया और मेरी कहानियां छपने लगीं और मुझे कहानी पर भरोसा हो गया। धर्मवीर भारती जी ने मेरी कहानियां छापीं और साप्ताहिक हिन्दुस्तान व सारिका में कमलेश्वर जी ने मेरी कहानी छापी।
सवाल: कहानियां तो आपकी छप रहीं थीं, आप रेडियो से कैसे जुड़े ?
जवाब: एक दिन अचानक केशवचंद्र वर्मा जी ने कहा-तुम कहानी लिखते हो, मेरे लिए एक नाटक लिख दो। मैंने नाटक लिखा ‘खुलते पंख’ और रेडियो वालों को यह नाटक बहुत अच्छा लगा, इसके बाद रेडियो वाले मेरे पीछे पड़ गए। मधुर श्रीवास्तव जी से मेरे दोस्ताना संबंध थे, उन्होंने दबाव देकर मुझसे नाटक लिखवाया। मित्रता निभाते-निभाते मेरा रेडियो लेखन बहुत हो गया। यद्यपि मैंने रेडियो को कभी गंभीर लेखन के रूप में नहीं लिया, मेरे लिए साहित्य लिखना महत्वपूर्ण था और हो रेडियो नाट्य लेखन से मेरा नुकसान भी होता था, मेरी मौलिक रचनाओं से मेरा ध्यान हटता था। तब मधुर जी कहते थे कि यदि मौलिक नाटक लिखने का समय नहीं है तो तो तुम जो कहानियां पढ़ते हो उसमें हो अच्छी लगें उसी का नाट्य रूपांतरण कर दिया करो। इसी के चलते मैंने प्रेमचंद, शरतचंद्र, निराला आदि बड़े लेखकों के रेडियो एडाॅप्टेशन भी लिखे। इसके अलावा जब लोग पार्टी या अन्य जगहों पर मिल जाते थे तो कहते कि- मैंने आपका फलां नाटक सुना बहुत अच्छा था। यह सुनकर मुझे लगा कि इसके श्रोता हैं और यह भीा एक अंग है भले ही यह पुस्तक रूप में न छपे। चूंकि रेडियो वाले मेरा पिंड नहीं छोड़ रहे थे तो मुझे लगा कि अब मुझे इस काम में परफेक्शन लाना होगा और मैं उनके रिहर्सल में जाने लगा। मैं अपनी स्क्रिप्ट पर उनके डायलाॅग व आवाज़ पर ध्यान देने लगा। कहीं न कहीं नाटक के डायलाॅग का सेन्स मुझे रेडियो लेखन से पैदा हुआ यह भी मैं स्वीकार करता हूं।
सवाल: आज के काॅमेडी सीरियलों की तुलना में रेडियो के हास्य नाटकों को आप कहां पाते हैं ?
जवाब: यह लेखक पर निर्भर करता है। व्यंग्य और हास्य दो चीज़े हैं। हास्य यह है कि आप कुछ लिख के हंसा दीजिए, पर व्यंग्य एक यर्थाथ है। वह आपको हंसाता और यर्थाथ का अनुभव कराता है। वह काॅमेडी जो आपको हंसने पर मज़बूर करे और कहीं न कहीं सामाजिक और जीवन के यर्थाथ को आप तक पहुंचा दे, उसे मैं श्रेष्ठ काॅमेडी समझता हूं।
सवाल: वर्तमान में आज नाट्य लेखन व एकांकी विधा को कहां पाते हैं ?
जवाब: इस समय नाटक लेखन कम हो रहा है। एकांकी तो शायद ही कोई लिख रहा है। मैं रेडियो नहीं बल्कि लेखन की बात कर रहा हूं। नाटककार मेहनत करके नाटक लिखता है किंतु जब उसे मंच नहीं मिलता तो वह नाट्य लेखन बेकार हो जाता है और लेखक हतोत्साहित होता है, जबकि नाटक लेखन कठिन विधा है। इस समय मौलिक नाटक कम लिखे जा रहे हैं, बल्कि मंच पर कहानी का ही एडोप्टेशन चल रहा है। इसे मैं नाटक नहीं बल्कि कथा नाटक मानता हूं। कथा नाटक को मैं मौलिक नाटक नहीं मानता। मौलिक नाट्य लेखन में एक या दो नाम ही हैं, जिसमें असगर वजाहत बहुत ही सर्तक और तेज़ लेखक हैं, जिनके मौलिक नाटक मंचित हो रहे हैं।
सवाल: माता-पिता या परिवार से जुड़ा कोई संस्मरण या प्रेरणा जो आपके जीवन में काम आई हो ?
जवाब: मैं समझता हूं उनकी प्रेरणा अब भी काम कर रही है। मेरे घर में सादगी और एकता का माहौल था। मेरी माताजी थीं पर पालन-पोषण चाची करती थीं। मेरी चाची जी के प्रति ज्यादा लगाव था। मेरे चाचाजी मेरी पढ़ाई से लेकर मेरे एडमीशन तक का ख़्याल रखते थे। यह बात मेरे परिवार में अद्भुत थी जो आज भी मुझे प्रेरित करती है, जो अब नहीं दिखाई देता। श्रम करना और दूसरों का ध्यान देना ये संस्कार हमारे परिवार में थे जो मेरे जीवन में हमेशा काम आए।
सवाल: प्रगतिशील लेखक संघ के आप प्रांतीय महासचिव थे। आपका कार्यकाल कैसा रहा?
उससे जुड़ी कुछ यादें जो आप हमारे पाठकों संग बांटना चाहें ?
जवाब: हां, 1980 में वीरेंद्र यादव और मैं दोनों चुने गए थे। उस समय लखनऊ में चुनाव हुआ था। कैफ़ी आज़मी साहब उसमें आए थे। हमने हिन्दी और उर्दू को कभी अलग नहीं समझा। एक बार प्रगतिशील रंगमंच के कुछ नवयुवक हिन्दी-उर्दू को लेकर विवाद कर रहे थे। उस समय अक़ील रिज़वी साहब और मैंने मिलकर उन नवयुवकों को समझाया। कैफ़ी साहब से मेरे घरेलू संबंध थे। वे विद्वान थे। कैफ़ी साहब को संगठन की ज़्यादा चिंता होती थी। ये लोग कभी मुंबई से आते थे तो बातें होती थीं। जाफ़री साहब को तो मैं कवि मानता था, वे सूफ़ियों पर इतना बढ़िया लेक्चर देत थे कि उसे मैं कभी भूल ही नहीं सकता।
आईपीटीए रंगकर्म के लिए यह समूह बना जो प्रगतिशील थिएटर का एसोसिएशन था, तब कैफ़ी साहब और हंगल आने वाले थे, बलराम साहनी और शैलेंद्र वगैरह इसके सदस्य थे। उस समय ‘प्रजा इतिहास रचती है’ नाटक मेरे पास तैयार था, इसे आईपीटीए में छापा गया। ‘हम होंगे कामयाब’ वगैरह इसके गीत थे।
सवाल:  छात्र जीवन से ही आप बाबा नागार्जुन और केदारनाथ के संपर्क में रहे ?
जवाब: जब मैं इलाहाबाद में आ गया था तब नागार्जुन मेरे यहां आते थे और रुकते थे। नागार्जुन जी के साथ अमृत राय(जो प्रेमचंद के छोटे बेटे थे) के यहां हम लोग अम्मा (प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी) से मिलने जाते थे।
(गुफ्तगू के अक्तूब-दिसंबर 2016 अंक में प्रकाशित)
प्रभाशंकर शर्मा, अजित पुष्कल और विनय कुमार श्रीवास्तव