प्रभाशंकर शर्मा और अजित पुष्कल |
रेडियो के बहुचर्चित कार्यक्रम ‘हवा महल’ के हास्य की हास्य गुदगुदी व्यंग्य का चुटीलापन समेटे हुए साहित्य सृजन के साथ-साथ समाज के लिए कार्य करने वाले बुजुर्ग लेखक अजित पुष्कल 81 वर्ष की अवस्था में भी अपने कार्य के प्रति सजग दिखाई देते हैं, और अपने इसी सक्रियता के कारण अपनी अवस्था के 20 वर्ष कम मालूम पड़ते हैं। आप 1980 में प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव रहे हैं। आपके द्वारा रचित ‘जनविजय’ नामक नाटक का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है। अजीत पुष्कल के चार दर्जन से अधिक नाटकों का प्रसारण रेडियो के कार्यक्रम ‘हवा महल’ में हो चुका है। कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक विधाओं में आपने लेखन कार्य किया है। बुंदेलखंड ग्रामंचल पर आधारित आपके चार उपन्यास प्रकाशित हैं। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख ‘पत्थर का बसंत’, नई इमारत, नरकुंड की मछली,, जानवर और आदमी, चेहरे की तलाश, प्रज्ञा इतिहास रचती है, भारतेंदु चरित्र, जनविजय, घोड़ा घास नहीं खाता, जल बिना जियत पियासे आदि हैं। आप के रचित नाटकों का मंचन देश के विभिन्न शहरों में होता रहता है। श्रेष्ठ नाट्य लेखन के लिए आपको उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से एवार्ड भी मिल चुका है। ‘गुफ्तगू’ के उपसंपादक प्रभाशंकर शर्मा और डाॅ. विनय श्रीवास्तव ने आपसे विस्तृत बात की, प्रस्तु है उसका संपादित अंश।
सवाल: आप अपनी पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म बांदा जिले के पैगंबरपुर गांव में हुआ। हम तो गांव से आए और हमारे घर में अच्छी-ख़ासी खेती-बाड़ी थी। हमारे चाचाजी और पिताजी पढ़े लिखे लोग थे, उर्दू भी जानते थे। बचपन में हमें ‘रामचरित मानस’ का पाठ सुनने को मिला। नज़ीर अकबराबादी की कविताएं और लोकगीत गाते-सुनते थे, पर लिखित साहित्य का चश्का हमें हाईस्कूल में लगा। बांदा में कवि सम्मेलन होते थे जो मुझे अच्छा लगता था। इंटरमीडिएट तक जाते-जाते मेरा केदार जी के संपर्क हो गया और उन्होंने मुझे कविता क्या है? इसकी सही पहचान कराई। इंटर में मुझे कविता की मुख्यधारा समझ में आने लगी और बीए तक पहुंचते-पहुंचते हम छपने भी लगे थे। सबसे पहले ‘नई दुनिया’ जिसका संपादन शरद जोशी करते थे, में मेरी कविताओं का प्रकाशन शुरू हुआ।
सवाल: आपके लेखन की शुरूआत कब से हुई, कैसे ?
जवाब:काम छोड़कर कोट उतारकर आराम से मेरे पास बैठ जाते थे और साहित्यिक चर्चा वगैरह करते थे। प्रगतिशील कवियों में केदारनाथ प्रमुख स्तंभ थे। उन दिनों प्रकाशक नहीं मिला करते थे। केदारनाथ जी की पहली पुस्तक 60 वर्ष की आयु में छपी थी। यद्यपि केदारनाथ जी ‘हंस’ पत्रिका में छपते थे, वे बड़े कवि थे। फिर भी पुस्तकों को प्रकाशक बड़ी मुश्किल से मिलते थे। मेरी भी कविता संग्रह बहुत बाद में ‘पत्थर के बसंत’ नाम से छपी थी। मेरे लेखन की शुरूआत संभवतः 1952-53 से हुई थी। जब मैं हाईस्कूल का छात्र था। मुझे कवि सम्मेेलन सुनना अच्छा लगता था। मेरा मुख्य धारा में शामिल होने का श्रेय केदरनाथ जी को जाता है। उनके साथ रहकर मैंने कविता की मुख्यधारा को पहचाना। केदारनाथ जी पेशे से एक वकील थे, पर मैं जब उनके पास जाता था तो वे सारा
सवाल: इस समस आपके बच्चे कहां पर कार्यरत हैं ?
जवाब: एक बच्चा मिनिस्ट्री आॅफ लाॅ एंड जटिस्ट दिल्ली में है और मेरी बेटी लखनऊ में भारतेंदु नाट्य अकादमी में कार्यरत है।
सवाल: आप साहित्य से जुड़े थे, तो कैसे अचानक रेडियो से जुड़ाव हो गया, जबकि मूलरूप से आप साहित्यकार हैं ?
जवाब: जब मैं इलाहाबाद आया तो यहां पहले में ईसीसी में था, उसके बाद केपी कॅालेज में था। उसी समय मैं यहां प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गया था। उस समय इलाहाबाद में सृजनात्मक उर्जा पर बहुत काम हो रहा था। उस समय प्रलेस में अश्क जी, अमृता राय, मार्कण्डेय जी तमाम बड़े लेखक गोष्ठियों में आते थे। इन सब के संपर्क में आकर मैं बदलने लगा और बाबा नागार्जुन ने कहा कि - तुम कविता में रेशम बुनते ही हो लेकिन इस समय गद्य का युग है, तुम गद्य लेखन करो। वहीं से मैं कहानी लेखन की ओर मुड़ गया और मेरी कहानियां छपने लगीं और मुझे कहानी पर भरोसा हो गया। धर्मवीर भारती जी ने मेरी कहानियां छापीं और साप्ताहिक हिन्दुस्तान व सारिका में कमलेश्वर जी ने मेरी कहानी छापी।
सवाल: कहानियां तो आपकी छप रहीं थीं, आप रेडियो से कैसे जुड़े ?
जवाब: एक दिन अचानक केशवचंद्र वर्मा जी ने कहा-तुम कहानी लिखते हो, मेरे लिए एक नाटक लिख दो। मैंने नाटक लिखा ‘खुलते पंख’ और रेडियो वालों को यह नाटक बहुत अच्छा लगा, इसके बाद रेडियो वाले मेरे पीछे पड़ गए। मधुर श्रीवास्तव जी से मेरे दोस्ताना संबंध थे, उन्होंने दबाव देकर मुझसे नाटक लिखवाया। मित्रता निभाते-निभाते मेरा रेडियो लेखन बहुत हो गया। यद्यपि मैंने रेडियो को कभी गंभीर लेखन के रूप में नहीं लिया, मेरे लिए साहित्य लिखना महत्वपूर्ण था और हो रेडियो नाट्य लेखन से मेरा नुकसान भी होता था, मेरी मौलिक रचनाओं से मेरा ध्यान हटता था। तब मधुर जी कहते थे कि यदि मौलिक नाटक लिखने का समय नहीं है तो तो तुम जो कहानियां पढ़ते हो उसमें हो अच्छी लगें उसी का नाट्य रूपांतरण कर दिया करो। इसी के चलते मैंने प्रेमचंद, शरतचंद्र, निराला आदि बड़े लेखकों के रेडियो एडाॅप्टेशन भी लिखे। इसके अलावा जब लोग पार्टी या अन्य जगहों पर मिल जाते थे तो कहते कि- मैंने आपका फलां नाटक सुना बहुत अच्छा था। यह सुनकर मुझे लगा कि इसके श्रोता हैं और यह भीा एक अंग है भले ही यह पुस्तक रूप में न छपे। चूंकि रेडियो वाले मेरा पिंड नहीं छोड़ रहे थे तो मुझे लगा कि अब मुझे इस काम में परफेक्शन लाना होगा और मैं उनके रिहर्सल में जाने लगा। मैं अपनी स्क्रिप्ट पर उनके डायलाॅग व आवाज़ पर ध्यान देने लगा। कहीं न कहीं नाटक के डायलाॅग का सेन्स मुझे रेडियो लेखन से पैदा हुआ यह भी मैं स्वीकार करता हूं।
सवाल: आज के काॅमेडी सीरियलों की तुलना में रेडियो के हास्य नाटकों को आप कहां पाते हैं ?
जवाब: यह लेखक पर निर्भर करता है। व्यंग्य और हास्य दो चीज़े हैं। हास्य यह है कि आप कुछ लिख के हंसा दीजिए, पर व्यंग्य एक यर्थाथ है। वह आपको हंसाता और यर्थाथ का अनुभव कराता है। वह काॅमेडी जो आपको हंसने पर मज़बूर करे और कहीं न कहीं सामाजिक और जीवन के यर्थाथ को आप तक पहुंचा दे, उसे मैं श्रेष्ठ काॅमेडी समझता हूं।
सवाल: वर्तमान में आज नाट्य लेखन व एकांकी विधा को कहां पाते हैं ?
जवाब: इस समय नाटक लेखन कम हो रहा है। एकांकी तो शायद ही कोई लिख रहा है। मैं रेडियो नहीं बल्कि लेखन की बात कर रहा हूं। नाटककार मेहनत करके नाटक लिखता है किंतु जब उसे मंच नहीं मिलता तो वह नाट्य लेखन बेकार हो जाता है और लेखक हतोत्साहित होता है, जबकि नाटक लेखन कठिन विधा है। इस समय मौलिक नाटक कम लिखे जा रहे हैं, बल्कि मंच पर कहानी का ही एडोप्टेशन चल रहा है। इसे मैं नाटक नहीं बल्कि कथा नाटक मानता हूं। कथा नाटक को मैं मौलिक नाटक नहीं मानता। मौलिक नाट्य लेखन में एक या दो नाम ही हैं, जिसमें असगर वजाहत बहुत ही सर्तक और तेज़ लेखक हैं, जिनके मौलिक नाटक मंचित हो रहे हैं।
सवाल: माता-पिता या परिवार से जुड़ा कोई संस्मरण या प्रेरणा जो आपके जीवन में काम आई हो ?
जवाब: मैं समझता हूं उनकी प्रेरणा अब भी काम कर रही है। मेरे घर में सादगी और एकता का माहौल था। मेरी माताजी थीं पर पालन-पोषण चाची करती थीं। मेरी चाची जी के प्रति ज्यादा लगाव था। मेरे चाचाजी मेरी पढ़ाई से लेकर मेरे एडमीशन तक का ख़्याल रखते थे। यह बात मेरे परिवार में अद्भुत थी जो आज भी मुझे प्रेरित करती है, जो अब नहीं दिखाई देता। श्रम करना और दूसरों का ध्यान देना ये संस्कार हमारे परिवार में थे जो मेरे जीवन में हमेशा काम आए।
सवाल: प्रगतिशील लेखक संघ के आप प्रांतीय महासचिव थे। आपका कार्यकाल कैसा रहा?
उससे जुड़ी कुछ यादें जो आप हमारे पाठकों संग बांटना चाहें ?
जवाब: हां, 1980 में वीरेंद्र यादव और मैं दोनों चुने गए थे। उस समय लखनऊ में चुनाव हुआ था। कैफ़ी आज़मी साहब उसमें आए थे। हमने हिन्दी और उर्दू को कभी अलग नहीं समझा। एक बार प्रगतिशील रंगमंच के कुछ नवयुवक हिन्दी-उर्दू को लेकर विवाद कर रहे थे। उस समय अक़ील रिज़वी साहब और मैंने मिलकर उन नवयुवकों को समझाया। कैफ़ी साहब से मेरे घरेलू संबंध थे। वे विद्वान थे। कैफ़ी साहब को संगठन की ज़्यादा चिंता होती थी। ये लोग कभी मुंबई से आते थे तो बातें होती थीं। जाफ़री साहब को तो मैं कवि मानता था, वे सूफ़ियों पर इतना बढ़िया लेक्चर देत थे कि उसे मैं कभी भूल ही नहीं सकता।
आईपीटीए रंगकर्म के लिए यह समूह बना जो प्रगतिशील थिएटर का एसोसिएशन था, तब कैफ़ी साहब और हंगल आने वाले थे, बलराम साहनी और शैलेंद्र वगैरह इसके सदस्य थे। उस समय ‘प्रजा इतिहास रचती है’ नाटक मेरे पास तैयार था, इसे आईपीटीए में छापा गया। ‘हम होंगे कामयाब’ वगैरह इसके गीत थे।
सवाल: छात्र जीवन से ही आप बाबा नागार्जुन और केदारनाथ के संपर्क में रहे ?
जवाब: जब मैं इलाहाबाद में आ गया था तब नागार्जुन मेरे यहां आते थे और रुकते थे। नागार्जुन जी के साथ अमृत राय(जो प्रेमचंद के छोटे बेटे थे) के यहां हम लोग अम्मा (प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी) से मिलने जाते थे।
(गुफ्तगू के अक्तूब-दिसंबर 2016 अंक में प्रकाशित)
प्रभाशंकर शर्मा, अजित पुष्कल और विनय कुमार श्रीवास्तव |
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