डाॅ. जगन्नाथ पाठक |
कहा जाए तो विद्वान, समझा जाए तो बेहतरीन अनुवादक और पढ़ा जाए तो साहित्यकार, डाॅ. जगन्नाथ पाठक ऐसे साहित्यकार हैं, जो 82 वर्ष की उम्र में भी लेखन से जुड़े हुए हैं। संस्कृत में किए गए आपके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सन 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने आपको सम्मानित किया था। आपने संस्कृत की उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्याल से प्राप्त की और फिर पीएचडी किया। हिन्दी, संस्कृत के अलावा आपको उर्दू, अंग्रेेज़ी, बांग्ला, मैथली और पर्सियन भाषाओं का ज्ञान है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य करते हुए गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। संस्कृत भाषा में प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों में ‘कापिशायनी (पद्य संग्रह), मृद्विका, पिपासा (संस्कृत ग़ज़ल गीतियों का संग्रह), विच्छित्ति वातायनी (दो हजार मुक्तक प्रार्याओं का संग्रह), आर्यासस्राराममृ और विकीर्णपत्र लेखम् (लघु नाटिका) आदि हैं। इनके अतिरिक्त आपने कुछ संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया है। जयशंकर प्रसाद की कृतियांः कामायनी और आंसू का संस्कृत पद्य में और ग़ालिब के दीवान का संस्कृत पद्य में अनुवाद ‘ग़ालिब काव्यम्’ नाम से किया है।
संस्कृत साहित्य में आपके योगदान के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत होने के साथ आपको कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। जिनमें प्रमुख रूप से ‘कापिशायनी’ के लिए साहित्य अकादमी नई दिल्ली और उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी का विशिष्ट पुरस्कार, ‘मृद्विका’ पर वाचस्पति और पिपासा पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी का विशिष्ट पुरस्कार के अतिरिक्त कई अन्य सम्मान-पुरस्कार आपको प्राप्त हुए। गुफ्तगू के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और डाॅ. विनय श्रीवास्तव ने आपसे मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की, प्रस्तुत है उसका संपादित अंश।
सवाल: आप अपने पारिवारिक जीवन के शुरूआती दिनों के बारे में बताइए?
जवाब: मेरा जन्म 1934 में सासाराम, बिहार में हुआ था। मैंने अपने दादा, पिता, माता सबको देखा, सभी सीधे-सादे छल-कपट रहित लोग थे। मेरी आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में ही हुई, जहां रटन्त विद्या थी, यही कमी थी। लेकिन मैं जिज्ञासु छात्र था। पं. रामरूप पाठक जी जो साहित्य अकादमी से सम्मानित थे, उन्होंने मुझमें संस्कृत में लिखने व कविता करने की प्रवृत्ति जागृत की और मैं लिखने लगा, उस समय मेरी आयु 15-18 वर्ष की रही होगी। 19 वर्ष की अवस्था में बनारस आ गया और वहां से मध्यमा और शास्त्री की परीक्षा पास की।
सवाल: आप मूलरूप से संस्कृत के विद्वान थे, उर्दू के प्रति आपका लगाव कैसे हुआ?
जवाब: मैं विद्वान तो नहीं विद्याथी रहा हूं। सासाराम में हिन्दुओं के अतिरिक्त मुस्लिम भी कवि और शायर हैं, और साधारण से लगने वाले एक शायर मानुष सहसरावीं (अल्ताफ़ हुसैन मानुष सहसरावीं) से मिला, उन्होंने मुझे उर्दू सिखाया। वे घड़ी बनाकर और बीड़ी बनाकर अपनी जीविका चलाते थे।
सवाल: आपके मन में उर्दू सीखने की इच्छा क्या हुई?
जवाब: कुछ मुसलमान मेरे साथी थे जो उर्दू पढ़ लेते थे, तो मुझे लगा कि मैं उर्दू क्यों नहीं पढ़ सकता। मुझे उर्दू के शेर अच्छे लगते थे। मैंने कुछ सिनेमा भी देखा था। हिन्दी सिनेमा में उर्दू के सरल वाक्य और कहन के ढंग ने मुझे प्रभावित किया। मैं मानुष साहब के संपर्क में आया, उनकी 2-3 पुस्तकें भी छपी हैं, उन पर लोगों ने पीएचडी भी की है। कुल मिलाकर मानुष साहब के चलते मेरा उर्दू में लगाव बढ़ा और वही मेरे प्रेरक रहे।
सवाल: उर्दू और संस्कृत में किसी स्तर पर कोई समानता है?
जवाब: मूल तो दोनों का एक ही है। हिन्दी-उर्दू की लिपि भिन्न हो गई।
सवाल: आपने संस्कृत में आर्या छंद पर विशेष रूप से कार्य किया है, इसके विषय में जानकारी दें ?
जवाब: मुक्तक काव्य रचना आर्या छंद में होती है, इसमें प्रत्येक छंद का भाव अलग होता है, जैसे उर्दू के एक शेर में पूरी बात कही जा सकती है, उसी तरह आर्या में थोड़े से शब्दों में पूरी बात कही जा सकती है। आर्या शप्तशती बिहारी सतसई के पहले लिखी गई है। इस छंद में नफ़ासत भी है और कहने की क्षमता भी। यह मात्रिक छंद इसके पहले और तीसरे चरण में 12-12 मात्राएं और दूसरे तथा चैथे चरण में क्रमशः 18-15 मात्राएं होती हैं।
सवाल: आप अपनी आवाज़ में एक आर्या सुनाएं ?
जवाब: खर्जूर यं ग्रदध्रं, स्थितमद्राक्षं निदा मध्याह्ने
हन्त तमेव रसालद्रुमेदद्य पश्यामि कृतनीड्म।
सवाल: उर्दू के नामचीन शायर ग़ालिब के दीवन का आपने संस्कृत में ‘ग़ालिब काव्यम्’ नाम से अनुवाद किया, यह योजना आपके दिमाग़ में कैसे आई ?
जवाब: ग़ालिब जैसे शायर को जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो तब मुझे लगा कि ग़ालिब को समझना मेरे बस की बात नहीं है। फिर मैंने यह घृष्टता की और ग़ालिब के दीवान को अनुवाद करने की कोशिश की। ग़ालिब ह्दय से मुझे खींचता है, उनका एक शेर -
देखना तकदीर की लज़्ज़त जो उसने कहा,
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।
इस शेर को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि मैं भी कह सकता हूं। बनारस में पढ़ते हुए मेरे मन में लगा कि क्यों न किसी मौलवी साहब से मैं फारसी पढ़ूं, ग़ालिब को और समझ सकूं। इसी विचार के साथ मैं मौलवी साहब से पांच रुपये प्रतिमाह देकर फारसी पढ़ने लगा। यह बात 1960 से 1970 के बीच की है। अनुवाद के सिलसिले में मैं अलीगढ़ गया और वहां पर परमानंद शास्त्री जी से मिला तो उन्होंने बताया कि मेरे मन में यह बात आई, लेकिन अभी तक तय तक नहीं किया था। तो मुझे लगा कि क्यों न मैं यह काम करूं। ग़ालिब के कुछ संस्करण हिन्दी में छपे हैं, उसे आधार बनाकर मैंने काम शुरू किया, मुझे लगा कि कुछ सफलता मिल रही है। अनुवाद एक सतत प्रक्रिया है और मैंने कोशिश की।
सवाल: हिन्दी के तमाम मूर्धन्य साहित्यकारों जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, वासुदेव शरण के सपंर्क में आप रहे, उनके साथ आपका क्या अनुभव रहा ?
जवाब: जब मैं शास्त्री का विद्यार्थी था तब उनके छोटे भाई ने पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से मुझे मिलवाया। पं. जी हंसे और मुझसे बोले, मैं भी पहले संस्कृत में लिखता था, बाद में हिन्दी में लिखने लगा क्योंकि हिन्दी जानन वाले ज़्यादा लोग हैं। संस्कृत में लिखने वाला जहां का तहां रह जाता है। जैसे रात में बंधी नाव को खेने वाला। मेरी भाषा पर भी पं. जी का प्रभाव पड़ा। डाॅ. वासुदेव शरण जी के साथ मैं ज्याद बैठता था, वे 60 की आयु तक रहे संसार में , लेकिन बहुत ज़्यादा काम कर गए। उनसे मैंने ग्रहण किया। उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘तुम भोजपुरी पर काम करो और शब्दों की व्युपत्ति की जानकारी रखो।’
सवाल: वर्तमान समय में संस्कृत को लेकर एक वर्ग विशेष की बात होती है, इस पर आपकी क्या राय है ?
जवाब: संकीर्ण दृष्टि हर जगह है। लोग संस्कृत या उर्दू को वर्ग विशेष की भाषा मानते हैं। बाक़ी तो संस्कृत में दाराशिकोह ने भी लिखा है, ऐसा नहीं है कि संस्कृत सिर्फ़ ब्राह्मणों की भाषा रही है। च्रंदभान ब्राह्मण ने फारसी में भी रचना की थी, कायस्थों व जैन लोगों ने भी संस्कृत में लिखा है।
सवाल: साहित्यकारों की भीड़ बढ़ रही है और पाठक कम होते जा रहे हैं, इसकी आप क्या वजह मानते हैं ?
जवाब: जीवन में व्यस्तता की वजह है से साहित्य पढ़ने वाले कम हो गए हैं। पठनीयता की कमी हो रही है, किन्तु मैंने देखा है बिहार में पढ़ने वाले ज़्यादा हैं, वहां पुस्तकों की बिक्री ज्यादा होती है। अपनी-अपनी भाषाओं में लोग पढ़ रहे है। मेरा ख़्याल है कि अब ‘गुफ्तगू’ को पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ी है।
सवाल: ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के विषय में आपकी क्या राय है ? इसमें हम और क्या सुधार कर सकते हैं ?
जवाब: ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के विषय में बड़ी अच्छी धारणा है। इसके बारे में मेरी पुष्कल जी से बात होती है, उन्होंने कहा कि यह इलाहाबाद के अनुकूल है। ‘गुुफ्तगू’ पत्रिका में उर्दू के शेर ज़्यादा हैं, कुछ और भी कविताएं जोड़ी जाएं और हिन्दी के दोहे भी छापे जाएं।
सवाल: कबीरदास जी की भाषा तो खिचड़ी है, तो इन्हें हिन्दी कवि कैसे मानते हैं ?
जवाब: तो किसका कवि मानें ? मीराबाई तो राजस्थान की थीं, किन्तु हिन्दी की ही मानी जाती हैं। तुलसी अवधी के थे, सूर बृज के थे, क्या से भाषाएं हिन्दी नहीं हैं? हिन्दी बृहद रूप में हैं क्षेत्रीय भाषाएं, चाहे जो भी रही हों।
सवाल: उर्दू अदब में उस्ताद-शार्गिद की परंपरा है, ऐसा हिन्दी जगत में नहीं है क्यों?
जवाब: कोई प्रमाण तो नहीं मिलता, किन्तु हिन्दी में भी यह परंपरा रही है। लोग मार्गदर्शन करते थे। बाद में लोगों ने समझा हम ही सबकुछ हैं और परंपरा कम हो गई। मैंने संस्कृत में लिखने का अभ्यास किया है, लेकिन मुझे कोेई कवि कहता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता, क्योंकि कवि होना बड़ी बात है। मैं सिर्फ़ विनम्रता के नाते यह बात नहीं कर रहा हूं। सचमुच कवि होना कठिन है। आजकल तो बहुत से लोग ‘बड़े’ कवि हो गए हैं।
सवाल: आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: आधुनिक साहित्य की पत्रिका ‘दृक’ है, इसमें हिन्दी, अंग्रेज़ी और संस्कृत तीनों भाषाओं में लेखते हैं। यह काम इलाहाबाद में हो रहा है। इससे प्रेरणा लेकर और काम किए जाने की आवश्यकता है।
सवाल: आपके जीवन का कोई आदर्श या मार्गदर्शक शेर ?
जवाब: हां, जौक़ साहब का एक शेर है-
है उसकी सादगी भी तो कुछ इक फ़बन के साथ,
सीधी सी बात भी है तो इक बाकपन के साथ।
बाएं से: रविनंदन सिंह, अजीत पुष्कल, डाॅ. जगन्नाथ पाठक और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी |
(गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2016 अंक में प्रकाशित)
नोट: 08 मार्च 2017 को डाॅ. जगन्नाथ पाठका निधन हो गया।
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