मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

रोचकता भरी पत्रिका है गुफ्तगू-अजामिल

 
गुफ्तगू के नये अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद।गुफ्तगू बेहद रोचक पत्रिका है, यही वजह है कि नया अंक आते ही अगले अंक का इंतजार करने लगता हूं। इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री इतनी शानदार होती है कि एक ही दिन में पूरा पढ़ जाता हूं। लेकिन इसके ले-आउट को और बेहतर करने की जरूरत है, रचना के आधार पर बेहतरीन पत्रिका है। ये बातें वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अजामिल व्यास ने कही।वे 15 दिसंबर को महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्याल के परिसर में आयोजित विमोचन समारोह में बोल बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। अध्यक्षता कर रहे सागर होशियारपुरी ने कहा कि गुफ्तगू की शुरूआत इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने बेहद संघर्ष के साथ किया था, आज यह पत्रिका अपने पैरों पर खड़ी हो गई है।हमारे लिए बेहद प्रसन्नता का विषय है कि इलाहाबाद से इतनी अच्छी पत्रिका निकल रही है। विशिष्ट अतिथि नंदल हितैषी ने कहा कि इस युग में साहित्यिक पत्रिका निकालना घर फूंककर तमाशा देखने जैसा है, ऐसे में दस वर्षों तक पत्रिका का निकलाना बड़ी बात है। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।इनके अलावा डॉ.शाहनवाज़ आलम, चांद जाफरपुरी,तलब जौनपुरी, शाहिद सफ़र, रजनीश प्रीतम, पीयूष मिश्र, लोकेश श्रीवास्तव, शादमा जैदी शाद, कहकशां,विपिन दिलकश,शाहीन खुश्बू, भानु प्रकाश पाठक, विनय त्रिपाठी, रोहित त्रिपाठी, विमल वर्मा,शैलेंद्र जय और मंजूर बाकराबादी ने कलाम पेश किया। अंत में संजय सागर ने सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया। दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया।
कहकशां-
खुश्क पत्तों के बहारों में नज़र आती है,
धूप में छांव में तारों में नज़र आती है।
सच में कहती हूं सरे बज़्म मेरी बात सुनो,
मां मेरी मुझको हजारो में नज़र आती है।

अजय कुमार -
मेरी नज़रों में उसने क्या देख लिया ऐसा,
देख मुझे क्यों उसकी नज़रें झुक-झुक जातीं हैं।

अनुराग अनुभव -
सौंप दूं दिल की सब धड़कनें मैं तुम्हें
या अपरिमित खुशी का मैं विस्तार दूं।


रोहित त्रिपाठी रागेश्वर-
तुम्हारे प्रेम की खातिर मैं अपनी जान लिख दूंगा,
तुम्हें मैंने दिया सबकुछ मैं ये फरमान लिख दूंगा;
शिवपूजन सिंह -
जब भी उल्फ़त में हम उनका नाम लेते हैं।
बेवजह का इल्जाम हम अपने नाम लेते हैं।

प्रभाशंकर शर्मा -
तट पर अपना ठौर नहीं है
आगे मंजिल और नहीं है।


चांद जाफरपुरी-
नफरत के तीर जिसने उतारा हर इक घड़ी,
दिल ने मेरे उसी को पुकारा हर इक घड़ी।


लोकेश श्रीवास्तव-
एक शाम यूं भी थी गुजरी, दिगंत तक चांदनी थी बिखरी।

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
यूं तो कहते हैं हम तुझे सबकुछ
बस कभी अजनबी नहीं कहते।

शादमा ज़ैदी शाद-
मुफलिसी का जहां पर ठिकाना हुआ, अक़रबा का वहां दूर जाना हुआ।
तंगदस्ती ने ऐसा सितम कर दिया,ख़्वाब जैसे मेरा मुस्कुराना हुआ।
शाहिद सफ़र-
चमकती धूप में तारे निकाल देता है,
तू अपने होने का क्या-क्या मिसाल देता है।
 शैलेंद्र जय-
त्योरियां चढ़ाना भी फैशन हो गया
कितना यांत्रिक मानव जीवन हो गया।

मंजूर बाकराबादी-
मुसीबत में कभी सब्र का दामन न छोड़िये,
हिम्मत से बढ़कर शेर का पंजा मरोड़िये।

विपिन दिलकश-
सबाहत है मलामत है लबों पर है तबस्सुम भी,
नज़ाक़त है अदाओं में लचक में है तलातुम भी।
 शाहीन खुश्बू-
हाले दिल कभी न तुमको सुनाएंगे,
भूल से अब न तेरे कूचे में आएंगे।

भानुप्रकाश पाठक-
तुम्हें देखा हूं जबसे मुझे चैन नहीं आता है,
भटकता ये हमारा दिल तुम्हारे पास जाता है।
 जयकृष्ण राय तुषार -
सभी सरसब्ज़ मौसम के नये सपने दिखाते हैं।
हमें मालूम है कि वो किस तरह वादे निभाते हैं।

सागर होशियारपुरी -
दुनिया ने वो घोले हैं हर इक दिल में,
हंसता भी है इंसान तो हंसता नहीं लगता।


अजामिल व्यास -
चिर परिचित वर्तमान धधकता आग का जंगल,
चलो पुराने संदर्भ ही उलीचें।


शनिवार, 7 दिसंबर 2013

93 साल के नौजवान कॉमरेड ज़ियाउल हक़


                                                                                          
    
                                                   
                                                                      इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
ज़ियाउल हक़ इलाहाबाद के सबसे अधिक बुजुर्ग लोगों में है, जो उम्र की इस दहलीज पर भी काफ़ी सक्रिय हैं। 28 सितंबर 1920 को इलाहाबाद के दोंदीपुरी मुहल्ले में जन्मे श्री ज़ियाउल हक़ के पिता का नाम सैयद जमील हक़ है। तीन भाई-तीन बहनों में आप सबसे बड़े हैं। प्राइमरी तक की शिक्षा घर में ही हासिल की। गर्वमेंट कालेज में कक्षा पांच से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई पूरी की। 1940 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़ गए। इन्हें पार्टी के अंडरग्राउंड काम के लिए नामित किया। इस काम को अंज़ाम देने के लिए इन्होंने बिना किसी को बताये ही अपना घर छोड़ दिया। तत्कालीन पोलित ब्यूरो सदस्य आरडी भारद्वाज के साथ पार्टी का काम करने के लिए इन्हें लगाया, घर छोड़ते ही इनके परिवार में कोहराम मच गया। इनके वालिद ने अपने सू़त्रों से बहुत खोज की इनकी, घर के बड़े लड़के के ही अचनाक लापता हो जाने से परिवार काफी परेशान हुआ। आप श्री भारद्वाज के लिए आने वाले डाक और उनके निदेर्शों को उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में पहुंचाने का काम करते रहे। इनके पिता ने इनके रहने के ठिकाने का पता लगा लिया और कम्युनिष्ट पार्टी के उस समय के बड़े नेता अजय घोष पर दबाव बनाया कि उनके लड़के को घर के लिए रवाना कर दिया जाए। छह महीने अंडरग्राउंड रहने के बाद वे घर लौट आए। लेकिन अंडरग्राउंड रहने के कारण इनका नाम सीआईडी में आ गया, जिसकी वजह से इनका घर में रहना मुमकिन नहीं था। इसी कारण फ़ैज़ाबाद में रहने वाले अपने मामू के यहां चले गए, फिर कुछ दिनों बाद इलाहाबाद लौटे और फिर एलएलबी भी किया। सन 1941-42 में देश में राजीनतिक बदलाव आया। कम्युनिष्ट पार्टी को कानूनी मान्यता भी मिल गई। 1942 में कम्युनिष्ट पार्टी का जीरो रोड पर कार्यालय खुला, कार्यालय खुलते ही एक बार फिर इन्होंने घर छोड़ दिया और पार्टी कार्यालय में ही रहने लगे। फिर पार्टी का कार्यालय जानसेनगंज में खुला, जो आज भी कायम है, यहीं आप रहने लगे, इस दौरान इन्हें पार्टी की तरफ से 15 रुपए प्रति माह वेतन मिलने लगा। 1947 तक इसी दफ्तर में काम करते रहे। 1948 में आप तीन महीने नैनी जेल में रहे, कांग्रेस ने कम्युनिष्ट पार्टी पर यह इल्जाम लगाते हुए इनके साथ अन्य लोगों को जेल भिजवा दिया, ये लोग कांग्रेस की हुकुमत नहीं बनने दे रहे हैं। विभिन्न मामलों केा मिलाकर श्री हक़ कुल तीन बार नैनी जेल गए। इसी दौरान बीमारी के चलते इनके छोटे भाई का इंतिकाल हो गया। इनके पिता पर बहुत दबाव पड़ने लगा कि वे परिवार के साथ पाकिस्तान चले जाएं, पिता के बहुत से दोस्त अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए थे। ऐसे में पिता परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए, लेकिन श्री ज़ियाउल हक़ यहीं रहे। आज भी आपकी तीन बहनें और एक भाई अपने परिवार के साथ पाकिस्तान में रहते हैं।
1952 में आम चुनाव हुआ, कांग्रेस की सरकार बनी। कम्युनिष्ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही। पार्टी का उर्दू ‘हयात’ शुरू हुआ तो आपको दिल्ली भेज दिया गया। फिर अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘न्यू ऐज़’ के लिए आपको विशेष संवाददाता बनाया गया। इस दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू का प्रेस कांफ्रेंस भी कवर करते रहे। 1955 में वर्ल्ड यूथ फेस्टेविल का आयोजन ‘पौलैंड’ में किया गया, आप वहां कवरेज करने गए। वहीं से पूरा इंडियन डेलीगेशन मास्को गया। उस समय वियतनाम की लड़ाई जारी थी। कम्युनिष्ट पार्टी के सचिव अजय घोष उन दिनों मास्को में थे, उन्होंने आपको वियतनाम भेज दिया। तीन महीने वियतनाम में रहे। फिर सोवियत संघ और जर्मनी में भी ख़बरें कवरेज करने गए। 1960 में सोवियत संघ और अमेरिका के राष्टृपति की बैठक पेरिस में होनी थी, इसको कवर करने के लिए आपको भेजा गया। बैठक से ठीक पहले सोवियत संघ के राष्टृपति ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि आपने जासूसी करने के लिए मेरे देश में प्लेन भेजा था, जिसे हमने मार गिराया है, इसके लिए आपको माफी मांगनी पडे़गी। अमेरिकी राष्टृपति ने माफी मांगने से इनकार कर दिया, जिसके वजह से बैठक नहीं हुई। फिर रूस में लेनिन की सौवां सालगिरह पर वहां गए। रसियन ऐम्बेसी ने भारत के तीन सीनियर पत्रकारों को इस मौके पर बुलाया था। इन लोगों में निखिल चतुर्वेदी और ए. राघवन के साथ जियाउल हक़ भी थे। 1978 में अंतिम बार रूस गये।1963-64 में क्यूबा में आजादी के पांचवीं वर्षगांठ पर भी आपको बुलाया गया। फिर कम्युनिष्ट पार्टी में फूट गई। आप भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी में रहे।
जनवरी 1965 में आपने विवाह कर लिया और इसके कुछ ही दिनों फिर से इलाहाबाद लौट आए। इस दौरान बीच-बीच में अपने भाई-बहनों और उनके परिवार से मिलने पाकिस्तान भी जाते रहे। अंतिम बार 2005 में भाई के बेटे की शादी में पाकिस्तान गए थे। आपके दो बेटे सोहेल अकबर और समीर अकबर हैं। सोहेल अबकर जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी दिल्ली में मास कम्युनिकेशन के अध्यापक हैं। समीर अकबर वाशिंगटन, अमेरिका में एक बैंक में सर्विस करते हैं।
गुफ्तगू के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

अपनी बातों को बता देने के खुले बहाव में रमेश नाचीज़


रमेश नाचीज़ का ग़ज़ल-संग्रह अनुभव के हवाले से हाथों में है. पन्ने खुले हैं. प्रस्तुतियों के शब्दों का स्वर ऊँचा है. मेरे पाठक से संवाद बनाने को आतुर ! और, मेरे पाठक को सुनने सुनने की ऑप्शन है ही नहीं. उसे इन्हें सुनना ही है. बिना सुने रह नहीं सकता. पाठकीय स्वभाव नहीं मानवीय संवेदना का आग्रह है कि इन्हें सुना जाय. स्वभाव और आचरण से ये शब्द आग्रही हैं. सुनना वैधानिक या नैतिक नहीं बल्कि मानवीय अपराध होगा. इन शब्दों की आवाज़ में साहित्यिक या वैचारिक क्लिष्टता नहीं है, निवेदन है, बल्कि अपनी पृष्ठभूमि की गर्भिणी गंगा के कीचड़-कादो से सने ये शब्द असहज उच्चार करते हुए सीधे-सीधे मुँह पर चीख रहे हैं. इनके कहे में व्यक्तिवाची भाव कत्तई नहीं है. तभी तो इनमें ग़ज़लकार की अहमन्यता भी नहीं देखते हम ! शताब्दियों की पृष्ठभूमि से इनको मिला कीचड़-लेप इन्हें अनगढ़ ही सही किन्तु आवश्यक रूप से मुखर तो बना ही रहा है, खूब साहसी भी बना रहा है. इस ग़ज़ल-संग्रह के शब्द संवाद-संस्कार का वायव्य भाव नहीं बनाते, बल्कि अपनी बातों को बता देने के खुले बहाव में दीखते हैं. यही कारण है कि संग्रह की ग़ज़लों के शब्द मायनों का विशेष रूप अख़्तियार कर पा रहे हैं.
किन्तु यह भी जानना आवश्यक है कि अभिव्यक्ति के उत्साह में कितनी स्पष्टता है और कितना दायित्वबोध है ? इनपर अवश्य ही मीमांसा होनी चाहिये. क्योंकि साहित्य आम-जन के पक्ष को रखता हुआ भी संप्रेषण-संस्कार से ही सधता है. यहीं साहित्यकर्म आकर्षक या आवश्यक ही सही किसी नारा या चीख से अलग दीखता है. यहीं रचनाकर्म का परिणाम साहित्य की कसौटियों पर खुद ही जीने-पकने लगता है. अक्सर देखा गया है कि पक्ष प्रस्तुतीकरण का प्रारूप यदि चीख है, तो वह चीख के आर्त को साझा तो अवश्य करता है, परन्तु कई बार सटीक या विन्दुवत होने से रह जाता है. और, हक़ की बातें हाशिये पर चली जाती हैं. साहित्यकर्म नारों या चीखों को स्वर भले दे, स्वयं नारा या चीख होने लगे तो नुकसान उस पूरे समाज को होता है, जिसके तथाकथित हित के लिए चीख-चीत्कार हुआ करती है.
जो अतुकान्त परिस्थितियाँ और सामाजिक विसंगतियाँ नाचीज़ भाई के संग्रह की मूल विन्दु बनी हैं, वे अब किन्हीं विशेष संज्ञाओं के स्वरों की मुखापेक्षी नहीं रह गयी हैं. मेरा पाठक भाई रमेश नाचीज़ के ग़ज़ल-संग्रह को इन्हीं संदर्भों की टेक पर आगे समझना चाहता है.
लेकिन उससे पहले यह अवश्य समझ लिया जाय कि अनुभव आखिर है क्या, जिसकी तथाकथित कसौटी पर कसे तथ्यों का हवाला दिया जा सके ? और, अनुभव का दायरा यथार्थबोध से कितना संतुष्ट होता है ? किसी संप्रेषण में जाती अनुभव का विस्तार और उसकी गहराई कैसे समझी जाय ? क्या कागद लेखी’ किसी ’कानों सुनी’ या किसी आँखिन देखी’ के समक्ष टिक पाती है ? अव्वल, क्या किसी दमित समाज की दारुण स्थितियाँ या पीड़ित व्यक्तियों की दशा-अभिव्यक्तियाँ सापेक्षता की आग्रही हैं ? यदि हाँ, तो कविधर्म और उसका रचनाकर्म फिर क्या है ? साहित्य में संवेदनाओं के कैटेगराइजेशन और उसके क्लासिफ़िकेशन को कितनी मान्यता मिलनी चाहिये ? क्योंकि, मेरी स्पष्ट मान्यता है कि साहित्यकर्म कोई व्यक्तिगत विलासिता या गुण-प्रदर्शन का ज़रिया होकर एक दायित्वबोध है, जो व्यक्तिगत दुःखों और उसके संप्रेषण को सार्वभौमिक बनाता है. इस हिसाब से साहित्यकर्म उस श्राप का पर्याय है जिससे ग्रसित कोई रचनाकार अपने जाती दुःखों के साथ-साथ यदि संपूर्ण समाज नहीं, तो कम-से-कम एक विशिष्ट तबके के दुःखों और पीड़ाओं को ही जीने को विवश होता है. तभी तो किसी रचनाकार की अभिव्यक्ति समस्त तबके की अभिव्यक्ति हो पाती है.
समाज के मठों के असंगत निरुपणों और रूढियों का प्रतिकार ही नहीं, खुल्लमखुल्ला नकार भी आवश्यक है. तभी कोई साहसी दम सार्थक रूप से अपेक्षित दायित्व का निर्वहन कर सकता है. साहित्य अगर आम-आदमी ही नहीं शताब्दियो से पीड़ित जन की बात करता है तो उसे जन को क्लासिफ़ाई करने के दोष से बचना ही होगा. लेकिन, रचनाकार यदि स्वयं विसंगतियों और तदनुरूप दुर्दशाओं का भोगी हुआ तो शब्दों की तासीर कई गुना बढ़ जाती है. तभी कोई रचनाकार द्वारा ऐसा ऐलान हो सकता है -
पापी, गँवार, शूद्र बताये गये हैं हम
लाखों बरस से यों ही सताये गये हैं हम ॥
या,
दलितों की सहके पीड़ा लिक्खो तो हम भी मानें
जो दर्द है तुम्हारा, वो दर्द है हमारा
उपरोक्त पंक्तियों के तथ्य सीधा वही कहते हुए दीखते हैं जो कहना चाहते हैं, बग़ैर अनावश्यक इंगितों के.
यहाँ ग़ज़लकार अपने समाज, अपने वज़ूद को लेकर संवेदनशील ही नहीं, अपेक्षित रूप से मुखर भी है, तो कई मायनों में दुःखी भी है -
हरिजन, गँवार, शूद्र, दलित, नीच और अछूत,
इका आदमी की ज़ात को क्या-क्या कहा गया
हरगिज़ आने देंगे हम रामराज वर्ना,
जायेगा मारा लोगो ! शम्बूक् अफिर हमारा
सामाजिक रूप से बना दी गयी जातिगत और वर्णगत सीमाओं का प्रतिकार करते हुए किसी क्षुब्ध मन से जागरुक तारतम्यता की अपेक्षा करना कत्तई उचित नहीं. लेकिन ग़ज़लकार बहुत हद तक संयम बनाए रखता है -
रूढिवादी मान्यताएँ टूट जायेंगी ज़रूर,
जोश में ग़र होश भी हाँ सम्मिलित हो जायेगा
फिर,
हम एकता की बात तो करते हैं आज भी,
हालांकि जातिवाद की दीवार है तो क्या
एक और बानग़ी -
पीछे हटे देने से क़ुर्बानियाँ कभी,
मिटते रहे जो देश पे, हम वो अछूत हैं
लेकिन यही संयम अपनी क्षीण दशा नहीं मुखर आवेश के कारण अक्सर टूटता है -
हम लोग अपने आपको हिन्दू कहें तो क्यों,
नाचीज़ जब अछूत बताये गये हैं हम
या,
कौन है मनुवादियों के पोषकों में अग्रणी,
इसका उत्तर सिर्फ़ तुलसीदास लिखना है हमें
एक ये भी -
क्या पढ़ें इस मुल्क का इतिहास भ्रम हो जायेगा,
वाह-वाही, छल-कपट से युक्त है इतिहास भी
इस परिप्रेक्ष्य में यह साझा करना आवश्यक होगा कि हर संप्रेषण के विधान अलग हुआ करते हैं. उनके मायने अलहदे हुआ करते हैं. जो काम साहित्यकार को शोभता है, वह राजनैतिक-दायित्वों से असंभव है. इसीतरह, राजनैतिकबोध भी साहित्यिक समझ की मात्र परिधि पर ही टँगा रह जाता है. तभी तो उचित यही माना जाता है कि किसी साहित्यकर्मी को उन मुखौटाधारियों से सचेत रहना चाहिये जो सियासती-नेज़े को आस्तीन में छुपा कर साहित्य के अरण्य में शिकार करते फिरते हैं. राजनीति और साहित्य का घालमेल कितना सुफल अर्जित कर पाया है, आज उसे यथार्थ की कसौटी पर संयत रूप से समझना हर साहित्यकार का फ़र्ज़ होना चाहिये. कहते हैं, देश की विडंबनाओं के प्रतिकार का हर रास्ता दिल्ली ही पहुँचता है. लेकिन यह सोच वाकई कितनी तर्कसंगत है इसे समझना ही होगा. क्या ऐसे विचारों का पोषण खुद सियासत का ही षडयंत्र नहीं है, ताकि जन-जन की आवाज़ को दिल्ली का चारण बनाये रखा जासके ? ऐसा होता तो आज़ादी के इतने सालों के बाद भी हाशिये पर पड़े जन की अपेक्षाएँ अनुत्तरित होतीं. लेकिन इस षडयंत्र से बच पाना इतना सहज नहीं है. अन्यथा, इन पंक्तियों का कोई कारण बनता -
तुम्हें मानना ही होगा तुम बनजारे ठहरे,
वर्ना हमको मज़बूरन समझाना होगा
भारत की सियासत की अगर बात करूँगा,
गँठजोड़ की सरकार बनाने से करूँगा
साहित्य यदि सियासत की पीठ पर सवारी करता हुआ अपना हासिल चाहता है तो यह अवश्य है कि वह अपनी मुख्य राह से हट कर डाइवर्सन पर चला गया है और भटकाव को जी रहा है. सामाजिक चेतना एक बात है तो राजनीति करना ठीक दूसरी बात. साफ़ ! दोनों में घालमेल हुआ नहीं कि नई परिचयात्मकता और परिभाषाएँ विद्रुप उदाहरणों से भर जायेंगी. कई-कई मायनों में यही हो भी रहा है.
इस जगह यह जानना रोचक होगा कि इस संग्रह का ग़ज़लकार वस्तुतः चाहता क्या है ? क्योंकि, प्रतिक्रियावादिता कभी कोई हल नहीं है. बल्कि, यह एक सिम्पटम है. आज के ग़ज़लकार भाई रमेश नाचीज़ से एक प्रबुद्ध साहित्यकार के तौर पर सामाजिक विसंगतियों के बरअक्स सुगढ़ सोच और व्यवस्थित समाधान की अपेक्षा रहेगी.
   संग्रह की भूमिकाओं में भाई यश मालवीय का नज़रिया जहाँ संतुलित और सर्वसमाही होने के कारण श्लाघनीय है, तो वहीं वरिष्ठ-शाइर और इस संग्रह के ग़ज़लकार रमेश नाचीज़ के अदबी-उस्ताद आदरणीय एहतराम इस्लाम की सार्थक विवेचना उनके प्रति अपेक्षित कारुण्यभाव से पगी मातृवत है. आदरणीय एहतराम साहब ने पाठकों को ग़ज़लकार की साहित्यिक यात्रा का हमराही बना कर उनकी अपेक्षाओं और उनके प्राप्य को स्पष्ट कर दिया है. वहीं, प्रो. भूरेलाल संग्रह की भूमिका लिखने के क्रम में इसकी विभिन्न सीमाओं का कई बार अतिक्रमण करते हुए-से प्रतीत हुए हैं, जिससे बचा जाना उन जैसे एक वरिष्ठ साहित्यप्रेमी के लिए सर्वथा उचित होता.
ग़ुफ़्तग़ू प्रकाशन के बैनर तले प्रकाशित इस ग़ज़ल-संग्रह अनुभव के हवाले सेका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिये. सामाज में व्याप्त विभिन्न स्तरों को समरस कर एक धरातल पर लाने का कठिन कार्य साहित्य का ही है, भले ही डंका कोई माध्यम क्यों पीटता फिरे. साहित्य-संसार में ग़ुफ़्तग़ू प्रकाशन ने बतक कई वैचारिक मान्यताओं को स्वर दिया है. भाई रमेश नाचीज़ की वैचारिकता को मुखर कर गुफ़्तग़ू प्रकाशन ने अपने दायित्व का निर्वहन ही किया है. यह अवश्य है कि टंकण त्रुटियों के प्रति संवेदनशील होने के बाद भी कतिपय दोष यत्र-तत्र दिख जाते हैं. 96 पृष्ठों की सज़िल्द पस्तक का मूल्य रु. 125/ मात्र है.
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सौरभ पाण्डेय
एम-2/ -17, एडीए कॉलोनी, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
मो- 09919889911