शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

कैम्पस काव्य प्रतियोगिता एवं विमोचन समारोह दो अक्तूबर को


इलाहाबाद। ‘गूफ्तगू कैम्पस काव्य प्रतियोगिता’ एवं अब्बास खान संगदिल अंक का विमोचन आगामी दो अक्तूबर को गांधी जयंती के अवसर पर किया जाएगा। इलाहाबाद के प्रीतमनगर में स्थित मदर्स इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल में दोपहर 12ः30 बजे कार्यक्रम का शुभारंभ होगा। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पूर्व अध्यक्ष डा. सोम ठाकुर मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत करेंगे,अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम करेंगे। कार्यक्रम का उद्घाटन इलाहाबाद शहर की मेयर श्रीमती अभिलाषा गुप्ता करेंगी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रो. अली अहमद फ़ातमी, विधायक पूजा पाल, वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, चंदौली के जिलाधिकारी पवन कुमार सिंह, उत्तर प्रदेश शासन में वित्त अधिकारी मनीष शुक्ल, चिट्स एंड फंड विभाग के मुख्य लेखाधिकारी जी.डी. गौतम, मंुडेरा मंडी परिषद के सचिव संजय कुमार सिंह, गनपत सहाय पीजी कालेज सुल्तानपुर में उर्दू की विभागध्यक्ष डा. ज़ेबा महमूद, उत्तर प्रदेश राज्य शैक्षणिक संस्थान की निदेशक भावना शिक्षार्थी, डा. पीयूष दीक्षित, डा. राजीव सिंह और मुंडेरा व्यापार मंडल के अध्यक्ष धनंजय सिंह, अपर नगर आयुक्त प्रदीप कुमार, छिंदवाडा मध्य प्रदेश के शायर अब्बास खान संगदिल, बालमित्र स्कूल के प्रबंधक सी.आर. यादव कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के तौर पर शिरकत करेंगे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी करेंगे। कार्यक्रम का संयोजन शिवपूजन सिंह, नरेश कुमार ‘महरानी’, वीनस केसरी, जयकृष्ण राय तुषार, संतोष तिवारी, सौरभ पांडेय, संजय सागर, फरमूद इलाहाबादी, शाहनवाज़ आलम आदि कर रहे हैं। कैम्पस काव्य प्रतियोगिता के अंतर्गत सभी शिक्षण संस्थानों में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं से प्रविष्टियां मांगी गई थीं। आयी हुई कुल प्रविष्टियों में से 15 लोगों का काव्यपाठ कार्यक्रम के दौरान कराया जाएगा। मौजूद अतिथि सभी को एक से दस के बीच अंक देंगे। सभी के अंकों को जोड़ने के बाद विजेता का निर्णय होगा। प्रथम पुरस्कार के रूप में 1500 रुपए नगद, द्वितीय पुरस्कार 1000 रुपए और तृतीय पुरस्कार के रूप में 751 रुपए दिए जाएंगे। इसके अलावा 10 प्रतिभागियों को सांत्वना पुरस्कार के रूप में 500-500 रुपए की साहित्यिक पुस्तकें दी जाएंगी।
                                   

सोमवार, 17 सितंबर 2012

हसैनन मुस्तफ़ाबादी के सौ शेर



जो खालिक़े अकबर है वह क़ुर्बे रगे जां है,
हर आन वही सब का हाफि़ज़ है निगहबां है।1

अगर चाहे कोई हक़ आश्ना का मरतबा देखे।
उसे चाहिए सूये बहारे करबला देखे। 2

है नूर जिस जगह वहां ज़ुल्मत का क्या सवाल,
शामिल नहीं ग़ुरूर कभी इनकेसार में।3

हम तो है राह में आंखें को बिछाये अपने,
जाने क्यों मुझसे वह बेज़ार नज़र आते हैं।4

लाख वह नमाज़ी हो पारसा नहीं होगा।
मां को जो अज़ीयत दे बावफ़ा नहीं होगा।5

कहना पड़ेगा रहमतों वाला हुसैन को,
नाना इन्हीं का रहमतुललिल आलमीन है।6

आज भी सिलसिलये जौरो जफ़ा बाक़ी है,
हैं गले आज भी मज़लूमों के खंजर बदले।7

हो मुख़्तसर हयात मगर आगही के साथ,
सदियां भी कम हैं गर हो बशर गुमरही के साथ।8

बख़्शी हुई जहां को है कुदरत की आबरु,
है हुस्ने कायनात से फितरत की आबरु।9

सिर्फ़ दावये मुहब्बत हो नहीं सकती दलील,
है वही महबूब जो रखे मुहब्बत का भरम।10

अज़मते रोज़ा है या शाने करीमी उसकी,
रोज़े में सोना इबादत के बराबर निकला।11

रोज़ा ये पैरों का है ये न ग़लत उठे कभी,
वरना रोज़ा भी चला जायेगा रफ़तार के साथ।12

जहां में बाप का साया अजीब होता है,
जो उठ गया तो कहां फिर नसीब होता है।13

मुसतहिक़ की जो मदद करने को तैयार न हो,
ग़ौर से देखिए वह कोई रेयाकार न हो।14

रुख़ मिलाता नहीं जब हाथ में आता है क़लम।
बा अदब सर को झुकाये हुए चलता है क़लम।15

दुनिया का भी नेेज़़ाम अजीबो गरीब है,
किस्मत का है धनी तो कोई बदनसीब है।16

कमाले फन की करो आगही की बात करो।
जो जि़न्दगी है तो फिर जि़न्दगी की बात करो।17

है ज़रूरत इसमें किरदारों अमल के तेल की,
जब नहीं सकता कभी भी दौलतो ज़र का चराग़।18

किस क़दर साबित क़दम है ज़ुल्मो इसतेबदाद पर,
मुनहसिर है ये किसी इंसां की इसतेदाद पर।19

उंगली पकड़ के राह दिखाते रहे जिसे,
देखा उसी के हाथ में पत्थर लिए हुए।20

होगा क्या अंजाम इसका ये खुदा पर छोड़ दो,
राहे हक़ में हर क़दम बढ़कर उठाना चाहिए।21

मूसा के आशिकों का हर सू है बोलबाला,
फि़रऔनियत जहां में हाथों को मल रही है।22

बेहतर का जि़क्र कीजिए बेहतर के सामने,
खोलो ज़ंबां हमेशा बराबर के सामने।23

कमज़र्फ खोलता है ज़बां के बेमेहल मगर,
खोली ज़बां तो नस्ल की पहचान हो गई।24

इस दौर बेहाई का ये हाले ज़ार है,
है जिस्म पर लेबास मगर तार-तार है।25

क़त्ल और ग़ारतगरी का शोर आलमगीर है।
इसलिए सहमा हुआ हर एक जवानो पीर है।26

क्या बताउं बेरुखिये हुस्न क्या-क्या कर गई।
उनको भी रुसवा किया मुझको भी रुसवा कर गई।27

खेल बिल्कुल इस सदी में दोस्ताना हो गया।
एक घिरौंदे का बनना और मिटाना हो गया।28

दुनियाओ आखि़रत में हुआ है वही ज़लील,
जिसकी ज़बान चलती है तलवार की तरह।29

कल भी हम थे अम्न के हामी हैं हामी आज भी,
ज़ुल्म परवर जे़हन में फितनागरी है आज तक।30
क़दम को सोच कर रखना ज़रूरी है जवानी में,
सफ़र पुरखार राहों में बहुत दुश्वार होता है।31

कोई हसनैन न हमदर्द ग़रीबों का मिला,
यंू तो इस शह्र में रातो को मैं अकसर निकला।32

बेझिझक वह ग़ैर की महफि़ल में बैठे थे मगर,
देखते ही बज़्म में मुझको हया आने लगी।33

शब में पड़ती है मुसीबत तो ये आता है ख़्याल,
क्या खुशी की भी ज़माने में सहर होती है।34

जो मसलहतन भी कुछ कहते नहीं वह सुन लें,
हक़ बात न कहना भी ज़ालिम की हिमायत है।35

बाली में आ के बैठ गये मंुह को फेरकर,
क्या ये भी कोई रस्मे अयादत का नाम है।36

मेरी वफ़ा की झलक मेरी बात बात में है।
तुम्हारे ज़ुल्म का चर्चा तो कायनात में है।37

राह में उल्फ़त की जो कांटा गड़ा वह रहा गया,
हंू तो मंजि़ल पर मगर वह चुभ रहा है आज भी।38

अब मेरे आंसू भी मेरा साथ दे पाते नहीं,
सामना है रोज़ मेरा एक नई उफ़ताद से।39

राह दुश्वार है हर गाम पे दुश्वारी है,
फिर भी सहराये मुहब्बत का सफ़र जारी है।40

वह उलझ जाते हैं मुझसे छोटी-छोटी बात पर,
मैं समझता हूं कि ये भी हुस्न के जौहर में है।41

कूये जानां में हमारी आबलापाई न देख,
थक के बैठा था मगर अज़्मे सफ़र पैदा हुआ।42

देश प्रेमी बन गये हैं आज सब अहले नज़र,
बेखुदी छायी है ऐसी कुछ नहीं अपनी ख़बर।43

क्या जियाले थे वतन पर मिट गये एक आन में,
फ़कऱ् पर आने न पाया शाने हिन्दुस्तान में।44

वह अपनी बज़्म में करते हैं तज़किरा मेरा,
यक़ी है इल्म उन्हें मेरे हाले ज़ार का है।45

लाख अगि़यार की कसरत सही हसनैन मगर,
हो भरोसा जो खुदा पर तो है कि़ल्लत काफी।46

महलों से सिमटे गोशये तुरबत में आ गये,
अब पूछिए कि दौलतो कसरत को क्या हुआ।47

गेसूये ख़म हैं चेहरये अनवर पे इस तरह,
दोनों के दरमियान दिले ज़ार आ गया।48

मेरी आवाज़ पे जब कोई न इमदाद मिली,
तब समझ में मेरे आया कि से सहरा होगा।49

जो लिखा है मिरी कि़स्मत में मिलेगा वह ज़रूर,
फ़ायदा क्या सर को दीवारों से टकराने में है।50

कुछ नहीं है हैरत उसमें फेदाकारी न हो।
जिस बशर के भी दिमागो-दिल में खुद्दारी न हो।51

दिलो-दिमाग की एकसानियत भी है दरकार,
बहुत ज़रूरी है ये रब्तबाहमी के लिए।52

मैं तो रुसवा ही हुआ आप भी महफ़ूज नहीं,
क्या कहें आपके कूचे से मैं क्योंकर निकला।53
हर एक काम की ख़ातिर है वक़्त बंदे का,
नहीं है वक़्त तो ख़ालिक की बंदगी के लिए।54

परदे में दोस्ती के है नफ़रत भरी हुई,
अब तो मुनाफक़त भी मुहब्बत का नाम है।55

इब्तेदा मुझसे मुहब्बत की ज़माने में हुई,
सच अगर पूछो हमीं पर इन्तेहा आज भी।56

वह नहीं करता कभी फिरदौस बनवाने का शौक़,
हाल जिसने भी सुना है जन्नते शद्दात का।57

राहे उल्फ़त की अज़ीयत झेलना आसां नहीं,
वह मुहब्बत ही कहां है जिसमें दुश्वारी न हो।58

काश कोई पूछता मेरे दिले नाशाद से,
फ़ायदा हासिल हुआ कुछ नालओ फ़रयाद से।59

राह दुश्वार है हर गाम पे दुश्वारी है,
फिर भी सहराये मुहब्बत का सफ़र जारी है।60

क़तरा वह बस है समा जाये समुन्दर जिसमें,
आग पानी में लगा दे वही चिन्गारी है।61

उनके दरदे इश्क़ का सौदा हमारे सर में है।
वहशते दिल का असर सहरा में दश्तो दर में है।62

दामन का चाक चाके गरेबां से मिल गया,
इतना बढ़ा जुनूं दिले ख़ाना खराब का।63

आंखें बचा के आये अयादत के वास्ते,
क्यों जल गया हसद से कलेजा जनाब का।64

इम्तेहां राहे मुहब्बत में कदम वह क्यों रखे,
जिसकी राहे हक़ में सर देने की तैयारी न हो।65

चल रहे है कूचये जानां में बेखौफ़ो खतर,
जो रहे उल्फ़त में चल सकते नहीं दो गाम भी।66

आग का दरिया है एक जिसमें गुज़रना है ज़रूर,
काश ग़ाफि़ल जान लेता इश्क़ का अंजाम भी।67

तश्नागने वादिये उल्फ़त को प्यासा देखकर।
पानी पानी हो गया ये हाल दरिया देखकर।68

वाये नाकामी की साहिल जब नज़र आने लगा,
डगमगाई  नाव दरिया का कनारा देखकर।69

दोस्तों से इतने खाये धोखे हमने बार-बार,
अब तो डर लगता है मुझको अपना साया देखकर।70

जुनूं में कूचे जानां जब नहीं मिलता बाआसानी,
मेरे हमराह हो जाती है मेरी चाक दामानी।71

बिछाये दुश्मनों ने लाख मेरी राह में कांटे,
मैं उसको रौंद कर पहुंचा सरे मंजि़ल बा आसानी।72

अजल से लेके अबद तक हर किसी के लिए।
खुलूस शर्त है माबैन दोस्ती के लिए।73

इश्क़ में तब है मज़ा जब कि हो एक़रार के साथ।
‘हां’ का मफ़हूम भी हो लहजये इन्कार के साथ।74

पहुंचे बाज़ारे मुहब्बत में मगर उस लम्हा,
जब खरीदार चले जा चुके बाज़ार के साथ। 75

वह संभल सकता नहीं है राह में ठोकर के बाद।
पैर फैलाता है जो भी कामते चादर के बाद।76

कोई भी ऐसा न था देता जो मंजि़ल का पता,
बढ़ न पाये एक क़दम हम तेरे संगे दर के बाद।77

जो लोग यूं तो मुहब्बत की बात करते हैं।
वही तो हर घड़ी नफ़रत की बात करते हैं।78

बजोर रिश्वतो असरात आज मिलती है,
कहीं ये जाती है अब बात मुनसिफी के लिए।79

बिजलियों की ज़द पे मेरा आशियाना आ गया।
इस बहाने ख़ैर उनको मुस्कुराना आ गया।80

जुनूने इश्क़े ले जाता है सहरा की तरफ़ ज़बरन,
मेरा रुख़ जब भी सूए कूचए दीदार होता है।81

मतलब की दोस्ती जो किसी को किसी से है।
देखा गया है बाद में नफ़रत उसी से है।82

मुल्क से उल्फ़त का किस्सा खुद नुमायां हो गया।
लब पे जब ‘हसनैन’ के कौमी तराना आ गया।83

मेरे नालों में कम अज़ कम ये असर पैदा हुआ।
नींद उनकी उड़ गई और दर्द सर पैदा हुआ।84

तोहमत किसी पे इसकी लगाना फुजूल है,
बदनामी जब भी होती है अपनी कमी से है।85

इस दौर में सच्चाई ढूंढे से नहीं मिलती,
अफ़वाहों की दुनिया में नायाब सदाक़त है।86

राह में उल्फ़त की जो कांटा गड़ा वह रह गया,
हूं तो मंजि़ल पर मगर वह चुभ रहा है आज भी।87

हर ऐब हुनर अब है ये दौरे सियासत है।
ना अहल रक़ीबों के हाथों में हुकूमत है।88

पहलू बदलना छोडि़ए मक्कार की तरह।
जिसकी तरफ़ भी रहिए तरफ़दार की तरह।89

सूये मंजि़ल जो नहीं चलते हैं रस्ता देखकर।
ठोकरें हमराह हो जाती हैं अन्धा देखकर। 90

एक बेकसी शिकवए बेदाद भला क्या करती,
रंग बदले हुए हालात थे खंज़र की तरह।91

क़ैस और फरहाद के किस्से हमें बतला गए,
कुए जानां का लगाना रोज चक्कर चाहिए।92

तिफ्ल मतकब न कीजै फलसफे की गुफ्तगू,
फलसफे की बात करिए फलसफी की देखकर।93

दर्द की तरह उठे दिल की तरह बैठ गए,
पास उल्फ़त किया मैंने लबे जां होकर।94

अल्लाह का करम है ये अक्सर ज़मीन पर।
अब्रे करम बरसता है बंज़र ज़मीन पर।95

मोहब्बत में है क्या लज़्ज़त इसे मुश्किल है समझाना,
कोई तो बात है जो जान दे देता है परवाना।96

ज़माना सुन रहा था शौक़ से इसका नहीं शिकवा,
हमें नींद आ गई खुद कहते-कहते अफ़साना।97

किरदार आदमी की है पहचान देखिए।
मत दूसरों का अपना गिरेबान देखिए।98

जहां में बुझ गए कब से मुरव्वतों के चिराग़,
है नफ़रतों का अंधेरा खुलसे यार कहां।99

किस तरह से गुजरते हैं फुरकत में रात दिन,
पूछे ये कोई लज़़्ज़ते दिल बेक़रार से।100


गुफ़्तगू के सितम्बर 2012 अंक में प्रकाशित 

- हसनैन मुस्तफ़ाबादी
155-सी/1सी/1ए, अली नगर, करैलाबाग़
इलाहाबाद-211016
मोबाइल नंबर: 9415215064, 8004904872


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

नातिया शायरी में बदलाव

                                                 इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
इलाहाबाद पुरातन काल से ही संतों-फकीरों,खानकाहों और दायरों का शहर रहा है। इन दायरों और खानकाहों में शायरों का जमावड़ा लगता रहता है। शेरी नशिस्तों और मुशायरों के रिवाज़ के कारण यहां पर शायरी परवान चढ़ी है। सूफि़याना मिजाज़ और रिवाज़ होने की वजह से यहां पर रहने और आने जाने वाले अधिकतर आलिम और बुजुर्ग नातिया शायरी करते रहे हैं। मगर आज नातिया शायरी के टेृंड में जहां बदलावद देखा जा रहा है, वहीं नौजवान शायर नातिया शायरी से दूर हो रहे हैं। हजरत मुहम्मह सल्ल. की शान में की जाने वाली नातिया शायरी के कारण ही राज़ इलाहाबादी, शम्स इलाहाबादी, माहिरुन हमीदी, चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी, अज़ीज़ इलाहाबादी और माहिर इलाहाबादी जैसे शायर न सिर्फ़ भारत में वरन दूसरे मुल्कों में भी मक़बूल रहे हैं।
आज भी इस शहर में शायरों की अच्छी ख़ासी जमात मौजूद हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 150 उर्दू शायर इलाहाबाद में हैं, मगर इनमें से डा. असलम इलाहाबादी, शमीम गौहर, ज़मीर अहसन, इक़बाल दानिश, अरमान ग़ाज़ीपुरी, महमूद रम्ज़, हबाब हाशमी, हसीब रहबर, स्वालेह नदीम, अख़्तर अज़ीज़, फरमूद इलाहाबादी, गुलरेज़ इलाहाबादी, सलाह ग़ाज़ीपुरी और फरहान बनारसी जैसे कुछ गिने-चुने नाम ही हैं, जो बकायदा नातिया शायरी कर रहे हैं। इनके अलावा ज़्यादातर लोग नातिया शायरी करने में असमर्थ से हैं। असलम इलाहाबादी की पुस्तक ‘उर्दू शायरी का आग़ाज़ और इख्तेता’ के मुताबिक 18वीं और 19वीं सदी के इलाहाबाद के प्रमुख शायर शाह गुलाम कुतुबुद्दीन, नासिर अफ़ज़ली, शाह मोहम्मद अज़ीम, शाह मोहम्मद अजमल, भिखारी दास अज़ीज़, अब्दुल रहमान, अहमद जान कामिल, शाह आला नजफ़, शाह अबुल अली, शाह अज़मल, आज़म अफ़ज़ल, तैसी ज़फ़र आदि हैं। इनमें से अधिकतर यहां पर स्थित बारह दायरों में ही उपस्थित होकर नातिया शायरी सुनते-सुनाते रहे हैं। नातिया मजमूए के हिसाब से सबसे पहले सरवर इलाहाबादी की किताब ‘नूरे अजल’ 1956 में प्रकाशित हुई। इसके बाद नातिया मजमूओं के प्रकाशन का सिलसिला काफी दिनों तक ठप रहा। इस ख़ामोशी को अख़्तर अज़ीज़ ने 1997 में तब तोड़ा जब उनकी पुस्तक ‘सुब्हे मदीना तैबा की शाम’ प्रकाशित हुई। 1997 में ही तुफैल अहमद मदनी की ‘दिले रेजां-रेजां’, सन 2000 अतीक़ इलाहाबादी की ‘सरकार की गली में’ और 2005 में शमीम गौहर का नातिया मजमूआ ‘जजाए खैर’ प्रकाशित हुआ। डा. गौहर की 1988 में ‘नात के चंद शोअरा मुतकद्दमीन’ और 1996 में ‘उर्दू का नातिया अदब’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। राज़ इलाहाबादी, माहिरुल हमीदी, शम्स इलाहाबादी, अज़ीज़ इलाहाबादी और स्वालेह नदीम वगैरह के किताबचे ‘पाकेट नातिया बुक’ समय-समय पर छपते रहे हैं।
बहरहाल, नातिया शायरी के परवान चढ़ने में यहां के दायरों का अहम किरदार रहा है। आज भी बारावफात की नौ तारीख को नासिर फ़ाखरी और 26 तारीख़ को दायरा शाह अजमल में नातिया मुशायरा होता है और यह सिलसिला तकरीबन 50 सालों से जारी है। बारावफात के ही महीने में करैलाबाग कालोनी में चार दिनों तक ईद मिलादुन नबी का आयोजन किया जाता है, जिसमें नातिया मुशायरा होता है। इसके अलावा बारावफात के और ग्यारहवीं के महीने में इलाहाबाद के विभिन्न मुहल्लों में ईद मिलादुन नबी और नातिया महफिलें सजती हैं। इन्ही महफिलों में शोअरा की हैसियत से शामिल होने के लिए लोग नात कहते हैं। मगर आज के अधिकतर नौजवान शायर नात कहने से पीछे हटते हैं। कुछ लोग तो मजहबी जानकारी कम होने की वजह से नात नहीं कहते, तो कुछ मज़हबी मिजाज न होने के कारण।
शमीम गौहर यूनिवर्सिटी और डिग्री कालेजों में नात पढ़ाने वाले कुछ अध्यापकों की आलोचना करते हैं। उनका मानना है कि जो लोग स्वयं मजहबी नहीं हैं, रसूल के बताये रास्तों पर नहीं चलते, उन्हें कोई हक़ नहीं है कि वो दूसरों को नात पढ़ाएं। उनका यह भी मानना है कि नात में कोई गलती होनी ही नहीं चाहिए और इसमें तनकीद के सारे दरवाज़े खोल देना चाहिए। शमीम गौहर की बात का जवाब देते हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर अली अहमद फ़ातमी कहते हैं ‘ वो ही इस्लाम को सही समझते हैं, तो वे ग़लतफ़हमी में हैं, मैं भी मुसलमान हूं, इसलाम को समझता हूं। पढ़ाना एक अलग फन है।’
शायरी ने अपना रुख़ बदला और ज़दीद शायरी की शुरूआत हो गई। नातिया शायरी में भी कुछ बदलाव देखा जा रहा है। नात शब्द के मायने ‘रसूल की तारीफ़’ होता है। लेकिन कुछ नात के शायरों ने देवबंदी और बरेलवी आदि के खेमों में बंटकर एक दूसरे के खिलाफ़ वाले शेर अपनी नातिया शायरी में शामिल कर रहे हैं। सभी मानते हैं कि यह ग़लत रिवाज़ की शुरूआत है। लेकिन शमीम गौहर इनसे अलग राय रखते हैं ‘नात’ रसूल की शान में कही और पढ़ी जाती है। इस हिसाब से रसूल की नाफरमानी करने वालों की आलोचना नात में होनी चाहिए।’ ज़मीर अहसन इलाहाबाद की नातिया शायरी की अच्छी संभावना को सिरे से  ख़ारिज़ करते हैं, तो शमीम गौहर और नस्र कुरैशी मानते हैं कि इलाहाबाद में नातिया शायरी की अच्छी संभावना है। प्रो. फ़ातमी नात के बहुत आगे बढ़ने की वजह बताते हुए कहते हैं कि रसूल ने दुश्मनों के साथ तअल्लुक, तिज़ारत, सियासत और लड़ाई की नज़ीर अपनी जि़न्दगी में पेश की है, लिहाजा इन सभी पहलुओं की चर्चा नात में होनी चाहिए। सिर्फ़ सरापा नूर और जुल्फ वगैरह तक ही बातें सीमित नहीं होनी चाहिए।
सहारा समय में 06 अगस्त 2005 को प्रकाशित

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

अकबर इलाहाबादी की पुण्यतिथि पर मुशायरा

इलाहाबाद। मशहूर हास्य-व्यंग्य शायर अबकर इलाहाबादी की पुण्यतिथि पर ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में महात्मा गांधी अंतरराष्टृीय हिन्दी विश्वविद्यालय परिसर में मुशायरे का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि अशोक कुमार स्नेही ने किया, जबकि मुख्य अतिथि के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. के.एन. भट्ट मौजूद रहे। फिल्म ‘थ्री एडीएट’ में मंत्री जी का अभिनय करने वाले अभिनेता एवं कवि अतुल तिवारी तथा वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र विशिष्ट अतिथि के रूप मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। इस अवसर पर युवा ग़ज़लकार व स्वरूपरानी मेडिकल कालेज के प्रोफेसर डा सूर्या बाली ‘सूरज’ के एम्स भोपाल में एसोसिएट प्रोफेसर नियुक्त किये जाने पर ‘गुफ्तगू’ द्वारा सम्मानित किया गया।

फिल्म ‘थ्री एडीएट’ में मंत्री जी का अभिनय करने वाले अभिनेता एवं कवि अतुल तिवारी

अशोक कुमार स्नेही -
कहना महल दुमहले सूने सूनी जीवन तरी हो गई,
प्रिया तुम्हारे बिना मिलन की सूनी बारादरी हो गई।


फरमूद इलाहाबादी -
पहले के जैसे गाल हमारे न तुम्हारे/अब होंठ लाल लाल हमारे न तुम्हारे।
चांदी सा जिस्म और न मोती के जैसे दांत/सोने के जैसे बाल हमारे न तुम्हारे।

तलब जौनपुरी -
कब तक रहेगी यह सियासत आज़माने के लिये,
मेम्बर कहां से लाये हम संसद चलाने के लिये।
वह तमन्ना कर उठ खड़ा होता है अपनी कब्र से,
क़ातिल पहुंचता जब कभी चादर चढ़ाने के लिये।

डा. अमिताभ त्रिपाठी
हम अपने हक़ से जि़आदा नज़र नहीं रखते,
चिराग़ रखते हैं शम्सो-क़मर नहीं रखते।

सौरभ पांडेय -
रात की ऐय्यारियां हैं, दिन चढ़ा परवान है
एक शहज़ादा चला बनने नया सुल्तान है।
आदमी या वस्तु है, या आंकड़ों का अंक भर,
या, किसी परियोजना का तुक मिला उन्वान है।

 
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -
सच को सच से मिलाके छोडूगा/इस ज़मी को हिला के छोडूगा।
वो जो छल बल से बना है शायर/उसको घर पे बिठा के छोडूगा।

आसिफ़ ग़ाज़ीपुरी -
जी के देखो ये जिन्दगी क्या है, हाथ कंगन को आरसी क्या है।
सुब्ह से शाम करना मुश्किल है, तेरे वादे की उम्र ही क्या है।

नजीब इलाहाबादी -
अपने अंजाम से बेख़बर जि़न्दगी।
रात दिन कर रही है सफ़र जि़न्दगी।


अजीत शर्मा ‘आकाश’-
जंग जारी ही रहे साथी अंधेरे के खिलाफ़,
रात लम्बी हो भले, दिन अपना आएगा दिन।

रमेश नाचीज़ -
वह मुझे खुश देखकर जलता रहा, मैं निरंतर फूलता-फलता रहा।
एक मैं अपना समझता था उसे, एक वो मुझको सदा छलता रहा।


मोहम्मद शाहिद सफ़र -
अगर मेरी खुशियों ग़म तोड़ देता, ग़ज़ल कहके अपनी कलम तोड़ देता।
ज़रा और कुछ देर साहित पे होता, समुन्दर का सारा भरम तोड़ देता।

शुभा्रंशु पांडेय ने हास्य व्यंग्य लेख पढ़ा-

केशव सक्सेना -
हमारी संस्कृति को
विदेशी तक करते हैं नमन
आज रो रहा इस तरह चरित्र हनन

 
गुलरेज़ इलाहाबादी -
नन्ही कोपल बढ़ने दो तुम, हमको पढ़ने लिखने दो तुम।
फिर देखो के कैसी हैं हम, जैसी मां है वैसी हैं हम।
फरहान बनारसी -
फ़क़त गुलों में ही मत ढूंढ़ रंग व बू चमन
ये ख़ार ए गुल भी हैं ए दोस्त आबरु ए चमन।

वीनस केसरी -
हम जो कह दें उसे मान जाया करो, आइना से जुबां मत लगाया करो।
मैं भी तुमको परेशां करूं रात दिन, तुम भी भी मुझको बराबर सताया करो।

डा. सूर्या बाली ‘सूरज’ -
बादे सबा के झोके सा आकर चला गया,
आंखों से कोई नींद चुराकर चला गया।
मैं देखता ही रह गया इक ख़्वाब सा उसे,
वो जि़न्दगी को ख़्वाब बनाकर चला गया।



 विमल वर्मा ने -
हर पल सिक्का है विमल, और समय टकसाल
सोच-समझकर खर्च कर, हो जा माला-माल।

दिव्या सिंह -
मंजिल पाकर तो सभी खुश होते हैं
पर तुम कुछ ऐसा करना
मंजि़ल खुश हो पा के तुम्हें।


नित्यानंद राय-
चलो जी माना मैं ख़्वाब देखता हूं, दिन रात देखता हूं बेहिसाब देखता हूं।
गोली बारूद नहीं, कीनू अंजीर लाया है, पड़ोस से आया ऐसा, कसाब देखता हूं।

 
कार्यक्रम को संबोधित करते प्रो. के एन. भट्ट

कार्यक्रम को संबोधित करते वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र

अजय कुमार -
बड़े-बड़े सब कवियों ने मां भारत का गौरव गाया।
वो रवि शशि बना चमक गये, जन-जन का जिसने अपनाया।
सुनकर कहीं मायूस न होना ऐ मेरे दोस्त
कुछ हद तक दीवाने हम भी कहलाते हैं।

अंत में कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।

रविवार, 2 सितंबर 2012

साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ की मासिक काव्य गोष्ठ व नशिस्त



साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में 01 सितंबर 2012 की शाम करैली स्थित अदब घर में काव्य गोष्ठी (नशिस्त)का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर सागर होशियारपुरी ने की जबकि मुख्य अतिथि के रूप में शकील गाजीपुरी मौजूद रहे, संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने की। इस गोष्ठी में छह युवा कवि लवकुश कुमार, आंनद कुमार आदित्य, अजय भारतीय, पीयूष मिश्र, अनुराग अनुभव और नीतिश कुशवाहा ने पहली बार मंच से काव्य पाठ किया।
अनुराग अनुभव
सबसे पहले अनुराग अनुभव ने कविता सुनाई-
मंजि़ल दूर हो तो ख़्वाब को कमज़ोर मत करना
हसीन ख़्वाब लम्बी रात को छोटा बनाते हैं।
नितीश कुशवाहा ने कहा-
कांटो पे भी मुझे चलना पड़ा
जीने की खातिर मरना पड़ा।
मेरी किसी से इश्क़ की आरजू नहीं थी
तेरी मासूमियत ने कहा था तो करना पड़ा।
अजय भारती की काव्य रचना इस प्रकार थी-
जलाना घर मेरा हर शब औ उजाला करना
लोगों को ये हुनर बड़ी शिद्दत से आया है।
जि़न्दगी कैसी होगी बिन तेरे कैसे कहूं,
यहां तो हर पल तेरी यादों के साए से गुजरा है।
लवकुश कुमार ‘आनंद’ की कविता थी-
जि़न्दगी एक सफ़र है जिसका मुसाफिर हूं मैं
हर सफ़र है आखि़री एक दिन जिसका इंतिहा हूं मैं।
कांटो के ताज सही गमों के ढेरों से खौफ नहीं,
ग़मज़दा महफिल में भी, खुशनुमा संघर्ष हूं मैं।
पीयूष मिश्र ने कहा-
हम पूर्वा हवाओं के साथ अक्सर बहते थे
कभी-कभी पछुवा हवा की मार सहते थे।
आज पछुवा हवायें ही आ रही हैं,
पूर्वा हवाये ंतो इन्हें ही देखकर शरमा रही हैं।
आनंद कुमार आदित्य की कविता उल्लेखनीय रही-
मयखाने को जाती है वो गली
जहां खिलती है सपनों की कली
इस अजनबी के प्यार की चाहत
इस अंजान दिल में जगी
रमेश नाचीज़
युवा ग़ज़लकार रमेश नाचीज़ की ग़ज़ल सराही गई-
ज़र्रे-ज़र्रे में खुदा है ये नकारा भी नहीं
और पत्थर पे कभी फूल चढ़ाया भी नहीं।
नौजवान शायर अमन दरियाबादी ने तरंनुम में अच्छी ग़ज़ल पेश की-
फिक्र को उड़ान देता हूं, फर्श को आसमान देता हूं।
आज रात अपने गीतों को, साज़े हिन्दुस्तान देता हूं।

नजीब इलाहाबादी ने कहा-
ऐ मुल्के अतश के मेरे बेयार मुसाफि़र,
संगम के किनारे से दुआ मांग रहे हैं।
उड़ते नहीं बे फ़ैज़ फि़जाओं में कबूतर,
फिर अम्न-ओ-मोहब्बत की फि़ज़ा मांग रहे हैं।
डा. मोनिका नामदेव की ने बेटी को रेखांकित करते हुए कहा-
कली है बेटी का प्रतीक/क्यों उसे रौंदा कुचला जाता है
कली को कली न रखकर/फूल क्यों नहीं बनाया जाता है।
वीनस केसरी की ग़ज़ल काफी सराही गई-
ग़ज़लों से पहले दोस्ती फिर प्यार फिर दीवानगी
मुझको ये बढ़ती तिश्नगी जाने कहां ले जा रही।
वरिष्ठ कवि अशोक कुमार स्नेही ने गीत सुनाकर महफिल को भाव-विभोर कर दिया-
कहना महल दुमहले सूने सूनी जीवन तरी हो गई,
प्रिया तुम्हारे बिना मिलन की सूनी बारादरी हो गई।
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के अशआर लोगों ने पसंद किया-
सच को सच से मिलाके छोडूगा/इस ज़मी को हिला के छोडूगा।
वो जो छल बल से बना है शायर/उसको घर पे बिठा के छोडूगा।
फरमूद इलाहाबादी ने हास्य-व्यंग्य रचना सुनाकर लोगों को गुदगुदाने पर विवश कर दिया-
पहले के जैसे गाल हमारे न तुम्हारे/अब होंठ लाल लाल हमारे न तुम्हारे।
चांदी सा जिस्म और न मोती के जैसे दांत/सोने के जैसे बाल हमारे न तुम्हारे।
शैलेन्द्र जय

शैलेन्द्र जय ने कहा-
सुबह से शाम तक की आपधापी के बीच,
बैठ जाती है काठ होकर कविता
संवेदना का मुंह चुराना लगता है खो
जाना हृदय का
युवा कवि अजय कुमार की कविता सराहनीय रही-
ओ मेरे भाग्य सुन/इतना न तू मुझसे यहां इतरा
तुझे काबू में रखूंगा/मुझे तू जानता ही क्या ?
नरेश कुमार ‘महरानी’
नरेश कुमार ‘महरानी’ ने गीत सुनाया-
मैं गुडि़या नादान मुझको टल्ली बना दिया
मंजूर बाकराबादी की ग़ज़ल सराहनीय रही-
जुर्म महबूबा में उस पे मार जब पड़ने लगी
कह उठा यह छोकरी अम्मा भी है बिटिया भी।
देखकर दुल्हन परेशां हो गई मंडप में यूं
अल्ला-अल्ला देखिये दूल्हा मेरा बूढ़ा भी है।
आसिफ ग़ाज़ीपुरी
 आसिफ ग़ाज़ीपुरी ने तरंनुम में अच्छी ग़ज़ल पेश की-
अब कहां जा के छुपाओगे ये खूनी चेहरा,
उम्र कट जायेगी इस दाग़ का धोते-धोते।
आपके हुस्ने तगाफुल का नहीं कम एहसास,
मैं तो मर जाउंगा इस बोझ को ढोते-ढोते।


खुर्शीद हसन ने कहा-
सबक ये मिलता है इक़बाल के तराने से
अम्न से दुनिया है आबाद एक ज़माने से
करें हमेशा मदद एक दूसरे की हम,
नहीं है फ़ायदा लड़ने से और लड़ाने से।

जफर सईद जिलानी ने कहा-
हक़परस्ती के ज़बानी न करो दावे तुम
कुछ कदम चल के भी इस रह पे दिखाओ तो सही।

फरहान बनारसी का शेर यू  था-
मेरी अक्ल को तू शउर दे, मेरे इल्म को तू निखार दे

तलब जौनपुरी की ग़ज़ल काफी सराही गई-
दुश्वारियों के डर से जुबां खोलता नहीं
सच देखता तो हूं मैं मगर बोलता नहीं
धड़कन की ठंडकों से मेरा खून जम गया
जुल्मो-सितम की आग में भी खौलता नहीं।

मुख्य अतिथि शकील ग़ाज़ीपुरी ने कहा-
करो मत वक्त जाया गुफ्तगू में/लिपट जाओ जाने के दिन हैं।
शकील उनका तसव्वुर काम आया/हकीकत में नज़र आने के दिन हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे सागर होशियारपुरी की ग़ज़ल सराहनीय रही-
रेत की नींव पे बनी इमारत पल दो पल ही टिकती
लाख छिपाएं लोग मगर यह सच्चाई कब छिपती।

इस मौके पर देवेंद्र कुमार श्रीवास्तव ‘देवेश’, एहतराम इस्लाम, अख्तर अज़ीज़, राजीव निगम ‘राज’, निजाम हसनपुरी, शााहिद इलाहाबादी और शादमा जैदी ‘शाद’ कार्यक्रम में मौजूद रहे लेकिन काव्य पाठ नहीं कर पाए। अंत में वीनस केसरी ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।