इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
इलाहाबाद पुरातन काल से ही संतों-फकीरों,खानकाहों और दायरों का शहर रहा है। इन दायरों और खानकाहों में शायरों का जमावड़ा लगता रहता है। शेरी नशिस्तों और मुशायरों के रिवाज़ के कारण यहां पर शायरी परवान चढ़ी है। सूफि़याना मिजाज़ और रिवाज़ होने की वजह से यहां पर रहने और आने जाने वाले अधिकतर आलिम और बुजुर्ग नातिया शायरी करते रहे हैं। मगर आज नातिया शायरी के टेृंड में जहां बदलावद देखा जा रहा है, वहीं नौजवान शायर नातिया शायरी से दूर हो रहे हैं। हजरत मुहम्मह सल्ल. की शान में की जाने वाली नातिया शायरी के कारण ही राज़ इलाहाबादी, शम्स इलाहाबादी, माहिरुन हमीदी, चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी, अज़ीज़ इलाहाबादी और माहिर इलाहाबादी जैसे शायर न सिर्फ़ भारत में वरन दूसरे मुल्कों में भी मक़बूल रहे हैं।
आज भी इस शहर में शायरों की अच्छी ख़ासी जमात मौजूद हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 150 उर्दू शायर इलाहाबाद में हैं, मगर इनमें से डा. असलम इलाहाबादी, शमीम गौहर, ज़मीर अहसन, इक़बाल दानिश, अरमान ग़ाज़ीपुरी, महमूद रम्ज़, हबाब हाशमी, हसीब रहबर, स्वालेह नदीम, अख़्तर अज़ीज़, फरमूद इलाहाबादी, गुलरेज़ इलाहाबादी, सलाह ग़ाज़ीपुरी और फरहान बनारसी जैसे कुछ गिने-चुने नाम ही हैं, जो बकायदा नातिया शायरी कर रहे हैं। इनके अलावा ज़्यादातर लोग नातिया शायरी करने में असमर्थ से हैं। असलम इलाहाबादी की पुस्तक ‘उर्दू शायरी का आग़ाज़ और इख्तेता’ के मुताबिक 18वीं और 19वीं सदी के इलाहाबाद के प्रमुख शायर शाह गुलाम कुतुबुद्दीन, नासिर अफ़ज़ली, शाह मोहम्मद अज़ीम, शाह मोहम्मद अजमल, भिखारी दास अज़ीज़, अब्दुल रहमान, अहमद जान कामिल, शाह आला नजफ़, शाह अबुल अली, शाह अज़मल, आज़म अफ़ज़ल, तैसी ज़फ़र आदि हैं। इनमें से अधिकतर यहां पर स्थित बारह दायरों में ही उपस्थित होकर नातिया शायरी सुनते-सुनाते रहे हैं। नातिया मजमूए के हिसाब से सबसे पहले सरवर इलाहाबादी की किताब ‘नूरे अजल’ 1956 में प्रकाशित हुई। इसके बाद नातिया मजमूओं के प्रकाशन का सिलसिला काफी दिनों तक ठप रहा। इस ख़ामोशी को अख़्तर अज़ीज़ ने 1997 में तब तोड़ा जब उनकी पुस्तक ‘सुब्हे मदीना तैबा की शाम’ प्रकाशित हुई। 1997 में ही तुफैल अहमद मदनी की ‘दिले रेजां-रेजां’, सन 2000 अतीक़ इलाहाबादी की ‘सरकार की गली में’ और 2005 में शमीम गौहर का नातिया मजमूआ ‘जजाए खैर’ प्रकाशित हुआ। डा. गौहर की 1988 में ‘नात के चंद शोअरा मुतकद्दमीन’ और 1996 में ‘उर्दू का नातिया अदब’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। राज़ इलाहाबादी, माहिरुल हमीदी, शम्स इलाहाबादी, अज़ीज़ इलाहाबादी और स्वालेह नदीम वगैरह के किताबचे ‘पाकेट नातिया बुक’ समय-समय पर छपते रहे हैं।
बहरहाल, नातिया शायरी के परवान चढ़ने में यहां के दायरों का अहम किरदार रहा है। आज भी बारावफात की नौ तारीख को नासिर फ़ाखरी और 26 तारीख़ को दायरा शाह अजमल में नातिया मुशायरा होता है और यह सिलसिला तकरीबन 50 सालों से जारी है। बारावफात के ही महीने में करैलाबाग कालोनी में चार दिनों तक ईद मिलादुन नबी का आयोजन किया जाता है, जिसमें नातिया मुशायरा होता है। इसके अलावा बारावफात के और ग्यारहवीं के महीने में इलाहाबाद के विभिन्न मुहल्लों में ईद मिलादुन नबी और नातिया महफिलें सजती हैं। इन्ही महफिलों में शोअरा की हैसियत से शामिल होने के लिए लोग नात कहते हैं। मगर आज के अधिकतर नौजवान शायर नात कहने से पीछे हटते हैं। कुछ लोग तो मजहबी जानकारी कम होने की वजह से नात नहीं कहते, तो कुछ मज़हबी मिजाज न होने के कारण।
शमीम गौहर यूनिवर्सिटी और डिग्री कालेजों में नात पढ़ाने वाले कुछ अध्यापकों की आलोचना करते हैं। उनका मानना है कि जो लोग स्वयं मजहबी नहीं हैं, रसूल के बताये रास्तों पर नहीं चलते, उन्हें कोई हक़ नहीं है कि वो दूसरों को नात पढ़ाएं। उनका यह भी मानना है कि नात में कोई गलती होनी ही नहीं चाहिए और इसमें तनकीद के सारे दरवाज़े खोल देना चाहिए। शमीम गौहर की बात का जवाब देते हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर अली अहमद फ़ातमी कहते हैं ‘ वो ही इस्लाम को सही समझते हैं, तो वे ग़लतफ़हमी में हैं, मैं भी मुसलमान हूं, इसलाम को समझता हूं। पढ़ाना एक अलग फन है।’
शायरी ने अपना रुख़ बदला और ज़दीद शायरी की शुरूआत हो गई। नातिया शायरी में भी कुछ बदलाव देखा जा रहा है। नात शब्द के मायने ‘रसूल की तारीफ़’ होता है। लेकिन कुछ नात के शायरों ने देवबंदी और बरेलवी आदि के खेमों में बंटकर एक दूसरे के खिलाफ़ वाले शेर अपनी नातिया शायरी में शामिल कर रहे हैं। सभी मानते हैं कि यह ग़लत रिवाज़ की शुरूआत है। लेकिन शमीम गौहर इनसे अलग राय रखते हैं ‘नात’ रसूल की शान में कही और पढ़ी जाती है। इस हिसाब से रसूल की नाफरमानी करने वालों की आलोचना नात में होनी चाहिए।’ ज़मीर अहसन इलाहाबाद की नातिया शायरी की अच्छी संभावना को सिरे से ख़ारिज़ करते हैं, तो शमीम गौहर और नस्र कुरैशी मानते हैं कि इलाहाबाद में नातिया शायरी की अच्छी संभावना है। प्रो. फ़ातमी नात के बहुत आगे बढ़ने की वजह बताते हुए कहते हैं कि रसूल ने दुश्मनों के साथ तअल्लुक, तिज़ारत, सियासत और लड़ाई की नज़ीर अपनी जि़न्दगी में पेश की है, लिहाजा इन सभी पहलुओं की चर्चा नात में होनी चाहिए। सिर्फ़ सरापा नूर और जुल्फ वगैरह तक ही बातें सीमित नहीं होनी चाहिए।सहारा समय में 06 अगस्त 2005 को प्रकाशित
इलाहाबाद पुरातन काल से ही संतों-फकीरों,खानकाहों और दायरों का शहर रहा है। इन दायरों और खानकाहों में शायरों का जमावड़ा लगता रहता है। शेरी नशिस्तों और मुशायरों के रिवाज़ के कारण यहां पर शायरी परवान चढ़ी है। सूफि़याना मिजाज़ और रिवाज़ होने की वजह से यहां पर रहने और आने जाने वाले अधिकतर आलिम और बुजुर्ग नातिया शायरी करते रहे हैं। मगर आज नातिया शायरी के टेृंड में जहां बदलावद देखा जा रहा है, वहीं नौजवान शायर नातिया शायरी से दूर हो रहे हैं। हजरत मुहम्मह सल्ल. की शान में की जाने वाली नातिया शायरी के कारण ही राज़ इलाहाबादी, शम्स इलाहाबादी, माहिरुन हमीदी, चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी, अज़ीज़ इलाहाबादी और माहिर इलाहाबादी जैसे शायर न सिर्फ़ भारत में वरन दूसरे मुल्कों में भी मक़बूल रहे हैं।
आज भी इस शहर में शायरों की अच्छी ख़ासी जमात मौजूद हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 150 उर्दू शायर इलाहाबाद में हैं, मगर इनमें से डा. असलम इलाहाबादी, शमीम गौहर, ज़मीर अहसन, इक़बाल दानिश, अरमान ग़ाज़ीपुरी, महमूद रम्ज़, हबाब हाशमी, हसीब रहबर, स्वालेह नदीम, अख़्तर अज़ीज़, फरमूद इलाहाबादी, गुलरेज़ इलाहाबादी, सलाह ग़ाज़ीपुरी और फरहान बनारसी जैसे कुछ गिने-चुने नाम ही हैं, जो बकायदा नातिया शायरी कर रहे हैं। इनके अलावा ज़्यादातर लोग नातिया शायरी करने में असमर्थ से हैं। असलम इलाहाबादी की पुस्तक ‘उर्दू शायरी का आग़ाज़ और इख्तेता’ के मुताबिक 18वीं और 19वीं सदी के इलाहाबाद के प्रमुख शायर शाह गुलाम कुतुबुद्दीन, नासिर अफ़ज़ली, शाह मोहम्मद अज़ीम, शाह मोहम्मद अजमल, भिखारी दास अज़ीज़, अब्दुल रहमान, अहमद जान कामिल, शाह आला नजफ़, शाह अबुल अली, शाह अज़मल, आज़म अफ़ज़ल, तैसी ज़फ़र आदि हैं। इनमें से अधिकतर यहां पर स्थित बारह दायरों में ही उपस्थित होकर नातिया शायरी सुनते-सुनाते रहे हैं। नातिया मजमूए के हिसाब से सबसे पहले सरवर इलाहाबादी की किताब ‘नूरे अजल’ 1956 में प्रकाशित हुई। इसके बाद नातिया मजमूओं के प्रकाशन का सिलसिला काफी दिनों तक ठप रहा। इस ख़ामोशी को अख़्तर अज़ीज़ ने 1997 में तब तोड़ा जब उनकी पुस्तक ‘सुब्हे मदीना तैबा की शाम’ प्रकाशित हुई। 1997 में ही तुफैल अहमद मदनी की ‘दिले रेजां-रेजां’, सन 2000 अतीक़ इलाहाबादी की ‘सरकार की गली में’ और 2005 में शमीम गौहर का नातिया मजमूआ ‘जजाए खैर’ प्रकाशित हुआ। डा. गौहर की 1988 में ‘नात के चंद शोअरा मुतकद्दमीन’ और 1996 में ‘उर्दू का नातिया अदब’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। राज़ इलाहाबादी, माहिरुल हमीदी, शम्स इलाहाबादी, अज़ीज़ इलाहाबादी और स्वालेह नदीम वगैरह के किताबचे ‘पाकेट नातिया बुक’ समय-समय पर छपते रहे हैं।
बहरहाल, नातिया शायरी के परवान चढ़ने में यहां के दायरों का अहम किरदार रहा है। आज भी बारावफात की नौ तारीख को नासिर फ़ाखरी और 26 तारीख़ को दायरा शाह अजमल में नातिया मुशायरा होता है और यह सिलसिला तकरीबन 50 सालों से जारी है। बारावफात के ही महीने में करैलाबाग कालोनी में चार दिनों तक ईद मिलादुन नबी का आयोजन किया जाता है, जिसमें नातिया मुशायरा होता है। इसके अलावा बारावफात के और ग्यारहवीं के महीने में इलाहाबाद के विभिन्न मुहल्लों में ईद मिलादुन नबी और नातिया महफिलें सजती हैं। इन्ही महफिलों में शोअरा की हैसियत से शामिल होने के लिए लोग नात कहते हैं। मगर आज के अधिकतर नौजवान शायर नात कहने से पीछे हटते हैं। कुछ लोग तो मजहबी जानकारी कम होने की वजह से नात नहीं कहते, तो कुछ मज़हबी मिजाज न होने के कारण।
शमीम गौहर यूनिवर्सिटी और डिग्री कालेजों में नात पढ़ाने वाले कुछ अध्यापकों की आलोचना करते हैं। उनका मानना है कि जो लोग स्वयं मजहबी नहीं हैं, रसूल के बताये रास्तों पर नहीं चलते, उन्हें कोई हक़ नहीं है कि वो दूसरों को नात पढ़ाएं। उनका यह भी मानना है कि नात में कोई गलती होनी ही नहीं चाहिए और इसमें तनकीद के सारे दरवाज़े खोल देना चाहिए। शमीम गौहर की बात का जवाब देते हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर अली अहमद फ़ातमी कहते हैं ‘ वो ही इस्लाम को सही समझते हैं, तो वे ग़लतफ़हमी में हैं, मैं भी मुसलमान हूं, इसलाम को समझता हूं। पढ़ाना एक अलग फन है।’
शायरी ने अपना रुख़ बदला और ज़दीद शायरी की शुरूआत हो गई। नातिया शायरी में भी कुछ बदलाव देखा जा रहा है। नात शब्द के मायने ‘रसूल की तारीफ़’ होता है। लेकिन कुछ नात के शायरों ने देवबंदी और बरेलवी आदि के खेमों में बंटकर एक दूसरे के खिलाफ़ वाले शेर अपनी नातिया शायरी में शामिल कर रहे हैं। सभी मानते हैं कि यह ग़लत रिवाज़ की शुरूआत है। लेकिन शमीम गौहर इनसे अलग राय रखते हैं ‘नात’ रसूल की शान में कही और पढ़ी जाती है। इस हिसाब से रसूल की नाफरमानी करने वालों की आलोचना नात में होनी चाहिए।’ ज़मीर अहसन इलाहाबाद की नातिया शायरी की अच्छी संभावना को सिरे से ख़ारिज़ करते हैं, तो शमीम गौहर और नस्र कुरैशी मानते हैं कि इलाहाबाद में नातिया शायरी की अच्छी संभावना है। प्रो. फ़ातमी नात के बहुत आगे बढ़ने की वजह बताते हुए कहते हैं कि रसूल ने दुश्मनों के साथ तअल्लुक, तिज़ारत, सियासत और लड़ाई की नज़ीर अपनी जि़न्दगी में पेश की है, लिहाजा इन सभी पहलुओं की चर्चा नात में होनी चाहिए। सिर्फ़ सरापा नूर और जुल्फ वगैरह तक ही बातें सीमित नहीं होनी चाहिए।सहारा समय में 06 अगस्त 2005 को प्रकाशित
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