शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

‘पहले से भी दीन दशा में हैं होरी, धनिया और हल्कू’

प्रेमचंद जयंती की पूर्व संध्या पर गुफ़्तगू का वेबिनार
प्रयागराज। गुफ़्तगू की ओर से 30 जुलाई की शाम मुंशी प्रेमचंद जयंती की पूर्व संध्या पर वेबिनार का आयोजन किया गया, वेबिनार का विषय था ‘प्रेमचंद की कहानियां के पात्र आज कितने प्रासंगिक’। मशहूर कथाकार ममता कालिया ने कहा कि किसे पता था कि प्रेमचंद के होरी धनिया और हल्कू आज पहले से भी दीन दशा में हमारे समाज में दिखाई देंगे। कम से कम तब वे जीवित तो थे। आज बेचारे पेड़ों पर लटके हुए हैं खुदकुशी करने को मजबूर हैं।
मशहूर साहित्यकार नासिरा शर्मा ने कहा कि मुंशी प्रेमचद्र की कहानियों और उनके उपन्यास पर सवाल करना तब वाजिब बनता है जब हिंदुस्तान मंे हर वर्ग ने करवट बदल ली हो, और उसका मुखड़ा बदल गया हो। कहने का मतलब ही कि ऊपरी पहनावा तो लोगो का बदल गया है, अब हाथों में मोबाइल आ गया है, फैशनबल कपडे भी लोगो ने पहन लिये हैं। दिखावे के बाज़ार ने घर भी सजा दिये है। अब तो निम्न से निम्न वर्ग भी मैगी खाता है, मतलब, जिस बात को प्रेमचंद ने इंगित किया है वो इंसान की प्रवृत्ति नहीं बदली है, और न ही हालात बदले हंै। इसलिये मुझे तअज्जुब होता है, जब लोगो से कहते सुनती हूं कि आज के दौर में प्रेमचंद जी की कहानियां प्रासंगिक नही है। तो मैं आश्चर्य के साथ सोचती हूं कि वो कहानी या उपन्यास में किस चीज़ को देखकर ऐसी बात करते हैं। ऊपरी दिखावे को, प्रवृतियों को, हालात को या लापरवाहियों को। करप्शन मौजूद है, किसान पहले आत्महत्या नहीं करते थे अब कर रहे हैं, और अब तो डॉक्टर, पत्रकार भी सुसाइड कर रहे हैं। वजह क्या है? मेरे ख्याल से अगर प्रेमचंद जी होते वे इसके बारे में भी लिखते। हिंदुस्तान के मौजूदा हालात पर परत दर परत नीचे जाकर उसमें हमेशा प्रेमचंद सांसे लेंगे। इसलिए मैं प्रेमचंद के अदब को बहुत ही ज़्यादा इज़्ज़त से देखती हूं। उन्होंने ने अपने समय के नब्ज़ को बहुत ही संवेदनशील अंदाज़ से अपनी अंगुलियों को रख कलम चलाया है। मुझे आज खुशी है कि उनके लिये आज मै कुछ कह रही हूं, क्योकि हमेशा उनकी कहानियां मेरे लिये बहुत ज़्यादा राह को रोशन करने वाली हुई है। मैं हमेशा कहती हूं कि मेरा नज़रिया बदला है, अगर मैं बूढ़ी काकी न पढ़ती तो मेरा नजरिया क्या था बचपन में। बहरहाल मुझे एक नई रोशनी मिली कि बुजुर्गों के साथ क्या और कैसा बर्ताव होना चाहिए। बडे घर की बेटी पढ़ी तो लगा कि सब चीज़ों के बाद भी घर नहीं टूटना चाहिये, और आज के संदर्भ में कहूंगी की रिश्ते नहीं टूटने चाहिए। ईदगाह पढ़ के भी अनुभव हुआ कि संवेदना कहां हंै गहरी। एक बच्चा है, जो रोज दादी का हाथ जलता देखता है।दूसरों के घरों में चिमटा देखता है। तो ये तीन मेरी पसंदीदा कहानियां हैं। अगर हम हिंदुस्तान के इंटेरीरयर में जाएं तो उनकी कहानियों के पात्र जिन्दा मिलेंगे। बड़े घर की बेटी में रिश्तो के संजोने की तथा छोटे मोटे झगड़े सुलझाई या दिखलायी गयी है वो बडे पैमाने पर भी दिखाई पड़ती है। जो विश्व स्तर पर हो रहा है क्योंकि वो घर से शुरू होकर विश्व स्तर तक ले जाता है। देखिए, जहां संवाद होना चाहिए वहां लड़ाइयां हो रही हैं जो बात वेबिनार से तय हो सकती है। वहां हथियार के इस्तेमाल हो रहा है। तो कहानियां कई तरीके से अपने को खोलती है। वो ज़मीनी बात करती है ऐसी सोच देती हैं, यहां तक कि विश्व स्तर की परेशानियो मे भी जाकर मिल जाती है। और प्रासंगिक है। इसलिए प्रेमचंद को हर काल मे पढ़ने और समझने की ज़रुरत होगी और नए तरीके से होगी
मशहूरश की मौजूदा हालात में मुंशी प्रेमचंद के किरदारों को लौटने में पचास शायर मुनव्वर राना के मुताबिक दे साल से अधिक लग जाएंगे, देश का माहौल नफ़रत से भरा हुआ बना दिया गया है। ऐसे में वे पात्र फिर से नहीं लौटने वाले। प्रेमचंद के गरीब, मजदूर, लाचार पात्र भी उनकी कहानियों में बादशाह की तरह मुख्य किरदार में होते थे, जिनका आज के समाज में लौटना लगभग नामुमकिन है।
फिल्म संवाद लेखक संजय मासूम ने कहा कि प्रेमचंद की कहानियां और उनके सारे पात्र आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे अपने रचना समय में थे। वक़्त बदलने के साथ बदलाव तो बहुत हुए हैं, लेकिन जो ज़मीनी लेवल पर हर क्षेत्र में बदलाव होना चाहिए, वो नहीं हुआ है। किसानों की हालत बहुत ज्यादा वैसी है, मजदूरों की भी वैसी ही है। गांव में आप चले जाइए, तो जो व्यवस्थाएं हैं, जाति को लेकर, रुतबे को लेकर, वो ऑलमोस्ट लगभग वैसी ही हैं। कहने को तो कागज़ों पर काफी कुछ हुआ है, लेकिन स्थितियां कुल मिलाकर वैसी ही हैं। तो मुझे लगता है कि प्रेमचंद के सारे पात्र आज भी बहुत प्रासंगिक हैं। मेरा मानना है कि अमर रचनाकार जो भी होता है, वह समय से परे होता है।
इम्तियाज अहमद गाजी ने कहा कि प्रेमचंद के पात्र आज भी समाज में हमारे सामने खड़े हैं, उनकी समस्याएं कम होने के बजाए दिनो-दिन बढ़ती जा रही हैं। जिन लोगों की जिम्मेदारी इनकी समस्याएं कम करने की है, वे लोग उनकी समस्याओं में इज़ाफ़ा कर रहे हैं, यह हमारे लिए बहुत ही दुखदायी है।
मासूम रज़ा राशदी के मुताबिक पूस की रात का बेचैन हल्कू हर गांव में आज भी अनिद्रा का शिकार है। हर ईदगाह में अपनी बूढ़ी दादी के लिए चिमटा खरीदता हामिद आज भी नज़र आता है, अपने किसी संबंधी की लाश सड़क किनारे डाल कर कफन के नाम पर चंदा उगाहते घीसू और माधव हम सब ने कभी न कभी अवश्य देखे हैं। आप को झूट बोलना पड़ेगा यदि आप ये कहें कि आपने सद्गति प्राप्त किसी दुखी चमार को कभी नहीं देखा और बेटों वाली विधवा फूलमति किस घर में नहीं है आज? ईमानदारी से दिल पर हाथ रखिए और खुद से पूछिये, ये तो कुछ बानगी भर है। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का हर चरित्र मानव समाज के हर काल खंड में जीवित और प्रासंगिक है और रहेगा।
वरिष्ठ रंगकर्मी ऋतंधरा मिश्रा ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे कालजयी कहानीकार व नाटककार हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी के कौशल से अनेक कहानियों व नाटकों की रचना की। इन रचनाओं ने जनमानस को आंदोलित करने के साथ-साथ समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व भी किया। जहां तक वर्तमान समय की बात है, उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज के शोषित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई देते हैं। प्रेमचंद का साहित्य अपने समय, समाज और परिस्थितियों से गहरा जुड़ा हुआ है। जहां कफन में वे धार्मिक परंपराओं व गरीबी को निशाना बनाते हैं। रंगभूमि में औद्योगिकीकरण की समस्या को बखूबी दर्शाते हैं। गरीबी और शोषण का जीवंत चित्रण सवा सेर गेंहू और पूस की रात में किया गया है। मंत्र कहानी के द्वारा भी उन्होंने एक आम आदमी की मानसिकता को बहुत अच्छी तरह दर्शाया है जो अपने साथ बुरा होते हुए भी दूसरों का भला चाहता है। कर्मभूमि में उन्होंने राजनीतिक विकृतियों के साथ साथ सामाजिक रूढ़ियों और परंपराओं के विरोध के संघर्ष को भी दिखाया है।
शगुफ्ता रहमान ‘सोना’ ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उनकी रचनाओं के बिना हिंदी साहित्य में साहित्य की चर्चा करना अधूरा प्रतीत होता है। आज भी उनकी कहानियों के पात्र समाज के प्रत्येक वर्ग, अमीर-गरीब, धर्म, ऊंच-नीच, भ्रष्टाचार आदि पर प्रहार करते हैं। ‘पंच परमेश्वर’ में जुम्मन शेख और अलगू चैधरी का किरदार अनुकरणीय है। ‘ईदगाह’ में गरीबी के कारण हामिद का चिमटा खरीद कर लाना मन को झकझोर देने वाला है। ‘नमक का दरोगा’, ‘पूस की रात’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘गुल्ली डंडा’ आदि कहानियों के पात्र समाज को आईना दिखाते हैं। कहानियों के पाश्चात्य विधा को जानते हुए भी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में मूल रूप से अपने परिवेश से जुड़े पात्रों के माध्यम से अन्ध परंपराओं पर चोट कर मानवीय मूल्यों को समाज के समक्ष आदर्श रुप प्रस्तुत किए हैं। जो भारतीय समाज के लिए अनुकरणीय है। डाॅ. नीलिमा मिश्रा ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद की कहानियां सिर्फ़ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर दार्शनिकता और भावनात्मक लक्ष्य को लेकर लिखी गयी हैं, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी वह अपने काल में थीं, जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। प्रेमचंद ने जीवन की कठोर वास्तविकता, गरीबी, सामाजिक भेदभाव, अंध-संस्कार, धार्मिक ढोंग, जातिवाद, नारियों की दयनीय दशा, न्याय का अभाव, घूसखोरी, राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक रूढ़िवादिता, अशिक्षा, कुटिल राजनीतिक कुचक्र जैसे तमाम विषयों को कहानी का विषय बनाया और अपनी शैल्पिक विशेषताओं, भाषा की गंभीरता, सशक्त संवाद, प्रवाहमयी शैली, चरित्र चित्रण से कहानियों को अद्वितीय बना दिया। उनकी कहानियों को पढ़ते समय कथा के पात्र स्वयं पाठक के मन पर ऐसा गहरा असर छोड़ते हैं कि लगता है कि वह स्वयं उस कहानी का पात्र हो गया हो। जो दिल और दिमाग दोनों पर अपनी अमिट थाप छोड़ती हैं।
अर्चना जायसवाल सरताज के मुताबिक हिदी साहित्य जगत मुंशी प्रेमचंद के बिना अधूरा है, समाज के हरेक वर्ग का ऐसा सटीक व सारगर्भित चित्रण मुंशी जी ने अपनी रचनाओं में किया है कि आज भले ही प्रेमचंद जी हमारे बीच में नहीं, मगर उनकी कथाओं के सभी पात्र मूल रूप में मौजूद हैं। साथ ही कहानियों का मूल भाव भी उसी रूप में आज भी प्रासंगिक व स्वीकार्य है। मुंशी जी की शब्द-भाषा इतनी सरल व सुग्राह्य है कि पाठक चाहे कम से कम पढ़ा हो या विद्वान से विद्वान हो पढ़ते वक्त तल्लीन व भावुक होकर एक-एक शब्द को पी जाना चाहता है। कई बार पढने के बाद भी इनकी रचनाओं को बार-बार पढ़ने का जी चाहता है। शायद इसलिय की इनकी हर बात आज के समय नमे भी प्रासंगिक लगती हैं।
दयाशंकर प्रसाद ने कहा कि ‘पूस की रात’ के पात्र हल्कू की तरह से ही किसान मजबूर होकर आज मजदूर बन गए हैं। ‘आधार’ कहानी की विधवा पात्र अनूपा भारतीय समाज में व्याप्त अनमेल विवाह पर प्रहार करती हुई आदर्श की स्थापना करती है ‘नमक का दरोगा’ के पात्र बंशीधर जैसा ईमानदार दरोगा के सामने पंडित अलोपीदीन जैसे प्रतिष्ठित जमींदार भी झुकने को मजबूर हो गए। प्रेमचंद की विभिन्न कहानियों के पात्र आज भी समाज में किसी न किसी रूप में सजीव परिलक्षित होते हैं। प्रभाशंकर शर्मा ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद के पात्र मानवीय मूल्यों का उजला पक्ष हैं और उनके पात्र सिर्फ कल्पना मात्र नहीं हैं बल्कि वह सामाजिक बुराइयों पर पूरा प्रहार करते नज़र आते हैं। यही वजह है कि आज भी मुंशी प्रेमचंद के पात्रों को भुलाया नहीं जा सकता। चाहे वह धनिया हो या बुधिया, होरी या ईदगाह का हमीद। मुंशी प्रेमचंद के पात्र जरा भी बनावटी नहीं बल्कि परिवेश से लिए गए पात्र थे वह इस तरह कहानियों व उपन्यास में उभर कर सामने आते थे। जैसे हम पाठक स्वयं में उस चरित्र को महसूस कर रहे हों। प्रेमचंद ने अपने पात्रों में पूरा मनोवैज्ञानिक पहलू उजागर किया है पात्र के हिसाब से ही उनकी भाषा का चयन और परिदृश्य होता था। डाॅ. ममता सरुनाथ ने कहा कि प्रेमचंद की कहानियों के पात्र अगर हम नज़र घुमा कर देखें तो आज भी हमारे इर्द-गिर्द दिखाई पड़ जाते हैं। कितनी ही स्त्रियां आज भी निर्मला की तरह जीवन जीने को मजबूर हैं। कितने ही हल्कू होरी और धनिया आज भी अपनी लाचारी और बेचारगी भरे जीवन जीने पर मजबूर हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो हालात का सामना न कर पाने की स्थिति में आत्महत्या तक के कदम उठा लेते हैं। प्रेमचंद ने जो प्रयास किया अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक नया दृष्टिकोण देने का समाज को बदलने की कोशिश की शायद आज के लेखकों को भी ऐसे प्रयास करने की आवश्यकता है ।
इसरार अहमद के मुताबिक मुंशी प्रेमचंद की कहानियां आज के आधुनिक दौर के सभ्य समाज को आईना दिखाने का कार्य करती हैं। इनके कहानियों के पात्र आज के समाज के जीवंत पात्रों पर सटीक प्रहार करते हुए नज़र आते हैं। आज के दौर की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं में सामंतवादी सोच वाली पात्रों का इस समाज के दबे कुचले एवं वंचित समाज के प्रति किए जाने वाले व्यवहार एवं कार्य अंग्रेजों के द्वारा किए गए गणित कार्यों की याद दिलाते हैं। पूस की एक रात नामक कहानी में हल्कू का अपने कुत्ते जबरा के साथ पूस की ठंडी रात्रि में एक साथ सोना उस समय की गरीबी को दिखा रहा था, जो आज भी ऐसे बहुत से इस समाज में हल्कू मौजूद हैं। जिनकी तरफ आज के नेताओं की या सभ्य समाज के बुद्धिजीवियों की कोई नज़र नहीं जाती है। नमक के दरोगा में उस समय इंस्पेक्टर द्वारा नमक पर खुश खाना उस समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर कर रहा था जो आज के दौर में पुलिस एवं संबंधित विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करता है। वास्तव में कहानियों में प्रयुक्त पात्र आज के दबे कुचले समाज एवं वंचित समाज के लोगों की वास्तविक स्थिति को उजागर करते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कराती हैं की आज के दौर की सावंतवादी शक्तियां किस प्रकार से दबे कुचले एवं पंचित परिवार का शोषण कर रहे हैं।
रचना सक्सेना ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद ऐसे साहित्य साधक थे जिन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों के पात्रों के माध्यम से जहां एक ओर अंध परम्पराओं पर चोट की, वहीं सहज मानवीय संभावनाओं और मूल्यों को भी खोजने का प्रयास किया। इसी वजह से उनकी कहानियां व उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमर रचनाओं व कृतियों के रुप में अमिट धरोहर बन गयी। उनकी कहानियों को जब हम आज के परिप्रेक्ष्य में देखते है तो भी उनके चरित्र आज भी अपने इर्द-गिर्द किसी न किसी रुप में मिल जाते हैं। निर्मला के रुप में आज भी भारतीय नारी अपनी परिस्थितियों सें और अनेक विकट समस्याओं से जूझती हुई दिख जाऐगी। अतः इस दृष्टि से उनके कहानियों और उपन्यासों के चरित्र आज भी पूर्णतया प्रासंगिक हैं।

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

सोशल मीडिया शायरी नहीं सिखा सकता : मुनव्वर राना

मुनव्वर राना से बात करते अनिल मानव
मुनव्वर राना एक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित शायर है, इन्होंने शायरी को एक नया मोड़ और मुकाम दिया है। भाषा-शैली और कहन की ताज़गी सहजता, सरलता की वजह से राना साहब हर दिल अज़ीज़ है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में आपका होना क़ामयाबी की अलामत है। पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी में भी आपकी शायरी की धमक सिर चढ़कर बोलती है। कहा जाता है कि मुनव्वर राना ग़ज़ल को महबूब-महबूबा और कोठे से उठाकर ‘मां’ तक लाये हैं। आपने ‘मां’ पर इतनी अच्छी शायरी की है कि इस विषय पर लिखना अब जैसे जूठन सा जान पड़ता है। 
 उनका जन्म 26 नवम्बर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ है। आपकी शुरूआती शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई। वर्तमान में आप लखनऊ में रहकर अदब की सेवा में लगे हुए हैं। मुनव्वर राना के पारिवारिक सदस्य और बहुत से रिश्तेदार भारत-पाक विभाजन के वक़्त पाकिस्तान चले गए, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने वतन में रहने को ही अपना कर्तव्य समझा। आपने ग़ज़लों के साथ संस्मरण और आत्मकथा भी लिखी है। इनकी लेखन की लोकप्रियता के कारण उनकी रचनाओं का अनुवाद कई अन्य भाषाओं में भी हुआ है। इनकी पुस्तक ‘शाहदाबा’ के लि वर्ष 2014 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाज गया था। इनकी अब तक एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ‘मां’, ‘ग़ज़ल गांव’, ‘पीपल छांव’, ‘बदन सराय’, ‘नीम के फूल’, ‘सब उसके लिए’, ‘घर अकेला हो गया’, ‘कहो जिल्ले इलाही से’, ‘बग़ैर नक़्शे का मकान’, ‘फिर कबीर’, ‘नये मौसम के फूल’, ‘मुहाज़िरनामा’ आदि प्रमुख हैं। 08 दिसंबर 2019 को टीम गुफ़्तगू उनसे उनके लखनऊ स्थित आवास पर मिलने पहुंची। अनिल मानव ने उनसे बातचीत की। प्रतुस्त है उस बातचीत के प्रमुख अंश-
सवाल: गुफ़्तगू की 17 वर्ष की यात्रा को किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: गुफ़्तगू का सबसे बड़ा कमाल यह है कि उसने नये लोगों का परिचय कराया और सिर्फ़ यहीं नहीं बल्कि पुराने लोगों को हमेशा सम्मान भी दिया। चाहे वे संरक्षक कमेटी हो, चाहे एडवाइजरी बोर्ड हो, चाहे उसके लेखन हों, चाहे वो जीवित हों या न हों, सबको याद रखना, सबको साथ लेकर चलना आदि। ये इसका बहुत बड़ा कमाल है। आमतौर पर जो पत्रिकाएं है, उर्दू में हों या हिन्दी में, वो हमारे जो पूर्वज है वो उनको भूल जाती हैं। शायरी हो चाहे गद्य हो केवल नये लोगों को भर लेते हैं। पुराने लोगों को लेने से एक बड़ा कमाल ये होता है कि मीर ने क्या कहा, ग़ालिब, दाग़ और अकबर ने क्या कहा और इसके बाद नये लोग क्या कह रहे हैं इसका पता चलता है। इससे एक फ़ायदा यह होता है कि जो नये लोग कह रहे हैं, उनको ये मालूम हो जाता है कि हमारे पूर्वज लोग ये कह कर गए हैं। सोशल मीडिया वो आईना है जिसमें आदमी सिर्फ़ अपने का देखता है और खुश रहता है। इसमें तो लाइक, लाइक, लाइक...। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सिर्फ़ लाइक लगा देते हैं। उनको पता भी नहीं होता कि इसमें लिखा क्या है। लेकिन गुफ़्तगू एक ऐसा आईना है जिसमें हम अपने माज़ी को भी देख सकते हैं, गुज़रे हुए दिन और गुज़रे हुए साहित्य को भी देख सकते हैं।

सवाल: वर्तमान समय में आप साहित्यिक पत्रिकाओं को किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: देखिए, पत्रिकाओं का बहुत बुरा वक़्त चल रहा है। अब ये तय करना मुश्किल है कि 10-15 साल बाद कितनी पत्रिकाएं जिन्दा कर पायेंगी । पहले ही पढ़ने लिखने का चलन कम होता गया था, इसलिए कि भागदौड़ और सफ़र की ज़िन्दगी में समय कम मिल पाता है। पहले होता क्या क्या था कि शहर छोटा होता था। उसी में लोग घूम-फिर के रहते थे। अब लोग दूर-दूर रहते हैं कि उनके पास वक़्त नहीं है कि वे साहित्यिक गतिविधियों में शामिल हो सकें। ये भी देखते हैं कि अगर वक़्त ज़्यादा हो गया, जैसे हमें नक्ख़ास कोना, इलाहाबाद से बम्हरौली जाना है और गाड़ी छूट गयी तो टैक्सी करके जाना होगा, जिसमें 200 रुपये तक खर्च होंगे। पहले ऐसा नहीं था। पहले करीब होता था सब, यहां-वहां हर जगह। उसका एक नुकसान हुआ, जैसे हमने बहुत शहरों में देखा था। पटना में बहुत साहित्यिक गतिविधियां थीं। छोटा शहर था, सब पास-पास रहते थे। अब इतनी दूर-दूर काॅलोनियां बन गयी हैं कि लोग घड़ी देखते हैं कि हमें गाड़ी नहीं मिलेगी, तो इसका नुकसान हुआ। पहले साथ बैठते थे तो चर्चा होती थी कि लोग ये हंस पत्रिका, गुफ़्तगू पत्रिका है हसमें ये लेख छपा है वो लेख छपा है, तो दूसरे आदमी को भी होता था कि पत्रिका खरीदे। लेकिन अब वो पत्रिका जहां बिकती है वो उससे दूर रहता है। अब ज़माना वो आ गया है कि आप झूठ-मूठ एक कार कम्पनी का फोन लगा दीजिए कि हमें कार खरीदना है तो चार कार कम्पनी आ जाती हैं गाड़ी लेकर कि आप देख लीजिए जो लेना चाहते हैं। पत्रिका के लिए हम इंतज़ार करते हैं कि हम छाप करके बैठें हैं दुकान में और जलेबी है लोग ले जाएंगे। ऐसा नहीं होता, इसके लिए भी रास्ता होना चाहिए। जैसे हाॅकर है या कोई सिस्टम होना चाहिए कि हम अभी कोई भी किताब खरीद सकते हैं। कोई पत्रिका हिन्दी या उर्दू की जाए तो हम उसको ले सकते हैं। लेकिन ये पाॅसिबल नहीं है कि एक गोमती नगर का आदमी अमीनाबाद खरीदने आये पत्रिका और वो न मिले इसके बाद वो फिर लौट आए। मालूम 10 रुपये की पत्रिका और उसका 150 रुपये खर्च हो जाए तो इसकी एक सहूलत होनी चाहिए।

मुनव्वर राना के आवास पर: बाएं से- मुनव्वर राना, अफ़सर जमाल, इश्क़ सुल्तानपुरी और अनिल मानव

सवाल: आने वाले समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य देखते हैं ?
जवाब: ग़ज़ल का जो फ्यूचर है, आप यूं कह लें कि हर ज़माने में उलट-पुलट के ठीक हो जाती है। एक ज़माना आता है हो सकता है बहुत लोगों ने नहीं देखा होगा। बरसात में एक लाल रंग का कीड़ा निकलता है उसे कहते हैं ‘लिल्ली घोड़ी’। तो लोग कहते हैं साहब, ये ग़ज़ल नहीं है बस लिल्ली घोड़ी बिठा दीजिए यानी दो मिसरे लिख दिये गये। तो आप समझिए ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल काम है, बाबा रामदेव का च्यवनप्राश एक कैप्सूल में भरना है। लेकिन लोग इसको आसान समझते हैं। जो लोग कविता कहते हैं, वो समझते हैं कि ग़ज़ल लिखना बहुत आसान काम है, इसे कोई भी कर लेगा। ग़ज़ल कहना बहुत मुश्किल काम है। अच्छी ग़ज़ल या बुरी ग़ज़ल का फैसला तो पचास साल बाद होता है। ऐसा नहीं है कि वन-डे मैच है और शाम को रिजल्ट मालूम हो गया। लेकिन जो हमाने नए लिखने वाले आए हैं उनके यहां एक ये सबसे बड़ी ख़राबी ये है कि उस्तादी-शार्गिदी के चलन का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। उसमें ये था कि उस्ताद जो होता था वो बिल्कुल जैसे बहु खाना पकाती थी तो सास उसमें नमक डाल देती थी और यही तमीज़ सीखाती थी कि नमक कितना होना चाहिए। अंगीठी से चैला बाहर निकाल देती थी कि आंच कितनी होनी चाहिए। तो उस्ताद का काम यही होता था। बाकी शब्दावली, थाॅट्स, भावनाएं आपकी हुआ करती थी। उस्ताद सिर्फ़ इतना करता था कि ये शब्द यहां पर अच्छा नहीं इसे सही कर लो।

सवाल: क्या आज के दौर में ग़ज़ल के अच्छे उस्ताद मिल पाते हैं ?
जवाब: उस्ताद आजकल बहुत कम हो गए लेकिन जितना सम्मान मिलना चाहिए उतना भी तो आजकल नहीं मिलता, तो फिर क्यों कोई उस्ताद बने। ज़माना ऐसा आ गया है कि जिसको आप सिखाते हैं वो जिस दिन दस ग़ज़लें कह लेता है उस दिन स्टेज पर आपके सामने सिगरेट पीकर धुआं मारता है। और फूंकते हुए कहता है और उस्ताद क्या हाल है ? जिस परम्परा के हम लोग हैं कि एकलव्य ने अंगूठा काटकर दे दिया। ये लोककथा हो, सच हो, नहीं हो, लेकिन ये है कि अच्छा लगता है। हमारे यहां पर एक तरीका था कि जब मां कसम दे देती थी कि तुझे हमारे दूध की कसम है तो जो है वो जान कुर्बान कर देता था। अब कैसे मां कसम देगी, वो तो ‘नेस्ले’ का दूध पिलाती है। उसी तरह से जब आप उस्ताद अच्छा नहीं चुनते हैं तो या उस्ताद को वो दर्ज़ा नहीं देते तो ठीक नहीं है। जैसे कहा जाता है कि पहले जो नया शायर आता था तो वो दस साल लगभग गिलास धोता था। पीने की तो इज़ाज़त ही नहीं थी।

सवाल: नई पीढ़ी के ग़ज़लकारों के लिए आप क्या कहना चाहते हैं ?
जवाब: जो नए ग़ज़लकार हैं, उनको एक चीज़ का ध्यान रखना चाहिए कि आपके जो सीनियर्स हैं उनक इज़्ज़त कीजिए। उनसे सीखने की कोशिश कीजिए। अगर आप ऐसा करते हैं तो इसमें आपको नुकसान कुछ नहीं होना वाला। दूसरी बात आप जितना पढ़ सकते हैं  उतना अधिक पढ़ें। सोशल मीडिया आपको शायरी नहीं सिखा सकता। गूगल आपको ये नहीं बता सकता है कि किस दिन आपको मरना है। जिस दिन गूगल आपको ये बता देगा कि आपको मरना किस दिन है उस दिन दुनिया खत्म हो जाएगी। उसी तरह शायरी में आपको ये कोई नहीं बता सकता कि निराला कौन बनेगा, बच्चन कौन बनेगा, महादेवी वर्मा कौन बनेगी, ग़ालिब, फ़िराक़ कौन बनेगा, कुछ नहीं मालूम। सब एक दौड़ में हैं। जिसका नसीब अच्छा होता है, जिसने खि़दमत की होती है, जिसने बुजुर्गों से सोहबतें की होती हैं, अल्लाह नवाजता है। ग़ज़ल हिन्दी या उर्दू नहीं होती है, न ग़ज़ल हिन्दू-मुलसलमान होती है। ग़ज़ल में सिर्फ़ लिखा जाता है कि ये ग़ज़ल है।

सवाल: गुफ़्तगू के ‘रक्षक विशेषांक’ को आप किस रूप में देखते हैं?

मुनव्वर राना: गुफ्तगू यक़ीनन एक बड़ा काम कर रही है। क्योंकि वो लोग, जो अपनी पूरी जिं़दगी देश और देशवासियों के रक्षा में गुजार देते हैं, उनकी शायरी या उनकी कहानियां पढ़ने से एक अजब तरह का एहसास होता है। जैसे चमन में कुछ फूल ऐसे होते हैं, जिनकी की खुशबू सबसे अलग और अच्छी होती है। जीवन में इतनी कठिनाइयों, मुसीबतों, चैलेंज, दुख और मुकाबले में शामिल रहने के बाद भी अपने कवि हृदय को जिंदा रखना खुद एक कविता है। मैं इम्तियाज गाजी और उनकी पूरी टीम को मुबारकबाद देता हूं, कि इस अंक के बाद अभी वो ख़ामोश नहीं बैठेंगे, बल्कि कोशिश करके और भी एकाध अंक निकालेंगे, ताकि यह सामग्री महफूज हो जाए। जो जीवित हैं या नहीं है, उनको मुबारकबाद देने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता है।

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2020 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

लोग अपनी प्यास बुझाते हैं चले जाते हैं

 
                                                                        - मुनव्वर राना
 
मुनव्वर राना
                             
 इलाहाबाद की मिट्टी ज़रख़ेज़ हो या न हो लेकिन इस शहर के मिज़ाज में मुरव्वत और मिट्टी में इल्म व अदब का ख़मीर शामिल है। सियासी बाज़ीगर शाह को पिटवाते रहें लेकिन इल्म की देवी सरस्वती अपनी मंदिर में सियासी मुजरे की इज़ाज़त कभी नहीं दे सकती। आती-जाती सरकारें नए सिरे से इस शहर की हदबंदी करती रहें, इस शहर के जुगराफिये की कितनी ही कांट-छांट की जाए लेकिन जब तक्सीमे मुल्क के बाद भी अदब की तारीख़ इब्ने सफ़ी इलाहाबाद के ही रहे तो फिर दुनिया की कोई ताक़त ‘नूह’ नारवी को इस शहर से अलग नहीं कर सकती। शहरों का जुग़राफ़िया तो सैलाब का पानी भी बदल देता है लेकिन तारीख़ तो किताबों के समंदर और दिलों के निहाख़ानों में हमेशा महफूज रहती है। इस गंगा-जमनी तहज़ीब वाले शहर से अगर अकबर इलाहाबादी, निराला, फ़िराक़ गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, सुमित्रा नंदन पंत और राज़ इलाहाबादी को अलग कर दें तो अदब बेवा की सूनी कलाइयों जैसा होकर हर जाएगा। अदब से हिन्दी, उर्दू या किसी भी ज़बान को अलग करना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे किसी घने और छायादार पेड़ पर सिर्फ़ एक तरह की चिड़िया को बसेरे की इज़ाज़त दी जाए। अदब रखैल की की तरह नहीं होता कि जिसके जिस्म और सांसों पर शहर के किसी एक रईस का कब्जा बरक़रार रहता है बल्कि अदब तो उस मुक़द्दस मां की तरह है होता है जिसकी छाती से उबलता हुआ दूध मसलक और मज़हब की क़ैद से आज़ाद कर नन्हें बच्चे के प्यासे होंठों तक पहुंचने क लिए बेताब रहता है। अज़ीम होती हैं वो माएं जो अपनी छातियां किसी फ़िरके, किसी मज़हब के नवज़ाइदा बच्चे के हलक़ में उंडेल देती है। अदब को ज़बान की बुनियाद पर तक़सीम करने वाले दहशतगर्त तो हो सकते हैं लेकिन शायर और अदीब हरगिज नहीं हो सकते, क्योंकि दुनिया की किसी भी ज़बान में शायर को शायर और दहशतर्गत को दहशतगर्त ही कहा जाता है। मोहतात सियासतदां पंडित नेहरू से लेकर बेनियाज़ी की तस्वीर माहिर इलाहाबादी तक इस शहर के ऐसे रोशन सितारे हैं जिन्होने इस शहर का सिर बुलंद रखने के लिए सांसों की सारी पंूजी दयारे ग़ैर में खर्च कर दी, इस शहरे तबस्सुम से मुस्कुराते हुए रुख़्सत हुए और वापस हुए तो अर्थी, मय्यत और कलश की शक्ल में आये।
               लाश तक घर को न पहुंची ऐसा मक़तल भा गया,
               हमने सोचा था कि कुछ सांसें बचा ले जायेंगे।
इस शहर में आईने हमेशा कम फरोख़्त होते हैं क्योंकि यहां हर चेहरा आईना सिफ़त रहा है। जहां आंखें बोलती और बात करती हैं। हालांकि इसी शहर में त्रिवेणी ग्लास जैसी कंपनी मौजूद है जो सारे एशिया को आईना साज़ी का हुनर और चेहरे को खूबसूरत दिखाने के आदाब सिखाती है। हिमालय की आग़ोश से निकली हुई गंगा और जमुना एक दूसरे से बेनियाज़ होकर हज़ारों मील तक बहती रही लेकिन इलाहाबाद पहुंचते ही दोनों एक दूसरे में इस तरह मुदग़म हो गयीं जैसे मुद्दतों की बिछड़ी हुई बहनें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं। गंगा और जुमना की इस हम आग़ोशी का एहतराम बंगाल की खाड़ी में बहती हुई वह हुगली नदी भी करती है जिसे दुर्गा और काली के शहर कलकत्ता का आंचल भी कहा जाता है। गंगा-जमुना की इस खुदसुपुर्दगी और हम आग़ोशी का ही करिश्मा है कि हिन्दुस्तान की हर ग्लास कंपनी इलाहाबाद की शीशा सिफ़त बालू के बग़ैर वीरान रहती है। चंदौसी से कलकत्ता और कलकत्ता से इलाहाबाद तक का सफ़र जेके अग्रवाल और उनके बुजुर्गों ने सिर्फ़ इस चमकती हुई बालू को शीशे में बदल देने के लिए ही तय किया था।
                 हमें महबूब को अपना बनाना तक नहीं आया,
                 बनाने वाले आईना बना लेते हैं पत्थर से।
मैं पूरे एतमाद से यह बात अर्ज़ कर रहा हूं कि जब तक इस शहर में गिरीश वर्मा, डीएन आर्या जैसे लोग मौजूद हैं, इस शहर का रज्जू भैया और मुरली मनोहर जोशी से कोई ख़तरा नहीं हैं क्योंकि आज तब इस शहर के दरो-दीवार से नेहरू के कलंदराना रविश, लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी, राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह की फकीराना तबीयत, हेमवंती नंदन बहुगुणा की हर दिल अज़ी़ज़ी और मुस्तफ़ा रशीद शेरवानी की इनसान दोस्ती का नूर उबल रहा है। शायद यही वजह है कि इलेक्ट्रिक सप्लाई वालों की मुस्तक़िल नाफ़रमानी के बावजूद इस शहर में हर वक़्त उजाला रहता है। उस अदबी चैपाल की रौनक कभी कम हो ही नहीं सकती जिसके इर्द-गिर्द डाॅ. रामकुमार वर्मा, मुस्तफ़ा ज़ैदी, डाॅ. जगदीश गुप्ता, मुजाविर हुसैन रिज़वी, डाॅ. हरिदेव बहरी, पंडित उदय नारायण तिवारी, हरिवंश राय बच्चन और शफ़ीक इलाहाबादी जैसे लोगों ने कहानियां बुनी हों और ग़ज़लों के फूल चुने हों। अभी इस शहर की फ़ज़ाओं में मौलाना तुफैल अहमद मदनी की बाज़गश्त महसूस होती है। अभी दायरा शाह अजमल के बुजुर्गों के कश्फ़ोकरामात से दुनिया नावाक़िफ नहीं हुई है। अभी इलाहाबाद स्टेशन पर आराम फ़रमाते हुए लाइन शाह बाबा के मज़ार पर हाज़िरी देने से पहले लोग अपनी सियासी पगड़ियों का उतार देते हैं। अभी जमुना के मुकद्दस पानी से बुजुर्गों के सज़दों की खुश्बू आती है। अभी मुकद्दस गंगा की सुनहरी लहरों से चंदन टीके की महक महसूस होती है। ऐसे इल्मी और अदबी दर्सगाह की बेअदबी इनसान तो इनसान आबो-हवा भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। कंक्रीट से बनायी हुई इमारतें उस वक़्त शर्मिंदा हो जाती हैं जब गोश्त पोस्त का इंसान अपनी जात को मिट्टी में मिलाकर उसे और भी गुलज़ार बना देता है।
                हमको इस मिट्टी में बो देंगी हमारी नस्लें,
                हम कहीं भी नहीं इस शहर से जाने वाले।
 यह अदबी चैपाल अगर कोयले को राख बनाती देख चुकी है तो हरी शाख़ों को कोयला होते हुए देखना भी इसका मुकद्दर है। इल्म की गर्मी और अदबी सरगर्मी को ज़िन्दा रखने के लिए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, रवींद्र कालिया, इक़बाल माहिर, सुहैल ज़ैदी, ममता कालिया, नस्र कुरैशी, सैयद अब्दुल करीम, हमीद क़ैसर, काएद हुसैन कौसर, यश मालवीय, जुल्फ़िकार सिद्दीक़ी और हमदून उस्मानी जैसे बड़े चिराग़ बरसों रौशनी लुटाते रहे। हरचंद कि वक़्त की आंधी ने उनमें से कई चिराग़ों को मुज़महिल किया और कई चिराग़ों को निगल भी गयी। आंधी कितनी ही ताक़तवर क्यों न हो उसका जोर ज़्यादा देर तक नहीं रहता लेकिन पुराने चिराग़ बुझते-बुझते भी नये चिराग़ों को अपना हुनर सौंप देते हैं। आंधी और चिराग़ की जंग जब तक दुनिया है जारी रहेगी -
                   मिलेंगे आपको हम लोग हर ज़माने में,
                   हमारे पैरों में ज़जीरे माहो साल नहीं।
आज भी शहरे इलाहाबाद के अदबी जज़्बात सर्द नहीं हुए। आज भी गंगा और जमुना की लहरों का सुरीलापन बाक़ी है। आज भी मुस्लिम हाॅस्टल की गहमा-गहमी का वही आलम है। आज भी बरकत टी स्टाल शायरों और अदीबों का मयख़ाना है। आज भी सियासत इस शहर में आंखें नीची करके चलती है। आज भी अमरूद की महक सारे शहर को दीवाना कर देतीे है। आज भी ग़ज़ल के शैदायी अपना मज़हब नहीं जानते। आज भी सुलाकी हलवाई की पूड़ी-सब्ज़ी और क़ादिर हलवाई के गाजर के हलवे के दीवनों की गिनती नहीं की जा सकती। आज भी इमाम बख़्श (जल्लाद) की चाय अपने गांव में कई बोतलों का नशा रखती है। हाईकोर्ट की पुरशिकोह इमारत जो इंसाफ और नाइंसाफी के हज़ारों वाक़ियात की चश्मदीद गवाह है, सियासी इक़तिदार और हवसे नग़मये तर ने इसे इमारत के विक़ार को भी मैला कर दिया है। आनंदभवन एक तारीख़ साज़ इमारत है, एक ज़माने तक यह मुजाहिदीने आज़ादी की सबसे बड़ी छावनी थी। इस इमारत में दाखिल होते ही हिन्दुस्तान के शरीफ़ सियासतदानों के चेहरे निगाहों के सामने घूमने लगते हैं। खुसरो बाग़ और जमुना किनारे का क़िला आज भी हिन्दुस्तानी मुग़लिया सल्तनत की सलीकेमंदी की दाद तलब करते महसूस होते हैं। सफ़ाई के एतबार से यह शहर उत्तर प्रदेश के और दूसरे तमाम शहरों के मुक़ाबिले में ग़नीमत है। मुमकिन है, क़लम कुछ और फ़रोख़दिली का सुबूत देता लेकिन पेशे नज़र ‘ग़ीबत कदा’ अदब का हेड क्वार्टर है जिसे उर्फ़े आम में सिर्फ ‘ओरियंट’ कहा जाता है। कुछ समय पहले तक इसे बहुत से लोग ग़ज़ल कदा भी कहते थे, लेकिन मेरी निगाह में यह शहर का सबसे बड़ा अदबी पड़ाव था। जिस तरह किसी ज़माने में शहर के उमरा (बड़े लोग) अपने-अपने साहबज़ादगान को तहज़ीब और आदाबे महफ़िल सीखने के लिए ‘कूचए अरबाबे निशात’ (हसीनाओं की गली) का तवाफ़ (परिक्रमा) करवाते थे उसी तरह तश्नगाने अदब (साहित्य के प्यासे) अपनी इल्मी और अदबी प्यास और दिलजले शायर व अदीब अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए उसी तरफ़ रुख़ करते थे। देखने में तो ये दवा की दुकान है लेकिन वक़्त ज़रूरत यहां से हर महफ़िल में सुर्खरू रहने के लिए बेहतरीन कलाम की सप्लाई भी होती थी। यह ‘ग़ज़लकदा’ उबैद खान आसिफ उस्मानी जैसे ज़हीन और ख़तरनाक लोगों का हैलीपैड रहा है, अशरफ़ अली खान की कछार था। इनको इतने लोग पापा कहते हैं कि इनकी जवानी के प्रिंट आउट कश्कूक (संदिग्ध) लगते हैं। ख़्वाजा जावेद अख़्तर और हादी का ट्रेनिंग सेंटर रहा है, जद्दन भाई की नयी ख़ानकाह है जहां वह अपने आधा दर्जन पीरों के ज़रिये ज़ेहनी तौर पर बालिग़ किये जाते हैं। ग़रज़ की नैयर आक़िल (अब मरहूम) और अबरार अहमद का यह दवाख़ाना वह अदबी मीनार है जहां से पूरे शहर का नज़ारा किया जा सकता है। राज़ साहब जब भी इस दवाख़ाने में आते थे, हमेशा दुकान भरी-भरी लगती थी। जब तक जिन्दा रहे इलाहाबाद भरा-भरा लगता था। उनकी कमी मुद्दतों अदब वालों को महसूस होती रहेगी।
                  इस भीड़ में कुछ मेरी हक़ीक़त नहीं लेकिन,
                  दब जाउंगा मिट्टी में तो सब याद करेंगे।
   इलाहाबाद का मौजूदा अदबी मंज़रनामा दिलचस्प भी है और तवील भी। मेरी मालूमात महदूद है फिर भी इस शहर से इतना तवील रिश्ता है कि दूसरे लोगों के मुकाबले में मेरी तलाश और जुस्तजू की बुनियादें ज़्यादा मज़बूत होंगी। नये मंज़रनामे में जो नाम बहुत तेज़ी से उभरकर सामने आये उनमें सरे-फेहरिस्त अली अहमद फ़ातमी का नाम है। फ़ातमी ने नस्र को अपने इज़हार का ज़रिया बनाया। नैयर आक़िल, असलम इलाहाबादी, सालेहा, नदीम, इक़बाल दानिश, अहमद अबरार, अख़्तर अज़ीज़, सैयद मोहम्मद अली काज़मी(अब मरहूम), एहतराम इस्लाम, निजाम हसनपुरी, बुद्धिसेन शर्मा, दूधनाथ सिंह, कैलाश गौतम (अब मरहूम), यश मालवीय, अज़ीज़ इलाहाबादी, असरार गांधी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, रविनंदन सिंह, अतीक़ इलाहाबादी (अब मरहूम), नायाब बलियावी, जावेद शोहरत, सुधांशु उपाध्याय, हरीशचंद्र पांडेय, फरमूद इलाहाबादी, मनमोहन सिंह तन्हा, आदि अहम नाम हैं।
( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2017 अंक में प्रकाशित )

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

गुफ़्तगू के रेलकर्मी विशेषांक (अप्रैल-जून 2020 अंक) में


3. (संपादकीय) ‘जीवन रेखा’ के सहभागी रचनाकार
4. डाक
5-6. बदलते वक़्त में बदल गई रेल - मुनेश्वर मिश्र
7-8. रेल और साहित्य का मेल - शैलेंद्र जय
10-21. (गजलें)- केके सिंह मयंक, बसंत कुमार शर्मा, जावेद अली, बीआर विप्लवी, गौरव कृष्ण बंसल, निगम राज
22-49. (कविताएं)- रामकिशोर उपाध्याय, मनोज कुमार अग्रवाल, यतीश कुमार, अमन वर्मा, डाॅ. ब्रजेश खरे, संतोष कुमार पांडेय प्रयागवासी, वीरेंद्र सेन राजहंस, अरविन्द कुमार वर्मा, विकास प्रसाद, मनोज कुमार गोयल, डाॅ. अरुण कुमार श्रीवास्तव अर्णव, श्रीराम तिवारी, जितेंद्र सिंह जितुजी
50-52. (इंटरव्यू) डीआरएम अमिताभ
53-57. (चैपाल)-  लाॅकडाउन में काव्य परिचर्चा को किस रूप में देखते हैं ?
58-60. (तब्सेरा)- दीवान-ए-अना, हथेलियों में चांदनी, सिसकता दर्द, खिड़कियों से झांकती आंखें
61-63. (उर्दू अदब) मर्सिये की जमालियात, ऐसा क्यों है ?, कोई आंखों में रहता है 
64. गुलशन-ए-इलाहाबाद ;  फराज जैदी
65-66. गाजीपुर के वीर ; ख़ामोश गाजीपुरी
67. श्रद्धांजलि ; गुलजार देहलवी
68-97. परिशिष्ट-1 ; शैलेंद्र कपिल
68-69. शैलेंद्र कपिल का परिचय
70. सूर्य की अरुणिमा में प्रकृति के दर्शन - शैलेंद्र जय
71. प्रकृति के चितेरे कवि शैलेंद्र कपिल - जमादार धीरज
72-73. कविताओं में प्रकृति प्रेम के सुंदर दर्शन - नरेश महरानी
74-75. कहानियों से संदेश देने में माहिर हैं रणविजय - शैलेंद्र कपिल
76-97. शैलेंद्र कपिल की कविताएं
98-127. परिशिष्ट-2 : रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्धे
98. रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्धे का परिचय
99. अपने कर्तव्य बोध के प्रति सजग है सहस्रबुद्धे - डाॅ. शैलेष वीर
100. गहरे अनुभूति की उपज है सहस्रबुद्धे की रचनाए- प्रभाशंकर शर्मा
101-102. शायरी में वास्तविक जीवन का ताना-बाना
103-127. रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्ध की रचनाएं
124-143. (कवि और कविता):  वसीम बरेलवी, इब्राहीम अश्क, डाॅ. हरिओम, मासूम रजा राशदी, डाॅ. राकेश तूफान, विजय प्रताप सिंह, शिवकुमार राय, नीना मोहन श्रीवास्तव