मुनव्वर राना से बात करते अनिल मानव |
उनका जन्म 26 नवम्बर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ है। आपकी शुरूआती शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई। वर्तमान में आप लखनऊ में रहकर अदब की सेवा में लगे हुए हैं। मुनव्वर राना के पारिवारिक सदस्य और बहुत से रिश्तेदार भारत-पाक विभाजन के वक़्त पाकिस्तान चले गए, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने वतन में रहने को ही अपना कर्तव्य समझा। आपने ग़ज़लों के साथ संस्मरण और आत्मकथा भी लिखी है। इनकी लेखन की लोकप्रियता के कारण उनकी रचनाओं का अनुवाद कई अन्य भाषाओं में भी हुआ है। इनकी पुस्तक ‘शाहदाबा’ के लि वर्ष 2014 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाज गया था। इनकी अब तक एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ‘मां’, ‘ग़ज़ल गांव’, ‘पीपल छांव’, ‘बदन सराय’, ‘नीम के फूल’, ‘सब उसके लिए’, ‘घर अकेला हो गया’, ‘कहो जिल्ले इलाही से’, ‘बग़ैर नक़्शे का मकान’, ‘फिर कबीर’, ‘नये मौसम के फूल’, ‘मुहाज़िरनामा’ आदि प्रमुख हैं। 08 दिसंबर 2019 को टीम गुफ़्तगू उनसे उनके लखनऊ स्थित आवास पर मिलने पहुंची। अनिल मानव ने उनसे बातचीत की। प्रतुस्त है उस बातचीत के प्रमुख अंश-
सवाल: गुफ़्तगू की 17 वर्ष की यात्रा को किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: गुफ़्तगू का सबसे बड़ा कमाल यह है कि उसने नये लोगों का परिचय कराया और सिर्फ़ यहीं नहीं बल्कि पुराने लोगों को हमेशा सम्मान भी दिया। चाहे वे संरक्षक कमेटी हो, चाहे एडवाइजरी बोर्ड हो, चाहे उसके लेखन हों, चाहे वो जीवित हों या न हों, सबको याद रखना, सबको साथ लेकर चलना आदि। ये इसका बहुत बड़ा कमाल है। आमतौर पर जो पत्रिकाएं है, उर्दू में हों या हिन्दी में, वो हमारे जो पूर्वज है वो उनको भूल जाती हैं। शायरी हो चाहे गद्य हो केवल नये लोगों को भर लेते हैं। पुराने लोगों को लेने से एक बड़ा कमाल ये होता है कि मीर ने क्या कहा, ग़ालिब, दाग़ और अकबर ने क्या कहा और इसके बाद नये लोग क्या कह रहे हैं इसका पता चलता है। इससे एक फ़ायदा यह होता है कि जो नये लोग कह रहे हैं, उनको ये मालूम हो जाता है कि हमारे पूर्वज लोग ये कह कर गए हैं। सोशल मीडिया वो आईना है जिसमें आदमी सिर्फ़ अपने का देखता है और खुश रहता है। इसमें तो लाइक, लाइक, लाइक...। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सिर्फ़ लाइक लगा देते हैं। उनको पता भी नहीं होता कि इसमें लिखा क्या है। लेकिन गुफ़्तगू एक ऐसा आईना है जिसमें हम अपने माज़ी को भी देख सकते हैं, गुज़रे हुए दिन और गुज़रे हुए साहित्य को भी देख सकते हैं।
सवाल: वर्तमान समय में आप साहित्यिक पत्रिकाओं को किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: देखिए, पत्रिकाओं का बहुत बुरा वक़्त चल रहा है। अब ये तय करना मुश्किल है कि 10-15 साल बाद कितनी पत्रिकाएं जिन्दा कर पायेंगी । पहले ही पढ़ने लिखने का चलन कम होता गया था, इसलिए कि भागदौड़ और सफ़र की ज़िन्दगी में समय कम मिल पाता है। पहले होता क्या क्या था कि शहर छोटा होता था। उसी में लोग घूम-फिर के रहते थे। अब लोग दूर-दूर रहते हैं कि उनके पास वक़्त नहीं है कि वे साहित्यिक गतिविधियों में शामिल हो सकें। ये भी देखते हैं कि अगर वक़्त ज़्यादा हो गया, जैसे हमें नक्ख़ास कोना, इलाहाबाद से बम्हरौली जाना है और गाड़ी छूट गयी तो टैक्सी करके जाना होगा, जिसमें 200 रुपये तक खर्च होंगे। पहले ऐसा नहीं था। पहले करीब होता था सब, यहां-वहां हर जगह। उसका एक नुकसान हुआ, जैसे हमने बहुत शहरों में देखा था। पटना में बहुत साहित्यिक गतिविधियां थीं। छोटा शहर था, सब पास-पास रहते थे। अब इतनी दूर-दूर काॅलोनियां बन गयी हैं कि लोग घड़ी देखते हैं कि हमें गाड़ी नहीं मिलेगी, तो इसका नुकसान हुआ। पहले साथ बैठते थे तो चर्चा होती थी कि लोग ये हंस पत्रिका, गुफ़्तगू पत्रिका है हसमें ये लेख छपा है वो लेख छपा है, तो दूसरे आदमी को भी होता था कि पत्रिका खरीदे। लेकिन अब वो पत्रिका जहां बिकती है वो उससे दूर रहता है। अब ज़माना वो आ गया है कि आप झूठ-मूठ एक कार कम्पनी का फोन लगा दीजिए कि हमें कार खरीदना है तो चार कार कम्पनी आ जाती हैं गाड़ी लेकर कि आप देख लीजिए जो लेना चाहते हैं। पत्रिका के लिए हम इंतज़ार करते हैं कि हम छाप करके बैठें हैं दुकान में और जलेबी है लोग ले जाएंगे। ऐसा नहीं होता, इसके लिए भी रास्ता होना चाहिए। जैसे हाॅकर है या कोई सिस्टम होना चाहिए कि हम अभी कोई भी किताब खरीद सकते हैं। कोई पत्रिका हिन्दी या उर्दू की जाए तो हम उसको ले सकते हैं। लेकिन ये पाॅसिबल नहीं है कि एक गोमती नगर का आदमी अमीनाबाद खरीदने आये पत्रिका और वो न मिले इसके बाद वो फिर लौट आए। मालूम 10 रुपये की पत्रिका और उसका 150 रुपये खर्च हो जाए तो इसकी एक सहूलत होनी चाहिए।
मुनव्वर राना के आवास पर: बाएं से- मुनव्वर राना, अफ़सर जमाल, इश्क़ सुल्तानपुरी और अनिल मानव |
सवाल: आने वाले समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य देखते हैं ?
जवाब: ग़ज़ल का जो फ्यूचर है, आप यूं कह लें कि हर ज़माने में उलट-पुलट के ठीक हो जाती है। एक ज़माना आता है हो सकता है बहुत लोगों ने नहीं देखा होगा। बरसात में एक लाल रंग का कीड़ा निकलता है उसे कहते हैं ‘लिल्ली घोड़ी’। तो लोग कहते हैं साहब, ये ग़ज़ल नहीं है बस लिल्ली घोड़ी बिठा दीजिए यानी दो मिसरे लिख दिये गये। तो आप समझिए ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल काम है, बाबा रामदेव का च्यवनप्राश एक कैप्सूल में भरना है। लेकिन लोग इसको आसान समझते हैं। जो लोग कविता कहते हैं, वो समझते हैं कि ग़ज़ल लिखना बहुत आसान काम है, इसे कोई भी कर लेगा। ग़ज़ल कहना बहुत मुश्किल काम है। अच्छी ग़ज़ल या बुरी ग़ज़ल का फैसला तो पचास साल बाद होता है। ऐसा नहीं है कि वन-डे मैच है और शाम को रिजल्ट मालूम हो गया। लेकिन जो हमाने नए लिखने वाले आए हैं उनके यहां एक ये सबसे बड़ी ख़राबी ये है कि उस्तादी-शार्गिदी के चलन का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। उसमें ये था कि उस्ताद जो होता था वो बिल्कुल जैसे बहु खाना पकाती थी तो सास उसमें नमक डाल देती थी और यही तमीज़ सीखाती थी कि नमक कितना होना चाहिए। अंगीठी से चैला बाहर निकाल देती थी कि आंच कितनी होनी चाहिए। तो उस्ताद का काम यही होता था। बाकी शब्दावली, थाॅट्स, भावनाएं आपकी हुआ करती थी। उस्ताद सिर्फ़ इतना करता था कि ये शब्द यहां पर अच्छा नहीं इसे सही कर लो।
सवाल: क्या आज के दौर में ग़ज़ल के अच्छे उस्ताद मिल पाते हैं ?
जवाब: उस्ताद आजकल बहुत कम हो गए लेकिन जितना सम्मान मिलना चाहिए उतना भी तो आजकल नहीं मिलता, तो फिर क्यों कोई उस्ताद बने। ज़माना ऐसा आ गया है कि जिसको आप सिखाते हैं वो जिस दिन दस ग़ज़लें कह लेता है उस दिन स्टेज पर आपके सामने सिगरेट पीकर धुआं मारता है। और फूंकते हुए कहता है और उस्ताद क्या हाल है ? जिस परम्परा के हम लोग हैं कि एकलव्य ने अंगूठा काटकर दे दिया। ये लोककथा हो, सच हो, नहीं हो, लेकिन ये है कि अच्छा लगता है। हमारे यहां पर एक तरीका था कि जब मां कसम दे देती थी कि तुझे हमारे दूध की कसम है तो जो है वो जान कुर्बान कर देता था। अब कैसे मां कसम देगी, वो तो ‘नेस्ले’ का दूध पिलाती है। उसी तरह से जब आप उस्ताद अच्छा नहीं चुनते हैं तो या उस्ताद को वो दर्ज़ा नहीं देते तो ठीक नहीं है। जैसे कहा जाता है कि पहले जो नया शायर आता था तो वो दस साल लगभग गिलास धोता था। पीने की तो इज़ाज़त ही नहीं थी।
सवाल: नई पीढ़ी के ग़ज़लकारों के लिए आप क्या कहना चाहते हैं ?
जवाब: जो नए ग़ज़लकार हैं, उनको एक चीज़ का ध्यान रखना चाहिए कि आपके जो सीनियर्स हैं उनक इज़्ज़त कीजिए। उनसे सीखने की कोशिश कीजिए। अगर आप ऐसा करते हैं तो इसमें आपको नुकसान कुछ नहीं होना वाला। दूसरी बात आप जितना पढ़ सकते हैं उतना अधिक पढ़ें। सोशल मीडिया आपको शायरी नहीं सिखा सकता। गूगल आपको ये नहीं बता सकता है कि किस दिन आपको मरना है। जिस दिन गूगल आपको ये बता देगा कि आपको मरना किस दिन है उस दिन दुनिया खत्म हो जाएगी। उसी तरह शायरी में आपको ये कोई नहीं बता सकता कि निराला कौन बनेगा, बच्चन कौन बनेगा, महादेवी वर्मा कौन बनेगी, ग़ालिब, फ़िराक़ कौन बनेगा, कुछ नहीं मालूम। सब एक दौड़ में हैं। जिसका नसीब अच्छा होता है, जिसने खि़दमत की होती है, जिसने बुजुर्गों से सोहबतें की होती हैं, अल्लाह नवाजता है। ग़ज़ल हिन्दी या उर्दू नहीं होती है, न ग़ज़ल हिन्दू-मुलसलमान होती है। ग़ज़ल में सिर्फ़ लिखा जाता है कि ये ग़ज़ल है।
सवाल: गुफ़्तगू के ‘रक्षक विशेषांक’ को आप किस रूप में देखते हैं?
मुनव्वर राना: गुफ्तगू यक़ीनन एक बड़ा काम कर रही है। क्योंकि वो लोग, जो अपनी पूरी जिं़दगी देश और देशवासियों के रक्षा में गुजार देते हैं, उनकी शायरी या उनकी कहानियां पढ़ने से एक अजब तरह का एहसास होता है। जैसे चमन में कुछ फूल ऐसे होते हैं, जिनकी की खुशबू सबसे अलग और अच्छी होती है। जीवन में इतनी कठिनाइयों, मुसीबतों, चैलेंज, दुख और मुकाबले में शामिल रहने के बाद भी अपने कवि हृदय को जिंदा रखना खुद एक कविता है। मैं इम्तियाज गाजी और उनकी पूरी टीम को मुबारकबाद देता हूं, कि इस अंक के बाद अभी वो ख़ामोश नहीं बैठेंगे, बल्कि कोशिश करके और भी एकाध अंक निकालेंगे, ताकि यह सामग्री महफूज हो जाए। जो जीवित हैं या नहीं है, उनको मुबारकबाद देने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता है।
(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2020 अंक में प्रकाशित )
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