शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

लोग अपनी प्यास बुझाते हैं चले जाते हैं

 
                                                                        - मुनव्वर राना
 
मुनव्वर राना
                             
 इलाहाबाद की मिट्टी ज़रख़ेज़ हो या न हो लेकिन इस शहर के मिज़ाज में मुरव्वत और मिट्टी में इल्म व अदब का ख़मीर शामिल है। सियासी बाज़ीगर शाह को पिटवाते रहें लेकिन इल्म की देवी सरस्वती अपनी मंदिर में सियासी मुजरे की इज़ाज़त कभी नहीं दे सकती। आती-जाती सरकारें नए सिरे से इस शहर की हदबंदी करती रहें, इस शहर के जुगराफिये की कितनी ही कांट-छांट की जाए लेकिन जब तक्सीमे मुल्क के बाद भी अदब की तारीख़ इब्ने सफ़ी इलाहाबाद के ही रहे तो फिर दुनिया की कोई ताक़त ‘नूह’ नारवी को इस शहर से अलग नहीं कर सकती। शहरों का जुग़राफ़िया तो सैलाब का पानी भी बदल देता है लेकिन तारीख़ तो किताबों के समंदर और दिलों के निहाख़ानों में हमेशा महफूज रहती है। इस गंगा-जमनी तहज़ीब वाले शहर से अगर अकबर इलाहाबादी, निराला, फ़िराक़ गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, सुमित्रा नंदन पंत और राज़ इलाहाबादी को अलग कर दें तो अदब बेवा की सूनी कलाइयों जैसा होकर हर जाएगा। अदब से हिन्दी, उर्दू या किसी भी ज़बान को अलग करना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे किसी घने और छायादार पेड़ पर सिर्फ़ एक तरह की चिड़िया को बसेरे की इज़ाज़त दी जाए। अदब रखैल की की तरह नहीं होता कि जिसके जिस्म और सांसों पर शहर के किसी एक रईस का कब्जा बरक़रार रहता है बल्कि अदब तो उस मुक़द्दस मां की तरह है होता है जिसकी छाती से उबलता हुआ दूध मसलक और मज़हब की क़ैद से आज़ाद कर नन्हें बच्चे के प्यासे होंठों तक पहुंचने क लिए बेताब रहता है। अज़ीम होती हैं वो माएं जो अपनी छातियां किसी फ़िरके, किसी मज़हब के नवज़ाइदा बच्चे के हलक़ में उंडेल देती है। अदब को ज़बान की बुनियाद पर तक़सीम करने वाले दहशतगर्त तो हो सकते हैं लेकिन शायर और अदीब हरगिज नहीं हो सकते, क्योंकि दुनिया की किसी भी ज़बान में शायर को शायर और दहशतर्गत को दहशतगर्त ही कहा जाता है। मोहतात सियासतदां पंडित नेहरू से लेकर बेनियाज़ी की तस्वीर माहिर इलाहाबादी तक इस शहर के ऐसे रोशन सितारे हैं जिन्होने इस शहर का सिर बुलंद रखने के लिए सांसों की सारी पंूजी दयारे ग़ैर में खर्च कर दी, इस शहरे तबस्सुम से मुस्कुराते हुए रुख़्सत हुए और वापस हुए तो अर्थी, मय्यत और कलश की शक्ल में आये।
               लाश तक घर को न पहुंची ऐसा मक़तल भा गया,
               हमने सोचा था कि कुछ सांसें बचा ले जायेंगे।
इस शहर में आईने हमेशा कम फरोख़्त होते हैं क्योंकि यहां हर चेहरा आईना सिफ़त रहा है। जहां आंखें बोलती और बात करती हैं। हालांकि इसी शहर में त्रिवेणी ग्लास जैसी कंपनी मौजूद है जो सारे एशिया को आईना साज़ी का हुनर और चेहरे को खूबसूरत दिखाने के आदाब सिखाती है। हिमालय की आग़ोश से निकली हुई गंगा और जमुना एक दूसरे से बेनियाज़ होकर हज़ारों मील तक बहती रही लेकिन इलाहाबाद पहुंचते ही दोनों एक दूसरे में इस तरह मुदग़म हो गयीं जैसे मुद्दतों की बिछड़ी हुई बहनें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं। गंगा और जुमना की इस हम आग़ोशी का एहतराम बंगाल की खाड़ी में बहती हुई वह हुगली नदी भी करती है जिसे दुर्गा और काली के शहर कलकत्ता का आंचल भी कहा जाता है। गंगा-जमुना की इस खुदसुपुर्दगी और हम आग़ोशी का ही करिश्मा है कि हिन्दुस्तान की हर ग्लास कंपनी इलाहाबाद की शीशा सिफ़त बालू के बग़ैर वीरान रहती है। चंदौसी से कलकत्ता और कलकत्ता से इलाहाबाद तक का सफ़र जेके अग्रवाल और उनके बुजुर्गों ने सिर्फ़ इस चमकती हुई बालू को शीशे में बदल देने के लिए ही तय किया था।
                 हमें महबूब को अपना बनाना तक नहीं आया,
                 बनाने वाले आईना बना लेते हैं पत्थर से।
मैं पूरे एतमाद से यह बात अर्ज़ कर रहा हूं कि जब तक इस शहर में गिरीश वर्मा, डीएन आर्या जैसे लोग मौजूद हैं, इस शहर का रज्जू भैया और मुरली मनोहर जोशी से कोई ख़तरा नहीं हैं क्योंकि आज तब इस शहर के दरो-दीवार से नेहरू के कलंदराना रविश, लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी, राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह की फकीराना तबीयत, हेमवंती नंदन बहुगुणा की हर दिल अज़ी़ज़ी और मुस्तफ़ा रशीद शेरवानी की इनसान दोस्ती का नूर उबल रहा है। शायद यही वजह है कि इलेक्ट्रिक सप्लाई वालों की मुस्तक़िल नाफ़रमानी के बावजूद इस शहर में हर वक़्त उजाला रहता है। उस अदबी चैपाल की रौनक कभी कम हो ही नहीं सकती जिसके इर्द-गिर्द डाॅ. रामकुमार वर्मा, मुस्तफ़ा ज़ैदी, डाॅ. जगदीश गुप्ता, मुजाविर हुसैन रिज़वी, डाॅ. हरिदेव बहरी, पंडित उदय नारायण तिवारी, हरिवंश राय बच्चन और शफ़ीक इलाहाबादी जैसे लोगों ने कहानियां बुनी हों और ग़ज़लों के फूल चुने हों। अभी इस शहर की फ़ज़ाओं में मौलाना तुफैल अहमद मदनी की बाज़गश्त महसूस होती है। अभी दायरा शाह अजमल के बुजुर्गों के कश्फ़ोकरामात से दुनिया नावाक़िफ नहीं हुई है। अभी इलाहाबाद स्टेशन पर आराम फ़रमाते हुए लाइन शाह बाबा के मज़ार पर हाज़िरी देने से पहले लोग अपनी सियासी पगड़ियों का उतार देते हैं। अभी जमुना के मुकद्दस पानी से बुजुर्गों के सज़दों की खुश्बू आती है। अभी मुकद्दस गंगा की सुनहरी लहरों से चंदन टीके की महक महसूस होती है। ऐसे इल्मी और अदबी दर्सगाह की बेअदबी इनसान तो इनसान आबो-हवा भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। कंक्रीट से बनायी हुई इमारतें उस वक़्त शर्मिंदा हो जाती हैं जब गोश्त पोस्त का इंसान अपनी जात को मिट्टी में मिलाकर उसे और भी गुलज़ार बना देता है।
                हमको इस मिट्टी में बो देंगी हमारी नस्लें,
                हम कहीं भी नहीं इस शहर से जाने वाले।
 यह अदबी चैपाल अगर कोयले को राख बनाती देख चुकी है तो हरी शाख़ों को कोयला होते हुए देखना भी इसका मुकद्दर है। इल्म की गर्मी और अदबी सरगर्मी को ज़िन्दा रखने के लिए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, रवींद्र कालिया, इक़बाल माहिर, सुहैल ज़ैदी, ममता कालिया, नस्र कुरैशी, सैयद अब्दुल करीम, हमीद क़ैसर, काएद हुसैन कौसर, यश मालवीय, जुल्फ़िकार सिद्दीक़ी और हमदून उस्मानी जैसे बड़े चिराग़ बरसों रौशनी लुटाते रहे। हरचंद कि वक़्त की आंधी ने उनमें से कई चिराग़ों को मुज़महिल किया और कई चिराग़ों को निगल भी गयी। आंधी कितनी ही ताक़तवर क्यों न हो उसका जोर ज़्यादा देर तक नहीं रहता लेकिन पुराने चिराग़ बुझते-बुझते भी नये चिराग़ों को अपना हुनर सौंप देते हैं। आंधी और चिराग़ की जंग जब तक दुनिया है जारी रहेगी -
                   मिलेंगे आपको हम लोग हर ज़माने में,
                   हमारे पैरों में ज़जीरे माहो साल नहीं।
आज भी शहरे इलाहाबाद के अदबी जज़्बात सर्द नहीं हुए। आज भी गंगा और जमुना की लहरों का सुरीलापन बाक़ी है। आज भी मुस्लिम हाॅस्टल की गहमा-गहमी का वही आलम है। आज भी बरकत टी स्टाल शायरों और अदीबों का मयख़ाना है। आज भी सियासत इस शहर में आंखें नीची करके चलती है। आज भी अमरूद की महक सारे शहर को दीवाना कर देतीे है। आज भी ग़ज़ल के शैदायी अपना मज़हब नहीं जानते। आज भी सुलाकी हलवाई की पूड़ी-सब्ज़ी और क़ादिर हलवाई के गाजर के हलवे के दीवनों की गिनती नहीं की जा सकती। आज भी इमाम बख़्श (जल्लाद) की चाय अपने गांव में कई बोतलों का नशा रखती है। हाईकोर्ट की पुरशिकोह इमारत जो इंसाफ और नाइंसाफी के हज़ारों वाक़ियात की चश्मदीद गवाह है, सियासी इक़तिदार और हवसे नग़मये तर ने इसे इमारत के विक़ार को भी मैला कर दिया है। आनंदभवन एक तारीख़ साज़ इमारत है, एक ज़माने तक यह मुजाहिदीने आज़ादी की सबसे बड़ी छावनी थी। इस इमारत में दाखिल होते ही हिन्दुस्तान के शरीफ़ सियासतदानों के चेहरे निगाहों के सामने घूमने लगते हैं। खुसरो बाग़ और जमुना किनारे का क़िला आज भी हिन्दुस्तानी मुग़लिया सल्तनत की सलीकेमंदी की दाद तलब करते महसूस होते हैं। सफ़ाई के एतबार से यह शहर उत्तर प्रदेश के और दूसरे तमाम शहरों के मुक़ाबिले में ग़नीमत है। मुमकिन है, क़लम कुछ और फ़रोख़दिली का सुबूत देता लेकिन पेशे नज़र ‘ग़ीबत कदा’ अदब का हेड क्वार्टर है जिसे उर्फ़े आम में सिर्फ ‘ओरियंट’ कहा जाता है। कुछ समय पहले तक इसे बहुत से लोग ग़ज़ल कदा भी कहते थे, लेकिन मेरी निगाह में यह शहर का सबसे बड़ा अदबी पड़ाव था। जिस तरह किसी ज़माने में शहर के उमरा (बड़े लोग) अपने-अपने साहबज़ादगान को तहज़ीब और आदाबे महफ़िल सीखने के लिए ‘कूचए अरबाबे निशात’ (हसीनाओं की गली) का तवाफ़ (परिक्रमा) करवाते थे उसी तरह तश्नगाने अदब (साहित्य के प्यासे) अपनी इल्मी और अदबी प्यास और दिलजले शायर व अदीब अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए उसी तरफ़ रुख़ करते थे। देखने में तो ये दवा की दुकान है लेकिन वक़्त ज़रूरत यहां से हर महफ़िल में सुर्खरू रहने के लिए बेहतरीन कलाम की सप्लाई भी होती थी। यह ‘ग़ज़लकदा’ उबैद खान आसिफ उस्मानी जैसे ज़हीन और ख़तरनाक लोगों का हैलीपैड रहा है, अशरफ़ अली खान की कछार था। इनको इतने लोग पापा कहते हैं कि इनकी जवानी के प्रिंट आउट कश्कूक (संदिग्ध) लगते हैं। ख़्वाजा जावेद अख़्तर और हादी का ट्रेनिंग सेंटर रहा है, जद्दन भाई की नयी ख़ानकाह है जहां वह अपने आधा दर्जन पीरों के ज़रिये ज़ेहनी तौर पर बालिग़ किये जाते हैं। ग़रज़ की नैयर आक़िल (अब मरहूम) और अबरार अहमद का यह दवाख़ाना वह अदबी मीनार है जहां से पूरे शहर का नज़ारा किया जा सकता है। राज़ साहब जब भी इस दवाख़ाने में आते थे, हमेशा दुकान भरी-भरी लगती थी। जब तक जिन्दा रहे इलाहाबाद भरा-भरा लगता था। उनकी कमी मुद्दतों अदब वालों को महसूस होती रहेगी।
                  इस भीड़ में कुछ मेरी हक़ीक़त नहीं लेकिन,
                  दब जाउंगा मिट्टी में तो सब याद करेंगे।
   इलाहाबाद का मौजूदा अदबी मंज़रनामा दिलचस्प भी है और तवील भी। मेरी मालूमात महदूद है फिर भी इस शहर से इतना तवील रिश्ता है कि दूसरे लोगों के मुकाबले में मेरी तलाश और जुस्तजू की बुनियादें ज़्यादा मज़बूत होंगी। नये मंज़रनामे में जो नाम बहुत तेज़ी से उभरकर सामने आये उनमें सरे-फेहरिस्त अली अहमद फ़ातमी का नाम है। फ़ातमी ने नस्र को अपने इज़हार का ज़रिया बनाया। नैयर आक़िल, असलम इलाहाबादी, सालेहा, नदीम, इक़बाल दानिश, अहमद अबरार, अख़्तर अज़ीज़, सैयद मोहम्मद अली काज़मी(अब मरहूम), एहतराम इस्लाम, निजाम हसनपुरी, बुद्धिसेन शर्मा, दूधनाथ सिंह, कैलाश गौतम (अब मरहूम), यश मालवीय, अज़ीज़ इलाहाबादी, असरार गांधी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, रविनंदन सिंह, अतीक़ इलाहाबादी (अब मरहूम), नायाब बलियावी, जावेद शोहरत, सुधांशु उपाध्याय, हरीशचंद्र पांडेय, फरमूद इलाहाबादी, मनमोहन सिंह तन्हा, आदि अहम नाम हैं।
( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2017 अंक में प्रकाशित )

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