गुरुवार, 24 नवंबर 2011

मुशायरे ज़माने से अलग नहीं: अनवर जलालपुरी


छह जुलाई 1947 को जन्मे अनवार अहमद उर्फ अनवर जलालपुरी उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मुशायरों की दुनिया में एक प्रख़्यात संचालक के रूप में तो ये मशहूर हैं ही, इसके अलावा भी इन्होंने कई बड़े काम किए हैं। सन 1988 से 1992 तक उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के सदस्य रहे, 1994 से 2000 तक उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी के सदस्य ने रूप में अपनी संवाएं दी है।वर्तमान में ये उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी फारसी बोर्ड चेयरमैन हैं। मेगा सीरियल ‘अकबर दी ग्रेट’ का संवाद और गीत लेखन भी आप ही ने किया है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘रोशनाई के सफ़ीर’,‘खारे पानियों का सिलसिला’,‘खुश्बू की रिश्तेदारी’,‘जागती आंखें’,‘जर्बे लाईलाह’, ‘जमाल-ए-मोहम्मद’, ‘बादअज खुदा’,‘हर्फ अब्जद’ और ‘अपनी धरती अपने लोग’ आदि हैं।एन डी कालेज जलालपुर में अंग्रेजी के लेक्चरर रहे चुके अनवर जलालपुर से गुफ्तगू के उप-संपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने उसने बात की-



सवालः एक मंच संचालक और एक शायर की भूमिका में क्या फर्क़ है?


जवाबः देखिए,यदि मंच संचालक शायर भी है तो वह मौजूद शायरों के साथ ज़्यादा इंसाफ कर सकेगा और यदि वह शायर नहीं है तो वह उतना इंसाफ़ नहीं कर सकेगा क्योंकि वह शायरी की आत्मा से पूर्णतः परिचित नहीं होता है। दूसरी बात, जो शायर, संचालक भी है, उसका व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है।दो गुणों का मालिक होने के कारण उसकी स्थिति बेहतर और महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शायर की हैसियत से भी वह अन्य के मुकाबले श्रेष्ठ ही है।


सवालः मुशायरों और मंचों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है, क्यों?


जवाबः आज ज़िन्दगी के हर क्षेत्र में हर चीज़ का स्तर गिरता जा रहा है, यह प्रकृति का नियम है। किसी ज़माने में इसी गेहूं-चावल का स्वाद दूसरा था। आज समाज के हर क्षेत्र में नकलीपन बनावट और भ्रष्टाचार शामिल है। झूठ ज्यादा कामयाब होता दिखाई पड़ रहा है। जब हर क्षेत्र में यह कमज़ोरियां हैं और मुशायरों के क्षेत्र में भी कोई कमज़ोरी आयी है तो इसका मतलब मुशायरे भी ज़माने के साथ चल रहे हैं, ज़माने से अलग नहीं।


सवालः अधिकांश शायरात-कवयित्रियों पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि मंचों पर द्वारा पड़ी जाने वाली रचनाएं खुद न होकर किसी और की होती है, यह कहां तक सही है?


सवालः यह भी यह सच्चाई है। राजनीति में भी बहुत ही योग्य व्यक्ति ईमानदारी कार्य करने के बावजूद चुनाव हार जाते हैं और उसके मुकाबले में एक जाहिल व्यक्ति चुनाव जीत जाता है। संसद और विधानसभा भी उसी को शपथ दिलाती है क्योंकि जनता ने उसे किसी वजह से स्वीकार कर लिया है। यही सूरत मुशायरों-मंचों की भी है। यह बात बिल्कुल सही है कि ऐसे लोग जो उधार की रचनाएं पढ़ते हैं मगर मंच पर उन्हें सम्मान इसलिए मिलता है कि जनता उन्हें स्वीकार कर रही है और आयोजक भी उन्हें बुलाने के लिए मज़बूर हैं।... तो ज़िन्दगी के हर क्षेत्र का नक़लीपन मुशायरों के मंच पर भी काबिज़ हैं।


सवालः क्या आपने किसी कार्यक्रम के दौरान ऐसा महसूस किया है?


जवाबः यह अनुभव करने की बात नहीं है,यह तो हम जानते हैं। जो मुख्यमंत्री है या जो चुनाव में टिकट बांटते हैं, क्या वे यह नहीं जानते कि चुनकर आए हुए लोगों में कौन जाहिल और अंगूठाछाप है और कौन सच्चा है। नक़ली लोगों के बारे में सब कुछ जानने के बावजूद हम मंच पर टिप्पणी करने वाले कौन होते हैं, जब उनकी नक़ली लोगों की मंच पर स्वीकार्यता है और आयोजक उन्हें बुला रहे हैं।


सवालः यदि लिपि का अंतर छोड़ दिया जाए तो हिन्दी और उर्दू में ज़बान के स्तर पर भी क्या कोई अंतर है?


जवाबः साहित्यिक स्तर पर ये दोनों अलग-अलग ज़बानें हैं, लेकिन बोलचाल में बगैर सोचे हुए जो बातचीत होती है, वही उर्दू है, वही हिन्दी है,वही हिन्दूस्तानी है। और उसी के अंदर हिन्दुस्तानियत की आत्मा छिपी होती है। यह बिल्कुल उसी तरह से है जैसे शेक्सपीयर के प्ले भी अंग्रेज़ी में है, शॉ के प्ले भी अंग्रेज़ी में और गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की भी लिखी हुई भी अंग्रेज़ी है। लेकिन शेक्सपीयर या शॉ की अंग्रेज़ी,गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की अंग्रेज़ी बिल्कुल भिन्न है। हिन्दी-उर्दू का बंटवारा साहित्यिक स्तर पर ही है, बोलचाल के स्तर ज़बान का नाम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। आप दुष्यंत कुमार के दस शेर ले लीजिए और दस शेर मुनव्वर राना के, और किसी को यह न बताइए कि ये किसके शेर हैं और पूछिए कि यह हिन्दी है या उर्दू? दुष्यंत कुमार का शेर है-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा गया होगा
मैं सज़द में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

और मुनव्वर राना का शेर यह है-
सो जाते हैं फुटपाथ पर अख़बार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

बताइए इसमें हिन्दी में कौन है और उर्दू में कौन है? अगर हम कहें दोनों हिन्दुस्तानी हैं, जो लोग हिन्दुस्तान में रहते हैं और जो लोग हिन्दुस्तान के माहौल में रचे-बसे हैं,यह उन्हीं की भाषा है। यह न राना की भाषा है, न ही दुष्यंत कुमार की भाषा है, अलबत्ता शेर उनके हैं.....।

सवालः आप युवा पीढ़ी के किन शायरों से बेहद प्रभावित हैं?


जवाबः कई लोग हैं, जो उर्दू में बहुत अच्छा कहते हैं, ग़ज़लों में लखनउ के तारिक़ क़मर और बिजनौर के शकील जमाली आदि हैं। हिन्दी कवियों में आलोक श्रीवास्तव और अतुल अजनबी से काफ़ी उम्मीदे हैं। मुशायरों में आजकल अलताफ़ ज़िया की काफी धूम है। इन सबसे मैं बेहद प्रभावित हूं। इनके अतिरिक्त और भी कई लोग हैं जो अच्छा लिख रहे हैं, अच्छा कह रहे
सवालः उर्दू में जो लोकप्रियता ग़ज़लों को मिली, वह लोकप्रियता नज़्म हासिल नहीं कर सकी, आखि़र क्यों?

जवाबः जिस प्रकार दोहों की दो पंक्तियों में पूरी बात कह दी जाती है, ठीक उसी प्रकार ग़ज़ल में दो मिस्रों में एक मुकम्मल बात कह दी जाती है। उसी बात को नज़्म में 25-30 पंक्तियों में कही जाती है। असल में मानव स्वभाव हमेशा संक्षिप्त में ही सुनना चाहता है। गीता और कु़रआन में भी अच्छी और बड़ी बातें संक्षिप्त में की गई हैं, विस्तार में नहीं। वहां एक-एक श्लोक या आयत में कम शब्दों में बहुत अधिक शिक्षाएं दी गईं हैं। ग़ज़ल का यह गुण है कि वो बेइंतिहा मुख़्तसर दो पंक्तियों में बहुत बड़ी बात कह देती है। जैसे कि-


हमसे मोहब्बत करने वाले रोते ही रह जाएंगे,

हम जो किसी दिन सोए तो फिर सोत ही रह जाएंगे

रात ख़्वाब में मैंने अपनी मौत को देखा,
उतने रोने वालों में तुम नज़र नहीं आए।


नज़्म व्याख्या है,विस्तार है और ग़ज़ल संक्षिप्त है, गागर में सागर है। यही कारण है कि ग़ज़लें नज़्म की तुलना में अधिक लोकप्रिय हुईं।


सवालः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन में होने वाली राजनीति और गुणा-भाग के बारे में आपकी क्या राय है?


जवाबः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन का गुणा-भाग या राजनीति में किसको किस कुर्सी पर बैठाया जाए, के चयन के गुणा-भाग में कुछ विशेष फ़र्क नहीं है। दोनों के चयन में लोगों के अपने-अपने स्वार्थ, अपनी-अपनी रुचि,अपनी-अपनी दिलचस्पियां छिपी हुई हैं। हमने कभी आपको खुश किया, कभी आप हमें खुश कर दें। यह दुनिया लेने-देने की दुनिया है, इस बात का विस्तार बहुत है, लेकिन इसको यहीं पर रहने दिया जाए।


सवालः आजकल मंचीय कवि और प्रकाशित होने वाले कवि एक-दुसरे से दूर भागते क्यों जा रहे हैं?

जवाबः ऐसी बात नहीं है, कोई अलग नहीं हो रहा है। असल में यह स्वीकार्यता के जुड़ी हुई बात है।जिन लोगों को मंच कुबूल कर रहा है,वह मंच पर जा रहे हैं।जिन्हें मंच कुबूल नहीं कर रहा है और उन में प्रतिभा तो है, उस प्रतिभा को कहीं न कहीं उजागर होना चाहिए न .... उसके लिए प्रिंट मीडिया है। काम दोनों अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं, दोनों को इज़्ज़त मिलनी चाहिए।

सवालःसूचना प्रोद्योगिकी के इस दौर में साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है, क्यों?

जवाबः अंग्रेज़ी मे एक बात कही गई है ‘पोएटरी डिकलाइन ऐज सिविलाइजेशन एडवांस’ अर्थात सभ्यता के आधुनिकीकरण के साथ काव्य का पतन होता जाता है। यह प्रकृति का नियम है। जैसे आज हम शायरी करते हैं और इसे इतना वक़्त देते हैं लेकिन कल हमें मिनिस्टर बना दिया जाए तो क्या यह मुमकिन है कि जितनी दिलचस्पी हम आज ले रहे हैं, वह कल भी रहेगी। कल हमारी परिस्थितियां बदल जाएंगीं। अधिकाधिक पैसा कमाने की होड़ ने मानव को मशीन बना दिया है... गुलामी के दौर में ज़्यादा बड़ी प्रतिभाएं पैदा हुईं, गरीबी के दौर में आदमी जितना संघर्षशील होता है, खुशहाली के दौर में उतना नहीं।यही कारण है कि साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है।


गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 14 नवंबर 2011

राखी सावंत के हाथों भी दिला सकते हैं ज्ञानपीठ- मुनव्वर राना



आज की तारीख में मुनव्वर राना किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, उन्होंने उर्दू शायरी को गुले-बुलबुल और आशिक-माशूक की बेड़ियों से बाहर निकालकर आम आदमी से जोड़ने का काम किया है। उन्होंने दुनिया को बताया कि शायरी सिर्फ़ हुस्न की जंजीर में जकड़ी हुई खुशामद और जी-हुजूरी की चीज़ नहीं है।बल्कि मां की ममता, उसकी कुर्बानी और औलाद के प्रति उसका असीम प्यार भी शायरी के विषय हैं। कूड़े-करकट, रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाते बच्चे और फुटपाथ पर बिना नींद की गोली खाए सोते हुए मज़दूर को खूबसूरती के साथ शायरी विषय बनाया जा सकता है। यही वजह है कि आज मुनव्वर राना को मुशायरों का शहंशाह कहा जाता है। इस दौर के वे अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी मकबूलियत मंत्री से लेकर संत्री तक के बीच है। 26 नवंबर 1952 को रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राना की अब तक ‘ग़ज़ल गांव’, पीपल छांव, सब उसके लिए, घर अकेला हो गया, सफेद जंगली कबूतर, मुनव्वर राना की सौ ग़ज़लें, नये मौसम के फूल और मुहाजिरनामा नामक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।कन्हैया लाल नंदन ने उनकी एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है,‘मुनव्वर राना की शायरी, शायरी से मुहब्बत करने वाले हर आदमी के सर चढ़कर बोलती है। जिन्हें हिन्दी और उर्दू की सादगी की गंगा-जमुनी धार का मजा मालूम है उनके लिए मुनव्वर की ज़बान एक ऐसी ज़बान है जो इन दोनों के लिए पहनापे में विश्वास करती है। एक मां तो दूसरी को मौसी समझती है, जिनके लिए मुनव्वर कहते हैं ‘ लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है।’ इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे बात की-

सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों प्रोफेसर शहरयार को दिया जाना कितना उचित है, इसे लेकर साहित्यकारों में बड़ी कड़ी प्रतिक्रिया है।
जवाबःशहरयार साहब को अमिताभ बच्चन के हाथों पुरस्कार दिया जाना बिल्कुल सही है, इसलिए कि उनको हिन्दुस्तान के आम लोग फिल्म राइटर की वजह से ही उन्हे जानते हैं।उनका साहित्य में इतना बड़ा कोई काम नहीं है। मैं पहले भी यह बात कह चुका हूं कि देखिए इस बार ज्ञानपीठ एवार्ड देने वाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। हाजी अब्दुल सत्तार, बशीर बद्र, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, मलिकज़ाद मंजूर जैसे लोगों की मौजूदगी में यह एवार्ड फिल्म कलाकार के हाथों देना ही इस एवार्ड की इंसर्ट है। प्राब्लम यह है कि हमारे मुल्क में लोग सच नहीं बोलते, डरते हैं।उन्हें यह लगता है कि आइंदा हमको भी तो एवार्ड लेना है। मेरा मामला यह है कि मुझे एवार्डों में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैं बहुत आसानी से सच बोल देता हूं। आम आदमी शहरयार को ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ की वजह से ही पहचानाता है, तो फिल्म अभिनेता के हाथ से शहरयार साहब को
पुरस्कार दिया गया है तो इसका मतलब है कि बहुत इमानदारी से काम किया गया है। एवार्डों की अहमियत ऐसे ही घटती जाती है, कल को राखी सावंत के हाथों से भी दिलाया जा सकता है। मैं पूरे तौर पर, एवार्ड अमिताभ बच्चन के हाथों दिए जाने और शहरयार को ज्ञानपीठ दिए जाने दोनों का खंडन करता हूं।
सवालःग़ज़ल कहने वालों को और कवि और उर्दू शायर कहकर परिभाषित किया जा रहा है। आप इसे किस तरह से देखते हैं।
जवाबःएक वक़्त था जब भारत में दो मान्यता प्राप्त जाति हिन्दू और मुसलमान थे। आज हिन्दुओं में भी विभिन्न जातियां हैं और मुसलमानों में भी। राजनीति ने यह विभाजन कर दिया है और यही विभाजन अब साहित्य में भी हो रहा है। दलित साहित्य में भी अब अपर कास्ट और लोअर कास्ट साहित्य के रूप में विभाजन हो रहा है। ग़ज़ल का मतलब होता है महबूब से बातें करना। कोई भी अपने महबूब से उसी भाषा में बात करता है, जिस भाषा का उसे ज्ञान है।
सवालःउर्दू भाषा की दयनीय स्थिति के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं।
जवाबः सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान का बनना। भारत के जितने फिरकापरस्त लोग थे, उन्होंने यह प्रचारित किया कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह भी प्रचारित किया गया है उर्दू की वहज से ही पाकिस्तान बना था। अगर उर्दू की वजह से पाकिस्तान बनता तो आज पूरा पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा होता। किसी भी ज़बान को क़त्ल करने का सबसे आसान तरीक़ा है कि उसे किसी ख़ास फिरके से जोड़ दिया जाए।
सवालः नज़्म और ग़ज़ल में से किस विधा को अधिक प्रभावी मानते हैं।
जवाबःहमारे यहां नज़्म के बड़े शायर इक़बाल और नज़ीर अकबराबादी हुए हैं। नज़्मों के सिस्टम का रिप्रेस्मेंट हिन्दी कविता में बहुत मज़बूत है। जो नकारा शायर हैं, जो अपनी बात किसी कैनवास में नहीं ढाल पाते हैं, वो आज़ाद नज़्म लिख रहे हैं। ग़ज़ल एक पावरफुल विधा है, जिस तरह हकीमी मुरब्बा यानी शीशी वाली दवाओं का ज़माना खत्म हो गया है, अब हर दवा कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है, उसी तरह शायरी की ग़ज़ल विधा कैप्सूल और टैबलेट हे, जिसका प्रचलन सबसे अधिक है।
सवालःमुशायरों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
जवाबः बात सही है, जो चीज़ कारोबार बन जाती है, उसका स्तर गिर जाता है।जैसे नेतागिरी कारोबार बन गया है तो राजनीति का स्तर बेहद घटिया हो गया है। तरंनुम में पढ़ने वाले नौटंकीबाज शायरों का जमावड़े होकर रह गए है आज के मुशायरे। आयोजकों में आपसी साठगांठ है, लोग एक दूसरे को बुलाते हैं। मुशायरा पढ़ने वाला शायर है या नहीं इससे किसी कोई सरोकार नहीं है। ऐसी-ऐसी औरतों को स्टेज पर आमंत्रित कर लिया जाता है, जिनका शायरी से कोई रिश्ता नहीं है। एक तरह की व्यक्तिगत नज़दीकी आयोजकों की शर्त पर आमंत्रित होती हैं। ऐसे लोगों के बीच स्टेज पर बैठना शायरी और शायर के शान के खि़लाफ़ है।
सवालः इस तरह की बुराई क्यों पैदा हुई।
जवाबः आज सी क्लास के मुशायरा पढ़ने वाले शायर की भी आमदनी 50 हजार रुपए प्रतिमाह है, जबकि महीनेभर नौकरी करने वाले अफसर की तनख़्वाह 35 हजार रुपए के आसपास है, और यही मुशायरे के स्तर गिरने की सबसे बड़ी वजह है। शायरी दुनिया का अकेला ऐसा इंस्टीट्यूट है जिसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता।माईक कोई लगाता है, चंदा कोई इकट्ठा करता है और शायर मंच पर पहंुचकर शायरी सुनाता है, और सारा धन बटोर लेता है। हालत यह है कि जिस औरत को उसकी करेक्टर की वजह से अपने घर तक नहीं बुलाया जा सकता, उन्हें मुशायरों के ठेकेदार देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए विदेशों में भेज रहे हैं।
सवालः तमाम शायरों ने अपना रेट फिक्स कर रखा है, कुछ लोग तो एक मुशायरे में पढ़ने के लिए 80 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक मांग रहे हैं।
जवाबः अच्छे रिक्शेवाले और अच्छी तवायफें भी अपना रेट फिक्स नहीं करतीं, जो ग्राहक दे देते हैं वो ले लेती हैं। जिस शायर में फ़कीरी न हो वो शायर हो ही नहीं सकता। मैं तो कहता हूं कि कि शायरों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक का दस प्रतिशत काटकर उसी मूल्य की अदबी किताबें तोहफे क तौर पर देना चाहिए। साथ ही मुशायरागाह में किताबों के स्टाल भी ज़रूर लगाया जाना चाहिए।
सवालःसाहित्य का राजनीति से कितना संबंध है।
जवाबः दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं, एक ख़ेत में जाता हुआ पानी है, जिसे पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, दूसरा नाली में बहता हुआ पानी, जो सिर्फ़ गंदगी ही गंदगी ही गंदगी है। साहित्य खेत के लिए बहता हुआ पानी है।
सवालः आपने शायरी का प्रमुख विषय मां को बनाया है, इसकी कोई ख़ास वहज।
जवाबः मेरा पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया। मैं, मेरी मां और वालिद साहब यहीं रहे। वालिद साहब एक टृक चलाते थे, कभी-कभी वो कई दिनों के बाद घर आते, जिसकी वजह से खाने तक के लिए हम मोहताज़ हो जाते थे। रिश्ते की खाला वगैरह के यहां जाकर खाना खा लिया करता था। मां हर वक़्त जानमाज पर बैठी दुआएं ही मांगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से मां रातभर जागती थी,वो डरती थी कि कहीं रात में चलते हुए कुएं में जाकर न गिर जाउं। मैंने मां को हमेशा दुआ मांगते ही देखा है, इसलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।
सवालः क्वालिफिकेशन शायरी के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
जवाबः क्वालिफिकेशन अगर डिग्री का नाम है तो तमाम जगहों पर पैसे बेची जा रही हैं और क्वालिफिकेशन तजुर्बे का नाम है तो पूरी ज़िन्दगी पूरी नहीं हो सकती।
सवालः नए लोगों को क्या सलाह देंगे। आज के नौजवान मुनव्वर राना बनना चाहता है, तो उसे क्या करना चाहिए।
जवाबः नए लोग मेहनत कर रहे हैं, अच्छा कह भी रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि क्लासिकी लिटरेचर का ज्ञान नहीं है, बिना इसके अच्छी शायरी नहीं की जा सकती। जब बुनियाद मज़बूत नहीं होगी, मज़बूत मकान नहीं बना सकता। लोग मुनव्वर राना तब तक नहीं बन सकते जब तक कि मीर को नहीं पढ़ेंगे।




हिन्दी दैनिक जनवाणी में 13 नवंबर 2011 को प्रकाशित

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

महादेवी जी ने लिखा, दो साहित्यिक परिवार एक हो गए


---------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी --------

प्रसिद्ध
गीतकार यश मालवीय का विवाह हिन्दुस्तानी एकेडमी के पूर्व सचिव रामजी पांडेय की पुत्री आरती मालवीय से हुई है। रामजी पांडेय को महादेवी जी ने अपना पुत्र मान था। इस नाते आरती देवी उनकी पोती हैं।साहित्यकार उमाकांत मालवीय के तीन पुत्रों में से यश दूसरे नंबर के हैं। उमाकांत और महादेवी वर्मा जी ने दोनों परिवारों के रिश्ते की डोर में बांधना तय किया। यश मालवीय बताते हैं कि महादेवी वर्मा जी ने हमारी शादी के कार्ड पर अपने हाथों से लिखा था। उन्होंने लिखा था कि ‘इस विवाह से दो आत्मीय साहित्यिक परिवार एक हो रहे हैं।’
यश मालवीय अपनी अपनी शादी की बात याद करते हुए कहते हैं कि 25 जून 1986 को महादेवी जी के घर बारात जानी थी। इलाहाबाद शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, बारात निकालने के लिए किसी तरह से पास बनवाया गया। महादेवी जी काफी वृद्ध थीं, देर तक खड़ी नहीं हो पाती थीं। उन्होंने रामजी पांडेय से कहा कि मुझे विवाह द्वार पर दुल्हे को प्रवेश करते हुए देखना है, मेरी कुर्सी द्वार पर ही लगा दो। द्वार के पास लगी कुर्सी पर महादेवी जी बैठी थीं। यश मालवीय बताते हैं कि दुल्हे के रूप में प्रवेश करते ही महादेवी जी ने मेरे सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। उस समय लगा जैसे पूरी सदी का हाथ मेरे सर पर है। शायर अज़हर इनायती का शेर प्रासंगिक हो रहा था ‘रास्तों क्या हुए वो लोग जो आते-जाते, मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिए।’ यश बताते हैं कि कर्फ्यू की वजह से बैंड बाजे वाले नहीं आए। इसलिए लाउडस्पीकर लगाकर उसमें उस्ताद बिसमिल्लाह खान की शहनाई का कैसेट लगा दिया गया। शहनाई की आवाज सुनकर महादेवी जी बोलीं, कानों का उत्सव तो है लेकिन दृष्टि का उत्सव तब होता जब बिसमिल्लाह खान सशरीर यहां मौजूद होकर शहनाई बजाते। गौरतलब है कि महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को फर्रुखाबाद जिले में हुआ था। 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम ए करने के बाद अध्यापन कार्य शुरू किया था। प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्य के रूप में भी उन्होंने सेवाएं दीं। चांद नामक पत्रिका का संपादन किया। 1956 में पद्मभूषण और 1982 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 11 सितंबर 1987 को निधन के बाद 1988 में सरकार ने उन्हें मरणोपरांत पद्मविभूषण पुरस्कार दिया।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 17 अप्रैल 2011 को प्रकाशित

रविवार, 6 नवंबर 2011

मजरूह सुल्तानपुरी ने फैज को दिया करारा जवाब



---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ---------
मजरूह सुल्तानपुरी के करीबियों में शुमार जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि मजरूह साहब अपने दोस्त हकीम इब्बन साहब के यहां फैजाबाद में मेहमान थे। एक काव्य गोष्ठी की समाप्ति पर उन्होंने गालिबन कनाडा के किसी मुशायरे का जिक्र किया। उस मुशायरे में मजरूह और फैज अहमद फैज के अतिरिक्त दुनिया के कई बड़े शायर शरीक थे। फैज ने एक तकरीर की जिसमें दुनिया के कुछ देशों के हालात का जिक्र करते हुए भारत पर भी कुछ तीखी टिप्पणी की। जब मजरूह साहब अपना कलाम पेश करने माइक पर गए तो उन्होंने कहा, अभी जिस भारत के हालात पर फैज साहब रोशनी डाल रहे थे, मैं वहीं का हूं। मैं अपने भारत के बारे में फख्र के साथ कहता हूं कि यह चश्मा जो मेरी आंख पर है, भारत का बना हुआ है।मेरे जिस्म पर मबलूस शेरवानी, कुर्ता और पायजामा का कपड़ा भारत में ही बना है। मेरा कलम, मेरा मोजा और जूता भारत का ही बना हुआ है। पर फैज साहब के पाकिस्तान का आलम यह है कि उनकी पैंट-शर्ट का कपड़ा जर्मन का बना है तो चश्मा इंग्लैंउ का। कलम अमेरिकी है तो जूता जापान का है। अगर से सारे देश अपनी-अपनी चीज़े वापस ले लें तो फैज साहब की क्या हालत होगी, आप हज़रात महसूस कर सकते हैं।
एक और घटना का जिक्र करते हुए जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि बात सितंबर 1976 की है, मैंने अपने एक साहित्य प्रेमी मित्र स्वर्गीय रामजी अग्रवाल जो उन दिनों अधिवक्ता संघ सुल्तानपुर के सचिव थे, से मजरूह सुल्तानपुरी का जश्न सुल्तानपुर में मनाए जाने केक संबंध में मशवरा करना चाहा तो वह खुशी से उछल पड़े और तुरंत मुझे अपने साथ राजकिशोर सिंह जो उस समय जिला परिषद अध्यक्ष थे, के पास ले गए। और उनसे कहा कि नवंबर 1976 के अंत तक ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाया जाए। जश्न के संबंध में हम तीनों लोगों ने मजरूह साहब की खिदमत में अलग-अलग ख़त लिखे। ख़त में जश्न की तिथि के निर्धारण और उसमें शिरकत करने का अनुरोध किया गया। दो सप्ताह के अंदर ही मजरूह साहब ने जश्न मनाने की अनुमति और उसमें शिरकत करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। हमलोगों ने को अपार खुशी हुई और ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ की संपूर्ण रूपरेखा बना ली गई। सौभाग्य से उन्हीं दिनों स्वर्गीय केदारनाथ सिंह जो उस समय केंद्रीय मंत्रीमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, सुल्तानपुर आए हुए थे। उनसे भी जश्न के संबंध में विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने न सिर्फ हमारे फैसले को सराहा बल्कि इस प्रस्तावित जश्न को ऐतिहासिक जश्न का रूप देने का मश्विरा दिया और इसमें भरपूर सहयोग करने का आश्वासन भी दिया।
‘कमेटी जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से एक तदर्थ समिति का गठन भी हुआ, जिसके अध्यक्ष राजकिशोर सिंह, मंत्री रामजी अग्रवाल हुए। मुझे संयाजक बनाया गया। जाहिल सुल्तापुरी बताते हैं कि मैंने मजरूह साहब को एक विस्तृत खत लिखा, जिसमें त्रिदिवसीय जश्न की रूपरेखा से अतगत कराते हुए उनसे तारीख निर्धारित करने का अनुरोध किया। ख़त में यह भी उल्लेख किया कि सुल्तानपुरवासी अपने वतन के हरदिल अज़ीज़ शायर का जश्न महज मुशायरा तक ही सीमित नहीं रखना चाहते। वतन वालों की ख़्वाहिश है कि जश्न के पहले दिन मजरूह की शायरी और ज़िन्दगी पर एक उच्चस्तरीय सेमिनार का आयोजन किया जाए, जिसमें कुछ प्रतिष्ठित विद्वान समालोचकों द्वारा आलेख का वाचन किया जाए। उन आलेखों को आयोजन से पहले मंगाकर उर्दू और हिन्दी में एक किताब के रूप में छाप लिया जाए, ताकि सुल्तानपुर अपने इस अज़ीज़ शायर पर अपनी धरती से एक किताब दे सके। जश्न के दूसरे दिन मजरूह के फिल्मी गीतों, जिसमें भारतीय संस्कृति, ग्रामीण जीवन से संबंधित बहुआयामी लोकगीतों,परंपराओं और लोक जीवन का जो सजीव चित्रण बोली-बानी से माध्यम से किया गया है उसे एक नया आयाम देकर फिल्मों के जरिए लोक तक पहुंचाया है, पर विस्तृत चर्चा कि जाए। तीसरे दिन अखिल भारतीय मुशायरा और कवि सम्मेलन अयोजित किया जाए।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि हमलोग मजरूह साहब के ख़त का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। मजरूह साहब का ख़त तो जरूर आया, पर उन्होंने जश्न की तारीख निश्चित करने के बजाए यह लिखा कि क्या उस जश्न में उनके कुछ निकटस्थ दोस्तों का मश्विरा शामिल नहीं हैं, तहरीर करो। इस ख़त के बाद मैंने दूसरे दिन कमेटी के अध्यक्ष राजकिशोर सिंह और मंत्री रामजी अग्रवाल से मजरूह साहब के उस ख़त पर चर्चा करने के बाद यह लिखा कि इस जश्न में सबका सहयोग रहेगा, सभी की सहमति रहेगी, ख़ासकर आपके साथियों का मश्विरा ही नहीं, उनकी रहबरी में यह जश्न मनाया जाएगा। मगर इस ख़त के दूसरे दिन ही मजरूह साहब का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ एक ख़त मिला, जिसमें उन्होंने फरमाया कि लगता है कि यह जश्न उनके दोस्तों की मर्जी के बगैर हो रहा है। अगर ऐसा है तो जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित कर दें। इस ख़त को पाकर राजकिशोर सिंह, रामजी अग्रवाल और खुद जाहि को बड़ी मायूसी हुई।
बकौल जाहिल सुल्तानपुरी बाद में पता चला कि मजरूह साहब की खिदमत में उनके एक करीबी साथी ने ख़त लिखा था कि प्रस्तावित जश्न के आयोजक जिम्मेदार नहीं हैं। इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मजरूह साहब पर अपने मित्र के ख़त का असर पड़ा और उन्होंने एक तरह से ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ स्थगित करने का निर्देश दे दिया। मजरूह साहब के ख़त को पढ़ने के बाद जाहिल ने गुस्से में एक खत लिखा, ‘जो हजरात आपके काफी करीबी होने का दम भरते हैं और और दावा करते हैं, दरअसल वे ही आपका का जश्न सरज़मीन-ए-सुल्तानपुर में मनाए जाने के दरपर्दा मुखालिफ़ हैं। उन्होंने आपके दिन-ओ-नज़र में मुझे मुशायरों के उन संयोजकों में की कतार मे लाकर खड़ा कर दिया है, जो आमतौर पर मुशायरों के चंदों की रकम से अपनी शेरवानी बनवाते हैं। आपने जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित करने की हिदायत दी है, मैं इसे कैन्सिल करता हूं। और शायद अब आपका जश्न सुल्तानपुर की सरज़मीन पर आयोजित नहीं हो सकेगा, क्योंकि जिन्हें आप यहां अपना दिली चाहने वाला समक्ष रहे हैं वो आपका का जश्न इस धरती पर मानना ही नहीं चाहते। अगर वे आपको चाहते होते हम तीनों लोगों की पेशकश से पहले वे लोग अब तक आपका जश्न मना चुके होते। हमें तो आपने खुद ही जश्न मनाने से मना कर दिया है, इसलिए हम मज़बूर हैं। हां, आपके बाद इंशा अल्लाह हम ‘याद-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाने का इरादा करते हैं।’ यह ख़त पढ़कर मजरूह साहब ने सुल्तानपुर के एक अन्य शख़्सियत ताबिश सुल्तानपुरी जो उन दिनों संवाद लेखक थे और तरक्की पसंद तहरकी से जुड़े मशहूर शायर थे, से इस अक्षम्य हरकत की शिकायत भी की, मगार एक बुजुर्ग और मुशाफिक की हैसियत से। ताबिश साहब जब मुंबई से सुल्तानपुर आए तो उन्होंने मजरूह साहब की उस बुजुर्गाना शिकायत से आगाह किया।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि वर्ष 1976 के बाद से 1998 तक की अवधि में पांच-छह बार मजरूह साहब के साथ मुशायरे में शिरकत करने और मुलाकात करने अवसर मिला, मगर उस कद्दावर शख़्सियत ने, जो आलमी शोहरत के मालिक थे, कभी भी मेरे उस असंसदीय और गैर मोहज्जब ख़त के विषय में कोई शिकायत नहीं की। इल्म के उस गहरे समुद्र में मेरी जेहालत से लबरेज तहरकी गर्क हो गई। हर बार मजरूह मुझसे एक मुश्फिक,एक सरपरस्त और एक बुजुर्ग की तरह मिले। मजरूह साहब के उस किरदार ने, उस अख़लाक ने और उस विशाल हृदयता ने मुझे ज़िदगीभर के लिए अपना गिरवीदा बना लिया। मैं अपने ख़त के लिए आज भी शर्मिंदा हूं।
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म अक्तूबर 1919 का उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। तरक्कीपसंद शायरों में उनका नाम सरेफेहरिस्त लिया जाता है। उन्होंने तमाम हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं, जो आज भी लोगों के जेहन में तरोताजा हैं। 1964 में फिल्म ‘दोस्ती’ के गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर एवार्ड से नवाजा गया। इस अज़ीम शख़्सियत के मालिक का निधन 24 मई 2000 को हुआ।
हिन्दी दैनिक ‘जनवाणी’ में 06 नवंबर 2011 को प्रकाशित


शनिवार, 5 नवंबर 2011

‘गुफ़्तगू’ ने आयोजित की कैम्पस काव्य प्रतियोगिता

कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए प्रस्थान करते मशहूर शायर मुनव्वर राना, साथ में संतोष तिवारी, नजीब इलाहाबादी, प्रदीप तिवारी और शिवपूजन सिंह आदि।



दीप प्रज्ज्वलन कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते शायर मुनव्वर राना साथ में संतोष तिवारी, उत्तर प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’, और विधायक पूजा पाल


साहित्यिक
पत्रिका गुफ़्तगू ने ‘कैम्पस काव्य प्रतियोगिता’ का आयोजन किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता मशहूर शायर मुनव्वर राना ने की, जबकि मुख्य अतिथि प्रदेश सरकार के होम्योपैथी चिकित्सा मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी थे। इस अवसर पर दस कवियों को ‘गुफ़्तगू विशिष्ट कवि सम्मान’ भी प्रदान किया है। गुफ़्तगू ने छात्र-छात्राओं से प्रविष्टियाँ आंमत्रित की थी। आयी हुई प्रविष्टियों में से 15 छात्र-छात्राओं से काव्य पाठ कराया गया। सात जजों के पैनल ने विजेताओं का चयन किया। जिनमें कु0 सोनम पाठक ने पहला स्थान प्राप्त किया। मुबस्सिर हुसैन व सुशील द्विवेदी दूसरे जबकि सौरभ द्विवेदी और नित्यांनद राय तीसरे स्थान पर रहे। दस बच्चों को सांत्वना पुरस्कार के रूप में 500-500 रुपये की किताबें दी गई। प्रथम पुरस्कार के रूप में 1001/- रुपये, दूसरे पुरस्कार के रूप में 701/- रुपये व तीसरे पुरस्कार के रूप में 501/- रूपये प्रत्येक को प्रदान किया गया। सांत्वना पुरस्कार रानू मिश्र, गोविन्द वर्मा, अमनदीप सिंह, हुमा फात्मा अक्सीर, पंकज, चंद्रबली ‘कातिल’,दुर्गेश सिंह, अरविन्द कुमार और शादमा बानो ‘शाद’ को दिया गया। इस अवसर पर अरमान गाज़ीपुरी, डा0 सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव, सुनील दानिश, हसन सिवानी, मंजूर बाकराबादी, श्लेष गौतम, जलाल फूलपुरी, राजीव श्रीवास्वतव ‘नसीब’ और डा0 मोनिका नामदेव को ‘गुफ़्तगू विशिष्ट कवि सम्मान से नवाजा गया। शायर मुनव्वर राना ने ‘गुफ़्तगू’ के इस पहल की भूरी-भूरी प्रशंसा की। ‘गुफ़्तगू’ के संरक्षक इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी ने कहा कि पत्रिका का उद्देश्य ही नये लोगों को अधिक से अधिक अवसर प्रदान करना है, कार्यक्रम में गुफ्तगू के जलाल फूलपुरी अंक का विमोचन भी किया गया। इस अवसर पर संयोजक शिवपूजन सिंह, संतोष तिवारी, विधायक पूजा पाल, अखिलेश सिंह, डा0 राजीव सिंह, डा0 पीयूष दीक्षित, जय कृष्ण राय तुषार, यश मालवीय, धनंजय सिंह, जयकृष्ण राय तुषार, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव, जमादार धीरज, प्रदीप तिवारी, शकील गाजीपुरी आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने किया।
कार्यक्रम में विचार व्यक्त करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

‘गुफ्तगू विशिष्ट कवि सम्मान’ से नवाजे गए साहित्यकार