मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

ज़लज़ला, मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी, मुखर होते मौन और सीप

-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
लखनऊ की सुधा आदेश काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं। कविता, कहानी, उपान्यास और यात्रा वृत्तांत आदि लिखती रही हैं। अब तक कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में ‘ज़लज़ला’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है। 116 पेज वाली इस पुस्तक में कुल सात कहानियां शामिल की गई हैं। सुधा आदेश की इन कहानियों में पारिवारिक मूल्य, रिश्तों में पारदर्शिता, प्यार, अनत्व और संस्कृति का वर्णन किया गया है। लगभग हर कहानी में सामाजिक रिश्ते को बनाए रखते हुए पारिवारिक मार्यादों को निभाने और एक-दूसरे के प्रति ईमानदारी और प्यार से रहने का सबक दिया गया है। एक अच्छा और सुखी परिवार और समाज वही होता है, जहां लोग अपने रिश्तों के प्रति ईमानदारी और प्यार के साथ रहते हैं, तभी परिवार खुशहाल रहता है और समाज तरक्की की तरफ अग्रसर होता है। ‘जलजला’ नामक कहानी में एक ऐसे परिवार का वर्णन किया गया है, जिसमें पति और पत्नी दोनों की नौकरी करते हैं, पति एक बड़ी कंपनी में मैनेजर है तो पत्नी टीवी सीरियल, न्यूज़ एंकरिंग और एड की दुनिया में सक्रिय है। पति तो अपने पारिवारिक रिश्तों के प्रति बेहद गंभीर है, लेकिन पत्नी चकाचौंध की दुनिया में इतनी अधिक मगन है कि उसे पारिवारिक रिश्तों की कोई परवाह नहीं है, अपने पति यहां तक की अपनी बेटी से भी काफी दूर है। यहां तक उसने अपनी बेटी को गोंद में लेकर कभी से खिलाया तक नहीं, पति के लाख समझाने पर भी वह नहीं सुनती। इस दौरान उसके स्तन में कैंसर होने का पता चलता है तो उसके पैरो तले जमीन सिखक जाती है, उसके आसपास उसका कोई अपना नज़र नहीं आता। ऐसे में उसका पति ही उसका सहारा बनता है, उसका इलाज करवाता, दिन-रात उसकी सेवा करता है। तब उसे पारिवारिक मूल्यों, रिश्तों का पता चलता है और फिर वह अपनी जिम्मेदारियों का निवर्हन करने लगती है। इसी तरह अन्य कहानियों में भी पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों का बेहतरीन ढंग से वर्णन किया गया है। मनसा पब्लिकेशन, लखनऊ ने इसे प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 175 रुपये है।
मुंबई की कल्पना रामानी काफी सीनियर साहित्यकार हैं। चार दशकों से अधिक समय से रचनारत हैं, ग़ज़ल के अलावा, गीत, दोहे, कुंडलियां आदि लिखती रही हैं। अब तक दो नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं, हाल में इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी’ प्रकाशित हुआ है। आज के समय में ग़ज़ल की लोकप्रियता काव्य विधाओं में सर चढ़कर बोल रही है। भारत समेत आसपास के देशों में ग़ज़लें खूब लिखी-पढ़ी जा रही हैं, न सिर्फ़ हिन्दी-उर्दू में बल्कि तमाम विदेशी भाषाओं में भी। ऐसे माहौल में ग़ज़ल संग्रह का सामने आना बहुत आश्चर्यजनक तो नहीं है, लेकिन कथ्य और छंद के रूप में प्रयोग की जानी कलाकारी और अभिव्यक्ति चर्चा का विषय ज़रूर बनती है, और बनना भी चाहिए, क्योंकि ग़ज़ल की लोकप्रियता ने जहां हर किसी को इसके लेखन की तरफ अग्रसर किया है, वहीं इसके छंद की जटिलता ने लोगों को परेशान भी किया है, जिसकी वजह से तमाम अधकचरी रचनाएं ग़ज़ल के नाम पर सामने आ रही हैं। मगर तल्लसी की बात यह है कि अब तमाम लोग इसके छंद को जानने-समझने के इच्छुक दिख रहे हैं। ऐसे माहौल में कल्पना रामानी की यह किताब एक तरह से लोगों के लिए आइना दिखाती हुई प्रतीत हो रही है। क्योंकि इन्होंने ग़ज़ल की परंपरा और मिज़ाज का समझने के बाद ग़ज़ल सृजन का काम शुरू किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में आमतौर पर छंद और बह्र की ग़लती नहीं दिखती। जहां तक इनकी ग़ज़ल के विषय वस्तु की बात है, इनकी ग़ज़लों को पढ़ने बाद स्वतः ही स्पष्ट होने लगता है कि इन्होंने अपने जीवन और आसपास के परिदृश्य में जो भी देखा है, उसका वर्णन बड़ी ही इमानदारी और तत्परा के साथ किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में समाज, देश, धर्म, राजनीति, रिश्ते, पर्व आदि का वर्णन जगह-जगह मिलता है। एक ग़ज़ल का मतला इनकी रचनात्मकता और सोच को दर्शाता है -‘छीन सकता है भला, कोई किसी का क्या नसीब/आज तक वैसा हुआ, जैसा कि जिसका था नसीब।’ पानी का संकट और उसके व्यवसायीकरण ने मुश्किलें पैदी कर दी हैं, जबकि निश्चल होकर पानी का बहना अपने आप में एक छंद का रूप धारण करता है, मगर स्थिति काफी बदल चुकी है। इस परिदृश्य का वर्णन करती हुई कल्पना रामानी कहती है- ‘कल तक कलकल गान सुनाता, बहता पानी/बोतल में हो बंद, छंद अब भूला पानी। जब संदेश दिया पाहुन का कांव-कांव ने/सूने घट की आंखों में, भर आया पानी।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में जगह-जगह उल्लेखनीय अशआर से सामना होता है। 104 पेज वाले इस सजिल्द संग्रह को अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 220 रुपये है। इस प्रकाशन के लिए कल्पना जी बधाई की पात्र हैं।
हाल ही में मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ का मुक्तक संग्रह ‘तन्हा नहीं रहा तन्हा’ प्रकाशित हुआ है, वे वर्तमान दौर के ऐसे शायरों में शुमार किए जाते हैं, जो तमाम व्यस्तताओं के बीच शायरी को अपना सबसे बड़ा कर्म समझते हैं। इन्होंने शायरी की शुरूआत की तो यूं ही शेर कहना शुरू नहीं कर दिया, बल्कि पारंपरिक तरीके को अपनाया, शायरी के गुण-दोष और तहजीब को समसझने के लिए बाक़ायदा एक उस्ताद की तलाश की, उस्तादी के तमाम पेचो-खम को निभाया और फिर शेर कहना शुरू किया। जबकि वर्तमान समय के अधिकतर नये लोग शायरी की तहजीब और परंपरा को समझे बिना ही इस मैदान में कूद पड़ रहे हैं, और कुछ भी उल्टे-सीधे शेर कहकर अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा शायर कहने से गुरेज नहीं कर रहे हैं, यही वजह है कि शायरी का मैयार लगातार गिर रहा है, आम आदमी शायरी से दूर भाग रहा है। ऐसे माहौल में ‘तन्हा’ की शायरी और उनका व्यक्तित्व एक मिसाल है, जिसकी हर हाल में कद्र की जानी चाहिए। इनकी शायरी में अपने प्रीतम के लिए स्वच्छ गंगा-जल जैसा तन-मन दिखता है, जो अपने प्रियसी के लिए कुछ भी करने को तैयार है, उसके साथ जीने-मरने की बात भी करता है, मगर दुनिया की हक़ीक़ी रंग को भी दिखाता है। एक जगह प्र्रेम का वर्णन करते हुए कहते हैं-‘ बहुत हसीन मोहब्बत का जाम आता है/कुबूल कीजै वफ़ा का सलाम आता है। अजीब कैफ़ियते दिल है क्या कहें ‘तन्हा’/हमारे लब पे तुम्हारा ही नाम आता है।’ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया हमेशा पॉजीटिव होनी चाहिए, क्योंकि ज़िन्दगी जिन्दीदिली का नाम है, लेकिन इसमें तहज़ीब के दायरे को क्रास करने की इज़ाजत कोई भी सभ्य समाज नहीं दे सकता, इसे तन्हा ने अपनी ज़िन्दगी का उसूल बना लिया है तभी तो कहते हैं-‘जीने के ढंग हमको तजुर्बों के मिले हैं /मंज़िल के पते नेक उसूलों से मिले हैं।’ इस तरह कुल मिलाकर मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ की ‘तन्हा अब नहीं रहा तन्हा’ नामक यह किताब अदब की दुनिया के लिए खा़स है, जिसका अवलोकन और अध्ययन करने के बाद नई ताज़गी का एहसास होना लाज़िमी है। इस प्रकाशन के लिए तन्हा मुबारकबाद के हक़दार हैं। 96 पेज वाली इस पुस्तक सजिल्द पुस्तक को ‘गुुफ्तगू पब्लिकेशन’ इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 125 रुपये है।
भीलवाड़ा, राजस्थान की रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ सक्रिय रचनाकार हैं। कई वर्षों से साहित्य सृजन कर रही हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं बराबर प्रकाशित होती रही हैं। हाल में इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। पहली पुस्तक ग़ज़ल संग्रह ‘मुखर होता मौन’ है। इनके कलाम को पढ़ने के बाद सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये काव्य जगह की परंपरा और अध्ययन को अपने अंदर पूरी आत्मसात कर चुकी हैं। जीवन के सच्चे और कडुवे अनुभवों को समझा है और तदानुसार आगे बढ़ने का संकल्प लिया है। छात्र जीवन में एक झूठ पकड़े जाने और स्कूल में अध्यापिया से डांट खाने के बाद इन्होंने हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलने का संकल्प लिया और ऐसा ही करके दिखाया। सच्चाई के संकल्प को हमेशा निभाते रहना आज के दौर में बहुत बात है। इनका यह संकल्प और आत्मसात इनकी रचनाओं में जगह-जगह स्पष्ट होता दिखता है। ज़िन्दगी से रुबरु होते हुए दुनियावी दर्द का बयान करती हुई एक जगह खुद कहती हैं-‘बज़्म में लाए थे दिल टूटा हुआ/आज तक जिसका नहीं चर्चा हुआ। उड़ गई अफ़वाह सारे गांव में/राज़ उनसे जो जरा साझा हुआ।’ग़ज़ल का छंद यू तो कठिन है ही, उसमें भी छोटी बह्र में ग़ज़ल कहना और अधिक कठिन, लेकिन कमाल की बात यह है कि रेखा स्मित ने ज़्यादातर छोटी बह्रों में ही ग़ज़ल कहा है भी वो शानदार लबो-लहजा में। एक ग़ज़ल का मतला और शेर देखिए-‘प्यार के सपने सजाए जाएंग/ चांद धरती पर उतारे जाएंगे। हारने से जो कभी डरता नहीं/हाथ में उसके ही तमगे जाएंगे।’
रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ की दूसरी पुस्तक है ‘सीप’। कविताओं के इस संग्रह में देश और समाज से जुड़ी सच्चाइयों के साथ जीवन के सुख-दुख का वर्णन बड़ी ही सहजता से किया गया है। गांव की स्त्रियों की जीवनचर्या और उसकी जिम्मेदारी का वर्णन करते हुए एक जगह कहती हैं- ‘ वह उठती है मुंह अंधेरे/करती है चारा पाना/गायों के गले में बंधी/घुघरमाल को हिला उठा देेती है/हौले से/अलसाये दिन को/तिल तिल जलकर/ कंदील की तरह’। अपने सुनहरे एहसास और पल का वर्णन वे अपनी एक कविता में इस तरह करती हैं-‘तुम छोड़ गये थे/जो पल/ तुम्हारे सानिध्य के/उन्हें मैंने तह करके/सिरहाने के नीचे/ रख लिये हैं/जब भी आती है/तुम्हारी याद/उन्हें निकाल कर/महसूस कर लेती हूं’। समय के साथ लोगों के जीवन, सुख-दुख, रहन-सहन, मेल-मिलाप का अंदाज़, सोचने का नज़रिया बदलता है। अच्छे अनुभवों के साथ नेक काम करने की तमन्ना जाग उठती है। हालांकि कभी-कभी परेशानियों के पल में सब कुछ निगेटिव दिखने लगता है, तब प्रायः अव्यवहारिक कदम भी जीवन में उठा लेते हैं, लेकिन हर हाल में सच और सही चीज़ ही व्यवहारिक होता है। इसी तरह के एक अनुभव का जिक्र करते हुए कहती हैं-‘मैं भी वही हूं/तुम भी वहीं हो/और शब्द भी वहीं हैं/फिर उनकी अभिव्यक्ति/क्यों बदल गई है/ तब शब्द भावों से ओतप्रोत/यूं संप्रेषित होते थे/मानो लोहे को/चुम्बक से खींचा हो/ और तुम्हें/सराबोर कर देत थे/प्रेम से/ तुम्हारे चेहरे पर/फैली मुस्कान/तुम्हारी संतुष्टी प्रमाणित करती थी।’ इस तरह पुस्तक में जीवन के जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं का वर्णन शानदार ढंग से किया गया है। दोनों पुस्तकें पेपर हैं और 144 पेज की हैं। मुखर होते मौन की कीमत 125 और सीप की कीमत 150 रुपये है। इन्हें बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है। इन पुस्तकों के लिए रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ बधाई की पात्र हैं।
(published in guftgu: july-sep 2016 edition)