बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

प्रो. लाल बहादुर वर्मा

                                           
         
                                                                                       
                                                                                - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
प्रो. लाल बहादुर वर्मा मौजूदा दौर के गिने-चुने लोगों में से हैं, जिनकी पुस्तकें भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के किसी न किसी पाठ्यक्रम में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जा रही हैं। तकरीबन 77 वर्ष की उम्र में आज भी बेहद सक्रिय हैं। पत्रिकाओं और किताबों के लिए लिखने के अलावा सामाजिक, साहित्यिक आयोजनों में सक्रियता से सहभाग करते हैं। इनके तेलियरगंज स्थित निवास स्थल में प्रवेश करते ही वास्तविक जनवाद से सामना होता है। कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य करने बावजूद जीवन बेहद ही सादा। साधारण से तख्त पर बैठकर लिखते-पढ़ते दिखते हैं। यह देखकर वास्तविक जनवाद का अहसास होता है, वर्ना आज के दौर में अधिकतर जनवादी लोगों को बेवकूफ़ बनाने और अपना काम बनवाने के लिए जनवाद का चोला ओढ़े हुए हैं। पिछले चार दशकों से संभवतः एक मात्र सार्वजनिक बुद्धिजीवी और  वाम एक्टिविस्ट के रूप में जाने जाते हैं। आप उन विरल लोगों में हैं, जिन्होंने अपने मूल विषय (मध्यकालीन इतिहास और इतिहास-लेखन) में अपनी विशेषज्ञता का सफलतापूर्वक अतिक्रमण करते हुए कई विषयों पर नये तरीके से सोचने-समझने की शुरूआत की। 
 10 जनवरी 1938 को बिहार राज्य के छपरा जिले में जन्मे प्रो. वर्मा के पिता का नाम शंभूनाथ वर्मा और माता का नाम राज देवी है। प्रारंभिक शिक्षा गांव से ही हासिल करने के बाद 1953 में हाईस्कूल की परीक्षा जयपुरिया स्कूल आनंदनगर गोरखपुर से पास की; इंटरमीडिएट की परीक्षा 1955 में सेंट एंउृज कालेज और स्नातक 1957 में किया। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही आप छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे। लखनउ विश्वविद्यालय से 1959 में स्नातकोत्तर करने के बाद 1964 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘अंग्लो इंडियन कम्युनिटी इन नाइनटिन सेंचुरी इंडिया’ पर शोध की उपाधि हासिल की। 1968 में फ्रेंच सरकार की छात्रवृत्ति पर पेरिस में ‘आलियांस फ्रांसेज’में फ्रेंच भाषा की शिक्षा हासिल किया। आपका विवाह 1961 में डॉ. रजनी गंधा वर्मा से हुआ। गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अध्यापन कार्य करते हुए यहीं से सेवानिवृत्त हुए। ‘इतिहासबोध’ नाम पत्रिका बहुत दिनों तक प्रकाशित करने के बाद अब इसे बुलेटिन के तौर पर समय-समय पर प्रकाशित करते हैं। अब तक आपकी  हिन्दी, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा में डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा कई अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा की किताबों का अनुवाद भी किया है। बीसवीं सदी के लोकप्रिय इतिहासकार एरिक हाब्सबॉम की इतिहास श्रंखला ‘द एज आफ रिवोल्यूशन’ अनुवाद किया है, जो काफी चर्चित रहा है। देशकाल, समाज और इतिहास विषय में गहरी अभिरुचि है, गहरा अध्ययन और जानकारी है। अब तक प्रकाशित इनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’,‘इतिहास क्या, क्यों कैसे?’,‘विश्व इतिहास’, ‘यूरोप का इतिहास’, ‘भारत की जनकथा’, ‘मानव मुक्ति कथा’, ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा था’ और ‘कांग्रेस के सौ साल’ आदि हैं। अब तक जिन किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया है, उनमें प्रमुख रूप से एरिक होप्स बाम की पुस्तक ‘क्रांतियों का युग’, कृष हरमन की पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’, जोन होलोवे की किताब ‘चीख’ और फ्रेंच भाषा की पुस्तक ‘फांसीवाद सिद्धांत और व्यवहार’ है। आपके पुत्र सत्यम वर्मा दिल्ली में पत्रकार हैं, जबकि पुत्री आशु हरियाणा में शिक्षक हैं। 
(गुफ्तगू के दिसंबर 2015 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

हिन्दी में ग़ज़ल लिखी नहीं जा सकती- दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह से इंटरव्यू लेते प्रभाशंकर शर्मा

सुप्रसिद्ध साहित्यकार दूधनाथ सिंह का जन्म 15 अक्तूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ। अब तक इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें:  आखिरी कलाम, निष्कासन ( उपन्यास), सपाट चेहरे वाला आदमी, माई का शोकगीत, धर्मक्षेत्र (कहानी संग्रह), निराला आत्महंता कथा (आलोचना), यम गाथा (नाटक), लौट आओ धार (संस्मरण) आदि हैं। भारतेंदु सम्मान, शरद जोशी सम्मान, भूषण सम्मान, कथाक्रम सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैं। ‘गुफ्तगू’ के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और शिवपूजन सिंह ने उनसे बात की, प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: सबसे पहले आप अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मैं किसान परिवार से आता हूं। मेरे दो लड़के और एक लड़की है। दोनों लड़के दिल्ली में रहते हैं और लड़की लखनउ में। घर भी मेरा नहीं है मेरे लड़के का है। मेरी पत्नी का पिछले वर्ष देहांत हो गया। मेरे पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जो 1942 के आंदोलन में शामिल थे। मेरे पिताजी का नाम श्री देवकी नंदन सिंह और माता का नाम श्रीमती अमृता सिंह है। मेरा गृह जनपद बलिया है। मेरी शिक्षा यूपी कालेज बनारस में हुई, मैंने एमए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया था और वहीं पढ़ाता रहा और फिर वहीं से सेवानिवृत्त हुआ।
सवाल: विद्यार्थी जीवन का कोई संस्मरण ?
जवाब: उन दिनों का मेरा कोइ संस्मरण नहीं है। मैं एक नामालूम सा विद्यार्थी था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आने पर मेरे गुरु डॉ. धर्मवीर भारती और प्रो. वर्मा ने मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया और मेरी पहली कहानी ‘चौकारे छायाचित्र’ विभागीय पत्रिका में छपी थी। लेखक बनने के पीछे मेरी कोई परंपरा नहीं है। मैं बुनियादी तौर पर उर्दू का विद्यार्थी था। मेरी प्रथम भाषा बीए तक उर्दू थी, एमए में दो साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ी और उसकी वजह यह थी कि उर्दू में मुझे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एडमीशन नहीं मिला। मेरे गुरु प्रो. धीरेंद्र शर्मा ने ब्लैक बोर्ड  पर ‘सौदा’ शब्द उर्दू में लिखने को कहा और मैंने लिख दिया। उसके बाद मेरा एडमीशन हिन्दी एमए में हुआ। यह 1955 की बात है। मेरी शुरूआती दौर की सभी अच्छी काहानियां धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ और कमलेश्वर ने ‘नई काहनियां’ में छापी। मोहन राकेश जब ‘सारिका’ के संपादक थे तो उन्होंने मेरी एक कहानी को पुरस्कृत किया। इस पुरस्कार में मुख्य जज किशनचंदर थे।
सवाल: वर्तमान में ग़ज़ल और कविताओं के संग्रह ज्यादा आ रहे हैं, जबकि उसकी तुलना में कहानी की किताबें कम आ रही हैं, इसका क्या कारण है?
जवाब: हिन्दी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती क्योंकि हिन्दी के अधिकांश ग़ज़ल गो शायर बह्र और क़ाफ़िया,रदीफ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावा हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते और खड़खड़ाते हैं। मुहावरेदानी का जिस तरह से प्रयोग होता है वह हिन्दी खड़ी बोली कविता में नहीं होता, जैसे कि ग़ालिब का शेर है-
मत पूछ की क्या हाल है, मेरो तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
इस पूरी ग़ज़ल में ‘आगे’ और पीछे इन दो अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल हर शेर में गा़लिब ने अलग-अलग अर्थों में किया है। हिन्दी वाले इस मुहावरेदानी को नहीं पकड़ सकते और अक्सर जब ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फ़ाज़ का सहारा लेते हैं। अरबी से फारसी और फारसी से उर्दू में आती हुई ग़ज़ल की अपनी परंपरा है। लोग कहते हैं कि दोना भाषाएं एक है, लेकिन ऐसा नहीं है। क्रिया पदों में भाषाओं का अंतिम निर्धारण नहीं होता। दोनों के मिज़ाज, संस्कार और परंपराएं अलग-अलग हैं। वली दकनी और मीर तक़ी मीर ने हिन्दुस्तान के एक शामिल भाषा के रूप में इसे विकसित करने की कोशिश ज़रूर की लेकिन हिन्दी और उर्दू दोनों के कठमुल्लाओं ने भाषाओं को अलग करके ही दम लिया।
सवालः क्या आपको नहीं लगता कि कहानीकारों का अभाव होता  जा रहा है?
जवाब: कहानिया हिन्दी में तो लिखी जा रही हैं, उर्दू का मुझे नहीं मालूम।
सवाल: वर्तमान समय के कुछ उल्लेखनीय कहानीकारों के नाम बताएं?
जवाब: मो आरिफ अच्छे कहानीकार हैं, उदय प्रकाश और अखिलेश जी भी हैं और भी बहुत सारे नाम हैं।
सवाल: कभी आपको अपने जीवन में लगा हो कि समय प्रतिकूल चल रहा है या आपके जीवन के संघर्षों का कोई संस्मरण ?
जवाब : जीवन संघर्ष तो बना रहता है, लेकिन मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूं। मेरा मुख्य संघर्ष अपने लिखने पर रहता है, बाकी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी मुझे पेंशन दे रही है।
सवाल: उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव साहित्यकारों को महत्व देते ही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और उत्तर प्रदेश  भाषा संस्थान के पदाधिकारी किसी विशेष वर्ग के हित में ही काम करते दिखते हैं?
जवाब: मैं  नहीं जानता कि किस वर्ग के हित में काम कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव जी ऐसे पहले आदमी हैं जो लेखकों की चिंता करते हैं। अदम गोंडवी जब पीजीआई में भर्ती हुए थे तब यह मुलायम सिंह ही जो आर्थिक मदद लेकर अस्पताल पहुंचे थे। हालांकि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका।
सवाल: गोपाल दास नीरज उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं और इन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने सम्मानित किया है। एक ही सरकार के अधीन दो सामांनतर संस्थाओं में से एक के संवैधानिक पद पर रहते हुए दूसरी संस्था से पुरस्कार प्राप्त करने का क्या औचित्य है?
जवाब: इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन जो लोग नीरज को छोटा कवि मानते हैं वे नादान हैं।
सवाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा के आगमन पर तमाम लोगों के ग्रुप के साथ उनकी बैठक कराई थी,  लेकिन साहित्यकारों से साथ नहीं?
जवाब: आरएसएस के पास कोई साहित्यकार नहीं है। हिन्दी उर्दू साहित्य एक प्रतिरोधी विधा है, वह सत्ता की अनुगामी कभी नहीं रही और मोदी जी या उनकी मानव संसाधन विकास मंत्री को हिन्दी और उर्दू लेखकों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सवाल: आपने अपनी पुस्तक का नाम ‘आखिरी कलाम’रखा है। इस क्या मतलब है, ऐसा क्यों?
जवाब:‘आखि़री कलाम’ शब्द का दो अर्थों में मैंने प्रयोग किया है। पहले अर्थ ‘अंतिम कविता’ जबकि दूसरा अर्थ कुरआन शरीफ़ के संदर्भ किया था, लोग नहीं जानते। यह पूरा उपन्यास बाबरी मस्जिद के विध्वंस के खिलाफ़ एक प्रोटेस्ट था।
सवाल: पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ को लेकर काफी विवाद रहा। मुंशी प्रेमचंद और सज्जाद जहीर ने जिन सिद्धांतों को लेकर प्रलेस की स्थापना की थी, क्या आपकी नज़र में प्रलेस उन सिद्धांतों का पालन कर रहा है?
जवाब: हां, कर रहा है। बल्कि हिन्दी में कोई अच्छा लेखक प्रलेस, जलेस और जसम से बाहर नहीं है। इन संस्थाओं में पूरी लेखकीय स्वतंत्रता है सिवाए इसके कि आप दक्षिणपंथी विचारों को अपने साहित्य में जगह न दें, इतनी ही बंदिश है।
सवाल: मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे कहानीकार हैं जो हिन्दी के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाए जाते हैं और उर्दू के पाठ्यक्रम में भी?
जवाब: वे हमारी दोनों भाषाओं और मिलीजुली संस्कृति के लेखक हैं।
सवाल: हिन्दी-उर्दू आपस में एक नहीं हैं बल्कि अलग-अलग चलती हैं। आपके इस बयान को लेकर पिछले दिनों मीडिया में काफी गहमागहमी रही। इसे लेकर आप क्या कहेंगे?
जवाबः साहित्य के स्तर पर दोनों अलग-अलग हैं, लेकिन व्याकरणिक ढांचा एक ही है। फ़र्क़ यह है कि हिन्दी संस्कृत से अपनी शब्दावली ग्रहण करती है, जबकि उर्दू फारसी से। इसमें अगर कठोरता बरतेंगे तो दोनों भाषाएं विनष्ट हो जाएंगी। भारतेंदु ने 1872 में एक लेेख लिखा था जिसका शीर्षक ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। इसमें उन्होंने भाषा का जो स्वरूप निर्धारित किया है उसी में सबकुछ संभव है।
सवाल: इलाहाबाद के साहित्यकारों के नाम आपका संदेश?
जवाब: इलाहाबाद में साहित्य की चर्चा ज्यादा हो रही है जबकि कविता, कहानी, उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। नए इलाहाबादी लेखकों को कविता, कहानी, उपन्यास लिखना चाहिए। साहित्य चर्चा में अपना समय नहीं गंवाना चाहिए। यह बड़े और बूढ़ों पर छोड़ देना चाहिए, यही मेरा संदेश है। 

शिवपूजन सिंह, दूधनाथ सिंह और प्रभाशंकर शर्मा

गुफ्तगू के सितंबर-2015 अंक में प्रकाशित

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

तीन पुस्तकों की समीक्षा

रुक्काबाई का कोठा, मौसमों के दरम्यान और अब कुछ कर दिखाना होगा
                                                                                      -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

रवीन्द्र श्रीवास्तव एक अर्से से पत्रकारिता से जुड़े हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1965 में स्नातकोत्तर करने के बाद इलाहाबाद में ही दैनिक भारत से पत्रकारिता की शुरूआत की। धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत, वनिता भारती और मित्र प्रकाशन की पत्रिकाओं में काम करने के बाद आजकल मंुबई में लोकस्वामी प्रकाशन समूह में प्रधान संपादक हैं। पिछले दिनों इनका नाविल ‘रुक्काबाई का कोठा’ प्रकाशित होकर सामने आया है। ख़ासतौर पर कोठों पर ज़िन्दगी गुजारने वाली महिलाओं की जीवन का चित्रण इस पुस्तक में बहुत ही शानदार तरीके से किया गया है। इस किताब को पढ़ते हुए सआदत हसन मंटो की याद आना स्वभाविक ही है। जब मंटो जीवित थे और कोठो की ज़िन्दगी और उन मामलात से जुड़ी चीज़ों पर लिख रहे थे, तब उनकी खूब मुख़ाफत हुई, बल्कि उनको निम्न स्तर का लेखक माना जाता रहा। लेकिन उनके देहांत के बाद जब उनकी लेखनी पर गौर किया गया तो मंटो को दुनिया के बड़ों लेखकों में शुमार किया जाने लगा। आज साहित्य की दुनिया में जितनी इज़्ज़त उन्हें हासिल है, कम लोगों को नसीब हुआ है। हालांकि मंटो उर्दू अदब के लेखक हैं। आज रवींद्र श्रीवास्तव ने उसी प्रकार के मुद्दों को नए परिदृश्य में रुक्काबाई का कोठा में उठाकर लोगों को जागरुक करने का बहुत ही शानदार काम किया है। वर्ना हमारे समाज में कोठावालियों को बहुत ही गिरी निगाह से देखा जाता है, बड़े-बड़े रईस उनके साथ रात और दिन गुजारने के लिए पहुंचते हैं, अपने शौक़ पूरे करते हैं, लेकिन वहां से वापस आते समय उन्हीं कोठेवालियों को गालियों से नवाजते हैं, जिनके चरणों से होकर आते हैं। आमतौर पर लोग भूल जाते हैं कि कोठेवालियों की भी अपनी एक ज़िन्दगी होती है, उन्हें भी अपना परिवार विभिन्न स्थितियों में चलाना होता है। उन्हें भी सुख-दुख और दुनिया की अन्य सारी चीज़ों से गुज़रना होता है। और फिर इनमें से अधिकतर ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी न किसी मर्द ने धोखे से कोठे पर पहुंचा दिया होता है। उनकी मजबूरी और बेबसी को महसूस तक करने वाला कोई नहीं होता। ऐसे हालात और जीवन को रवींद्र श्रीवास्तव ने अपनी किताब में बहुत शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में रुक्काबाई के कोठे का चित्रण किया गया है, जिसमें रुक्काबाई का बेटा बड़ा होकर एक अन्य कोठे वाली से प्रेम करने लगता है, कुछ अनबन होने पर अपनी प्रेमिका को परेशान करने के लिए उसकी छह अन्य सहेलियों से प्रेम करने लगता है। फिर वह कहीं दूर जाकर दूसरी औरत से विवाह कर लेता है, काफी अर्से बाद जब लौटता है तो कोठा उजड़ चुका होता है लेकिन उसकी बूढ़ी मां रुक्काबाई मिलती है। उसकी प्रेमिका और उसकी सभी सहेलियां उसके बेटों की मां बन चुकी होती हैं, बेटे बड़े हो चुके होते हैं। इस तरह आगे की कहानी एक दिलचस्प मोड़ लेती है। 376 पेज वाली इस किताब को नई दिल्ली के स्मरण पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 400 रुपये है। जीवन एक अनूठा और रूप जानने-समझने के लिए इस पुस्तक को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
मौसमों के दरम्यान’ ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है, जिसकी कवयित्री अंजली
मालवीय ‘मौसम’ हैं। जन्तु विज्ञान में स्नातकोत्तर करनी वाली अंजली मालवीय ने केंद्रीय विद्यालय में बहुत दिनों तक अध्यापन कार्य किया है। सिंगारपुर, थाइलैंड, फ्रांस, स्विज़रलैंड, आस्टिया और इटली का भ्रमण कर चुकी हैं, और अपने अनुभवों को अपनी रचानाओं में बखूबी बयान किया है। इनका ताअल्लुक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय से है, दूर की रिश्तेदारी है। अंजली की यह किताब है तो देवनागरी लिपी में, लेकिन उन्हें उर्दू का अच्छा-खास ज्ञान है और उर्दू की आज़ाद नज़्मों की तौर पर ही शायरी कर रही हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक में प्रेम प्रसंग को बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। आधुनिक युग में प्रेम के एहसास और मतलब के वक़्त होने वाले उसमें बदलाव को अपने नज़रिए से पेश करते हुए इन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि प्रेम अमर, अटल और अजर होता है, इसे किसी भी कीमत पर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, हां ऐसे करने का दिखावा ज़रूर मुमकिन है। एक कविता में कहती हैं - चलो इस बात से दिल तो बहलता है/हम अकेले नहीं हैं जिसका दिल टूटता है।/ किसके दम पर रहे आबाद हम/यहां तो अपना ही अपने का छलता है। फिर अपने प्रेम का एक अलग अनुभव करती हुए एक नज़्म में कहती हैं - परतें खुलती गईं, राज होता गया गहरा/नज़र जो न आया,फिर भी असली चेहरा/ सियाह बादल भी कभी कभी/दिखा देते हैं रंग सुनहरा। वर्तमान दौर में इंसानों के मगरमच्छ से आंसू और गिरगिट के तरह बदलते हुए को देखकर विचलित हो उठती हैं अंजली मालवीय, तब एक कविता का उद्भव होता है, कहती हैं- फूलों को पहचान लेती हूं, उनकी खूश्बू से, /कांटों को पहचान लेती हूं उसकी चुभन से / चांद को पहचान लेती हूं उसकी चांदनी से/ देखकर पंछियों का झुंड आकाश में/ पहचान लेती हूं उनकी उड़ान को/ हैरान हूं तो फ़क़त इस बात से/ कैसे पहचानूं इंसान को ? इस तरह पूरी पुस्तक जगह-जगह इन्होंने अपने प्रेम के एहसास को बहतर ढंग से प्रस्तुत किया है। एक स्त्री के तौर पर सच्चे प्यार समझने, पाने और फिर धोखे मिलने को भी इन्होंने बखूबी देखा और एहसास किया है। ऐसे ही एहसास का बखान अपनी शायरी में किया है। सुलभ प्रकाशन लखनउ से प्रकाशित इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है।

शैलेंद्र कपिल उत्तर मध्य रेलवे में मुख्य मालभाड़ा प्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं। साहित्य में रुचि और लेखन उनको विरासत में मिला है। इनके पिता केदारनाथ शर्मा कहानीकार थे, उनकी पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें तीन उर्दू लिपि में हैं। शैलेंद्र कपिल का हाल में ही कविता संग्रह ‘अब कुछ कर दिखाना होगा’ प्रकाशित हुआ है। पुस्तक तो मात्र 60 पेज की ही है, लेकिन इसमें भी इन्होंने बहुत शानदार ढंग से ज़िन्दगी के एहसास को बखूबी प्रस्तुत किया है। सबसे अच्छी बात है कि बदलती दुनिया और लगातार बिगड़ रहे इंसान चरित्र का इन्होंने बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है, यह बात इनकी कविताओं को पढ़ने से खुद ही जाहिर हो जाती है। ऐसे माहौल में इन्होंने लोगों में पॉजीटिव जज्बा भरने का प्रयास अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है, जिसकी आज के दौर में सबसे अधिक आवश्यकता है। जगह-जगह लोगों को बुराई से आगाह और ऐसे दौर में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं। एक कविता में कहते हैं- क्यों है निराश, क्यों मन है उदास/जीवन है एक पहेली, फिर भी तू है उदास/कभी धूप, कभी छांव/नहीं पड़ते ज़मीन पर पांव/कदम बढ़ाकर देख/पीछे चल देगा सारा जहां। फिर आगे एक कविता में कहते हैं - मुझे भेजा गया है, खि़दमत करने के लिए / उम्मीदें रखने के लिए और/ उम्मीदों पर ख़रा उतरने के लिए / ज़रूरतों को थामना आपके हाथ में है/ ग़मों को पार पाना आपके हाथ में है। इस तरह कुल मिलाकर पुस्तक लोगों में पॉजीटिव एनर्जी भरने का सार्थक प्रयास करती दिख रही है। एक बार कम से कम हर साहित्य प्रेमी को यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। 60 पेज वाले इस पेपरबैक संस्करण को हमलोग प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित कियाा है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
गुफ्तगू के सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित