दूधनाथ सिंह से इंटरव्यू लेते प्रभाशंकर शर्मा |
सुप्रसिद्ध साहित्यकार दूधनाथ सिंह का जन्म 15 अक्तूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ। अब तक इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें: आखिरी कलाम, निष्कासन ( उपन्यास), सपाट चेहरे वाला आदमी, माई का शोकगीत, धर्मक्षेत्र (कहानी संग्रह), निराला आत्महंता कथा (आलोचना), यम गाथा (नाटक), लौट आओ धार (संस्मरण) आदि हैं। भारतेंदु सम्मान, शरद जोशी सम्मान, भूषण सम्मान, कथाक्रम सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैं। ‘गुफ्तगू’ के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और शिवपूजन सिंह ने उनसे बात की, प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: सबसे पहले आप अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मैं किसान परिवार से आता हूं। मेरे दो लड़के और एक लड़की है। दोनों लड़के दिल्ली में रहते हैं और लड़की लखनउ में। घर भी मेरा नहीं है मेरे लड़के का है। मेरी पत्नी का पिछले वर्ष देहांत हो गया। मेरे पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जो 1942 के आंदोलन में शामिल थे। मेरे पिताजी का नाम श्री देवकी नंदन सिंह और माता का नाम श्रीमती अमृता सिंह है। मेरा गृह जनपद बलिया है। मेरी शिक्षा यूपी कालेज बनारस में हुई, मैंने एमए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया था और वहीं पढ़ाता रहा और फिर वहीं से सेवानिवृत्त हुआ।
सवाल: विद्यार्थी जीवन का कोई संस्मरण ?
जवाब: उन दिनों का मेरा कोइ संस्मरण नहीं है। मैं एक नामालूम सा विद्यार्थी था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आने पर मेरे गुरु डॉ. धर्मवीर भारती और प्रो. वर्मा ने मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया और मेरी पहली कहानी ‘चौकारे छायाचित्र’ विभागीय पत्रिका में छपी थी। लेखक बनने के पीछे मेरी कोई परंपरा नहीं है। मैं बुनियादी तौर पर उर्दू का विद्यार्थी था। मेरी प्रथम भाषा बीए तक उर्दू थी, एमए में दो साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ी और उसकी वजह यह थी कि उर्दू में मुझे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एडमीशन नहीं मिला। मेरे गुरु प्रो. धीरेंद्र शर्मा ने ब्लैक बोर्ड पर ‘सौदा’ शब्द उर्दू में लिखने को कहा और मैंने लिख दिया। उसके बाद मेरा एडमीशन हिन्दी एमए में हुआ। यह 1955 की बात है। मेरी शुरूआती दौर की सभी अच्छी काहानियां धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ और कमलेश्वर ने ‘नई काहनियां’ में छापी। मोहन राकेश जब ‘सारिका’ के संपादक थे तो उन्होंने मेरी एक कहानी को पुरस्कृत किया। इस पुरस्कार में मुख्य जज किशनचंदर थे।
सवाल: वर्तमान में ग़ज़ल और कविताओं के संग्रह ज्यादा आ रहे हैं, जबकि उसकी तुलना में कहानी की किताबें कम आ रही हैं, इसका क्या कारण है?
जवाब: हिन्दी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती क्योंकि हिन्दी के अधिकांश ग़ज़ल गो शायर बह्र और क़ाफ़िया,रदीफ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावा हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते और खड़खड़ाते हैं। मुहावरेदानी का जिस तरह से प्रयोग होता है वह हिन्दी खड़ी बोली कविता में नहीं होता, जैसे कि ग़ालिब का शेर है-
मत पूछ की क्या हाल है, मेरो तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
इस पूरी ग़ज़ल में ‘आगे’ और पीछे इन दो अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल हर शेर में गा़लिब ने अलग-अलग अर्थों में किया है। हिन्दी वाले इस मुहावरेदानी को नहीं पकड़ सकते और अक्सर जब ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फ़ाज़ का सहारा लेते हैं। अरबी से फारसी और फारसी से उर्दू में आती हुई ग़ज़ल की अपनी परंपरा है। लोग कहते हैं कि दोना भाषाएं एक है, लेकिन ऐसा नहीं है। क्रिया पदों में भाषाओं का अंतिम निर्धारण नहीं होता। दोनों के मिज़ाज, संस्कार और परंपराएं अलग-अलग हैं। वली दकनी और मीर तक़ी मीर ने हिन्दुस्तान के एक शामिल भाषा के रूप में इसे विकसित करने की कोशिश ज़रूर की लेकिन हिन्दी और उर्दू दोनों के कठमुल्लाओं ने भाषाओं को अलग करके ही दम लिया।
सवालः क्या आपको नहीं लगता कि कहानीकारों का अभाव होता जा रहा है?
जवाब: कहानिया हिन्दी में तो लिखी जा रही हैं, उर्दू का मुझे नहीं मालूम।
सवाल: वर्तमान समय के कुछ उल्लेखनीय कहानीकारों के नाम बताएं?
जवाब: मो आरिफ अच्छे कहानीकार हैं, उदय प्रकाश और अखिलेश जी भी हैं और भी बहुत सारे नाम हैं।
सवाल: कभी आपको अपने जीवन में लगा हो कि समय प्रतिकूल चल रहा है या आपके जीवन के संघर्षों का कोई संस्मरण ?
जवाब : जीवन संघर्ष तो बना रहता है, लेकिन मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूं। मेरा मुख्य संघर्ष अपने लिखने पर रहता है, बाकी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी मुझे पेंशन दे रही है।
सवाल: उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव साहित्यकारों को महत्व देते ही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के पदाधिकारी किसी विशेष वर्ग के हित में ही काम करते दिखते हैं?
जवाब: मैं नहीं जानता कि किस वर्ग के हित में काम कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव जी ऐसे पहले आदमी हैं जो लेखकों की चिंता करते हैं। अदम गोंडवी जब पीजीआई में भर्ती हुए थे तब यह मुलायम सिंह ही जो आर्थिक मदद लेकर अस्पताल पहुंचे थे। हालांकि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका।
सवाल: गोपाल दास नीरज उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं और इन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने सम्मानित किया है। एक ही सरकार के अधीन दो सामांनतर संस्थाओं में से एक के संवैधानिक पद पर रहते हुए दूसरी संस्था से पुरस्कार प्राप्त करने का क्या औचित्य है?
जवाब: इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन जो लोग नीरज को छोटा कवि मानते हैं वे नादान हैं।
सवाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा के आगमन पर तमाम लोगों के ग्रुप के साथ उनकी बैठक कराई थी, लेकिन साहित्यकारों से साथ नहीं?
जवाब: आरएसएस के पास कोई साहित्यकार नहीं है। हिन्दी उर्दू साहित्य एक प्रतिरोधी विधा है, वह सत्ता की अनुगामी कभी नहीं रही और मोदी जी या उनकी मानव संसाधन विकास मंत्री को हिन्दी और उर्दू लेखकों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सवाल: आपने अपनी पुस्तक का नाम ‘आखिरी कलाम’रखा है। इस क्या मतलब है, ऐसा क्यों?
जवाब:‘आखि़री कलाम’ शब्द का दो अर्थों में मैंने प्रयोग किया है। पहले अर्थ ‘अंतिम कविता’ जबकि दूसरा अर्थ कुरआन शरीफ़ के संदर्भ किया था, लोग नहीं जानते। यह पूरा उपन्यास बाबरी मस्जिद के विध्वंस के खिलाफ़ एक प्रोटेस्ट था।
सवाल: पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ को लेकर काफी विवाद रहा। मुंशी प्रेमचंद और सज्जाद जहीर ने जिन सिद्धांतों को लेकर प्रलेस की स्थापना की थी, क्या आपकी नज़र में प्रलेस उन सिद्धांतों का पालन कर रहा है?
जवाब: हां, कर रहा है। बल्कि हिन्दी में कोई अच्छा लेखक प्रलेस, जलेस और जसम से बाहर नहीं है। इन संस्थाओं में पूरी लेखकीय स्वतंत्रता है सिवाए इसके कि आप दक्षिणपंथी विचारों को अपने साहित्य में जगह न दें, इतनी ही बंदिश है।
सवाल: मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे कहानीकार हैं जो हिन्दी के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाए जाते हैं और उर्दू के पाठ्यक्रम में भी?
जवाब: वे हमारी दोनों भाषाओं और मिलीजुली संस्कृति के लेखक हैं।
सवाल: हिन्दी-उर्दू आपस में एक नहीं हैं बल्कि अलग-अलग चलती हैं। आपके इस बयान को लेकर पिछले दिनों मीडिया में काफी गहमागहमी रही। इसे लेकर आप क्या कहेंगे?
जवाबः साहित्य के स्तर पर दोनों अलग-अलग हैं, लेकिन व्याकरणिक ढांचा एक ही है। फ़र्क़ यह है कि हिन्दी संस्कृत से अपनी शब्दावली ग्रहण करती है, जबकि उर्दू फारसी से। इसमें अगर कठोरता बरतेंगे तो दोनों भाषाएं विनष्ट हो जाएंगी। भारतेंदु ने 1872 में एक लेेख लिखा था जिसका शीर्षक ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। इसमें उन्होंने भाषा का जो स्वरूप निर्धारित किया है उसी में सबकुछ संभव है।
सवाल: इलाहाबाद के साहित्यकारों के नाम आपका संदेश?
जवाब: इलाहाबाद में साहित्य की चर्चा ज्यादा हो रही है जबकि कविता, कहानी, उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। नए इलाहाबादी लेखकों को कविता, कहानी, उपन्यास लिखना चाहिए। साहित्य चर्चा में अपना समय नहीं गंवाना चाहिए। यह बड़े और बूढ़ों पर छोड़ देना चाहिए, यही मेरा संदेश है।
शिवपूजन सिंह, दूधनाथ सिंह और प्रभाशंकर शर्मा |
गुफ्तगू के सितंबर-2015 अंक में प्रकाशित
1 टिप्पणियाँ:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और कैलाश नाथ काटजू में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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