बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

प्रो. लाल बहादुर वर्मा

                                           
         
                                                                                       
                                                                                - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
प्रो. लाल बहादुर वर्मा मौजूदा दौर के गिने-चुने लोगों में से हैं, जिनकी पुस्तकें भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के किसी न किसी पाठ्यक्रम में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जा रही हैं। तकरीबन 77 वर्ष की उम्र में आज भी बेहद सक्रिय हैं। पत्रिकाओं और किताबों के लिए लिखने के अलावा सामाजिक, साहित्यिक आयोजनों में सक्रियता से सहभाग करते हैं। इनके तेलियरगंज स्थित निवास स्थल में प्रवेश करते ही वास्तविक जनवाद से सामना होता है। कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य करने बावजूद जीवन बेहद ही सादा। साधारण से तख्त पर बैठकर लिखते-पढ़ते दिखते हैं। यह देखकर वास्तविक जनवाद का अहसास होता है, वर्ना आज के दौर में अधिकतर जनवादी लोगों को बेवकूफ़ बनाने और अपना काम बनवाने के लिए जनवाद का चोला ओढ़े हुए हैं। पिछले चार दशकों से संभवतः एक मात्र सार्वजनिक बुद्धिजीवी और  वाम एक्टिविस्ट के रूप में जाने जाते हैं। आप उन विरल लोगों में हैं, जिन्होंने अपने मूल विषय (मध्यकालीन इतिहास और इतिहास-लेखन) में अपनी विशेषज्ञता का सफलतापूर्वक अतिक्रमण करते हुए कई विषयों पर नये तरीके से सोचने-समझने की शुरूआत की। 
 10 जनवरी 1938 को बिहार राज्य के छपरा जिले में जन्मे प्रो. वर्मा के पिता का नाम शंभूनाथ वर्मा और माता का नाम राज देवी है। प्रारंभिक शिक्षा गांव से ही हासिल करने के बाद 1953 में हाईस्कूल की परीक्षा जयपुरिया स्कूल आनंदनगर गोरखपुर से पास की; इंटरमीडिएट की परीक्षा 1955 में सेंट एंउृज कालेज और स्नातक 1957 में किया। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही आप छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे। लखनउ विश्वविद्यालय से 1959 में स्नातकोत्तर करने के बाद 1964 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘अंग्लो इंडियन कम्युनिटी इन नाइनटिन सेंचुरी इंडिया’ पर शोध की उपाधि हासिल की। 1968 में फ्रेंच सरकार की छात्रवृत्ति पर पेरिस में ‘आलियांस फ्रांसेज’में फ्रेंच भाषा की शिक्षा हासिल किया। आपका विवाह 1961 में डॉ. रजनी गंधा वर्मा से हुआ। गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अध्यापन कार्य करते हुए यहीं से सेवानिवृत्त हुए। ‘इतिहासबोध’ नाम पत्रिका बहुत दिनों तक प्रकाशित करने के बाद अब इसे बुलेटिन के तौर पर समय-समय पर प्रकाशित करते हैं। अब तक आपकी  हिन्दी, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा में डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा कई अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा की किताबों का अनुवाद भी किया है। बीसवीं सदी के लोकप्रिय इतिहासकार एरिक हाब्सबॉम की इतिहास श्रंखला ‘द एज आफ रिवोल्यूशन’ अनुवाद किया है, जो काफी चर्चित रहा है। देशकाल, समाज और इतिहास विषय में गहरी अभिरुचि है, गहरा अध्ययन और जानकारी है। अब तक प्रकाशित इनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’,‘इतिहास क्या, क्यों कैसे?’,‘विश्व इतिहास’, ‘यूरोप का इतिहास’, ‘भारत की जनकथा’, ‘मानव मुक्ति कथा’, ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा था’ और ‘कांग्रेस के सौ साल’ आदि हैं। अब तक जिन किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया है, उनमें प्रमुख रूप से एरिक होप्स बाम की पुस्तक ‘क्रांतियों का युग’, कृष हरमन की पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’, जोन होलोवे की किताब ‘चीख’ और फ्रेंच भाषा की पुस्तक ‘फांसीवाद सिद्धांत और व्यवहार’ है। आपके पुत्र सत्यम वर्मा दिल्ली में पत्रकार हैं, जबकि पुत्री आशु हरियाणा में शिक्षक हैं। 
(गुफ्तगू के दिसंबर 2015 अंक में प्रकाशित)

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