रुक्काबाई का कोठा, मौसमों के दरम्यान और अब कुछ कर दिखाना होगा
-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
रवीन्द्र श्रीवास्तव एक अर्से से पत्रकारिता से जुड़े हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1965 में स्नातकोत्तर करने के बाद इलाहाबाद में ही दैनिक भारत से पत्रकारिता की शुरूआत की। धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत, वनिता भारती और मित्र प्रकाशन की पत्रिकाओं में काम करने के बाद आजकल मंुबई में लोकस्वामी प्रकाशन समूह में प्रधान संपादक हैं। पिछले दिनों इनका नाविल ‘रुक्काबाई का कोठा’ प्रकाशित होकर सामने आया है। ख़ासतौर पर कोठों पर ज़िन्दगी गुजारने वाली महिलाओं की जीवन का चित्रण इस पुस्तक में बहुत ही शानदार तरीके से किया गया है। इस किताब को पढ़ते हुए सआदत हसन मंटो की याद आना स्वभाविक ही है। जब मंटो जीवित थे और कोठो की ज़िन्दगी और उन मामलात से जुड़ी चीज़ों पर लिख रहे थे, तब उनकी खूब मुख़ाफत हुई, बल्कि उनको निम्न स्तर का लेखक माना जाता रहा। लेकिन उनके देहांत के बाद जब उनकी लेखनी पर गौर किया गया तो मंटो को दुनिया के बड़ों लेखकों में शुमार किया जाने लगा। आज साहित्य की दुनिया में जितनी इज़्ज़त उन्हें हासिल है, कम लोगों को नसीब हुआ है। हालांकि मंटो उर्दू अदब के लेखक हैं। आज रवींद्र श्रीवास्तव ने उसी प्रकार के मुद्दों को नए परिदृश्य में रुक्काबाई का कोठा में उठाकर लोगों को जागरुक करने का बहुत ही शानदार काम किया है। वर्ना हमारे समाज में कोठावालियों को बहुत ही गिरी निगाह से देखा जाता है, बड़े-बड़े रईस उनके साथ रात और दिन गुजारने के लिए पहुंचते हैं, अपने शौक़ पूरे करते हैं, लेकिन वहां से वापस आते समय उन्हीं कोठेवालियों को गालियों से नवाजते हैं, जिनके चरणों से होकर आते हैं। आमतौर पर लोग भूल जाते हैं कि कोठेवालियों की भी अपनी एक ज़िन्दगी होती है, उन्हें भी अपना परिवार विभिन्न स्थितियों में चलाना होता है। उन्हें भी सुख-दुख और दुनिया की अन्य सारी चीज़ों से गुज़रना होता है। और फिर इनमें से अधिकतर ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी न किसी मर्द ने धोखे से कोठे पर पहुंचा दिया होता है। उनकी मजबूरी और बेबसी को महसूस तक करने वाला कोई नहीं होता। ऐसे हालात और जीवन को रवींद्र श्रीवास्तव ने अपनी किताब में बहुत शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में रुक्काबाई के कोठे का चित्रण किया गया है, जिसमें रुक्काबाई का बेटा बड़ा होकर एक अन्य कोठे वाली से प्रेम करने लगता है, कुछ अनबन होने पर अपनी प्रेमिका को परेशान करने के लिए उसकी छह अन्य सहेलियों से प्रेम करने लगता है। फिर वह कहीं दूर जाकर दूसरी औरत से विवाह कर लेता है, काफी अर्से बाद जब लौटता है तो कोठा उजड़ चुका होता है लेकिन उसकी बूढ़ी मां रुक्काबाई मिलती है। उसकी प्रेमिका और उसकी सभी सहेलियां उसके बेटों की मां बन चुकी होती हैं, बेटे बड़े हो चुके होते हैं। इस तरह आगे की कहानी एक दिलचस्प मोड़ लेती है। 376 पेज वाली इस किताब को नई दिल्ली के स्मरण पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 400 रुपये है। जीवन एक अनूठा और रूप जानने-समझने के लिए इस पुस्तक को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
‘मौसमों के दरम्यान’ ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है, जिसकी कवयित्री अंजली
मालवीय ‘मौसम’ हैं। जन्तु विज्ञान में स्नातकोत्तर करनी वाली अंजली मालवीय ने केंद्रीय विद्यालय में बहुत दिनों तक अध्यापन कार्य किया है। सिंगारपुर, थाइलैंड, फ्रांस, स्विज़रलैंड, आस्टिया और इटली का भ्रमण कर चुकी हैं, और अपने अनुभवों को अपनी रचानाओं में बखूबी बयान किया है। इनका ताअल्लुक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय से है, दूर की रिश्तेदारी है। अंजली की यह किताब है तो देवनागरी लिपी में, लेकिन उन्हें उर्दू का अच्छा-खास ज्ञान है और उर्दू की आज़ाद नज़्मों की तौर पर ही शायरी कर रही हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक में प्रेम प्रसंग को बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। आधुनिक युग में प्रेम के एहसास और मतलब के वक़्त होने वाले उसमें बदलाव को अपने नज़रिए से पेश करते हुए इन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि प्रेम अमर, अटल और अजर होता है, इसे किसी भी कीमत पर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, हां ऐसे करने का दिखावा ज़रूर मुमकिन है। एक कविता में कहती हैं - चलो इस बात से दिल तो बहलता है/हम अकेले नहीं हैं जिसका दिल टूटता है।/ किसके दम पर रहे आबाद हम/यहां तो अपना ही अपने का छलता है। फिर अपने प्रेम का एक अलग अनुभव करती हुए एक नज़्म में कहती हैं - परतें खुलती गईं, राज होता गया गहरा/नज़र जो न आया,फिर भी असली चेहरा/ सियाह बादल भी कभी कभी/दिखा देते हैं रंग सुनहरा। वर्तमान दौर में इंसानों के मगरमच्छ से आंसू और गिरगिट के तरह बदलते हुए को देखकर विचलित हो उठती हैं अंजली मालवीय, तब एक कविता का उद्भव होता है, कहती हैं- फूलों को पहचान लेती हूं, उनकी खूश्बू से, /कांटों को पहचान लेती हूं उसकी चुभन से / चांद को पहचान लेती हूं उसकी चांदनी से/ देखकर पंछियों का झुंड आकाश में/ पहचान लेती हूं उनकी उड़ान को/ हैरान हूं तो फ़क़त इस बात से/ कैसे पहचानूं इंसान को ? इस तरह पूरी पुस्तक जगह-जगह इन्होंने अपने प्रेम के एहसास को बहतर ढंग से प्रस्तुत किया है। एक स्त्री के तौर पर सच्चे प्यार समझने, पाने और फिर धोखे मिलने को भी इन्होंने बखूबी देखा और एहसास किया है। ऐसे ही एहसास का बखान अपनी शायरी में किया है। सुलभ प्रकाशन लखनउ से प्रकाशित इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है।
शैलेंद्र कपिल उत्तर मध्य रेलवे में मुख्य मालभाड़ा प्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं। साहित्य में रुचि और लेखन उनको विरासत में मिला है। इनके पिता केदारनाथ शर्मा कहानीकार थे, उनकी पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें तीन उर्दू लिपि में हैं। शैलेंद्र कपिल का हाल में ही कविता संग्रह ‘अब कुछ कर दिखाना होगा’ प्रकाशित हुआ है। पुस्तक तो मात्र 60 पेज की ही है, लेकिन इसमें भी इन्होंने बहुत शानदार ढंग से ज़िन्दगी के एहसास को बखूबी प्रस्तुत किया है। सबसे अच्छी बात है कि बदलती दुनिया और लगातार बिगड़ रहे इंसान चरित्र का इन्होंने बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है, यह बात इनकी कविताओं को पढ़ने से खुद ही जाहिर हो जाती है। ऐसे माहौल में इन्होंने लोगों में पॉजीटिव जज्बा भरने का प्रयास अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है, जिसकी आज के दौर में सबसे अधिक आवश्यकता है। जगह-जगह लोगों को बुराई से आगाह और ऐसे दौर में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं। एक कविता में कहते हैं- क्यों है निराश, क्यों मन है उदास/जीवन है एक पहेली, फिर भी तू है उदास/कभी धूप, कभी छांव/नहीं पड़ते ज़मीन पर पांव/कदम बढ़ाकर देख/पीछे चल देगा सारा जहां। फिर आगे एक कविता में कहते हैं - मुझे भेजा गया है, खि़दमत करने के लिए / उम्मीदें रखने के लिए और/ उम्मीदों पर ख़रा उतरने के लिए / ज़रूरतों को थामना आपके हाथ में है/ ग़मों को पार पाना आपके हाथ में है। इस तरह कुल मिलाकर पुस्तक लोगों में पॉजीटिव एनर्जी भरने का सार्थक प्रयास करती दिख रही है। एक बार कम से कम हर साहित्य प्रेमी को यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। 60 पेज वाले इस पेपरबैक संस्करण को हमलोग प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित कियाा है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
गुफ्तगू के सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित
-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
रवीन्द्र श्रीवास्तव एक अर्से से पत्रकारिता से जुड़े हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1965 में स्नातकोत्तर करने के बाद इलाहाबाद में ही दैनिक भारत से पत्रकारिता की शुरूआत की। धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत, वनिता भारती और मित्र प्रकाशन की पत्रिकाओं में काम करने के बाद आजकल मंुबई में लोकस्वामी प्रकाशन समूह में प्रधान संपादक हैं। पिछले दिनों इनका नाविल ‘रुक्काबाई का कोठा’ प्रकाशित होकर सामने आया है। ख़ासतौर पर कोठों पर ज़िन्दगी गुजारने वाली महिलाओं की जीवन का चित्रण इस पुस्तक में बहुत ही शानदार तरीके से किया गया है। इस किताब को पढ़ते हुए सआदत हसन मंटो की याद आना स्वभाविक ही है। जब मंटो जीवित थे और कोठो की ज़िन्दगी और उन मामलात से जुड़ी चीज़ों पर लिख रहे थे, तब उनकी खूब मुख़ाफत हुई, बल्कि उनको निम्न स्तर का लेखक माना जाता रहा। लेकिन उनके देहांत के बाद जब उनकी लेखनी पर गौर किया गया तो मंटो को दुनिया के बड़ों लेखकों में शुमार किया जाने लगा। आज साहित्य की दुनिया में जितनी इज़्ज़त उन्हें हासिल है, कम लोगों को नसीब हुआ है। हालांकि मंटो उर्दू अदब के लेखक हैं। आज रवींद्र श्रीवास्तव ने उसी प्रकार के मुद्दों को नए परिदृश्य में रुक्काबाई का कोठा में उठाकर लोगों को जागरुक करने का बहुत ही शानदार काम किया है। वर्ना हमारे समाज में कोठावालियों को बहुत ही गिरी निगाह से देखा जाता है, बड़े-बड़े रईस उनके साथ रात और दिन गुजारने के लिए पहुंचते हैं, अपने शौक़ पूरे करते हैं, लेकिन वहां से वापस आते समय उन्हीं कोठेवालियों को गालियों से नवाजते हैं, जिनके चरणों से होकर आते हैं। आमतौर पर लोग भूल जाते हैं कि कोठेवालियों की भी अपनी एक ज़िन्दगी होती है, उन्हें भी अपना परिवार विभिन्न स्थितियों में चलाना होता है। उन्हें भी सुख-दुख और दुनिया की अन्य सारी चीज़ों से गुज़रना होता है। और फिर इनमें से अधिकतर ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी न किसी मर्द ने धोखे से कोठे पर पहुंचा दिया होता है। उनकी मजबूरी और बेबसी को महसूस तक करने वाला कोई नहीं होता। ऐसे हालात और जीवन को रवींद्र श्रीवास्तव ने अपनी किताब में बहुत शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में रुक्काबाई के कोठे का चित्रण किया गया है, जिसमें रुक्काबाई का बेटा बड़ा होकर एक अन्य कोठे वाली से प्रेम करने लगता है, कुछ अनबन होने पर अपनी प्रेमिका को परेशान करने के लिए उसकी छह अन्य सहेलियों से प्रेम करने लगता है। फिर वह कहीं दूर जाकर दूसरी औरत से विवाह कर लेता है, काफी अर्से बाद जब लौटता है तो कोठा उजड़ चुका होता है लेकिन उसकी बूढ़ी मां रुक्काबाई मिलती है। उसकी प्रेमिका और उसकी सभी सहेलियां उसके बेटों की मां बन चुकी होती हैं, बेटे बड़े हो चुके होते हैं। इस तरह आगे की कहानी एक दिलचस्प मोड़ लेती है। 376 पेज वाली इस किताब को नई दिल्ली के स्मरण पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 400 रुपये है। जीवन एक अनूठा और रूप जानने-समझने के लिए इस पुस्तक को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
‘मौसमों के दरम्यान’ ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है, जिसकी कवयित्री अंजली
मालवीय ‘मौसम’ हैं। जन्तु विज्ञान में स्नातकोत्तर करनी वाली अंजली मालवीय ने केंद्रीय विद्यालय में बहुत दिनों तक अध्यापन कार्य किया है। सिंगारपुर, थाइलैंड, फ्रांस, स्विज़रलैंड, आस्टिया और इटली का भ्रमण कर चुकी हैं, और अपने अनुभवों को अपनी रचानाओं में बखूबी बयान किया है। इनका ताअल्लुक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय से है, दूर की रिश्तेदारी है। अंजली की यह किताब है तो देवनागरी लिपी में, लेकिन उन्हें उर्दू का अच्छा-खास ज्ञान है और उर्दू की आज़ाद नज़्मों की तौर पर ही शायरी कर रही हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक में प्रेम प्रसंग को बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। आधुनिक युग में प्रेम के एहसास और मतलब के वक़्त होने वाले उसमें बदलाव को अपने नज़रिए से पेश करते हुए इन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि प्रेम अमर, अटल और अजर होता है, इसे किसी भी कीमत पर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, हां ऐसे करने का दिखावा ज़रूर मुमकिन है। एक कविता में कहती हैं - चलो इस बात से दिल तो बहलता है/हम अकेले नहीं हैं जिसका दिल टूटता है।/ किसके दम पर रहे आबाद हम/यहां तो अपना ही अपने का छलता है। फिर अपने प्रेम का एक अलग अनुभव करती हुए एक नज़्म में कहती हैं - परतें खुलती गईं, राज होता गया गहरा/नज़र जो न आया,फिर भी असली चेहरा/ सियाह बादल भी कभी कभी/दिखा देते हैं रंग सुनहरा। वर्तमान दौर में इंसानों के मगरमच्छ से आंसू और गिरगिट के तरह बदलते हुए को देखकर विचलित हो उठती हैं अंजली मालवीय, तब एक कविता का उद्भव होता है, कहती हैं- फूलों को पहचान लेती हूं, उनकी खूश्बू से, /कांटों को पहचान लेती हूं उसकी चुभन से / चांद को पहचान लेती हूं उसकी चांदनी से/ देखकर पंछियों का झुंड आकाश में/ पहचान लेती हूं उनकी उड़ान को/ हैरान हूं तो फ़क़त इस बात से/ कैसे पहचानूं इंसान को ? इस तरह पूरी पुस्तक जगह-जगह इन्होंने अपने प्रेम के एहसास को बहतर ढंग से प्रस्तुत किया है। एक स्त्री के तौर पर सच्चे प्यार समझने, पाने और फिर धोखे मिलने को भी इन्होंने बखूबी देखा और एहसास किया है। ऐसे ही एहसास का बखान अपनी शायरी में किया है। सुलभ प्रकाशन लखनउ से प्रकाशित इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है।
गुफ्तगू के सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित
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