सोमवार, 30 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- नायाब बलियावी


दौरे तहज़ीब में बरबादी का सामां होना।
कितना आसान है इस दौर में शैतां होना।
आदमी आज का हैवान सिफ़त है वर्ना,
ऐटमी दौर का मतलब है हेरासां होना।
टासमां तेरे सितम का यही मिलता है सुबूत,
खूं में डूबी हुई किरनों का नुमायां होना।
था तकब्बुर के शरारों में जो इमां का चमन,
इतने सज़्दों पे भी हासिल हुआ शैतां होना।
इस क़दर जौरे मोसलसल का है खूगर ‘नायाब’,
दिल पे गुज़रे हैं गेरां उसका पशेमां होना।
मोबाइल नंबरः 9450579030

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- यश मालवीय


है कभी पत्थर कभी लोहा ग़ज़ल।
किस लिए कहिए कि है शीशा ग़ज़ल।
जो निहत्थे थे समय की जंग में,
हाथ का उनके हुई माला ग़ज़ल।
है मुखर इतनी कि बहरे तक सुनें,
क्यों न खोले होंठ का ताला ग़ज़ल।
मुट्ठियों में कैद हो सकती नहीं,
चिलचिलाती धूप में  पारा ग़ज़ल।
रात के काले घने माहौल में,
और भी लगती है पाकीज़ा ग़ज़ल।
चल रही है पांव में छाले लिए,
हाथ में मेहंदी रचाए क्या ग़ज़ल।
फितरतन बहती है दरिया की तरह,
कैसे हो सकती है पेंचीदा ग़ज़ल।
कहकहों का दम अचानक घुट गया,
हो गयी जिस लम्हा संजीदा ग़ज़ल।
फिर उजागर हो उठी सच्चाइयां,
मोबाइल नंबरः 9839792402

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- मख़दूम फूलपुरी


शीशे के आसपास न सागर के आसपास।
है दिल की आरजू रहूं दिलबर के आसपास।
हो जाये तुझको देखना आसां मेरे लिए,
बन जाये घर जो मेरा तेरे घर के आसपास।
हिम्मत की दाद दीजिए, मुझको सराहिए,
रहता हूं आज कल मैं सितमगर के आसपास।
हैरत की बात है वही लूटे गये यहां,
खेमे गड़े हुए थे जो रहबर के आपसपास।
प्यासा है वो भी कितनी तअज्जुब की बात है,
रहता है रातदिन जो समुन्दर के आसपास।
अंज़ाम जानते हुए नादानी देखिए,
शीश हूं फिर भी रहता हूं पत्थर के आसपास।
मखदमू अपना हाथ बढ़ाना संभाल कर,
होते हैं तेज़ कांटे गुलेतर के आसपास।
मोबाइल नंबरः 09839050254

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- अहमद अली बर्की आज़मी


अफसाना -ए- हयात का उनवाँ तुम्हीं तो हो
तारे नफ़स है जिस से ग़ज़लख्वाँ तुम्हीं तो हो
 
रोशन है तुम से शमए शबिस्ताने आरज़ू
मेरे नेशाते रूह का सामाँ तुम्हीं तो हो
 
आबाद तुमसे ख़ान -ए-दिल था मेरा मगर
जिसने किया है अब उसे वीराँ तुम्हीं तो हो
 
कुछ तो बताओ मुझसे कि आख़िर कहाँ हो तुम
नूरे निगाहें दीद -ए- हैराँ तुम्हीं तो हो
 
मैँ देखता हूँ बज़्मे नेगाराँ में हर तरफ
जो है मेरी निगाह से पिनहाँ तुम्हीं तो हो
 
करते हो बात बात में क्यों मुझसे दिल्लगी
जिसने किया है मुझको परीशाँ तुम्हीं तो हो
 
क्योँ ले रहे हो मेरी मोहब्बत का इम्तेहाँ
लूटा है जिसने मेरा दिलो जाँ तुम्हीँ तो हो
 
है मौसमे बहार में बेकैफ ज़िंदगी
मश्शात- ए- उरूसे बहाराँ तुम्हीं तो हो
 
"बर्क़ी" के इंतेज़ार की अब हो गई है हद
उसके तसव्वुरात में रक़साँ तुम्हीं तो हो
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आमद-ए गुल है मेरे आने से
और फसले ख़िज़ाँ है जाने से
 
मैं चला जाऊँगा यहाँ से अगर
नहीं आऊँगा फिर बुलाने से
 
तुम तरस जाओगे हँसी के लिए
बाज़ आओ मुझे रुलाने से
 
हो गया मैं तो ख़नुमाँ -बरबाद
फ़ायदा क्या है दुख जताने से
 
उस से कह दो कि वक़्त है अब भी
बाज़ आ जाए ज़ुल्म ढाने से
 
वरना जाहो हशम का उसके यह
नक़्श मिट जाएगा ज़माने से
 
हम भी मुँह मे ज़बान रखते हैँ
हमको परहेज़ है सुनाने से
 
या तो हम बोलते नहीं हैं कुछ
बोलते हैं तो फिर ठेकाने से
 
एक पल में हुबाब टूट गया
क्या मिला उसको सर उठाने से
 
अशहब-ए ज़ुल्मो जौरो इसतेहसाल
डर ज़माने के ताज़याने से
 
क़फ़से-उंसरी को घर न समझ
कम नहीं है यह ताज़ियाने से
 
रूह है क़ैद जिस्म-ए ख़ाकी में
कब निकल जाए किस बहाने से
 
हँस के बिजली गिरा रहे थे तुम
है जलन मेरे मुस्कुराने से
 
क्यों धुआँ उठ रहा है गाह-ब-गाह
सिर्फ़ मेरे ही आशियाने से
 
लम्ह-ए फिक्रिया है यह बर्क़ी
सभी वाक़िफ हैं इस फ़साने से  
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इतना न खींचो हो गया बस
टूट न जाए तारे नफस

शीरीं बयानी उसकी मेरे
घोलती है कानों में मेरे रस

खाती हैं बल नागिन की तरह
डर है न लेँ यह ज़ुलफें डस

उसका मनाना मुशकिल है
होता नहीं वह टस से मस

वादा है उसका वादए हश्र
अभी तो गुज़रे हैँ चंद बरस

फूल उन्हों ने बाँट लिए
मुझको मिले हैं ख़ारो ख़स

सुबह हुई अब आँखें खोल
सुनता नहीँ क्या बाँगे जरस

उसने ढाए इतने ज़ुल्म
मैंने कहा अब बस बस बस

बर्क़ी को है जिस से उम्मीद
उसको नहीं आता है तरस 
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उसने कहा था आऊँगा कल
गिनता था मैं एक एक पल
 
कल आया और गुज़र गया
आया नहीं वह जाने ग़ज़ल
 
देख रहा हूँ उसकी राह
पड़ गए पेशानी पर बल
 
पूछ रहा हूँ लोगों से
झाँक रहे हैं सभी बग़ल
 
बोल उठा मुझसे यह रक़ीब
मेरी तरह अब तू भी जल
 
कोई नहीं है उसके सिवा
करे जो मेरी मुश्किल हल
 
आती है जब उसकी याद
मन हो जाता है चंचल
 
उसका ख़ेरामे- नाज़ न पूछ
खाती हो जैसे नागिन बल
 
सोज़े दुरूँ जब लाया रंग
शम-ए मुहब्बत गई पिघल
 
आ गया अब वह लौट के घर
उसका इरादा गया बदल
 
अहमद अली ‘बर्क़ी’ है शाद
उसकी तबीयत गई सँभल

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- फौजि़या अख़्तर


इक सितारा न चमका किस्मत का।
कर्ब बढ़ता गया है गुर्बत का।
खुद से मिलना हुआ तो अक्सर ही,
सिलसिला इक रहा वो शोहरत का।
दे गया याद का वो सरमाया,
फिर ये शोहरा रहा शख़ावत का।
इक तमन्ना ने ली जो अंगड़ाई,
दौर ठहरा वो फिर न हसरत का।
याद तेरी थकन मिटा दे अब,
पल मयस्सर मुझे वो फुर्सत का।
ख़्वाब ‘अख़्तर’ निखर गए जिस पल,
एक कोहरा छटा हक़ीक़त का।
---
दर्द की इंतिहा नहीं बाक़ी।
वर्ना दिल में तो क्या नहीं बाक़ी।
याद सूनी पड़ी रही क्यों कर,
साहिलों में वफ़ा नहीं बाक़ी।
बेसब ही बिगड़ गये हैं वो,
आरज़ू का ब़का नहीं बाक़ी।
डूबकर जो उभर नहीं पाया,
साहिलों में वफ़ा नहीं बाक़ी।
जुल्म लोगों पनप ही जाएगा,
जब रहेगी सदा नहीं बाक़ी।
जि़न्दगी में ने मज़ा नहीं बाक़ी।
अब तो कोई सज़ा नहीं बाक़ी।
इल्म के नूर का चिरागां  है,
मुफ़लिसी की वबा नहीं बाक़ी।
धूप में सर बरहना फिरते हैं,
अब दुआ की रिदा नहीं बाक़ी।
मोबाइल नंबरः 09330158628, 09231780544

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- इब्राहीम अश्क


रौशन चेहरा हर इक अदा निराली है।
चांद तो जैसे उसके कान की बाली है।
हाथ मिलाएं उससे तो दिल महक उठे,
उसका बदन इक नाज़ुक फूल की डाली है।
सारे मौसम उसके आगे-पीछे हैं,
लम्हा-लम्हा वो तो बदलने वाली है।
आंख में उसके सारे जहां के मैखाने,
इसीलिये तो हर इक नज़र मतवाली है।
जान भी मांगे वो तो हाजि़र कर देंगे,
उसकी बात कभी हमने नहीं टाली है।
धीरे-धीरे दिल में उतरती जाती है,
इक लड़की जो अपनी देखी भाली है।
जब खिलते हैं गुंचे उसके होंठो पर,
लगता है रुत कोई बदलने वाली है।
---
धरती पर इक चांद उतरते देखा है।
पगडंडी से उसे गुज़रते देेखा है।
उसका आंचल जब भी हवा में लहराया,
मौसम को भी आंहे भरते देखा है।
हाल तो पूछें चलकर हम आईने का,
आईने में उसे संवरते देखा है।
दिल के जैसी धड़कन है हर पत्थर में,
जिन राहों से उसे गुज़रते देखा है।
आओ चलकर उससे बातें करते हैं,
जिससे उसको बातें करते देखा है।
इश्क़ में उसका नाम अमर हो जाता है,
उसकी राह में जिसको मरते देेखा है।
सिमट-सिमट पर चलता है वो कुछ ऐसे,
क़दम-क़दम पर उसे बिखरते देखा।
उसका झूठ भी सच के जैसा लगता है,
बातों से जब उसे मुकरते देखा है।
ऐसा क्या है उस नाज़ुक सी लड़की में,
बड़े-बड़ों को उससे डरते देखा है।
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दिल से एक गुज़ारिश करके देखेंगे।
हम भी उससे ख़्वाहिश करके देखेंगे।
मुश्किल है हर काम ये हमने मान लिया,
फिर भी अपनी कोशिश करके देखेंगे।
कितना सच्चा, कितना झूठा यार है वो,
उससे थोड़ी रंजिश करके देखेंगे।
गुज़रेंगे जब दश्ते-वफ़ा की राहों से,
अपने लहू की बारिश करके देखेंगे।
आज खुदा से मिलना है तनहाई में,
कोई नई फ़रमाईश करके देखेंगे।
तुम हंस दो तो एक हंसी के बदले में,
सारे जहां की बखिशश करके देखेंगे।
इश्क़ किया है धीरे-धीरे अब हम भी,
सारे बदन को आतिश करके देखेंगे।
कितने ज़र्फ़ का मालिक है खुल जाएगा,
उसकी आज नवाजि़श करके देखेंगे।
कौन हमारे बारे में सच बोलेगा,
खुद ही एक सिफ़ारिश करके देखेंगे।
अम्नो-अमां हैं अपने मुल्क में ‘अश्क’ मियां,
रहबर फिर से साजि़श करके देखेंगे।
मोबाइल नंबरः 09820384921

रविवार, 22 अप्रैल 2012

इलाहाबादी ग़ज़ल का वर्तमान परिवेश

     
                                         एहतराम इस्लाम
जिस नगर को महान उर्दू कवि अकबर इलाहाबादी, महाप्राण निराला, शाइर-ए-आज़म फि़राक़ गोरखपुरी, महीसयी महादेवी वर्मा, महाकवि सुमित्रानंदन पंत जैसे शीर्षस्थ कवियों की कर्मस्थली होने का गौरव प्राप्त रहा हो उसे यदि कविता और साहित्य का तीर्थ माना जाता रहा है तो इसमें आश्चर्य क्या है? इलाहाबाद संभवतः भारतवर्ष का अकेला नगर है जिसकी झोली में पांच ज्ञानपीठ (पंत, फि़राक़,महादेवी नरेश मेहता और अमरकांत) और दो ‘सरस्वती सम्मान’ (हरिवंश राय बच्चन और शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी) पड़े हैं। इधर कुछ वर्षों से इलाहाबाद की साहित्यिक हैसियत में कुछ कमी सी अवश्य आयी लगती है, लेकिन आज भी यहां की धरती से किसी प्रकार भी जुडे़ रचनाकारों को विशेष आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
हिन्दी कविता में ग़ज़ल का सच्चे अर्थ में प्रवेश दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई के साथ हुआ। यह भी एक सुखद संयोग है कि दुष्यंत कुमार की रचना का आरंभिक काल भी इलाहाबाद में बीता। यानी हिन्दी में ग़ज़ल की शुरूआत भी इलाहाबादी ग़ज़ल से हुई। उर्दू तो ग़ज़लें इलाहाबाद में शुरू से ही लिखी अथवा कही जाती रही हैं। वर्तमान परिवेश इलाहाबाद की उर्दू ग़ज़लों का मामला यह है कि यहां एक छोर पर प्रसिद्ध समालोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी खड़े दिखाई देते हैं जो ग़ज़ल को सुनाने की चीज़ नहीं, पढ़ने और समझने की चीज़ मानते और मनवाते रहे हैं, और यही कारण है कि उन्हें और उनके स्वर में स्वर मिलाने वालों को काव्य-मंचों से एक प्रकार की घृणा है तो दूसरे छोर पर वयोवृद्ध इंतेज़ार ग़ाज़ीपुरी सरीखे शाइर हैं जो ग़ज़लगोई की सार्थकता तभी मानते है जब उसे मंच प्राप्त हो जाए। उर्दू के बाकी ग़ज़लकार इन्हीं दो धु्रव के बीच सक्रिय दिखाई देते हैं।
लगभग एक दशक पूर्व तक मुशाइरे को मंचों के माध्यम से इलाहाबाद का नाम दूर-दूर तक पहुंचाने वाले माहिरुल हमीदी, राज़ इलाहाबादी और चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी के न रहने पर यह काम डाॅ. असलम इलाहाबादी, अतीक़ इलाहाबादी (अब दिवंगत),इक़बाल दानिश, अफ़जल जायसी, अख़्तर अज़ीज़ आदि बखूबी अंज़ाम दे रह हैं। इन युवा कवियों के साथ अच्छी बात यह है कि ये मंचों तक स्वयं को सीमित न रखकर प्रिन्ट मीडिया में भी स्थान बनाने के प्रति जागरुक हैं।यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों में लीक से हटकर चलने का प्रयास स्पष्ट झलकता है। ग़ज़ल को समसामयिक विषयों से जोड़ने के प्रति गंभीर ग़ज़लकारों की सूची भी बहुत संक्षिप्त नहीं है। ऐसे शाइरों में सुहैल अहमद जैदी (अब दिवंगत),शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी,फर्रुख जाफ़री, नस्र कुरैशी (अब दिवंगत), ज़मीर अहसन, इनआम हनफ़ी, हबाब हाशमी, एम एक क़दीर आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। नई पीढ़ी की नुमाइंदगी करने वाले नैयर आकि़ल (अब दिवंगत),अहमद अबरार, जावेद अख़्तर, जावेद शोहरत, अशरफ़ ख़्याल सरीखे ग़ज़लगोई का नाम की उक्त श्रेणी की सूची में ही शामिल किया जाएगा। उर्दू ग़ज़लगोई की एक श्रेणी इलाहाबाद में और मौजूद है उस्ताद हज़रत ‘नूह’ नारवी के स्कूल से संबंध रखने वाले उन वयोवृद्ध कायस्थ शाइरों की श्रेणी जो ढलती उम्र के बावजूद अपने-अपने स्थान से एकांत में बैठकर उर्दू ग़ज़ल की सेवा में आज भी समर्पण भाव से जुड़े हुए हैं। इस श्रेणी के प्रतिनिधि कवि रामेश्वनाथ ऐश और त्रिभुवन प्रसाद अंजाम हैं।
इलाहाबाद की हिन्दी ग़ज़लगोई के कई रंग और कई तेवर है। एक ओर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई के समानांतर ग़ज़ल की ऐसी धारा प्रवाहित करने में रत यह लेखक नज़र आता है जिसने संस्कृत की उस तत्सम शब्दावली का अपनी ग़ज़लों की पहचान के रूप स्थापित करवाने में सफलता पाई जिसका प्रयोग ग़ज़ल में सवर्था अनपेक्षित बल्कि वर्जित था तो दूसरी ओर बुद्धिसेन शर्मा सरीखे ग़ज़लगो हैं जो ऐसी उर्दू को ग़ज़ल के लिए उपयुक्त मानते हैं जिसे हिन्दी मनवाने में प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। यही कारण है कि वे हिन्दी और उर्दू दोनों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। इसमें दो राय नहीं कि तत्सम शब्दावली वाली शैली ने अनेक कवियों को अपने प्रभाव में लिया और परिणास्वरूप सुरेश कुमार शेष, डाॅ. संत कुमार, अहमद अबरार, नैयर आकि़ल, संजय मासूम, यश मालवीय, (स्व.) वसु मालवीय, अजित शर्मा आकाश, जैसी हिन्दी ग़ज़लकार सामने आए और यह सिलसिला आगे भी बढ़ता दिखाई देता है। नैयर आकि़ल ने तो स्नेह वक्षात इस धारा की ग़ज़ल को एहतरामी धारा की ग़ज़ल का नाम ही दे डाला। युवा ग़ज़लकारों की नई नस्ल भी हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध करने में जुटी हुई है। जिसमें रमेश नाचीज़,सुनील दानिश, अनिल कुमार अंदाज़, इम्तियाज़ ग़ाज़ी आदि का नाम प्रमुख है।
गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2003 अंक में प्रकाशित

रोज़ एक शायर में आज- वीरेन्द्र जैन



ज़ख्म खाने को सदा तैयार होना चाहिये ,
तीर नज़रों का सदा उस पार होना चाहिये |

गर खुदा ना ही मिले तो भी मुझे परवा नहीं ,
साथ मेरे बस मेरा दिलदार होना चाहिये |

डूबती हैं कश्तियाँ साहिल पे भी आके कभी 
झूठ कहते हैं कि बस मझधार होना चाहिये |

वक़्त का है ये तकाज़ा हम ज़मीं तलाश लें ,
अब हमें इस पार या उस पार होना चाहिये |

बेवफाई और रुसवाई का ये आलम है क्यूँ ,
इश्क के मौसम को कुछ गुलज़ार  होना चाहिये |

----

चार दीवारी से बाहर कभी आ कर देखो ,
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो |

मंदिरों मस्जिदों की फिर न जरुरत होगी ,
इश्क के सजदे में तुम सर को झुका कर देखो |

यूँ पिघलना नहीं आसान है कतरा कतरा ,
चाँद के साथ कोई रात बहा कर देखो |

मायने तुमको समझने हों अगर घर के तो 
आसमां के तले शब कोई बिता कर देखो |

बेबसी पे मेरी यूँ हंसने हंसाने वालों ,
दिल कभी तुम भी किसी से तो लगा कर देखो |

पत्थरों के भी पिघल जाते हैं दिल , ना मानो 
दास्ताँ मेरी किसी बुत को सूना कर देखो |

पत्तियां गिरती हैं खुशबु हमेशा रहती हैं ,
फूल तुम कोई किताबों में दबा कर देखो |
------

फूल महके जो प्यार के हर सू 
दीप खुशियों के जल उठे हर सू |

इश्क की जब हवा बहे हर सू 
एक नई दुनिया तब दिखे हर सू |

चाँद उतरा फलक से है शायद 
उसकी आहट सुनाई दे हर सू |

उसने कर ली दो बातें जो मुझसे 
मेरे ही चर्चे हो रहे हर सू |

बस गया है नज़र में तू ऐसे 
तेरी सूरत दिखे मुझे हर सू |

यूँ तो सब कुछ ही पाया है फिर भी 
मुझको तेरी कमी खले हर सू |

सब्ज़ बागों पे छाई वीरानी 
रंग पतझड़ के ही दिखे हर सू |

शाम के ढलते ही मेरे दिल में ,
मेले यादों के फिर लगे हर सू |

दर्द और ग़म की इन्तहां है बस 
बदली अब पीर की छंटे हर सू |

ये फिज़ा खुशनुमा सी लगती है 
रंग उल्फत के हैं सजे हर सू |

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

नज़्मः सोनिया गांधी


              -मुनव्वर राना
रुख़सती होते ही मां-बाप का घर भूल गयी।
भाई के चेहरों को बहनों की नज़र भूल गयी।
घर को जाती हुई हर राहगुज़र भूल गयी,
मैं वो चिडि़या हूं कि जो अपना शज़र भूल गयी।
मैं तो भारत में मोहब्बत के लिए आयी थी,
कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी।
नफ़रतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना,
जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना।
सर से बच्चों के मेरे बाप का साया छीना,
मुझसे गिरजी भी लिया, मुझसे शिवाला छीना।
अब ये तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती,
मैं वो बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती।
आग नफ़रत की भला मुझको जलाने से रही,
छोड़कर सबको मुसीबत में तो जाने से रही,
ये सियासत मुझे इस घर से भगान से रही।
उठके इस मिट्टी से, ये मिट्टी भी तो जाने से रही।
सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,
सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं।
अपने घर में ये बहुत देर कहां रहती है,
घर वही होता है औरत जहां रहती है।
कब किसी घर में सियासत की दुकां रहती है,
मेरे दरवाज़े पर लिख दो यहां मां रहती है।
हीरे-मोती के मकानों में नहीं जाती है,
मां कभी छोड़कर बच्चों को कहां जाती है?
हर दुःखी दिल से मुहब्बत है बहू का जिम्मा,
हर बड़े-बूढ़े से मोहब्बत है बहू का जिम्मा
अपने मंदिर में इबादत है बहू का जिम्मा।
मैं जिस देश आयी थी वही याद रहा,
हो के बेवा भी मुझे अपना पति याद रहा।
मेरे चेहरे की शराफ़त में यहां की मिट्टी,
मेरे आंखों की लज़ाजत में यहां की मिट्टी।
टूटी-फूटी सी इक औरत में यहां की मिट्टी।
कोख में रखके ये मिट्टी इसे धनवान किया,
मैंन प्रियंका और राहुल को भी इंसान किया।
सिख हैं,हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,
ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं।
यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी है,
यहां का पानी भी है, पानी पर जमीं काई भी है।
भाई-बहनों से किसी को कभी डर लगता है,
सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है।
हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,
हर इक फूल को तितली चमन समझती है।
हमारे दुःख को ये ख़ाके-वतन समझती है।
मैं आबरु हूं तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,
मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो।
     
गुफ्तगू के जनवरी-मार्च 2005 अंक में प्रकाशित
  

रोज़ एक शायर में आज - फ़रमूद इलाहाबादी


होगी बड़ी इनायत छोटा सा काम कर दो।
ये हुस्न, ये जवानी बस मेरे नाम कर दो।
आज इसने हक़ जताया, कल वो करेगा दावा,
हो जाओ अब मेरे तुम किस्सा तमाम कर दो।
क्या जाने इन अदाओं में कौन सा है जादू,
दिल मोम हो कि पत्थर सब को गुलाम कर दो।
अच्छा हुआ तुम्हारा चेहरा नक़ाब में हैं,
बेपर्दा तुम जो निकलो तो क़त्लेआम कर दो।
जुल्फ़ें हटाई चेहरे से तो सहर हुई है,
जुल्फ़ों को फिर गिराकर रंगीन शाम कर दो।
साक़ी की क्या ज़रूरत मयख़ाने कौन जाए,
पानी गिलास में है, नज़रों से जाम कर दो।
‘फ़रमूद’ हुस्न वालों की दिल्लगी है ऐसी,
जीने की चाह भरकर जीना हराम कर दो।
---
तुम्हें बतलाएं क्या किन लोगों से खा बैठे हम धोखा।
यही समझो कि ग़ैरों ने दिया अपनों से कम धोखा।
किसी की जान ले लेना, किसी का घर जला देना,
है मेरी राय में इनसे बड़ा जुल्मो सितम धोखा।
कमीनों पर भरोसा करना ख़तरे से नहीं खाली,
इनायत में हैं इनकी साजि़शें रहमो-करम धोखा।
बहुत समझाया मैंने तुमको लेकिन बाज़ क्या आए,
तुम्हारी सोच है गंदी तुम्हारा हर कदम धोखा।
तुम्हें जब आजमाया तो हक़ीक़त सामने आयी,
ज़रा सी भी वफ़ादारी नहीं थी, एक दम धोखा।
तुम्हारे वास्ते फ़रमूद ने हस्ती मिटा डाली,
मगर बदले में उसको दे दिया तुमने सनम धोखा।
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इस जि़न्दगी को जी का जंजाल करने वाले।
न जाने कब मरेंगे मिस काल करने वाले।
औरों का माल चक्खे, अपना बचा के रक्खे,
कंजूसियों से खुद को खुशहाल करने वाले।
बेशर्म बेहया हैं सुधरेंगे न कभी ये,
धोती को फाड़ करके रूमाल करने वाले।
मैं ‘काल बैक’ करके सिर अपना पीटता हूं,
जब हाल पूछते हैं बदहाल करने वाले।
‘टापअप’ करा-करा के दीवालिया हुआ मैं,
तेरा बुरा हो मुझको कंगाल करने वाले।
डिब्बे में सिक्का डाला गाली सुना के चंपत
पकड़ेंगे किसको जांच और पड़ताल करने वाले।
‘फ़रमूद’ बच के रहना चालाक हैं बहुत ये,
बिन-तोड़ अपनी गोटों को लाल करने वाले।
मोबाइल नंबरः 9415966497

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- डा. ज़मीर अहसन



बड़ी देर तक सदा दी कहीं कोई आदमी है।
मुझे याद ही नहीं था कि ये बीसवीं सदी है।
न गिरफ्त है किसी पर न किसी में पायी खुश्बू,
कोई पैरहन हवाई कोई जिस्म कागज़ी है।
वहीं मां दुआ भी देगी हो तवील उम्र तेरी,
मुझे सरहरों की जानिब जो रवाना कर रही है।
यही आदमी हलाकु यही आदमी कन्हैया,
किसी हाथ में है नेज़ा तो किसी में बासुरी है।
चली बाढ़ पत्थरों की मेरी सिम्त हर तरफ से,
तो मुझे यक़ीन आया कि मेरा वज़ूद भी है।
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मैं हूं मश्विरों का ताजि़र मेरा मश्विरा खरीदो।
जो दियों की लौ बढ़ाए कहीं वो दवा खरीदो।
मेरा ज़ौक़ बुत तराशी मैं खरीदता हूं पत्थर,
तुम्हीं आईना उछालो तुम्हीं आईना खरीदो।
यही बेज़ुबा खिलौने तुम्हें गालियां भी देंगे,
न समझ के इनको अपना कभी हमनवा खरीदो।
हुआ तुमसे क़त्ल सरज़द तो हो इतने क्यों परेशां,
हंै अदालतें बिकाउ चलो फैसला खरीदो।
मेरी जि़न्दगी की कीमत यही मुस्कुराते चेहरे,
मेरा दिल ‘ज़मीर’ मेरी आत्मा खरीदो।
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आओगे लौट के इसी कच्चे मकान में।
मिलता नहीं दफीना मियां आसमान में।
साए कहेंगे राहगुज़र में खुशआमदीद,
दीवारे अना तोड़ी गयी इसी गुमान में।
सोने का जिस्म और जिसे पत्थर की आंख दे,
अल्लाह रखे बस उसे अपनी इमान में।
आया न कुछ भी हाथ हमें चांद पर मगर,
पेबंद तो लगा ही दिया आसमान में।
होगा न तीर इस पे कोई कारगर ‘ज़मीर’,
पोशीदा इस की जान है तोते की जान में।
मोबाइल नंबरः 9335981071

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

रोज एक शायर में आज- अख़्तर अज़ीज़



बड़ी तादाद अक्सर रात को फ़ाक़े में रहती है।
मगर दुनिया तो दुनियाभर के दिखलावे में रहती है।
शराफ़त पर हमेशा चोट करते आए हैं कुछ लोग,
शराफ़त जानती है और अन्जाने में रहती है।
स्ुनाता है कहानी वह अजब अन्दाज़ से मुझको,
बला की होशमंदी उसके अफ़साने में रहती है।
चलो उस आदमी की ख़ैरियत ही पूछते आयें,
सुना है उसकी बेटी आजकल मैके में रहती है।
मेरी आदत को अपनाने की तुमने शौक़ क्यों पाला,
फ़क़ीराना सिफ़त तो हर घड़ी घाटे में रहती है।
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हिम्मत हो तो चल के देख।
मंज़र फिर मक़तल के देख।
भारी-भारी बोझ उठा,
चलके हल्के-हल्के देख।
आज निशां रुख़सारों पर,
बहते हुए काजल के देख।
माज़ी के शीशे में अक्स,
आने वाले कल के देख।
मेरी तरह जीने का शौक़,
तन्हाई में जल के देख।
पांच जमीं पे रख के चल,
रंग ज़रा बादल के देख।
हिल के पानी पीना सीख,
हाथ का पंखा झल के देख।

मोबाइल: 9935062868, 9335597549

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज-पद्मश्री बेकल उत्साही



वो तो मुद्दत से जानता है मुझे।
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे।
रात तन्हाइयों के आंगन में,
चांद तारों से झांकता है मुझे।
सुब्ह अख़बार की हथेली पर,
सुर्ख़ियों में बिखेरता है मुझे।

होने देता नहीं उदास कभी,
क्या कहूं कितना चाहता है मुझे।
मैं हूं ‘बेकल’मगर सुकून से हूं,
उसका ग़म भी संवारता है मुझे।
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मत अकेले चला करो भइए।
क़ाफि़ले में रहा करो भइए।
मौत से कोई पहरेदारी क्या,
जि़न्दगी से छुपा करो भइए।
दोस्ती में जो दम भरे अक्सर,
उसके बचकर रहा करो भइए।
हुक्म मां-बाप का बजा लाओ,
ये इबादत किया करो भइए।
अपनी ही बात पर न जिद ठानो,
थोड़ी सबकी सुना करो भइए।
सामने सबके अपने बच्चों को,
झिड़कियां मत दिया करो भइए।
इश्क़ बस एक ही से होता है,
मत हर इक पे मरा करो भइए।
गांव के गीत सुनके ऐ ‘बेकल’,
शेर भी कह लिया करो भइए।
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बात-बात में बढ़ा बतंगड़।
गोली चल गई यार तड़ातड़।
सड़कों पर सन्नाटा बरसा,
शह्र में शायद है कुछ गड़बड़।
बेटा अपने बाप से बोला,
बंद करो अब बड़ बड़ बड़ बड़।
बूढ़े खो गये बम्बे बू में,
बच्चे खेलें अक्कड़ बक्कड़।
सावन की बारात चली है,
झय्यम झय्यम गहबड़ गहबड़।
राजनीति और आज के नेता,
हाथी बूझे लाल बुझक्कड़।
इससे इसका हाल न पूछो,
यह ‘बेकल’ है बड़ा भुलक्कड़ ।

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- राहत इंदौरी



बीमार को मरज की दवा देनी चाहिए।
मैं पीना चाहता हूं, पिला देनी चाहिए।
अल्लाह बरकतों से नवाजेगा इश्क़ में,
है जितनी पूंजी पास लगा देनी चाहिए।
ये दिल किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं,
दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए।
मैं ताज हूं तो सर पे सजाएं लोग,
मैं ख़्वाब हूं तो ख़्वाब उड़ा देनी चाहिए।
सौदा यहीं पर होता है हिन्दुस्तान का,
संसद भवन को आग लगा देनी चाहिए।
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मुझ पर नहीं उठे हैं तो उठकर कहां गए।
मैं शह्र में नहीं था तो पत्थर कहां गए।
कितने ही लोग प्यास की शिद्दत से मर चुके,
मैं सोचता रहा कि समुन्दर कहां गए।
मैं खुद ही बेज़बान हूं, मेहमान भी हूं खुद,
सब लोग मुझको घर पे बुलाकर कहां गए।
ये कैसी रोशनी है कि अहसास बुझ गया,
हर आंख पूछती है कि मंज़र कहां गए।
पिछले दिनों की आंधी में गुंबद तो गिर चुका,
लिल्लाह जाने सारे कबूतर कहां गए।
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धूप बहुत है,मौसम का जल थल भेजो ना।
बाबा, मेरे नाम का बादल भेजो ना।
मोरसली के पेड़ों पर भी दिया जले,
शाख़ों का कैसरिया आंचल भेजा ना।
उमस उगी है आंगन के हर गमले में,
छांव की खुश्बू शाम का संदल भेजो ना।
नन्हीं मुन्नी बस चहकारें कहां गईं,
मोरों के पैरों की पायल भेजो ना।
बस्ती-बस्ती सन्नाटों का बोझ हैं क्यूं,
गलियों बाज़ारों की हलचल भेजो ना।
मैं तन्हा हूं, आखि़र किससे बात करूं,
मेरे जैसा कोई पागल भेजो ना।
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चराग़ों को उछाला जा रहा है।
हवा पर रोब डाला जा रहा है।
मेरे जूठे गिलासों की चखाकर,
बहकतों को संभाला जा रहा है।
हमीं बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन,
हमें घर से निकाला जा रहा है।
जनाजे पर मेरे लिख देना यारो,
मोहब्बत करने वाला जा रहा है।


रविवार, 15 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में - निदा फ़ाज़ली



बेसन की सौंधी खुशबु पर खट्टी चटनी जैसी मां।
याद आती है चौका बेलन, चिमटा फुकनी जैसी मां।
चिडि़यों की चहकार में गूंजे राधामोहन अली अली,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती घर की कुंडी जैसी मां।
बान की खुर्री खाट के उपर हर आहट पर कान धरे,
आधी सोयी आधी जागी भरी दोपहरी जैसी मां।
बीवी,बेटी,बहिन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सबमें,
दिनभर इक रस्सी के उपर चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा,माथा आंखें जाने कहां गयीं,
फटे पुराने इक एलबम में चंचल लड़की जैसी मां।
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अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं।
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी,ये मगर लगता है,
अपने ही घर में,किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से,
किसको मालूम, कहां के हैं किधर के हम हैं।
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
आज धरती के, तो कल चांद नगर के हम हैं।
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफि़र का नसीब,
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं।
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम,
हर कलमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।
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हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी।
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ,
अपनी ही लाश का खुद मजार आदमी।
हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी।
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतजार आदमी।
जि़न्दगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र,
आखिरी सांस तक बेक़रार आदमी।

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज-बशीर बद्र



अदब की हद में हूं मैं बेअदब नहीं होता।

तुम्हारा तजिकरा अब रोज़-ओ-शब नहीं होता।
कभी-कभी तो छलक पड़ती हैं यूं ही आंखें,
उदास होने का कोई सबब नहीं होता।
कई अमीरों की महरूमियां न पूछ कि बस,
ग़रीब होने का एहसास अब नहीं होता।
मैं वालिदैन को ये बात कैसे समझाउं,
मोहब्बतों में हबस-ओ-नसब नहीं होता।
वहां के लोग बड़े दिलफरेब होते हैं,
मेरा बहकना भी कोई अजब नहीं होता।
मैं इस ज़मीन का दीदार करना चाहता हूं,
जहां कभी भी खुदा का ग़ज़ब नहीं होता।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज-जावेद अख़्तर



हमने ढंूढे भी तो ढूंढू हैं सहारे कैसे।
इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे।
हाथ को हाथ नहीं सूझे, वो तारीकी थी,
आ गए हाथ में क्या जाने सितारे कैसे।
हर तरफ़ शोर उसी नाम का है दुनिया में,
कोई उसको जो पुकारे तो पुकारे कैसे।
दिल बुझा जितने थे अरमान सभी ख़ाक हुए,
राख में फिर ये चमकते हैं शरारे कैसे,
न तो दम लेती है तू और न हवा थमती है,
जि़न्दगी ज़ुल्फ़ तिरी कोई संवारे कैसे।

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में- मुनव्वर राना



लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुसकुराती है।

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुसकुराती है।
उछलते-खेलते बचपन में बेटा ढूंढती होगी,
तभी तो देखकर पोते को दादी मुसकुराती है।
तभी जाकर कहीं मां-बाप को कुछ चैन पड़ता है,
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुसकुराती है।
चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है,
कली जब सो के उठती है तो तितली मुसकुराती है।
हमें ऐ जि़न्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है,
मसायल में घिरी रहती है फिर भी मुसकुराती है।
बड़ा गहरा तअल्लुक है सियासत से तबाही का,
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुसकुराती है।

मुनव्वर राना का मुहाज़िरनामा




बटवारे के समय बहुत से लोग पाकिस्तान चले गए, वहां इतने दिनों रहने के बाद भी हिन्दुस्तान को भूल नहीं पाए। वहाँ बसे लोगों को आज भी हिन्दुस्तान की एक-एक चीज़ उन्हें याद आती है। मशहूर शायर जनाब मुनव्वर राना ने इस दर्द को महसूस और मुहाज़िरनामा लिख डाला। इस मुहाज़िरनामा में 450 अशआर हैं। फिलहाल कुछ शेर प्रस्तुत है।


मुहाजिर हैं मगर एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कई दर्जन कबूतर तो हमारे पास ऐसे थे,
जिन्हें पहना के हम चांदी का छल्ला छोड़ आए हैं
वो टीपू जिसकी कुर्बानी ने हमको सुर्खुरू रक्खा,
उसी टीपू के बच्चों को अकेला छोड़ आए हैं
बहुत रोई थी हमको याद करके बाबरी मसजिद,
जिसे फि़रक़ा-परस्तों में अकेला छोड़ आए हैं
अगर हिजरत न की होती तो मस्जिद भी नहीं गिरती,
रवादारी की जड़ में हम ही मट्ठा छोड़ आए हैं
न जाने क्यों हमें रह-रह के ये महसूस होता है,
कफ़न हम लेके आए हैं जनाज़ा छोड़ आए हैं
गुज़रते वक़्त बाज़ारों से अब भी ध्यान आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं
कहां लाहौर को हम शहरे-कलकत्ता समझते थे,
कहां हम कहके दुश्मन का इलाक़ा छोड़ आए हैं
अभी तक हमको मजनूं कहके कुछ साथी बुलाते हैं,
अभी तक याद है हमको कि लैला छोड़ आए हैं
मियां कह कर हमारा गांव हमसे बात करता था,
ज़रा सोचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आए हैं
वो इंजन के धुएं से पेड़ का उतरा हुआ चेहरा,
वो डिब्बे से लिपट कर सबको रोता छोड़ आए हैं
अगर हम ध्यान से सुनते तो मुमकिन है पलट जाते,
मगर ‘आज़ाद’ का ख़ुतबा अधूरा छोड़ आए हैं
वो जौहर हों,शहीद अशफ़ाक़ हों, चाहे भगत सिंह हों,
हम अपने सब शहीदों को अकेला छोड़ आए हैं
हमारा पालतू कुत्ता हमें पहुंचाने आया था,
वो बैठा रो रहा था उसको रोता छोड़ आए हैं
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आये,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आये हैं
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आये हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आये हैं
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आये हैं
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आये हैं,
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आये हैं।
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आये हैं।
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आये हैं।
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आये हैं।
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आये हैं।
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आये हैं।
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आये हैं।
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आये हैं।
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आये हैं.