मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- फौजि़या अख़्तर


इक सितारा न चमका किस्मत का।
कर्ब बढ़ता गया है गुर्बत का।
खुद से मिलना हुआ तो अक्सर ही,
सिलसिला इक रहा वो शोहरत का।
दे गया याद का वो सरमाया,
फिर ये शोहरा रहा शख़ावत का।
इक तमन्ना ने ली जो अंगड़ाई,
दौर ठहरा वो फिर न हसरत का।
याद तेरी थकन मिटा दे अब,
पल मयस्सर मुझे वो फुर्सत का।
ख़्वाब ‘अख़्तर’ निखर गए जिस पल,
एक कोहरा छटा हक़ीक़त का।
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दर्द की इंतिहा नहीं बाक़ी।
वर्ना दिल में तो क्या नहीं बाक़ी।
याद सूनी पड़ी रही क्यों कर,
साहिलों में वफ़ा नहीं बाक़ी।
बेसब ही बिगड़ गये हैं वो,
आरज़ू का ब़का नहीं बाक़ी।
डूबकर जो उभर नहीं पाया,
साहिलों में वफ़ा नहीं बाक़ी।
जुल्म लोगों पनप ही जाएगा,
जब रहेगी सदा नहीं बाक़ी।
जि़न्दगी में ने मज़ा नहीं बाक़ी।
अब तो कोई सज़ा नहीं बाक़ी।
इल्म के नूर का चिरागां  है,
मुफ़लिसी की वबा नहीं बाक़ी।
धूप में सर बरहना फिरते हैं,
अब दुआ की रिदा नहीं बाक़ी।
मोबाइल नंबरः 09330158628, 09231780544

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