रविवार, 15 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में - निदा फ़ाज़ली



बेसन की सौंधी खुशबु पर खट्टी चटनी जैसी मां।
याद आती है चौका बेलन, चिमटा फुकनी जैसी मां।
चिडि़यों की चहकार में गूंजे राधामोहन अली अली,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती घर की कुंडी जैसी मां।
बान की खुर्री खाट के उपर हर आहट पर कान धरे,
आधी सोयी आधी जागी भरी दोपहरी जैसी मां।
बीवी,बेटी,बहिन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सबमें,
दिनभर इक रस्सी के उपर चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा,माथा आंखें जाने कहां गयीं,
फटे पुराने इक एलबम में चंचल लड़की जैसी मां।
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अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं।
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी,ये मगर लगता है,
अपने ही घर में,किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से,
किसको मालूम, कहां के हैं किधर के हम हैं।
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
आज धरती के, तो कल चांद नगर के हम हैं।
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफि़र का नसीब,
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं।
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम,
हर कलमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।
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हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी।
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ,
अपनी ही लाश का खुद मजार आदमी।
हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी।
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतजार आदमी।
जि़न्दगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र,
आखिरी सांस तक बेक़रार आदमी।

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