शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012
रोज़ एक शायर में आज- डा. ज़मीर अहसन
बड़ी देर तक सदा दी कहीं कोई आदमी है।
मुझे याद ही नहीं था कि ये बीसवीं सदी है।
न गिरफ्त है किसी पर न किसी में पायी खुश्बू,
कोई पैरहन हवाई कोई जिस्म कागज़ी है।
वहीं मां दुआ भी देगी हो तवील उम्र तेरी,
मुझे सरहरों की जानिब जो रवाना कर रही है।
यही आदमी हलाकु यही आदमी कन्हैया,
किसी हाथ में है नेज़ा तो किसी में बासुरी है।
चली बाढ़ पत्थरों की मेरी सिम्त हर तरफ से,
तो मुझे यक़ीन आया कि मेरा वज़ूद भी है।
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मैं हूं मश्विरों का ताजि़र मेरा मश्विरा खरीदो।
जो दियों की लौ बढ़ाए कहीं वो दवा खरीदो।
मेरा ज़ौक़ बुत तराशी मैं खरीदता हूं पत्थर,
तुम्हीं आईना उछालो तुम्हीं आईना खरीदो।
यही बेज़ुबा खिलौने तुम्हें गालियां भी देंगे,
न समझ के इनको अपना कभी हमनवा खरीदो।
हुआ तुमसे क़त्ल सरज़द तो हो इतने क्यों परेशां,
हंै अदालतें बिकाउ चलो फैसला खरीदो।
मेरी जि़न्दगी की कीमत यही मुस्कुराते चेहरे,
मेरा दिल ‘ज़मीर’ मेरी आत्मा खरीदो।
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आओगे लौट के इसी कच्चे मकान में।
मिलता नहीं दफीना मियां आसमान में।
साए कहेंगे राहगुज़र में खुशआमदीद,
दीवारे अना तोड़ी गयी इसी गुमान में।
सोने का जिस्म और जिसे पत्थर की आंख दे,
अल्लाह रखे बस उसे अपनी इमान में।
आया न कुछ भी हाथ हमें चांद पर मगर,
पेबंद तो लगा ही दिया आसमान में।
होगा न तीर इस पे कोई कारगर ‘ज़मीर’,
पोशीदा इस की जान है तोते की जान में।
मोबाइल नंबरः 9335981071
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