बुधवार, 18 अप्रैल 2012

रोज एक शायर में आज- अख़्तर अज़ीज़



बड़ी तादाद अक्सर रात को फ़ाक़े में रहती है।
मगर दुनिया तो दुनियाभर के दिखलावे में रहती है।
शराफ़त पर हमेशा चोट करते आए हैं कुछ लोग,
शराफ़त जानती है और अन्जाने में रहती है।
स्ुनाता है कहानी वह अजब अन्दाज़ से मुझको,
बला की होशमंदी उसके अफ़साने में रहती है।
चलो उस आदमी की ख़ैरियत ही पूछते आयें,
सुना है उसकी बेटी आजकल मैके में रहती है।
मेरी आदत को अपनाने की तुमने शौक़ क्यों पाला,
फ़क़ीराना सिफ़त तो हर घड़ी घाटे में रहती है।
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हिम्मत हो तो चल के देख।
मंज़र फिर मक़तल के देख।
भारी-भारी बोझ उठा,
चलके हल्के-हल्के देख।
आज निशां रुख़सारों पर,
बहते हुए काजल के देख।
माज़ी के शीशे में अक्स,
आने वाले कल के देख।
मेरी तरह जीने का शौक़,
तन्हाई में जल के देख।
पांच जमीं पे रख के चल,
रंग ज़रा बादल के देख।
हिल के पानी पीना सीख,
हाथ का पंखा झल के देख।

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