मंगलवार, 17 अप्रैल 2012
रोज़ एक शायर में आज-पद्मश्री बेकल उत्साही
वो तो मुद्दत से जानता है मुझे।
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे।
रात तन्हाइयों के आंगन में,
चांद तारों से झांकता है मुझे।
सुब्ह अख़बार की हथेली पर,
सुर्ख़ियों में बिखेरता है मुझे।
होने देता नहीं उदास कभी,
क्या कहूं कितना चाहता है मुझे।
मैं हूं ‘बेकल’मगर सुकून से हूं,
उसका ग़म भी संवारता है मुझे।
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मत अकेले चला करो भइए।
क़ाफि़ले में रहा करो भइए।
मौत से कोई पहरेदारी क्या,
जि़न्दगी से छुपा करो भइए।
दोस्ती में जो दम भरे अक्सर,
उसके बचकर रहा करो भइए।
हुक्म मां-बाप का बजा लाओ,
ये इबादत किया करो भइए।
अपनी ही बात पर न जिद ठानो,
थोड़ी सबकी सुना करो भइए।
सामने सबके अपने बच्चों को,
झिड़कियां मत दिया करो भइए।
इश्क़ बस एक ही से होता है,
मत हर इक पे मरा करो भइए।
गांव के गीत सुनके ऐ ‘बेकल’,
शेर भी कह लिया करो भइए।
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बात-बात में बढ़ा बतंगड़।
गोली चल गई यार तड़ातड़।
सड़कों पर सन्नाटा बरसा,
शह्र में शायद है कुछ गड़बड़।
बेटा अपने बाप से बोला,
बंद करो अब बड़ बड़ बड़ बड़।
बूढ़े खो गये बम्बे बू में,
बच्चे खेलें अक्कड़ बक्कड़।
सावन की बारात चली है,
झय्यम झय्यम गहबड़ गहबड़।
राजनीति और आज के नेता,
हाथी बूझे लाल बुझक्कड़।
इससे इसका हाल न पूछो,
यह ‘बेकल’ है बड़ा भुलक्कड़ ।
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