शनिवार, 28 अप्रैल 2012

रोज़ एक शायर में आज- यश मालवीय


है कभी पत्थर कभी लोहा ग़ज़ल।
किस लिए कहिए कि है शीशा ग़ज़ल।
जो निहत्थे थे समय की जंग में,
हाथ का उनके हुई माला ग़ज़ल।
है मुखर इतनी कि बहरे तक सुनें,
क्यों न खोले होंठ का ताला ग़ज़ल।
मुट्ठियों में कैद हो सकती नहीं,
चिलचिलाती धूप में  पारा ग़ज़ल।
रात के काले घने माहौल में,
और भी लगती है पाकीज़ा ग़ज़ल।
चल रही है पांव में छाले लिए,
हाथ में मेहंदी रचाए क्या ग़ज़ल।
फितरतन बहती है दरिया की तरह,
कैसे हो सकती है पेंचीदा ग़ज़ल।
कहकहों का दम अचानक घुट गया,
हो गयी जिस लम्हा संजीदा ग़ज़ल।
फिर उजागर हो उठी सच्चाइयां,
मोबाइल नंबरः 9839792402

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