रविवार, 25 दिसंबर 2011

हिन्दी का लेखक आर्थिक रूप से पिछड़ा है - अमरकांत



सुप्रसिद्ध कहानीकार अमरकांत जी से गणेश शंकर श्रीवास्तव की बातचीत


सवाल: आपकी पैदाईश कब और कहां हुई?


जवाब: मेरा जन्म एक जुलाई 1925 को पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित बलिया जिले के भगमलपुर गांव में हुआ।


सवाल: आपके साहित्य लेखन की शुरूआत कब और कहां से हुई ?


जवाब: 1948 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद आगरा से प्रकाशित होने वाले दैनिक अख़बार ‘सैनिक’ से मैंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत की। आगरा से ही प्रगतिशील लेखक संघ की सभा में अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ सुनाई, जिसमें बेरोजगार नौजवानों के इंटरव्यू का चित्रण था।



सवाल
: नए रचनाकार अपने साहित्यिक मूल्यों और उत्तरदायित्वों को लेकर कहां तक सचेत हैं?


जवाब: मूल्य भी अब वे मूल्य नहीं रहे, हर दौर में ऐसे लोग होते हैं जो नए तरीके से सोचते हैं। पहले के लोग जहां धार्मिक होते थे, वहीं आज के लोगों के जीवन में भौतिकता का समावेश है। आज के नौजवानों को हर हाल में एक नौकरी चाहिए। पचास के दशक में 100 रुपए की तनख्वाह मिलती थी और रोजमर्रा की ज़िन्दगी आसानी से चल जाया जाती थी, आज हजारो की तनख्वाह भी कम पड़ जाती है। पहले पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी अब वह कैरियर है।



सवाल
: पुरस्कार प्राप्त करने के बाद कैसा महसूस करते हैं?


जवाब:स्वाभाविक है कि अच्छा ही लगता है। जब किसी लोकप्रिय लेखक का पुरस्कार मिलता है तो उसके पाठक को यदि अच्छा लगता है तो यही लेखक की खुशी है। मुझे खुशी है कि मुझे पुरस्कार मिलने पर साहित्य जगत में इसका स्वागत किया जाता है।


सवाल
: हिन्दी कहानी और उर्दू कहानी में परस्पर कैसे संबंध है?


जवाब: दोनों में गहरा संबंध है। दरअसल, हिन्दी-उर्दू एक ही भाषा हैं, सिर्फ़ लिपि का अंतर है। प्रगतिशील लेखक संघ में तो हिन्दी-उर्दू के हमलोग एक साथ ही रहते थे। मेरी अनेक कहानियां उर्दू पत्रिकाओं में छपी हैं। इसी प्रकार उर्दू के कई कहानीकारों की कहानियां हिन्दी की पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। मंटो, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह वेदी हिन्दी में भी छपते हैं और पसंद किए जाते हैं। प्रलेस में ही बन्ने भाई सज्जाद ज़हीर जैसे तमाम लोगों से मिलने का अवसर मिला। दुनिया बहुत नजदीक हो गई है, फिर हिन्दी और उर्दू वाले तो सहोदर भाई हैं।



सवाल
: अपनी कहानियों में आपकी सबसे प्रिय कहानी कौन सी है?


जवाब: लेखक जब कहानी लिखता है तो वह उससे अलग हो जाती है। लेखक अपनी कहानी में अपनी भावनाओं को रखता है। कौन सी कहानी बेहतर है और कौन सी बेहतर नहीं है यह निर्धारित करना तो पाठक और आलोचक का काम है।लेखन को तो अपनी सभी कहानियां समान रूप से प्रिय होती हैं।



सवाल
: नई कहानी आंदोलन के दौर में आपका किन लोगों से जुड़ाव रहा?


जवाब: हम सभी लेखकों के एक दूसरे से आत्मीय संबंध थे। उस समय इलाहाबाद में कमलेश्वर, भौरो प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय,दुष्यंत कुमार आदि उर्दू-हिन्दी के लेखक एक ही मंच पर विराजमान होते थे। इस आंदोलन के दौर में हिन्दी-उर्दू के लोगों के मध्य खूब गहमा-गहमी थी। कमलेश्वर के साथ तो मेरे बड़े भावनापूर्ण संबंध थे, मैंने वागर्थ के लिए उन पर एक लेख लिखा था। जब मैं बीमार था तो कमलेश्वर मुझे देखने इलाहाबाद आए थे। कमेलश्वर ने साहित्यिक जीवन की शुरूआत यहीं से की , बाद में दिल्ली और मंुबई चले गए।


सवाल
: क्या मात्र मसिजीवी होकर एक अच्छा जीवन बिताया जा सकता है?


जवाब: आज के दौर में साहित्यिक स्वतंत्र लेखन संभव नहीं है। साहित्यिक लेखों का समय से पारिश्रमिक नहीं मिलता और न ही ठीक ढ़ंग से रॉयल्टी मिलती है, हिन्दी का लेखक आर्थिक रूप से पिछड़ा है, जबकि अंग्रेजी के लेखक की कमोवेश स्थिति बेहतर है। हिन्दी को हर जगह दबाया जाता है चाहे वह सरकार के स्तर पर हो या लोगों के। हिन्दी हर जगह उपेक्षा की शिकार है। फिर भी जिनकी आस्था है, रुचि है वे लिखेंगे ही तमाम कठिनाई और व्यवधानों के बावजूद।



सवाल
: एक अकादिमिक लेखक जैसे रीडर, प्रोफेसर आदि और विशुद्ध साहित्यिक लेखक की रचनात्मकता में क्या फ़र्क़ है?


जवाब: मैं नहीं समझता कि अकादमिक क्षेत्र या विशुद्ध साहित्यिक क्षेत्र में होने पर किसी व्यक्ति की रचनात्मकता में कोई विशेष अंतर आता है। यूनिवर्सिटी में होने से लेक्चरर से रीडर, प्रोफेसर के रूप में प्रमोशन तो होता है लेकिन मैं तो न रीडर रहा और न प्रोफेसर फिर भी मेरी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं हुई।



सवाल
: विगत वर्ष 2006 में, जनकवि कैलाश गौतम अचानक हमें छोड़कर चले गए, उनके साथ अपने संबंधों पर प्रकाश डालिए?


जवाब: कैलाश गौतम जितने अच्छे साहित्यकार थे, उतने ही भले व्यक्ति थे। मनोरमा में काम करते हुए गौतम से मेरे आत्मीय संबंध बने। वे एक अच्छे वक्ता और संचालक थे। वे साहित्य जगत की विभिन्न धाराओं में समन्वयकर्ता थे, गंगा-जमुनी तहजीब से पोषक थे। मैं जब भी बीमार रहता कैलाश मुझे देखने आते। एक बार मैं बहुत बीमार था तो उन्होंने ‘अमौसा का मेला’ सुनाकर मेरे में खुशी भर दी। वास्तव में मंत्री से संतरी तक लोकप्रिय थे।



सवाल
: पिछले कुछ वर्षों से स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की जो बहस चल रही है, इसको आप किस रूप में देखते हैं?


जवाब: स्वानुभूति जीवन का एक निजी अनुभव है, यह निश्चित रूप से जरूरी है लेकिन जब उसका चित्रण करें तो व्यापक सहानुभूति और संवदेना आवश्यक है, ताकि आप बिना दुर्भावना के लिख सकें। इन दोनों के अभाव में गंभीर साहित्य लेखन संभव नहीं। सफल संप्रेषणीयता के लिए व्यापक सहानुभूति एवं गहरी संवेदना होनी चाहिए।



सवाल
: नए रचनाकारों को क्या संदेश देंगे?


जवाब: नए लेखक खुद अपने से रास्ते बनाते हैं। यह ज़रूरी है कि वे साधारण लोगों के बीच रहें क्योंकि यह साधारण लोग ही होते हैं जो अनुभव जनित मुहावरे गढ़ते हैं। आप साहित्य की जिस विधा में जाएं उसके बारे में अधिक से अधिक पढ़े। देश-समाज का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। अपनी रचना पर बार-बार मेहनती करनी पड़ती है तभी वह अपना प्रायोजन पूरा कर पाएगी।


गुफ्तगू
के जनवरी-मार्च 2008 में प्रकाशित

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

उर्दू भाषा खड़ी बोली का निखरा हुआ रूप है-वसीम बरेलवी


प्रो0 वसीम बरेलवी उर्दू अदब का ऐसा नाम है, जिन्होंने शायरी को हिन्दुस्तान के कोने-कोने तक पहुंचाने के साथ ही दूसरे मुल्कों में भी उसकी रोशनी बहुत ही सलीक़े से पहुंचाई है। पिछले चार-पांच दशकों से वे सक्रिय हैं और शायरी को अपने हसीन ख़्यालों से लगातार नवाज़ रहे हैं। किसी भी मुशायरे में उनका शिरकत करना ही उस मुशायरे की कामयाबी का जमानत है। 18 फरवरी 1940 को बरेली में जन्मे श्री बरेलवी की अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें आंखो-आंखों रहे,मौसम अंदर बाहर के, तबस्सुमे-गुम, आंसू मेरे दामन तेरा, मिजाज़ और मेरा क्या आादि प्रमुख हैं। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे कई मसलों पर बात की-

सवालः ग़ज़ल को हिन्दी और उर्दू के रूप में परिभाषित किया जाना कितना उचित है?


जवाबः ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है, उस पर लेबल लगाना ठीक नहीं है। हां, जब तक ग़ज़ल कहने वाला उसकी रिवायत से परिचित न हो, तब तक ठीक ढंग से ग़ज़ल को निभा नहीं सकता।


सवालः दुष्यंत कुमार को हिन्दी का पहला ग़ज़लकार कहा जाता है, आप इससे सहमत हैं?


जवाब: अगर पहले शायर-कवि की बात की जाए तो हिन्दी और उर्दू दोनों के पहले शायर-कवि अमीर खुसरो हैं। दुष्यंत ने फार्मेट तो उर्दू वाला ही अख़्तियार किया, लेकिन मौजूआत उर्दू शायरों से थोड़ा हटकर चुना, जिसकी वजह से उन्हें हिन्दी ग़ज़लकार कहा जाने लगा, मगर असल में वो उर्दू शायरी के ही करीब रहे। हिन्दी भाषा के जानकारों ने ऐसी ग़ज़लें तब तक नहीं कही थीं या हिन्दी वाले ग़ज़ल नहीं कह रहे थे, इसलिए इन्हें पहला हिन्दी ग़ज़लकार कहके परिभाषित किया जाने लगा।


सवाल: वर्तमान मुशायरे के स्तर पर उठाया जा रहा है?


जवाब: इस तरह के सवाल हर दौर में उठाए जाते रहे हैं। मीर और ग़ालिब के दौर में भी ऐसी बातें होती रही हैं। आज के मुशायरों के हालात बिल्कुल अलग हैं। रिवायती शायरी अब मुशायरों से दूर होती जा रही है। मैगज़ीनों का भी यही हाल है। 80 से 90 फीसदी शायरी बकवास होती है। 10 से 20 फीसदी ही स्तरीय होती है। यही हाल मुशायरों का भी है। मगर इस 20 फीसदी शायरी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।


सवाल: फिल्मों में हिन्दी कवियों के मुकाबले उर्दू शायर ज़्यादा कामयाब हैं, ऐसा क्यों?


जवाब: उत्तर भारत में खड़ी बोली का इस्तेमाल होता है। उर्दू भाषा खड़ी बोली का निखरा हुआ रूप है, जिसे पहले हिन्दवी भी कहा जाता रहा है। उर्दू को लखनउ और दिल्ली के घरानों ने निखारा। इसके विपरीत हिन्दी भाषा संस्कृत के तत्सम और तत्भव से बनकर सामने आयी है, जो अपेक्षाकृत क्लिष्ट थी, जो आम आदमी की ज़बान पर आसानी चढ़ नहीं पायी। चूंकि उर्दू वालों ने खड़ी बोली को अपनाया, इसलिए यह आम आदमी की ज़बान बन गयी, खा़सतौर पर बोली के स्तर पर। इसके अलावा उर्दू शायरी लयबद्धता को निभाती रही है। जो म्यूजिक में ढलने के लिए ज़रूरी है। फिल्में आम बोलचाल की भाषा में बनती हैं। यही वजह है कि उर्दू शायर फिल्मों में अधिक कामयाब रहे हैं। ‘गुफ्तगू’ का एक बड़ा पाठक वर्ग सिर्फ़ इसलिए है कि देवनागरी में आप उर्दू पत्रिका निकाल रहे हैं, जिसको जानने और समझने वालों की तादाद सबसे अधिक है।


सवाल: टीवी चैनलों के चकाचौंध का अदब पर क्या असर पड़ा है?


जवाब: अदब का सफ़र बिल्कुल अलग है। टीवी चैनल फौरीतौर पर भले ही देखी जाती हो, लेकिन इसका असर लंबे समय तक नहीं होता। चार-पांच दिन पहले की क्लीपिंग किसी को याद नहीं होगा। मीर,ग़ालिब और तुलसी वगैरह को आज का बच्चा-बच्चा जानता है। मगर समकालीन फिल्मी या डृामा कलाकारों का नाम कोई नहीं जानता। अमिताब बच्चन इस दौर के बड़े अभिनेता हैं। हरिवंश राय बच्चन से ज़्यादा मक़बूल हैं, मगर इनकी मक़बूलियत उतने दिनोें तक कायम नहीं रह सकती, जबकि हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला सदियों तक याद की जाएगी।


सवाल: जब-जब पुरस्कारों का ऐलान किया जाता है, तो इसकी इमानदारी पर सवाल खड़े किए जाते हैं?

जवाब: सरकार संस्थाओं द्वारा मिलने वाले पुरस्कार के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यहां आम आदमी शामिल नहीं होता, यहां बैठे लोग आम आदमी के बारे में नहीं सोच पाते या सकते। मैं सरकारी इनामों को कम करके के भी नहीं आंकना चाहता, हां ऐसी तमाम संस्थाएं हैं जो अदबी लोगों को शामिल करके एवार्ड का ऐलान करती हैं। ऐसे एवार्ड की अहमीयत मेरी नज़र में सबसे अधिक है। लेकिन एवार्ड पाना ही कामयाबी नहीं है। अगर आप द्वारा रचित साहित्य लोगों तक पहंुचता है, लोग उसे पसंद करते हैं, तो आप कामयाब हैं।


सवाल: नई पीढ़ी में आप क्या संभावना देखते हैं?


जवाब: मैंने पूरी ज़िदगी उर्दू अदब की खिदमत की है। पिछले 45 सालों से मुशायरों की दुनिया में हूं, हम जाते-जाते कुछ ऐसे लोगों को छोड़ जा रहे हैं जो उर्दू अदब को संजीदगी से आगे ले जाएंगे। हमें इस बात बहुत सुकून है। डाइज सिर्फ़ तारीफ़ तक ही सीमित नहीं है। यहां से बहुत गंभीर बातें भी समय-समय पर कही जाती रही हैं। बहुत नए लोग आ रहे हैं, दो-चार का नाम लेना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे में कई लोगों का नाम छूट जाएगा। बहरहाल, अदब सुरक्षित हाथों में है।


सवाल: आपने शायरी कब शुरू की, आपके उस्ताद कौन हैं?


जवाबः जब मैं छठीं क्लास में था, तभी से कुछ कहने लगा था। मगर संजीदा शायरी तब शुरू की, जब मैं एम ए कर रहा था। मेरे वालिद नसीम मुरादाबादी भी शायर थे। हमारे घर जिगर मुरादाबादी का भी आना जाना था। कई बार वालिद ने मेरे कलाम को जिगर साहब को भी दिखाया, मगर मेरे बकायदा उस्ताद मंुतकित हैदराबादी थे।


गुफ्तगू
के जुलाई-सितंबर 2008 अंक में प्रकाशित

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

पुण्यतिथि ०९ दिसम्बर पर : बड़े भइया कैलाश गौतम के नाम चिट्ठी


----- यश मालवीय --------


अभी तो सरसों पियरायी नहीं थी, मीलों-मील आकर्षण नहीं बिछा था,गंधमाती बसंत की हवा झुरकी नहीं थी, पुरखों के खेत परती पड़े थे, टृैैैक्टर की किस्त पूरी नहीं हुई थी, मटर की मुट्ठी नहीं कसी थी, रामदुलारे की गाय बिवाई नहीं थी, श्याम के उबले दूध में मलाई नहीं पड़ी थी, पिछवाड़े के तालाब में रोहू ने आंखें नहीं खोली थीं, पटवारी से पिछले हिसाब निपटाने थे, छुटकी का गौना भेजना था, अभी तो सूखे ताल में झुनिया कंडे ही बीन रही थ, रामनगीना म्यूनिसपिलटी के स्कूल में अपने पोते के दाखिले के लिए छटपटा रहे थे, प्रयागराज में तंबुओं का शहर भी नहीं बसा था, गंगा की उदासी कटी नहीं थी, करछना से सोरांव तक पसरा सन्नाटा टूटा नहीं था, धान के खेत कटने के बाद कितना कुछ कट-बंट गया था मन में, ट्येबवेल के पानी का विवाद सुलझा नहीं था, कुएं की जगत पक्की नहीं हुई थी, पुआल का बिस्तरा नहीं बिछा था, रामचरना के घर कर्ज लेकर भागवत की कथा सुनने की योजना नहीं बनी थी, अखंड पाठ के लिए शहर के लउडस्पीकर बनकर नहीं आए थे, ग्राम पंचायत के चुनाव नहीं हुए थे, सूदखोर महाजन की ऐसी-तैसी नहीं हुई थी, ठाकुर के कुएं से रामसुभग ने पानी नहीं भरा था, अभी तो बहुत कुछ होना था। अभी तो तुम्हें कितनी-कितनी चिट्ठियां लिखनी थीं हमें, कितनी नसीहतें देनी थी समय और समाज को। यह क्या हुआ? बिना कुछ सोचे समझे आखिरी चिट्ठी लिख मारी। हमें तो तुम्हारी चिट्ठियों की आदत हो गयी थी बड़के भइया। तुम्हारी चिट्ठी, चिट्ठी नहीं सौ-सौ वाट के बल्ब होते थे हमारे लिए, सारा अंधेरा बिला जाता था। तुम कहते भी तो थे-


देखो जहां अन्हारे के
मारा पहेट के सारे के

अंधेरे को पहेट के मारने के लिए हमें तुमसे ही रोशनी की छड़ी चाहिए। तुम्हारी अलसी के फूलों जैसी लिखावट वाली चिट्ठी ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’ वाला तकिया कलाम और वह मुंहफाड़-छतफाड़ छहाका जिसके चलते तुम सारा दुख और अवसाद पानी कर देते थे, तभी तो कह पाते थे-


गांव गया था, गांव से भागा,
बिना टिकट बारात देखकर।
टाट देखकर भात देखकर,
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नौजात देखकर।
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर गांव गया था, गांव से भागा।

इस कविता पर श्रीलाल शुक्ल अपना ‘राग दरबारी’ निछावर करते थे। तुम तो गांव से भागने की बात करते थे, दुनिया से ही भाग निकले। तुम्हारा दिल बहुत बड़ा था, तुम ज़िन्दगी भर वहां दौरा करते रहे,‘दिल का दौरा’ तो तुम्हें पड़ना ही था। हमीं चूक गए, समझ नहीं पाए। तुम्हारी डिक्शनरी में ‘न’ कहीं नहीं था। मौत ने भी बुलाया तो कवि सम्मेलनी भाव से चल निकले। तुम कवि भी हो यह तो जानता था बड़के भइया! पर बड़का भारी कवि हो यह तुम्हारे जाने के बाद जाना। सारे अख़बारों में तुम्हारी हंसती हुई, मंुह चिढ़ाती हुई सी फोटुएं छपीं, कुछ ऐसा भाव लिए ‘देखा कैसा छकाया’। तुम हमेशा हड़बड़ी और जल्दी में रहते थे, दुनिया से जाने में भी तुमने जल्दी की। शब्दबेधी वाण से तुम चले गए, देखो धनुष की डोर सा अब भी थरथरा रहा है गांव-शहर। ‘तीन चौथाई आंन्हर’ वाले कठिन काल में आंखों मेें ‘जोड़ा ताल’ और ‘सिर पर आग’ लिए तुम युग की आंखों में पड़ा मोतियाबिंद काटने लगे थे। तुम किसी को सेटते नहीं थे, आने आपको को भी नहीं।सारे संसार को प्यार करने को आकुल रहते थे। तुम्हारा सिलेटी स्कूटर उदास खड़ा है। उसके पहिए का चक्कर तुम्हीं थे। लाल हेलमेट पहनकर शहर की सड़कों पर जब तुम निकलते थे तो जैसे शहर की छाती चौड़ी हो जाती थी। कितनी बार कहा, ‘यह हेलमेट बदल दो’ मगर तुम हमेशा यही कहते, प्यारे!दमकल तुड़वाकर यह हेलमेट बनावाया है, बहुत सारी आगें हमें भी बुझानी होती हैं।
तुम आग ही तो बुझा रहे थे। जैसे तालाब का पानी साफ़ करने के लिए पानी में उतरना पड़ता है, उसी तरह आग बुझाने के लिए तुम लपटों के जंगल में कूद पड़े थे और लिख रहे थे-

संतों में,हम प्रयाग खोजते रहे,

धुआं-धुआं वही आग खोजते रहे।

तुम्हें धुएं से सख्त नफरत थी, इसीलिए तुम धुआं नहीं हुए, धधकती आग जैसा जीवन तुमने जिया। तुम कभी अस्त नहीं हो सकते, इसलिए दुनिया से जाने के लिए तुमने सूर्वोदय के बिल्कुल निकट वाला समय चुना, जब सूर्य माध्याह्न आकाश की ओर बढ़ रहा था, तुमने हाथ बढ़ाकर अपनी ज़िन्दगी का सूरज तोड़ लिया। तुम डूबे तो और भी अधिक उभर आए। यह शहर इलाहाबाद तुम्हें बहुत प्यार करता है, तुम भी इस शहर को बहुत चाहते थे, तभी तो बनारस से ‘जय श्रीराम’ कहकर इलाहाबाद चले आए थे। तुमने उन सुदूर अंचलों में जाकर भी कविता का दिया जलाया, जहां आज तक सड़क भी नहीं बिछी है, बिजली तो बहुत दूर की बात है। भारती जी कहते थे, ‘जानते हो मुझे कैलाश गौतम की कविताएं क्यों अच्छी लगती हैं, इसलिए अच्छी लगती हैं, क्योंकि उसकी कविताओं में गांव-जवार सांसें लेती हैं, गंवईं मन बोलता है और सबसे बड़ी बात उसमें इलाहाबाद दिल की तरह धड़कता है।’
बनारस का ठेठपन और इलाहाबाद का ठाठ दोनों तुममें साकार हो गए थे बड़के भइया। तुम कविता के किसान थे, भावनाओं के बीज बिखेरते तुमने ज़िन्दगी के 62 साल पलक झपकते काट दिए, यह कविता के आढ़तिए कभी नहीं समझेंगे। तुम जनवादी थे, तुमने कवि सम्मेलनों के माध्यम से अपना जनवाद जन तक पहुंचाया। तुम कागज़ पर भी जब आते या छपते थे तो कागज़ भी सांसों की तरह स्पंदित हो उठता था। सच कहंें तो तुम कागज़ और मंच के बीच जीवनभर नैनीपुल की तरह कसे रहे। तुम्हें बंबई जाकर भी चैन नहीं मिला, छटपटा उठे थे-

जब से आया बम्बई, तब से नींद हराम,

चौपाटी तुमसे भली, लोकनाथ की शाम।


तुम गंगा के देवव्रत थे, तुम यमुना के बंधु जैसे थे, तुमसे संस्कृतियों का संगम लहराता था। तुम झूंसी से अरैल, अरैल से किले तक शरद की धूप ओर चांदनी आत्मा में उतरने देते थे-


याद तुम्हारी मेरे संग वैसे ही रहती है,

जैसे कोई नदी किले से सट के बहती है।

अभी तो पुरइन के पात की चिकनाई पूरी तरह मन में उतरी नहीं थी, अभी तो ‘अमवसा का मेला’ लगा नहीं था, अभी तो गुलब्बो की दुलहिन भरी नाव जैसे नदी तीरे-तीरे दिखाई नहीं दी थी। अभी तो बचपन की दोनों सहेलियां चंपा-चमेली को इसी भीड़ भड़क्के मेले ठेले में मिलना था। पर यह सब क्या हो गया, कैसे हो गया? लगने से पहले कोई आग लग गई, जुड़ने से पहले ही कोई बिखर गया। हाथ से गिरा शीशा पुआल पर गिरा तो बच जाता, वह तो चट्टान पर गिरा और चूर-चूर हो गया, वैसे ही जैसे कोई सपना चूर-चूर होता है। बड़के भइया तुम बहुत याद आ रहे हो। इस साल नए साल पर तुम्हारी शुभकामनाएं नहीं मिलीं। लगा ही नहीं कि नया साल आया है। अब तो तुमने मोबाइल भी खरीद लिया था, कान में उंगली डालकर जोर-जोर बोला करते थे,कहते थे कि अक्सर ‘बिना कान के आदमी’ से बतियाना पड़ता है। हम तुम्हारी पंक्तियां सहेजते ही तुम्हें बिसूर रहे हैं-


कैसे-कैसे दिन होते थे
छांव-छांव होता था कोई
हम पुरईन-पुरईन होते थे
एक-एक हिलकोर याद है
आंख मिचोली चोर याद है
बातों में तुलसी होते थे,
बातों में लेनिन होते थे


गुफ्तगू
के मार्च 2007 अंक में प्रकाशित

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

गुफ्तगू के दिसंबर 2011 अंक में


3. ख़ास ग़ज़लें- मीर, इक़बाल, ग़ालिब, शकेब जलाली

4-आपकी बात

5-6- संपादकीयः भगवान और महानायक की संज्ञा क्यों?


ग़ज़लें

7.प्रो0 शह्रयार, निदा फ़ाजली
8.डॉ0 बशीर बद्र,मुनव्वर राना
9.खन्ना मुजफ्फरपुरी,असरार नसीमी, असद अली ‘असद’,अनिल पठानकोटी

10. दिनेश त्रिपाठी‘शम्स’, स्वामी श्यामानंद सरस्वती,पूनम कौसर,ख़्याल खन्ना

11.आमिर शेख़, रईस बरेलवी, आज़म सावन ख़ान

12.शफ़ीक अहमद ‘शफीक’, सौम्या जैन‘अबंर’, खान हसनैन ‘आक़िब’,शहजाद अहमद

13.नवीन आज़म ख़ान,जगदीश तिवारी, अमित अहद, कु. दीपांजलि जैन
14.पंकज पटेरिया, जयकुमार रुसवा, दिलीप सिंह ‘दीपक’,हसन रजा बेरलवी

15।संयोगिता गोसाईं,महेश अग्रवाल,रेहाना रूही

16.जयकृष्ण राय तुषार,अब्बास ख़ान ‘संगदिल’
17.डॉ0 लक्ष्मी विमल,अनमोल शुक्ल अनमोल

18.कु.नीलांजलि जैन ‘केसर’

36. ज़िया ज़मीर

45.सीपी सुमन
19. अज़ीज़ इलाहाबादीःबेहतरीन शख़्यित के मालिक-सायमा नदीम

कविताएं

20.कैलाश गौतम, डॉ0 बुद्धिनाथ मिश्र,विवके श्रीवास्तव
21.लखन राम ‘जंगली’

22.हुमा अक्सीर
23-24. तआरुफ़ः वीनस केसरी
25-28.इंटरव्यूः मेराज फ़ैजाबादी
29-30. चौपालः अमिताब बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलाना कितना उचित?
31.अदबी ख़बरें
32-34. डायरेक्टृीः अंबेडकरनगर के साहित्यकारों की सूची
37-38. शख़्सियत: श्रीधर द्विवेदी

39-40. बह्र विज्ञान भाग-8

41-45.आर.पी. शर्मा‘महर्षि’के सौ शेर

46-48.संस्मरणः मजरूह सुल्तानपुरी

परिशिष्टः सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’
४९ -
सुरेंद्र नाथ नूतन का परिचय
50-52.प्रणय,प्रकृति और जीवन के सौंदर्य- डॉ0 रामकिशोर शर्मा

53-54.अंतरतम छूकर स्पंदित करती कविताएं- केशरी नाथ त्रिपाठी
55-56.चिर नूतन हैं श्री नूतन- प्रो. हरिराज सिंह नूर
57. खेल में रचनात्मक और रचनाओं में क्रीड़ाभाव- डॉ0 सुरेंद्र वर्मा
58-59. सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ का रचना संसार-अमरनाथ श्रीवास्तव
60. लेखन को पेशा न बनाएं रचनाकार- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

61. सुरेंद्र नूतन के मुक्तक
62-71.सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ के गीत

72-80. सुरेंद्र नाथ ‘नूतन’ की ग़ज़लें

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हम मुर्दापरस्त लोग हैं: मेराज फ़ैज़ाबादी



गंभीर शायरी के जाने वाले शायर मेराज फ़ैज़ाबादी से गुफ्तगू के उपसंपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ की बातचीत

सवालः आपको लेखन की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरूआत किस प्रकार से हुई?
जवाबः जहां तक प्रेरणा का सवाल है तो एक अनजाना-सा जज़्बा थो जो अपने आप अभिप्रेरित करता था। मैं एक छोटे से गांव में पैदा हुआ था, विज्ञान का छात्र था और साहित्य से मेरे कोई तालुकात हीं नहीं थे। जो रोज़ की समस्याएं हैं, मशायल हैं, हर आदमी के साथ होती हैं, मेरे साथ भी थीं। गांव के खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे, इन सबसे मुझे इश्क़ था। मुझे ऐसा लगता है कि इन सबसे कोई संगीत-सा फूट रहा है, तब मैं चौदह-पंद्रह साल का था, जी चाहा कि मन भीतर हो रही संगीत की इस गूंज को बाहर निकालया जाए। यही एक जज़्बा था, वर्ना ऐसा कोई ख़ास वाक़िया, ऐसी कोई ख़ास परिस्थिति याद नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि मुझे लेखन की प्रेरणा वहां से मिली।

सवालः विज्ञापनों में हर हद पार करते स्त्री देह के प्रदर्शन पर आपकी क्या राय है?

जवाबः स्त्री देह की खू़बसूरती उस वक़्त तक है जब तक वह ढकी रहे, जहां खुली वहां उबकाई आने लगती है। आजकल जो नई पीढ़ी के लोग हैं वे चाहे विज्ञापन बनाने वाले हों, फिल्म बनाने वाले हों या किसी भी प्रकार की आर्ट प्रजेन्ट करने वाले लोग हों, उन्होंने यह समझ लिया है कि स्त्री दे हके प्रदर्शन से ही उनका कारोबार चलेगा तो करें भाई, मैं उसका कायल नहीं हूं। पुराने ज़माने में कपड़े बदल ढकने के लिए पहना जाता था, लेकिन आज के ज़माने में कपड़ा बदन दिखाने के लिए पहना जाता है।


सवालः क्या कारण है कि अपने समय के क्रांतिकारी लोगों को वह महत्व नहीं दिया जाता जिसके वे हक़दार होते हैं, जैसे सआदत हसन मंटो, हिन्दी कविता में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ या फिर दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में फ्रेडरिक नीत्थे?

जवाबः यह तो टृेडजी है पूरे एलाइड आर्ट की। सिर्फ दर्शन नहीं, सिर्फ़ कविता नहीं, सिर्फ़ कहानीकार की बात नहीं। हम मुर्दापरस्त लोग हैं और ज़िन्दगी में किसी को अहमीयत नहीं देते। जहां वो मरा,उसके फौरन बाद कब्रिस्तान से श्मसान से ही यह शुरू कर देते हैं, यार कितना अच्छा आदमी था, यार कितना बड़ा कलाकार था, वगैरह-वगैरह... लेकिन यही बातें उसकी ज़िन्दगी में एक आदमी के मुंह से नहीं फूटती। क्या कीजिएगा, यह तो पूरी दुनिया का मिज़ाज है। यह पूरी मानवता पर एक कलंक है किसी भी बड़े जीनियस को उसकी ज़िन्दगी में हमारे समाज ने नहीं पहचाना। आदमी मरा, कफन मैला भी नहीं हुआ उसकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। अरे मुर्खों, अगर यही क़सीदे तुम उसकी ज़िन्दगी रहते पढ़ते तो शायद वह दो-चार दिन और जी लेता।

सवालः वर्तमान समाज के निर्माण में साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय क्यों नहीं कर पा रहा है?


जवाबः साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय कैसे करेगा, जब वह समाज तक पहुंच नहीं पा रहा है। इलेटृानिक मीडिया के युग में प्रिंट मीडिया का महत्व कम हुआ है और बग़ैर प्रिंट मीडिया के साहित्य समाज तक कैसे पहुंचंगा। साहित्य के कम्युनिकेशन का सबसे बेहतर तरीक़ा है प्रिंट मीडिया, उससे हमारे तालुकात ही नहीं। हमारी पूरी नस्ल, पूरी जनरेशन प्रिंट मीडिया से कट गई है।


सवालः आपने देश-विदेश की तमाम यात्राएं की हैं। अन्य देशों में रचा जा रहा साहित्य और यहां रचे जा रहे साहित्य में क्या फर्क है?

जवाबः हर देश के साहित्यकार अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और हर उस मातृभाषा से मेरा कांटैक्ट नहीं हो पाता। मैं उर्दू का आदमी हूं, ज़ाहिर है हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक जहां भी जाता हूं, उर्दू के सर्किल में जाता हूं। अमरीका की मातृभाषा अंग्रेजी है,उनके लिए उर्दू एलियन लैंग्वेज है। उस एलियन लैंग्वेज में वो जो कुछ प्रोड्यूस करेंगे, वह स्टैंडर्ड तो नहीं होगा...बहरहाल कुछ भी हो, हिन्दुस्तान के बाहर हिन्दी-उर्दू वाले, अच्छी शायरी कर रहे हैं, अच्छा लिख रहे हैं, मगर उनमें कोई एचीवमेंट नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि कोई मीर तक़ी मीर या कोई मिर्ज़ा ग़ालिब पैदा होने वाला है। इसके पीछे कारण यह है कि वे अपने ख़्वाब तो दूसरी भाषाओं में देखते हैं और क्रियेशन हिन्दी या उर्दू में टृांसलेशन करके करते हैं।

सवालः साहित्य में हो रही राजनीति और गुटबाजी पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
जवाबः ......इसीलिये मैंने अपने आपको समेट लिया है. राजनीति और गुटबाजी में पड़कर कोई प्रोफ़ेशनली तो कामयाब हो सकता है लेकिन अन्दर का साहित्यकार मर जाता है। राजनीति और गुटबाज़ी हर ज़माने में हो रही है, लेकिन पहले पचीस प्रतिशत गुटबाज़ी थी, पचहत्तर प्रतिशत साहित्य है और वह भी धीरे-धीरे घट रहा है, यह शून्य प्रतिशत तक आ जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिये.
सवालः आजकल मंचो से संजीदा शायरी लुप्त हो गयी है. फूहड़पन और चुटकुलेबाज़ी का ज़ोर है, आपको नहीं लगता कि अब कवि सम्मेलन और मुशायरे, सही मायनों में कवि सम्मेलन व मुशायरे हैं ही नहीं?


जवाब-ऐसा तो नहीं है, जहां तक कवि सम्मेलन का सवाल है, दो-चार नाम ऐसे हैं जिन्होंने मंच की गरिमा बनाये रखी हैं, सोम ठाकुर हैं, भारत भूषण है, वग़ैरह-वग़ैरह. मुशायरों में हास्य-व्यंग्य तो बहुत थोड़ा-सा है बाक़ी सब संजीदा शायरी है. असल में मुतमइन जबाने कभी अच्छा अदब तक़लीफ नहीं करती और हिन्दी एक मुतमइन ज़बान है. उसके पास सब कुछ है तो ज़ाहिर-सी बात है उनके यहां हास्य-व्यंग्य ज़्यादा चल रहा है और इसके सिवा उनके पास कुछ नहीं हैं. उर्दू के सामने उसके अस्तित्व का सवाल है कि यह ज़बान बचेगी भी या नहीं, इसलिये वहां अभी भी काफ़ी संजीदा शायरी हो रही है. जो साहित्य कभी समाज का आईना होता था वह आजकल हिन्दी के मंचो पर बिल्कुल भी नहीं दिखाई देता है और उर्दू के मंचों पर भी पहले जैसा नहीं. शोर और हंगामें के बीच सब कुछ ग़ुम होता जा रहा है....वैसे कुछ बावले अभी भी ज़िंदगी के संजीदा मामलात परोस रहे हैं.

सवालः एक बात और भी है कि मंचो में आजकल बहुत से नक़ली लोग आ रहे हैं, चोरी के शेर पढ़ रहे हैं या तमाम लोग अपने गले की बदौलत वग़ैरह-वग़ैरह....... इस तरह की भयावह स्थिति का मंच पर बैठे अच्छे और असली कवि-शायर विरोध क्यों नहीं करते, वे क्यों उन्हें स्वीकार कर लेते हैं?

जवाब-बड़ा मुश्किल सवाल किया है आपने। ऐसा है कि नकली लोग हर ज़माने में थे, आज भी है, आज ज़रा ज़्यादा हैं, पहले कम थे....लेकिन पहले क्या था कि नक़ली लोगों को जनता नक़ली की तरह ही ट्रीट करती थी, उन्हें कभी अहमियत नहीं दी; असली लोग ही असली माने जाते थे. चूंकि आज के ज़माने में हमारी पब्लिक का साहित्य से वैसा जुड़ाव नहीं रहा तो वह आकलन भी नहीं कर पाती कि कौन असली है, कौन नक़ली; और असली को नक़ली की तरह ट्रीट करती है तो मंचो में जो देखने और भुगतने को मिलता है, हम मज़बूर हैं. अगर हम एतराज़ करें भी तो हमारी कोई सुनेगा भी नहीं क्योंकि मंच में जो छाये हुए हैं वे ज्यादातर नक़ली लोग ही हैं......मुझे शर्मिदंगी होती है कि मैं असली हूं, नक़ली नहीं हूं, मुझे कोई घास ही नहीं डालता.... महसूस मुझे भी होता है, बहुत ज़्यादा ..... लेकिन क्या कीजियेगा.

सवाल-यदि लिपि का अन्तर छोड़ दिया जाये तो ज़बान के स्तर पर भी हिन्दी और उर्दू में क्या कोई फ़र्क़ है?
जवाब-लिपि तो मज़बूरी है और कोई भी ज़बान अपनी लिपि के बग़ैर ज़िंदा भी नहीं रह सकती. इसलिये मैं उर्दू लिपि का बहुत बड़ा समर्थक हूं. लेकिन जहां तक ज़बान का प्रश्न है तो यदि ज़बान में कोई अन्तर होता है तो आप जाने दीजिये मीराबाई को (मेरा ‘दरद’ न जाणे कोय) या फिर निरालाजी को (ख़ुशबू रंगो-आब’) .....यदि हिन्दी-उर्दू में कोई अन्तर होता तो वो लोग ऐसा कैसे लिख पाते. आप हिन्दी और उूर्द को बांट हीं नहीं सकते. जो लोग बिलावज़ह हिन्दी और उर्दू का अपना-अपना ढोल पीट रहे हैं वो सीधी-सीधी हिन्दुस्तानी ज़बान है, जिसे पूरा हिन्दुस्तान बोल रहा है.

सवाल-आपने किन लोगों से प्रेरणा ग्रहण की है और क्यों?

जवाब-अज़ीब-सा सवाल है. मैंने पहले भी कहा है. मेरी साहित्य-सृजन की प्रेरणा मेरे अन्दर से निकली है, बाहर के किसी भी फैक्टर का इसमें कोई रोल नहीं है. रही बात अच्छा लगने की तो थोड़ा-बहुत तो सभी अच्छे लगते हैं. विद्यार्थी जीवन में साहिर और फ़ैज़ बहुत अच्छे लगते थे, उसके बाद फिराक़ साब, नासिर काज़मी वग़ैरह अच्छे लगने लगे, आज की मेरी पंसद कोई और है. मगर इतना अच्छा कभी कोई नहीं लगा कि जो मेरी अपनी सोच में कोई बदलाव पैदा कर सके. हां, थोड़ी बहुत प्रेरणा जो मिली है तो उर्दू के उन क्लासिकल शायरों से, जिन्होंने उर्दू शायरी को एक दिशा दी है जैसे मीर तक़ी मीर आदि. इनसे इस रूप में प्रेरणा मिली कि अपनी बात किस प्रकार से रखूं. अपने विचारों के लिये, अपनी बात के लिये मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ग्रहण की. यह बड़ा उलझा हुआ सवाल है आपका, और मेरा उलझा हुआ जवाब है....मगर ये कि मेरा प्रेरणास्रोत कोई नहीं हैं.


सवाल
-नये रचनाकारों के लिये आप क्या संदेश देना चाहेंगें?

जवाब-सिर्फ़ यही संदेश दूंगा कि जोड़-तोड़ के चक्कर में न पड़े, गुटबाज़ी के चक्कर में न पड़ो. अगर अपने को शायर कहते हो तो शायरी करो और सिर्फ़ शायरी करो.

गुफ्तगू के दिसंबर 2011 अंक में प्रकाशित

रविवार, 4 दिसंबर 2011

यूं शुरू हुआ नोबेल पुरस्कारों का चलन


------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -------

किसी भी क्षेत्र में काम करने व्यक्ति को
यदि नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो यह उसके जीवन की सबसे बड़ी सफलता होगी। यह पुरस्कार अन्य पुरस्कारों के मुकाबले सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके शुरू होने की दास्तान भी बड़ी रोचक है। स्वीडन में जन्मे एक वैज्ञानिक ने एक विस्फोट पदार्थ बनाने की प्रणाली विकसित की, बाद में उसे एहसास हुआ कि उसके इस खोज का गलत इस्तेमाल होगा, इस उसे पश्चाताप हुआ और उसने अपनी सारी प्रॉपर्टी दान कर दी, आज उसी प्रॉपर्टी के ब्याज से मिले धन से नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। उस वैज्ञानिक का नाम अल्फ्रेड नोबेल है, जिनका जन्म 21 अक्तूबर 1783 को स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में हुआ था, बाद में उनके पिता रूस चले गए तो उसके साथ नोबेल भी रूस में रहे। 17 वर्ष की आयु तक नोबेल की शिक्षा निजी अध्यापकों द्वारा हुई। उसके बाद वे अध्ययन के लिए दो वर्ष तक अनेक देशों में गए, जिनमें अधिकांशा समय पेरिस में बीता। यहां उन्होंने एक निजी प्रयोगशाला में रसायन शास्त्र का अध्ययन किया। इसके बाद वे रूस लौटे।
वे एकांतवादी और शंात प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, लेकिन घूमना उनका प्रमुख शौक़ था। फ्रांस,इटली आदि देशों में घूमते रहे। कभी-कभी तो वे लंबे समय तक एकांतवास करते, लेकिन इसकी जानकारी उनके घनिष्ठ मित्रों को भी नहीं होती थी। अपनी लगातार घूमने की आदत के कारण वे स्वयं को यूरोप का सबसे बड़ा धनाढ्य आवारा कहते थे।
1860 के दशक में नोबेल ने एक शक्तिशाली लेकिन अस्थायी विस्फोटक नाइटृोग्लिसरीन, जो दूसरे पदार्थों के साथ स्थिरकारी था, विकसित किया। अंततः 1868 में नोबेल ने जिस विस्फोटक पदार्थ का पेटेंट कराया उसे ‘डायनामाइट’ नाम दिया। डायनमाइट, नाइटृोग्लिसरीन मुलायम अवशोषक रेत और केसरलगर का मिश्रण है। इसके बाद विकसित ‘ब्लास्टिंग जिलेटिन’ और अधिक शक्तिशाली विस्फोटक था। इस विस्फोटक से सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आए। अब इन विस्फोटकों का प्रयोग सड़कों, नहरों, और पुलों आदि के निर्माण के लिए चट्टानों आदि को तोड़ने में किया जाने लगा। इससे नोबेल का ध्यान सैन्य विस्फोटकों के निर्माण की ओर गया, जिसके निर्माण में उनको सफलता मिली और उन्होंने नाइटृोग्लिसरीन और गनकॉटन के साथ मिलकर बेलिटाइल नामक पदार्थ बनाया। इसी सफलता क कारण इनका औद्योगिक साम्राज्य इतनी तेजी से फैला किया नोबेल अंतरराष्टृीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हेा गए। अनेक देशों में उनकी कई कंपनियां और शाखाएं खुल गईं। लेकिन इस विस्फोटक पदार्थ का उपयोग मानवीय हानि के लिए किया जाने लगा। इसी कारण नोबेल को अपने इस खोज पर बहुत पछतावा हुआ, जिनकी खोज से उन्होंने बहुत धन कमाया। इसी कारण उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष के कुछ पहले 27 नवंबर 1895 को वसीयतनामा लिखा, जिसमें उन्होंने चार संस्थाओं के नाम सुझाएं थे, जिन्हें पुरस्कार योग्य व्यक्ति और उसके कार्य का चयन और पुरस्कार वितरण प्रक्रिया की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती थी। जो इस प्रकार है, पहली-रॉयल एकेडेमी ऑफ साइंस स्टॉकहोम-भौतिकी और रसायन शास्त्र के पुरस्कारों के लिए। दूसरी- कैरोलिन मेडिको सर्जिकल इंस्टीट्यूट शरीर क्रिया विज्ञान अथवा चिकित्सा विज्ञान के पुरस्कार के लिए। तीसरी-स्वीडिश एकेडेमी साहित्य मर्मज्ञ एवं लेखकों की संस्था साहित्य पुरस्कारों के लिए। नोबेेल ने 92 लाख पौंड की राशि इन पुरस्कारों के लिए छोड़ी थी। इस वसीयतनामा लिखने के एक वर्ष बाद 10 दिसंबर 1896 को नोबेल की मृत्यु हो गई। अपने वसीयतनामा में उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि मेरी संपूर्ण सपंत्ति को ऋण पत्रों के रूप् में जमा करवाकर उसके ब्याज से प्रतिवर्ष पांच विषयों भौतिकी, रसायन, चिकित्सा,साहित्य और शांति में उत्कृष्ठ और उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन व्यक्तियों को पुरस्कार दिया जाए, जिन्होंने पिछले वर्ष मानव समाज को महानता हित पहुंचाया हो। 1901 से इस पुरस्कार हुई, लेकिन 1901 के पुरसकार विजेताओं को पदक एक वर्ष बाद यानी 1902 में मिले। वर्ष 1969 से अर्थशास्त्र को भी पुरस्कार में शामिल कर लिया गया। प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में इन विषयों में पुरस्कार योग्य व्यक्ति की खोज शुरू हो जाती है और एक कमेटी सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों का चुनाव करती है। इसी सूची को पुरस्कार वितरण संस्थाओं के पास भेजा जाता है। ये संस्थाएं इन चयनित नामों में से एक अंतिम सूची बनाती है, जिनके नामों की घोषणा प्रत्येक वर्ष अक्तूबर अथवा नवंबर माह में की जाती है। पुरस्कार वितरण समारोह प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को अल्फ्रेड नोबेल की पुण्यतिथि के अवसर पर स्टॉकहोम, स्वीडन में संपन्न होता है, जबकि शांति पुरस्कार का वितरण नार्वे की राजधानी ओस्लो में किया जाता है। प्रत्येक नोबेल विजेता को एक पदक और एक लाख 25 हजार पौंड नकद धनराशि प्रदान की जाती है।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 4 दिसंबर 2011 को प्रकाशित

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना कितना उचित?

पिछले दिनों ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार मशहूर शायर प्रोफे़सर शहरयार को अमिताब बच्चन के हाथों दिलाया गया। इसे लेकर साहित्य के गलियारों में खासी चर्चा रही। ‘गुफ्तगू’ ने दिसंबर-2011 अंक में इसे अपने चौपाल का विषय बनाया। उपसंपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने इस विषय पर कुछ साहित्यकारों से बात की।
बेकल उत्साही: मैं इसे उचित नहीं समझता हूं और भी लोग पड़े हुए हैं, आखिर अमिताब बच्चन के हाथों क्यों दिलाया गया? वैसे शह्रयार को ही अभी यह पुरस्कार दिया जाना उचित नहीं है, उनसे ज़्यादा सीनियर लोग पड़े हुए हैं, जिन्होंने उनसे ज़्यादा साहित्य में काम किया है। शहरयार का इतना बड़ा काम नहीं है। सिर्फ़ फिल्मों में गीत लिख देने से कोई बड़ा शायर नहीं हो सकता। जहां तक एवार्ड दिलवाए जाने की बात है, तो साहित्यिक एवार्ड किसी वरिष्ठ साहित्यकार से ही दिलाया जाना चाहिए।
वसीम बरेलवी: हंसते हुए... सवाल बड़ा नाज़ुक है। देखिए अभिनय का क्षेत्र भी कला का क्षेत्र है और साहित्य का क्षेत्र भी कला का क्षेत्र है, लेकिन बात जहां आप पकड़ रहे हैं,रीजनेबल है। इसलिए कि शोपीस एवं लिटरेचर में अंतर तो है ही। अमिताभ बच्चन इस सदी के महानायक हो सकते हैं। यह दुनिया तेजी से बदलने वाली दुनिया है। हरिवंश राय बच्चन को सदियों को जिन्दा रहना है, इसलिए कि साहित्य और कलाकार कभी नहीं मरता। शोहरत के लिए कालीदास को कभी नहीं ज़रूरत पड़ी कि कभी उनका कोई बेटा फिल्म ऐक्टर हो, कबीर या जायसी को इस चीज़ की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी जिन लोगों तक उन्हें पहुंचना चाहिए, वे पहुंचे, पहुंच रहे हैं और हमेशा पहुंचते रहेंगे। इसलिए साहित्य से यह सब चीज़े इस तरह से न जोड़िए। ये बातें मैंने पहले भी कही हैं और अब भी कह रहा हूं। अमिताब जी इस समय अपनी शोहरत की पीक हैं किन्तु यह एवार्ड किसी साहित्यकार के हाथ से दिया जाता तो अधिक बेहतर होता।
माहेश्वर तिवारी: अभिनय भी एक कला है, अमिताब बच्चन को सदी के सबसे बड़े नायक का दर्जा मिला है और वह स्वयं एक संस्था हैं। राष्टृीय, अंतरराष्टृीय स्तर पर उनकी अपनी विशिष्ट पहचान भी है। बेहतर तो यह होता कि शह्रयार जी को यह सम्मान उर्दू-हिन्दी के किसी बड़े साहित्यकार से दिलवाया जाता, किन्तु अमिताब बच्चन द्वारा दिया जाना। मैं इसे इतना आपित्तजनक भी नहीं मानता। एक बार एक इंटरव्यू में मैंने हरिवंश राय बच्चन जी से सवाल किया था कि अमिताब लेखन के क्षेत्र में न जाकर अभिनय के क्षेत्र में गए हैं तो आपको कैसा लगता है? तो उनका कहना था कि वह जिस क्षेत्र में गया है, उसका काम मेरे काम से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
मुनव्वर राना: बिल्कुल सही है। इसलिए कि शह्रयार साहब को हिन्दुस्तान में आम लोग फिल्म में गीत लिखने की वजह से ही जानते हैं। उनका साहित्य में इतना बड़ा कोई काम नहीं है। मैंने ‘इंडिया टुडे’ के इंटरव्यू में भी यही बात कही है कि देखिए इस बार का ज्ञानपीठ एवार्ड देने वाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। यही वजह है कि हाजी अब्दुल सत्तार, बशीर बद्र, शम्सुर्रहमान फ़ारूकी, मलिकाज़ादा मंजूर जैसे लोगों की मौजूदगी में यह एवार्ड फिल्म कलाकार के हाथों देना ही, इस एवार्ड की इनसर्ट है। प्राब्लम यह है कि हमारे मुल्क में लोग सच नहीं बोलते, डरते हैं। उन्हें यह लगता है कि आइंदा हमको भी एवार्ड लेना है। मेरा मामला यह है कि मुझे एवार्ड में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही और मैं बहुत आसानी से सच बोल देता हूं। आम आदमी शह्रयार को ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ की वजह से पहचानता है। तो फिल्म अभिनेता के हाथ से शह्रयार साहब को पुरस्कार दिया गया तो इसका मतलब कि बहुत इमानदारी का काम किया गया है।एवार्डों की अहमीयत ऐसे ही घटती रही तो कल को राखी सावंत के हाथों से भी दिलाया जा सकता है। ‘गुफ्तगू’ के माध्यम से मैं पूरे तौर पर एवार्ड अमिताब बच्चन के हाथों से दिए जाने का और शह्यार को ज्ञानपीठ एवार्ड दिए जाने का भी खंडन करता हूं।
बुद्धिनाथ मिश्र: ज्ञानपीठ पुरस्कार को भी अब अमिताब बच्चन और फिल्मी अभिनेताओं को बैसाखी का सहारा लेना पड़ता है। यह राष्टृीय शर्म की बात है। ज्ञानपीठ पुरस्कार एक सम्मान था, इसको महादेवी वर्मा जैसी साहित्यकार दिया करती थीं और उस अब यहां तक ले आए हैं। आजकल जिन लोगों को पुरस्कार दिया जा रहा है और जिन लोगों के हाथों से दिलाया जा रहा है,उनका सबका अपना मकसद है। यही कारण है कि साहित्यिक समाज में पुरस्कारों की अहमीतय कम होती जा रही है। ज्ञानपीठ की ही बात क्यों करें,जितनी भी साहित्यिक अकादमियों के पुरस्कार हैं सबकी यही दुर्दशा है। भारत सरकार का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार तो साहित्यिक अकादमी ही देती है। इसे साहितय अकादमी का अध्यक्ष दे देता है, जबकि उसे राष्टृपति या प्रधानमंत्री को देना चाहिए। तो यह पतन गैर सरकारी संस्थानों और सरकारी संस्थानों दोनों में है।
प्रो0 राजेंद्र कुमार: बिल्कुल उचित नहीं है। हमने आपसे पहले भी कहा था कि शह्रयार और अमिताब बच्चन का इतना ही नाता है कि शह्रयार ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। एक साहित्यकार के रूप में अमिताब बच्चन को क्या समझ है। अमिताब बच्चन ने अपने पिता के अलावा हिन्दी-उदु में कुछ पढ़ा है।फिल्म का ग्लैमर साहित्य में थोपा गया है। शह्रयार साहब को खुद चाहिए था कि वह एतराज़ करते, लेकिन उन्होंने एतराज़ नहीं किया। इस प्रकार से साहित्य के कद को फिल्मी ग्लैमर के कद के सामने नीचा करने की कोशिश की गई है। हां,एक बात और, जिसे हमें सदी का महानायक बता रहे हैं, वह हिमानी नवरत्न तेल भी बेच रहा है। तरह-तरह की कंपनियों के तरह-तरह के उत्पादक भी बेच रहा है। उससे हम शह्रयार को भी जोड़ रहे हैं। यह तो सोचना चाहिए था, यदि फिल्मी कलाकारों से यह सम्मान दिलाना था तो बेहतर होता कि दिलीप कुमार से दिलाया जाता। यह तो मीडिया है, जिसे चाहे महानायक बना दे।