रविवार, 4 दिसंबर 2011

यूं शुरू हुआ नोबेल पुरस्कारों का चलन


------- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -------

किसी भी क्षेत्र में काम करने व्यक्ति को
यदि नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो यह उसके जीवन की सबसे बड़ी सफलता होगी। यह पुरस्कार अन्य पुरस्कारों के मुकाबले सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके शुरू होने की दास्तान भी बड़ी रोचक है। स्वीडन में जन्मे एक वैज्ञानिक ने एक विस्फोट पदार्थ बनाने की प्रणाली विकसित की, बाद में उसे एहसास हुआ कि उसके इस खोज का गलत इस्तेमाल होगा, इस उसे पश्चाताप हुआ और उसने अपनी सारी प्रॉपर्टी दान कर दी, आज उसी प्रॉपर्टी के ब्याज से मिले धन से नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। उस वैज्ञानिक का नाम अल्फ्रेड नोबेल है, जिनका जन्म 21 अक्तूबर 1783 को स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में हुआ था, बाद में उनके पिता रूस चले गए तो उसके साथ नोबेल भी रूस में रहे। 17 वर्ष की आयु तक नोबेल की शिक्षा निजी अध्यापकों द्वारा हुई। उसके बाद वे अध्ययन के लिए दो वर्ष तक अनेक देशों में गए, जिनमें अधिकांशा समय पेरिस में बीता। यहां उन्होंने एक निजी प्रयोगशाला में रसायन शास्त्र का अध्ययन किया। इसके बाद वे रूस लौटे।
वे एकांतवादी और शंात प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, लेकिन घूमना उनका प्रमुख शौक़ था। फ्रांस,इटली आदि देशों में घूमते रहे। कभी-कभी तो वे लंबे समय तक एकांतवास करते, लेकिन इसकी जानकारी उनके घनिष्ठ मित्रों को भी नहीं होती थी। अपनी लगातार घूमने की आदत के कारण वे स्वयं को यूरोप का सबसे बड़ा धनाढ्य आवारा कहते थे।
1860 के दशक में नोबेल ने एक शक्तिशाली लेकिन अस्थायी विस्फोटक नाइटृोग्लिसरीन, जो दूसरे पदार्थों के साथ स्थिरकारी था, विकसित किया। अंततः 1868 में नोबेल ने जिस विस्फोटक पदार्थ का पेटेंट कराया उसे ‘डायनामाइट’ नाम दिया। डायनमाइट, नाइटृोग्लिसरीन मुलायम अवशोषक रेत और केसरलगर का मिश्रण है। इसके बाद विकसित ‘ब्लास्टिंग जिलेटिन’ और अधिक शक्तिशाली विस्फोटक था। इस विस्फोटक से सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आए। अब इन विस्फोटकों का प्रयोग सड़कों, नहरों, और पुलों आदि के निर्माण के लिए चट्टानों आदि को तोड़ने में किया जाने लगा। इससे नोबेल का ध्यान सैन्य विस्फोटकों के निर्माण की ओर गया, जिसके निर्माण में उनको सफलता मिली और उन्होंने नाइटृोग्लिसरीन और गनकॉटन के साथ मिलकर बेलिटाइल नामक पदार्थ बनाया। इसी सफलता क कारण इनका औद्योगिक साम्राज्य इतनी तेजी से फैला किया नोबेल अंतरराष्टृीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हेा गए। अनेक देशों में उनकी कई कंपनियां और शाखाएं खुल गईं। लेकिन इस विस्फोटक पदार्थ का उपयोग मानवीय हानि के लिए किया जाने लगा। इसी कारण नोबेल को अपने इस खोज पर बहुत पछतावा हुआ, जिनकी खोज से उन्होंने बहुत धन कमाया। इसी कारण उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष के कुछ पहले 27 नवंबर 1895 को वसीयतनामा लिखा, जिसमें उन्होंने चार संस्थाओं के नाम सुझाएं थे, जिन्हें पुरस्कार योग्य व्यक्ति और उसके कार्य का चयन और पुरस्कार वितरण प्रक्रिया की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती थी। जो इस प्रकार है, पहली-रॉयल एकेडेमी ऑफ साइंस स्टॉकहोम-भौतिकी और रसायन शास्त्र के पुरस्कारों के लिए। दूसरी- कैरोलिन मेडिको सर्जिकल इंस्टीट्यूट शरीर क्रिया विज्ञान अथवा चिकित्सा विज्ञान के पुरस्कार के लिए। तीसरी-स्वीडिश एकेडेमी साहित्य मर्मज्ञ एवं लेखकों की संस्था साहित्य पुरस्कारों के लिए। नोबेेल ने 92 लाख पौंड की राशि इन पुरस्कारों के लिए छोड़ी थी। इस वसीयतनामा लिखने के एक वर्ष बाद 10 दिसंबर 1896 को नोबेल की मृत्यु हो गई। अपने वसीयतनामा में उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि मेरी संपूर्ण सपंत्ति को ऋण पत्रों के रूप् में जमा करवाकर उसके ब्याज से प्रतिवर्ष पांच विषयों भौतिकी, रसायन, चिकित्सा,साहित्य और शांति में उत्कृष्ठ और उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन व्यक्तियों को पुरस्कार दिया जाए, जिन्होंने पिछले वर्ष मानव समाज को महानता हित पहुंचाया हो। 1901 से इस पुरस्कार हुई, लेकिन 1901 के पुरसकार विजेताओं को पदक एक वर्ष बाद यानी 1902 में मिले। वर्ष 1969 से अर्थशास्त्र को भी पुरस्कार में शामिल कर लिया गया। प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में इन विषयों में पुरस्कार योग्य व्यक्ति की खोज शुरू हो जाती है और एक कमेटी सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों का चुनाव करती है। इसी सूची को पुरस्कार वितरण संस्थाओं के पास भेजा जाता है। ये संस्थाएं इन चयनित नामों में से एक अंतिम सूची बनाती है, जिनके नामों की घोषणा प्रत्येक वर्ष अक्तूबर अथवा नवंबर माह में की जाती है। पुरस्कार वितरण समारोह प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को अल्फ्रेड नोबेल की पुण्यतिथि के अवसर पर स्टॉकहोम, स्वीडन में संपन्न होता है, जबकि शांति पुरस्कार का वितरण नार्वे की राजधानी ओस्लो में किया जाता है। प्रत्येक नोबेल विजेता को एक पदक और एक लाख 25 हजार पौंड नकद धनराशि प्रदान की जाती है।

हिन्दी दैनिक जनवाणी में 4 दिसंबर 2011 को प्रकाशित

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