सोमवार, 31 दिसंबर 2018

वर्ष 2018 में ‘गुफ्तगू’ की गतिविधियां


गुफ्तगू का जनवरी-मार्च अंक ग़ज़ल विशेषांक था। जिसमें इक़बाल आज़र, डाॅ. इम्तियाज़ समर और खुर्शीद खैराड़ी का परिशिष्ट शामिल था।
अप्रैल-जून अंक महिला विशेषांक-3 था, जिसमें नीरजा मेहता और मीनाक्षी सुकुमारन का परिशिष्ट था।
जुलाई-सितंबर अंक में सीमा अपराजिता परिशिष्ट शामिल था।
अक्तूबर-दिसंबर अंक में डाॅ. ज़मीर अहसन और फ़रमूद इलाहाबादी का परिशिष्ट था।
तिथिवार वर्ष 2018 में गुफ्तगू के कार्यक्रम
28 फरवरी: गुफ्तगू के ग़ज़ल विशेषांक का विमोचन, बाल भारती स्कूल, सिविल लाइंस में।
29 अप्रैल: ‘गुफ्तगू साहित्य समारोह’ के अंतर्गत 11 महिला रचनाकारों को ‘सुभद्रा कुमारी चैहान सम्मान’ और 14 शायरों को बेकल उत्साही सम्मान प्रदान किया गया। गुफ्तगू पब्लिकेशन की 14 पुस्तकों का विमोचन । कार्यक्रम स्थल: हिन्दुस्तानी एकेडेमी।
इन्हें मिला ‘सुभद्रा कुमारी चैहान सम्मान’; नीरजा मेहता (ग़ाजियाबाद), मीनाक्षी सुकुमारन (नोएडा), डाॅ. ज्योति मिश्रा (बिलासपुर, छत्तीसगढ़), फ़ौज़िया अख़्तर (कोलकाता), डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी(इलाहाबाद), माधवी चैधरी (सिवान, बिहार),  कांति शुक्ला(भोपाल), डाॅ. श्वेता श्रीवास्तव(लखनउ), मंजू वर्मा (इलाहाबाद), डाॅ.ओरीना अदा(भोपाल), मंजु जौहरी (बिजनौर)
इन्हें मिला ‘बेकल उत्साही सम्मान’:   रामकृष्ण सहस्रबुद्धे (नाशिक), डाॅ. आनंद किशोर (दिल्ली), आर्य हरीश कोशलपुरी(अंबेडकरनगर), मुनीश तन्हा(हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश), अब्बास खान संगदिल(हर्रई जागीर, मध्य प्रदेश), डाॅ. इम्तियाज़ समर (कुशीनगर), मुकेश मधुर(अंबेडकरनगर), रामचंद्र राजा(बस्ती), शिवशरण बंधु (फतेहपुर), डाॅ. रवि आज़मी(आज़मगढ़), डाॅ. वारिस अंसारी (फतेहपुर), सुनील सोनी गुलजार (अंबेडकर नगर), ऋतंधरा मिश्रा (इलाहाबाद), डाॅ. विक्रम (इलाहाबाद), संपदा मिश्रा (इलाहाबाद)
17 जून 2018: उर्दू एकेडेमी उत्तर प्रदेश से एवार्ड पाने वाले आठ उर्दू साहित्यकारों का ‘गुफ्तगू’ द्वारा विशेष सम्मान, अदब घर करेली में। सम्मान पाने वाले: असरार गांधी, फ़ाज़िल हाशमी, शाइस्ता फ़ाखरी, जफरउल्लाह अंसारी, नौशाद कामरान, डाॅ. ताहिरा परवीन, सालेहा सिद्दीक़ी और रूझान पब्लिकेशन
15 जुलाई: ‘ग़ज़ल-गीत कार्यशाला’ का आयोजन, बाल भारती स्कूल सिविल लाइंस में।
09 सितंबर: गुफ्तगू के सीमा अपराजिता परिशिष्ट का विमोचन: बाल भारती स्कूल में।
25 नवंबर: ‘एक शाम एसएमए काज़मी के नाम’ कार्यक्रम का आयोजन: नौ लोगों को ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’। सम्मान पाने वाले: राम नरेश त्रिपाठी, डाॅ. आलोक मिश्र, डाॅ. अल्ताफ़ अहमद, शकील ग़ाज़ीपुरी, सरदार अजीत सिंह, आलोक निगम, सुषमा शर्मा, मनोज गुप्ता, अभिषेक शुक्ला

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

‘आंधा गांव’ का पूरा कलमकार: राही मासूम रज़ा

                                         - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान

RAHI MASOOM RAZA
 राही मासूम रजा का जन्म 1 सितंबर 1925 को ग़ाज़ीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडिएट के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से ‘एमए’ करने के बाद उर्दू में ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ पर पीएचडी किया। इसके बाद वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धांतों से समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्नशील रहे। 1968 से राही मुंबई में रहने लगे थे। रोजी रोटी का मसला था और लिखने का शौक भी। फिल्मों में लिख कर पैसा तो कमाया लेकिन सुकून तो लिखने में मिलता था। अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी स्क्रिप्ट लिखते थे। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने ’आधा गांव’, ‘दिल एक सादा कागज’, ‘ओस की बूंद’, हिम्मत जौनपुरी उपन्यास एवं 1965 ई० के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद की जीवनी और छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी ये सभी कृतियां हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य 1857 ई. जो बाद में हिन्दी में क्रांति कथा नाम से प्रकाशित हुआ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व ग़ज़लें भी लिखे चुके थे। आधा गांव, नीम का पेड़, कटरा बी आर्जू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन 75 उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। 
उन्होंने तकरीबन 300 फिल्में और 100 के आस पास सीरियल के स्क्रिप्ट लिखे। निम्नलिखित लेखन के विभिन्न शैलियों में उनके कार्यों की एक सूची है। उपन्यास आधा गाव (विभाजित गांव) दिल एक सादा कागज, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद कटरा बीआरजू दृश्य संख्या 75 कविता मौज-ए-भूत मौज-ए-साबा (उर्दू) अजनबी शहार अजनबी रास्त (उर्दू) मेन एक वन फालीवाला (हिंदी) शीशे के मकान वाले (हिंदी) आत्मकथा- चट्टानी आप की बडी कहानी (एक छोटा आदमी की बड़ी कहानी) मूवी और टीवी स्क्रिप्ट में नीम का पेड, टीवी सीरीयल में किसी से ना कहने, तुलसी तेरे आंगन की, डिस्को डांसर, महाभारत, मूवी संवाद ऐना, (1993) पैरापाद, (1992) लम्हे, (1991) नाचे माउरी, (1986) करज, (1980) जुदाई (1980), हम पान (1980) गोल मौल (1979), अलैप (1977), बात बन जाय (1986), अवम (1987), मूवी गीत- अलैप (1977) आदि है। 
गाजीपुर के गली कुचों रीती रिवाजों से परे, गंगौली का वीर सुपुत्र, गाजीपुर जिले की आन बान शान फिल्मों-धरवाईकों के लिए स्क्रिप्ट लिखने वाले राही मासूम रजा ने अपनी प्रचलित किताब आधा गांव पेज न०12 पर लिखते हैं- ‘नाम का ब्यक्तिव से कोई अटूट रिश्ता नही होता, क्योंकि ऐसा होता तो गाजीपुर बनकर गाजीपुरी को भी बदल जाना चाहिए था। गाजीपुर के लोग जिन शहरों में रहते है अपने अटूट छाप छोड़ देते है। 
 राही मासूम रजा ने करीब आधा दर्जन किताब लिखे जिन पर आधा गांव की लोकप्रियता भारी पड़ी और इसी उपन्यास को उनके सिग्नेचर उपन्यास के तौर पर देखा जाता है। राही के करीबी साथियों में एक पंजाबी साथी जो इंडो-पाक बटवारे में इंडिया चले आए थे, उस साथी का नाम राम लाल था जो एक बेहतरीन अफसाना नेगार थे और नॉर्थरन रेलवे में लखनऊ स्टेशन पर कार्यरत थे जिन्हें राही मासूम रजा अक्सर मिलने लखनऊ को आया करते थे। यदि सोचकर देखा जाए तो ताज्जुब होता है कि ये सारे आयाम और ये सारे काम किसी एक शख्स के है। उस करिश्माई शख्स के जिसकी बादशाही कलम ने उसे आज भी समूचे हिंदुस्तान में जीवित रखा है। जिसने जिस पर हाथ रखा वो कामयाबी की भाषा में सोना हो गई। राही मासूम रजा 15 मार्च 1992 को 64 साल की उम्र में अपना जादुई हुनर समेटे दुनिया से चले गए। आज हमारे बीच रही मासूम रजा भले न हों मगर उनकी कृतियां समाज को दिशा दे रही हैं। साहित्य के बुलन्द मकाम पर रही मासूम रजा उस रौशनी की तरह नुमाया हैं जो लोगों की रहबरी करता है। 
 (गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

साहित्य, वकालत और समाज मिलाकर बने थे काजमी

बाएं से: नरेश कुमार महरानी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, फ़रमूद इलाहाबादी,राम नरेश त्रिपाठी, सफ़दर अली काज़मी, यश मालवीय, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, उमेश नारायण शर्मा, रविनंदन सिंह, अतिया नूर, अनिल मानव और शिवाजी यादव
‘एक शाम एसएमए काज़मी के नाम’ का हुआ आयोजन
नौ लोगों को मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’
 काज़मी जैसा व्यक्तित्व इस शहर को फिर से मिलना लगभग नामुमकिन है। उन्होंने अपने जीवन में अधिकतर काम इंसानियत की भलाई के लिए किया है। उन्होंने अपने वकालत के पेशे में बहुत संघर्ष किया, बिल्कुल निचले पायदान से वकालत से शुरू की और महाधिवक्ता की पद तक को सुशोभित किया है। यह बात इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने ‘गुफ्तगू’ द्वारा 25 नवम्बर की शाम हिन्दुस्तानी एकेडेमी में आयोजित ‘एक शाम एसएमए काजमी के नाम’ कार्यक्रम के दौरान कही। मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि एसएमए काजमी की बहुत सारी स्मृतियां हैं, जिन्हें कभी भुलाई जा सकती। इस मौके पर नौ लोगों को ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’ प्रदान किया गया। साथ ही गुफ्तगू डाॅ. ज़मीर अहसन/फ़रमूद इलाहाबादी विशेषांक का विमोचन भी किया गया। 
पूर्व अपर महाधिवक्ता कमरूल हसन सिद्दीकी ने कहा कि काजमी साहब ने अपनी मेहनत और नेक नीयती से बुलंदी को छुआ था। वो हर इंसान के लिए मददगार थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने कहा कि जब काजमी साहब बहुत शुरूआती दौर में थे, तब से मेरे दोस्त थे, बाद में बहुत कामयाब हुए तो बहुत दोस्त हो गए, लेकिन वो सभी के सच्चे दोस्त थे। साहित्य, समाज, वकालत और बेहतरीन जेहन को मिला दिया जाए तो जो आदमी बनता है, वह एसएमए काजमी होता है।
गुफ्तगू केे अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि काजमी साहब ने हर किसी की मदद की है, उनकी कमी कभी पूरी नहीं की जा सकती।यश मालवीय ने कहा कि इलाहाबाद की गंगा-जमुनी तहजीब के जीते-जागते मिसाल थे। वकालत के पेशे से जुड़े होने साथ-साथ उन्होंने इंसानियत के लिए बेहरतीन काम किया है। उन्हें तमाम शायरों के बेशुमार अशआर याद थे। उनकी किसी कार्यक्रम में मौजूदगी ख़ास मायने रखती थी। सफ़दर अली काजमी, मुनेश्वर मिश्र, रविनंदन सिंह, सफ़दर अली काज़मी आदि ने भी काजमी साहब की खूबियां गिनाईं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। नरेश महरानी, प्रभाशंकर शर्मा, राम लखन चैरसिया, शिवपूजन सिंह, योगेंद्र कुमार मिश्रा, अनिल मानव, शिवाजी यादव, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, यश मालवीय, अख़्तर अज़ीज़, फ़रमूद इलाहाबादी, अतिया नूर, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, क़मर आब्दी, हसीन जिलानी, अर्चना जायसवाल, शैलेंद्र जय, राजकुमार चोपड़ा, आसिफ उस्मानी, अना इलाहाबादी, शाहिद इलाहाबादी आदि मौजूद रहे।
इन्हें मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’ 
राम नरेश त्रिपाठी (ज्योतिष एवं पत्रकारिता), डाॅ. आलोक मिश्र(चिकित्सा), डाॅ. अल्ताफ अहमद(चिकित्सा), शकील ग़ाज़ीपुरी(शायरी), सरदार अजीत सिंह(समाज सेवा), आलोक निगम(समाज सेवा), सुषमा शर्मा(रंगमंच), मनोज गुप्ता(गायन) और अभिषेक शुक्ला(शिक्षा)
वर्ष 2013 में इन्हें मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान
नारायण शर्मा, डाॅ. पीयूष दीक्षित, ई. अखिलेश सिंह, जीडी गौतम, मुकेश चंद्र केसरवानी,  सीआर यादव, धनंजय सिंह
वर्ष 2015 में इन्हें मिला
काॅमरेड ज़ियाउल हक़, प्रो. ओपी मालवीय, ज़फ़र बख़्त, डाॅ. देवराज सिंह, धर्मेंद्र श्रीवास्तव, प्रदीप तिवारी
वर्ष 2016 में इन्हें मिला
अख़लाक अहमद, मुनेश्वर मिश्र, अनिल तिवारी, गौरव कृष्ण बंसल, डाॅ. कृष्णा सिंह, डाॅ. रोहित चैबे, रमोला रूथ लाल, शिवा कोठारी


बुधवार, 21 नवंबर 2018

गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर: 2018 अंक में


3. संपादकीय: किसे कहते हैं साहित्य में योगदान
4. डाक: आपके ख़त
5-11. ग़ज़लें:  डाॅ. बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, मुनव्वर राणा, इब्राहीम अश्क, अरविंद असर, एजाज फ़ारूक़ी, क़ादिर हनफ़ी, इशरत मोइन सीमा, शिवशरण बंधु हथगामी, डाॅ. सादिक़ देवबंदी, आर्य हरीश कोशलपुरी, राजेंद्र स्वर्णकार, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, अंजू सिंह ‘गेसू’, डाॅ. कविता विकास, रियाज़ कलवारी इटावी, सुमन ढीगरा दुग्गल, संगीता चैहान विष्ट, चारु अग्रवाल ‘गुंजन’, भकत ‘भवानी’, रमा प्रवीर वर्मा, डाॅ. लक्ष्मी नारायण बुनकर, संजीव गौतम, डाॅ. रंजीता समृद्धि, अनिल मानव, सुमन सिंह, पीयूष मिश्र ‘पीयूष’, यासीन अंसारी
12-17. कविताएं: कैलाश गौतम, यशपाल सिंह, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, दीप्ति शर्मा, चांदनी सेठी, योगेंद्र कुमार मिश्र ‘विश्वबंधु’, रचना सक्सेना वंदना पांडेय, शकीला सहर, इति शिवहरे, प्रदीप बहराइची, नीतू गुप्ता, रुचि श्रीवास्तव, डाॅ. नीलम रावत, जयति जैन ‘नूतन’
18-22. इंटरव्यू: नीलकांत
23-25. चौपाल: पठनीयता का संकट कैसे दूर करें ?
26. विशेष लेख: एक गरीब और छोटे आदमी की शहादत - जैनुल आबेदीन ख़ान
27-32. तब्सेरा: सिसकियां, हुस्ने बयां, खुश्बू द्वारे-द्वारे, अक़ाब, जयपुर प्रीत की बाहों में, रक्तबीज आदमी है, अल्लामा, सूरज डूब गया
33-34. तआरुफ: निधि चैधरी
37-40. अदबी ख़बरें
41. गुलशन-ए-इलाहाबाद: राम नेरश त्रिपाठी
42-43. ग़ाज़ीपुर के वीर-4: राही मासूम रज़ा
44-75. परिशिष्ट-1: डाॅ. ज़मीर अहसन
44. डाॅ. ज़मीर अहसन का परिचय
45-46. ग़ज़ल का मिज़ाज दां और रम्ज आशना - प्रो. अली अहमद फ़ातमी
47-48. सरापा शायरी थे डाॅ. ज़मीर अहसन - यश मालवीय
49-51. दुनिया वालों की हर राह गुजर से दूर चले- अतिया नूर
52. बावक़ार इंसान थे डाॅ. ज़मीर अहसन- इक़बाल अशहर
53-74. डाॅ. ज़मीर अहसन की ग़ज़लें
75-104. परिशिष्ट -2: फ़रमूद इलाहाबादी
75. फ़रमूद इलाहाबादी का परिचय
76-77. फ़रमूद के ख़ज़ाने में नगीनों का भंडार - शिवाशंकर पांडेय
78-79. समाज के हर पहलू पर करारा व्यंग्य - सायरा भारती
80. हास्य-व्यंग्य के माध्यम से समाज का कटु सत्य - प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम्’
81-104. फ़रमूद इलाहाबादी की ग़ज़लें


रविवार, 28 अक्तूबर 2018

आलोचना का बुरा दौर चल रहा है

     
डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (दाएं) से बात करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार, संपादक, विचारक और शिक्षक हैं। वर्ष 1978 से वे गोरखपुर से साहित्यिक पत्रिका ‘दस्तावेज’ निकाल रहे हैं। दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया तथा हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। वे साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष रहे हैं। अपने समृद्ध रचना संसार के अंतर्गत आखर अनंत, फिर भी कुछ रह जाएगा, साथ चलते हुए, चीज़ों को देखकर, शब्द और शताब्दी उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। प्रमुख अलोचना में समकालीन हिन्दी कविता, रचना के सरोकार, आधुनिक हिन्दी कविता, गद्य के प्रतिमान, कविता क्या है, आलोचना के हाशिए पर, छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य, नए साहित्य का तर्क शास्त्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि सम्मिलित हैं। एक नाव यात्री संस्मरण एवं आत्म की धरती और अंतहीन आकाश उनके यात्रा संस्मरण हैं। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, पुश्किन पुरस्कार, व्यास सम्मान, सरस्वती सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, हिन्दी गौरव सम्मान, सहित कई पुरस्कार मिले हैं। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने पिछले दिनों उनसे विस्तृत बातचीत की। फोटोग्राफी सुधीर हिलसायन ने की।
सवाल: अपने जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म 1940 ई. में गोरखपुर जनपद (अब कुशीनगर जनपद) के एक गांव रायपुर भैंसही (भेड़िहारी) में हुआ। परिवार एक सम्पन्न किसान परिवार माना जाएगा क्योंकि अपनी जरूरतें पूरी करने में सक्षम था। लेकिन परिवार में किसी ने प्राइमरी स्कूल से आगे की शिक्षा नहीं पाई थी। परिवार आस्तिक और माता-पिता शाकाहारी। पांच भाई, दो बहनें। मैं भाइयों में सबसे बड़ा हूं। परिवार का एक मात्र आश्रय खेती थी। गांव अत्यन्त पिछड़ा और आधुनिक सुविधाओं से दूर है। मेरा गांव गोरखपुर शहर से लगभग 70 किलोमीटर ईशान कोण पर स्थित है।

सवाल: आप स्वयं को ज्यादा संतुष्ट किस रूप में पाते हैं, कवि के रूप में या आलोचक के?
जवाब: रचनात्मक लेखन में ही अपने को ज्यादा संतुष्ट पाता हूं, वह चाहे कविता हो या गद्य की कोई सर्जनात्मक विधा। जैसे संस्मरण, यात्रा संस्मरण, डायरी या आत्मकथात्मक कुछ। कभी-कभी कुछ सैद्धान्तिक आलोचनात्मक लेखों से भी पर्याप्त संतोष मिलता है।

सवाल: आप कवि के साथ हीएक आलोचक भी हैं। एक कवि सहृदय होता है और एक आलोचक को अपना कर्म निभाने के लिए प्रायः कठोर भी होना पड़ता है। आपकी रचनाधर्मिता इन विरूद्धों में सामंजस्य कैसे बैठा पाती है?
जवाब: कवि और आलेचक दोनों का सहृदय होना जरूरी है, दोनों का कठोर होना भी आवश्यक है। टी. एस. इलिएट जो कवि और आलेचक दोनांे ही थे, ने कविता और आलोचना दोनों को समान महत्व दिया है। कविता में आलोचना के गुण और आलोचना में कविता के गुण दोनों को श्रेष्ठ बनाते हैं। कविता न तो निरी भावुक होनी चाहिए न आलोचना शुष्क और नीरस।

सवाल: आपकी राय में क्या आज भी समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की सक्रिय भूमिका है या फिर साहित्य मात्र कुछ विद्वत वर्गों की चर्चा-परिचर्चा का ही विषय मात्र रह गया है?
जवाब: समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की भूमिका आज कम ज़रूर हो गई है, लेकिन अब भी उसे एकदम निष्प्रभावी नहीं कहा जा सकता। आज विज्ञान और यांत्रिक माध्यम ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हो गये हैं तथा इनका तात्कालिक प्रभाव भी ज्यादा है पर साहित्य का असर जहां पड़ता है ज्यादा स्थायी होता है।


सवाल: पीछे जाने माने कन्नड़ विद्वान एम. एम. कलबुर्गी की हत्या और दादरी कांड के बाद जिस तरह का माहौल देश में बना और असहिष्णुता के मुद्दे को लेकर देश के कई साहित्यकारों ने साहित्य अकेदेमी अवार्ड लौटाए। क्या आप एक साहित्यकार होने के नाते इस घटना से आहत हुए और अकेदेमी के अध्यक्ष होने के नाते आपके सामने क्या चुनौतियां थीं?
जवाब: प्रो. कलबुर्गी की हत्या एवं दादरी कांड दोनो ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं थीं जिनकी जितनी निंदा की जाय, कम है। लेखकों-बुद्धिजीवियों का आक्रोश और विरोध स्वाभाविक था। पर इस विरोध ने जिस तरह का माहौल बनाया उसमें भी राजनीति थी और उसे देश की जनता तथा स्वयं बुद्धिजीवियों ने समझ लिया। अकादमी अध्यक्ष होने के नाते मुझे उस माहौल में अकादमी को बचाने की चिन्ता थी। अकादमी का उसमें कोई दोष नहीं था। अकादमी का कार्य क्षेत्र साहित्य है, देश में शान्ति-व्यवस्था कायम रखना सरकारों की जिम्मेदारी है।
सवाल: आप विगत कई वर्षाें से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दस्तावेज़’ का सम्पादन कर रहे हैं। कृपया पत्रिका की एक संक्षिप्त यात्रा और उसके विशेषांकों के बारे में हमारे पाठकों को बताएं।
जवाब: ‘दस्तावेज़’ पत्रिका की शुरूआत 1978 में हुई थी। लगभग 40 वर्षाें से वह नियमित निकल रही है। उसने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर बहुत मूल्यवान सामग्री प्रकाशित की है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक विशेषांक प्रकाशित किये हैं जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। दस्तावेज़ किसी राजनीतिक-साहित्यिक संगठन की पत्रिका नहीं रही, न चर्चित होना या हंगामा खड़ा करना उसका लक्ष्य रहा। साहित्यिक गुटबंदियों से दूर सभी प्रकार के लेखकों को साथ लेकर वह चलती रही और मुझे प्रसन्नता है कि सभी प्रकार के लेखकों का उसे सहयोग भी मिला।
सवाल: साहित्य की किस विधा को आप अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ और सक्षम माध्यम मानते हैं?
जवाब:  जहां तक लेखक का पक्ष है, भाव और विचार स्वयं उसके भीतर से अपनी विधा लेकर प्रकट होते हैं। एक लम्बे समय तक कविता अभिव्यक्ति की विधा रही है और उसका व्यापक प्रभाव भी रहा है तथा आज भी है। जब से गद्य का विकास हुआ अनेक विधाओं में रचनात्मक अभिव्यक्तियां हुईं। महत्व विधा का नहीं कृति का है। जिस भी विधा में श्रेष्ठ कृति होगी, उसका प्रभाव पड़ेगा। हर विधा में कमजोर कृतियां होती हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि आज गद्य ही लोकप्रिय माध्यम है और उसकी विधाओं के पाठक भी अधिक हैं। अतः यह भी कहा जा सकता है कि गद्य-विधाएं ज्यादा प्रभावी हैं आजकल कथेतर विधाएं (जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त आदि) ज्यादा पढ़ी जा रही हैं।
सवाल: आपकी दृष्टि में आलेचना का गुण-धर्म क्या है?
जवाब: आलोचना का अर्थ ही है ‘देखना’। यह ‘देखना’ बहुत मुश्किल काम है। यदि आप राग, द्वेष या काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर के वशीभूत हैं तो सही और तटस्थ होकर देख नहीं सकते। किसी चीज को उसके प्रकृत रूप में देखने के लिए देखने वाले को स्वयं को प्रकृतस्थ करना पड़ता है। आलोचना का सबसे बड़ा गुण है कृति को उसके वास्तविक रूप में देखना। यही आलोचना का धर्म भी है।
सवाल: हिन्दी जगत में अब यह बात प्रायः उठने लगी है कि हिन्दी आलोचना का एक बुरा दौर अभी चल रहा है, कोई भी नया नाम उल्लेखनीय नहीं है, आपका क्या मानना है?
जवाब: आपका कहना सही है कि आलोचना का बुरा दौर चल रहा है। हमारे समय में आलेचना अविश्वसनीय हो गई है। यह तो किसी कृति की अतिप्रशंसा की जाती है या निन्दा। संतुलित आलोचना, जिसमें कृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाय और उसके सामथ्र्य तथा सीमा को उद्घाटित किया जाय, कम देखने को मिलती है। इसमंे स्वयं रचनाकारों का भी दोष कम नहीं है। वे हमेशा अपनी कृति की प्रशंसा ही पढ़ना चाहते हैं तथा उस पर उपने मित्रों से ही लिखवाना चाहते हैं।

सवाल: आपने दुनिया के कई देशों की यात्राएं की हैं। विदेशों में आप भारतीय साहित्य और खासकर हिन्दी की क्या स्थिति पाते हैं?
जवाब: विदेशों में भारतीय साहित्य और हिन्दी की स्थिति सामान्य ही कही जा सकती है। भारतीय साहित्य, विदेशों में, एक समय में काफी महत्वपूर्ण रहा। खास कर संस्कृत साहित्य। आज भी विदेशी विद्वान भारत के क्लासिक साहित्य (कालजयी रचनाओं) का अनुवाद करने में दिलचस्पी रखते हैं। समकालीन साहित्य का पठन-पाठन भी होता है पर उसे वह महत्व प्राप्त नहीं है। विदेशों के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है और पढ़ने वाले छात्र भी हंै। अतः हिन्दी की हालत ठीक कही जा सकती है। अन्य भाषाओं की स्थिति हिन्दी जैसी नहीं है।

सवाल: आपकी कविता की एक पंक्ति है- ‘‘हमें उत्तराधिकार में नहीं चाहिए पुस्तकें, आजकल साहित्यिक पुस्तकों के लिए पाठकों का संकट है, प्रकाशकों की भी अपनी समस्याएं हैं, आपका इस बारे में क्या कहना है?
जवाब: पुस्तकों पर संकट तो है, इसमें कोई संदेह नहीं। यांत्रिक माध्यमों ने इस संकट को और गहरा किया है। हमारी युवा पीढ़ी सब कुछ मोबाइल पर इंटरनेट के सहारे पढ़ना चाहती है। पुस्तकों के प्रकाशन की भी समस्याएं हैं। कुछ पापुलर साहित्य बहुत बिक रहा है और अधिकांश साहित्य के पाठक नहीं हैं। यह स्थिति सभी भाषाओं में है। अंग्रेजी भाषा का आक्रमण भी एक बड़ा संकट है। हमारी युवा पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम में पली-बढ़ी है। वह अपनी मातृ भाषा में नहीं, अंग्रेजी में पढ़ना चाहती है। लेकिन फिर भी पुस्तकों का महत्व रहेगा। सभी भाषाओं में जो श्रेष्ठ साहित्य छप रहा है, वह अंततः पढ़ा तो जायेगा ही।

सवाल: साहित्य और पत्रकारिता का गहरा संबंध रहा है किन्तु आजकल पत्रकारिता में साहित्य हाशिए पर चला गया है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
जवाब: आपका कहना सही है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग में साहित्य और पत्रकारिता में कोई विशेष अन्तर नहीं था। जो साहित्यकार थे वे पत्रकार भी थे। हिन्दी के सभी बड़े पत्रकार साहित्यकार भी रहे हैं। मगर आज पत्रकारिता में साहित्य गायब है। यह मुनाफा कमाने की संस्कृति और बाजार के दबाव के कारण है। आज साहित्य से ज्यादा उपयोगी है विज्ञापन।

सवाल: दलित लेखन और स्त्री लेखन के संदर्भ में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब: इस संबंध में मैं अन्यत्र भी लिख चुका हूं। स्वानुभूति का दायरा सीमित होता है, सहानुभूति का व्यापक। स्वानुभूति से रचना में प्रामाणिकता आती है, इसमें संदेह नहीं। दलित और स्त्री आत्मकथाएं इसकी प्रमाण हैं। पर एक बडे़ लेखक को किसी बड़ी रचना, जैसे उपन्यास या प्रबंध काव्य के लिए, सैकड़ों चरित्रों की सृष्टि करनी पड़ती है और उन सबको अपनी सह अनुभूति से ही खड़ा करना पड़ता है। परकाय प्रवेश लेखक की विशिष्ट शक्ति है। यदि किसी लेखक में यह क्षमता नहीं है तो वह कोई बड़ी रचना नहीं कर सकता। बिना इस शक्ति के कोई लेखिका किसी स्त्री या कोई दलित किसी दलित चरित्र का भी चित्रण नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त लेखक में भाषा की सर्जनात्मक शक्ति होती है। अगर यह नहीं है तो उसकी रचना समर्थ नहीं होगी। स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस साहित्य के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )
                   

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

नज़ीर हुसैन ने की भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत

                                                 

                         
nazeer hussain
                                                                            -मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                               
आजाद हिंद फ़ौज़ के जाबाज़ सिपाही और भोजपुरी फिल्म के पितामह कहे जाने वाले कुशल निर्माता और निर्देशक नजीर हुसैन का जन्म 15 मई 1922 को उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर जिले के उसिया गांव मे हुआ था। इनके पिता का नाम साहबजाद खान रेलवे में गार्ड थे और माता रसूलन बीबी जो एक धार्मिक गृहिणी थीं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मकतब में प्रारंभ हुई और आगे की पढ़ाई लखनऊ में। नज़ीर हुसैन ने 400 से अधिक फिल्मों में काम किया। इससे पहले उन्होने कुछ समय के लिए ब्रिटिश सेना में काम किया, जहां पर नेता सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव में आकर भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) में बिमल रॉय बोस के साथ शामिल हो गए, कुछ दिनों तक जेल में रहे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया गया था। 16 फरवरी 1961 भोजपुरी सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक दिन है, इसी दिन पटना के शहीद स्मारक में भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ का मूहूर्त समारोह हुआ और उसके अगली सुबह से इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई, इसी के साथ भोजपुरी फिल्मों के निर्माण का काम शुरू हुआ। नज़ीर हुसैन को भोजपुरी फिल्म बनाने की प्रेरणा उनको देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से मिली थी। राजेंदर बाबू के सामने जब नजीर साहब ने अपनी इच्छा प्रकट की तो उन्होंने कहा आपकी बात तो बहुत अच्छी है लेकिन इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। इसके बाद उसने उन्होंने एक बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखी जिसका नाम रखा ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ और फिर वक़्त की रफ्तार के साथ निर्माता ढूंढने की उनकी कोशिश अनवरत जारी रही। उनके इस काम में नज़ीर साहब के हमसफ़र बने निर्माता के रूप में विश्वनाथ शाहाबादी, निर्देशक के रूप में कुंदन कुमार। इस फिल्म के हीरो असीम कुमार और हिरोइन कुमकुम थीं। ये क़ाफ़िला जब आगे बढ़ा तो इसमें रामायण तिवारी, पद्मा खन्ना, पटेल और भगवान सिन्हा जैसी शख़्सियतें भी शामिल हो गईं। गीत का जिम्मा शैलेन्द्र ने उठाया तो संगीत के जिम्मेदारी ली चित्रगुप्त जी ने। फिर क्या था, फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनी और 1962 में रिलीज हुई। नतीजा ये कि गांव तो गांव शहर के लोग भी इस भोजपुरी फिल्म को देखने में खाना-पीना भूल गए। जो वितरक इस फिल्म को लेने से ना-नुकुर कर रहे थे अब दांतो तले अंगुली काटने लगे थे। पांच लाख की पूंजी से बनी इस फिल्म ने लगभग 75 लाख रुपए का व्यवसाय किया। इसे देखकर कुछ व्यवसायी  भोजपुरी फिल्म को सोना के अंडे देने वाली मुर्गी समझने लगे। नतीजा ये निकला कि भोजपुरी फिल्म निर्माण का जो पहला दौर 1961 से शुरू हुआ वो 1967 तक चल पड़ा। इस दौर में दर्जनों फिल्में बनीं, लेकिन ‘लागी नाहीं छूटे राम’ और ‘विदेसिया’ को छोड़ कर कोई भी फिल्म अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। एक दशक की चुप्पी 1967 के बाद दस साल तक भोजपुरी फिल्म निर्माण का सिलसिला ठप रहा। सन 1977  में विदेसिया के निर्माता बच्चू भाई साह ने इस चुप्पी को तोड़ने का ज़ोखि़म उठाया। उन्होंने सुजीत कुमार और मिस इंडिया प्रेमा नारायण को लेकर पहली रंगीन भोजपुरी फिल्म ‘दंगल’ का निर्माण किया। नदीम-श्रवण के मधुर संगीत से सजी ‘दंगल’ व्यवसाय के दंगल में भी बाजी मार ले गई। भोजपुरी फिल्म के इस धमाकेदार शुरुआत के बावजूद दस साल 1967 से 1977 तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण लगभग बंद रहा। भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की ये हालत भोजपुरिया संस्कार और संस्कृति की भोथर चाकू से हत्या करने वाले फिल्मकारों के चलते हुई। सन् 1967 से 1977 के अंतराल में जगमोहन मट्टू ने एक फिल्म ‘मितवा’ भी बनाई, जो कि 1970 में उत्तर प्रदेश और 1972 में बिहार में प्रदर्शित की गई। इस तरह से ये फिल्म पहले और दूसरे दौर के बीच की एक कड़ी थी। भोजपुरी फिल्म का सुनहरा दौर 1977 में प्रदर्शित ‘दंगल’ की कामयाबी ने एकबार फिर नज़ीर हुसैन को उत्प्रेरित कर दिया। जिसके बाद उन्होंने राकेश पाण्डेय और पद्मा खन्ना को शीर्ष भूमिका में लेकर ‘बलम परदेसिया’ का निर्माण किया। अनजान और चित्रगुप्त के खनखनाते गीत-संगीत से सुसज्जित ‘बलम परदेसिया’ रजत जयंती मनाने में सफल हुई। तब इस सफलता से अनुप्राणित होकर भोजपुरी फिल्म के तिलस्मी आकाश में निर्माता अशोक चंद जैन का धमाकेदार अवतरण हुआ और उनकी फिल्म ‘धरती मइया’ और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ ने हीरक जयंती मनाई। भोजपुरी फिल्म निर्माण का ये दूसरा दौर 1977 से 1982 तक चला। सन् 1983 में 11 फिल्में बनीं जिनमें मोहन जी प्रसाद की ‘हमार भौजी’, 1984 में नौ फिल्में बनीं जिसमें राज कटारिया की ‘भैया दूज’, 1985 में 6 फिल्में बनीं जिनमें लाल जी गुप्त की ‘नैहर के चुनरी’ और मुक्ति नारायण पाठक की ‘पिया के गांव’, इसके अलावा 1986 में 19 फिल्में बनीं जिनमें रानी श्री की ‘दूल्हा गंगा पार के’ हिट रही, जिन्होंने भोजपुरी फिल्म व्यवसाय को खूब आगे बढ़ाया जो सभी फिल्मे बिहार में प्रदर्शित की गई थी। वह स्पोर्ट्स के साथ-साथ बेहतरीन समाज सेवक रहे, नज़ीर हुसैन का अपने पैतृक गांव उसियां एवं ‘कमसारोबार’ क्षेत्र से शुरू से ही अच्छा जुड़ाव रहा, इसलिए वो अपनी कई सारी फिल्मों की शूटिंग भी अपने क्षेत्रीय इलाको में की। आखिरकार, 25 जनवरी 1984 को अचानक उनकी मृत्यु मुंबई में हो गई। 
           ( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित )

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

आज भी सक्रिय हैं पत्रकार वीएस दत्ता

VS DUTTA



                                                    -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 लगभग नौ दशक पहले वीएस दत्ता का जन्म पंजाब के उस हिस्से में हुआ, जो आज पाकिस्तान में है। आपके पिता श्री एन.एस. दत्ता एयरलाइंस में थे, माता श्रीमती कृष्ण कुमारी दत्ता कुशल गृहणि थीं। पांच भाई और दो बहनों में आप चाथे नंबर पर हैं। आज इनकी एक बहन अमेरिकी में अपने परिवार के साथ रहती, एक भाई दिल्ली में रहते हैं। वीएस दत्ता की प्रारंभिक शिक्षा कराची के सेंट पैट्रिक हाईस्कूल में हुई, इसी स्कूल से पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवानी ने भी शिक्षा हासिल की थी। कराची से आपके पिताजी का तबादला ग्वालियर हुआ तो यहां आ गए। तब उर्दू की पढ़ाई करते थे, ग्वालियर आकर एक प्राइवेट ट्यूटर से हिन्दी पढ़ी, सीखी। ग्वालियर से पिताजी का तबादला इलाहाबाद होने पर यहां आकर सेंट जोसेफ में पढ़ाई की, फिर यहां जीआईसी और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर इकोनामिक्स से एमए किया। छात्र जीवन से ही लेखन के प्रति रूझान था, सबसे पहले ‘संपादक के नाम पत्र’ लिखना शुरू किया, पहला पत्र ‘पत्रिका’ में छपा।
पढ़ाई पूरी करने के बाद सन 1962 ई. में पत्रकारिता में प्रवेश किया। अंग्रेज़ी अख़बार ‘लीडर’ में पत्रकार की नौकरी के लिए लिखित परीक्षा ली गई, परीक्षा पास करने के बाद 162 रुपये प्रति माह पर नौकरी मिल गई। 1967 में लीडर अख़बार बंद हो गया, बेरोजगारी का दंश झेलते हुए कुछ दिन जीप फैक्ट्री में नौकरी की। 1973 में एनआईपी ज्वाईन किया। तब से एनआईपी में ही नौकरी करते है, हालांकि बीच-बीच में कई बार एनआईपी बंद होता रहा है। इसके साथ ही दत्ता साहब युनाइटेड भारत अख़बार में संपादकीय लिखते हैं। इनका पुत्र युनाइटेड कालेज में कंप्यूटर पढ़ाता है।
आज की पत्रकारिता के बार में श्री दत्ता का कहना है कि पहले पत्रकार आर्थिक तौर पर बहुत अधिक परेशान होते थे, लेकिन बिकते नहीं थे। आज गिफ्ट और डीनर के बिना रिर्पोटिंग नहीं होती। पहले अख़बारों में ‘संपादक के नाम पत्र’ में भी कोई शिकायत छप जाती थी तो उस पर प्रशासन चैकन्ना हो जाता था, उस पर कार्रवाई हो जाती थी, आज लीड ख़बर बनने पर भी कार्रवाई नहीं होती। तब के पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में यह फ़र्क़ आ गया है।
(गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

अपराजिता में थी अपार संभावनाएं: राम नरेश त्रिपाठी


   
सीमा वर्मा ‘अपराजिता’ अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद। सीमा वर्मा अपराजिता की कविताओं को पढ़ने के बाद बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि उसमें अपार संभावाएं थीं, लेकिन समय के काल ने उसे 27 वर्ष की आयु में ही हमसे छीन लिया है। उसकी कविताओं को ‘गुफ्तगू’ ने परिशिष्ट में रूप में प्रकाशित करते बहुत ही सराहनीय काम किया है, ऐसे की कामों की वजह से साहित्य की दुनिया में गुफ्तगू की अलग पहचान है। यह बात 09 सितंबर 2018 की शाम सिविल लाइंस स्थित बाल भारती स्कूल में साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के सीमा वर्मा अपराजिता अंक के विमोचन के अवसर पर मुख्य अतिथि प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और पत्रकार पं. राम नरेश त्रिपाठी ने कही। श्री त्रिपाठी ने कहा कि सीमा की रचनाएं बताती हैं कि उसके अंदर कितनी गहराई थी, अल्प आयु में ही उसने जीवन के सच पहचान लिया था, आसाध्य रोग से पीड़ित होने के बावजूद उसने कभी हार नहीं माना।
 गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि अपराजिता करीब तीन साल पहले अपनी कविताएं लेकर पत्रिका में छपवाने के लिए आई थी, तब उसमें कविता के प्रति काफी लगाव दिखा था, उसकी कविताओं को बराबर गुफ्तगू को स्थान दिया गया, मगर यह नहीं पता था कि ईश्वर उसे अल्प आयु में ही अपने पास बुला लेगा, मगर वह हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेगी। अपराजिता के भाई देवेंद्र्र प्रताप वर्मा ने कहा कि मेरी छोटी बहन अपराजिता मेरी बहन, मित्र और सहपाठी भी थी, उसके निधन ने पूरे परिवार को तोड़ दिया है, मगर उसकी लेखनी को गुफ्तगू ने प्रकाशित करके एक तरह से अमर कर दिया है।
 सामाजिक कार्यकर्ता उमैर जलाल ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ के निरंतर बढ़ते कदम साहित्य के लिए बेहद खास बात है, इसमें तमाम नये लोगों को अवसर मिलता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे शकील ग़ाज़ीपुरी ने कहा पिछले 15 साल से गुफ्तगू पत्रिका के निरंतर प्रकाशन ने अपने आप में एक इतिहास बनाया है। निरंतर मेहनत और समर्पण् ने गुफ्तगू को एक कामयाब पत्रिका के रूप में स्थापित किया है, इस अंक में सीमा अपराजिता को विशेष रूप में प्रकाशित करके ‘गुफ्तगू’ ने एक और बड़ा काम किया है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।
दूसरे दौर में मुशायरे  का आयोजन किया गया। जिसमें नरेश कुमार महरानी, प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, शिवाजी यादव ‘सारंग’, शिवपूजन सिंह, शैलेंद्र जय, जमादार धीरज, बुद्धिसेन शर्मा, भोलानाथ कुशवाहा, फरमूद इलाहाबादी, रचना सक्सेना, संपदा मिश्रा, राम लखन चैरसिया, नूतन द्विवेदी, विवेक विक्रम सिंह, शिबली सना, वाक़िफ़ अंसारी, डाॅ. नईम साहिल, अना इलाहाबादी, सुनील दानिश, कविता पाठक नारायणी, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, कविता उपाध्याय, उर्वशी उपाध्याय, सांभवी, अजीत शर्मा ‘आकाश’, नंदिता एकांकी, इरशाद खान, शाहिद इलाहाबादी, रंजीता समृद्धि आदि ने कलाम पेश किया।                                       
                   


गुरुवार, 23 अगस्त 2018

स्त्री विमर्श अपनी पटरी से उतर चुका हैः चित्रा




चित्रा मुद्गल से इंटरव्यू के दौरान बात करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

चित्रा मुद्गल सुप्रसिद्ध हिंदी कथा लेखिका हैं। एक जमीन अपनी, आवां, गिलिगुड, नालासोपारा पो.बा.न. 203 उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। भूख, लाक्षागृह, जहर ठहरा हुआ, अपनी वापसी, इस ध्यान में, जिनावर, लपटें, ग्यारह लंबी कहानियां, जगदंबा बाबू गांव आ रहे हैं, केंचुल, मामला आगे बढ़ेगा आदि उनके प्रकाशित कहानी संग्रह हैं। उन्होंने कई लघुकथाएं, कथात्मक रिपोर्ताज, बाल उपन्यास और नाट्य रूपान्तरण भी रचे हैं। वे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकीं हैं, जिसमें व्यास सम्मान, इंदु शर्मा कथा सम्मान, साहित्य भूषण और वीर सिंह देव सम्मान शामिल हैं। बहुत ही मृदुल और सरल स्वभाव की धनी चित्रा जी ने अपने पचहत्तरवें वर्ष में सबसे पहला साक्षात्कार सिर्फ़ ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के लिए दिया है। इस साक्षात्कार में पहली बार उन्होंने कुछ ऐसे तथ्यों को प्रकट किया है, जो इससे पहले उन्होंने किसी साक्षात्कार में उद्घाटित नहीं किए। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव और प्रियंका प्रिया ने उनके आवास पर 1 अप्रैल 2018 को उनका साक्षात्कार लिया। 

सवाल: अपने जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ? 
जवाब: उन्नाव से 70 कि. मी. दूर ग्राम-निहालीखेड़ा मेरा पैतृक गांव है। मेरा जन्म 10 दिसम्बर 1943 को चेन्नई में हुआ। मेरे पिता बहुत बड़े नेवल अधिकारी थे। मेरा पालन पोषण चेन्नई में हुआ। मेरे बाबा (दादा) डाक्टर थे। मैं एक बहुत बड़े जमींदार खानदान की पोती थी। पौने चार वर्ष में बिले पार्ले, मंुबई में मैंने पहली कक्षा में दाखिल लिया था। ठीक उसके बाद हम सपरिवार गांव आ गए। मेरे दो बड़े भाई कुंवर कमलेश बहादुर सिंह, कंुवर कृष्ण प्रताप सिंह और एक छोटी बहन केशा सिंह हैं। जमींदार खानदानों में लडकियों के प्रति सावधानी और सतर्कता के चलते यह जाना कि लड़की और लड़के में क्या फ़र्क़ होता है। हमारे लिए यह अनुमति नहीं थी कि हम अपने घर के मुख्य द्वार से बाहर निकल सकें। ऐसे सामंती परिवेश में मैंने यह भी जानने की कोशिश की कि मुझमें और गांव की अन्य लड़कियों में इतना फ़र्क़ क्यों है? मुझे समाज की विसंगतियों से असंतेाष भी होता था, जब मैं मां से पूछती तो वे चुप रहने के लिए कहतीं थी। घर के प्रतिबंधों ने मेरे अंदर आक्रोश उत्पन्न किया। जब मेरे अध्यापक ने मुझसे मेरी पसंदीदा कहानी पंूछी तो मंैने ‘ठाकुर का कंुआ’ बताई क्योंकि कहीं न कहीं मैं इस भेदभाव के प्रति संवेदनशील होकर सोचती थी। बचपन में जो चीज मुझे चुभती थी, वे कहीं मेरी स्मृति में दर्ज हो गईं।

सवालः ऐसा लगता है कि स्त्री विमर्श अब देह विमर्श में बदल गया है, क्या आपको लगता है कि स्त्रियों की वास्तविक समस्याएं साहित्य में प्रतिबिंबित हो रही है?
जवाबः मुझे वास्तव में ऐसा लगता है कि स्त्री विमर्श अपनी पटरी से उतर चुका है। जिस समय स्त्री विमर्श को लेकर कोई चर्चा नहीं थी, उसे मुद्दा या आंदोलन नहीं बनाया गया था, तब भी स़्त्री को अपने वस्तु के रूप में पहचाने जाने से इंकार था। उसकी लड़ाई यही थी कि उसे एक वस्तु के रूप में देखा गया। वस्तु जिसे पितृसत्ता ब्याह कर अपने घर के आंगन की चाहरदीवारी में सुरक्षा, विरासत, संस्कृति आदि के नाम पर बंद कर दिया करती थी। स्त्रियों का मानसिक अनुकूलन इस प्रकार बनाया गया कि जिस स्त्री के पास सोने-चांदी के आभूषण हैं, वह बहुत सौभाग्यशाली है। इस शाश्वत सत्य को महत्व नहीं दिया गया कि स्त्री अपनी काया में एक वस्तु नहीं हैं अपितु वह अति संवेदनशील, विचारशील मानवी है। 70  के आसपास भारत की बेटी रीता फाड़िया को मिस वल्र्ड चुना गया था, उसी दिन स्त्री की देह की नाप-जोख शुरू हो गयी थी। इसे स्त्री के स्वात्रंत्र्य से जोड़ा गया लेकिन स्त्री को मूर्ख बनाया गया और आज तक बनाया जा रहा है क्यांेकि वस्तु के रूप में मुक्ति के बजाय स्त्री को सौंदर्य के नाम पर एक प्रोडक्ट के रूप में पेश किया जाने लगा। अभी विज्ञापन जगत के प्रहलाद कक्कड़ ने बहुत सही और कड़वी बात कही कि औरत जब मंच पर कैटवाक करती है तो उसकी देह का इंच-इंच बाजार में गिरवी होता है, लेकिन स्त्रियां इस बात को समझने को राजी नहीं हैं, क्योंकि पुरूष उनका मानसिक अनुकलन अपने उपभोग के लिए ही करता है, लेकिन यह भी तथ्य है कि पुरूषों ने ही स्त्रियों की मुक्ति की आवाज़ उठाई। आज स्त्री समझ ही नहीं पा रही, स्त्री विमर्श तो बहुत पहले से ही शुरू हो चुका था। जैसे-राजा राम मोहन राय, दयांनंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले, ईश्वर चंद विद्यासागर, सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों की स्वतंत्रता के प्रश्न उठाए। लेकिन इस विमर्श को भटका दिया गया, बड़ी खूबी से स्त्री स्वातंत्र्य की बात करते हुए उसे यौन-स्वतंत्रता से जोड़ा गया, ऐसा माहौल बनाया गया कि जिस देह के गिरवीपन से स्त्री को मुक्ति चाहिए थी, उसे स्वेच्छा से वह देह के प्रति सजग होकेर एक प्रोडक्ट की तरह स्वयं प्रस्तुत कर रही है। मेरा उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ उसी साजिश की शिकार हो रही स्त्री को जगाने की कोशिश थी। सवाल है कि तुम अपनी ज़मीन बना कहां पा रही हो। हम तो अपने मित्रों के साथ इसे लेकर बहुत दुःखी हैं। राजेन्द्र यादव ने इस विमर्श को स्त्री देह या यौन स्वतंत्रता के साथ जोड़कर फामूर्लाबद्ध आन्दोलन बनाया। लोगों ने ऐसी कहानियां लिखना शुरू कर दिया जिसमें सिर्फ़ देह और यौनाचार के स्वातंत्र्य को ही स्त्री की स्वतंत्रता मानने का भ्रम होने लगा। वस्तुतः स्त्री को पितृसत्ता की रूढ़ियों से मुक्ति चाहिए थी, पुरूष से नहीं। उसे पुरूष से कोई दुश्मनी नहीं थी। देह के फार्मूले कि ‘यौनिकता की स्वतंत्रता से ही स्त्री स्वतंत्रता हो सकती है’ ने ऐसा साहित्य रचवाने में ‘हंस’ पत्रिका की बड़ी भूमिका रही। राजेन्द्र यादव ने इसे फैलाया। स्त्री इस जाल में फंस गई। वह समझने लगी कि यौनिक स्वच्छंदता को हासिल किए बिना वह स्वंतत्रत नहीं हो सकती। इस प्रकार स्त्री विमर्श की दिशा भटक गई जबकि होना यह चाहिए था कि यदि किसी स्त्री का बलपूर्वक या अनायास किसी के साथ देह-संबंध होता है तो अपने दांपत्य जीवन में पितृसत्ता को उसे उसी प्रकार क्षमा करना चाहिए जिस प्रकार स्त्री पुरूषों को परस्त्रीगमन के बावजूद क्षमा करती आई है और दाम्पत्य संबंधों की परस्परता पर आंच नहीं आने दी, हालांकि तब भी स्वयं को लेकर उसका कोई आत्मस्वर नहीं था। दुर्भाग्य से विज्ञापन जगत ने स्त्री को वस्तु से मुक्त करने के बजाय बज़ार में अनावश्यक जगह उसे वस्तु बनाकर रख दिया। 

सवालः आप सामाजिक सरोकारों पर लिखतीं हैं, क्या वाकई साहित्य से समाज प्रभावित होता है और क्या साहित्य समाज से प्रेरित होता है?
जवाबः बिल्कुल होता है। साहित्य मनुष्य की चेतना का आईना है। जब तक रचनाकार की अभिव्यक्ति उसकी चेतना का आईना नहीं बनती है कि वह स्वयं को इस प्रकार देख सके कि वह क्या नहीं सोच सका और क्या नहीं देख पाया? जब वह ऐसा कर पाता है तब ही वह लिखता है। जब वह भावनात्मक उद्वेलन से गुजरते हुए लोगों की भावना को अपने भीतर उतरता हुआ महसूस करता है। तब वह लिखता है। मेरा मानना है कि लेखन स्वन्तः सुखाय नहीं होता है। कला आपको आप की अंतश्चेतना में ले जाएगी और आपको आत्ममुग्ध बनाएगी। आपको आनंदित करेगी, परमानंद का एहसास देगी। किन्तु आपके मन में प्रश्न नहीं उठाएगी। सृजनात्मक लेखन आत्मसुख नहीं है, जब तक वह आपको समाज के प्रति सोचने के लिए विवश नहीं करता है। जब सृजनकार रचना करता है तो यदि उसमें कहीं प्रतिरोध की सच्ची आवाज है, शब्द साधना है, चेतना का आईना है, तो वह रचना उद्वेलित होकर पीछा करती है। जब कोई रचना पीछा करती है तो परिवर्तन की नींव रखी जाती है। यह परिवर्तन रूढ़ियों की श्रृंखलाओं को काटता है। 

सवालः आपकी दृष्टि में स्त्री विमर्श क्या हैं?
जवाबः स्त्री विमर्श भी समाज विमर्श के दायरे में ही है। समाज का जो आधा अंग है अगर उसकी कोई बुनियादी समस्याएं हैं तो उनके बारे में बात होनी चाहिए। लेकिन यह केवल कोरी बात तक ही सीमित न हो बल्कि समाज अपनी गलतियों को स्वीकार कर उसका एहसास भी करें, तभी बदलाव होगा। पूरे समाज के भीतर जब मैं स्त्री की बात करती हँू, तो मैं एक तरह से समाज की मानसिकता का खुलासा कर रही होती हँू। यदि सड़कों से गुजरती हुई लड़की अपने समाज की कुदृष्टि का शिकार हो रही है, तो यह हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। जब तक समाज लड़की की सुरक्षा के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदलेगा तब तक कुछ नहीं सुधरने वाला। ऐसे में पुरूष की दमित इच्छाएं या कामान्धता ही उभर कर सामने आएगी। मेरा लेखन मुझे उन स्थितियों की तरफ सोचने को विवश करता है कि अपने कहे के मनोविज्ञान को क्या मैं पकड़ पा रही हूं। पितृसत्ता द्वारा हो रहे स्त्री के वर्षांे के उत्पीडन को मैं विमर्श के माध्यम से चर्चा में ले आती हूं। मनुष्य की काया में जो एक भेड़िया आदमी के अंदर समाया हुआ है, उसके संरक्षण के बाहर की स्त्री इस भेड़िये का आहार है। जब समाज सबल और अबल सोचना बंद कर देगा तब शायद इस स्थिति में अंतर आए। सबलता वटवृक्ष की छांव की तरह होनी चाहिए। स्त्री की चेतना, उसकी सशक्तता, उसके सामथ्र्य को लेकर जब मैं सोचती हूँ तो मुझे लगता है कि स्त्री की कोख में संपूर्ण पृथ्वी और ब्राह्मांड की शक्ति समाई हुई है। 

सवालः आपका उपन्यास नाला सोपारा पो. बाक्स न. 203 समाज द्वारा उपेक्षित किन्नर वर्ग पर केन्द्रित है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के दौर में किन्नर विमर्श की ओर आपका ध्यान कैसे गया?
जवाबः जब कई सामाजिक मुद्दों की लड़ाई में हम कामगार अखाड़ी, स्वाधार, जागरण के माध्यम से संघर्षरत थे तब हमारी सोच में किन्नरों की दुरावस्था को लेकर एवं समाज में उनके प्रति कोई संवेदनशीलता न होने को लेकर, कोई प्रश्न नहीं उठा। 1982 की बात है जब मैं दिल्ली से अपने पति अवध जी के साथ बच्चों समेत पश्चिम एक्सप्रेस से मुंबई लौट रही थीं तब मेरा साक्षात एक किन्नर से हुआ। जब ऐसे अनुभव से मैं गुजरी, उस युवक ने अपनी जिंदगी के पृष्ठ जिस तरह खोले, मैं उसकी जुबानी इसकी साक्षी बनी। तब मुझे लगा कि मैं कैसी सामाजिक कार्यकर्ता हूं, जो मैंने इन लागों की स्थ्तिि को लेकर कभी सोचा ही नहीं, हमेशा एक सामान्य नागरिक की तरह उन्हें कौतुक की दृष्टि से देखा। जब मैंने पात्र से साक्षात्कार किया तो मैं भीतर तक हिल गई कि मैं एक पढ़ी-लिखी स्त्री हूं, बाव़जूद इसके मैं कैसे समाज की बेहतरीन चैतन्य नागरिक हो सकती हूं, जबकि हमने अपने जैसे मनुष्य की काया वाले दूसरे लोगों के साथ कैसा उपेक्षित और बहिष्कृत बर्ताव किया है? 
  अतः इन मुद्दों को विमर्श के केन्द्र में लाकर लोगों का ध्यान उस ओर ले जाना होगा, तभी समाज की संकीर्ण सोच में परिवर्तन आएगा। सबसे पहले हमें उन सवालों से टकाराना होगा या उन मुद्दों को उठाना होगा कि आखि़र इस तरह का उपेक्षित जीवन जीने के लिए सदियों-सदियों से समाज ने उन्हे बाध्य क्यों किया। हमें उनको केवल कौतुक रूप से नहीं देखना है। बल्कि समाज में इनके प्रति जागरूकता फैलाना नितांत आवश्यक है। नालासोपारा पोस्ट बाॅक्स न. 203 ऐसे ही सवालों को उठाकर समाज को कटघरे में लेने की भूमिका रचता है। हमें विचार करना चाहिए कि यदि हाथ-पैर, आँख-कान आदि से विकलांग बच्चों के लिए समाज में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अवसर हैं, तो फिर थर्ड जेंडर को सिर्फ़ इसलिए घर-परिवार और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना कहां तक उचित है क्योंकि वे यौन-विकलांग या लिंग विकलांग हैं? मेरी और मानवता की दृष्टि से यह जघन्य पाप है, जिसका प्रायश्चित समाज को करना है। नालासोपारा पोस्ट बाॅक्स न. 203 में यह सारे सवाल उठाए गए हैं। इस विमर्श को जब मैंने नालासोपारा में उठाया तो बहुत से पाठकों ने मुझे टेलीफोन और एस.एम.एस करके बताया कि अब जब भी हमारे सामने यौन विकलांग हमें घेरने की कोशिश करता है तो हम भय नहीं खाते। इस प्रकार लोगों की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन आया। मैं तो चाहूंगी कि नालासोपारा को विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में युवा पीढ़ी को पढ़ाया जाना चाहिए। जब वे अपने परिवार में रहेंगे, देखिएगा कि बीस-पचीस वर्षों में आपको परिवर्तित परिदृश्य दिखाई देगा।

सवालः आपने कुछ रचनाओं का अनुवाद कार्य भी किया है। एक साहित्यिक कृति को अनूदित करते समय क्या सावधानियां रखनी होती हैं?
जवाबः मैं सच बोलूं तो मंैने किसी क्लासिक साहित्यिक कृति का अनुवाद नहीं किया है, मैंने अधिकांशतः मराठी, गुजराती और अंग्रेजी से अनुवाद किया है, मराठी मैंने मंुबई में आसपास के वातावरण से बातचीत सवंाद से सीखी। गुजराती मैंने पांचवीं से लेकर हायर सेकेण्डरी तक एक विषय के रूप में पढ़ी। गुजराती से बहुत अच्छे लेखकों जैसे-सरोज पाठक, पन्नालाल पटेल, इला अरब मेहता, कुन्दनिका कापड़िया आदि की रचनाओं का मैंने अनुवाद किया। मराठी से मैंने विजया राज्याध्यक्ष, गंगाधर गाडगिल की रचनाओं का अनुवाद किया। विद्यार्थी जीवन में यह मेरे लिए एक पाकेट मनी की तरह था और शायद मेरे आत्मनिर्भर होने की दिशा में पहला कदम था। जब मैं कोई कृति पढ़ती हूं तो उसको पढ़ते हुए उसमें व्यक्त भावों और अर्थ, उसके मनोविज्ञान को पकड़ती हंू और उसे आत्मसात करती हूं। कमलेश्वर की कहानी ‘देवा की मां’ पढ़ती थी तो मैं एक पाठक के रूप में देवा की मां सा अपने भीतर महसूस करती थी। इसी तरह कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे यह ध्यान रखना होगा कि उसका मात्र शाब्दिक अनुवाद न हो क्योंकि शाब्दिक अनुवाद होगा तो कहानी के भीतर की भावात्मक अर्थ क्षतियों की पूर्ति न हो सकेगी। ऐसे शाब्दिक अनुवाद से कहानी की आत्मा परिलक्षित नहीं हो सकेगी। अतः किसी भी रचना का अनुवाद करते समय यह ध्यान रखना है कि मात्र शाब्दिक खाका ही न उतारा जाए, बल्कि मनोभावों के रसायन को समझ पाना नितांत आवश्यक हैं क्योंकि साहित्य जब तक मर्म को छूता नहीं है तब तक प्रभावी नहीं होता है। जब तक रचना पाठक को स्वयं को विस्मृत करने के लिए बाध्य नहीं कर देती, तब तक साहित्य का एक्टिविज्म शुरू नहीं हो पाता और साधारणीकरण नहीं हो पाता। अनुवादक जब तक रचना में रम कर रचनामय नहीं हो जाता, तब तक अनुवाद, अनुवाद नहीं होता। अनुवाद में सही आशय को पकड़ लेना बहुत आवश्यक है। मूल भाषा में लिखा गया पत्र दिल को छूता है। उसकी आशय, दृष्टियां खुलती चलती हैं और आपकी चेतना के वरक्स खड़ी हो जाती हैं, आप उसको बुनते हैं।

सवाल: राजभाषा के रूप में हिंदी के स्थापित होने को आप किस प्रकार देखती हैं?
जवाब: जब तक हमारी राजनितिक सत्ता अपनी इच्छा शक्ति को सुदृढ नहीं कर लेती और किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती, तब तक हिन्दी सही मायने में ना राजभाषा बन सकती है ना राष्ट्रभाषा। यदि हमारे देश का एक राष्ट्रीय ध्वज है तो एक राष्ट्रभाषा भी होनी चाहिए। दक्षिण वाले, पश्चिम वाले क्या सोचेंगे इससे राजनीति को ऊपर उठना होगा, तुष्टिकरण की नीति को त्यागना होगा। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और प्राइवेट सैक्टरों में हिन्दी ही कामकाज या क्रियान्वयन की भाषा होनी चाहिए। यह अब अच्छी तरह जाहिर है कि वोट कार्ड को देखते हुए हमारी सत्ता कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती। दक्षिणी राज्यों को लेकर सरकार की तुष्टिकरण की नीति के चलते हिन्दी को उसका स्थान नहीं मिल पा रहा है। अगर मलयालम या तमिल देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा होती तो मलयालम या तमिल हमारे देश की राष्ट्रभाषा होती। महात्मा गांधी ने देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा था। वर्तमान भाजपा सरकार ने भी इस बारे में अपेक्षित इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। यदि इसी तरह सरकार तुष्टिकरण की नीति अपनाती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में मात्र अंग्रेजी ही हमारी राजभाषा रह जाए। हिन्दी-उर्दू के भेद को भी तूल नहीं देना चाहिए। एक बार जावेद अख़्तर ने मुझसे कहा कि फिल्मों के गीत तो उर्दू के गीत हैं, हिन्दी के नहीं। तो फिर उन्हांेने ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा‘ गीत क्यों लिखा। आप बताइए इसमें कितनी हिन्दी है, कितनी उर्दू है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि हम अपने अध्यात्म-दर्शन, गौरवशाली परंपराएं, यहां तक कि अपनी संस्कृति की वाहक भाषाएं तक छोड़ते जा रहे हैं और पाश्चात्य शिक्षा को स्वीकार कर रहे हैं। निस्संदेह हमें अपनी भाषाओं की ओर लौटना होगा तभी हम अपनी संस्कृति और मूल्यों को जीवित रख सकेंगे। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है तो मैं मानती हूं कि वह हमारे देश की सामासिक संस्कृति की प्रतीक है और देश की राजभाषा-राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने की अधिकारिणी हैं।

सवालः आज के दौर में साहित्य और पत्रकारिता के अंतर्संबंधों पर आपके क्या विचार हैं?
जवाबः देखिए अब अखबार फिर से साहित्य की जरूरत महसूस करने लगे हैं। इधर कुछ समय से जनसत्ता, हिंदुस्तान, जागरण, अमर उजाला जैसे अख़बारों ने कहानियां प्रकाशित करना शुरू किया है। मैं हिंदुस्तान की विशेष प्रशंसा करना चाहूंगी कि वे तमाम प्रसिद्ध रचनाओं के अंश को प्रकाशित कर रहे हैं। इधर हिंदी के कई अख़बारों ने साहित्यकारों को भी संपादक नियुक्त किया है। इधर कुछ समय से उमर उजाला वरिष्ठ साहित्यकारों की बैठक प्रकाशित कर रहा है। हां, साहित्यिक पुस्तकों की समीक्षाएं अवश्य छोटी कर दी गई हैं। अब संपादक पाठकों की रचनात्मक पिपासा को समझ रहे हैं। कह सकते हैं कि ऐसे अख़बार साहित्यिक पत्रिकाओं की कमी को भी दूर करने का प्रयास कर रहे हंै। प्रताप सोमवंशी, यशवंत व्यास और राजेन्द्र राव जैसे संपादक, जो स्वयं भी रचनाकार हैं, इस मर्म को समझ रहें हैं कि पाठकों की संवेदनशीलता को भी बनाए रखना है ताकि पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से श्रेष्ठ, दायित्वपूर्ण और प्रतिरोधी नागरिकों का निर्माण हो सके। विज्ञापनों के आतंक के बावजूद साहित्य को बचाने के लिए अख़बार फिर बड़ी आश्वस्तकारी भूमिका में लौट रहे हैं, यह भविष्य के लिए बड़ा सुखद संकेत है। साहित्य का बचा रहना, कहीं न कहीं समाज के उन्मेष का बचा रहना हैं।

सवालः आपके अनुसार नए युवा कहानीकार और उपन्यासकार, जो अच्छा लिख रहे हैं?
जवाबः मैं योगिता यादव के उपन्यास ‘ख्वाहिशों के खांडवप्रस्थ’ का जिक्र करना चाहूंगी। इसमें दिल्ली राजधानी क्षेत्र के अंतर्विरोध को योगिता ने सटीकता से पकड़ा है। इसके अतिरिक्त अल्पना मिश्र का उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘स्वप्नपाश’, विनोद चन्द्र पाण्डेय (उ०प्र० की खिड़की), मनोज पाण्डेय आदि उल्लेखनीय है। एक बहुत अच्छा उपन्यास सूर्यनाथ सिंह का ‘नीद क्यों रात भर नहीं आती’ श्री लाल शुक्ल के राग दरबारी की याद दिलाता है। 

सवालः आपकी सबसे प्रिय रचना?
जवाबः मैं कैसे कहूं कि मेरी प्रिय रचना कौन-सी है। मैं समझती हूं कि मेरा आने वाला उपन्यास ‘नकटौरा’ है।

सवालः अपने पति कथाकार कवि अवध जी को आप किस प्रकार याद करतीं हैं ?
जवाबः वे हमेशा मेरी स्मृतियों में हैं। मेरी प्राण वायु वही हैं। अब वे इस दुनिया से अवश्य चले गए लेकिन मैंने बिंदी लगाना अभी भी नहीं छोड़ा। वे कहते थे कि चित्रा तुम्हारा माथा चैड़ा है, इस पर बिन्दी बहुत अच्छी लगती है। आज भी जब मैं बिन्दी अपने माथे से चिपका रही होती हूं अवध जी देख रहे होते हैं, शीशे में मेरी प्रतिछवि होती है, मैं पूछती हूं ‘बिंदी ठीक लगी है ना अवध?’ तो अवाज मुझे सुनाई देती है, ‘नहीं थोड़ी बीच में कर लो’। वे सिर्फ़ मेरे पति नहीं थे, मेरे प्रेमी, मेरे सबसे गहरे दोस्त भी थे। शादी के बाद मैंने उनसे कहा कि मैं समाज के बीच झोपड़ पट्टी में रहना चाहती हूं, तो उन्होंने सहमति देते हुए कहा कि मेरा घर दीवारें नहीं, चित्रा तुम हो। फिर ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के उप-संपादक मेरे साथ झोपड़ पट्टी में 25 रूपए की खोली में किराए पर रहे, ऐसे थे कथाकार, कवि अवध नरायण मुदगल।

सवालः आजकल आपके अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है?
जवाबः अभी तो मेरा 2016 में नाला सोपारा पो. बा. नं. 203 आया है। अब मैं ‘नकटोरा’ उपन्यास पर  पिछले 4-5 वर्षों से काम कर रही हूं जो लगभग पूरा हो चुका है। इसमें प्रयोग के साथ ही मेरी निजी ज़िंदगी  की स्मृतियां व अतीत है और वर्तमान ज्यों का त्यों है। इसमें अपने निजत्व से बाहर निकलकर महिला के समाज के साथ संघर्ष की अभिव्यक्ति है। इसे मेरी निजी डायरी भी माना जा सकता है। आशा है इसी वर्ष यह पाठकों के बीच आ जाएगा।

सवालः एक स्त्री होने के कारण, साहित्य जगत में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
जवाबः नहीं देखिए, हमने एक स्त्री लेखिका के रूप में लेखन को नहीं अपनाया। वस्तुतः हमने लेखन को अपनाया। हम तो कभी संपादक से मिलते भी नहीं थे। हम डाक से अपनी रचनाएं पत्रिकाओं में भेजते थे। अख़बार के उप-संपादक श्रेष्ठ रचनाओं को छांटकर प्रकाशित करने की संस्तुति करते थे। लेखक और पत्रिका के बीच मात्र लेखन ही माध्यम था, स्त्री या पुरूष रचनाकार होना कोई मायने नहीं रखता था। मैंने 1962 से लिखना शुरू किया। हम यह नहीं मानते कि ग्लोबलाइजेशन आज की देन है बल्कि हमारा गलोबलाइजेशन तो उसी समय साहित्य के माध्यम से हुआ। दरअसल, जन का इतिहास, उसके स्वभाव, देश और अहंकार के अतर्विरोध को साहित्य ही हमारे सामने लाता है।


सवाल: युवा लेखक-लेखिकाओ यों को क्या संदेश देना चाहेंगी?
जवाब: आप जो भी तकनीकी या गैर तकनीकी शिक्षा लेना चाहते हंै वह अवश्य लें, किंतु यह अवश्य ध्यान रखें कि साहित्य की पुस्तकंें भी आपकी साथी होनी चाहिए। साहित्य को अपने से कभी दूर न करें। सहित्य आपको एक बेहतर मनुष्य और दायित्वपूर्ण नागरिक बनाता है, समाज के प्रति आपकी आंखों की चैखटें खोलता है, आपकी संवेदनशीलता को जीवित रखता है। यदि आप संवेदनशील नहीं हैं तो आप विचारशील मनुष्य कभी नहीं हो सकते। जिस समाज की युवा पीढ़ी साहित्य से नाता तोड़ लेती है तो मानिए कि वह पीढ़ी मात्र रोबोट बन रहीं है। अतः आपको भारतीय और विदेशी लेखकों को अवश्य पढ़ना चाहिए। आप दुनिया भर का साहित्य पढ़िए वो आपके अनुभवों का विस्तार करेगा।

(गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2018 अंक में प्रकाशित)


रविवार, 19 अगस्त 2018

‘गुफ्तगू’ के जुलाई-सितंबर: 2018 अंक में


3. संपादकीय (कौन है सही मायने में साहित्यकार)
4. डाक (आपकी बात)

5-11. ग़ज़लें : मुनव्वर राणा, इब्राहीम अश्क, डाॅ. असलम इलाहाबादी, ज़फ़र मिर्ज़ापुरी, अख़्तर अज़ीज़, प्राण शर्मा, अमन चांदपुरी, युसुफ रईस, डाॅ. मीना नक़वी, सुभाष पाठक, मनोहर विजय, डाॅ. माणिक विश्वकर्मा, इरशाद आतिफ़, नज़्म सुभाष, बह्र बनारसी, चित्रा भारद्वाज ‘सुमन’, चारू अग्रवाल ‘गुंजन’, अंकित शर्मा, हरेंद्र सिंह कुशवाह, दीपक शर्मा, संदीप सरस, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, अजय विश्वकर्मा, खुर्शीद भारती, लक्ष्मण दावानी, प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम’, स्वधा रवींद्र, मो. सेलाल सिद्दीक़ी
12-17. कविताएं : यश मालवीय, यशपाल सिंह, मीना अरोरा, नीता सैनी, अतिया नूर, केदारनाथ सविता, निवेदिता झा, अर्चना सिंह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, दीप्ति शर्मा, डाॅ. प्रतिभा सिंह
18-21. इंटरव्यू : डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 
22-23. चैपाल: नई कविता वर्तमान परिदृश्य में कितनी प्रासंगिक है?
24-26. विशेष लेख: दागनुमा चेहरों का आईना हैं दुष्यंत की ग़ज़लें
27-30. तब्सेरा : औरतनामा, छत पड़ने से पहले, अम्न की ख़ातिर, अजोरिया में गांव, काव्य व्याकरण, भावांजलि
31-32. श्रद्धांजलि : ग़ज़ल संकेत की ज़बान है - गोपालदास नीरज 
33-39. अदबी ख़बरें
40. गुलशन-ए-इलाहाबाद: वी.एस. दत्ता
41-42. ग़ाज़ीपुर के वीर-3: नज़ीर हुसैन
43-46. भानु कुमार मुंतज़िर के सौ शेर
47-80. परिशिष्ट: सीमा वर्मा ‘अपराजिता’
47. सीमा वर्मा अपराजिता का परिचय
48-49. न जाने कब सीमा से अपराजिता हो गई: शांति देवी वर्मा
50-51. सच्चाई का साहस से सामना करती रही अपराजिता: संपदा मिश्रा
52-53. उस जहां में भी लिखूंगी प्रेम: डाॅ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’
54-55. सीमा वर्मा अपराजिता के लेख
56-80. सीमा वर्मा अपराजिता की कविताएं

सोमवार, 13 अगस्त 2018

परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद

                                               
 
                         
                                                                                 - मुहम्मद शहाबुद्दीन ख़ान
                             
 शहीद वीर अब्दुल हमीद हमारे देश का एक जांबाज और बहादुर देशभक्त सिपाही थे, जिसकी बहादुरी के किस्से हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद ने वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध मे न केवल पाकिस्तान के हमले का जवाब दिया बल्कि अविजित माने जाने वाले अमरीकी पैटन टैंकों (लोहे का शैतान) को भी खत्म कर दिया था। परमवीर चक्र जीतने वाले एकमात्र मुस्लिम वीर योद्धा सिपाही अब्दुल हमीद का जन्म गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में पहलवान मोहम्मद उस्मान के घर 1 जुलाई 1935 को हुआ था, इनका परिवार काफी गरीब था। उनके यहां परिवार की आजीविका को चलाने के लिए कपड़ों की सिलाई का काम होता था, लेकिन अब्दुल हमीद का मन इस काम मंे बिल्कुल नहीं लगता था, उनका मन तो बस कुश्ती दंगल और दावं पेंचों में लगता था। लाठी चलाना, कुश्ती लड़ना और बाढ़ में नदी को तैर कर पार करना उनके मुख्य शौक थे। फौज में भर्ती होकर देश सेवा करना उनका सपना था। सन 1954 में सेना में भर्ती हो गए। सन 1962 भारत-चीन युद्ध में उन्होंने अपनी बहादुरी और अचूक निशानेबाजी से साथियों का दिल जीत लिया और उन्हे पांच वर्षो तक सेना के एंटी-टैंक सेक्शन में काम करने के बाद उन्हें अपनी कम्पनी का क्वार्टरमास्टर स्टोर्स का चार्ज दिया गया साथ ही उनकी चीन युद्ध मेे वीरता और समझदारी को देखते हुए 12 मार्च 1962 मे सेना ने हमीद को लांसनायक अब्दुल हमीद बना दिया।
 सन 1965 के भारत-पाक युद्ध में वे अपनी सेना की कंपनी क्वाटर मास्टरी का नेतृत्व कर रहे थे, तभी 9 सितम्बर 1965 की रात पाकिस्तान ने अचानक ही भारतीय सेना की चैकी पर हमला बोल दिया। इस हमले की अगुवाई अमरीका के अविजित पैटन टैंकों की एक टुकड़ी कर रही थी। अचानक हुए इस हमले से लड़ने के लिए अब्दुल हमीद की कम्पनी के पास केवल राइफल्स और गन माउन्टेड जीप थी। हालात की नज़ाकत समझते हुए अब्दुल हमीद अपनी गनमाउन्टेड जीप से पंजाब के तरन तारन जिले के खेमकरण सेक्टर के लिए रवाना हुए, जहां उताड़ गांव मे युद्ध हो रहा था। आखिरी ख़त इस मोर्चे पर जाने से पहले वीर हमीद ने अपने भाई के नाम लिखा और उस खत मे उन्होंने लिखा की सेना की पल्टन में उनकी बहुत इज़्ज़त होती है, जिनके पास कोई चक्र होता है। देखना झुन्नून हम जंग मे लड़कर इंशाअल्लाह कोई न कोई चक्र ज़रूर लेकर लौटेंगे। उन्होंने अपनी उसी गन से पाकिस्तानी टैंकों पर निशाना लगाना शुरू किया और एक के बाद एक-एक करके 3 टैंक खत्म कर दिए। परंतु, चैथे टैंक पर निशाना लगाते वक्त उनकी जीप पर एक गोला आकर गिरा जिसमें वह बुरी तरह जख्मी हो गए फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और दुश्मन के टैंकों को हमला करते रहे। लगातार 9 घंटे चली इस मुठभेड़ में पाकिस्तानी सेना को बुरी तरह हराकर भगाने के बाद 10 सितम्बर 1965 को अब्दुल हमीद ने अपनी अंतिम सांस ली थी। अतः उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र और भारतीय सेना का सर्वोच्च पुरस्कार परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया। 
गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2018 अंक में प्रकाशित


रविवार, 29 जुलाई 2018

एसकेबीएम इंटर कालेज के संस्थापक डिप्टी सईद

डिप्टी सईद खान


                                          - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                            
ग़ाज़ीपुर जिले के दिलदानगर में स्थित एमकेबीएम इंटर कालेज के संस्थापक डिप्टी सईद खान ने कमासार के लोगों को शिक्षा से जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके प्रयास से ही आज इस कालेज में इलाके के बच्चे पढ़ते हैं, बच्चों को इंटरमीडिएट तक शिक्षा हासिल करने के लिए भटकना नहीं पड़ता। डिप्टी सईद का जन्म 1893 में उसिया गांव के दखिन-अधवार मुहल्ले में हुआ था, आपके वालिद का नाम सूबेदार आलमशाह खान था। आरंभिक शिक्षा के बाद सन् 1914-15 ई. में प्रेसीडेंसी कालेज से बीए ऑनर्स फस्र्ट क्लास में पास किया। इसके बाद डिप्टी बने थे। अपने इलाके लोगों को शिक्षा से जोड़ने की चिंता उन्हें सताती रही। यही वजह है कि उन्होंने कालेज की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने क्षेत्र में घूम-घूम कर लोगों से चंदा मांगा। जिन लोगों से चंदा लिया, उनमें एक भिखारी भी शामिल है। भिखारी से चंदा लेने के बाद जो रसीद उन्होंने उसका दिया था, उस पर उन्होंने नोट लिखा है कि यह एक भिखारी से लिए गए चंदे की रसीद है। यह रसीद आज भी दिलदानगर गांव के दीनदार लाइबेरी में मौजूद है। 
डिप्टी सईद के बड़े कामों में से एक महत्वपूर्ण काम महात्मा गांधी की जमानत लेने का भी है। वे अपने इलाके लिए और भी कई काम करना चाहते थे। इसके लिए वह विधायक बनना चाहते थे। 1957 ई. में  उन्होंने कांग्रेस से चुनाव लड़ने के लिए टिकट लेनी चाही, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। फिर आजाद उम्मीदवार के रूप मे लड़े, चुनाव निशान ‘घोड़ा मय सवार’ मिला। लेकिन अपनों की ही बेरूखी की वजह से मामूली वोट से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस हार ग़म आजीवन उन्हें सताता रहा। वह हमेशा कहते रहे कि मेरे ही आंगन में मेरे घोड़े की टांग टूट गई, मुझे इन कमसारियों ने नहीं जीतने दिया। मुझे नहीं लगता कि अगले 50 सालों कोई कमसार का मुसलमान विधायक बन पाएगा। उनका अंदाज़ा बिल्कुल सही हुआ, अधिक तादाद में होने के बावजूद आजतक कोई मुस्लिम इस इलाके से विधायक नहीं बना पाया।
डिप्टी सईद ने अपने इलाके से ज़हेज जैसी कुप्रथा की रोकथाम के लिए एक समाजिक संगठन स्थापित किया गया था, जिसका नाम ‘अन्जुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसार-व-बार फतहपुर दिलदारनगर’ रखा गया था। जिसके तहत सन् 1938 ई० मंे मुस्लिम राजपूत स्कूल वर्तमान में एसकेबीएम इण्टर कालेज दिलदारनगर की बुनियाद पड़ी थी। इस कॉलेज के आजीवन संस्थापक सद्र डिप्टी मुहम्मद सईद साहब रहे और मैनेजर मुहम्मद शमसुद्दीन खाँ साहब दिलदारनगरी व प्रिंसिपल मोइनुद्दीन हैदर खाँ मरहूमीन जैसी तीनों तिकड़ी शख्सियतों द्वारा कालेज की बुनियाद से इमारत तक खड़ी हुई थी और इन तीनों शख्सियतें अपनी-अपनी खून पसीने की मेहनत और कमाई से इस कालेज को उस मकाम तक पहुंचाया था। 10 फरवरी 1966 ई० को ‘पीएमसीएच’ हास्पिटल पटना में गालब्लेडर के ऑपरेशन के लिए भर्ती हुए और वहीं उनकी मौत हो गई। दुखद पहलू यह है कि उनकी मिट्टी में कमसार का कोई व्यक्ति शामिल न हो सका। उनके दोस्तों ने ही पटना में उन्हें दफना दिया, आज उनके कब्र का भी किसी को ठीक से पता नहीं है।
सन् 2012 ई० मे पटना में अपनी इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दरम्यान मैंने (मुहम्मद शहाबुद्दीन खान) इनकी कब्र को लेकर महीनों खोजने का प्रयास किया। उस दरम्यान ‘पीएमसीएच’ हॉस्पिटल की सारी लवारिस डेड बॉडी ‘लवारिश मय्यत कमेटी’ सब्जीबाग पटना के नेतृत्व मंे पटना की सार्वजनिक कब्रिस्तान पटना जंक्शन के करीब ‘पीरमोहानी कब्रिस्तान’ में दफन की जाती थी, लेकिन उनकी हेड ऑफिस में पता करने पर उन दोनों जगहो की सन् 1966 ई. का सभी फाइल रेकॉर्ड नहीं मिले। 
(गुफ्तगू के जनवरी-मार्च: 2018 अंक में प्रकाशित )


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रविवार, 8 जुलाई 2018

कामयाब कलमकार हैं डाॅ. यासमीन सुलताना नक़वी


बाएं से: डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी, यश मालवीय, नीलकांत और नंदल हितैषी

                                     -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
डाॅ. यासमीन सुलताना नक़वी का जन्म 18 अक्तूबर 1955 को इलाहाबाद जिले के मेन्डारा कस्बा में हुआ। आपके वालिद का नाम अकबर हुसैन और वालिदा का नाम मेहरुन हैं, आप दोनों का ही देहांत हो चुका है। बचपन से ही चित्रकाला, छायांकन, पर्वतारोहरण, बागवानी, लेखन में रुचि रही है, छात्रों के बीच जाकर उन्हें प्रोत्साहित करने का भी शौक आपको रहा है। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी और समाज शास्त्र विषयों से स्नातकोत्तर करने के बाद ‘इलाचंद्र जोशी के उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी किया है, आपकी मातृभाषा उर्दू है। एक अप्रैल 2005 से 31 मार्च 2010 तक जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी की विजटिंग प्रोफेसर रही हैं। इसके अलावा सेंट जोसेफ काॅलेज इलाहाबाद, सेंट जोफेस रीजनल और प्रयाग महिला विद्यापीठ में भी समय-समय पर आपने अध्यापन कार्य किया है। ‘मुस्कान छिन गई’, ‘चांद चलता है’, ‘त्रिवेणी-गंगा पर आधारित’, ‘पत्थर की खुश्बू’, ‘कविता परछांयी’, ‘आंखों का आंगन’, ‘फूलों के देश में प्रेम का रंग’, ‘हिमतृष्णा’, ‘सपना सजा साकुरा’ और ‘घर की गंगा’ नाम से कविता की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अब तक कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया है, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पुस्तक ‘मेरी चुनी हुई कविताएं’ का उर्दू पद्यानुवाद, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरी नाम त्रिपाठी की पुस्तक ‘मनोनुकृति’ का उर्दू पद्यानुवाद ‘अक्कासि-ए-दिल’,  प्रो. अली अहमद फ़ातमी की पुस्तक ‘जर्मन के दस रोज’ और अहमद फ़राज़ के ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल बहा न करो’ का हिन्दी लिप्यांतर आदि शामिल हैं।
‘साक्षात्कार के आइने’ के अंतर्गत महादेवी वर्मा के जीवन पर आधारित पुस्तक का प्रकाशन हुआ है साथ ही ‘साक्षात्कार और संस्मरण’ नामक पुस्तक प्रकाशन प्रक्रिया में है। नाटक की तीन पुस्तक प्रकाशित हुई हैं, जिनके नाम ‘रिश्ते नाते’, ‘कलरव’ और ‘हिरोशिमा का दर्द’ है। विदेशी छात्रों के लिए आपकी एक पुस्तक ‘सरल हिन्दी’ भी प्रकाशित हुई, जिसे कई देशों में पढ़ाया जाता है। आपकी समीक्षा की भी चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनके नाम ‘हिन्दी कहानियों को समीक्षात्मक स्वरूप’, ‘ज्ञान का द्वार’, ‘ज्ञान का आंगन’ और ‘ज्ञान का गगन’ है।
आपके कार्यों को देखते हुए विभिन्न संस्थाओं से कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। जिनमें वर्ष 2017 के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘सौहाद्र सम्मान’ के अलावा ‘समन्वयश्री’, ‘नई दिल्ली सोवियत कलचर सेंटर अवार्ड फार जर्नलिज्म’, ‘साहित्य श्री’, ‘भारत भाषा भूषण’, ‘साहित्य श्री कन्हैया लाल प्रागदास’, ‘शांता देवी’, ‘नारी शक्ति सम्मान’, ‘आजीवन राष्टीय साहित्य सेवा सम्मान’, ‘महिला गौरव’, ‘नर्मदा विराट साहिय शिरोमणि’, ‘मानस संगम विशिष्ट सम्मान’ और ‘रानी कुंवर वर्मा स्मृति साहित्य सेवा सम्मान’आदि शामिल हैं।आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कार्य भी किया है। आप ‘समन्वय’ संस्था की संस्थापक निदेशिका हैं, इस संस्था द्वारा समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किये जाते हैं, इलाहाबाद के अलावा दूसरे शहरों में भी कार्यक्रम होते रहते हैं।
(गुफ्तगू के अप्रैल-जून: 2018 अंक में प्रकाशित)



बुधवार, 20 जून 2018

गुफ्तगू ने नए लोगों को दी पहचान

इलाहाबाद के आठ उर्दू अदीबों का किया गया सम्मान

इलाहाबाद। ‘गुफ्तगू’ की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसने नये लोगों को अवसर प्रदान करके देश के पटल पर स्थापित किया है, अगर ‘गुफ्तगू’ ने यह प्र्रयास नहीं किया होता तो बहुत से कवि-शायर दुनिया के सामने ही नहीं आ पाते, उनकी प्रतिभा कंठित हो जाती। यह बात वरिष्ठ शायर हसनैन मुस्तफ़ाबादी ने ‘गुफ्तगू’ द्वारा 17 जून को इलाहाबाद के करैली स्थित अदब घर में आयोजित सम्मान समारोह और मुशायरे के दौरान कही। उन्होंने कहा आज आठ उर्दू अदीबों का सम्मान करके ‘गुफ्तगू’ ने यह साबित कर दिया है अच्छा काम करने वालों की हौसलाअफ़ज़ाई करती रहेगी।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ की सफलता ने यह साबित कर दिया है कि अगर हौसला हो तो कामयाबी ज़रूर मिलेगी। मैं शुरू से गुफ्तगू को देखता आया हूं, 15 साल के सफ़र की जब शुरूआत हुई तो यह नहीं लगता था सफ़र इतना लंबा चलेगा, मगर इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की लगन ने इसे कामयाब किया है। गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी ने कहा कि उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडेमी ने इलाहाबाद के लोगों को सम्मानित किया है, जो इलाहाबाद के लिए बेहद सम्मान की बात है, इसे देखते हुए हमने इन लोगों को सम्मानित करने का निर्णय लिया, ताकि इससे लोगों को प्रेरणा मिले और दूसरे साहित्यकार भी अच्छा लिखें। विशिष्ट अतिथि डाॅ. अशरफ़ अली बेग ने कहा कि जिन आठ लोगों को उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडेमी ने एवार्ड दिया था, उन्हें सम्मानित करके गुफ्तगू ने एक बड़ा काम किया है। सरदार गुरमीत सिंह ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ का साहित्यिक सफ़र आज इलाहाबाद की पहचान बन गया है। जब कभी भी इलाहाबाद की साहित्यिक पत्रिका का एतिहास लिखा जाएगा तो उसमें ‘गुफ्तगू’ का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें नरेश महारानी, शिवपूजन सिंह, योगेंद्र कुमार मिश्र, प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, संपदा मिश्रा, सुनील दानिश, वाक़िफ़ अंसारी, शाहीन खुश्बू, फरमूद इलाहाबादी, गुलरेज़ इलाहाबादी, शैलेंद्र जय, रमेश नाचीज़, शादमा ज़ैदी, अख़्तर अज़ीज़, सैफ़, अजीत शर्मा आकाश, नौशाद कामरान, हसीन जिलानी, रजनीश पाठक और आसिफ ग़ाज़ीपुरी ने कलाम पेश किया। अंत में नरेश कुमार महरानी ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।

इन्हें किया गया सम्मानित
असरार गांधी, फ़ाज़िल हाशमी, शाइस्ता फ़ाख़री, ज़फ़रउल्ला अंसारी, नौशाद कामरान, डाॅ. ताहिरा परवीन, डाॅ. सालेहा सिद्दीक़ी और रूझान पब्लिकेशन

                               

रविवार, 10 जून 2018

इफ्तार पार्टी से कौमी एकता का संदेश


                                                             -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
‘उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने/मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।’ जिगर मुरादाबादी का यह शेर रमजान के महीने में प्रासंगिक हो उठता है। तमाम सियासतदान वोट बैंक की राजनीति के तहत तोड़-जोड़ में लगे रहते हैं और जनता इन्हीं के जाल में फंसी रहती है। मगर रमजान के महीने में विभिन्न समुदायों द्वारा आयोजित की जाने वाली रोजा-इफ्तार पार्टियां इस भ्रम को तोड़ देती हैं कि इंसानों को अलग-अलग ग्रुपों एवं नामों से संबोधित किया जाए। रोजा इफ्तार पार्टियों के दौरान आपसी भाईचारे और सौहार्द की अनोखी मिसाल बन जाती है। विभिन्न सरकारी संस्थानों, राजनैतिक पार्टियों, व्यापार मंडलों और मुखतलिफ कौमो-मजहब के लोग न सिर्फ रोजा-इफ्तार पार्टियों में शामिल होते हैं, बल्कि पूरी लगन और मेहनत से इसका आयोजन भी करते हैं। दरअसल, रमजान का महीना इस्लाम मजहब के अनुसार बरकतों वाला महीना है, जिसमें मुसलिम समुदाय के लोग एक महीने तक रोजा रखते हैं, तरावीह की नमाज पढ़ते हैं, सुबह सहरी खाते हैं और शाम को सूरज डूबने के समय रोजा खोलते हैं। दिनभर भूखे-प्यासे रहने के बाद शाम के वक्त सूरज डूबने पर जलपान वगैरह किया जाता है, तब इसी जलपान को इफ्तार कहते हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो इफ्तार उन लोगों के लिए है, जो दिनभर रोजा रहते हैं। लेकिन रोजेदार के साथ पूरे सलीके से बैठकर रोजा खोलने यानि में शामिल होने को भी इस्लामिक विधान के सवाब (पुण्य) का काम बताया गया है। रोजेदार के साथ रोजा खोलने की परंपरा ने इतनी मकबूलियत हासिल कर ली है कि आज न सिर्फ गैर मुसलिम रोजा इफ्तार में शामिल होते हैं, बल्कि रोजा इफ्तार पार्टियों के मेजबान भी बनते हैं। रोजा इफ्तार पार्टी के मामले में पंडित मोतीलाल नेहरु का नाम सबसे पहले आता है। इलाहाबाद में रोजा-इफ्तार पार्टी का सबसे पहला आयोजन करने वाले गैर मुसलिम व्यक्ति पंडित मोती लाल नेहरु ही थे। उन्होंने सबसे पहले आनंद भवन में रोजेदारों के लिए इफ्तार का आयोजन किया था। इसमें शहर के तमाम छोटे-बड़े मुसलमानों ने शिरकत की थी और उस दौर में पंडित मोती लाल नेहरु का यह आयोजन पूरे देश में चर्चा का विषय बना। 
 इस सिलसिले को आगे बढ़ाने और उसे जारी रखने में हेमवंती नंदन बहुगुणा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। 1974 में प्रदेश की मुख्यमंत्री की बागडोर संभालने के साथ ही बहुगुणा जी ने रोजा इफ्तार की नींव अपने जेरे-एहतमाम कर डाली और वह जब तक जीवित रहे, रोजा-इफ्तार पार्टी का आयोजन करते रहे। पूरे इलाहाबाद शहर के साथ गांवों के लोग जिनमें हिन्दू-मुसलिम दोनों ही थे, इस इफ्तार पार्टी में शिरकत करते। बाद के प्रमुख राजनीतिज्ञों में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक रोजा इफ्तार का आयोजन करते रहे हैं।
 बुजुर्ग मोहम्मद मुतुर्जा के मुताबिक ‘बहुगुणा जी के इस व्यक्तित्व से लगता था कि वह अपने घर और परिवार के व्यक्ति हैं। हिन्दू और मुसलिम का कोेई फर्क नहीं पता चलता था।’ साहित्यकार यश मालवीय कहते हैं, ‘राजाओं-महाराजाओं के जमाने में भी सामूहिक रोजे-इफ्तार का आयोजन होता रहा है, उस जमाने में समाज के मानिन्द बुद्धिजीवियों को खासतौर पर आमंत्रित किेया जाता था। आज इस तरह के आयोजनों में राजनैतिक लोग ज्यादा मौजूद रहते हैं। फिर भी यह भारतीय एकता को तो प्रदर्शित करता ही है।’ इलाहाबाद में खुल्दाबाद व्यापार मंडल प्रकोष्ठ के सरदार मंजीत सिंह भी खूब जोशो-खरोश से रोजा इफ्तार पार्टी का आयोजन करते हैं। कहते हैं ‘हमें ये नहीं लगता कि यह सिर्फ मुसलमानों का मामला है, यह भारतीय और इलाहाबादी कौमो-मिल्लत का पैगाम बन गया है। इफ्तार में जितने मुसलमानों भागीदारी होती है, उससे अधिक गैर मुसलमानों की होती है।’
 रोजा इफ्तार पार्टी के एक अन्य आयोजक अरमान खान करते हैं कि त्योहार आपसी  मिल्लत का पैगाम लेकर आते हैं, रोजा इफ्तार भी ऐसा ही एक त्योहार है। यह इलाहाबाद ही नहीं पूरे देश की तहजीब का अहम हिस्सा बन गया है, पूरे देश में इस तरह का आयोजन होने लगा है। हमारी देखा-देखी ही अमेरिका के राष्टृपति भी रोजा इफ्तार पार्टी में शामिल हो रहे हैं, और मेजबानी भी करने लगे हैं। यह सिर्फ  इस्लामी तहजीब नहीं बल्कि भारतीय तहजीब का हिस्सा बन गया है।’ इस मौके पर सभी धर्मों के लोगों का एक साथ रोजा इफ्तार में शामिल होना कौमी यकजहती का परिचय तो देता ही है। सलीम शेरवानी द्वारा आयोजित होने वाले इफ्तार पार्टी जिसमें मुलायम सिंह तक शिरकत करते रहे हैं, के अलावा फायर बिग्रेड, रेलवे, हाईकोर्ट के वकीलों, विभिन्न शहरों के व्यापार मंडल, तमाम अदबी तंजीमों द्वारा आयोजित होने वाले रोजा इफ्तार पार्टियां भारत के गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल हैं, जिसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है।
हालांकि इसके एक बात यह भी उभरकर सामने आने लगी है कि रोजा निहायत धार्मिक मामला है, इसलिए इफ्तार पार्टी के आयोजन में यह जरूर देखा जाना चाहिए कि जिन लोगों या जिन संस्थाओं द्वारा ये आयोजन किए जा रहे हैं, उनकी आय स्रोत का जरिए जायज (हलाल की कमाई) है या नहीं है। कुछ शहरों में पुलिस विभाग द्वारा आयोजित होने वाले रोजा इफ्तार पार्टी में लोगों ने जाने से मना भी किया है।
                         

रविवार, 27 मई 2018

जागती आंखें, मंज़िल, अक्कासिये दिल और खुला आकाश


                    -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी



 मुरादाबाद  की रहने वाली मीना नक़वी देश की जानी-मानी उर्दू ग़ज़लकारा हैं, काफी समय से लेखन के प्रति सक्रिय हैं। पत्र-पत्रिकाओं के अलावा साहित्यिक आयोजनों में शामिल होती रही हैं। उर्दू में प्रकाशित इनके दो मजमुए ‘जागती आंखें’ और ‘मंज़िल’ मेरे सामने हैं। इन दोनों ही पुस्तकों को पढ़ते हुए शानदार ग़ज़लों से सामना होता है। जगह-जगह ऐसी ग़ज़लों से सामना होता है, जिन्हें पढ़कर ‘वाह-वाह’ कहना ही पड़ता है। ‘जागती आंखें’ में शायरी की शुरूआत ‘हम्द’ से की गई है। हम्द में कहती हैं ‘तेरी ज़मीन तेरा आसमां जहां भी तेरा/मकान भी है तेरा और लामकां भी तेरा। मेरे करीम कर तो अपनी मीना पर/कि ये हयात भी एहसाने बेकरां भी तेरा।’ आमतौर पर ग़ज़ल मजमुओं की शुरूआत लोग हम्द अथवा नात से करते हैं, मीना नक़वी ने भी यही किया है। हम्द से आगे बढ़ते ही एक से बढ़कर एक ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं, जिनमें रिवायती और जदीदियत दोनों तरह की शायरी है। पहली ग़ज़ल में कहती है- ‘यूं गुलों के दरमियां हैं जागती आंखें मेरी/जैसे खुश्बू में निहां हैं जागती आंखें मेरी।’ इनकी ग़ज़लोें के बारे में नज़ीर फतेहपुरी लिखते हैं कि- ‘ज़िन्दगी एक ऐसी कहानी है, जिसमें किसी तन्हा किरदार के लिए गुंजाइश कम ही होती है और अगर उस कहानी में हालात का मारा हुआ कोई किरदार तन्हा है तो वह अपने आपमें इज्तराब का शिकार है। ऐसे हालात में इसे किरदारशानी की तलाश होती है। जब किरदारेशानी किरदारे अव्वल से मिल जाता है तो दास्तान मुकम्मल हो जाती है। लेकिन कुछ कहानियां ऐसी भी होती है जिनमें मुअवद्द किरदार जिसको कहानी के सारे किरदार तलाश कर रहे हों वह किरदार आएं तो दास्तान मुकम्मल हो’- कहां तुम हो वफ़ा तलाश में/तुम्हें किरदार सारे ढूंढ़ते है।’



इनके दूसरे मजमुए ‘मंज़िल’ की बात करें तो इस किताब में भी इसकी तरह की शायरी से सामना होता है। इस किताब की शुरूआत में हम्द के बाद नात में वह कहती हैं-‘ वह नूरे हक़ रहमतों के पैकर, सलाम उन पर दरूर उन पर/ है जिनके दम से जहां मुनव्वर, सलाम उनको दरूर उनको। शउर  उनको यूं ज़िन्दगी का आया, तमाम आलम पे नूर छाया/करम है उनका ये आगही पर, सलाम उनपर दरूर उन पर।’ फिर एक ग़ज़ल में कहती हैं-‘क्या अजब दिल का हाल है जानां/बस तबीयत नेढाल है जानां। कुरबतों से नवाज़ दे मुझको/मेरे लब ने सवाल है जानां।’ इस तरह कुल मिलाकर मीना नक़वी की शायरी में आज के समाज और इसमें गुजरती ज़िन्दगी और इसके हालात की तर्जुमानी मिलती है, जो शायरी का सबसे अहम पहलू होना चाहिए। ऐसी शायरी के लिए मीना नक़वी मुबारकबाद की हक़दार हैं।
 महामहिम श्री केशरी नाथ त्रिपाठी जी वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। इलाहाबाद के रहने वाले श्री त्रिपाठी राजनीतिज्ञ के अलावा अधिवक्ता और कवि भी हैं। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके काव्य संग्रह ‘मनोनुकृति’ का उर्दू अनुवाद ‘अक्कासिये दिल’ नाम से डाॅ. यासमीन सुल्ताना नक़वी ने किया है। डाॅ. यासमीन ने इस अनुवाद के जरिए उर्दू दां तक इस किताब को पहुंचाने का सराहनीय कार्य किया है। उनके इस काम पर टिप्पणी करते हुए प्रेम शंकर गुप्त जी लिखते हैं-‘ डाॅ. यासमीन को उर्दू मादरी ज़बान की शक़्ल में हासिल हुई, वह गंगा-जमुनी तहज़ीब की मुकम्मल शक़्ल की नुमाईंदा हैं। मैं सालों से उन्हें मुसलसल कामयाबी की सीढ़ी पर आगे बढ़ते देखकर खुश होता रहा हूं।’ स्वयं महामहिम केशरी नाथ त्रिपाठी जी कहते हैं-‘मुझे उर्दू नहीं आती। दिन-प्रतिदिन की बोल-चाल में प्रयुक्त, या न्यायालय कार्य से संबंधित दस्तावेज़ों में लिखे उर्दू के शब्दों तक ही मेरा ज्ञान है, परंतु इतना मैं अवश्य कहूंगा कि उर्दू भाषा में भी सम्प्रेषण शक्ति बहुत अधिक है। यदि अनुवाद के माध्यम से मेरी रचनाओं के भाव उर्दू-भाषी पाठकों के पास पहुंच जाय तो यह मेरा सौभाग्य है।’ ‘तलाश’ शीर्षक की कविता अनुवाद डाॅ. यासमीन ने यूं किया -‘ अभी भी मुझे तलाश है/उस अनमोल  पेंसिल-काॅपी की/जो मुझे मिली थी इनआम में/जब मैं काॅलेज का तालिब-इल्म था और साथ में मिली थी/ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट/ और पीठ पर शफ्क़त भरी थपथपाहट/जो बन गई मेरे लिए/मील का संगे-अव्वल।’ कुल मिलाकर डाॅ. यासमीन के इस कार्य की जितनी सराहना की जाए कम है। 164 पेज के तर्जुमे की किताब को उर्दू लिपी के अलावा देवनागरी में प्रकाशित भी किया गया है। किताब महल ने इसे प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 300 रुपये है।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले की रहने वाली मंजू यादव अध्यापिका हैं, पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं, कई सहयोगी संकलनों में रचनाएं छपी हैं। कुल मिलाकर काफी समय से साहित्य के प्रति सक्रिय हैं, ख़ासकर कहानी और काव्य लेखन को लेकर। हाल ही में उनका कहानी संग्रह ‘खुला आकाश’ प्रकाशित हुआ है, पुस्तक का संपादन डाॅ. हरिश्चंद्र शाक्य ने किया है। इस संग्रह में कुल 10 कहानियां शामिल की गई हैं। इनकी कहानियों में आम आदमी की पीड़ा, घुटन, गरीबी, लाचारी, भुखमरी, शोषण, नारी मुक्ति आदि का चित्रण हैं, जो समाज की स्थिति का वर्णन कर रही हैं। पुस्तक की पहली कहानी ‘खुला अकाश’ जो कि पुस्तक का नाम भी है, इसमें महिला के जीवन की तुलना पिंजड़े में बंद चिड़िया के जीवन से की गई है। कहानी में बाल मनोविज्ञान के साथ-साथ नारी स्वतंत्रता की भावना का वर्णन है। छोटे बच्चे देव को उसके चाचू जन्म दिवस पर उपहार में रंग-बिरंगे चिड़िया से भरा पिंजड़ा देते हैं। चिड़िया पहले तो रिहाई की गुहार लगाती प्रतीत होती है, लेकिन जब उन्हें पिंजड़े में ही सुख-सुविधाएं मिलती हैं तो वे फिर पिंजड़े में ही रहने की आदि हो जाती हैं और पिंजड़ा खोल देने पर भी नहीं उड़ती हैं। जिस प्रकार खुला पिंजड़ा होने पर भी चिड़िया उड़ती नहीं है, उसी प्रकार औरत को भी खुला आकाश त्यागकर घर रूपी पिंजड़े में अपनों के साथ रहकर सारे सुख मिल जाते हैं। इसी प्रकार अन्य कहानियों में समाजी सरोकार को जोड़ते हुए औरत की स्थिति का वर्णन किया गया है। 80 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को निरूपमा प्रकाशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 160 रुपये है।

गुफ्तगू अप्रैल-जून 2018 अंक में प्रकाशित