चित्रा मुद्गल से इंटरव्यू के दौरान बात करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव |
चित्रा मुद्गल सुप्रसिद्ध हिंदी कथा लेखिका हैं। एक जमीन अपनी, आवां, गिलिगुड, नालासोपारा पो.बा.न. 203 उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। भूख, लाक्षागृह, जहर ठहरा हुआ, अपनी वापसी, इस ध्यान में, जिनावर, लपटें, ग्यारह लंबी कहानियां, जगदंबा बाबू गांव आ रहे हैं, केंचुल, मामला आगे बढ़ेगा आदि उनके प्रकाशित कहानी संग्रह हैं। उन्होंने कई लघुकथाएं, कथात्मक रिपोर्ताज, बाल उपन्यास और नाट्य रूपान्तरण भी रचे हैं। वे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकीं हैं, जिसमें व्यास सम्मान, इंदु शर्मा कथा सम्मान, साहित्य भूषण और वीर सिंह देव सम्मान शामिल हैं। बहुत ही मृदुल और सरल स्वभाव की धनी चित्रा जी ने अपने पचहत्तरवें वर्ष में सबसे पहला साक्षात्कार सिर्फ़ ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के लिए दिया है। इस साक्षात्कार में पहली बार उन्होंने कुछ ऐसे तथ्यों को प्रकट किया है, जो इससे पहले उन्होंने किसी साक्षात्कार में उद्घाटित नहीं किए। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव और प्रियंका प्रिया ने उनके आवास पर 1 अप्रैल 2018 को उनका साक्षात्कार लिया।
सवाल: अपने जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?
जवाब: उन्नाव से 70 कि. मी. दूर ग्राम-निहालीखेड़ा मेरा पैतृक गांव है। मेरा जन्म 10 दिसम्बर 1943 को चेन्नई में हुआ। मेरे पिता बहुत बड़े नेवल अधिकारी थे। मेरा पालन पोषण चेन्नई में हुआ। मेरे बाबा (दादा) डाक्टर थे। मैं एक बहुत बड़े जमींदार खानदान की पोती थी। पौने चार वर्ष में बिले पार्ले, मंुबई में मैंने पहली कक्षा में दाखिल लिया था। ठीक उसके बाद हम सपरिवार गांव आ गए। मेरे दो बड़े भाई कुंवर कमलेश बहादुर सिंह, कंुवर कृष्ण प्रताप सिंह और एक छोटी बहन केशा सिंह हैं। जमींदार खानदानों में लडकियों के प्रति सावधानी और सतर्कता के चलते यह जाना कि लड़की और लड़के में क्या फ़र्क़ होता है। हमारे लिए यह अनुमति नहीं थी कि हम अपने घर के मुख्य द्वार से बाहर निकल सकें। ऐसे सामंती परिवेश में मैंने यह भी जानने की कोशिश की कि मुझमें और गांव की अन्य लड़कियों में इतना फ़र्क़ क्यों है? मुझे समाज की विसंगतियों से असंतेाष भी होता था, जब मैं मां से पूछती तो वे चुप रहने के लिए कहतीं थी। घर के प्रतिबंधों ने मेरे अंदर आक्रोश उत्पन्न किया। जब मेरे अध्यापक ने मुझसे मेरी पसंदीदा कहानी पंूछी तो मंैने ‘ठाकुर का कंुआ’ बताई क्योंकि कहीं न कहीं मैं इस भेदभाव के प्रति संवेदनशील होकर सोचती थी। बचपन में जो चीज मुझे चुभती थी, वे कहीं मेरी स्मृति में दर्ज हो गईं।
सवालः ऐसा लगता है कि स्त्री विमर्श अब देह विमर्श में बदल गया है, क्या आपको लगता है कि स्त्रियों की वास्तविक समस्याएं साहित्य में प्रतिबिंबित हो रही है?
जवाबः मुझे वास्तव में ऐसा लगता है कि स्त्री विमर्श अपनी पटरी से उतर चुका है। जिस समय स्त्री विमर्श को लेकर कोई चर्चा नहीं थी, उसे मुद्दा या आंदोलन नहीं बनाया गया था, तब भी स़्त्री को अपने वस्तु के रूप में पहचाने जाने से इंकार था। उसकी लड़ाई यही थी कि उसे एक वस्तु के रूप में देखा गया। वस्तु जिसे पितृसत्ता ब्याह कर अपने घर के आंगन की चाहरदीवारी में सुरक्षा, विरासत, संस्कृति आदि के नाम पर बंद कर दिया करती थी। स्त्रियों का मानसिक अनुकूलन इस प्रकार बनाया गया कि जिस स्त्री के पास सोने-चांदी के आभूषण हैं, वह बहुत सौभाग्यशाली है। इस शाश्वत सत्य को महत्व नहीं दिया गया कि स्त्री अपनी काया में एक वस्तु नहीं हैं अपितु वह अति संवेदनशील, विचारशील मानवी है। 70 के आसपास भारत की बेटी रीता फाड़िया को मिस वल्र्ड चुना गया था, उसी दिन स्त्री की देह की नाप-जोख शुरू हो गयी थी। इसे स्त्री के स्वात्रंत्र्य से जोड़ा गया लेकिन स्त्री को मूर्ख बनाया गया और आज तक बनाया जा रहा है क्यांेकि वस्तु के रूप में मुक्ति के बजाय स्त्री को सौंदर्य के नाम पर एक प्रोडक्ट के रूप में पेश किया जाने लगा। अभी विज्ञापन जगत के प्रहलाद कक्कड़ ने बहुत सही और कड़वी बात कही कि औरत जब मंच पर कैटवाक करती है तो उसकी देह का इंच-इंच बाजार में गिरवी होता है, लेकिन स्त्रियां इस बात को समझने को राजी नहीं हैं, क्योंकि पुरूष उनका मानसिक अनुकलन अपने उपभोग के लिए ही करता है, लेकिन यह भी तथ्य है कि पुरूषों ने ही स्त्रियों की मुक्ति की आवाज़ उठाई। आज स्त्री समझ ही नहीं पा रही, स्त्री विमर्श तो बहुत पहले से ही शुरू हो चुका था। जैसे-राजा राम मोहन राय, दयांनंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले, ईश्वर चंद विद्यासागर, सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों की स्वतंत्रता के प्रश्न उठाए। लेकिन इस विमर्श को भटका दिया गया, बड़ी खूबी से स्त्री स्वातंत्र्य की बात करते हुए उसे यौन-स्वतंत्रता से जोड़ा गया, ऐसा माहौल बनाया गया कि जिस देह के गिरवीपन से स्त्री को मुक्ति चाहिए थी, उसे स्वेच्छा से वह देह के प्रति सजग होकेर एक प्रोडक्ट की तरह स्वयं प्रस्तुत कर रही है। मेरा उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ उसी साजिश की शिकार हो रही स्त्री को जगाने की कोशिश थी। सवाल है कि तुम अपनी ज़मीन बना कहां पा रही हो। हम तो अपने मित्रों के साथ इसे लेकर बहुत दुःखी हैं। राजेन्द्र यादव ने इस विमर्श को स्त्री देह या यौन स्वतंत्रता के साथ जोड़कर फामूर्लाबद्ध आन्दोलन बनाया। लोगों ने ऐसी कहानियां लिखना शुरू कर दिया जिसमें सिर्फ़ देह और यौनाचार के स्वातंत्र्य को ही स्त्री की स्वतंत्रता मानने का भ्रम होने लगा। वस्तुतः स्त्री को पितृसत्ता की रूढ़ियों से मुक्ति चाहिए थी, पुरूष से नहीं। उसे पुरूष से कोई दुश्मनी नहीं थी। देह के फार्मूले कि ‘यौनिकता की स्वतंत्रता से ही स्त्री स्वतंत्रता हो सकती है’ ने ऐसा साहित्य रचवाने में ‘हंस’ पत्रिका की बड़ी भूमिका रही। राजेन्द्र यादव ने इसे फैलाया। स्त्री इस जाल में फंस गई। वह समझने लगी कि यौनिक स्वच्छंदता को हासिल किए बिना वह स्वंतत्रत नहीं हो सकती। इस प्रकार स्त्री विमर्श की दिशा भटक गई जबकि होना यह चाहिए था कि यदि किसी स्त्री का बलपूर्वक या अनायास किसी के साथ देह-संबंध होता है तो अपने दांपत्य जीवन में पितृसत्ता को उसे उसी प्रकार क्षमा करना चाहिए जिस प्रकार स्त्री पुरूषों को परस्त्रीगमन के बावजूद क्षमा करती आई है और दाम्पत्य संबंधों की परस्परता पर आंच नहीं आने दी, हालांकि तब भी स्वयं को लेकर उसका कोई आत्मस्वर नहीं था। दुर्भाग्य से विज्ञापन जगत ने स्त्री को वस्तु से मुक्त करने के बजाय बज़ार में अनावश्यक जगह उसे वस्तु बनाकर रख दिया।
सवालः आप सामाजिक सरोकारों पर लिखतीं हैं, क्या वाकई साहित्य से समाज प्रभावित होता है और क्या साहित्य समाज से प्रेरित होता है?
जवाबः बिल्कुल होता है। साहित्य मनुष्य की चेतना का आईना है। जब तक रचनाकार की अभिव्यक्ति उसकी चेतना का आईना नहीं बनती है कि वह स्वयं को इस प्रकार देख सके कि वह क्या नहीं सोच सका और क्या नहीं देख पाया? जब वह ऐसा कर पाता है तब ही वह लिखता है। जब वह भावनात्मक उद्वेलन से गुजरते हुए लोगों की भावना को अपने भीतर उतरता हुआ महसूस करता है। तब वह लिखता है। मेरा मानना है कि लेखन स्वन्तः सुखाय नहीं होता है। कला आपको आप की अंतश्चेतना में ले जाएगी और आपको आत्ममुग्ध बनाएगी। आपको आनंदित करेगी, परमानंद का एहसास देगी। किन्तु आपके मन में प्रश्न नहीं उठाएगी। सृजनात्मक लेखन आत्मसुख नहीं है, जब तक वह आपको समाज के प्रति सोचने के लिए विवश नहीं करता है। जब सृजनकार रचना करता है तो यदि उसमें कहीं प्रतिरोध की सच्ची आवाज है, शब्द साधना है, चेतना का आईना है, तो वह रचना उद्वेलित होकर पीछा करती है। जब कोई रचना पीछा करती है तो परिवर्तन की नींव रखी जाती है। यह परिवर्तन रूढ़ियों की श्रृंखलाओं को काटता है।
सवालः आपकी दृष्टि में स्त्री विमर्श क्या हैं?
जवाबः स्त्री विमर्श भी समाज विमर्श के दायरे में ही है। समाज का जो आधा अंग है अगर उसकी कोई बुनियादी समस्याएं हैं तो उनके बारे में बात होनी चाहिए। लेकिन यह केवल कोरी बात तक ही सीमित न हो बल्कि समाज अपनी गलतियों को स्वीकार कर उसका एहसास भी करें, तभी बदलाव होगा। पूरे समाज के भीतर जब मैं स्त्री की बात करती हँू, तो मैं एक तरह से समाज की मानसिकता का खुलासा कर रही होती हँू। यदि सड़कों से गुजरती हुई लड़की अपने समाज की कुदृष्टि का शिकार हो रही है, तो यह हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। जब तक समाज लड़की की सुरक्षा के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदलेगा तब तक कुछ नहीं सुधरने वाला। ऐसे में पुरूष की दमित इच्छाएं या कामान्धता ही उभर कर सामने आएगी। मेरा लेखन मुझे उन स्थितियों की तरफ सोचने को विवश करता है कि अपने कहे के मनोविज्ञान को क्या मैं पकड़ पा रही हूं। पितृसत्ता द्वारा हो रहे स्त्री के वर्षांे के उत्पीडन को मैं विमर्श के माध्यम से चर्चा में ले आती हूं। मनुष्य की काया में जो एक भेड़िया आदमी के अंदर समाया हुआ है, उसके संरक्षण के बाहर की स्त्री इस भेड़िये का आहार है। जब समाज सबल और अबल सोचना बंद कर देगा तब शायद इस स्थिति में अंतर आए। सबलता वटवृक्ष की छांव की तरह होनी चाहिए। स्त्री की चेतना, उसकी सशक्तता, उसके सामथ्र्य को लेकर जब मैं सोचती हूँ तो मुझे लगता है कि स्त्री की कोख में संपूर्ण पृथ्वी और ब्राह्मांड की शक्ति समाई हुई है।
सवालः आपका उपन्यास नाला सोपारा पो. बाक्स न. 203 समाज द्वारा उपेक्षित किन्नर वर्ग पर केन्द्रित है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के दौर में किन्नर विमर्श की ओर आपका ध्यान कैसे गया?
जवाबः जब कई सामाजिक मुद्दों की लड़ाई में हम कामगार अखाड़ी, स्वाधार, जागरण के माध्यम से संघर्षरत थे तब हमारी सोच में किन्नरों की दुरावस्था को लेकर एवं समाज में उनके प्रति कोई संवेदनशीलता न होने को लेकर, कोई प्रश्न नहीं उठा। 1982 की बात है जब मैं दिल्ली से अपने पति अवध जी के साथ बच्चों समेत पश्चिम एक्सप्रेस से मुंबई लौट रही थीं तब मेरा साक्षात एक किन्नर से हुआ। जब ऐसे अनुभव से मैं गुजरी, उस युवक ने अपनी जिंदगी के पृष्ठ जिस तरह खोले, मैं उसकी जुबानी इसकी साक्षी बनी। तब मुझे लगा कि मैं कैसी सामाजिक कार्यकर्ता हूं, जो मैंने इन लागों की स्थ्तिि को लेकर कभी सोचा ही नहीं, हमेशा एक सामान्य नागरिक की तरह उन्हें कौतुक की दृष्टि से देखा। जब मैंने पात्र से साक्षात्कार किया तो मैं भीतर तक हिल गई कि मैं एक पढ़ी-लिखी स्त्री हूं, बाव़जूद इसके मैं कैसे समाज की बेहतरीन चैतन्य नागरिक हो सकती हूं, जबकि हमने अपने जैसे मनुष्य की काया वाले दूसरे लोगों के साथ कैसा उपेक्षित और बहिष्कृत बर्ताव किया है?
अतः इन मुद्दों को विमर्श के केन्द्र में लाकर लोगों का ध्यान उस ओर ले जाना होगा, तभी समाज की संकीर्ण सोच में परिवर्तन आएगा। सबसे पहले हमें उन सवालों से टकाराना होगा या उन मुद्दों को उठाना होगा कि आखि़र इस तरह का उपेक्षित जीवन जीने के लिए सदियों-सदियों से समाज ने उन्हे बाध्य क्यों किया। हमें उनको केवल कौतुक रूप से नहीं देखना है। बल्कि समाज में इनके प्रति जागरूकता फैलाना नितांत आवश्यक है। नालासोपारा पोस्ट बाॅक्स न. 203 ऐसे ही सवालों को उठाकर समाज को कटघरे में लेने की भूमिका रचता है। हमें विचार करना चाहिए कि यदि हाथ-पैर, आँख-कान आदि से विकलांग बच्चों के लिए समाज में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अवसर हैं, तो फिर थर्ड जेंडर को सिर्फ़ इसलिए घर-परिवार और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना कहां तक उचित है क्योंकि वे यौन-विकलांग या लिंग विकलांग हैं? मेरी और मानवता की दृष्टि से यह जघन्य पाप है, जिसका प्रायश्चित समाज को करना है। नालासोपारा पोस्ट बाॅक्स न. 203 में यह सारे सवाल उठाए गए हैं। इस विमर्श को जब मैंने नालासोपारा में उठाया तो बहुत से पाठकों ने मुझे टेलीफोन और एस.एम.एस करके बताया कि अब जब भी हमारे सामने यौन विकलांग हमें घेरने की कोशिश करता है तो हम भय नहीं खाते। इस प्रकार लोगों की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन आया। मैं तो चाहूंगी कि नालासोपारा को विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में युवा पीढ़ी को पढ़ाया जाना चाहिए। जब वे अपने परिवार में रहेंगे, देखिएगा कि बीस-पचीस वर्षों में आपको परिवर्तित परिदृश्य दिखाई देगा।
सवालः आपने कुछ रचनाओं का अनुवाद कार्य भी किया है। एक साहित्यिक कृति को अनूदित करते समय क्या सावधानियां रखनी होती हैं?
जवाबः मैं सच बोलूं तो मंैने किसी क्लासिक साहित्यिक कृति का अनुवाद नहीं किया है, मैंने अधिकांशतः मराठी, गुजराती और अंग्रेजी से अनुवाद किया है, मराठी मैंने मंुबई में आसपास के वातावरण से बातचीत सवंाद से सीखी। गुजराती मैंने पांचवीं से लेकर हायर सेकेण्डरी तक एक विषय के रूप में पढ़ी। गुजराती से बहुत अच्छे लेखकों जैसे-सरोज पाठक, पन्नालाल पटेल, इला अरब मेहता, कुन्दनिका कापड़िया आदि की रचनाओं का मैंने अनुवाद किया। मराठी से मैंने विजया राज्याध्यक्ष, गंगाधर गाडगिल की रचनाओं का अनुवाद किया। विद्यार्थी जीवन में यह मेरे लिए एक पाकेट मनी की तरह था और शायद मेरे आत्मनिर्भर होने की दिशा में पहला कदम था। जब मैं कोई कृति पढ़ती हूं तो उसको पढ़ते हुए उसमें व्यक्त भावों और अर्थ, उसके मनोविज्ञान को पकड़ती हंू और उसे आत्मसात करती हूं। कमलेश्वर की कहानी ‘देवा की मां’ पढ़ती थी तो मैं एक पाठक के रूप में देवा की मां सा अपने भीतर महसूस करती थी। इसी तरह कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे यह ध्यान रखना होगा कि उसका मात्र शाब्दिक अनुवाद न हो क्योंकि शाब्दिक अनुवाद होगा तो कहानी के भीतर की भावात्मक अर्थ क्षतियों की पूर्ति न हो सकेगी। ऐसे शाब्दिक अनुवाद से कहानी की आत्मा परिलक्षित नहीं हो सकेगी। अतः किसी भी रचना का अनुवाद करते समय यह ध्यान रखना है कि मात्र शाब्दिक खाका ही न उतारा जाए, बल्कि मनोभावों के रसायन को समझ पाना नितांत आवश्यक हैं क्योंकि साहित्य जब तक मर्म को छूता नहीं है तब तक प्रभावी नहीं होता है। जब तक रचना पाठक को स्वयं को विस्मृत करने के लिए बाध्य नहीं कर देती, तब तक साहित्य का एक्टिविज्म शुरू नहीं हो पाता और साधारणीकरण नहीं हो पाता। अनुवादक जब तक रचना में रम कर रचनामय नहीं हो जाता, तब तक अनुवाद, अनुवाद नहीं होता। अनुवाद में सही आशय को पकड़ लेना बहुत आवश्यक है। मूल भाषा में लिखा गया पत्र दिल को छूता है। उसकी आशय, दृष्टियां खुलती चलती हैं और आपकी चेतना के वरक्स खड़ी हो जाती हैं, आप उसको बुनते हैं।
सवाल: राजभाषा के रूप में हिंदी के स्थापित होने को आप किस प्रकार देखती हैं?
जवाब: जब तक हमारी राजनितिक सत्ता अपनी इच्छा शक्ति को सुदृढ नहीं कर लेती और किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती, तब तक हिन्दी सही मायने में ना राजभाषा बन सकती है ना राष्ट्रभाषा। यदि हमारे देश का एक राष्ट्रीय ध्वज है तो एक राष्ट्रभाषा भी होनी चाहिए। दक्षिण वाले, पश्चिम वाले क्या सोचेंगे इससे राजनीति को ऊपर उठना होगा, तुष्टिकरण की नीति को त्यागना होगा। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और प्राइवेट सैक्टरों में हिन्दी ही कामकाज या क्रियान्वयन की भाषा होनी चाहिए। यह अब अच्छी तरह जाहिर है कि वोट कार्ड को देखते हुए हमारी सत्ता कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती। दक्षिणी राज्यों को लेकर सरकार की तुष्टिकरण की नीति के चलते हिन्दी को उसका स्थान नहीं मिल पा रहा है। अगर मलयालम या तमिल देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा होती तो मलयालम या तमिल हमारे देश की राष्ट्रभाषा होती। महात्मा गांधी ने देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा था। वर्तमान भाजपा सरकार ने भी इस बारे में अपेक्षित इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। यदि इसी तरह सरकार तुष्टिकरण की नीति अपनाती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में मात्र अंग्रेजी ही हमारी राजभाषा रह जाए। हिन्दी-उर्दू के भेद को भी तूल नहीं देना चाहिए। एक बार जावेद अख़्तर ने मुझसे कहा कि फिल्मों के गीत तो उर्दू के गीत हैं, हिन्दी के नहीं। तो फिर उन्हांेने ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा‘ गीत क्यों लिखा। आप बताइए इसमें कितनी हिन्दी है, कितनी उर्दू है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि हम अपने अध्यात्म-दर्शन, गौरवशाली परंपराएं, यहां तक कि अपनी संस्कृति की वाहक भाषाएं तक छोड़ते जा रहे हैं और पाश्चात्य शिक्षा को स्वीकार कर रहे हैं। निस्संदेह हमें अपनी भाषाओं की ओर लौटना होगा तभी हम अपनी संस्कृति और मूल्यों को जीवित रख सकेंगे। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है तो मैं मानती हूं कि वह हमारे देश की सामासिक संस्कृति की प्रतीक है और देश की राजभाषा-राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने की अधिकारिणी हैं।
सवालः आज के दौर में साहित्य और पत्रकारिता के अंतर्संबंधों पर आपके क्या विचार हैं?
जवाबः देखिए अब अखबार फिर से साहित्य की जरूरत महसूस करने लगे हैं। इधर कुछ समय से जनसत्ता, हिंदुस्तान, जागरण, अमर उजाला जैसे अख़बारों ने कहानियां प्रकाशित करना शुरू किया है। मैं हिंदुस्तान की विशेष प्रशंसा करना चाहूंगी कि वे तमाम प्रसिद्ध रचनाओं के अंश को प्रकाशित कर रहे हैं। इधर हिंदी के कई अख़बारों ने साहित्यकारों को भी संपादक नियुक्त किया है। इधर कुछ समय से उमर उजाला वरिष्ठ साहित्यकारों की बैठक प्रकाशित कर रहा है। हां, साहित्यिक पुस्तकों की समीक्षाएं अवश्य छोटी कर दी गई हैं। अब संपादक पाठकों की रचनात्मक पिपासा को समझ रहे हैं। कह सकते हैं कि ऐसे अख़बार साहित्यिक पत्रिकाओं की कमी को भी दूर करने का प्रयास कर रहे हंै। प्रताप सोमवंशी, यशवंत व्यास और राजेन्द्र राव जैसे संपादक, जो स्वयं भी रचनाकार हैं, इस मर्म को समझ रहें हैं कि पाठकों की संवेदनशीलता को भी बनाए रखना है ताकि पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से श्रेष्ठ, दायित्वपूर्ण और प्रतिरोधी नागरिकों का निर्माण हो सके। विज्ञापनों के आतंक के बावजूद साहित्य को बचाने के लिए अख़बार फिर बड़ी आश्वस्तकारी भूमिका में लौट रहे हैं, यह भविष्य के लिए बड़ा सुखद संकेत है। साहित्य का बचा रहना, कहीं न कहीं समाज के उन्मेष का बचा रहना हैं।
सवालः आपके अनुसार नए युवा कहानीकार और उपन्यासकार, जो अच्छा लिख रहे हैं?
जवाबः मैं योगिता यादव के उपन्यास ‘ख्वाहिशों के खांडवप्रस्थ’ का जिक्र करना चाहूंगी। इसमें दिल्ली राजधानी क्षेत्र के अंतर्विरोध को योगिता ने सटीकता से पकड़ा है। इसके अतिरिक्त अल्पना मिश्र का उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘स्वप्नपाश’, विनोद चन्द्र पाण्डेय (उ०प्र० की खिड़की), मनोज पाण्डेय आदि उल्लेखनीय है। एक बहुत अच्छा उपन्यास सूर्यनाथ सिंह का ‘नीद क्यों रात भर नहीं आती’ श्री लाल शुक्ल के राग दरबारी की याद दिलाता है।
सवालः आपकी सबसे प्रिय रचना?
जवाबः मैं कैसे कहूं कि मेरी प्रिय रचना कौन-सी है। मैं समझती हूं कि मेरा आने वाला उपन्यास ‘नकटौरा’ है।
सवालः अपने पति कथाकार कवि अवध जी को आप किस प्रकार याद करतीं हैं ?
जवाबः वे हमेशा मेरी स्मृतियों में हैं। मेरी प्राण वायु वही हैं। अब वे इस दुनिया से अवश्य चले गए लेकिन मैंने बिंदी लगाना अभी भी नहीं छोड़ा। वे कहते थे कि चित्रा तुम्हारा माथा चैड़ा है, इस पर बिन्दी बहुत अच्छी लगती है। आज भी जब मैं बिन्दी अपने माथे से चिपका रही होती हूं अवध जी देख रहे होते हैं, शीशे में मेरी प्रतिछवि होती है, मैं पूछती हूं ‘बिंदी ठीक लगी है ना अवध?’ तो अवाज मुझे सुनाई देती है, ‘नहीं थोड़ी बीच में कर लो’। वे सिर्फ़ मेरे पति नहीं थे, मेरे प्रेमी, मेरे सबसे गहरे दोस्त भी थे। शादी के बाद मैंने उनसे कहा कि मैं समाज के बीच झोपड़ पट्टी में रहना चाहती हूं, तो उन्होंने सहमति देते हुए कहा कि मेरा घर दीवारें नहीं, चित्रा तुम हो। फिर ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के उप-संपादक मेरे साथ झोपड़ पट्टी में 25 रूपए की खोली में किराए पर रहे, ऐसे थे कथाकार, कवि अवध नरायण मुदगल।
सवालः आजकल आपके अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है?
जवाबः अभी तो मेरा 2016 में नाला सोपारा पो. बा. नं. 203 आया है। अब मैं ‘नकटोरा’ उपन्यास पर पिछले 4-5 वर्षों से काम कर रही हूं जो लगभग पूरा हो चुका है। इसमें प्रयोग के साथ ही मेरी निजी ज़िंदगी की स्मृतियां व अतीत है और वर्तमान ज्यों का त्यों है। इसमें अपने निजत्व से बाहर निकलकर महिला के समाज के साथ संघर्ष की अभिव्यक्ति है। इसे मेरी निजी डायरी भी माना जा सकता है। आशा है इसी वर्ष यह पाठकों के बीच आ जाएगा।
सवालः एक स्त्री होने के कारण, साहित्य जगत में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
जवाबः नहीं देखिए, हमने एक स्त्री लेखिका के रूप में लेखन को नहीं अपनाया। वस्तुतः हमने लेखन को अपनाया। हम तो कभी संपादक से मिलते भी नहीं थे। हम डाक से अपनी रचनाएं पत्रिकाओं में भेजते थे। अख़बार के उप-संपादक श्रेष्ठ रचनाओं को छांटकर प्रकाशित करने की संस्तुति करते थे। लेखक और पत्रिका के बीच मात्र लेखन ही माध्यम था, स्त्री या पुरूष रचनाकार होना कोई मायने नहीं रखता था। मैंने 1962 से लिखना शुरू किया। हम यह नहीं मानते कि ग्लोबलाइजेशन आज की देन है बल्कि हमारा गलोबलाइजेशन तो उसी समय साहित्य के माध्यम से हुआ। दरअसल, जन का इतिहास, उसके स्वभाव, देश और अहंकार के अतर्विरोध को साहित्य ही हमारे सामने लाता है।
सवाल: युवा लेखक-लेखिकाओ यों को क्या संदेश देना चाहेंगी?
जवाब: आप जो भी तकनीकी या गैर तकनीकी शिक्षा लेना चाहते हंै वह अवश्य लें, किंतु यह अवश्य ध्यान रखें कि साहित्य की पुस्तकंें भी आपकी साथी होनी चाहिए। साहित्य को अपने से कभी दूर न करें। सहित्य आपको एक बेहतर मनुष्य और दायित्वपूर्ण नागरिक बनाता है, समाज के प्रति आपकी आंखों की चैखटें खोलता है, आपकी संवेदनशीलता को जीवित रखता है। यदि आप संवेदनशील नहीं हैं तो आप विचारशील मनुष्य कभी नहीं हो सकते। जिस समाज की युवा पीढ़ी साहित्य से नाता तोड़ लेती है तो मानिए कि वह पीढ़ी मात्र रोबोट बन रहीं है। अतः आपको भारतीय और विदेशी लेखकों को अवश्य पढ़ना चाहिए। आप दुनिया भर का साहित्य पढ़िए वो आपके अनुभवों का विस्तार करेगा।
(गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2018 अंक में प्रकाशित)
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