मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

रोचकता भरी पत्रिका है गुफ्तगू-अजामिल

 
गुफ्तगू के नये अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद।गुफ्तगू बेहद रोचक पत्रिका है, यही वजह है कि नया अंक आते ही अगले अंक का इंतजार करने लगता हूं। इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री इतनी शानदार होती है कि एक ही दिन में पूरा पढ़ जाता हूं। लेकिन इसके ले-आउट को और बेहतर करने की जरूरत है, रचना के आधार पर बेहतरीन पत्रिका है। ये बातें वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अजामिल व्यास ने कही।वे 15 दिसंबर को महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्याल के परिसर में आयोजित विमोचन समारोह में बोल बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। अध्यक्षता कर रहे सागर होशियारपुरी ने कहा कि गुफ्तगू की शुरूआत इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने बेहद संघर्ष के साथ किया था, आज यह पत्रिका अपने पैरों पर खड़ी हो गई है।हमारे लिए बेहद प्रसन्नता का विषय है कि इलाहाबाद से इतनी अच्छी पत्रिका निकल रही है। विशिष्ट अतिथि नंदल हितैषी ने कहा कि इस युग में साहित्यिक पत्रिका निकालना घर फूंककर तमाशा देखने जैसा है, ऐसे में दस वर्षों तक पत्रिका का निकलाना बड़ी बात है। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।इनके अलावा डॉ.शाहनवाज़ आलम, चांद जाफरपुरी,तलब जौनपुरी, शाहिद सफ़र, रजनीश प्रीतम, पीयूष मिश्र, लोकेश श्रीवास्तव, शादमा जैदी शाद, कहकशां,विपिन दिलकश,शाहीन खुश्बू, भानु प्रकाश पाठक, विनय त्रिपाठी, रोहित त्रिपाठी, विमल वर्मा,शैलेंद्र जय और मंजूर बाकराबादी ने कलाम पेश किया। अंत में संजय सागर ने सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया। दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया।
कहकशां-
खुश्क पत्तों के बहारों में नज़र आती है,
धूप में छांव में तारों में नज़र आती है।
सच में कहती हूं सरे बज़्म मेरी बात सुनो,
मां मेरी मुझको हजारो में नज़र आती है।

अजय कुमार -
मेरी नज़रों में उसने क्या देख लिया ऐसा,
देख मुझे क्यों उसकी नज़रें झुक-झुक जातीं हैं।

अनुराग अनुभव -
सौंप दूं दिल की सब धड़कनें मैं तुम्हें
या अपरिमित खुशी का मैं विस्तार दूं।


रोहित त्रिपाठी रागेश्वर-
तुम्हारे प्रेम की खातिर मैं अपनी जान लिख दूंगा,
तुम्हें मैंने दिया सबकुछ मैं ये फरमान लिख दूंगा;
शिवपूजन सिंह -
जब भी उल्फ़त में हम उनका नाम लेते हैं।
बेवजह का इल्जाम हम अपने नाम लेते हैं।

प्रभाशंकर शर्मा -
तट पर अपना ठौर नहीं है
आगे मंजिल और नहीं है।


चांद जाफरपुरी-
नफरत के तीर जिसने उतारा हर इक घड़ी,
दिल ने मेरे उसी को पुकारा हर इक घड़ी।


लोकेश श्रीवास्तव-
एक शाम यूं भी थी गुजरी, दिगंत तक चांदनी थी बिखरी।

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
यूं तो कहते हैं हम तुझे सबकुछ
बस कभी अजनबी नहीं कहते।

शादमा ज़ैदी शाद-
मुफलिसी का जहां पर ठिकाना हुआ, अक़रबा का वहां दूर जाना हुआ।
तंगदस्ती ने ऐसा सितम कर दिया,ख़्वाब जैसे मेरा मुस्कुराना हुआ।
शाहिद सफ़र-
चमकती धूप में तारे निकाल देता है,
तू अपने होने का क्या-क्या मिसाल देता है।
 शैलेंद्र जय-
त्योरियां चढ़ाना भी फैशन हो गया
कितना यांत्रिक मानव जीवन हो गया।

मंजूर बाकराबादी-
मुसीबत में कभी सब्र का दामन न छोड़िये,
हिम्मत से बढ़कर शेर का पंजा मरोड़िये।

विपिन दिलकश-
सबाहत है मलामत है लबों पर है तबस्सुम भी,
नज़ाक़त है अदाओं में लचक में है तलातुम भी।
 शाहीन खुश्बू-
हाले दिल कभी न तुमको सुनाएंगे,
भूल से अब न तेरे कूचे में आएंगे।

भानुप्रकाश पाठक-
तुम्हें देखा हूं जबसे मुझे चैन नहीं आता है,
भटकता ये हमारा दिल तुम्हारे पास जाता है।
 जयकृष्ण राय तुषार -
सभी सरसब्ज़ मौसम के नये सपने दिखाते हैं।
हमें मालूम है कि वो किस तरह वादे निभाते हैं।

सागर होशियारपुरी -
दुनिया ने वो घोले हैं हर इक दिल में,
हंसता भी है इंसान तो हंसता नहीं लगता।


अजामिल व्यास -
चिर परिचित वर्तमान धधकता आग का जंगल,
चलो पुराने संदर्भ ही उलीचें।


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