-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
डाॅ. तारा गुप्ता देश की सुप्रसिद्ध साहित्यकारों में से एक हैं। ग़ाज़ियाबाद में रहती हैं, तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ी हैं। वर्ष 2016 में इन्हें ‘गुफ्तगू’ की ओर से ‘सुभद्रा कुमारी चैहान सम्मान’ प्रदान किया गया था। हाल में इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मौन की बांसुरी’ प्रकाशित हुआ है। 112 पेज वाली सजिल्द पुस्तक में 80 ग़ज़लें शामिल की गई हैं। पुस्तक की भूमिका में डाॅ. कुंअर बेचैन लिखते हैं- ‘डाॅ. तारा गुप्ता की ग़ज़लों में जो शब्द-व्यवहार हैं, जिससे कभी आत्म-तत्व और बाहा्र-जगत की टकराहट की दर्शन होते हैं तो कभी आत्म-तत्व की विजय के। जिसे हम आत्म-तत्व कहते हैं वह भी अपने अंदर एक मौन संगीत छुपाए रहता है, या यूं कहें कि यह संगीत ‘मौन की बांसुरी’ बनकर अपनी अनुगूंज से भीतर-भीतर एक ऐसी हलचल पैदा करता है जो ब्रहा्र के चारों और आत्माओं का नृत्य बन जाता है, मन वृंदावन में महारास को जन्म देता है।’ इस टिप्पणी से सहज ही समझा जा सकता है कि इनकी ग़ज़लों में वह संगीत है, जिसे ‘ग़ज़ल’ की वास्वतिक परिभाषा से जोड़ा जाता है। एक ग़ज़ल के मतला में कहती हैं- ‘हम न मानेंगे बुरा तुम शौक़ से इल्ज़ाम दो क्या ज़रूरी है हमाने नाम का उपनाम दो।’ इस तरह पूरी पुस्तक में जगह-जगह उल्लेखनीय अशआर से सामना होता है। इस पुस्तक को अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 220 रुपये है।
रांची, झारखंड की वीना श्रीवास्तव पत्रकार रही हैं और अब स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं। सात किताबें अब तक छप चुकी हैं, इनमें एक किताब का सपंादन भी शामिल है। पिछले दिनों ‘लड़कियां’ नाम से इनकी काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है। पुस्तक में लंबी-लंबी 13 कविताएं शामिल की गईं है। कवयित्री ने अपने जीवन के अनुभवों को इन कविताओं में विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है। पुस्तक की पहली कविता ‘लड़कियां’ और दूसरी कविता ‘लड़के’ शीर्षक से हैं। इन दोनों ही कविताओं में लड़कियों और लड़कों की मनः स्थिति का वर्णन अपने नज़रिए से किया है। लड़कियां कविता में कहती हैं-‘कुछ लड़कियां/होती हैं/जटिल निबंध/क्लिष्ट भाषा, बड़े-बड़े वाक्य /जिन्हें समझना है/बहुत मुश्किल/अपने आस-पास/ हठधर्मिता का कचव ओढ़े/जीती हैं ज़िन्दगी/कुछ होती हैं/प्रेमचंद की कहानियों की तरह/सीधी, सरल, प्रवाहमयी/भोली-भाली, गांव की गोरी/कुछ होती हैं/पंत की कविता की तरह/निर्मल, कोमल/प्रकृति की तरह निश्छल/जिसमें चाहता है दिल रम जाना।’ लड़के शीर्षक की कविता में कहती हैं-‘कुछ होते हैं/बादल से मनचले/जिनका नहीं होता/ठौर-ठिकाना/जो उड़ते रहते हैं/एक शहर से दूसरे शहर/मिट जाती है/ज़िंदगी जिनकी/दूसरे को/कुछ होते हैं/ उस माली की तरह जो अपने ही बाग के फूल को/बेच देते हैं/ दूसरे के हाथ कभी बालों में/ सजने के लिए /कभी गजरा बांधने के लिए।’ इसी तरह इस पुस्तक में शामिल ‘झरेगा हरसिंगार’, ‘वो बूढ़ी अम्मा’,‘नियति’,‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘सजा क्यों’, ‘सत्य परम’ आदि कवितों में विस्तृत वर्णन किया है, अपना नज़रिया पेश किया है। 136 पेज वाले इस पेपरबैक पुस्तक की कीमत 149 रुपये है, जिसे ज्योतिपर्व प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद ने प्रकाशित किया है।
रश्मि शर्मा रांची, झारखंड की रहने वाली हैं, काफी दिनों से लेखन कर रही हैं, पहले भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही उनकी नई पुस्तक ‘नदी को सोचने दो’ प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह में 100 कविताएं हैं। अधिकतर कविताओं में प्रेम-प्रसंग के अंतर्गत अपने एहसास का वर्णन किया गया है। काव्य का एक प्रमुख केंद्र बिंदु ‘प्रेम’ रहा है। उर्दू काव्य में तो प्रेम-प्रेसंग कविताएं ही प्रमुखतः रची गई हैं, लेकिन हिन्दी में सामाजिक विसंगतियांें केे साथ-साथ काव्य अपना स्थान रहा है। कवयित्री के पास अपने एहसास को पिरोने के लिए सही शब्द विधान है और उसकी उक्तियों में व्यक्त व्यंजनाओं में गहरे उतरने का कौशल भी। कई बार तेज बहाव में तैरती हुई बातें वर्णित होती हैं तो भी अभिव्यक्ति में भाषाई विसंगति प्रायः नहीं दिखती। उसके बिम्बों में उर्दू नज़्म की तासीर कहीं-कहीं अवश्य झलकती है, लेकिन उसके उद्गारों में प्रयुक्त उपालम्भों की ऐकांतिक निजता उनकी अपनी अर्जित पूंजी है। एक कविता में कहती हैं- ‘ओस की बूंदें पड़ने पर/लाजवंती/झुका के सर शरमाती थी/सुर्ख गुलाब की/पंखुड़ियां/छूते ही बिखर जाती थी/कुछ खूबसूरत सी सुनहरी तितलियां/ मेरे आंगन में मंडराती थीं/एक वक़्त ऐसा था जब दुनिया की सारी रानाइयां/मेरे घर आती थीं।’ प्रेम-प्रसंग से इतर आसमान छू लेने की इच्छा व्यक्त करते हुए कवयित्री कहती है-‘बाबा मेरे/ नहीं करना ब्याह मुझे/मैं कालंबस की तरह/ दुनिया की सैर पर जाउंगी/ ना दो मुझे तुम दहेज/मत बनाओ जायदाद का हिस्सेदार/बस मुझे दे दो/ एक नाव/ज़िन्दा रहने भर रसद/ और ढेर सारी किताबें।’ इसी तरह जगह-जगह अच्छी कविताओं से सामना इस किताब में होता है। 160 पेज वाले इस पेपर बैक संस्करण को बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 120 रुपये है।
बदायूं, उत्तर प्रदेश की रहने वाली डाॅ. ऋचा पाठक वर्तमान समय में उत्तराखंड में अध्यापिका हैं। कहानी संग्रह पहले ही प्रकाशित हो चुका है, हाल ही ‘अंबेडकर आज भी’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में डाॅ. ऋचा पाठक ने देश के संविधान निर्माता डाॅ. भीमराव अंबेडकर की पूरी जीवनी को नए परिदृश्य में सफलतापूर्वक पेश किया है। प्रस्तावना, डाॅ. बीआ अंबेडकर का राजनीति में प्रवेश, डाॅ. अंबेडकर के राजीतिक विचार, डाॅ. अंबेडकर के समय की सामाजिक बुराइयां, अंबडेकर के धर्म विषयक विचार, अस्पृश्यता-निवाराण/चेतना व संघर्ष, डाॅ. अंबेडकर का आधुनिक भारत का सपना, उपसंहार,बाइबिलाग्राफी, और संदर्भ ग्रंथ सूची समेत दस खंडों में डाॅ. अंबेडकर के बारे में उनके एक-एक पहलू को रेखांकित किया है। अंबेडकर के अमेरिका में शिक्षा ग्रहण करने के हालत का वर्णन करते हुए बताया है -‘उन दिनों महाराजा सयाजीराव बंबइग् में थे और उच्च शिक्षा दिलाने के लिए कुछ विद्यार्थियों को अमेरिका भेजने की व्यवस्था कर रहे थे, इसी समय भीमराव अंबेडकर बड़ौदा में अपने निवास की समस्या लेकर पहुंचे कि उनको देखते ही महाराज ने पूछो- क्या तुम उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका जा सकोगे? उनके सहर्ष तैयार होते ही तीन साल के लिए ग्याहर पौंड मासिक छात्रवृत्ति मंजूर हो गई, जिसकी अवधि 15 जून 1913 से 16 जून 1916 तक थी। इसके बदले भीमराव को इकरारनामा लिखना पड़ा कि शिक्षा पूरी होने पर दस वर्ष बड़ौदा रियासत की नौकरी करेंगे।’ उनके राजनीति के प्रवेश का उल्लेख करते हुए इस पुस्तक में बताया गया है कि वे ज्योतिबा फुले, महादेव गोबिन्द रानाडे, जाॅन स्टुअर्ट मिल, माक्र्स और प्लेटो, अरस्तू आदि के विचारों से काफी प्रभावित रहे। राजनीति में आने के बाद दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहे। 206 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को आधारशिला प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 350 रुपये है।
मुंबई की रहने वाली डाॅ. सुमि ओम शर्मा ‘तापसी’ पेशे से चिकित्सक हैं, मेडिकल की चिकित्सा सेव के अलावा साहित्य और चिकित्सा की तमाम गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं। जिनमें स्लम में रहने वाले लोगों के लिए चेरिटेबिल क्लिनिक भी शामिल है। साहित्य में कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले दिनों इनका कहानी संग्रह ‘मातृछाया’ प्रकाशित हुआ है। 112 पेज वाले इस संग्रह
में कुल छह कहानियां शामिल की गई हैं। अधिकतर कहानियों में महिलाओं के परेशानियों, उनके हालात और उनके अनुभवों विभिन्न परिदृश्य में उल्लेखित किया गया है। पुस्तक की परिकल्पना में ‘दो शब्द’ के अंतर्गत लेखिका कहती है- ‘छोटे शहरों और देहात में तो नारी जीवन एक कसौटी पर सतत कसा जा सकता है। पुरुष प्रधान समाज उसे बराब कटघरे में खड़ा कर प्रताड़ित करता है। आज भी बाल विवाह, सतीप्रथा, अकेली रह गयी स्त्री को डायन घोषित कर देना... ये सब हमारे भारतीय समाज के माथे पर दाग़ है। पराश्रित, प्रताड़ित स्त्री कहां जाये? चारो ओर रक्षक ही भक्षक बने बैठे हैं।’ लेखिका के इस कथन से इनकी कहानियों के परिदृश्य का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इस सजिल्द पुस्तक को रचना साहित्य प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित किया है।
(गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2017 अंक में प्रकाशित)
1 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-05-2017) को
"मानहानि कि अपमान में इजाफा" (चर्चा अंक-2636)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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